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Tuesday, February 14, 2023

Farzi Web Series Review: द फैमिली मैन 3 से पहले यूनिवर्स में नए किरदारों की एंट्री

अतिरिक्त //

'फ़र्ज़ी' में एक सीन है. ओपनिंग क्रेडिट्स के बाद. सनी (शाहिद कपूर) पेटिंग बना रहा है किसी की. स्मॉल टाइम आर्टिस्ट है. एक कस्टमर खड़ा है. पूछता है - 

कस्टमर - ये वैन गॉग तेरी है क्या. कोई फर्क ही नहीं लग रहा है! Its too good. कितना लोगे? 

सनी - छह हज़ार 

कस्टमर - इतने में तो ओरिजिनल मिल जाएगी. सीधा भाव लगा न. मेरे हिसाब से इसके लिए हज़ार भी बहुत है.

सनी - असली कॉपी बनाने में भी कला लगती है सर. इग्जैक्ट रेप्लिका है.

कस्टमर - बकवास छोड़. है तो नकली ही ना. इसे मैं अपने घर पे लगाऊंगा, तो असली लगेगी? 

सनी - अगर आपकी औकात है सौ करोड़ की पेंटिंग घर में लगाने की तो असली लगेगी सर. (यहां आते आते लगने लगा कि कहीं ये कस्टमर इतनी बेइज्जती सुनकर सनी को थप्पड़ न मार दे)

भावार्थ -  ये बात सत्य है कि घर महल हो और वहां कोई नकली पेटिंग भी लगी हो तो वैल्यू 100 करोड़ ही मानी जाएगी. जैसे महलों सरीखे घरों में रहने वाले उद्योगपति कोई गलत काम नहीं करते. वे फर्जी भी होते हैं तो खरे ही सर्टिफाइड प्रतीत करवाए जाते हैं. उनके कम्युनिकेशंस डिपार्टमेंट द्वारा. कहीं न कहीं इस सीरीज के पहले एपिसोड के इस पहले सीन से ही सनी की मनोवृत्ति साफ हो जाती है. कि घर या बंगला औकात वाला हो तो आप फर्जी होकर भी फर्जी न होगे. इसीलिए आगे जाकर वो मिलावट का रास्ता लेता है, जाली काम का रास्ता लेता है. जिससे सोने का महल खरीदेगा और ऐसे महल में तो जाली से जाली चीज भी खरी ही लगेगी.  

Full Review here:


Saturday, December 17, 2022

Avatar The Way of Water Movie Review

जेम्स कैमरॉन पुराने प्रिय हैं. 2009 में पहली अवतार के वक्त भी उन्होंने अचरज में डाला था, इस बार फिर. ये भी हैरान करने वाली बात है कि कोई अपने जीवन के इतने अमूल्य वर्ष सिर्फ एक फ़िल्म या एक फ़िल्म सीरीज पर कैसे लगा सकता है? आखिर वो क्या चीज है जो ड्राइव करती होगी? पैसा? प्रसिद्धि? फिल्म आविष्कार? टॉप पर होने की हसरत? अमरत्व? जो भी वजह हो, वे लगा रहे हैं और भी समय. दुनिया की सिनेमा तकनीक में अवतार-2 कमाल की तब्दीलियां लाई है. सिनेमा को इसने अपनी थ्रीडी और मोशन कैप्चर तकनीक से इतना सक्षम किया है कि न जाने कितनी ही कहानियां कही जा सकती हैं, जो पहले मुमकिन न थीं. ख़ासकर यकीनी तरह से कह पाना. इसके इतर फ़िल्म अपनी लेखनी में औसत है. ये बात सिर्फ अवतार 2 पर ही लागू नहीं होती है, पूरा अमेरिकी फिल्म उद्योग ही इस चलन से ग्रस्त है. जैसे, इसकी पूरी फिल्ममेकिंग बड़ी सुव्यवस्थित और मैकेनिकल है, उसी तरह बीते काफी वक्त से इसकी तमाम फ़िल्म एक ही तरह के फ़िल्म लेखन से जूझ रही हैं. जिसे शायद जूझना मान भी नहीं रहे हैं. 

फ़िलहाल ये समीक्षा.

 "अवतार 2" / "अवतार द वे ऑफ वॉटर" रिव्यू - The Lallantop के लिए. 


Thursday, February 28, 2013

जॉन मैक्लेनः बच्चों की मृगमरीचिका और कातिलों का हीरो

जॉन मूर के निर्देशन में बनी डाई हार्ड सीरीज की पांचवीं फिल्म पर कुछ बातें...


“अ गुड डे टु डाई हार्ड” देखने के बाद जैसे ही बाहर निकला, मन किया शीशा तोड़ते हुए चौथे माले से नीचे चमचमाते मॉल में कूद जाऊं। नीचे जाते हुए स्लो मोशन शॉट बड़ा सम्मोहक होगा। जॉन मैक्लेन को पिछली चार फिल्मों से देखता आया हूं। बंदा हर बार बच जाता है। हर तरह की स्थिति में बच जाता है। इस फिल्म में शुरू के मुख्य लंबे चेस सीन में इतनी कारें (सुंदर-सुंदर रंगों वाली) कुचली जाती हैं, इतने पौराणिकतामय प्रभावी तरीके से उसका ट्रक और उसके दुश्मन रूसी दुष्टों का बड़ा ट्रक मॉस्को की छह-आठ लेन सड़कों पर कलाबाजियां खाते हुए गिरता है कि लगता है वह मर गया, मगर पता है कि नहीं मरा। मैक्लेन भला मर सकता है! वह पूरणमासी की किसी विशेष नक्षत्रों वाली रात में जन्मा था। कुछ-कुछ अपने ‘शिकारी’ गोविंदा की तरह। ऐसा नहीं है कि ऊपर से कूदने का विचार मैक्लेन को देख पहली बार आया है। पहले भी आया है। न जाने कितनी बार आया है। जब-जब कोई हॉलीवुड फ्रैंचाइजी देखी है, आया है। ‘द अवेंजर्स’ के वक्त, ‘हल्क’ के वक्त, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ के वक्त, ‘द बोर्न लैगेसी’ के वक्त, ‘रैंबो-4’ के वक्त, ‘द एक्सपेंडेबल्स’ के वक्त। हर बार इन जैसा हीरो बन जाने की भावना काबू से बाहर होती रही। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ देखी तो बेन बनना चाहा। स्टेडियम का वो दृश्य जहां वो भोला सा बच्चा “ओ से कैन यू सी, बाय द डॉन्स अर्ली लाइट...” गा रहा होता और हजारों दर्शक मैच शुरू होने का इंतजार कर रहे होते, मेरे आने से अनजान, फिर मैच शुरू होता, फील्ड विस्फोट से भरभराकर तबाह होती और मैं मास्क धरे प्रवेश करता। उफ... क्या सीन होता न। फिर उस खौफनाक आवाज में हजारों अमेरिकियों की सांसें अपरिमेय डर से रोक कर रख देता। मेरे होने का अहसास वहां होता, मैं हीरो होता, मैं फुटेज में होता। फिल्म देख पीवीआर से निकला तो लगा, छलांग लगाता हूं, जब बेन लॉजिकली योग्य है, ताकतवर है तो मैं क्यों नहीं। इस ख्याल को धक्का देने वाला वो ख्याल और तर्क था कि जैसे ही तुम छलांग लगाओगे तुम इतने स्मार्ट होवोगे कि कोई न कोई रस्सी, रेलिंग, पत्थर जरूर पकड़ लोगे और ढस्स से लैंड कर लोगे। ये ख्याल सुपर कमांडो ध्रुव की और डोगा कि कॉमिक्स पढ़ते हुए भी आते रहे हैं। वो हर महामानव और दुश्मन का सामना करते ही इतने सम्मोहक-साइंटिफिक तरीके से थे। कूदने का ये ख्याल ‘डाई हार्ड-5’ देखने के बाद और प्रभावी हो उठा, कि एग्जिट गेट के अंदर से भागते बाहर आऊं और वेव सिनेमा के चौथे माले से शीशा तोड़ते हुए कूद जाऊं, पॉन्टी चड्ढा और उसके भाई हरदीप के मर्डर केस की मौन गूंज भरे उस प्रांगण में मुझे कुछ न होगा। मैक्लेन बच सकता है तो मैं क्यों नहीं?
Bruce Willis in his character of John McClane, in a still from the movie.
मगर न जाने क्यों, भगवान ने मुझे हर बार सद्बुद्धि दी और शैतान को मेरे दिमाग पर कब्जा करने से रोका। शायद ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन क्या ऐसा हमेशा हो पाएगा। और क्या बच्चों के जेहन को हर बार ये समझ मिल पाएगी की वह बस एक फिल्म है। असली ब्रूस विलिस तो एक सीढ़ी के ऊपर से भी कार नहीं कुदा सकता फिर मॉस्को के उस ब्रिज से गाड़ी कुदा देना तो संभव ही नहीं है। क्या हर बच्चा जान पाएगा कि बेन की आवाज को हांस जिमर और क्रिस्टोफर नोलन ने कैसे विकृत करके बनाया और टॉम हार्डी उस भूमिका के उलट कितना सिंपल बंदा है।

फिल्मों का ये ही जादू होता है। ये हमें सपने देती हैं। किसी विशेष क्षेत्र में करियर बनाने का पुश देती हैं। निराशा के पलों के लिए सूत्रवाक्य देती हैं। दुख में गुनगुनाने के लिए गाने देती हैं। मगर जिस किस्म का मनोरंजन कुछ फिल्में देती हैं वो खतरनाक देती हैं। दिनों-दिन कुशल और प्रभावी होती तकनीक हर स्टंट को आसान और संभव दिखाती है। देख लगता है, हम भी कर सकते हैं। मुझे नहीं पता कि जेम्स होमर, बेन से कितना प्रभावित हुआ था, लेकिन उसके कर्मों में जोकर के अंश जरूर लगे जो कोई अलग बात नहीं है। ये बेन, जोकर, मैक्लेन सभी हिंसा के अलग-अलग प्रतिरूप हैं। कब परदे से दिमाग पर चढ़ जाते हैं पता नहीं चलता। क्या ऐसा मनोरंजन हम ज्यादा दिन चाह पाएंगे। इतने खून-खराबे भरे, रीसाइकिल होते, फ्रैंचाइजीनुमा ड्रामे क्या इतने जरूरी हैं हमारे लिए? क्या आप इनकी कीमत वहन कर पाएंगे? ये सवाल और बलवती हो उठे ‘अ गुड डे टु डाइ हार्ड’ देखकर।

बात करते हैं कहानी की।

मॉस्को, रूस से शुरू होती है। पूर्व अरबपति यूरी कोमोरोव (सबेश्चियन कोश) पर अदालती केस चलने वाला है। कभी उसके साथ मिल कर गैरकानूनी काम करने वाला और अब देश का डिफेंस मिनिस्टर विक्टर शगैरिन (सरगेई कोलिश्निकोव) अपने खिलाफ सबूतों वाली फाइल यूरी से चाहता है। मगर यूरी ऐसा नहीं करने के तैयार। इस मामले में जैक (जय कर्टनी) का प्रवेश होता है। वह कोमोरोव के किसी आदमी को गोली मार देता है, पुलिस गिरफ्तार कर लेती है, जेल में वह यूरी के खिलाफ गवाह बनने के तैयार हो जाता है। अब हम रूस से अमेरिका पहुंचते हैं। जॉन मैक्लेन (ब्रूस विलिस) नौकरी पर ही ध्यान देता रहा, कभी बेटे के साथ स्नेह भरा रिश्ता कायम नहीं कर पाया। जब उसे जैक की गिरफ्तारी का पता चलता है तो वह छुट्टी पर रूस जाता है। अदालत पहुंचता है तो वहां धमाके होते हैं। शगैरिन के आदमी यूरी को पकड़ना चाह रहे हैं तो सीआईए की ओर से काम कर रहा जैक यूरी से गुप्त फाइल लेकर उसे रूस से बाहर सुरक्षित निकलवाने के मिशन पर है। इसी बीच, सामने आ जाते हैं उसके डैड। पिता को फूटी आंख पसंद न करने वाला जैक अपने मिशन को जारी रखता है लेकिन धीरे-धीरे एक जासूसी एजेंट वाले उसके पैंतरे कमजोर पड़ने लगते हैं और डाई हार्ड सीरीज वाले जॉन मैक्लेन का महत्व बढ़ता जाता है। उसका अनुभव काम आता है।

फिल्म की बुनावट और मूड में जाएं तो कुछ चीजें नजर आती हैं। जब जॉन मैक्लेन के पहले दर्शन होते हैं तो उनके पीछे दीवार पर ओबामा की तस्वीर लगी होती है। ये बदले वक्त का पहला संकेत यूं होती है कि 1988 में सीरीज की पहली फिल्म आई तब से अब तक मुल्क के राजनीतिक हालात में एक व्यापक बदलाव हो चुका है (ये भी कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे के तले दूसरे मुल्कों से संबंध उतने बुरे नहीं हैं कि कोई विदेशी ताकत से पाला पड़े, इसीलिए फिल्म का नायक ही दूसरे मुल्क में चला जाता है, वहां के अंदरुनी मसले में टांग अड़ाने के लिए)। पुलिस स्टेशन में मैक्लेन है तो एक युवा अश्वेत साथी भी, वह उसे उसके बेटे जैक की जानकारी लाकर देता है। वह जॉन को कहता है, “तुम कैसे हो ग्रैंडपा (दादा)। ” इसके मायने ये हैं कि जासूसी से लेकर देश की रक्षा तक की जिम्मेदारी युवा पीढ़ी ने ले ली है, उसे घर बैठ आराम करना चाहिए। जो वह करना भी चाहता है। मगर अपने ‘007’ बेटे को बचाने उसे जाना ही पड़ता है। मॉस्को में टैक्सी में बैठा जॉन ट्रैफिक में फंसा है। ड्राईवर से पूछता है, “क्या ट्रैफिक के हाल यहां भी बुरे हैं?” ये भी एक वैश्विक महानगरीय समस्या है जो जॉन मैक्लेन के किरदार के अस्तित्व के वक्त से मौजूद है। पहले सिर्फ अमेरिकी महानगरों में थीं, अब अमेरिकी सांस्कृतिक और आर्थिक अतिक्रमण वाले हर मुल्क की समस्या है। इस फिल्म में शुरू में दिखाया जाता है कि जॉन हीरो बनने वाली स्टंटबाजियों को महत्व नहीं देता। लगता है पिछली चार डाई हार्ड फिल्मों से उसने सबक लिया है कि परिवार को वक्त देना कितना जरूरी था। वह कहता है, “मैंने सोचा कि हर वक्त काम करना एक अच्छी चीज थी।” लेकिन अब चाहता है कि वह और उसका बेटा अमेरिका लौट जाएं इस मिशन को छोड़कर और नए सिरे से परिवार की तरह रहना शुरू करें। साइंटिस्ट और अरबपति यूरी की कहानी भी जॉन की तरह समान लगती है कि उसने भी काम के चक्कर में अपनी बेटी को वक्त ही नहीं दिया।

आयरलैंड मूल के निर्देशक जॉन मूर की ‘फ्लाइट ऑफ द फीनिक्स’ मुझे भाई थी, ये फिल्म कमजोर है। इसे सीरीज की पांचवीं फिल्म होने की अति-उम्मीदें मार जाती हैं। पिछली फिल्मों से ज्यादा धाकड़ बनाने के चक्कर में सारा ध्यान अमानवीय एक्शन और स्टंट पर चला जाता है जो आंखों की पुतलियों को कलाबाजियां खिलाता है, पर फिल्म खत्म होने तक वो सुगढ़ अनुभव नहीं देता जैसा 1988, 95 और 99 में आई तीनों शुरुआती फिल्मों ने दिया।

इस फिल्म में अमेरिकी फिल्मों के पसंदीदा और पारंपरिक शत्रुओं पर लौटा गया है। पहली डाई हार्ड में जर्मन आतंकियों ने लॉस एंजेल्स की नाकाटोमी प्लाजा बिल्डिंग को कब्जे में ले लिया था। दूसरी में एक लातिन अमेरिकी तानाशाह को छुड़वाने की कोशिश हुई। तीसरी फिल्म में फिर जर्मन कनेक्शन था और चौथी में एक अमेरिकी ही साइबर आतंकी बनकर उभरा। इस फिल्म में दुश्मन हैं रूसी। लेकिन यहां उनके मुल्क में जाकर हीरो बनने के चक्कर में चर्नोबिल विभीषिका का एंगल घुसाया गया है। दिखाया जाता है कि यूरी और मिनिस्टर के यूरेनियम साइड रैकेट से ये हादसा हुआ। ये अमेरिकी एंटरटेनमेंट का दावा है जबकि चर्नोबिल नरसंहार और भोपाल गैस त्रासदी की तमाम तथ्यपरक चीजें पब्लिक स्पेस में उपलब्ध हैं... वो फैक्ट इतने नाटकीय और सीधे नहीं हैं जितना यहां फिल्म बना देती है। जॉन और जैक चर्नोबिल की इमारत के अवशेष देख बात करते हैं, “ये तुम्हें किसकी याद दिलाता है?”, “नेवार्क”, …नेवार्क दरअसल अमेरिका में परमाणु संयंत्र का एक केंद्र है... क्या डायरेक्टर जॉन मूर कुछ कहना चाहते हैं यहां?

यहां रूसी-अमेरिकी वाले फंडे को देख ये सवाल भी उठता है कि हमेशा मैक्लेन जैसे अमेरिकी नायक ही क्यों हीरो हो जाते हैं?

इसमें उल्टा भी तो हो सकता है...

हो सकता है किसी रूसी का बेटा वहां की गुप्तचर संस्था केजीबी की ओर से काम करे और किसी अमेरिकी यूरेनियम वैज्ञानिक को अमेरिका से हिफाजत सहित बाहर निकालने की बात कहे और शर्त रखे कोई फाइल मांगने की। उसके इस मिशन के बीच उसका रूसी पिता आ जाए जो वहां के पुलिस विभाग का बड़ा काबिल अधिकारी रहा है, एटिट्यूड वाला है। वह अलग-अलग मौकों पर रूस में अपना हीरोइज्म साबित कर चुका है। अब वह अपने बेटे के साथ वक्त बिताना चाहता है, उन दिनों की भरपाई करना चाहता है जब वह काम की वजह से उसके साथ वक्त न बिता सका। पर यहां मामला उल्टा पड़ जाए। कोई साजिश निकल आए। अब वो अमेरिका की सड़कों पर स्टंट करते गाड़ियां दौड़ा रहे हैं। फिल्म के आखिर में वो लोग हिफाजत के साथ रूस आ जाते हैं और अमेरिका में बड़े बम-वम फोड़ आते हैं। हमें ये कहानी हजम क्यों नहीं हो सकती?

या फिर बॉर्डर फिल्म का वो संवाद जहां पाकिस्तानी फौजी अधिकारी भारतीय को ललकारते हुए कहता है, “कुलदीप सिंह, तेरी मौत दे फरिश्ते तेरे दरवाजे ते खड़े ने, या ते अपने बंदेयां समेत सिर ते हाथ रखकर बाहर आ जा, या ते फिर अपनी अंतिम अरदास पढ़ लै।” जवाब में मेजर कुलदीप सिंह कहता है, “ओए तू गुलाम दस्तगीर है ना, लाहौर दा मशहूर गुंडा, गंदे नाले दी पैदाइश। ऐ तां वक्त ही दस्सेगा कि मेरी अंतिम अरदास हुंदी है या फिर तेरा इल्लाह पढ़ेया जांदा है। हुण तू इक कदम वी बाहर निकल्या तां मैं तैनूं उसी गंदे नाले विच मार सुट्यांगा जित्थों तू आया सी।” ये संवाद हमें उल्टा क्यों नहीं हजम हो सकता? जहां पाकिस्तानी अधिकारी किसी भारतीय किरदार को मेरठ के चौराहे का गुंडा बोल दे। क्यों कोई पाकिस्तानी सैनिक हीरो नहीं हो सकता? उसका हीरोइज्म कम क्यों है? कोई सनी देओल पंप उखाड़ अपनी सकीना को सरहद पार ले आता है, ऐसा कोई पाकिस्तानी करे तो, किसी दिव्या पांडे को पाकिस्तान ले जाए तो।

क्यों हीरो हमेशा जनता की नजरों में एक ही तरह के होते हैं? और क्यों दुश्मन भी एक ही तरह के? ये मनोरंजन का दरअसल सूत्र बन चुका है। तय सूत्र। जैसे अमेरिकी कहानियों में विलेन एक ही तरह के होने लगे हैं। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में नक्सली और जूलियन असांजे जैसे अपराधी हैं, वही सीआईए जब पाकिस्तान में जाकर ओसामा के खिलाफ बड़ा ऑपरेशन कर आता है तो अमेरिकी बुरे नहीं बनते। उनकी इमारतों में दो प्लेन घुस गए तो वो नाराज हो गए। उन्होंने अपने यहां की हथियार कंपनियों के अरबों डॉलर का आयुध अफगानिस्तान-ईराक में उड़ेल दिया तो जवाबी प्रतिक्रिया में उन मुल्कों के लोगों को भी तो अमेरिका आकर अपना हीरोइज्म दिखाने दो! असल में न सही, मनोरंजन में ही सही। जिसका गन्ना उसकी गंडेरी वाली बात भी तो नहीं है न यहां। यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस है और सारे बड़े लट्ठ धन्ना सेठ अमेरिका के पास हैं।

इस लिहाज से अभी तक सिर्फ जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ में और नील ब्लूमकांप की ‘डिस्ट्रिक्ट-9’ में ही कुछ नयापन दिखा है। ‘अवतार’ में नक्सली या आदिवासी प्रतिरोध का समर्थन दिखता है। मूल निवासियों की निजता और रिहाइश में सेंध न लगाने का संदेश मिलता है। अन्यथा कुछ नहीं है। कैथरीन बिगलो ने भी ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी जेल शिविरों में दी जाने वाली यंत्रणा की आंशिक तस्वीर ‘जीरो डार्क थर्टी’ में दिखाई है, वह भी हदों में रहते हुए।

जॉन मैक्लेन तो यहां खुले तौर पर अपने बेटे से कहता है, “लेट्स किल सम...”

वैसे ये क्या बात हुई? ऐसे कैसे, किल सम...? 

A Good Day to Die Hard/Die Hard-5 is the fifth from the series which began in 1988. The central character of the movie, a New York City police detective John McClane (Bruce Willis), this time goes to Moscow to find and help his wayward son Jack (Jai Courtney). John doesn't know that his son is a CIA operative and is on a mission there. Russian underworld is pursuing him and a nuclear weapons heist is coming their way. Director of the movie is John Moore, whose 'Flight of the Phoenix' I liked when I saw first.
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Tuesday, January 29, 2013

वॉलबर्ग का टाइमपास बामः ब्रोकन सिटी

In a still from movie, Russell Crowe, Carl Fairbanks and Mark Wahlberg.
‘बुक ऑफ इलाय’ देखी है?

ज्यादा संभावना है कि देखी होगी। ह्यूजेस भाइयों (एलन और एल्बर्ट) ने जितनी भी फिल्में बनाईं, उनमें विश्वयुद्ध के बाद खंडहर हो चुके स्याह अमेरिका के पश्चिमी तट तक एक रहस्यमयी किताब पहुंचाने को निकले फक्कड़ योद्धा इलाय (डेंजल वॉशिंगटन) की कहानी ही सबसे सरस है। सरस, मनोरंजन के पैमानों पर। ऐसी फिल्म जिसे सौ में से निन्यानवे फिल्मी नशेड़ी लगाकर देखना चाहेंगे। नीयाम लीसन की ‘टेकन’ जैसी, या सूर्या की ‘सिंघम’ जैसी। टाइमपास करवाने की आश्वस्ति देती। दोनों भाइयों ने दीर्घकालिक प्रासंगिकता वाली ‘मैनेस 2 सोसायटी’ और ‘अमेरिकन पिंप’ भी बनाईं, मगर उनके बारे में जानकारी कम है। फिलहाल दोनों अलग निर्देशन करते हैं, पर रचनात्मक जुड़ाव बना हुआ है। एलन से कुछ मिनट छोटे एल्बर्ट अपनी नई फिल्म लाए हैं। नाम है ‘ब्रोकन सिटी’। मार्क वॉलबर्ग और रसल क्रो की प्रमुख भूमिकाओं वाली ये फिल्म ‘बुक ऑफ इलाय’ वाले मनोरंजन की परंपरा पर ही बनी है। आप निस्संदेह देख सकते हैं। जाहिर है कसरें भी निकाल सकते हैं, पर व्यापक दर्शनीयता की योग्यता इसमें है। फिर वॉलबर्ग तो इसमें हैं ही। पिछली फिल्म ‘कॉन्ट्राबैंड’ में भी वॉलबर्ग की इस टाइमपास फिल्मों वाली उस्तादी का जिक्र हमने किया था।

ब्रोकन सिटी, न्यू यॉर्क सिटी है। ये शहर टूटा हुआ है, पर क्रिस्टोफर नोलन की बैटमैन फिल्मों (बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट, द डार्क नाइट राइजेज) जैसा नहीं। ये टूटन किरदारों की जिंदगी में है और एक धांधलेबाज मेयर के उन दावों में है जो वह शहर व लोगों की भलाई के लिए करता आ रहा है। और ज्यादा गहराई में जाकर कोई मायने ढूंढकर नहीं ला सकते। इसके अलावा एल्बर्ट ह्यूजेस की इस फिल्म को बस सीधे तरीके से देखने और अपने किस्म का आनंद उठाने की जरूरत है।

बिली टैगर्ट (वॉलबर्ग) से कहानी शुरू होती है। न्यू यॉर्क पुलिस का यह अधिकारी एक रात एनकाउंटर करता है। इस विवादास्पद शूटिंग पर बहुत शोर मचता है, अदालत में मामला चलता है, बिली की वर्दी छिन जाती है। उसे जेल भेजने की बात भी होती है पर शहर का मेयर निकोलस होस्टेटलर (रसल क्रो) उसे बचा लेता है। वह बिली को कहता है कि “तुम मेरी नजर में एक हीरो हो”। खैर, कुछ सात वर्ष बीत जाते हैं। अब उसका जीवन कुछ व्यवस्थित है। उसकी गर्लफ्रेंड नैटली (नैटली मार्टिनेज) एक इंडिपेंडेंट फिल्म में काम कर रही है, करियर बनाने में लगी है, उसके परिवार पर बिली के बड़े एहसान हैं। बिली अपनी जासूसी एजेंसी चलाता है। उसकी असिस्टेंट भी है, केटी (एलोना टैल)। वह फिल्म में एक ताजगी लाती है। शादी से बाहर लोगों के रिश्तों की फोटो खींचकर और जासूसी करके बिली गुजारा कर रहा है, हालांकि उसके क्लाइंट उधारिए ज्यादा हैं, इससे उसके पैसे अटके पड़े हैं। यहीं एक दिन उसके दफ्तर में आता है मेयर का फोन। उसने बिली को बुलाया है। बिली जाता है। चुनाव की सरगर्मियां हैं और वह उसे एक अलग काम सौंपता है। होस्टेटलर कहता है कि उसकी बीवी कैथलीन (कैथरीन जेटा-जोन्स) का किसी के साथ अवैध संबंध है, पता लगाओ की वह कौन है।

ये वो वक्त है जब चुनाव में खिलाफ खड़ा बड़ा कारोबारी जैक वैलिएंट (बैरी पेपर – सेविंग प्राइवेट रायन, द ग्रीन माइल) पब्लिक डिबेट में आरोप लगाता है कि होस्टेलर 30,000 शहरियों को बेघर कर 4 अरब डॉलर का घोटाला करने की योजना बना रहा है। बिली ऐसे चुनावी मौसम और इन खबरों के बीच ये नहीं सोचता कि इतना तिकड़मबाज और कुटिल होस्टेटलर भला अपनी बीवी के कथित नाजायज संबंधों को जानने में रुचि क्यों दिखाएगा। मगर नहीं, बिली जांच शुरू करता है तो कैथलीन की। मेयर इस काम के उसे 50,000 डॉलर देता है। वह बड़ा खुश होता है, जासूसी करता है, पता लगाता है और मेयर को बताता है। पर ये सीधी दिखती लड़, कुछ पेंच लिए है। ये पेंच फिल्म देखने तक बचाकर रखें। देखें। टेलीविजन रिलीज भी जल्द हो सकती है, तब भी देख सकते हैं।

(Broken City is a political thriller directed by Albert Hughes of the Hughes brothers. In the movie, ex-cop and private eye Billy is hired by incumbent Mayor Nicholas Hostetler to investigate his unfaithful wife. Billy takes the job, only to get into a big trouble. The movie stars Mark Wahlberg, Russell Crowe, Natalie Martinez, Catherine Zeta-Jones, Jeffrey Wright, Kyle Chandler, Barry Pepper.)
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Saturday, January 26, 2013

पेश-ए-नज़र है, पंजाबी सिनेमा से ‘साड्डी लव स्टोरी’...

अगर मैं बच्चा होता तो धीरज रतन की बनाई ये पंजाबी फिल्म मेरे बचपन की मनोरंजक फिल्मों में से एक बनती, इसके गानों पर मैं उछलता-कूदता, अमरिंदर और दिलजीत मेरे पंसदीदा फिल्म स्टार हो जाते, सुरवीन और नीतू की खूबसूरती मेरे सपनों की फैंटेसी बनती। मगर अफसोस, मैं बच्चा नहीं हूं।


इससे पहले धीरज रतन ने ‘धरती’, ‘मेल करादे रब्बा’, ‘जिने मेरा दिल लुटेया’, 'तौर मितरां दी' और ‘जट एंड जूलियट’ जैसी हालिया पंजाबी फिल्मों (इन्हें इस वक्त की प्रमुख फिल्मों में गिन सकते हैं) की कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। निर्देशक के तौर पर ‘साड्डी लव स्टोरी’ उनकी पहली फीचर फिल्म है, जो उन्होंने लिखी भी है। कहानी एक लव स्टोरी और उसके अलग-अलग संस्करणों की है। गुरलीन (नीतू सिंह) एक एक्सीडेंट के बाद कोमा में चली गई है। अब दो युवक (अमरिंदर गिल और दिलजीत दोसांझ) उसके घर पहुंचते हैं और कहते हैं, उनका नाम राजवीर है और गुरलीन उनसे प्यार करती थी। घरवालों (सुरवीन चावला, कुलभूषण खरबंदा, डॉली आहलूवालिया, नवनीत निशां, मुकेश वोहरा) में उलझन है, क्योंकि गुरलीन ही बता सकती है कि असली राजवीर कौन है। घरवाले दोनों से उनकी लव स्टोरी पूछते हैं और अंत में जब गुरलीन को होश आता है तो भेद खुलता है। कहानी के स्तर पर यहां कुछ भी अनोखा नहीं है, प्रस्तुति और संपादन के स्तर पर कुछ नया करने की कोशिश की गई है, मगर बहुत उत्साहकारी फिल्म नहीं है। मौलिकता के लिहाज से महत्वाकांक्षी होकर कहूं तो जरा भी नहीं। दो-तीन बातें हैं जो फिल्म को आकर्षक बनाती हैं।
Seen in the still from Saadi Love Story, Amrinder Gill, Surveen Chawla and Diljit Dosanjh.
पहला, संगीत। इसमें जयदेव कुमार (दिल लै गई कुड़ी...) ने दिया है। ये सिर्फ इस फिल्म की ही बात नहीं है, तकरीबन हर पंजाबी फिल्म में अभी मजबूत म्यूजिक आ रहा है। मजबूत माने, जो कहीं से बासी न लगे, बांधे रखे और न चाहते हुए भी थिरका दे। जितनी मेहनत या प्रतिभा पंजाबी सिनेमा में संगीत के स्तर पर है अभी, यहां फिल्ममेकिंग के स्तर पर नहीं है, पर वहां पहुंच रहे हैं। दूसरा, अभिनय। दिलजीत दोसांझ ने कहीं से अभिनय सीखा है ये ज्ञात नहीं है, वह मूलत: गायक हैं (देखें, नानकी दा वीर, ट्रक, 15 सालां तों, रेडियो, पंगा, खड़कू ) और यहां यही चीज फायदेमंद है। वह प्राकृतिक होकर जो भी लाइन हो, बोलते हैं। इससे अभिनय न कम रहता है न ज्यादा जाता है। उनके कंठों में स्वर फेंकने की चपलता है। पंजाबी बोली हो और ऐसे डायलॉग तुरत फेंके जाएं और सीधे इमोशंस रखें तो हास्य पैदा हो जाता है। यही दिलजीत और अमरिंदर (साफ सुथरी छवि वाले लोकप्रिय गायक, देखें चन दा टुकड़ा या यारियां) करते हैं। हालांकि दोनों ही पेशेवर अदाकार नहीं हैं। पेशेवर तो जिमी शेरगिल को छोड़कर फिलहाल पंजाबी सिनेमा में कोई मुख्य अदाकार नहीं है। सब गायकी से ही आए हैं। सुरवीन चावला या नीरू बाजवा जैसी अभिनेत्रियां जरूर अपने अभिनय में बहुविधता ला सकती हैं। कूलभूषण खरबंदा और डॉली आहलूवालिया (विकी डोनर) जैसे चरित्र किरदारों की मजबूती तो फिल्म की नींव में लगी ही होती है। मगर हीरो लोगों के लिहाज से यहां पर धीरज जैसे निर्देशकों का काम बढ़ता है, क्योंकि फिर उन्हें सिंगर से एक्टर बने हीरो के लिए बेहद प्राकृतिक किरदार लिखने पड़ते हैं। ‘साड्डी लव स्टोरी’ में देखें, तो एक भी गहन भाव वाला दृश्य दोनों हीरो के लिए नहीं लिखा गया है। बस सीधे-सीधे दृश्य हैं, जिनमें माहौल, डायलॉग और निर्देशकीय प्रस्तुति से काम चल जाता है, बस हीरो को फ्रेम में खड़े होकर भीतर से निकलते प्राथमिक भावों में अपनी पंक्तियां बोल देनी होती हैं। फिल्म में एक भी अभिनय भरी चुनौती वाला दृश्य नहीं है जो दोनों हीरो के हिस्से आया हो। उस मामले में सुरवीन, खरबंदा और डॉली संतुलन बिठाते हैं।

जो तीसरी और आखिरी बात मुझे सबसे राहत भरी लगी वो थी हॉकियों से पीछा छूटना। जब 2010 में धीरज की ही लिखी ‘मेल करादे रब्बा’ आई थी तो उसमें जिमी शेरगिल के हीरो वाले टशन हॉकी लेकर दूसरे कॉलेज के लड़कों/गुंडों को पीटते रहने के आधार पर ही खड़े किए गए थे। पूरी फिल्म में कहीं भी हॉकी के उस हिंसक प्रयोग को गलत नहीं बताया गया, बल्कि फिल्मी मनोरंजन वाली शर्त तले न्यायोचित ठहराया जाता रहा। आखिर में लगा कि फिल्म खत्म हो रही है, अब तो कुछ सेंस डाला जाएगा, पर वहां आते हैं दिलजीत दोसांझ, अतिथि भूमिका में, हाथ में हॉकी थामे। उनके प्रवेश पर गुमराह बैकग्राउंड गीत ‘देख लो पंजाबी मुंडे किद्दा रौला पौंदे...बोतलां दे...’ बजता चलता है। वह जिमी (साथ में नीरू बैठी होती हैं) के किरदार से कहते हैं, "मेरा पढ़-लिखकर कुछ हुआ नहीं इसलिए तेरी तरह मैंने भी हॉकी हाथ में ले ली"। यहां बहुत से युवा दर्शकों को एक खास तरह का संदेश जाता है। कहने को कहा भी जा सकता है कि दिलजीत हॉकी प्लेयर बनने के संदर्भ में बात कर रहे हैं, पर पूरी फिल्म में जिमी के किरदार ने हॉकी का जैसा इस्तेमाल किया है उसके उलट कोई दूजा संदर्भ आ भी कहां से सकता है। खैर, हम बात ये कर रहे थे कि ‘साड्डी लव स्टोरी’ में कम से कम पंजाबी सिनेमा के बहुतेरे अपराध-उत्प्रेरक स्टीरियोटाइप नहीं हैं। इसलिए इतनी मनोरंजन न लगने के बावजूद मैं इसे अच्छी फिल्म कहूंगा। फिल्म कई मामलों पर कमजोर है पर अंत में भी एक भलाई वाला संदेश दिया जाता है।

देखते हुए फिल्म को मैं यूं अनुभव करता गया।

क्रेडिट्स के साथ ये गाना शुरू होता है...
नैणा ने छेड़ी ए खाबां दी गिटार,
बदलां दे रोड़ उत्तों जाणा अंबर पार...
गूंजेगी जहान विच
सारे असमान विच
दिल दे माइक उत्ते, धड़कन दी ही रफ्तार
ऐ ही ए साड्डी लव स्टोरी मेरे यार...

स्पष्ट, सुंदर, संप्रेषक। अच्छा लिखा गया। विजुअल भी साथ चलते हैं। सबसे पहले प्रीति बनी सुरवीन चावला नजर आती हैं। एक स्टेप में वह हाथ ऊपर करती हैं, तो उनकी बगल में उगे बाल नजर आते हैं। लगता है संपादक मनीष मोरे (तेरे नाल लव हो गया, मिट्टी वाजां मारदी, दिल अपना पंजाबी, मेल करादे रब्बा, तेरा मेरा की रिश्ता, धरती, जिने मेरा दिल लुटेया, जट एंड जूलियट) ने ध्यान क्यों नहीं रखा होगा, बड़ी स्क्रीन पर संपादन करते हुए भी। अब मेरे अवचेतन में संदर्भों की दूसरी परत चल रही होती है। उसमें रोजमर्रा के वायुमंडल में हावी होता फैशन, धन, फॉर्म्युला और वैचारिक मंदबुद्धि है। मुझे यूं देखने की जरूरत ‘सेटनटैंगो’ और ‘द टुरिन हॉर्स’ में बेला टार के काले, कीचड़ में भरे, गीले, धंसते, नैराश्य में तर, जड़, बंजर, काल-कवलित होते और चनखनाती गर्म हवाओं के सामने भुनते लोकों और वहां कपड़े गीले कर-कर के अपनी जांघें और बगलें पोंछती महिलाओं के लिए नहीं पड़ी। अगर ‘साड्डी लव स्टोरी’ की दूसरी अभिनेत्री नीतू सिंह पर ही आएं तो नैतिक-पुलिस वाला दंभ लिए वो ऊंचे दर्शक उसे ‘गिद्दे च लालटेण नचदी’ गाने में लाल भैंस कहते हैं। यहां सोसायटियों में शरीर के पसीने की गंध डियो से ढकने के बाद और देह के बाल बिल्कुल साफ करने पर ही असभ्य सभ्य हो पाता है। कितना अचरज भरा है कि इसी भौतिक सोच वाली आधुनिक प्रजाति के ठीक सामने बड़ा वर्ग उन मूल पंजाबियों का है जो गुरु ग्रंथ साहिब की दी हुई मौलिकता लिए हुए हैं, केश सहित, मेहनतकश शरीर से निकलने वाली पसीने की गंध सहित और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के भान सहित। मगर बड़ी तेजी से पहली तरह के पंजाबी बढ़ रहे हैं, दूसरी तरह के बीतती पीढ़ी हो रहे हैं। एटिकेट्स एक धोखे की तरह हैं, जो हमें ब्रिटिश रॉयल्टी से ताल्लुक रखने वाले किन्हीं हिज हाइनेस या हर हाइनेस के शेव किए पपी बनाते हैं। मगर बड़ी तेजी से हम बनना चाहते हैं और बन रहे हैं। सुरवीन चावला की बगल के वो एक-दो दिन पुराने बाल मुझे एहसास दिलाते हैं कि वो दो सेकेंड का दृश्य देख कितनों ने आंखें मीच ली होंगी, जैसे चाचा के कच्छे जैसे शब्दों पर ओ गॉड कहते हुए कॉमेडी सर्कस में अर्चना पूरण सिंह मीच लेती हैं। ये जो ऐसे मौकों पर भीतर का महानगरी या आधुनिक-विकसित-मेट्रोसेक्सुअल प्राणी जाग जाता है न, अपने तय ब्रैंड और प्रॉडक्ट लिए, ये कुछ दशकों या सदियों में फिर से जंगलों में जाएगा, देह पर बाल उगाएगा, मगर उससे पहले अपनी खतरनाक प्रवृति से बड़ा नुकसान करवाएगा।

अवचेतन में जब ये हरा और थका देने वाला रैप खत्म होता है तो क्रेडिट्स पर फिर ध्यान जाता है। इस वक्त लिप सिंक गड़बड़ा रहा होता है। बज रहे गाने और हिल रहे होठों में अंतर आ रहा होता है। एक जगह तो ये भी होता है कि नीतू सिंह नाचते हुए गा रही होती हैं और मर्द आवाज में गाना सुनाई दे रहा होता है। अमरिंदर के पीछे विदेशी लड़कियां नाच रही होती हैं। ये विदेशी बैकग्राउंड डांसर्स वाला जो सूत्र है पंजाबी वीडियो और फिल्मों में, बड़ा खौफनाक सा है। इतना सम्मोहन शायद ही गोरी चमड़ी के लिए विश्व के किसी और मुल्क में होगा, जितना हमारे यहां है। अब अमरिंदर को फैशन फोटोग्राफर स्थापित करना है तो पांच-छह विदेशी लड़कियों को खड़ा कर दिया जाता है। वे हिल रही होती हैं, और वह गा रहा होता है ‘ऐ ही है साड्डी लव स्टोरी मेरे यार’। दावे से कह सकता हूं कि देसी कुड़ियां भी होतीं तो उसका फोटोग्राफर होना स्थापित हो जाता। दिलजीत रॉकस्टार की तरह नीचे माथा झटक-झटक कर निभा रहे होते हैं। खैर, ये खत्म होता है, फिल्म शुरू होती है।

बराड़ साहब (कुलभूषण) घर के मुखिया हैं। बाकी सदस्य हैं मिसेज बराड़ (डॉली), उनकी बेटी (नवनीत निशां), नातिन प्रीति (सुरवीन) और पोती गुरलीन (नीतू)। गुरलीन पंजाब यूनिवर्सिटी (चंडीगढ़) के एक कॉलेज में पढ़ रही है। घरवाले विक्रम (अतिथि भूमिका) से उसका रिश्ता तय कर देते हैं। ये बताने के लिए उसके कॉलेज पहुंचते हैं तो वह कहती है कि वह राजवीर से प्यार करती है और उससे शादी करेगी। वह राजवीर के साथ मिलकर बिजनेस करना चाहती है और उसके लिए 40-50 लाख रुपये मांगती है। बराड़ साहब मना कर देते हैं (गुरलीन के पिता और बराड़ के बेटे ने बिजनेस में घाटा खाने की वजह से आत्महत्या कर ली थी)। इस पर प्रीति (सुरवीन) अपने नाना को मनाती है कि “दीदी अगर करना चाहती है बिजनेस जीजाजी के साथ तो प्लीज उन्हें पैसे दे दो न”। एक बहन के लिए दूसरी का घरवालों को मनाना यहां मुझे भोजपुरी फिल्म ‘तोहार नइके कवनो जोड़, तू बेजोड़ बाड़ू हो’ की याद दिला देता है। उसमें एक बहन अपनी मर्जी के लड़के से लव मैरिज करना चाहती है पर पिता मना कर देते हैं तो ममेरी बहन घरवालों को मनाती है। खैर, बराड़ साहब प्रीति के समझाने पर मान जाते हैं। फोन पर वह ये खबर गुरलीन को देती है तो बेहद खुश गुरलीन घर लौटती है, रास्ते में उसकी गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाता है। सब अस्पताल पहुंचते हैं। डॉक्टर कहता है कि वह कोमा में चली गई है। घरवाले मायूस घर आते हैं। फिर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘जागीरदार’ लिखी जीप में राजवीर (अमरिंदर) आता है। कहता है कि वह गुरलीन का राजवीर है। सब उसकी कहानी सुनते हैं, वह सुनाता है। फिर उसे घर में ठहराया जाता है। घरवाले गार्डन में आकर बैठते हैं कि एक बुलेट उसी जीप के पास आकर रुकती है। कंधे पर बड़ा सा गिटार (क्लीशे) लिए दूसरा राजवीर (दिलजीत) आता है। वह भी कहानी सुनाता है। इसे भी ठहराया जाता है। अब घरवाले दुविधा में हैं और दोनों में झूठा कौन है समझ नहीं पा रहे। इंतजार है गुरलीन के जागने का। तो कहानी आगे चलती है, सुनाने की सीमा यहीं तक की है।

दिमागी तहों में कुछ और चीजें कहानी के दौरान चलती हैं:
  • राजवीर बने दिलजीत के कमरे की दीवारों पर गुरदास मान और कुलदीप माणक की तस्वीरें लगी होती हैं। ये दोनों ही पंजाबी गायक असल में भी दिलजीत दोसांझ के आदर्श हैं।
  • क्या ‘लालटेण’ जैसे गाने के निर्माण का आधार ‘फेवीकॉल’ और ‘झंडू बाम’ जैसे हिंदी गाने हैं?
  • राजवीर एक क्लब में गिटार बजाता है और गाता है। लालटेण गाने में जब वह नाच रहा होता है तो पीछे स्क्रीन पर ‘वीएच1’ चैनल चल रहा होता है। क्षेत्रीय म्यूजिक चैनल तो हालांकि ‘पीटीसी’ और ‘एमएच1’ हैं, पर अंतरराष्ट्रीय ‘वीएच1’ का चलना म्यूजिक कल्चर और तय हो चुकी दिशा को दिखाता है।
  • पैट्रोल पंप पर राजवीर और गुरलीन में उलझन हो जाती है कि 100 रुपये तेल के किसने चुका दिए हैं? झगड़े के बाद दोनों 50-50 का तेल भरवा लेते हैं। अगली सुबह राजवीर (दिलजीत) को पता चलता है कि वह रुपये तो उस लड़की के थे। वह अपनी बुलेट ले निकलता है गुरद्वारे चढ़ाने। वहां बाहर आइसक्रीम की गाड़ी पर बहुत से बच्चे दिखते हैं तो उन्हें आइसक्रीम खिलाने के लिए वो रुपये दे देता है। मगर मुड़ता है तो गुरद्वारे से निकल रही गुरलीन दिखती है। वह बच्चों से रुपये ले उसके पीछे जाता है। बाद में होता ये है कि पचास रुपये देने के बाद दोनों एक रेस्टोरेंट में जाते हैं वहां शेक और जूस ऑर्डर करते हैं। बिल बनता है लगभग 300 रुपये का। क्या ये फिल्मों का पुराना क्लीशे नहीं है कि 50 रुपये के पीछे 300 रुपये खर्च हो जाते हैं? न जाने क्यों, अजीब लगता है।
  • घर की बच्ची (गुरलीन) कोमा में है, अस्पताल में पड़ी है, लेकिन घर में उस किस्म की टेंशन नहीं है। सुरवीन सपनों में खोई दीवानी सी अपने कथित जीजाजियों से उनकी और दीदी की लव स्टोरी सुनाने की रिक्वेस्ट करती रहती हैं। दादी और सासू भी अपने-अपने फ्यूचर जमाइयों को खिलाने, पिलाने, दुलारने में लगी रहती हैं। कहीं कोई दुखी नहीं है। बस एक कुलभूषण खरबंदा के चेहरे पर गुस्सा या चिंता रहती है, जो उनका चारित्रिक गुण ज्यादा लगता है और गुरलीन की तबीयत की चिंता कम।
  • और तो और प्रीति के बर्थडे पर बड़ी आलीशान पार्टी मनाई जाती है, खूब नाच-गाना होता है। ‘टेंशन नी लेणी सोणिए...’ संभवत: फिल्म के सबसे कमजोर क्षणों में से एक है।
  • ‘कोठी वी पवा दूं, तेनू सोने विच मड़वा दूं...’ ये लब भारत की क्षेत्रीय पारंपरिकता से आते हैं। जैसे, राजस्थान में ‘बींटी’ (अंगूठी) और ‘कांगसियो’ (कंघा) जैसे लोकप्रिय गाने हैं, जो हार्मोनियम और ढोलक लेकर ढोली गाते रहे। आज भी गाए जाते हैं। इनमें नायिका या तो इन चीजों को बनवाने या दिलवाने की मांग पूरे गाने में रोमैंटिक तरीके से पिया से करती है या फिर सैंया खुद उसे मनाते हुए, रिझाते हुए इन चीजों को ला देने की बात हीरोइन से कह रहे होते हैं।
  • कहानी की प्रस्तुति थोड़ी दुहराव भरी है। पहले लव स्टोरी 1 होती है, फिर लव स्टोरी 2, फिर रीकैप 1, फिर रीकैप 2, फिर इंटरवल के बाद इंटरवल से पहले का रीकैप और उसके बाद दोनों कहानियां गलत साबित होने पर दोनों लव स्टोरी पर क्रॉस मार्किंग। ... चूंकि चीजें लौट-लौटकर आती हैं इसलिए ये प्रारूप नयेपन को खत्म करता है। ऐसा भी लगता है कि विषय-वस्तु कम थी और कहानी में चिपकाव कम था जिसे बढ़ाने के लिए इस भटकाव को दोहराया गया। नतीजतन फिल्म खिंच गई।
मैंने शुरू में मौलिकता के लिहाज से महत्वाकांक्षी न होने की बात इसलिए भी कही क्योंकि ‘साड्डी लव स्टोरी’ हमने पहली बार नहीं देखी है। हालांकि धीरज रतन कुशल कथाकार हैं। ‘वाइटबोर्ड’ और ‘साल्वेशन’ में छिपे अनेक विमर्श (करप्शन, कोलाहल, नैराश्य, जीवन, मृत्यु) और दर्शन यूं ही नहीं आ गए होंगे। व्यावसायिक प्रारूप की शर्तें बहुत कुछ बदल देती हैं। पंजाबी सिनेमा अभी अपने बदले रूप में शुरू हुआ ही है। मल्टीप्लेक्स और वेस्ट से जुड़ाव का पूरा फायदा इसे मिल रहा है। संगीत और गायक इसका मजबूत पक्ष हैं, निर्देशक परिपक्व हो रहे हैं। कुछ वक्त बाद मनोरंजन के लिहाज से ये शायद देश का सबसे हैरान करना वाला क्षेत्रीय सिनेमा होगा।

(‘Saadi Love Story’ is a Punjabi feature film directed by debutant Dheeraj Rattan. He’s been a writer (Screenplay and dialogues) for many successful Punjabi movies, like, ‘Jatt and Juliet’, ‘Dharti’, ‘Jihne Mera Dil Luteya’ and ‘Mel Karade Rabba’. Before that he wrote a few Hindi movies. So, this movie is about two boys, both Rajveers (Amrinder Gill and Diljit Dosanjh), claiming that they are the true love of Gurleen (Neetu Singh), a girl lying in coma. Now the family (played by Surveen Chawla, Kulbhushan Kharbanda, Dolly Ahluwalia, Navneet Nishan) awaits for Gurleen to awake and tell the truth. In the meantime, the boys are busy telling their version of love story to the ever curious Preeti and family. ‘Saadi Love Story’ released on January 11, 2013.)
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Tuesday, January 22, 2013

इश्तेहारी ‘इनकार’ के इश्तेहारी निष्कर्ष

अच्छे इरादों से बनी, भलाई और त्याग का संदेश देती निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ उस बहस को खत्म नहीं कर पाती जिसे शुरू करने का दावा करती रही


सुधीर मिश्रा की पिछली फिल्म ‘ये साली जिंदगी’ मुझे काफी अच्छी लगी थी। सीधी, स्पष्ट, अनूठी प्रस्तुति वाली और रोचक। ‘इनकार’ भी जरा फ्लैशबैक में चलती है पर अस्पष्टता लिए है। अर्जुन रामपाल, चित्रांगदा और सुधीर जिस तरह न्यूज चैनल्स के दफ्तरों में और शैक्षणिक संस्थानों में इसे ‘कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ यौन शोषण’ पर बनी फिल्म कहकर प्रचारित कर रहे थे, वैसी ये है नहीं। फिल्म में ‘मौला तू मालिक है’ गाने में स्वानंद किरकिरे की लिखी एक पंक्ति आती है, ‘नैनों के भीगे भीगे इश्तेहारों से, तुझको रिझाना है...’, ‘इनकार’ भी इश्तेहारी पेशे को पृष्ठभूमि बनाकर यौन शोषण और महिला-पुरुष गैरबराबरी का इश्तेहार सा गढ़ती है और रिझाने की कोशिश करती है। इसका अंत अच्छे संदेश के साथ होता है, हमें भला इंसान बनाता है, पर बात पूरी फिल्म में चलती बहस से अंत में अलग हो जाने की है। आखिर के दस मिनट को छोड़कर पूरे वक्त हम कोर्टरूम ड्रामा वाले अंदाज में सुनवाई होती देखते हैं। ‘राशोमोन’ (अकीरा कुरोसावा की इस क्लासिक में एक घटना का सच तीन लोग अपने-अपने संस्करणों में सुनाते हैं) वाले अंदाज में सच के अलग-अलग संस्करण देखते हैं। कौन गलत है, कौन सही है ये तय करना चाहते हैं। ...पर आखिर में फिल्म एक लव स्टोरी का रंग घोलकर खत्म हो जाती है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे फिल्म के क्लाइमैक्स में अच्छी बातें नजर आती हैं, मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है, पर फिर इनकार शब्द के मायने क्या रहे? फिर यौन शोषण को ना कहने के संदेश का क्या हुआ?
Chitrangada Singh and Arjun Rampal, in a still from 'Inkaar'

कथित तौर पर लियो बर्नेट और ग्रे वर्ल्डवाइड जैसी विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तरों में शूट हुई ये कहानी शुरू होती है हरियाणवी लहजे में। छोटा राहुल रोता हुआ घर आता है और अपने पिता (कंवलजीत सिंह) से बाहर खेलने नहीं दे रहे लड़कों की शिकायत करता है। पिता जवाब में उसे जिंदगी का बड़ा (सही/गलत) सबक देता है, जो कुछ यूं होता है, “देख बेट्टा, कोई चीज तेरी हो ना और तुझे कोई नहीं दे ना... तो तू छीन लियो उसको...”। लगता है सुधीर हमें सुझा रहे हैं कि वर्क प्लेसेज में महिलाओं के साथ गैर-बराबरी या यौन शोषण के बीज पुरुषों में यहीं ऐसे ही पड़ते हैं और खाप के संदर्भ में मर्दवादी मर्द ढूंढने में हरियाणा से आसान संदर्भ कोई मिल नहीं सकता। हांलाकि ये शॉर्टकट ही है। खैर, बताता चलूं कि फिल्म का क्लाइमैक्स इस धारणा को तोड़ देता है। यही राहुल फिल्म के आखिर में जब अपने एजेंसी के साथियों को ई-मेल भेजता है तो उसमें इन्हीं पिता की सीख का जिक्र करते हुए लिखता है, “मेरे पिताजी हमेशा कहते थे कि तुझे कोई गलत साबित कर दे ना तो उसे (उसका साथ) कभी छोड़ियो मत...”। और हम गलत साबित हो जाते हैं कि ये सहारणपुर का बच्चा और उसका पिता गलत वैल्यूज वाले लोग नहीं थे, जैसा हमें शुरू के डायलॉग से लगे। लेकिन पूरी फिल्म में दर्शक सच के हर नए पक्ष के साथ मैन्यूपुलेट होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे राहुल और माया हुए अपने-अपने पूर्वाग्रहयुक्त सचों से। ये फिल्म कुछ और हो न हो, ये जरूर साबित करती है कि हम जल्दी से जल्दी बलि के बकरे या बुरे को ढूंढने के लिए तड़प रहे होते हैं। हम सच्चाई या भलाई को संभावना ही नहीं देना चाहते। कुछ चाहते हैं कि माया को गलत साबित करने के लिए मुझे जरा सा लॉजिक मिल जाए, बाकी राहुल के लिए ऐसा सोचते हैं... पर फिल्म के डायरेक्टर सुधीर मिश्रा दोनों तरह की सोच को गलत साबित कर देते हैं। ये वर्क प्लेसेज में सेक्सुअल हरासमेंट की कहानी कम और मानव मस्तिष्क की तहों में जाती फिल्म ज्यादा है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के प्रमोशन के वक्त रिपोर्टर पूछते हैं कि फिल्म में हीरो कौन है या विलेन कौन है? फिल्मकार की चिढ़ से बेखबर और इस बात से अपरिचित कि ग्रे शेड्स भी होते हैं, हर इंसान में बुरे-अच्छे दोनों बसते हैं। खैर, हम कहानी क्या थी इससे ज्यादा खिसक लिए।

मुंबई की एक प्रतिष्ठित विज्ञापन एजेंसी का सीईओ है राहुल वर्मा (अर्जुन रामपाल) और उसकी नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर है माया लूथरा (चित्रांगदा सिंह)। बात ये है कि माया ने राहुल पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। कंपनी के अंदर ही जांच पैनल बना है। इसकी अध्यक्ष हैं समाज सेविका मिसेज कामदार (दीप्ति नवल) और बाकी सदस्य है एजेंसी के लोग। अब सुनवाई हो रही है। राहुल और माया अलग-अलग आकर अपना-अपना पक्ष रख रहे हैं। राहुल का कहना है कि माया सोलन की एक डरी हुई लड़की थी जिसे चलना, बैठना, बात करना, सोचना, विज्ञापन के आइडिया प्रेजेंट करना और इस पेशे का क-ख-ग उन्होंने ही सिखाया है। एक ऐसी जगह में जहां निरोध, ब्रा, पेंटी, डियो से लेकर न जाने कैसे-कैसे विज्ञापन बनाते हैं तो हंसी-मजाक भरी फ्लर्टेशन (एक किस्म की छेड़छाड़) चलती रहती है। प्रोजेक्ट पर बात करने के लिए लेट नाइट एक-दूसरे के घर भी जाते हैं, पार्टी भी करते हैं। ऐसे में कोई इसे शोषण मानता है तो शोषण की सीमा कहां शुरू होती है? ऐसे तो इतने डेडलाइन वाले माहौल में काम करना मुश्किल हो जाएगा? माया के आरोप हैं कि राहुल ने कुछ शब्दों के इस्तेमाल में या एक बार अपने घर बुलाकर उसे परेशान करने की कोशिश की है। वह कहती है कि दफ्तर में जैसे उसके बारे में सब बातें करते हैं कि वह राहुल के साथ सोई तो उसकी तरक्की हुई या जैसे मर्द कलीग उसे देखते हैं, ये सब सहनशक्ति की सीमा के परे हैं। इस प्रकार से बहुत परतें बाहर आती हैं। आखिर में कहानी एक नतीजे पर पहुंचती है, पर मुद्दे से जुड़े किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती और यौन शोषण पर बनी फिल्मों की श्रेणी से बाहर हो जाती है।

सुनवाई के दौरान माया कहती है, “हां, मैं मानती हूं कि उसने (राहुल) मुझे सबकुछ सिखाया है, पर इसका मतलब ये नहीं कि वह हर बार आएगा तो मैं अपनी टांगें चौड़ी (स्पलिट माई लेग्स) कर लूंगी”। यहां फिल्म का अंदरुनी टकराव ये है कि ऐसा पहले कहीं दिखाया ही नहीं गया कि यौन संबंध वाला सीधा न्यौता राहुल ने कहीं दिया है या फिर उसकी कामेच्छा धधक-धधक कर बाहर आई है। ऐसे में रोचकता लाने या सनसनी फैलाने का औजार मानने के अलावा इस संवाद की दो संभावनाएं और हैं। पहली: आदमी जब गुस्से में होता है अथवा जब किसी को बहुत बुरा समझता है जो उसका दिमाग, जो-जो घटा है उन घटनाओं का अपना ही सच तैयार करता है, अपने पूर्वाग्रहों के साथ। हो सकता है माया का ये संवाद उसका अपना वही सच हो। दूसरा: गुस्से में होने की वजह से माया के मन में राहुल के जेस्चर्स या उससे जुड़ी स्मृतियों की छवि सुनवाई के दौरान यूं ही लापरवाही से रीसाइकिल होकर बाहर आती है। गुप्ता (विपिन शर्मा) का संवाद “औरत जब हो जाए खूंखार, खा जाए सारी दुनिया मारे न डकार” भी कहानी के किसी लॉजिक को मदद नहीं करता। माया का कहा “इन एल्फा मेल्स की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए एक एम्बीशस वूमन को एल्फा वूमन बनना पड़ता है” भी किसी पक्ष को संपुष्ट नहीं करता, हां उसका नजरिया दिखाता है जो इस पेशे में आगे बढ़ने के लिए उसे अपनाना पड़ा। इस पूरी डिबेट में शायद सबसे ईमानदार और हकीकत भरी बात एक ही होती है, जब माया का बॉस उसे कहता है, “देखो माया, तुम एक बहुत पुरानी कहावत को सच साबित कर रही हो कि औरतें सीनियर पजिशन के लिए बहुत इमोशनल और कमजोर होती हैं”। ऐसा असल जीवन में भी समझा जाता है। मर्द लोग हूबहू ऐसा ही सोचते हैं। इसका सार्वजनिक जीवन में जहां भी हो विरोध किया जाना चाहिए।

बीच में एजेंसी के हेड से बात करते हुए माया बैठे-बैठे सपना देखने लगती है कि एक बड़ा क्लाइंट उसके हाथ से निकल गया है और बॉस उसे डांटते हुए कह रहा है, “उल्लू, गधी, कबूतरी, साली, पान की पीक से रंगी...”। फिल्म में यह एकमात्र फनी सीन पूरी बातचीत की गंभीरता खत्म करता है। सेक्सुअल हरासमेंट पर बहस, वर्जन सुनने की उठा-पटक, राहुल-माया की सफाइयां-गवाहियां... सब मजाक लगने लगती हैं। एक तरफ तो हम माया से सहानुभूति दर्ज करते हैं जब वह कहती हैं कि “इन लोगों ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है और आप मेरी तकलीफ समझ नहीं सकते...”, हम समझने की कोशिश करते हैं, पर इस फनी अवरोध के बाद पूरी फिल्म ही निरर्थक सी हो जाती है। एक और दृश्य में माया का मंगेतर उससे कहता है, “बहुत हो गया। तुम ये केस वापस ले लो। लंदन-न्यू यॉर्क में मेरे भी बहुत से क्लाइंट हैं, बहुत बदनामी होगी। एंड यू वर स्लीपिंग विद हिम ना... (वैसे तुम भी तो उसके साथ सो रही थी न)”। इस संवाद से दो चीजें स्पष्ट होती हैं। पहला, यानी प्रफुल्ल ये हकीकत जानता है और वह भी कहीं किसी के साथ सोता होगा। दोनों व्याभिचारी हैं और इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। दूसरा, आधुनिकता के इस तमाशे में दोनों इस बारे में कैजुअल हैं। कॉरपोरेट कार्यक्षेत्र में शोषण के इस रूप के प्रति सहानुभूतिशील हो पाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि यहां चारों तरफ दारू है, हर बात पर जाम हैं, भोगवाद है, झूठ बेचने का धंधा है, पूंजी प्रधानता है और सामाजिक गैर-जिम्मेदारी है। क्या ऐसे में सब सही हो जाने की उम्मीद की जा सकती है? इन चीजों को बोने से उगता तो कामेच्छा या भोग ही है न। एक किस्म की आर्थिकी से उपजा चक्र तो वही है न। ऐसे में किस विमर्श की बात हम कर रहे हैं? शायद यही वजह है कि कहानी के अंत में यौन शोषण जैसी कोई चीज निकलती ही नहीं है।

मुझे किसी दिन पंचायतों में महिला-पुरुष सरपंचों की गैर-बराबरी वाली कहानी देखकर बड़ी खुशी होगी। वह कहानी कम कैपिटलिस्ट होगी, कम मानव रचित परिस्थितियों वाली होगी। वह ज्यादा बेसिक/मूल होगी। राजस्थान के गांवों में घूंघट में काग़जी सरपंचाई कर रही औरतें और असल में काम संभालते उनके पति की कहानी... क्या ये भारत की जड़ों के ज्यादा करीब नहीं होगी? महानगरी वर्किंग एरिया में जो असमानताएं हैं या जो आपसी असमंजस हैं वो ज्यादा उसी व्यवस्था की वजह से हैं। जबकि पंचायतों में जो महिलाओं के साथ गैर-बराबरी है वो हमारी मूल सामाजिक परिस्थितियों का नतीजा है। इसमें माया ने ये समझा और राहुल तो ऐसा था, वगैरह नहीं होगा। चीजें क्रिस्टल क्लियर होंगी और फैसला लेना, सीख लेना और सोचना आसान होगा। अन्यथा अपने अंत की वजह से ‘इनकार’ तो एक आम हिंदी फिल्म बनकर रह जाती है।

'Inkaar' is a Sudhir Mishra movie. His previous presentation 'Yeh Saali Zindagi' was a complete film with great performances and tight direction. This is the story of Rahul (Arjun Rampal) and Maya (Chitrangada Singh) working in one of India's leading advertisement agencies as CEO and National Creative Head, respectively. She files a sexual harassment complaint against him. A committee is set up, headed by Mrs. Kamdar (Dipti Naval) a social worker. A hearing begins and layered and biased truth starts to come out. Though the end of the story is less about physical harassment and more about how a human being should be. I appreciate it. 
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Thursday, December 27, 2012

निकोलस जरैकी की आर्बिट्राजः हिरना समझ-बूझ बन चरना

Richard Gere in a still from Nicholas Jarecki's 'Arbitrage.'

'लाल जूतों वाली लड़की', 'कुबड़ा', 'पानी में आग', 'दिल्ली के दरिंदे', 'नीला फूल', 'मैं उससे प्यार करता था', 'नन्हा राजू', 'सोफिया माई लव', 'घर-गृहस्थी', 'खूनी बाज़', 'परोपकारी शरमन', 'गैंग्स ऑफ लुधियाना', 'ग़रीबनवाज', 'डेंजर्स ऑफ पोएट्री', 'अल्वा ने बनाया गाजर का हलवा', 'वीर दुर्गादास राठौड़', 'चंचल चितवन', 'हो जाता है प्यार', 'मेरे सपनों की मल्लिका', 'आखिरी इम्तिहान', 'घबराना नहीं', 'इनडीसेंट वूमन', 'प्ले डे', 'ही विल किल यू' और 'बस गई अब बस करो'। फिल्म का नाम चाहे कोई भी हो, अलग छाप लगाता है। हर नाम, हर दर्शक के मानस रसायनों में अलग चित्रों को लिए घुलता है। जिसे अंग्रेजी ज्यादा न आती हो और ‘आर्बिट्राज’ देखने जाना हो तो वह इस शब्द के पहले अक्षर में आती ‘अ’ की ध्वनि में कुछ सकारात्मक महसूस करेगा या फिल्म कैसी होगी इसको लेकर न्यूट्रल उम्मीदें रखेगा। जो जरा ज्यादा जानता हो और कभी आर्बिट्ररी अदालतों के बारे में सुना हो तो कुछ पंच-पंचायती या बीच-बचाव का अंदाजा लगाएगा। फिर वो जो जानते हैं कि आर्बिट्राज का मतलब उस किस्म के बड़े कारोबारी मुनाफे से होता है जो एक जैसी परिसंपत्तियों या लेन-देन के बीच छोटे अंतर से उठाया गया होता है, हालांकि ये तरीका नैतिक नहीं होता। हम जब फिल्म देखते हैं तो इसके मुख्य किरदार रॉबर्ट मिलर (रिचर्ड गेयर) को जिंदगी के हर मोर्चे पर, चाहे वो कारोबार हो या रिश्ते, ऐसे ही आर्बिट्राज करते पाते हैं। उसकी आदर्श और सफल अमेरिकन बिजनेसमैन होने की विराट छवि के पीछे खोई हुई नैतिकता है, कारोबारी घपले हैं और रिश्तों में आई दरारें हैं। मगर निर्देशक निकोलस जरैकी अपनी इस कहानी में उसे आर्बिट्राज करने देते हैं। उसे इन गलत मुनाफों को कमाने देते हैं। उसे जीतने देते हैं। पर हर सौदा एक टूटन छोड़ जाता है। रॉबर्ट इंडिया और सकल विश्व में बनने वाली बिलियनेयर्स की सूची के हरेक नाम की कम-ज्यादा कहानी है। वो सभी जो आदर्श कारोबारी की छवि ओढ़े हैं, समाज में अपनी रसूख की कमान पूरे गर्व के साथ खींचे हैं और जिनकी कालिख कभी लोगों के सामने नहीं आ पाती, वो रॉबर्ट हैं। 2008 में वॉल स्ट्रीट भरभराकर ऐसे ही लोगों की वजह से गिरी, भारत में हाल ही में उभरे घोटालों में ऐसे ही कारोबारी हाथ शामिल रहे। सब कानून की पकड़ से दूर आर्बिट्राज कर रहे हैं।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में धृतराष्ट्र को अधर्म (दुर्योधन) का साथ छोड़ने का उपदेश देते हुए महात्मा विदुर कहते हैं, “हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्। सुह्रदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः”।। जिसका अर्थ होता है कि ‘महाराज, दूसरे का धन छीनना, परस्त्री से संबंध रखना और सच्चे मित्र को त्याग देना, ये तीनों ही भयंकर दोष हैं जो विनाशकारी हैं’। पर रॉबर्ट की बिजनेस वाली दुनिया में जो विनाशकारी है वही रिस्क टेकिंग है। जो भयंकर दोष है वही आर्बिट्राज है। और उसे ऐसे तमाम सौदे पूरे करने हैं। उसकी कहानी कुछ यूं है। वह न्यू यॉर्क का धनी हैज फंड कारोबारी है। समाज में उसकी इज्जत है, आइकॉनिक छवि है। घर पर भरा-पूरा परिवार है जो उसे बेहद प्यार करता है, उसके 60वें जन्मदिन की तैयारी करके बैठा है। वह घर लौटता है और नातियों को प्यार करता है। अपनी सुंदर योग्य बेटी (ब्रिट मारलिंग) और जमाई को थैंक यू कहता है। पत्नी एलन (सूजन सैरेंडन) को किस करता है। सब खाने की मेज पर बैठते हैं और हंसी-खुशी वाली बातें होती हैं। एक आम दर्शक या नागरिक अपने यहां के बिजनेसमैन को इतना ही जानता है। ये कहानी इसके बाद जिस रॉबर्ट से हमें मिलाती है वो अनदेखा है। रात को वह पत्नी को बेड पर सोता छोड़ तैयार हो निकल जाता है। वह जाता है जूली (लीएतितिया कास्टा) के पास। ये खूबसूरत जवान फ्रेंच आर्टिस्ट शादी के बाहर उस जैसे कारोबारियों और धनिकों की आवश्यकता है। घर पर बेटी-बीवी को तमाम अच्छे शब्दों और उपहारों से खुश करता है तो यहां जूली के न बिकने वाले आर्टवर्क को ऊंचे दामों पर लगातार खरीदता रहता है, ताकि उसे सहेज सके। यहां इनका प्रणय होता है। रॉबर्ट किसी देश में बहुत सारा रूपया लगा चुका है। मगर अब उस मुल्क में हालात कुछ और हैं और उसका पैसा डूब चुका है। वह इन 400 मिलियन डॉलर की भरपाई कंपनी के खातों में हेर-फेर करके करता है। इससे पहले कि निवेशक, उसकी बेटी या खरीदार कंपनी पर बकाया इस रकम के बारे में जाने वह अपने वेंचर कैपिटल कारोबार का विलय एक बड़े बैंक के साथ कर देना चाहता है। पर अंतिम आंकड़ों को लेकर बातचीत बार-बार पटरी से उतर रही है। यहां तक रॉबर्ट के पास करने को पर्याप्त कलाबाजियां हैं, पर भूचाल आना बाकी है। अब कुछ ऐसा होता है कि एक अपराध उससे अनजाने में हो जाता है और न्यू यॉर्क पुलिस का एक ईमानदार डिटेक्टिव माइकल ब्रायर (टिम रॉथ) उसके पीछे पड़ जाता है।

जरैकी अपने इस किरदार को जीतने देते हैं लेकिन बताते हैं कि ये जीत रिश्तों में बड़ी टूटन छोड़ जाती है। एक-एक रिश्ते में। पत्नी एलन वैसे तो पहले भी एक रईस कारोबारी की बीवी होने के साथ आई शर्तों से वाकिफ होती है और चुप होती है, पर जब बात आर-पार की आती है तो वह रॉबर्ट से अपनी बेटी के लिए पद और पर्याप्त पैसे मांगती है। वह मना कर देता है तो एलन कहती है, “पुलिस मुझसे बात करने की कोशिश कर रही है और मैं तुम्हारे लिए झूठ नहीं बोलने वाली”। कुछ रुककर वह फिर कहती है, “आखिर तुम्हें कितने रुपये चाहिए? क्या तुम कब्र में भी सबसे रईस आदमी होना चाहते हो?” ब्रूक पिता के कारोबार की सीएफओ है। अब तक वह खुद को पिता का उत्तराधिकारी समझती है पर जब खातों में हेर-फेर का पता चलता है और ये भी कि ये पिता ने ही किए हैं तो वह भाव विह्अल हो जाती है। रॉबर्ट उसे वजह बताता है पर वह सहज नहीं हो पाती। गुस्से में कहती है कि “आपने ये किया कैसे, आपके साथ मुझे भी जेल हो सकती है”। रॉबर्ट कहता है, “नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा”। वह कहती है, “मैं इस कंपनी में आपकी हिस्सेदार हूं, मैं भी दोषी पाई जाऊंगी”। तो वह कहता है, “नहीं, तुम मेरे साथ काम नहीं करती हो तुम मेरे नीचे काम करती हो”। बेटी का आत्मविश्वास और भ्रम यहां चूर-चूर हो जाता है। हालांकि रॉबर्ट एक पिता के तौर पर उसे बचाने के उद्देश्य से भी ये कहता है कि तुम मेरे साथ नहीं मेरे अंडर काम करती हो, पर ब्रूक को ठेस लगती है। फिल्म में आखिरी सीन में जब एक डिनर पार्टी में बड़ी घोषणा की जाती है और अपने पिता के बारे में ब्रूक भाषण पढ़ती है और उन्हें सम्मानित करते हुए स्टेज पर बुलाती है तो दोनों औपचारिक किस करते हैं और वहां ब्रूक के चेहरे पर नब्ज की तरह उभरता तनाव इन सभी घरेलू रिश्तों के अंत की तस्वीर होता है। रॉबर्ट रिश्ते हार जाता है।

फिल्म के प्रभावी किरदारों में टिम रॉथ हैं जो पहले ‘रिजरवॉयर डॉग्स’, ‘पल्प फिक्शन’ और ‘द इनक्रेडेबल हल्क’ में नजर आ चुके हैं। एक पिद्दी सी सैलरी पाने वाले डिटेक्टिव होते हुए वह अरबपति रॉबर्ट मिलर का पेशाब रोक देते हैं। जब ब्रायर बने वह रॉबर्ट के पास तफ्तीश के लिए जाते हैं तो पूछते हैं, “ये आपके माथे पर क्या हुआ”। रॉबर्ट कहता है, “कुछ नहीं, दवाइयों वाली अलमारी से टकरा गया”। तो उस अनजानेपन से वह जवाब देता है, जिसमें दोनों ही जानते हैं कि सच दोनों को पता है कि “हां, मेरे साथ भी जब ऐसे होता है तो बड़ा बुरा लगता है”। कहानी में इस अदने से जांच अधिकारी का न झुकना और सच को सामने लाने में जुटे रहना अच्छी बात है। ये और बात है कि रॉबर्ट उसे सफल नहीं होने देता। केस में एक जगह वह टिम और पुलिस विभाग को अदालती फटकार दिलवा देता है तो दर्शक खुश होते हैं जबकि असल अपराधी रॉबर्ट होता है। फिल्म में अच्छे-बुरे की पहचान और दर्शकों की सहानुभूति का गलत को चुनना परेशान करने वाला चलन रहा है और रहेगा।

जैसा कि हम बात कर चुके हैं रॉबर्ट आदर्श अमेरिकी कारोबारी की छवि रखता है। सेल्फ मेड है। हो सकता है अमेरिकी संदर्भों में उसके आर्बिट्राज सही भी हों। पर रिचर्ड गेयर अपने इस किरदार की पर्सनैलिटी की तहों में काफी ब्यौरा छोड़ जाते हैं। सेल्समेन और सेल्सगर्ल्स के इस युग में सभी को आर्थिक सफलता के लिए डेल कार्नेगी या उन जैसों की लिखी सैंकड़ों रेडीमेड व्यक्तित्व निर्माण की किताबें मुहैया हैं, जिनमें सबको चेहरे पर खुश करना सिखाया जाता है। “सर आपने आज क्या शर्ट पहनी है”... “कल तो जो आपने कहा न, कमाल था”... “आपने जो अपने आर्टिकल में लिखा वो मुझे... उसकी याद दिलाता है”। रॉबर्ट मिलर भी इन्हीं सूत्रों से सफल बना है। वो सूत्र जो ऊपर-ऊपर बिन्नैस और रिश्तों को सुपरहिट तरीके से कामयाब रखना सिखाते हैं, पर उतनी ही गहराई में जड़ें खोखली करते हैं। क्योंकि पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट वाले इसका जवाब नहीं देते कि आखिर जब रॉबर्ट ने भी ये नियम सीखे थे तो क्यों बुरे वक्त में फैमिली ने उसका साथ न दिया? क्यों उसने रिश्तों में वफा नहीं बरती? क्यों उसमें सच को कहने की हिम्मत नहीं बची?

खैर, अगर अब उसके उद्योगपति लोक-व्यवहार को देखें तो वह जरा कम सहनशील हो चुका है। जैसे अपनी आलीशान महंगी कार में बैठकर वह फोन पर अपने अर्दली से कहता है, “बस पता लगाओ कि मेफिल ने हमें अभी तक फोन क्यों नहीं किया है?” तो वह जवाब देता है, “लेकिन मैं कैसे पता लगाऊं”। इस पर रॉबर्ट जरा भड़ककर कहता है, “अरे यार, क्या हर चीज मुझे खुद ही करनी पड़ेगी क्या, बस पता लगाओ। ...लगाओ यार, ...प्लीज। थैंक यू”। ये फटकार वाली लाइन आखिर में जो ‘प्लीज’ और ‘थैंक यू’ शब्द लिए होती है, ये चाशनी का काम करते हैं और लोक-व्यवहार की कला को कायम रखते हैं। जब बैंक के प्रतिनिधि से बात करने एक नियत जगह पर पहुंचता है तो मुश्किल हालातों में नहीं हो पा रहे विलय का गुस्सा उतारते हुए कहता है, “मैं ग्रेसी चौक का शहंशाह हूं (आई एम द ऑरेकल ऑफ ग्रेसी स्क्वेयर), मैं तुम्हारे पास नहीं गया था तुम मेरे पास आए थे...” पर जब सामने वाला कहता है, “रॉबर्ट मुझे लगता है हम बेकार बात कर रहे हैं (उसकी अरुचि दिखने लगती है, हो सकता है वह उठकर ही चला जाए)” तो तुरंत अपना रुख बदलते हुए रॉबर्ट कहता है, “अच्छा छोड़ो, छोड़ो, डील को भी भूल जाओ...”। यूं कहकर वह बात बदल देता है और बाद में उसी बिंदु पर घूमकर ज्यादा बेहतरी से आता है।

निकोलस जरैकी की ये पहली फीचर फिल्म है, इससे पहले वह टीवी सिरीज और डॉक्युमेंट्री फिल्मों व फीचर फिल्मों के तकनीकी पक्ष से जुड़े रहे हैं। वह मशहूर जरैकी परिवार से हैं। उनके माता-पिता दोनों न्यू यॉर्क में ही कमोडिटी ट्रेडर रहे हैं। आर्थिक जगत की कहानी का विचार उन्हें इसी पृष्ठभूमि से आया। उनके तीन भाई हैं। एक एंड्रयू जो फिल्म पोर्टल और वेबसाइट ‘मूवीफोन’ के सह-संस्थापक रहे हैं और जिन्होंने 2003 की मशहूर डॉक्युमेंट्री ‘कैप्चरिंग द फ्रीडमैन्स’ बनाई थी। दूसरे हैं थॉमस जो वित्त अधिकारी हैं। तीसरे हैं यूजीन जो खासतौर पर अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने ‘वाइ वी फाइट’, ‘फीक्रोनॉमिक्स’ और ‘द हाउस वी लिव इन’ जैसी कई चर्चित डॉक्युमेंट्री बनाई हैं।

प्रतिभाशाली निकोलस ने अपने बूते बिना बड़े हॉलीवुड स्टूडियो के सहयोग के आर्बिट्राज बनाई है। रिचर्ड गेयर और सूजन सैरेंडन समेत सभी अदाकारों के पास ये स्क्रिप्ट लेकर जाना उनके लिए किसी सपने से कम न था। वह गए, सबने स्क्रिप्ट पर भरोसा किया, उन्हें परखा और हां की। किसी भी लिहाज से अमेरिका की बाकी मुख्यधारा की फिल्मों से कम न नजर आने वाली ये फिल्म पूरी तरह चुस्त है और सबसे प्रभावी है इसकी निर्देशकीय प्रस्तुति। सभी वॉल स्ट्रीट फिल्मों के स्टीरियोटाइप्स से परे ये फिल्म देखने और समझने में जितनी आसान है, थ्रिल के पैमाने पर उतनी ही इक्कीस। अगर किसी युवा को महत्वाकांक्षी फिल्म बनानी हो और बजट का भय हो तो उसे आर्बिट्राज देखनी चाहिए जो उसे हौसला देगी और सिखाएगी कि कहानी और स्क्रिप्ट है तो सब कर लोगे। अमेरिकी फिल्मों के आने वाले चमकते चेहरों में निकोलस का नाम पक्का है। वह कसावट और अभिनव रंगों से भरी फिल्में बनाएंगे क्योंकि उनकी फिल्मी व्याकरण का आधार बहुत मजबूत है। बस जितने धाकड़ विषय, उतनी उम्दा फिल्में।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, October 12, 2012

मृत्यु की लोरी गाता वहः किलिंग देम सॉफ्टली, विलक्षणता की विवेचना

Killing Them Softly, Director: Andrew Dominik, Cast: Brad Pitt, Ray Liotta, Richard Jenkins, Scoot McNairy, Ben Mendelsohn, James Gandolfini, Vincent Curatola
 किलिंग देम सॉफ्टली (Killing Them Softly) एक विलक्षण फिल्म है। रोड टु परडिशन, पल्प फिक्शन, किल बिल, नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन और गॉडफादर सीरिज जैसी बहुत सारी फिल्में हैं जो विषय-वस्तु में अलग हो सकती हैं, पर लूट-अपराध-हिटमैन वाले संदर्भों में निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक की इस फिल्म के समानांतर हैं। विलक्षण शब्द का इस्तेमाल और इन फिल्मों का जिक्र इसलिए क्योंकि 'किलिंग देम सॉफ्टली' उनके समानांतर होते हुए भी बिल्कुल अलग है। इसमें ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड मूल के एंड्रयू की अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निराली टिप्पणी है, फिल्म में पिरोए गए इतने असामान्य तंतु हैं। हिगिन्स के हथाइयों (बातें और बातें) भरे उपन्यास ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) पर फिल्म बनी है। इसे उपन्यास अनुरूप 1974 का नहीं अपितु 2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले का समय संदर्भ दिया गया है। एक ढहती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ चलते अपराधों को देखने का तरीका है। मृत्यु के हत्यामय और मोक्षमय स्वरूप को समझाने के जिए जॉनी कैश का गाया अपरिमेय गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड” डाला गया है। गुजरे जमाने के ऐसे सभी गीत आह्लादित करने वाले हैं। एंड्रयू और फिल्म के तत्वों पर बात करने से पहले कहानी की रूपरेखा जान लेते हैं।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था भरभराकर गिर रही है। ये राष्ट्रपति बनने का ख्वाब देख रहे सेनेटर बराक ओबामा भी जानते हैं, अमेरिकन ड्रीम की मृगमरीचिका तले जी रहे देश के आम नागरिक भी जानते हैं, कानूनन मंजूर मगर बगैर नियमन चल रहे जुआघर और उसमें खेलने वाले जानते हैं, रईसों के महंगे डॉग-बिच को चुराने वाले नशेड़ी जानते हैं, छोटे-मोटे कारोबार तले अपराध में लीन बॉस लोग जानते हैं। नहीं जानते हैं तो बस पूंजीवादी राह पर निकले तीसरी दुनिया से दूसरी और पहली का हो जाने को अतिआतुर लोग, खैर, जैकी कोगन (ब्रेड पिट) एक हिटमैन है, एनफोर्सर है। सभ्रांतों की आपराधिक गंदगी जब एक हद से फैल जाए तो उसे समेटने-साफ करने आने वाला। बदमाशों के एक ताश के खेल को दो टुच्चे हथियार तान लूट लेते हैं। शक जुआघर चलाने वाले मार्की (रे लियोटा) पर भी है, जिसने पिछली बार ऐसी ही लूट खुद करवाई थी। सीधे तौर पर न कोई सबूत है, न कोई तरीका। अब विस्तृत परिपेक्ष्य में जिनका पैसा और गर्दन दाव पर है उन्हें बिखरे वाकये को समेटना और निपटाना है। ये काम करना है जैकी को। यही कहानी है।

मगर जैकी का व्यक्तित्व ही फिल्म को ‘कोगन्स ट्रेड’ की उपन्यास वाली छवि से बाहर निकालकर ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ नाम की मौलिक फिल्म बनाता है। ये फिल्म के कई दृश्यों में होने वाली मैराथन हथाइयों से समझ में आता है। कार में जैकी और उससे इस कार्रवाही के लिए लगातार मिल रहे ड्राइवर (रिचर्ड जेनकिंस) के बीच तमाम पहलू डिस्कस होते हैं। डाका डालने वाला कौन हो सकता है? क्या मार्की? क्या उससे पूछा जाए? कैसे? उसने नहीं किया होगा तो? जब ड्राइवर कहता है कि मार्की से उगलवाओ। इस उगलवाने में जो उसे पीटने-पीड़ा देने की प्रताड़ना है, उसे भांप जैकी अनमना होकर कुछ ऐसे बोलता है, “छोड़ो भी उस बेचारे को। उसे ठोकने से तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला। वह ऐसा कर नहीं सकता। उसने दूसरी बार नहीं किया होगा। और वैसे भी उसे ठोककर तुम्हारे सेठों को क्या मिलेगा”। यहां तक आते-आते हमें एक हिटमैन या हत्यारे का मानवीय (विडंबना) पहलू नजर आता है कि वह लोगों को पीड़ा देने से बचना चाहता है। अंत में जब ड्राइवर कहता है कि चलो उसे कुछ पीट दो, ज्यादा सीरियसली मत मारना। देखो, क्या पता वह कुछ कहे। तब जैकी मानता है।

ऐसी ही एक और वार्ता में जब जैकी को पता चल जाता है कि फ्रैंकी (स्कॉट मैकनायरी) और रसेल (बेन मेंडलसन) ने लूट की है तो वह जेनकिंस के किरदार को यह बताता है। दोनों में फिर मैराथन बातें होती हैं। यहां गप्पें इस बात पर होती हैं कि इन दोनों का नाम कैसे पता चला? रसेल ने दारू पीकर उगल दिया? कोई इतना मूर्ख कैसे हो सकता है! गधा, अपना मुंह भी बंद नहीं रख सकता! इनका क्या किया जाए? कैसे मारा जाए? इस दौरान जैकी की सोच में से फिल्म का शीर्षक निकलता है, ‘किलिंग देम सॉफ्टली’
 

 वह जो कहता है उसके भाव कुछ यूं निकलते हैं,
“मैं अपने सब्जेक्ट्स के ज्यादा करीब नहीं जाना चाहता हूं। कमऑन यार, वो पसीने से लथपथ हो जाते हैं, पैरों में पड़कर गिड़गिड़ाने लगते हैं। मैं ये नहीं कर सकता। मैं उन्हें सॉफ्टली मारता हूं। मैं पता नहीं लगने देना चाहता कि उनका मरना तय है”।

फिल्म में उनका संवाद ये होता है,
You ever kill anyone?
They get touchy-feely,
emotional,
a lot of fuss.
They either plead or beg.
They call for their mothers.
I like Killing them softly.

जैकी कोगन यहां एक विलक्षण किरदार बनता है। वह एक अपराधी है, हत्यारा है इसमें कोई संदेह नहीं। पर जब भी आप एक अमेरिकी गैंगस्टा, हिटमैन या अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि वाली फिल्म देखते हैं तो अजीब-अजीब सनकी हत्यारों और हत्याओं से मिलते हैं। तो खून, खूनी और वीभत्सता को आपको न्यूनतम पैमाना मानकर आगे बढ़ना होता है और फिल्म देखनी होती है। हम जैकी कोगन के बारे में बात करते हुए उस पैमाने पर ही खड़े हैं पर सहज हो सकते हैं। वह सच में ऐसा ही है। उसकी मार्की को पीटने या मारने की स्थिति को टालने की कोशिश कोई मजबूरी नहीं है, पर ये एक विडंबना भरा सरोकार, एक विडंबना भरी भलमनसाहत है। जैकी का ऐसा होना फिल्म के निर्देशक एंड्रयू से आता है, क्योंकि बाद में जब दो गुर्गे मार्की को घेरते हैं, उससे पूछताछ करते हैं, तो ऐसा करते हुए उन्हें ही बहुत कष्ट हो रहा होता है। दोनों एक तरह से गिड़गिड़ाकर, अनुनय करते हुए उससे कहते हैं कि मार्की ऐसा मत करो, हमें मजबूर मत करो, हमें बता दो। दोनों बैचेन और विह्अल हो रहे होते हैं। हालांकि बाद में उन्हें मार्की को धोना ही पड़ता है। पूरी फिल्म में परिदृश्य कुछ ऐसा है कि जो पेशेवर हत्यारे हैं वो हत्याओं को आखिर तक टालते हैं और जो हत्याएं करवाना चाहते हैं वो इस पर अड़े हुए हैं। जैसे इन दो गुर्गों का मार्की को पीटने से पहले-पहल बचना। जैकी का एक हत्या के लिए माइकी (जेम्स गैंडॉलफिनी) को बाहर से बुलवाना, ये जानते हुए कि ऐसा करने से पैसा बंटेगा जो वह खुद कर सकता है। माइकी भी शराब पीने और होटल के डबलबेड पर लड़कियों के साथ सलवटें डालने के बाद आखिरकार काम करने से मना कर देता है।

अभी की हिंदी फिल्मों के बड़े सितारों के साथ दिक्कत ये है कि उन्हें कद्दावर फिल्में नहीं मिल रही, न ही वे अपने बूते ऐसी छोटी मगर बहादुर परियोजनाओं से जुड़ पा रहे हैं। यश चोपड़ा की ‘जब तक है जान’ का प्रोमो देखते हुए ये शाहरुख खान की फिल्मों की निराशाजनक श्रंखला में लिया एक और गलत फैसला नजर आता है। ब्रेड पिट के साथ सही बात ये रही कि उन्होंने ‘चॉपर’ के बाद से ही एंड्रयू डॉमिनिक की प्रतिभा में भरोसा किया और उनकी दूसरी फिल्म ‘द असेसिनेशन ऑफ जेसी जेम्स बाय द कावर्ड रॉबर्ट फोर्ड’ से जुड़े। उस फिल्म के बाद व्यावसायिक लालसाओं वाले किसी सितारे ने एंड्रयू के साथ काम नहीं किया, पर ब्रेड से संभवतः ‘जेसी जेम्स...’ की महत्ता को समझा। इस फिल्म से जुड़ने के उनके फैसले ने उन्हें ‘किलिंग देम...’ जैसा सार्थक नतीजा दिया। अपनी सीमित अदाकारी के साथ भी वह इस साल की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक दे पाए, सिर्फ अपने सही चयन की वजह से।

ठीक ऐसा ही इस फिल्म और एंड्रयू से साथ है। अगर इस फिल्म के साथ ब्रेड पिट का नाम न जुड़ा होता तो लोगों तक इसे पहुचाना या फिर जैकी कोगन के किरदार और उसकी कहानी में लोगों को एंगेज कर पाना तकरीबन नामुमकिन होता। शुरू से ही हमें पता होता है कि ब्रेड फिल्म में जल्द ही दिखेंगे, तभी हम इंतजार करते हुए फ्रैंकी के रोल में स्कॉट मैकनायरी के नए चेहरे को भी पर्याप्त सम्मान और अपना वक्त देते हैं। ऑस्ट्रेलियन एक्सेंट वाले बेन मेंडलसन बेहतर नक्काश अभिनेता है, अतिउत्तम, पर वो भाव कि फिल्म में ब्रेड भी नजर आएंगे, हमें उनकी इज्जत करने की वजह देता है। ये स्टार्स की शख्सियत तो होती ही है पर उससे भी ज्यादा होता है उनके चेहरे और फिल्मों से हमारा परिचित होना। हमें पता है कि महज स्टार ही नहीं ब्रेड ‘ट्रॉय’, ‘लैजेंड्स ऑफ द फॉल’, ‘मनीबॉल’ और ‘फाइट क्लब’ जैसा भरोसे वाला काम दे चुके हैं।

‘किलिंग देम सॉफ्टली’ में किरदार बहुत कम हैं, बंदूक की गोलियां बहुत कम है पर बातें बहुत ज्यादा हैं। किरदार बस बातें ही करते रहते हैं। ऐसी-ऐसी बातें जो हम करते तो हैं पर फिल्मों की पटकथाओं के बाहर ही छोड़ दी जाती हैं या फिर वीडियो संपादक उन्हें बेकार समझकर काट देता है, जबकि वो ही लंबी बातें फिल्म को अनूठा एहसास देती हैं। जैसे जैकी होटल में माइकी के पास गया है उसे कहने कि हत्या कहां और कब करनी है। और माइकी नवयुवतियों के साथ देहसुख भोगने में वक्त काट रहा होता है। बातें चलती हैं, चलती हैं, चलती हैं।

विषय क्या है, ये माइकी के डायलॉग में टटोलिए जिसमें वह युवतियों के जिस्म की बात कर रहा है,
you know,
I’ve seen all the a**** in the world
and let me tell you this,
there is no a** in the whole world
like a Jewish girl
who’s hooking.

आखिर में जब जैकी और ड्राइवर खड़े होते हैं तब बाहर अमेरिका में पटाखे फूट रहे होते हैं और टीवी पर ओबामा का भाषण चल रहा होता है। वह अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और स्वतंत्रता का घोषणापत्र लिखने वाले थॉमस जेफरसन के मशहूर कथन, ‘सभी इंसान भगवान ने एक बराबर बनाए हैं’, को दोहराते हुए अमेरिका के लोकतंत्र की बात कर रहे होते हैं।

सुनकर जैकी ड्राइवर से कहता है,
When this guy says we’re equals,
he makes me laugh.
We are not a community,
In here we are on our own.
America is not a country,
it is a business.

एक हत्यारे के मुंह से अपने देश की ये की गई कुछ ऐसी विचारधारापरक आलोचना है जो दूसरे मुल्क के लोग भी नहीं कर पाते। फिल्म में किरदारों के अपरंपार संवादों और एंड्रयू के इसे सही संदर्भ प्रदान करने के बीज हमें ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) तक ले जाते हैं। जॉर्ज वी. हिगिन्स (George V. Higgins) ने इसे 1974 में लिखा था। बोस्टन में 20 साल सरकारी वकील रहे हिगिन्स ने जिदंगी में जो 25 उपन्यास लिखे उनकी यही कहकर आलोचना की जाती रही कि उनमें तो बस बातें करते लोग होते हैं। जबकि उनकी कहानियों की जान ही जिंदगी की हर बारीक बात की जुगाली करते किरदार होते हैं। असल जिदंगी में भी तो हम यह करते हैं न। जिन्हें ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ पसंद आए वह हिगिन्स के ही उपन्यास पर 1973 में बनी फिल्म ‘द फ्रेंड्स ऑफ ऐडी कॉयल’ देख सकते हैं। शायद इसी फिल्म की मौलिक फीलिंग एंड्रयू को पसंद आई होगी कि उन्होंने कोगन्स ट्रेड को फिल्म के लिए चुना।

एंड्रयू की फिल्म सिनेमैटिकली खूब अच्छी है। जिन्हें सिनेमाई भाषा की रंग-तरंग वाली खूबसूरती लुभाती है उनके लिए फिल्म का ओपनिंग शॉट सुखद होगा। इसे देखने का एहसास कुछ ऐसा है जैसे जमीन कटे, सूने, रेगिस्तान में तेज हवा चल रही है, सब कुछ लुटा-लुटा सा है और वहां कोई धूसर रंग का छोटा अजगर अपनी पूंछ हिला रहा हो। काली स्क्रीन पर 2008 में बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक कन्वेंशन में दी गई स्पीच सुनाई देती है। वायदों भरी। फिर आवाज टूटती है और फ्रैंकी (मैकनायरी) चलता हुआ नजर आता है। ये न्यू ओरलींस है, हरीकेन से तबाह सा। एक-आध घर नजर आते हैं बाकी मैदान बचे हैं, घर उड़ गए हैं। सड़कें खाली हैं, हवाएं चल रही हैं, कचरा उड़ रहा है। न जाने क्यों यहां मन उचाट सा हो जाता है। अमेरिका! ये अमेरिका है? पहले तो कभी अमेरिका यूं न देखा! कम से कम वेस्टर्न मीडिया ने तो नहीं दिखाया। जब भी देखा फिल्म का पहला शॉट न्यू यॉर्क की लंबी गगनचुंबी चमकदार ईमारतों का एरियल शॉट ही देखा है, जो बाद में करण जौहर एंड कंपनी और साउथ की फिल्मों के वेस्ट प्रेमी नए फिल्मकारों की फिल्मों में गर्व से दिखने लगा। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ का ये शुरुआती सीन अलग ही अमेरिका दिखाता है। जैसा वृहद तौर पर बेन जेथलिन की ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’ में दिखता है। इस पहले सीन का विस्तार ही है वो पूरी की पूरी शानदार फिल्म। जरूर देखें। खैर, लौटते हैं। फ्रैंकी सड़क पर कदम बढ़ाता हुआ आगे टनल के सामने बने फुटपाथ की ओर बढ़ता है। इस दौरान सीन कट-कटकर ओबामा की स्पीच पर लौटता है, फिर, फिर से फ्रैंकी के कदमों की ओर। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं, विसरल फीलिंग.. वो होती है इसे देखते हुए।


यहां तक अनुभूति बन जाती है कि हिटमैन फिल्मों की कोई क्लीशे अनुभूति यहां नहीं होगी। ये कैमरा एंगल, धीमी गति और लंबे शॉट विश्व सिनेमा की सिनेमाई व्याकरण को भीतर समाए होते हैं। मुख्यधारा की फिल्म के लिए ऐसा करना उत्साहित करने वाला होता है। उन दो गुर्गों को मार्की को पीटने वाला दृश्य देखिए। प्रभावशाली। मैं सीन में हिंसा की नहीं उसे फिल्माने के तरीके की बात कर रहा हूं। मार्की के मुंह पर मुक्के मारे जाते हैं और खून कब आता है, कितना आता है, रे लियोटा कैसे हमेशा की तरह बहुत अच्छे से निर्वाह कर जाते हैं, ये सब नयापन और यथार्थता हुए होता है। बाद में कार में जा रहे मार्की को गोलियां मारने वाला बेहद ही धीमी गति का दृश्य। एक तरह से फिल्म की सुर्खियों में से एक। अनूठा। जैकी कोगन जब जॉनी (विंसेंट क्यूरेटोला) को दूर से शूट करता है तो वह एक गोली भी करीने से मारी गई होती है।

ऐसा एक संदर्भ हैः कैथरीन बिगलो की ‘द हर्ट लॉकर’ में विलियम (जैरेमी रेनर) और उसके साथी फौजी का अरब रेगिस्तान में कुछ किलोमीटर दूर से बंकर में छिपे दुश्मन स्नाइपर को शूट करना।

फिल्म की जो समग्र फिलॉसफी है उसमें चुने गए गाने बहुत विविधता और सार्थकता लेकर आते हैं। सभी बीते दौर के बैंड्स और प्राइवेट एल्बम के क्लासिक हैं। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ ही एक ऐसी मूवी है जिसमें इन सबको साथ इस्तेमाल किया जा सके। ‘द वेलवेट अंडरग्राउंड’ का विवादों में रहा पर बहुत बरता गया गाना ‘हेरोइन’, बहुत कुछ कहता है पर देखते हुए हम इसे न चाहें तो भी हाथ की नसों में नशे का इंजेक्शन घोंप रहे रसेल के किरदार से पहले जोड़ सकते हैं। उसी तरह लालच की वजह से मारे गए मार्की (फ्रैंकी और जॉनी भी) पर ‘क्लिफ एडवड्र्स’ का ट्रैक ‘इट्स ओनली अ पेपर मून’ (ये तो बस कागज का चांद है) जंचता है। गिरती अर्थव्यवस्था और पैसे के लिए तड़प रहे इस पूरे मुल्क के लिए ‘बैरेट स्ट्रॉन्ग’ का ‘मनी दैट आई वॉन्ट’ है। ‘कैटी लेस्टर’ का ‘लव लैटर्स’ और ‘पेटूला क्लार्क’ के ‘विंडमिल्स ऑफ योर माइंड’ फिल्म के जोड़ हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं।

इन सभी में मेरी पसंद है सिंगर जॉनी कैश का दिग्गी गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड”। उल्लेखनीय। अद्भुत। कमाल कंपोजिशन। जॉनी कैश की आवाज की खराश और स्ट्रोक भरी खनक इसे एक फिल्मी सुपरसॉन्ग बनाती है, वहीं किंग जेम्स की बाइबल के रेवेलेशन का इस्तेमाल कुछ ऐसा है जो फिल्म की थीम ‘जीवन, माया, लालच और मृत्यु’ के रूपक का काम करता है।

देयर इज अ मैन गोइंग अराउंड टेकिंग नेम्स,
एंड ही डिसाइड्स हू टु फ्री एंड हु टु ब्लैम,
एव्रीबडी वोन्ट बी ट्रीटेड ऑल द सेम,
देयर विल बी अ गोल्डन लैडर रीचिंग डाउन,
वैन द मैन कम्स अराउंड...

क्या पंक्तियां है। बेमिसाल भय और दर्शन पैदा करने वाली।  आगे जॉनी कैश की जबान से इस पंक्ति का निकलना.. “द हेयर्स ऑन योर आर्म विल स्टैंड अप...” गाने को अंग्रेजी नहीं हिंदी में लिखा बना देता है। आखिर में मृत्यु की धार्मिक और काल्पनिक विवेचना...

एंड आई हर्ड अ वॉयस इन द मिस्ट ऑफ द फोर बीस्ट्स,
एंड आई लुक्ड एंड बिहोल्ड, अ पेल हॉर्सः
एंड हिज नेम दैट सैट ऑन हिम वॉज डेथ,
एंड हेल फॉलोव्ड विद हिम”

गाने के बोल अंग्रेजी में यूं है,  पढ़ें
And I heard, as it were, the noise of thunder,
One of the four beasts saying, Come and see
And I saw, and behold a white horse.

There's a man going around taking names
And he decides who to free and who to blame
Everybody won't be treated all the same
There will be a golden ladder reaching down
When the man comes around

The hairs on your arm will stand up
At the terror in each sip and in each sup
Will you partake of that last offered cup?
Or disappear into the potter's ground
When the man comes around?

Hear the trumpets, hear the pipers
One hundred million angels singing
Multitudes are marching to the big kettledrum
Voices calling and voices crying
Some are born and some are dying
It's Alpha and Omega's kingdom come

And the whirlwind is in the thorn tree
The virgins are all trimming their wicks
The whirlwind is in the thorn tree
It's hard for thee to kick against the pricks

'Til Armageddon, no shalam, no shalom
Then the father hen will call his chickens home
The wise man will bow down before the throne
And at his feet, they'll cast the golden crowns
When the man comes around

Whoever is unjust, let him be unjust still
Whoever is righteous, let him be righteous still
Whoever is filthy, let him be filthy still
Listen to the words long written down
When the man comes around

Hear the trumpet.... (Repeat)

In measured hundredweight and penny pound
When the man comes around

And I heard a voice in the midst of the four beasts,
And I looked and behold, a pale horse:
And his name that sat on him was Death, and Hell followed with him.

निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक और ब्रेड पिट की फिल्म ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ अपराध और हत्या वाली फिल्मों में अपवाद है। इसमें शुरू, मध्य और अंत का औपचारिक हिसाब-किताब नहीं धारण किया जाता। सीधी-सपट है पर तमाम कंपोनेंट मिलकर असाधारण अनुभव सृजित करते हैं। इसमें एक बेन मेंडलसन, एक जेम्स गैंडॉलफिनी न करते हुए भी ऐसा अभिनय कर जाते हैं कि दूसरा होता तो न कर पाता। इसमें एक अभिनेता के तौर पर ब्रेड का साहस नजर आता है, कि वो लगातार ऐसे प्रोजेक्ट छू रहे हैं। इसमें एंड्रयू डॉमिनिक का बतौर फिल्मकार और बतौर ऑस्ट्रेलियाई, अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना का गहरा विचार है, जो फिल्म के पुर्जे-पुर्जे में चिपका होता है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था का गिराव जो कुछ नियमन न होने की वजह से है तो कुछ साजिशन। इन सबके बाद जरूरी तौर पर आती है एक फिल्मकार द्वारा अपने प्रतिभा से बनाई गई एक कृति, हिगिन्स के बाकी उपन्यासों और ‘कोगन्स ट्रेड’ की तरह वक्त के साथ जो कभी पुरानी नहीं पड़ेगी, सदा सिनेमाई और विचाराधारापरक संदर्भ प्रदान करती रहेगी।
**** **** ****
गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 16, 2012

जोकर बनाने की विडंबना और पागलपन की परिभाषा

शिरीष कुंदर की  फिल्म ‘जोकर’ पर कुछ लंबित शब्द

एक नई चीज, उदित नारायण ने बहुत दिन बाद गाना गाया है... “जुगनू बनके तू जगमगा जहां...” हालांकि ये उनके ‘बॉर्डर’, ‘लगान’ और ‘1942 अ लव स्टोरी’ के मधुर स्वरों से बहुत बिखरा और बहुत पीछे है। ऐसा गाना है जिसे सुनने का दिल न करे। बोल ऐसे हैं कि कोई मतलब प्रकट नहीं होता। लिखे हैं शिरीष कुंदर ने। निर्देशन, सह-निर्माण, संपादन, लेखन और बैकग्राउंड म्यूजिक (और भी न जाने क्या-क्या) सब उन्हीं ने किया है। या तो उन्हें दूसरे लोगों की काबिलियत पर यकीन नहीं है या फिर ऑटर बनने की रेस में वह फ्रांसुआ त्रफो और ज्यां लूक गोदार से काफी आगे निकल चुके हैं। खैर, नो हार्ड फीलिंग्स। उनके ट्वीट बड़े रोचक होते हैं। सामाजिक, सार्थक, हंसीले, तंजभरे, टेढ़े, स्पष्ट, बेबाक, ईमानदार और लापरवाह। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं ‘जोकर’ की...

महीनों पहले आई न्यू यॉर्क टाइम्स की 2012 में प्रदर्शित होने वाली बहुप्रतीक्षित फिल्मों की सूची में एक हिंदी फिल्म भी थी। ‘जोकर’। बहुप्रतीक्षा थी कि जबरदस्त पटकथा वाली ये एक आश्चर्य में डाल देने वाली साई-फाई (साइंस फिक्शन) होगी। जब तक फिल्म का पहला पोस्टर बाहर न आया था, सभी को यही लग रहा था। मगर एक फिल्मी किसान वाले अच्छे से धोए-इस्त्री किए परिवेश में जब अक्षय कुमार पहली बार पोस्टर में नजर आए तो व्यक्तिगत तौर पर अंदाजा हो गया था कि ‘सॉरी वो इसे नहीं बचा सके’। हुआ वही, ‘मृत्यु’। इसे नहीं बचाया जा सका। क्यों नहीं बचाया जा सका? इस पर आगे बढ़ने से पहले शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ की सबसे अच्छी तीन बातें:-

  • पागलों के गांव से अगस्त्य के अमेरिका तक पहुंचने का विचार कुछ वैसा ही है जैसे गांवों में अभावों या देश के किसी भी अविकसित इलाके से निकले हर पीढ़ी के युवा का पढ़ाई-लिखाई करके लायकी तक पहुंचने का होता है। ये सांकेतिक है। ऐसा सोचा जा सकता है। हो सकता है पटकथा लिखते हुए फिल्मकार ने ये बड़ी शिद्दत से सोचा है, हो सकता है उसने बिल्कुल भी नहीं सोचा है। पर फिल्म में ये (अपरिवक्वता से फिल्माई) अच्छी बात है।
  • अमेरिका से आए हैं तो कोई प्रोजेक्ट लगाने के लिए ही आए होंगे? पानी... अच्छा मिनरल वॉटर प्लांट? कोई भी एनआरआई भारत आता है और किसी सरकारी नुमाइंदे या राजनेता से मिलता है तो उनकी यही धारणा उसके बारे में होती है। मसलन, सुभाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में दिवालिया हो चुके रजत कपूर के किरदार का भारत आना और वहां उन्हें डॉलरपति समझकर अगुवा कर लिया जाना। ये धारणा और हकीकत (अपरिवक्वता से फिल्माई) दिखाई जानी अच्छी है।
  • जब पगलापुर में बिजली आने की घोषणा कर दी जाती है और वहां दूर-दूर से आए लोगों का मेला जुटना शुरू होता है तो एक गाना आता है। उसमें फ्रिज बेचने वाली दुकानों और बाजारवाद की आंशिक आलोचना की गई लगती है, जो सार्थक है।

...पर अंततः ये सब बिखरा है।

फिल्म शुरू होती है कैलिफोर्निया से। अगस्त्य (अक्षय कुमार) यहां एक वैज्ञानिक है। परधरती पर जीवन की खोज कर रहा है। एलियंस से संपर्क करने की मशीन बना रहा है। यहां राकेश रोशन और ‘कोई मिल गया’ की याद आती है, जब अगस्त्य कहता है, “या तो बाहर कोई दुनिया नहीं है, या मेरे पास वो मशीन नहीं है जिससे एलियंस से संपर्क हो सके”। खैर, हम नए संदर्भ तो पाल ही नहीं सकते। ले दे के दो-तीन तो हैं। बहरहाल, जो रिसर्च के लिए अगस्त्य को पैसा दे रहे हैं उन्हें नतीजे चाहिए। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए उसके पास एक महीना है। थका-हारा ये एनआरआई घर पहुंचता है। घर पर उसकी गर्लफ्रेंड-कम-वाइफ दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) इंतजार कर रही होती है। इस खबर के साथ कि इंडिया से अगस्त्य के भाई का फोन आया था कि उसके पिता की तबीयत बहुत खराब है, फौरन चले आओ। दोनों भारत निकलते हैं। अलग-अलग परिवहन से पगलापुर पहुंचते हैं। जगह जो भारत के नक्शे पर नहीं है। कहा जाता है कि इसी वजह से यहां कोई भी आधारभूत ढांचा नहीं है। इसे पागलों का गांव बताया जाता है। यहां आते-आते मुझे आशंका होने लगती है कि पगलापुर नाम से शुरू की गई ये कॉमेडी उनके साले साहब साजिद खान की फिल्मों (हे बेबी, हाउसफुल, हाउसफुल-2) की कॉमेडी की दिशा में ही जा रही है। एनिमेटेड चैपलिन सी, गिरते-पड़ते किरदारों वाली, अजीब शाब्दिक मसखरी वाली और ऊल-जुलूल।

अगस्त्य और दीवा पैदल गांव में प्रवेश कर रहे हैं कि उन्हें छोटा भाई बब्बन (श्रेयस तलपडे) दिखता है। वह कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठा होता है, उसे ही काट रहा होता है। बाद में दिखता है कि वही नहीं बहुत से दूसरे गांव वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं और बाद में सभी डाल कटने पर नीचे गिर जाते हैं। ठीक है, ऐसा हो सकता है, हम हंस भी सकते हैं, पर फिर पूरे संवाद, घटनाक्रम, कहानी में उसी किस्म का सेंस बनना चाहिए। जो नहीं बनता। श्रेयस के किरदार की भाषा जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अवतार’ के नावी की तरह बनाने की कोशिश की गई है। पर श्रेयस बार-बार कुल तीन-चार शब्दों को ही बोल-बोलकर हंसाना चाहते हैं और ऐसा हो नहीं पता।

आगे बढ़ने पर खुले में बच्चों को पढ़ा रहे मास्टरजी (असरानी) दिखते हैं। वह बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे होते हैं। बच्चों को कहते हैं, “जोर से बोलो”, तो बच्चे बोलते हैं, “जय माता दी”, इस पर मास्टरजी कहते हैं “अरे पहाड़ा जोर से बोलो”। इतनी बार सार्वजनिक दायरे में इस चुटकुले को सुना-सुनाया जा चुका होगा पर फिल्म में इस्तेमाल कर लिया जाता है। असरानी का ये किरदार अंग्रेजी की टांग मरोड़कर बोलता है। जब वह कहते हैं “हेयर हेयर रिमेन्स”... तो उसका मतलब होता है ‘बाल-बाल बचे’। इसी पाठशाला से पढ़कर साइंटिस्ट बना है सत्तू (अगस्त्य का गांव का नाम)।

मास्टरजी के दो अंग्रेजी के जुमले भी पढ़ते चलें...
“हाइडिंग रोड़” (ये छुपा हुआ रास्ता है)
“डोन्ड फ्लाइ आवर जोक्स” (तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो)

हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी न बोल पाकर किरदारों ने बहुत से अंग्रेजों को हंसाया है। इनमें सबसे कामयाब मानें तो हाल में संजय मिश्रा के किरदार रहे हैं। वह ‘गोलमाल-3’ जैसी फिल्मों में जिस अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसकी स्पेलिंग गलत बोलते हैं और लोग हंसते हैं। ऐसा उनका किरदार अनवरत एक समान करता है, कहीं भी बिना किसी भटकाव के। पर मास्टरजी तो एक टूटती कलम से लिखे गए किरदार हैं, ये शुरू के दो मौकों पर हंसा देते हैं तो पटकथाकार आगे फर्जीवाड़ा करके निकल जाता है।

पगलापुर के किरदारों के परिचय के मौके पर लोग हंसते हैं। मुझे लगता है, लोग पागल शब्द से जोड़कर देखते हैं हर घटना, किस्से और आदमी को। फिल्म के किरदारों की हरकतों पर लोग ज्यादा हंसते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनके दिमाग की परतों में सिनेमा के पागल किरदारों और उनपर हंसने की प्रवृत्ति हावी है। यहां जब कह दिया जाता है कि ये पगलापुर के लोग हैं और इनका खौफ इतना है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी जो भारत के नक्शे पर गावों और कस्बों को दर्ज कर रहा होता है, उन्हें आता देख गांव के बाहर से ही अपनी गाड़ी मुड़वा लेता है। पर असल मायनों में ‘पागल’, ‘ग्रामीण’, ‘हंसोड़’ और ‘भोले’... इन चार शब्दों में शिरीष ने कोई फर्क नहीं किया है। कहीं पर जो ग्रामीण भर है वो पागल लगता है, कहीं पर जो पागल है वो महज ग्रामीण लगता है। कहीं वो बस भोले लगते हैं पागल नहीं, कहीं वो बस हंसा देना चाहते हैं कमतर नहीं होना चाहते। पर यहीं किरदारों-शब्दों का निरूपण न करने की बेपरवाह प्रवृत्ति नाखुश करती है और फिल्म को मृत्यु की ओर ले जाती है।

कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिता के पास पहुंचने पर अगस्त्य को पता चलता है कि वह तो बिल्कुल ठीक हैं (हालांकि यहां तक उन्हें पागल बताया जाता है)। जब नाराज होकर वह निकलने लगता है तो पिता (दर्शन जरीवाला) रोकते हैं और समझाते हैं कि इतने साल से उनका गांव नक्शे पर नहीं है, कोई सरकारी मदद और विकास उन तक नहीं पहुंचता, चूंकि तुम पढ़-लिखकर आगे बढ़े हो तो गांव के अपने भाइयों को भी इस दलदल से निकालो (दलदल, जिसे सभी काफी एंजॉय करते प्रतीत होते हैं)। ये सुनकर अगस्त्य रुक जाता है। यहां तक ‘सबकुछ ठीक है’, ‘अच्छा है’, ‘बहुत बुरा है’, ‘ऐसा क्यों’, ‘अरे यार’, ‘अरे शिरीष’, ‘धत्त’, ‘स्टूपिड’... ये विचार मन में चल रहे होते हैं। फिल्म खत्म होने तक सभी नैराश्य में तब्दील हो जाते हैं।

जानते हैं कुछ जिज्ञासाएं और बिंदुपरक बातें जो शिरीष की इस कोशिश को सम्मान नहीं दिला पातीं:-

  • यहां सब पागल हैं फिर भी इनकी बातों को सीरियसली लेकर अगस्त्य गांव क्यों चला आता है? और फिर बब्बन तो बोल भी नहीं सकता, फिर अगस्त्य का कौनसा भाई कैलिफोर्निया दीवा से फोन पर बात करता है? चलो बात किसी ने भी की हो, पर अगस्त्य को तो पता है न कि उसका भाई आम भाषा में बोल नहीं सकता। इतना सब न सोचने और गांव चले आने पर अक्षय के किरदार का नाराज होना।
  • एक तरफ हमें यकीन दिलाया जा रहा है कि ये पागलों का गांव है। इसका नाम तक किसी ने नहीं सुना और यहां कोई आता नहीं है। फिर अक्षय-सोनाक्षी के किरदार जिस दिन पहुंचते हैं, उस रात पगलापुर में शानदार आलीशान ग्लैमरस आइटम सॉन्ग का आयोजन किया जाता है। यहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है, आधारभूत ढांचा नहीं है पर आइटम सॉन्ग के लिए दुरुस्त लड़कियां-सेट और रोशनी आ जाती है। यहां पढ़ने के लिए रोशनी नहीं है पर इस गाने के सेट को देखिए जो चित्रांगदा सिंह से ज्यादा दमक रहा होता है। कहते हैं यहां पढ़ाई ही नहीं है, पर गाने के लिरिक्स देखिए। पीछे खड़े सैंकड़ों डांसर देखिए। अगर ये गांव के ही हैं तो पागल क्यों नहीं? दिखने में तो बस ज्यादातर खूबसूरत लड़कियां हैं या फिर गे या वृहन्नला।
  • यहां सब घर टूटे हैं, खंडहर से हैं। पर अक्षय-सोनाक्षी एकदम साफ-सुथरे हैं। उन्होंने गांव पहुंचने के बाद मुंह कहां धोया, नाश्ता क्या किया? रात तक पता नहीं चलता। (ये सब वो चीजें हैं जो फिल्म के सेट पर चीजों के मैनेज करते डायरेक्टर की टेंशन में नहीं आती कि छूट जाएं। ये वो चीजें हैं जो पटकथा लिखने की टेबल पर ही लिखी जाती हैं। अगर आप सैंकड़ों घंटे एक एनिमेटेड एलियन बनाने में लगा सकते हैं तो इन मूल चीजों को दुरुस्त करने में क्यों नहीं?)
  • श्रेयस और विंदू के कपड़े और अभिनय। इनका क्लीन शेव्ड चेहरा, सामान्य रूप से कटे बाल, न जाने किस काल के किसानी कपड़े और जिंदगी के पहले स्कूल प्ले सी एक्टिंग क्या नाव में बड़े-बड़े छेद नहीं हैं?
  • प्रिंस के कुएं में गिरने की बात को इतने साल बाद फिल्म में संदर्भ के तौर पर लिया जाना। क्या उसके बाद कोई बच्चा कुएं में नहीं गिरा? उसे क्यों नहीं लिया जा सकता था?
  • जहां बिजली नहीं है वहां टीवी या मल्टीप्लेक्स के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में एक दृश्य में बब्बन बने श्रेयस 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ के गीत “घनन घनन घन घिर आए बदरा” को अपनी एलियन सी भाषा में गुनगुना रहे होते हैं। ये कैसे?
  • ये अभावों से ग्रस्त इलाका है। बिजली नहीं है तो ट्यूबवेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। नहरी खेती के लिहाज से भी सरकारी फाइलों में पानी की बारी का यहां के खेतों में आ पाना संभव नहीं है। जब कोई विकल्प ही नहीं है तो क्या मान लें कि महज बरसाती खेती करके पगलापुर के लोगों ने आलीशान फसलें खड़ी कर रखी हैं? ऐसे लोगों ने जो कथित तौर पर पागल हैं। जिन्हें अपने घर पर सफेदी करने तक का शऊर नहीं है।
  • बिन बिजली अगस्त्य का एप्पल का लेपटॉप यहां कैसे चार्ज होता है?
  • लोकल नेता गांव के लिए बिजली की घोषणा भर करता है कि बस मेक्डी, लैपटॉप और कोका कोला जैसे ब्रैंड के जगमगाते होर्डिंग तुरंत लग जाते हैं (तुरंत कायापलट हो जाता है) कैसे? इतने बड़े ब्रैंड इतनी अंदरुनी जगह पर कैसे पहुंच जाते हैं? क्या इंतजार कर रहे होते हैं? (अगर इस तथ्य को सांकेतिक तौर पर लिया गया है तो भी फिल्म में यूं फिट नहीं होता) और फिर पगलापुर के सब लोग अजीब सी घड़ियां, गॉगल्स, जूते और कलरफुल जैकेट तो गांव में ब्रैंड्स के आने से पहले ही पहनने लग जाते हैं।
  • अमेरिकी साइंटिस्ट और अगस्त्य के प्रतिस्पर्धी साइमन को ढूंढने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी एफबीआई के हैलीकॉप्टर्स पगलापुर के आसमान में उड़ते नजर आते हैं। क्या पगलापुर भारतीय टैरेटरी में नहीं आता है? क्या ये अफगानिस्तान या क्यूबा की खाड़ी है कि अमेरिकी लोगो लगे हैलीकॉप्टर इस तरह खुले तौर पर कभी भी घुस आएं? भारतीय वायुसेना क्या ऐसे वक्त में सांप-सीढ़ी खेल रही होती है?
  • जमीन से तेल निकलता है तो क्या उससे कोई नहाता है? फिर यहां सब गांववाले क्यों नहाते हैं?

फिल्म में ऐसे कई और सवाल भी बनते हैं, पर इतनों से चित्र स्पष्ट होता है। ये कैसी विडंबना है कि शिरीष बड़े सपने देखते हैं और उनका पालन करते वक्त न जाने क्या गलतियां कर बैठते हैं कि ख्वाबों का एक-एक पंख टूटकर बिखर जाता है। वह कहीं बाजारवाद की सफल आलोचना कर पाते हैं तो कहीं पर विकास की अवधारणा को रत्तीभर भी नहीं समझ पाते। ‘जोकर’ के आखिर में वह दिखाते हैं कि पगलापुर की जमीन के नीचे बह रहा तेल फूट पड़ा है और अब विकास होगा। क्या तेल निकलना किसी जगह के लिए विकास का प्रतीक होता है? एक इंसान, विचारक और फिल्मकार के तौर पर वह क्या समाज और विकास के मॉडल की इतनी ही समझ रखते हैं? जितनी निराशाजनक ये डेढ़ घंटे की फिल्म है उतना ही ये असमझियां। इससे अच्छा तो तेल और खून से सनी डेनियल डे लुइस के अभिनय वाली ‘देयर विल बी ब्लड’ देखना है जो तेल के कुओं वाली जगहों और तेल से नहाए लोगों पर धारदार टिप्पणी करती है। और ‘जोकर’ हंसते-हंसते भी सामाजिक-आर्थिक विद्रूपताओं का कान नहीं मरोड़ पाती।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, September 6, 2012

टाइगर हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर नहीं है, बस एक फिल्म है, जिसे देखनी थी देख ली, जिसे देखनी है देख लेगा

“In the dark world of intelligence and espionage, there are shadows without faces, and faces without names. Governments fight shadow battles through these soldiers of the unknown. Battles have no rules, No limits. Nobody on the outside knows what goes on in these secret organizations. All information is guarded in the name of National security. But, some stories escape the fiercely guarded classified files. Stories that become legends. This is a film about one such story, a story that is spoken about only in hushed whispers. A story that shook the very foundation of this dark world. But like all reports that come out of this uncertain world, nobody will ever confirm those events. It may or may not have happened. This story is about an agent named TIGER. It may now be told...”

गंभीर प्राक्कथन। पढ़ने के बाद हमारी भौंहे किसी रहस्य-रोमांच और बुद्धिमत्ता भरी कहानी को देखने के लिए खुद को तैयार करती हैं। उम्मीद करती हैं कि कोई ‘बोर्न आइडेंटिटी’ माफिक चतुर पटकथा रास्ते में जरूर आएगी। चूंकि ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी सहज फिल्म बनाने वाले (मिसाल में ‘न्यू यॉर्क’ को न जोड़ें) कबीर खान का निर्देशन है और कहानी को इंडिया के असली जासूस गंगानगर मूल के रविंद्र कौशिक (उनका छद्म नाम ‘ब्लैक टाइगर’ था) की जिंदगी पर आधारित बताया जाता रहा, तो यहां तक दर्शक को भी सहज रहने और फिल्म देखकर कुछ नया पाने की उम्मीद करने का पूरा अधिकार रहता है। मगर जब फिल्म के जासूसी किरदार टाइगर के साथ सलमान खान का नाम जुड़ता है तभी से ये प्राक्कथन और गंभीरता की उम्मीदें खत्म करनी पड़ती हैं। यहां से स्क्रिप्ट, निर्देशक और टाइगर का किरदार गौण हो जाता है और सलमान खान व उनके तथाकथित प्रशंसक मुख्य हो जाते हैं। तो फिल्म देखने के तमाम मानदंड यहां बदलते हैं।

‘वॉन्टेड’, ‘दबंग’, ‘रेडी’ और ‘बॉडीगार्ड’ के बाद ‘एक था टाइगर’ भी बंधे-बंधाए सूत्रों और अपेक्षाओं के साथ आती है। (बंधे-बंधाए सूत्र और अपेक्षाएः- कहानी शुरू होगी। हीरो, हीरोइन, विलेन, हीरो का मिशन और बाकी कुछ चीजें स्थापित होंगी। थोड़ी देर में केंद्र में हो जाएंगी हीरो-हीरोइन की नोक-झोंक, बार-बार मिलना, गाने गाना, डायलॉगबाजी और चुहलबाजी। फिर वफादार दर्शक सलमान भाई और उनकी प्रचलित अठखेलियों के आगोश में कहकहे लगाएगा। काफी देर बाद हीरो से विलेन मिलेगा। या फिर कहानी का मुख्य बिंदु, गाड़ी चल पड़ेगी और फिल्म आगे बढ़कर खत्म हो जाएगी।) और उन पैमानों पर ‘एक था टाइगर’ अव्वल आती है। कोई शिकायत नहीं रहती। पर काली कलम लेकर काले अक्षर उकेरे जाने हमेशा जरूरी रहे हैं। तो...

‘एक था टाइगर’ की सबसे चतुर चीज वो लगती है जब क्यूबा की धरती पर गाना गाते सलमान और कटरीना से ध्यान हटाकर कैमरा एक दीवार की तरफ केंद्रित होता है। इस दीवार पर वहां की भाषा में साम्यवादी क्रांतिकारी हीरो चे गुवेरा का एक कथन लिखा होता है, जिसका अर्थ होता है, “जिस मुहब्बत में दीवानगी नहीं, वो मुहब्बत ही नहीं”। सही कहूं तो इस उक्ति के चतुर इस्तेमाल के अलावा न तो मुहब्बत कहीं नजर आती है, न दीवानगी। नजर आता है तो बेहद चतुराई से फिल्माया गया (चतुर यूं कि इसे देखते हुए ज्यादातर वक्त ये लगता है कि इन स्टंट्स में सलमान खान ने बॉडी डबल का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि सारी विस्मयकारी उछल-कूद मोरक्को जैसी लगने वाली (उत्तरी इराक) किसी विदेशी धरती पर उन्होंने खुद की है) फिल्म का ओपनिंग एक्शन सीक्वेंस। सब्जी बाजार, छतों, खिड़कियों, सड़कों और भीड़ के बीच कारीगरी भरी एडिटिंग और छायांकन के अलावा अगर कोई इन एक्शन को ध्यान से देखेगा तो पाएगा कि सलमान की ही काठी का कोई नौजवान ये सीन कर रहा है। जहां कहीं सामने की ओर से भागते सलमान दिखते हैं, वहां कंप्यूटर ग्राफिक्स से किसी बॉडी डबल के चेहरे पर सलमान का मुखौटा लगाया होता है। जैसा बहुत बरस पहले एक कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन में सचिन और उनका मुखौटा लगाए बच्चे नजर आए थे। बहुत बारीकी से देखें तो आसानी से फर्क जान पाएंगे। जब बात स्टंट की हो रही है तो फिल्म में ट्रैन में लड़ने वाला सीक्वेंस पूरी तरह हवा-हवाई है, यानी ऐसा असंभव स्टंट जो काल्पनिक कहानी में भी संभव तरीके से नहीं फिल्माया लगता। वहीं सबसे आखिर में एक चार्टर्ड हवाई यान के समानांतर मोटरसाइकिल दौड़ाकर उछलना और यान को पकड़ना, बेहद प्रभावी दृश्य है। असंभव है, पर फिल्माने के तार्किक तरीके से संभव हो जाता है।
विदेशी मिशन पर जाने और हीरोइक करतब करने के अलावा टाइगर (सामाजिक जीवन में उसका नाम ये नहीं है) की दिल्ली की औसत कॉलोनी में रहने वाली लाइफ भी है। सुबह किसी आम आदमी की तरह ही, वह अपने दरवाजे पर पतीला पकड़े खड़ा होता है, पतीले में दूधवाला दूध गिरा रहा होता है। वहां बनियान पहने टाइगर के पहलवानी रूप और दर्शकों के सब-कॉन्शियस माइंड में पसरे सलमान खान के ऑरा का मिलन सा हो रहा होता हैं। यहां पर कुछ ग्लैमर टूटता है तो दर्शक इसे बदलाव के तौर पर लेते हैं कि देखो दिल्ली के रियलिस्टिक मोहल्ले में खड़ा है सलमान। जब फिल्म में बतौर डायरेक्टर कबीर खान और लेखक नीलेश मिश्रा जुड़े हों तो दिल्ली का वास्तविक रूप कुछ तौर पर शामिल करने की कोशिश तो दिखनी ही थी। ये और बात है कि वो वास्तविकता सही से नहीं आ पाई।

कहानी यहां से ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचती है। रॉ प्रमुख शेनॉय (गिरीष कर्नाड) टाइगर को एक नए मिशन पर यहां भेजता है। उसे यहां ट्रिनिटी में पढ़ा रहे एक छद्म प्रफेसर (रोशन सेठ) पर नजर रखनी है। पैंट, शर्ट, कोट और टाई पहने ये जेंटलमैन कैंपस में पहुंचते हैं। इस दौरान टाइगर को पेशाब की हाजत होती है, पर वक्त नहीं मिलता, प्रफेसर निकल जाते हैं। तो झाड़ियों में मुक्त होने गया टाइगर साइकिल ले फिर प्रफेसर के पीछे भागता है। यहां हल्के में निकलने से पहले ये तथ्य भी सही से सामने आता है कि एक असल जासूस की जिंदगी कितनी मुश्किल होती है। प्रफेसर के पीछे जाने पर उनके घर की शिनाख्त बाहर से टाइगर कर लेता है। यहां उसे मिलती है जोया (कटरीना कैफ) जो प्रफेसर के घर में आ-जा सकने वाले अकेली शख्स है। रात में टाइगर जोया के हॉस्टल पहुंच जाता है।

वह खिड़की से देखती है कि टाइगर सामने बेंच पर लेटा है तो उसके कमरे में आने को बोलती है जो एक मंजिल ऊपर होता है। जोया टाइगर को पाइप पर चढ़कर आने को बोलती है तो वह उसके देखते सामने नहीं चढ़ता। लगता है, अपनी रॉ एजेंट होने की पहचान गुप्त रखना चाहता है और एकदम से पाइप पकड़कर चढ़ गया तो जोया को शक होगा कि ये राइटर तो हो नहीं सकता। पर आगे ऐसा नहीं होता। वह चढ़ जाता है। धीरे-धीरे वह जोया के मोह में यूं पड़ता है कि अपनी लेखक होने की छवि गढ़ने पर ध्यान नहीं देता और प्यार में पड़ता जाता है। दोनों के बीच एक रिश्ता बनता जाता है। एक सीन में जब टाइगर जोया को किताब उपहार में देता है तो वह रोने लगती है। वह पूछता है, कि रो क्यों रही हो तो जोया कहती है कि किसी की याद आ गई। फिल्म में यही एक खास जगह होती है, जहां सलमान के भाव बेहद प्राकृतिक लगते हैं।

ऐसे कुछेक मौकों पर वह अपनी पारंपरिक छवि से जरा अलग होते हैं, पर बीच-बीच में पुराने टोटके आते जाते हैं। मसलन, कोई टाइगर को कुछ पूछता है तो वह सोचने लगता है। उसके सोचने के भीतर एक जासूस के काम की मुश्किलों को दर्शकों के सामने मजाकिया तरीके से परोसा जाता है। कभी सोचने में उसके पीछे कुत्ते दौड़ रहे होते हैं तो कभी चाइनीज, अंग्रेज, बुर्केवाली और दूसरे किस्म की अंगरक्षक खूबसूरत लड़कियां। फिल्म में कटरीना के आमसूत्र के विज्ञापन मुताबिक रस से भरे होठ सबसे प्रॉमिनेंट रहते हैं। बंजारा... गाने में उनके होठ पर कैमरा इतनी मादकता से केंद्रित होता है कि लगता है उनमें कोई बड़ा सा इंजेक्शन घौंपा गया है। फिल्म का ये सबसे बुरा वक्त होता है।

तकनीकी तौर पर कुछ गड़बड़ियां भी रहती हैं। भारत-पाक के नुमाइंदे जब इस्तांबुल में मिलते हैं तो वहां इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लोग दौड़कर भीतर आते हैं और तुरंत सवाल पूछने लगते हैं। असल में ऐसा कहीं नहीं होता। सुरक्षा कारणों से डेलेगेट्स और प्रेस के बीच एक कोड ऑफ कंडक्ट होता है। प्रेस को एक नियत जगह पर खड़ा होना या बैठना होता है। वो वहीं से खड़े होकर अनुशासन से सवाल पूछ सकते हैं। कॉन्फ्रेंस में लाल बॉर्डर वाली काली सलवार-कमीज पहने सिर पर चुन्नी डाले कटरीना पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी सी ज्यादा लगती हैं और किसी आईएसआई एजेंट सी कम। वैसे हो भी सकता है क्योंकि सीक्रेट एजेंट तो कोई भी हो सकता है।
बाद में फिल्म क्यूबा पहुंचती है। जहां अपनी-अपनी गुप्तचर एजेंसियों को धता बता, अपने प्यार के पर फैलाए जोया-टाइगर चले आते हैं। पहले हिंदी फिल्मों में यूं क्यूबा नहीं आया गया है। संदर्भ के लिहाज से (दोनों किरदारों का दुनिया के खूबसूरत टूरिस्ट स्पॉट पर यूं भटकना) फिल्म यहां एंजलीना जॉली की ‘सॉल्ट’ और उनकी-जॉनी डेप की ‘द टूरिस्ट’ जैसी भी लगती है। पर खूबसूरत लोकेशन पर जाने से काम नहीं चलता। हवाना, क्यूबा जाने को एयरपोर्ट पर भेस बदलकर खड़ी कटरीना की नाक और सलमान की दाढ़ी खूब नकली लगती है, समझ नहीं आता कि उन्होंने इस रफ मेकअप को फाइनल प्रिंट में स्वीकार कैसे कर लिया। वह मेकअप लरत-लरज गिरता लगता है।

इस साल मार्च में ‘एजेंट विनोद’ आई थी। हॉलीवुड की बॉन्ड और जेसन बॉर्न फिल्मों के जवाब में। अब आई है ‘एक था टाइगर’। हालांकि इस लीग से तो ये फिल्म तुरंत बाहर हो जाती है, पर भारत के कस्बाई दर्शकों के लिए ठीक-ठाक मनोरंजन लेकर आती है। हिंदी सिनेमा में सीधे तौर पर फिल्म का कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहेगा। न ही प्रस्तुति और कहानी कहने के ढंग में कोई अनूठापन है। बस ये एक फिल्म है, सलमान खान की फिल्म, कटरीना कैफ की फिल्म, जिन्हें देखनी थी थियेटर में देखी, जिन्हें फिर देखनी है जल्दी ही टीवी प्रीमियर में देख पाएंगे। इससे ज्यादा बात करने को कबीर खान की ‘एक था टाइगर’ में कुछ है नहीं।
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गजेंद्र सिंह भाटी