सोमवार, 28 सितंबर 2015

मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है, उसमें चाह रहती है कि चीजें इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं: कनु बहल

.Q & A  .Kanu Behl, film writer and director (TITLI).

Amit Sial, Shashank Arora and Ranvir Shorey in a still from Titli.
ये भी ‘तितलियों’ की हत्या का दौर है। चैतन्यता, प्रेम, आजादी, यौन उन्मुखता, समानता, प्रकृति, फकीरी और सहिष्णुता पर संकट है। इस बीच कनु बहल की फिल्म ‘तितली’ आ रही है। कहानी दिल्ली में रहने वाले एक परिवार की है। तीन भाई हैं। सबसे छोटा है तितली। संवेदनशील है और आपराधिक पेशे से दूर जाना चाहता है, उसका ये नाम संभवत: इसीलिए रखा गया है। ये भूमिका नवोदित शशांक अरोड़ा ने अदा की है। बड़े भाई विक्रम का रोल रणवीर शौरी और प्रदीप का रोल अमित सियाल ने किया है। तितली की शादी नीलू से की जाती है जो किसी और से प्यार करती है। नीलू के रोल में शिवानी रघुवंशी हैं। तीनों भाइयों के पिता की भूमिका वरिष्ठ रंगकर्मी और एक्टर-डायरेक्टर ललित बहल ने की हैं। वे नवोदित निर्देशक कनु के पिता हैं।

दिल्ली में पले-बढ़े कनु की मां नवनिंद्र बहल भी वरिष्ठ अदाकारा और एक्टर-राइटर-डायरेक्टर हैं। नोएडा की एपीजे स्कूल में पढ़े कनु ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज से बिजनेस में बैचलर्स डिग्री ली। 2003 में वे कोलकाता के सत्यजीत रे फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (SRFTI) सिनेमा की पढ़ाई करने गए। चार साल बाद 2007 में मुंबई पहुंचे और वहां निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की दूसरी फिल्म ‘ओए लक्की लक्की ओए!’ में असिस्टेंट डायरेक्टर बन गए। उनकी अगली फिल्म ‘लव सेक्स और धोखा’ (2010) में भी वे ए.डी. थे। उन्होंने जर्मनी के चैनल ZDF और जापान के NHK के लिए डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाईं। 2010 में कनु ने अपनी पहली फिल्म ‘तितली’ लिखनी शुरू की जिसकी स्क्रिप्ट 2012 में एनएफडीसी की स्क्रीनराइटर्स लैब में चुनी गई। फिल्म में उनके सह-लेखक हैं शरत कटारिया जो पहले ‘भेजा फ्राय’ जैसी फिल्म लिख चुके हैं और बतौर निर्देशक इस साल उनकी पहली फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ आई है। ‘तितली’ का निर्माण दिबाकर बैनर्जी और यशराज फिल्म्स ने किया है। इसका फिल्मांकन सिद्धार्थ दीवान और एडिटिंग नम्रता राव ने की है। फिल्म पिछले साल फ्रांस के केन (Cannes) फिल्म फेस्ट की विशेष श्रेणी ‘अं सर्तेन रगाद’ (Un Certain Regard) में प्रदर्शित की गई तब से और चर्चा में है। यहां ‘कैमरा दॉर’ (Caméra d'Or) श्रेणी में भी इसे नामांकित किया गया। विश्व के 22 से ज्यादा फिल्म महोत्सवों में अब तक जा चुकी है।

‘तितली’ भारत भर के सिनेमाघरों में 30 अक्टूबर को प्रदर्शित होने जा रही है। इसके अलावा कनु अपनी अगली फिल्म भी लिख रहे हैं। इसका नाम ‘आगरा’ बताया जाता है। ये एक 24 साल के लड़के की कहानी है जो एक लड़की के प्यार में पड़ जाता है। लेकिन जल्द ही ज्ञात होता है कि वो लड़की काल्पनिक है। अभी भारत में प्रेम की परिस्थिति क्या है इसे भी ये कहानी प्रस्तुत करेगी। कनु से उनके जीवन, तितली, सिनेमा और सोच पर बात हुई। प्रस्तुत है:

एक साल पहले ‘तितली’ का ट्रेलर आ गया था और केन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी तब चली गई थी। क्या तब पूरी तरह तैयार नहीं हो गई थी? या भारतीय प्रिंट में समय लगा?
नहीं, दरअसल फिल्म का अंतरराष्ट्रीय चक्र (festival cycle) करीब एक से डेढ़ साल लंबा होता है। एक बार केन (Cannes) चली जाती है तो काफी सारे शीर्ष फेस्टिवल्स में जाती है। हम फेस्टिवल फेरे को पहले पूरा करना चाहते थे। फिल्म पूरे जहां में कुछ सबसे बड़े फिल्म महोत्सवों में गई है। ये रॉटरडैम (Rotterdam) में गई है जो नीदरलैंड्स में होता है। गोटेनबर्ग (Gothenburg) में गई है जो स्वीडन में होता है। एएफआई (American Film Institute), लॉस एंजेलस में गई है। बीएफआई (BFI), लंदन में गई है। इसने 9* पुरस्कार जीते हैं। आमतौर पर ऐसी छोटी फिल्म के लिए काफी प्रयास करने पड़ते हैं। इंटरनेशनल मॉडल को फॉलो करना पड़ता है। इसके पीछे का सारा आधार तैयार करना होता है।

समाज में बहुत सारे विषय और चिंताएं हैं लेकिन पितृसतात्मक (Patriarchal) समाज पर ही आपने अपनी पहली फिल्म क्यों बनाई? ऐसा क्या लिंक रहा इस विषय से?
बहुत ईमानदारी से बोलूंगा। मैंने जब ये फिल्म लिखनी शुरू की थी तो मुझे नहीं पता था कि ये किन-किन थीम्स से रूबरू होगी। मैंने इससे पहले एक और फिल्म लिखी थी जिसकी स्क्रिप्ट मैं एक-डेढ़ साल लेकर घूमा हूं। दिबाकर (बैनर्जी) को भी पढ़ाई। मैंने बनाने की कोशिश की और कहीं न कहीं मुझे अहसास हुआ कि यार, ये ईमानदार फिल्म नहीं है! मैंने बस लिखने के लिए एक फिल्म लिख दी है। इसका कोई मतलब नहीं है। उसके बाद मैं डिप्रेशन में चला गया पांच-छह महीने। घर बैठा। मैंने सोचा कि यार तुमने शुरू क्यों किया था? तुम फिल्म क्यों बनाना चाहते थे सबसे पहले? वो इसलिए कि मुझे कहानी कहनी थी। सच्ची कहानी। जो अपने से जुड़ी हो। फिर वहां से पूरा विचार शुरू हुआ कि इस बार मैं जो लिखूंगा उससे मेरा अपना जीवन और अनुभव जुड़ा होना चाहिए। अच्छे तरीके से और भली-भांति तो मैं अपने परिवार को ही जानता था। सोचने लगा, तो वो एक बहुत ही नेचुरल सब्जेक्ट बन गया मेरे लिए... नॉर्थ इंडिया में रहते हुए, दिल्ली में रहते हुए .. जो कि एक बहुत पेट्रियार्कल सोसायटी है। मेरा अपने पिता से बहुत ही मुश्किल रिलेशनशिप रहा है। कुछ वो चीजें स्क्रिप्ट में ढुलनी शुरू हुईं।

 तो फिल्म बन गई एक ऐसे युवा के बारे में जो अपने बड़े भाई से भागना चाहता है क्योंकि बड़ा भाई बहुत हिंसक है। उसे मारता है, पीटता है, तंग करता है। इसमें कुछ अतिरिक्त बात लाने और इन बिंदुओं को तीखा करने के लिए मैंने और शरत (कटारिया) ने उसे एक फैमिली में सेट किया कि वो एक कारजैकर्स (कार लूटने वाले) की फैमिली से है। क्योंकि ... तभी-तभी ये रेप केस (दिल्ली, 2012) भी हुआ था। उसे भी समझने की कोशिश कर रहे थे। हम लोग लड़खड़ा रहे थे, ढूंढ़ रहे थे कि ये फिल्म है क्या? ये सारी चीजें अभी मैं बोल रहा हूं तो आपको लगेगा कि सोच के करीं, पर सच्चाई ये है कि ये सारे जो फिल्म के दरवाजे थे वो बतौर लेखक हमारे सामने एक-एक करके खुले। हमें ये भी लगा था कि इस फैमिली का हिंसक होना जरूरी है न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी। तो हमने कारजैकिंग की पृष्ठभूमि बनाई और उसके बारे में रिसर्च करना शुरू किया। कहानी के मुझसे जुड़े इमोशंस ये थे कि मेरा अपने फादर से डिफिकल्ट रिलेशनशिप था जो कि अपने आप में ही बहुत कॉमन चीज हैं। शरत का भी अपने पिता से कठिन रिश्ता था, सिद्धार्थ (दीवान) जिन्होंने फिल्म शूट कीं उनका भी अपने पिता से रिश्ता कठिन था। तो ये सबके भी विचार जुड़ते गए फिल्म में, जैसे-जैसे क्रू एड होती गई। शुरुआत यहीं से हुई थी।

 उसे हम पकड़ कर चले और पहला ड्राफ्ट लिखा। इससे ये कहानी चार मर्दों के परिवार की बन गई। एक पुरुषों वाली फैमिली में कोई लड़की आती है और क्या होता है? लेकिन फिर सोचा कि यार, बड़े भाई का किरदार तो आरोपित (accusatory) करने वाला लग रहा है। बड़ा भाई तितली को मार रहा है लेकिन इसमें तो हम गए ही नहीं कि ये ऐसा क्यों कर रहा है? इस घर में बड़ा पैटर्न क्या है? हमने बात करना शुरू किया कि यार अगर हम बोल रहे हैं कि ये जो छोटा लड़का है, वो अपने भाई से भागना चाह रहा है क्योंकि उसे बड़ा भाई जैसा है वैसा पसंद नहीं है तो वो भाई ऐसा बना क्यूं? विचार आया कि ये बाप क्या कर रहा है यहां? इसका क्या रोल है? उसे जब तलाशा तो हमें बाप मिला फिल्म में। एक और ड्राफ्ट लिखा तो लगा कि अच्छा, बड़ा भाई बाप की वजह से ऐसा है। लेकिन फिर हमने सवाल पूछा कि बाप ऐसा क्यों कर रहा है? तो उससे हमें एक दादाजी की फोटो मिली घर में। देखिए, ..फिल्म एक स्पेस है जिसमें हम 100 या 110 दस मिनट में एक स्टोरी कहना चाह रहे हैं.. और जिस दिन हमें आइडिया आया कि घर में एक दादाजी की फोटो है जिसकी पिताजी बार-बार पूजा करते हैं तो वो चक्र (circularity) ज्ञात हुआ। तब हमें पता चल गया कि ये फिल्म किस बारे में हैं?

 असल में फिल्म पितृसत्ता से भी ऊपर उठकर एक फैमिली के बारे में है। परिवार के पावर डायनेमिक्स (power dynamics) आपस में क्या होते हैं उस बारे में है। परिवार में जो ये भूत घूमते रहते हैं न चित्रों के.. और इन एक से दूसरी छवि में जो हस्तांतरित (pass on) होता रहता है.. ये एक्चुअली उसके बारे में है। तब हमें पता चला कि इस लड़के को लगता है कि वो बड़े भाई से भागना चाहता है पर असल में तो वो बाप से या दादा की फोटो से भागने की कोशिश कर रहा है। और शरीर के भागने से कुछ नहीं होगा। आप कितना भी भाग जाओ वो तो हमारे अंदर है। ये करते-करते स्क्रिप्ट की यात्रा रही है। ये मेल डॉमिनेशन से पेट्रियार्की से सर्कुलैरिटी पर चली गई है। मेरे हिसाब से पेट्रियार्की एक रनिंग थीम है फिल्म की। अगर हम सबसे बड़े माले पर जाकर इस पूरी ईमारत को देखें तो सबसे बड़े तौर पर ये फिल्म फैमिली सर्कुलैरिटी के बारे में है।

आपने फिल्म के साथ इतना वक्त बिताया है कि उसे बहुत स्तर पर और बहुत लहजों से जानते हैं। लेकिन बाहर से सिर्फ ट्रेलर देखते हैं तो मोटे तौर पर पेट्रियार्की ही समझ आती है। बड़ा चैलेंज अभी भी हमारे यहां पितृसत्ता वाला समाज है। आप रोज घटनाएं देख रहे हैं। पढ़ने-लिखने के दौरान निराशा ही होती है। ‘मैं हूं मर्द तांगे वाला’ और ‘मर्द को कभी दर्द नहीं होता’ के अमिताभ से लेकर हालिया ‘बाहुबली’ के प्रभास को ले सकते हैं जो शिवेंदु का किरदार करते हैं जिसमें हीरोइन (तमन्ना भाटिया) का उद्देश्य होता है कि वो बदला लेना चाहती है तो नायक उसे रोक देता है। अर्थ दिखता है ‘तू खूबसूरत रह, तू मुझसे लव कर, तेरा काम मैं करूंगा’।
बिल्कुल। ‘तितली’ पेट्रियार्की के बारे में ही है लेकिन इससे पहले भी ऐसी फिल्में रही हैं जो शायद इस मसले को डील कर चुकी हैं। हम बात कर रहे थे कि जब ये सारी फिल्में हैं तो हम अपनी फिल्म क्यों बना रहे हैं? यही बात क्यों कह रहे हैं? तो तय हुआ कि हम इस पर ही खत्म नहीं करना चाहते थे कि हमारे यहां पेट्रियार्की है और वो खराब है, हम उससे जूझ रहे हैं। ये तो सबको मालूम है। इस बात पर तो कई सदियों से लड़ाई चल ही रही है। लेकिन एक बार जब हमने मजबूती से तय कर लिया कि ‘तितली’ में इस विषय पर बात करना चाहते हैं तो उसके बाद हमारा पूरा प्रयास इस पर था कि ये क्यों है? और ये कहां से आती है? और इस पूरी डिबेट को खोला कहां जाए? इसकी शुरुआत कहां से होती है? और अगर इसे तोड़ना है तो क्या किया जाए? बात सिर्फ वहीं पर नहीं रुक जानी चाहिए जहां हर फिल्म ले जा चुकी है। बात उससे आगे जानी चाहिए। पेट्रियार्की के ढांचे को कैसे तोड़ा जाए? फैमिली के मायने क्या हैं? क्यों ये जुड़ी तो उसी से है न! प्रयास इसी पर रहा है कि परिवार और पितृसत्ता को समझा जाए और उसमें जो गलत पैटर्न नजर आ रहे हैं उनसे कैसे जूझा जाए। ये प्रॉबल्म इतना बड़ा है तो इसका मामूली सॉल्यूशन से काम नहीं चल सकता। हमने सोचा कि इसके भीतर जाकर कुछ फिल्टर व परदे और खोले जाएं जो हमें नजर (view) दे कि शायद इस मसले का हल यहां से खुल सकता है। क्योंकि पेट्रियार्की का स्ट्रक्चर हम सबसे बड़ा है। हम उन्हीं परिवारों, उसी पितृसत्ता और उन्हीं भूतों से जूझते हुए कुछ समझे बगैर 80 साल का जीवन जी लेते हैं। यही 70-80 साल अगर पेट्रियार्की के स्ट्रक्चर को समझकर उसका समाधान ढूंढ़ने में लगाएं तो शायद उसे बेहतरी से तोड़ पाएंगे, न कि इंसानों से ही लड़ते रहें। तो फिल्म शुरू उसी लड़ाई से होती है।

यानी आप उपाय भी साथ में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो ज्यादातर फिल्मकारों द्वारा नहीं किया जाता। सत्यजीत रे की ‘महानगर’ बहुत चतुराई से दर्शक से कहती है कि घर की औरत को बाहर निकालो, शुरू में दिक्कत होगी आपको, मां-बाप को लेकिन बाद में बदलाव स्वीकार हो जाता है। ‘अशनी संकेत’ में जाति व्यवस्था पर बहुत मानवीय तरीके से बता देते हैं जहां उनका ध्यान इंसान की बुराई पर नहीं समस्या के ढांचे पर है कि ये समस्या रहेगी अगर आप इसे ऐसे रहने देंगे तो। ‘पाथेर पांचाली’ भी ऐसी थी। या अरुणा राजे की ‘रिहाई’ बहुत ही मजबूत नारीवादी फिल्म थी। आपने कहा कुछ पहले फिल्में रहीं जो इस विषय पर बात कर चुकी हैं, आप के जेहन में कौन सी थीं?
मैं इतनी फिल्में नहीं देखता आजकल। पिछली बार फिल्में फिल्म स्कूल में ही देखी थीं। मैं लिट्रेचर से ज्यादा जुड़ा था। इस संदर्भ में आर. डी. लैंग (R. D. Laing) हैं पॉपुलर साइकैट्रिस्ट, उनकी किताब है ‘द पॉलिटिक्स ऑफ द फैमिली’ (The Politics of the Family)। ये हमारा प्रमुख दस्तावेज बनी थी फिल्म के लिए। मेरी जो समझ है वो इससे बनी, और इससे मेरा वास्ता संयोग से ही हुआ था। मैंने किसी को स्क्रिप्ट का ड्राफ्ट पढ़ने के लिए दिया था कि हम क्या कर रहे हैं और हम बहुत एक्साइटेड हो गए थे कि ये देखो हमें लग रहा है कि हमने कुछ नया ढूंढ़ िलया है। ये सर्कुलैरिटी की बात किसी ने नहीं की थी। उन्होंने पढ़ी और जवाब दिया कि ‘आपने कभी आर. डी. लैंग पढ़ा है?’ मैंने और शरत ने बोला, नहीं सर हमने तो नहीं पढ़ा है। तो बोले, ‘आप ये किताब पढ़ो।’ जब पढ़ी तो अहसास हुआ कि हम जो सोच रहे थे कि हमने नया ढूंढ़ा है दरअसल एक इंसान अपना पूरा जीवन इसी बारे में बात करते हुए निकाल के गया है। इस पेशे में उन्होंने जो भी पचास-साठ साल बिताए वो इसी इश्यू पर लिख रहे थे। सर्कुलैरिटी पे ही लिख रहे थे। कि कैसे पीढ़ियों में व्यक्तित्व यात्रा करते हैं। एक जेनरेशन की पर्सनैलिटी दूसरे पे आती है। हम अपने ही आसपास के लोगों से लड़ते रहते हैं, ब्लेम करते रहते हैं लेकिन शायद ये साइकल ब्रेक करना ज्यादा जरूरी होता है। बाकी फिल्में तो हैं ही लेकिन हमने स्क्रिप्ट लिखते हुए कोई फिल्म नहीं देखी जो परिवार से जुड़ी हो। हमने फिल्मों के अपने सामान्य ज्ञान से ही बातें लीं कि वे कहां तक पहुंची हैं। मेरा तो फिल्म स्कूल जाने का पूरा इरादा ही यही था कि क्या फिल्में बन चुकी हैं और कहां आगे जाया जा सकता है? सेम फिल्में दोबारा बनाने का कोई सेंस नहीं है।

शरत कब जुड़े ‘तितली’ से? और सवाल ये था कि एक निर्देशक या लेखक जो मूल कॉन्सेप्ट अपने दिमाग में पैदा करता है उसे किसी सह-लेखक की जरूरत क्यों पड़ती है? दूसरा, आपके विचार को वो उतनी ही आत्मीयता या मौलिकता से कैसे जान सकता है? क्योंकि वो तो दूसरा आदमी है। और फिर प्रोसेस क्या रहता है लिखने में? वो क्या मदद कर पाता है? जैसे ‘मसान’ में नीरज (घेवन) ने वरुण ग्रोवर को साथ जोड़ा था। तो अच्छी बात बन बड़ी। आपकी फिल्म में भी शरत हैं। क्या सह-लेखक एक बाहरी ही नहीं बना रहता?
Sharat and Kanu.
मेरे हिसाब से फिल्ममेकिंग बहुत सहयोगपूर्ण (collaborative) काम होता है। शरत से लेकर सिद्धार्थ (जिन्होंने शूट की) से लेकर नम्रता (जिन्होंने एडिट की) तक हर इंसान अपनी कहानी इस फिल्म में लेकर आया। इसीलिए ये फिल्म इतनी अच्छी बनी है। शरत तो इसका सबसे पहला हिस्सा था जब कोई नहीं था। शरत का बहुत बड़ा हाथ रहा है। उससे मैं मिला था करीब अक्टूबर 2012 में। और हमें करीब डेढ़ साल लगा ये फिल्म लिखने में। उसका आना बहुत जरूरी इसलिए था क्योंकि एक तो मुझे लगता है हर स्क्रिप्ट एक जीता जागता इंसान होती है। मुझे लगता है उसमें इतनी सारी चीजें, इतने सारे किरदार होते हैं कि एक आदमी का उस पर खेलना थोड़ा सीमित हो जाता है। दो लोग जब मिलकर खेल रहे हैं और उनमें लेन-देन होता है बातचीत का तो हर पात्र के अंदर जो जीवन है थोड़ा बढ़ता है। और खिल उठता है। और उसके अंदर का प्ले ज्यादा दिखता है। हम दोनों के व्यक्तित्व भी थोड़े विरोधाभासी हैं। तो विरोध थे। लेकिन बहुत जल्द ही हमें एक कॉमन चीज को मिल गई, वो ये कि हम दोनों एक ही जगह से थे। कम और ज्यादा हम दिल्ली के समान इलाकों से थे। मैं पटपड़गंज में रहता था और शरत वेस्ट दिल्ली में रहता था। जिन लोगों के बारे में हम बात कर रहे थे उनको मैं और वो बहुत अच्छे से जानते थे। वहीं पर हमको एक बहुत स्ट्रॉन्ग कॉमन ग्राउंड मिल गया। जब हम किसी भी चीज के बारे में बात करते थे तो बहुत जल्दी हमारा एक कोड बन जाता था। शरद की मजबूती है राइटिंग की, वो है कैरेक्टर्स और डायलॉग्स.. और मेरा स्ट्रक्चर का सेंस है और कहानी का सेंस है तो वो एक बहुत अच्छी चाबी बनी और हम दोनों जुड़ गए। वो बहुत बड़ी ताकत थी।

.. मैं ऑथर स्टोरी में बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता हूं। मुझे नहीं लगता डायरेक्टर कोई ऑथर होता है या कोई बहुत बड़ी चीज होता है। मुझे लगता है डायरेक्टर अपना बहुत राजनीतिकरण करते हैं। जबकि फिल्म में टीम वर्क होता है। शरत टीम का सबसे पहला हिस्सा था और दोनों के आने से कहानी कोई तीसरी ही चीज बन गई। मेरे न होने से भी वह नहीं होती और उसके न होने से भी। जब दोनों साथ आए और बात करनी शुरू की, कि भई ये क्यों हो रहा है? शरत बोला कि भई तू तो तितली को बिल्कुल ही पीड़ित (victim) दिखा रहा है और बड़ा भाई बस विलेन ही बन रहा है। उस सवाल पर हम आगे बढ़े। उसके बाद मैंने सवाल पूछे उसके शरत ने जवाब दिए। ये जो मंथन होता है इसके बिना सिर्फ एक राइटर-डायरेक्टर के लिए - कम से कम मेरे मामले में अगर मैं दूसरों की बात न भी करूं - प्रोसेस थोड़ा सा एकाकी (lonely) हो जाता है और थोड़ा सा लाइफ उसमें से जाती रहती है। मुझे लगता है एक को-राइटर के होने से एक वैधता (validity) मिलती है, कहानी को सार्वभौमिकता (universality) मिलती है। क्योंकि वो सिर्फ आपकी कहानी नहीं होती.. आपके पास मौका आ जाता है ये देखने का कि ये किसी और की कहानी भी बन सकती है कि नहीं? या ये सिर्फ मेरी कहानी है? और जिस पल आपको पता चलता है कि हां ये किसी और की कहानी बन सकती है इसका मतलब.. सही है। इसका मतलब आप एक ऐसी विशेष (archetypal) चीज बोल रहे हैं जो आपसे आगे बढ़कर एक बड़ी परिस्थिति के बारे में भी बात कर रही है।

क्या ऐसा होता है कि जिस स्क्रिप्ट या कहानी पर आप जितना वक्त बिताते हैं वो उतनी अच्छी होती जाती है.. या उल्टा? जैसे ‘पीके’ है तो उसमें राजकुमार हीरानी और अभिजात जोशी ने तीन-चार साल बिता दिए और आपने इस पर डेढ़ साल और शायद एक साल पहले किया होगा। या ऐसा भी होता है कि दस दिन या एक-दो सिटिंग में आपने लिख दी हो वो भी आइकॉनिक बन सकती है?
नियम तो कोई नहीं है। मैं सिर्फ इतना बोल सकता हूं कि अच्छी फिल्में एक कहानी के बारे में नहीं होती, कैरेक्टर्स के बारे में होती हैं। मेरे हिसाब से। और कैरेक्टर आता है आपकी लाइफ के निचोड़ से, अनुभव से। जितना ज्यादा आप उसे समय देते हैं वो कैरेक्टर उतना ही ज्यादा आपसे बात करने लग जाता है। और एक्चुअली बहुत सारी लिखाई होती है कैरेक्टर के पास पहुंचने तक.. वही सारा जो एफर्ट होता है, सारा जो डिजाइन होता है वो वही होता है कि कब आप अपने और कैरेक्टर के बीच की दीवार हटा दें और वो आपसे सच्चाई से बात करने लगे। कुछ लोग होते हैं जो दस-दस दिन में भी स्क्रिप्ट लिख लाते जाते हैं और बड़ी अच्छी होती है। लेकिन मेरा विश्लेषण ये है कि ऐसे लोग थोड़े से बिखरे (sporadic) हो जाते हैं। उनकी एक स्क्रिप्ट बहुत अच्छी होती है, फिर एक नहीं, फिर एक बहुत अच्छी होती है। वो थोड़ा सा त्रुटि वाला प्रोसेस (Error sticken process) होता है। कभी कभी हो जाता है कभी नहीं होता है। लेकिन जितना टाइम आप किसी चीज को दें उतना वो आपको वापस देती है, ये तो तय है। अगर आप उतना ही समर्पित हैं अपने प्रोसेस को लेकर.. सिर्फ टाइम के लिए टाइम लगाएंगे तो जाहिर है कुछ नहीं होगा.. अगर आप उतने ही समर्पण के साथ अपनी कहानी और पात्रों के पीछे जा रहे हैं और उनकी पूंछ पकड़कर बोलें कि हां भई बताओ तुम क्या कहना चाहते हो.. तो मुझे लगता है ज्यादा टाइम हमेशा फायदेमंद ही होता है।

‘तितली’ को लेकर एक्टर्स, सिनेमैटोग्राफर, एडिटर और बाकी टीम को आपका ब्रीफ क्या रहा?
हमने सबसे पहले तो सबको वो किताब पढ़ाई। फिर कुछ म्यूजिक था। एक-दो गाने थे जो मैंने सबको सुनाए। जो मूड देते हैं फिल्म का। कि हम ये मूड देना चाहते हैं.. 

गाने मतलब?
मैंने जो म्यूजिक सुना हुआ था लाइफ में जिससे मुझे पता लगा कि हम इस मूड का पीछा कर रहे हैं। वो गाने। और हमारा एक शब्द था - मैं अपनी हर फिल्म में एक शब्द रखता हूं जो कहानी का पूरा निचोड़ होता है। ‘तितली’ में वो शब्द था उत्पीड़न (oppression)। ‘तितली’ हर तरह के ऑप्रेशन के बारे में है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यही थी कि ये फिल्म चक्र (circularity) के बारे में है। इस बारे में है कि कैसे जिस इंसान की पर्सनैलिटी से आप सबसे ज्यादा दूर भागना चाहते हो.. आप जितना दूर उससे भागते हो वो उतना ही आपके अंदर जागना शुरू हो जाता है। आप दूर भाग तो जाते हो लेकिन क्योंकि आप इतना उसके बारे में सोच रहे हो कि उसकी लौ आपके अंदर उतनी ही जलनी शुरू हो जाती है। इस फिल्म का हर पात्र, हर पल, हर कॉस्ट्यूम, हर प्रॉपर्टी, हर बात इसी बारे में है। इसे इसी लेंथ से देखना है। इसके अलावा ये बात की कि तुम्हारी लाइफ में क्या अनुभव थे जो इस चीज से जुड़ते हैं? और जब भी किसी से ये बात करते थे तो कोई न कोई नया अनुभव जुड़ता था। देखिए, फैमिली ऐसी चीज है कि जिससे हर कोई जुड़ा होता है। तो हरेक का अनुभव है और हम मानवों के पैटर्न इतने समान हैं कुल मिलाकर कि हर किसी की फैमिली में कुछ न कुछ झगड़ा या परेशानी होती था। बात करते थे तो वो वहीं से निकल कर आता था। कि हां यार, मैं अपने पिता जैसा नहीं बनना चाहता था लेकिन अब मैं बड़ा हो रहा हूं तो उन्हीं के जैसा बनता जा रहा हूं। कि हां मैं अपनी मां से इतना ज्यादा कुढ़ती थी, पूरी कोशिश करी कि कभी अपनी मां जैसी न बनूं लेकिन अब मुझे लगता है कि यार मैं तो बिलकुल वैसी ही होती जा रही हूं।

आपका बचपन ज्यादा कहां बीता? पंजाब में या दिल्ली में? कैसा था? किस किस्म के बच्चे थे? क्या तब घर में माहौल लिट्रेचर या कहानियों का था?
मेरे लिए तो अपने बारे में कहना थोड़ा मुश्किल ही है कि कैसा था? मेरे माता-पिता से शायद आपको बात करनी चाहिए.. लेकिन घर में माहौल था। मेरे पिता (ललित बहल).. वो भी फिल्म में हैं। इसमें पिता का रोल कर रहे हैं। वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से हैं। उनकी फीचर डेब्यू है ‘तितली’। माहौल शुरू से था। पापा एक्टर हैं, प्रोड्यूसर हैं, डायरेक्टर हैं... उन्होंने दूरदर्शन के लिए काफी काम किया। जब सैटेलाइट चैनल्स नहीं आए थे उससे पहले। शॉर्ट फीचर्स करते थे वो। दिल्ली में काफी जाने-माने हैं अपने वर्क के लिए। मेरी मां एक्टिंग टीचर हैं। वे प्रोफेसर थीं पटियाला के डिपार्टमेंट ऑफ टेलीविजन एंड थियेटर में। खुद लिखती भी हैं। वे दोनों साथ में टीम की तरह ही काम करते थे। मेरी मां लिखा करती थीं जो मेरे पिता डायरेक्ट करते थे या उल्टा होता था मां डायरेक्ट करती थी और पिता लिखते थे। तो आप कह सकते हैं कि वातावरण तो था ही। मैं बच्चा था तो याद है कि मां के साथ जाया करता था ‘द टेन कमांडमेट्स’ (The Ten Commandments, 1956) जैसी फिल्में देखने। ‘बेन हर’ (Ben-Hur, 1959) देखने। दिल्ली में शकुंतलम (सिनेमाघर) था तो वीकेंड पर मुझे याद है हम लोग वहां चले जाया करते थे। कोई न कोई क्लासिक लगी होती थी। मेरी शुरुआती याद भी ‘बेन हर’ की ही है। कि इसमें इतनी बारीकी से ह्यूमन लाइफ को कैप्चर किया गया है। सोचता था कि ये क्या दुनिया है? तो वो सब माहौल था, लिट्रेचर भी था ही, पढ़ने पर एक ज़ोर था। मेरे शुरू के करीब 8-9 साल पटियाला में गुजरे, उसके बाद मैं दिल्ली आ गया। फिर मैं 20-22 की उम्र तक दिल्ली में ही रहा। उसके बाद कैलकटा गया सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट। वहां पढ़ा चार साल। और 2007 से मैं बॉम्बे में हूं। कुछ सात-आठ साल हो गए यहां।

लिट्रेचर कैसा था? कॉमिक्स या स्टोरी बुक्स या कुछ और?
मैं सब कुछ पढ़ता था। कॉमिक्स पढ़ता था। उसी से शुरू किया। बॉलीवुड एक गहरा प्रभाव था। फिल्में देखना शुरू किया। 17-18 साल तक मैं सब कुछ देखता था। विश्व साहित्य में भी क्लासिक्स से लेकर नाबोकोव (Vladimir Nabokov 1899-1977) तक जो भी लाइब्रेरी में मिलता था पढ़ लेता था। थोड़ा सा मुझे लगता है स्पलिट पर्सनैलिटी (दोहरा व्यक्तित्व) है, दोस्त भी थे, बाहर भी बहुत रहता था लेकिन कैसे न कैसे अपने आप में भी था और पढ़ने में भी बहुत टाइम निकाल लेता था। पता नहीं मैं दोनों चीजें कैसे करता था। एक्टिव भी था फिजिकली लेकिन साथ ही घर पर बिलकुल अकेला बैठ लगातार दो-तीन दिन तक पढ़ता भी रहता था। ये दोनों ही बातें मुझमें आ गईं कि एक समय में अंतर्मुखी हो जाता हूं और दूसरे ही पल बाहर जाकर लोगों से इंटरैक्ट कर सकता हूं जब भी जरूरत हो।

इतिहास में देखें तो सबसे अमर कहानियां या आर्टवर्क जन्मा है तो भीषण त्रासदी में या अमानवीय घटनाओं से। हिटलर का संदर्भ देखें तो कितने आर्टवर्क और फिल्में रची गईं। वियतनाम युद्ध के बाद हम वॉर पर कितनी कालजयी फिल्में देख पाते हैं। भविष्य में आप और क्रिएटिव रहें, सृजन करते रहें इसके लिए जीवन में कोई कष्ट है जो निश्चित है? जैसे कहते हैं लेखक अगर पीड़ा में नहीं है तो अच्छा नहीं लिख सकता कभी..। आप सोचते हैं कि कष्ट की सप्लाई बंद हो गई तो मिडियोक्रिटी आ जाएगी?
जी बिलकुल सोचा है। आपसे पूरी तरह सहमत हूं। ये तो एक निरंतर चिंता हर आर्टिस्ट की होती ही है। पर मुझे नहीं लगता वो इतना ज्यादा किसी दर्द से जुड़ा होता है। विचार से जुड़ा होता है। ऐसे अगर आप देखें तो ऐसी अतीव-पीड़ा (extra ordinary pain) मेरी लाइफ में कुछ भी नहीं है जो किसी और ने महसूस न की हो। कई लोगों ने मुझसे भी ज्यादा पेन फील किया है लेकिन उन्होंने शायद बाहर आकर इतना अभिव्यक्त नहीं किया होगा जितना मैं करने की कोशिश कर रहा हूं। मुझे लगता है ये पेन से ज्यादा विचार से जुड़ा होता है। और सक्सेस आने से पेन कम भी हो जाए तो मुझे नहीं लगता है उससे फर्क पड़ता है। फर्क इससे पड़ता है कि आपकी सक्सेस आपके पास समय कितना छोड़ती है विचार के लिए। ..और अपने अंदर मंथन के लिए। और फिर भी उतने ही सवाल पूछते रहें आप। उतना वक्त आपके पास बचता है या नहीं बचता? मुझे लगता है फर्क इसी बात का होता है। ऐसे तो बहुत से लोगों ने सफलतापूर्वक मर्डर के बारे में भी लिखा है जिन्होंने खुद कभी मर्डर नहीं किया। ये प्रतिबिंबित करने के बारे में है। कि आप अपने आसपास की चीजों को कितना गहरे में समझ पाते हैं और उसे रिफ्लेक्ट कर पाते हैं। अंदर की पीड़ा की कितनी थाह ले पा रहे हैं। मेरे लिए हर फिल्म ह्यूमनिस्ट होनी जरूरी है। जैसे तितली में भी पांच किरदार हैं और फिल्म का नाम तितली है लेकिन वो सिर्फ तितली के बारे में नहीं लिखी गई है न? पांचों किरदारों के लिए लिखी गई है। पांचों के दर्द हैं, उन सबके लिए लिखी गई है। मेरा काम एक फिल्मकार के तौर पर ये नहीं है कि मैं अपना दर्द बढ़ाए रखूं या अपना दर्द बरकरार रखूं और सिर्फ उसके बारे में बात करूं। मैं वो कहानियां करना चाहूंगा जिनमें हम सबने जो अपने दर्द बनाए हुए हैं उनके बारे में बात की जाए। ये पूरी तरह प्रतिबिंबित करने से जुड़ा होता है। और वो रिफ्लेक्शन टाइम कैसे बचाऊं मैं अपने लिए, आगे जाते हुए, वो मेरी चिंता है। उसकी तरफ मैं ध्यान दे भी रहा हूं।

जीवन का वो पल कब था जब कहा कि सिर्फ फिल्में ही करनी हैं? आप इतना आश्वस्त क्यों थे कि इसी में पूरी जिदंगी बिता पाएंगे?
कठिन सवाल है। कोई एक पल नहीं था। शायद मैं बहुत भाग्यशाली था क्योंकि मैंने कहानियों को बहुत पास से देखा। 4-5 साल का था, जबसे होश संभाला था कहानियां बनते हुए देख रहा था, उनका पावर देख रहा था। मैंने और कुछ इतना करीब से देखा ही नहीं। लेकिन तब भी.. मैंने बड़े होते हुए अपने माता-पिता को इतना स्ट्रगल करते हुए देखा टेलीविजन में.. जितनी वो मेहनत करते थे जितना काम करते थे मेरे हिसाब से उन्हें इसका उतना फल नहीं मिला। इस वजह से काफी टाइम तक मैं ऑलमोस्ट उल्टे मूड में था। सोच चलती रही। फिर काफी समय बाद वर्ल्ड सिनेमा के संपर्क में आया तो लगा कि ये जगह, ये काम है मेरे लिए, कि ऐसी भी फिल्में होती हैं। मैंने कीज़्लोवस्की (Krzysztof Kieśslowski) की ‘ब्लू’ (Blue, 1993) देखी, या कुबरिक (Stanley Kubrick) की ‘शाइनिंग’ (The Shining, 1980) देखी या ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’ (2001: A Space Odyssey, 1968) देखी.. या फिर कुस्तरिका (Emir Kusturica) की ‘अंडरग्राउंड’ (Underground, 1995) देखी। इस एक्सपीरियंस से जब गुजर रहा था तो मैं हिल गया कि ये बहुत ज्यादा इंस्पायरिंग है.. अगर ये काम है तो मुझे एक कोशिश तो करनी है कुछ महत्वपूर्ण करने की। वो मेरे लिए प्रेरक वक्त रहा 21-22 साल की उमर में। तब पहली बार आत्मविश्वास के साथ मैंने बोला कि हां मुझे ये करना है। फिल्में करनी हैं और मुझे इस तरह की फिल्में करनी हैं।

फिल्ममेकिंग जैसी अस्थिर चीज को जो भी छात्र या आकांक्षी लोग अपने लिए चुनें और उसमें सफल न हो पाएं तो क्या करें? ये तो तय है कि हर कोई सफल न होगा। हर कोई ‘तितली’ या ‘मसान’ तो नहीं बना सकता।
मुझे लगता है आपको फिल्मों में नहीं आना चाहिए अगर ये लगता है कि आगे सफल न हुए तो क्या करेंगे। ये थोड़ा सा पागलों वाला काम है। चाहे जितना भी अव्यावहारिक लगे लेकिन कभी ये सोचें ही नहीं कि मेरा बैकअप प्लान क्या होगा। क्योंकि ये पेशा बैकअप प्लान के लिए नहीं बना है। और ये करियर है भी नहीं। मुझे नहीं लगता फिल्मों को आपको करियर की तरह देखना चाहिए। ये जीवन जीने का एक तरीका (way of life) है। आप कुछ कहानियां कहना चाहते हैं। और वो कहानियां आपके अंदर हैं। और आप उन कहानियों से जूझ के और कई बार अपने आप से लड़कर उन्हें बाहर लाते हैं। तो वो भी एक तरह का ध्यान (meditation) है न! एक तरह का .. थोड़ा घिसा-पिटा (corny) लगता है शब्द पर .. पूजा है! उसके बीच में अगर आप अपना ध्यान हटाएंगे ये सोचने में कि स्थिरता, करियर.. तो आपका मेडिटेशन थोड़ा सा खराब होगा। ये जूझने वाला मामला है। हो जाता है। मैं भी वित्तीय तौर पर कोई बहुत स्थिर या सुरक्षित आदमी नहीं हूं। पर इतना विश्वास तो जरूर होता है कि हम अगला दिन देख लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर आप ‘मसान’ या कुछ खास तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं, कहानियां कहना चाहते हैं तो आपका सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है वो ये है कि मुझे ये कहानी कहनी है। वो कैसे हो, कब हो और उससे जुड़ी हुई कठिनाइयां जो हैं उनसे जूझा जा सकता है।

आपने सत्यजीत रे फिल्म संस्थान में जाने से पहले कैसा सिनेमा देखा था और बाद में कैसे सिनेमा से वास्ता हुआ? कैसा तर्जुबा था?
वहां जाने से दो साल पहले से मैं समान किस्म का सिनेमा ही देख रहा था। जाने से पहले मैंने कीज़्लोवस्की देखा था। कुस्तरिका देखा था। लेकिन फिल्म स्कूल में जाकर और भी बहुत देखा। समकालीन भी और क्लासिक सिनेमा भी। ऑरसन वेल्स (Orson Welles, 1915-1985) भी देखा, अब्बास कीरोस्तामी (Abbas Kiarostami, 1940 - ) देखा। समकालीन में ज़ाक ऑर्दियाद (Jacques Audiard) देखा, स्टीव मेक्वीन (Steve McQueen) देखा। स्टीव की ‘हंगर’ (Hunger, 2008) देखी, ‘शेम’ (2011) देखी। हर किस्म का सिनेमा देखा। कोरियन सिनेमा में आजकल क्या हो रहा है। पर मुझे लगता है मेरे लिए जो सबसे बड़ा प्रभाव था जो पूरी तरह अप्रत्याशित था वो था डॉक्युमेंट्री। मैंने डॉक्युमेंट्री के बारे में कभी सोचा नहीं था। इत्तेफाकन ये हुआ कि जिन सालों में मैं फिल्म स्कूल में था उन सालों में डॉक्युमेंट्री मूवमेंट कैलकटा में बहुत स्ट्रॉन्ग हो रहा था और वो इंस्टिट्यूट से ही शुरू हो रहा था। उससे मेरा इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ के प्रति एक्सपोजर बहुत बढ़ा। जिसने मेरी फिल्म को भी काफी प्रभावित किया है। बहुत मैं उसका शुक्रगुजार रहा क्योंकि हमारे यहां डॉक्युमेंट्रीज़ बहुत सीमित और अरुचि वाली हैं लेकिन इंटरनेशनल डॉक्युमेंट्रीज़ देखकर मुझे एक अलग तरह की आजादी उनमें मिली। जिसे कहते हैं न कि कहानी से छुटकारा मिला और कैरेक्टर से प्यार हुआ और मुझे ये समझ में आया कि फिक्शन फिल्मों में भी कैसे वो अप्लाई किया जा सकता है? कैसे वो फ्रीडम दिया जा सकता है जहां कहानी के स्ट्रक्चर से ऊपर उठकर आप खाली एक किरदार के साथ चल सकते हैं।

कुछ ऐसी विस्फोटक डॉक्युमेंट्रीज़ जो बहुत प्रासंगिक हैं?
बहुत सारी हैं। कोसोकोवस्की की बहुत इंट्रेस्टिंग हैं। एक रशियन फिल्ममेकर हैं विक्टर कोसोकोवस्की (Viktor Kossakovsky)। उनकी बहुत सारी फिल्में हैं। वो अपने आप में.. बहुत अलग हैं। हमारे यहां इंडिया में निष्ठा जैन की फिल्में हैं जिनकी हाल ही में ‘गुलाबी गैंग’ आई। इससे पहले उन्होंने बहुत अच्छी फिल्में बनाई हैं। एक बहुत कमाल लिथुएनियन फिल्ममेकर हैं ऑड्रियस स्टोनिस (Audrius Stonys )।

डॉक्युमेंट्रीज़ में षड्यंत्र सुझाने वाली या हिला देने वाली फिल्मों की काफी संख्या है और वे इस कदर होती हैं कि उन्हें मान लिया जाए तो जीना मुश्किल हो जाता है। ‘जाइटगाइस्ट’ (Zeitgeist, 2007-2011) है, ‘फूड इंक’ (Food, Inc. 2008) है, वॉलमार्ट (Wal-Mart: The High Cost of Low Price, 2005) के बारे में है, या जापान में डॉल्फिन किलिंग पर बनी ‘द कोव’ ( The Cove, 2009) जिसे ऑस्कर भी मिला। दुनिया में हो रही ये साजिशें (conspiracy theories) देख हम इतने दुखी हो जाते हैं कि लगता है अब कुछ भी नहीं करना चाहिए मुझे मर जाना चाहिए ये दुनिया इतनी खराब है।
हम सब लोग ही इन सब चीजों से तो जूझते ही हैं। पॉइंट ये है कि हम इन सब विचारों का मूल क्या निकालते हैं, इन्हें मजबूत कैसे करते हैं और मुझे लगता है कि जो भी फिल्ममेकर ऐसी कोई फिल्में बनाता है तो इस उद्देश्य से ही बनाता है कि इसे देखकर कोई दुखी हो जाए या असमंजस में पड़ जाए या निराश हो जाए। बाकी हर इंसान जो भी काम कर रहा है और जो भी क्षेत्र उसने चुना है, उसके इर्द-गिर्द कोई मुद्दा फिल्म ने उठाया है तो उस पर जो एक्शन ले सकता है उसे लेना चाहिए। उधर ही आगे जाया जा सकता है। अन्यथा तो जीवन का कोई मतलब ही नहीं है। मेरा इससे डील करने का तरीका यही है कि किसी ऐसी सूचना से या किसी ऐसे इमोशन से एक्सपोज़ होता हूं जो मुझे बहुत डिस्टर्ब करता है या जिससे मैं बहुत ज्यादा प्रभावित होता हूं .. तो मैं वापस उसकी ओर जाता हूं, विचार मंथन करता हूं और उससे कुछ अच्छी चीज या अपना कुछ आउटपुट लेने की कोशिश करता हूं। मैं जितना योगदान दे सकता हूं उस मुद्दे को उठाने में या सॉल्यूशन की ओर जा सकता हूं उतना योगदान में अपने क्षेत्र में कर रहा हूं। वही एक विचार है जो हर वर्क ऑफ आर्ट करना चाहता है। आदर्श रूप से तो वही सबको करना चाहिए।

नम्रता राव एडिटिंग टेबल पर और सिद्धार्थ दीवान विजुअली कौन सी ऐसी चीजें या विचार लाए जो सिर्फ उन्हीं का योगदान था ‘तितली’ में?
ये इतना करीबी और साथ का काम होता है कि मेरे लिए बोलना मुश्किल है... । सिद्धार्थ की सबसे बड़ी ताकत यही है कि वो कैमरा को छुपा देते हैं। हमने जब सोचा कि हमें इस फिल्म का मिजाज डॉक्युमेंट्री की तरह रखना है। ऐसा देखते हुए आपको लगना ही नहीं चाहिए कि फिक्शन फिल्म देख रहे हो, ऐसा लगे कि एक्सीडेंटली ये लोग रील पर कैप्चर हो गए। कैमरा दिखता नहीं है। ऐसा लगता है कि ये लोगों का जीवन है और पता नहीं हम कैसे इसे देख पा रहे हैं।

 एक हम लोगों का सबसे बड़ा डर इमेज को लेके, फिल्म के विजुअल लुक को लेके ये था कि जब एक खास तबके के लोगों की कहानियां कही जाती हैं तो ये बहुत शोषण भरा (exploitative) हो जाता है कभी कभी। ऐसा लगता है कि फिल्म गंदगी या धूल के बारे में ज्यादा है और लोगों के बारे में कम है जबकि हमारा शुरू से ही ये अटेम्प्ट था कि ये फिल्म इन लोगों के बारे में है और ये लोग इस स्पेस में रहते हैं। तो इस स्पेस को सबसे ज्यादा समग्रता (totality) से कैसे रेप्रेजेंट किया जाए? स्पेस का दुरुपयोग कैसे न किया जाए? मुझे लगता है ये सिद्धार्थ और प्रोडक्शन डिजाइनर पारुल दोनों का योगदान कि इस स्पेस को उसकी गरिमा दी, सही कोनों (areas) की ओर देखा, लोगों की ओर देखा, उनके भावों की ओर देखा, ये देखा कि कैसे उनकी बेचैनी (desperation), कैसे उनके हालात भी आएं लेकिन कैसे वो शोषण भरा (exploitative) न हों? फिल्म का विजुअल टेक्सचर जो कि उभर के आता है उसमें उनका योगदान है। हालांकि हमारी अपनी फिल्म है तो अपनी ही तारीफ लगती है लेकिन मुझे लगता है ये उन सबसे कम फिल्मों में से है जो अपने स्पेस की गरिमा को जिंदा रखती है और इसमें इसे नीचा करके देखने वाली दृष्टि नहीं है जो हमारी सबसे बड़ी चिंता थी।

Shashank, Amit, Lalit Behl, Shivani Raghuvanshi and Ranvir in a scene.

 सिद्धार्थ और पारुल ने फिल्म के जैसे रंग चुने.. हम लोगों को शुरुआती विचार था कि थोड़ा ब्लू (नीले) और यैलो (पीले) में जाएंगे .. फिर जब रेकी पर गए.. असल इलाकों में गए तो हमने देखा कि ज्यादा पिंक (गुलाबी) और ग्रीन (हरा) यूज़ होता है। और क्या होता है कि लोगों के पास कभी-कभी पैसे नहीं होते हैं तो वो एक ही कमरा पेंट करवा लेते हैं। बहुत सारे घर हमने देखे जिसमें मिसमैच कलर थे। एक कलर पिछले पंछे (coat) का रह गया था या नए का रह गया था। और न जाने क्यों चमक (brightness) देने के लिए लोगों का आइडिया पिंक का है... तो पिंक और ग्रीन को यूज करने का विचार था और दूसरा हम उत्पीड़न/दमन (opression) की बात कर रहे थे तो तमाम रेकी के बाद हम तीनों ने सोचा कि पिंक और ग्रीन ज्यादा रियल और अभी के रंग रहेंगे .. ये रंग ही वो लोग हैं.. न कि एक झूठा प्रतिनिधित्व है जो हमेशा ब्लू और यैलो का रहता है कि जो थोड़ा सा वॉर्म कर देता है और फ्रेम को थोड़ा सा उठा देता है। उसके बजाय पिंक और ग्रीन लिए गए, वही थीम हमने रखी। हमारा फिल्म में एक डिवाइड भी ये बना कि घर का स्पेस, कॉलोनी का स्पेस और शहर का स्पेस। .. जब ये (पात्र) बाहर जाते हैं तो मॉल्स और सिटी ज्यादा सिल्वर और ब्लू बन जाते हैं। असल में हमने सिटी को ज्यादा ब्लू और सिल्वर किया, घर को और इनकी गली और इनके स्पेसेज को पिंक और ग्रीन में देखा। तो ऐसे ही एलिमेंट्स और रंगों का इस्तेमाल .. कि इतने मौन (mutedly) ढंग से क्यों हम इनकी कहानी के इमोशन कह रहे हैं। जो इनकी बेचैनी है और जो कहेंगे हालात - बेहतर शब्द की गैर-मौजूदगी में - हैं, सिर्फ रंग से उनका प्रतिनिधित्व कैसे करना है, वो भी आपके सिर में बहुत अवचेतन वाले तरीके (in a subconscious way) से। हमने एक पक्ष लिया कि इस फिल्म में चीजों को हम यूं ही चमका कर या ठूंसकर नहीं दिखा देंगे, ये फिल्म वैसी ही होगी जैसा है। बहुत मौकों पर लगता है कि फिल्में फिल्ममेकर्स को रेप्रेजेंट करती हैं लेकिन एक्चुअली मैं ये मान रहा हूं ... मेरा सबसे फेवरेट फिल्ममेकर है क्यूबरिक (Stanley Kubrick).. क्योंकि कोई क्यूबरिक नहीं है सिर्फ उसकी फिल्में हैं। वो हर एक फिल्म, एक हस्ती है, उसके बीच में क्यूबरिक नहीं आते हैं। वो नहीं बोलते कि मेरी फिल्म है। एक फिल्म जो है वैसे ही प्रस्तुत कर दी जाए, ये भी एक बड़ा टैलेंट है कि हम लोग इसके अंदर न आ जाएं। हम एक-दूसरे की आंखों में झांककर कह सकें कि ये फिल्म इस फिल्म के बारे में ही है और ये जो स्पेस है वो स्पेस रेप्रजेंट होनी चाहिए। तो पारुल और सिद्धार्थ के ये बड़े योगदान थे।

 नम्रता की बात करूं तो लोगों को लेकर उनकी अंतर्दृष्टि और वे कैसे उनकी ओर देखती हैं ये खास है। हम दोनों ने एडिट (editing) पर शुरू से ही तय किया था कि ये फिल्म प्रतिक्रियावादी (reactive) नहीं होगी। ये डायलॉग के बारे में नहीं है। ये इस बारे में है कि जब लोग दूसरे लोगों की ओर देखते हैं, और उन्हें लगता है हम देखे नहीं जा रहे। हम कैसे चोरी छुपे एक-दूसरे को देखते हैं, कैसे एक-दूसरे को ऑब्जर्व करते हैं.. तो एडिट पैटर्न पूरा उस पर निकला। नम्रता की जो बहुत ही महीन समझ है लोगों की, रिश्तों की.. वो इसमें स्थानांतरित हुई कि लोग जब दूसरे लोगों को देखते हैं .. बात करते हुए .. तो वो फिल्म कैसे बदलती है। बहुत सारा एडिट फिल्म के इस नजरिए के साथ है, जो उनके और मेरे दोनों के लिए बहुत रोचक था। क्योंकि उन्होंने भी देखने का एक नया नजरिया विकसित किया।

एक एडिटर फिल्म को कितना तब्दील करता है? आपने अगर स्क्रिप्ट पर डेढ़ साल बिताया है और एक-एक अक्षर बहुत सोच-विचार-शोध के बाद लिखा है कि यहां ये दृश्य ऐसे ही होगा। क्या एडिटर उसे बिलकुल बदल देता है? दृश्यों का क्रम या संरचना बदलता है?
नहीं, ये बहुत बड़ा क्लीशे है। एडिटिंग एक अन्य प्रोसेस है जहां फिल्म दोबारा लिखी जाती है। खासकर तितली जैसी फिल्म जो शूट ही डॉक्युमेंट्री स्टाइल में की गई है और डॉक्युमेंट्री में शुरू से होता है कि फिल्म बना रहे हैं और धीरे-धीरे कैरेक्टर को जान रहे हैं और कैरेक्टर का जैसे-जैसे पता चलता है तो कुछ नई ही फिल्म निकल आती है। हमारे सीमित संसाधनों में ऐसा बहुत हुआ। छोटी सी फिल्म है हमारी, बहुत ज्यादा हम शूट नहीं कर पाए लेकिन उसके बीच में भी बहुत सारी चीजें हमने करी थीं तो नम्रता ने तकरीबन री-कंस्ट्रक्ट ही की फिल्म.. हां ये जरूर था कि नम्रता जब तक आईं तो 8-9 महीने का एडिट हो चुका था। वो फिल्म पर तीसरी एडिटर थीं। मैं इससे पहले दो अन्य एडिटर्स पर काम कर रहा था। चीजें जिस दिशा में जा रही थीं उनसे अंतत: मैं खुश नहीं था। लेकिन जब तक वे आईं बहुत कुछ हो चुका था। लेकिन अगर ओवरऑल प्रोसेस की बात करें तो उस 8-9 महीने के फेज़ में बहुत सी री-राइटिंग हुई थी। हमने बहुत लंबे-लंबे हिस्से शूट किए जो फिल्म में है ही नहीं। ये जानते हुए कि ये फिल्म के लिए जरूरी नहीं हैं। री-राइट और एडिट के प्रोसेस के बाद लगा कि ये जरूरी नहीं हैं। ये इस प्रोसेस का बहुत ऑर्गेनिक हिस्सा है। ये पहले भी हो रहा था और नम्रता के आने के बाद बहुत ज्यादा हुआ। वो आईं तब हमारा 2 घंटे 40 मिनट का कट था, बाद में वो 2 घंटे और 4 मिनट का रह गया। तो ये करीब 30 पर्सेंट कम हो गया था।

दिबाकर के साथ आपने 8 साल बिताए हैं। उन्होंने आपसे कुछ सीखा होगा। आपने उन्हें ऑब्जर्व करते हुए पूरी जिंदगी के लिए क्या सीख ली है?
अनुशासन। ठहराव। दिबाकर के साथ काम करते हुए सबसे बड़ी बात जो मैंने सीखी है वो ये कि सारा काम शांति से हो सकता है और शांति से काम कम से कम दस गुना बेहतर होता है। मैं खुद बहुत गर्म दिमाग था जब मैं फिल्म स्कूल से निकला था। मेरा अनुभव बहुत सीमित था। और मैं वैसे काम करता था जैसा मैंने अपने पेरेंट्स को करते हुए देखा। लेकिन जब मैंने ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के वक्त दिबाकर को जॉइन किया और शांत माहौल देखा तो सोचा, यार ये तो बहुत शांति से काम हो रहा है और कई गुना ज्यादा अच्छा काम हो रहा है। बहुत ही गहन स्तर का अनुशासन, कठोर परिश्रम.. वो हर पहलू पर काम करते रहते हैं .. चाहे स्क्रिप्ट हो, एडिट हो, चाहे उनका शूट करने का तरीका हो.. वो अंतिम छोर तक, सिरे तक चीजों को लेकर जाते हैं, जब तक आपको पूरा विश्वास न हो जाए और उससे ऊपर भी 50 परसेंट पक्का करना और उस पक्के पर भी आपको विश्वास न हो जाए कि इससे ज्यादा अब मेरे पास कुछ बचा नहीं है। ज्यादातर फिल्मकार थोड़े आलसी होते हैं और एक बिंदु के बाद उन्हें कुछ अच्छा मिल जाता है तो उसके आगे नहीं जाते लेकिन ये जो दृढ़ता (rigor) है दिबाकर की.. अच्छे से भी आगे जाना और चलते रहना जब तक यकीन न हो जाए कि अब इससे बेटर अगले पांच साल तक मैं कुछ नहीं कर सकता.. वो मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण पाठ है जो मैंने सीखा है।

आज आपकी सर्वकालिक पसंदीदा फिल्में कौन सी हैं? जिन्हें बार-बार देखते हैं।
बहुत सारी हैं। कुस्तरिका की ‘अंडरग्राउंड’। कुबरिक की - वैसे तो आप उनकी कोई भी फिल्म उठा लें - ‘2001: अ स्पेस ऑडिसी’। कीरोस्तामी की ‘विंड विल कैरी अस’ (The Wind Will Carry Us, 1999)। ज़ाक ऑर्दियाद की ‘अ प्रोफेट’ (2009)। स्टीव मैक्वीन की ‘हंगर’। डारर्डीन ब्रदर्स (Jean-Pierre & Luc Dardenne) की ‘रॉजे़टा’ (Rosetta 1999)। सब अलग-अलग फिल्में हैं और वर्ल्ड सिनेमा का इतना विस्तृत नजरिया देती हैं कि आप ...। बहुत फिल्में हैं पर मेरे जेहन में एकाएक ये ही आ रही हैं।

टैरेंस मलिक (Terrence Malick) की?
मुझे उनका काम पसंद है पर उनका मैथड.. अपनी फिल्मों को बनाने में वे खुद को जिस प्रोसेस में झोंकते हैं वो बहुत-बहुत मुश्किल होता है। हाल के दिनों में वो कुछ निराशाजनक रहे हैं मेरे लिए लेकिन उनका हर प्रोजेक्ट सांसें थाम देने वाला रहा है। उनके प्रयास का जो दायरा होता है वो एक्सीलेंट है। ‘द ट्री ऑफ लाइफ’ (The Tree of Life, 2011) मुझे काफी अच्छी लगी थी। लेकिन क्रिश्चन बेल वाली उनकी पिछली फिल्म (Knight of Cups, 2015) के साथ ऐसा नहीं था। लेकिन निश्चित तौर पर सिनेमा के मास्टर्स में से एक हैं।

और वर्नर हरजॉग (Werner Herzog)?
वे तो दादाजी हैं। फिल्मों के ग्रांडफादर हैं। मुझे नहीं लगता कि मुझे उनके बारे में बोलना भी चाहिए। वे अमेजिंग हैं। उनकी सारी डॉक्युमेंट्रीज़, उनका सारा फिक्शन वर्क इस दुनिया से परे है।

बीते एक-दो साल में अच्छी लगी भारतीय या विदेशी फिल्म?
मुझे अविनाश अरुण की ‘किल्ला’ बहुत अच्छी लगी।

चारों ओर विलाप की स्थिति है, क्या चीज है जो आपको उम्मीद देती है? क्रिएटिव लोगों के पास उम्मीद कहां से आती है जब नेगेटिव चीजों से घिरे हैं?
बहुत इंट्रेस्टिंग सवाल है। इससे हम सभी जूझ रहे हैं। मुझे लगता है हर क्रिएटिव आदमी, कहीं से भी आ रहा हो वो अपने सबसे निचले धरातल पर मानवतावादी (humanist) होता है। उसके अंदर मंथन चलता है, एक गुस्सा होता है, इस गुस्से के कई नाम हो सकते हैं। उसके अंदर एक चाह रहती है कि चीजें जैसी हैं उससे बेहतर क्यों नहीं हो सकतीं? कोई भी क्रिएटिव आदमी, आर्टिस्ट कहीं भी काम कर रहा हो वो इसी जरूरत से संचालित होता है कि वो इस बारे में बोलना चाहता है कि ये चीज ऐसी क्यों है और इससे बेहतर होनी चाहिए। वो होप यहीं से आती है कि शायद जिस भी बारे में वो सोच रहा है, जो भी उसे विचलित कर रहा है उसके बारे में बात करने के बाद वो चीज बेहतर हो सकती है। मुझे लगता है इसीलिए कहा जाता है कि क्रिएटिव लोग सबसे विचलित करने वाले टाइम में रहते हैं क्योंकि ये उन्हें ज्यादा ईंधन देता है, ज्यादातर फूड फॉर थॉट देता है ताकि निराशा (hopelessness) के बारे में बात कर सकें। ये आर्टिस्टों के लिए अच्छा है, जितना ज्यादा निराशा होगी उतना ज्यादा उनके काम की क्वालिटी प्रतिबिंबित होगी।

रचनात्मक गतिरोध की अवस्था में उम्मीद कहां से लेंगे? आगे जब आइडियाज़ नहीं सोच पाएंगे या फिल्में कई स्तरों पर फंसने लगेंगी या वित्तीय दुश्वारियां होंगी।
मैं सिंपल सा आदमी हूं। सबकी तरह कनफ्यूज हूं। सबकी तरह परेशान हूं। लेकिन हिम्मत है.. जज्बा है। कोशिश है कि झूठ न बोला जाए। जो कहानी है, जिस पर काम कर रहे हैं, उसे जितनी सच्चाई से बोला जा सके वो बोला जाए.. और उसमें वक्त लगता है। बात ये नहीं है कि फिल्म बन नहीं रही है.. मैं बस अपना समय ले रहा हूं जो भी मैं कर रहा हूं। जो अगली भी फिल्म है। क्योंकि मुझे पता है ये एक बहुत जटिल कहानी है। एक फिल्मकार के तौर पर एक कदम आगे ले जाएगी। प्रोसेस जारी है। मैं अपनी अगली फिल्म लिख रहा हूं। लड़खड़ाहट तो चलती रहती है और उसे तो मान लेना चाहिए हर फिल्मकार को। उसे तो हिस्सा बना लेना चाहिए अपनी जिंदगी का। कनफ्यूजन को, ठोकरों (stumbling) को। सुबह उठकर बोलना चाहिए कि अरे आज मैं कनफ्यूज्ड हूं, आओ आओ.. और आप उस कनफ्यूज़न को गले लगा लें। उसकी ओर मुस्कराएं और कहें, हम फिर से दोस्त हैं इस पूरे दिन के लिए। क्योंकि वहीं से ऊर्जा (kick) आती है। अगर वो नहीं होगा और सुबह उठकर आपको पता होगा कि आप हूबहू क्या लिखने वाले हैं, कौन सी फिल्म बनने वाली है तो उसका मतलब है कि कुछ गलत है। या कुछ गलत जाने लगा है।

फलसफा..?
मेरा मोटो नहीं है पर ये कुछ ऐसा है जो मैं हाल ही में ढूंढ़ रहा हूं और मेरी लाइन होगी कि ‘बस एक और दिन’ (just another day)। हम हर दिन को बहुत ज्यादा महत्व देने की कोशिश करते हैं अपनी लाइफ में। लेकिन अगर वो प्रेशर हम अपने ऊपर से निकाल दें और हर दिन को उस दिन के लिए जिएं, तो हमें अपने आप को और जीवन को जानने में थोड़ी आसानी हो जाती है। मैं अकसर जागता हूं तो खुद से कहता हैं .. बस एक और दिन।

‘तितली’ या ऐसी अन्य जागरूक फिल्में हैं, ये सिर्फ उन्हीं के समझ में आती हैं जो पहले से जागरूक हैं। जैसे ये केन फिल्म फेस्ट में गई तो फ्रेंच समाज इतना विकसित है कि वो बहुत तारीफ करेगा जब भी ऐसे प्रयास देखेगा। लेकिन जो लोग खुद आक्रांता हैं या अत्याचार करते हैं, लोगों का दमन करते हैं वो कभी न ये फिल्म समझने वाले हैं, न मानने वाले हैं?
ऐसा बिलकुल नहीं है। देखिए, ‘तितली’ फेस्टिवल के लिए बिलकुल नहीं बनी थी। मैंने कभी ये सोच के नहीं बनाई थी कि मेरे को ये फिल्म केन लेकर जानी है, ये जो भी हुआ है वो फिल्म जैसी बनी है उसकी वजह से हुआ है।

..मान लें कि मैं संदर्भ के साथ ये समझ चुका हैं कि एक औरत और एक आदमी में समानता होनी चाहिए। और मेरे कुछ दोस्त हैं जो बिलकुल विपरीत हैं, वो ये सब करते हैं घर में और कभी पश्चाताप नहीं करते। तो उस आदमी को तो ‘तितली’ पहले समझ में आनी चाहिए तभी समाज बेहतर होगा लेकिन वो कभी समझेगा ही नहीं और स्वीकार नहीं करेगा।
आपको क्या लगता है क्यों नहीं समझते हैं? आप बोल रहे हैं कि फिल्म कमसमझ आने वाली (obtuse) होती है। बाकी सब की बात तो नहीं कर सकता लेकिन मुझे लगता है कि ‘तितली’ ऐसी (obtuse) नहीं है। वो हाड़ मांस के लोगों के बारे में है। ऐसे लोगों के बारे में है जिनको आप जानते हैं। जिनसे आप रिलेट कर सकते हैं। वो सारे कैरेक्टर भी इसलिए पास हैं आपके जीवन के.. आप ये नहीं बोल पाएंगे ‘तितली’ देख के कि यार समझ में नहीं आ रही। आप ये शायद कह सकते हैं कि यार ये लोग बहुत देखे हुए हैं और मैं अब नहीं देखना चाहता। ये इतने करीब हैं मेरे कि मैं देख कर असहज हो रहा हूं कि मैं नहीं देख पाऊंगा ये फिल्म। ये जरूर बोल सकते हैं आप। लेकिन समझने में कठिन है ये कोई नहीं बोलेगा। मेरा अपना स्टैंड ये है एक फिल्मकार के तौर पर कि मैं फेस्टिवल्स के लिए फिल्म नहीं बना रहा, मैं एक फिल्म बना रहा हूं जो लोगों तक जुड़नी चाहिए। जो मेरे से जुड़ी हुई है कहानी और हाड़-मांस के लोगों के बारे में है, ये शायद मेरी सारी फिल्मों के बारे में सच रहेगा। मैं आपको ये कहना चाहता हूं कि ये केन जाना और बुद्धिजीवी और ये.. 

..नहीं, ये केंद्र नहीं है। मसलन, मेरी बड़ी बहन जो मुश्किल से पूरे जीवन में तीन-चार बार थियेटर भेजी गई हैं, उन्हें मैंने कहा कि ‘पीकू’ देख सकती हैं, अच्छी फिल्म है। बहन गृहिणी हैं। कॉलेज की पढ़ाई भी घर रहकर की। पितृसत्ता वाला समाज रहा। उन्होंने कहा कि इसमें (टॉयलेट कॉमेडी, घर की बातें) जो है वो हम रोज देखते हैं, कुछ मूड फ्रेश करने या खुश करने वाली फिल्म होती तो ठीक रहता। तो सवाल का केंद्र ये है कि उन्हें ही सशक्त करने वाली चीज है जो उन्हें ही नहीं सुहाती। ये चिंता नहीं? आपने अपना प्रयास दिया तितली’ बनाकर, पर जिन्हें समझना चाहिए वो न समझें तो?
मेरा ये सोचना है कि मैं अकेला ये बीड़ा नहीं उठा सकता कि मुझे समाज बदलना है या बड़ा बदलाव लाऊं। मैं एक इंसान हूं एक बहुत बड़े ढांचे में। जो मुझे अपनी सच्चाई से करना है वो मैं कर रहा हूं। इसके बाद मुझे लगता है बीड़ा दर्शकों के हाथ में खुद है, वो उन्हें खुद ही उठाना पड़ेगा। वो कोई चम्मच से उनके मुंह में डालकर बदल भी नहीं सकता। चीजें नहीं बदल सकती जब तक वे खुद पैरों पर खड़े होकर बोलें कि हां हमें कुछ आगे का (evolved) देखना है। जीवन की कुछ विकसित समझ लेनी है। और ईमानदारी से कहूं तो मैं इस चीज से खुद को परेशान भी नहीं करता। मेरा काम है, जो मैं कर रहा हूं वो करना पूरी सच्चाई से। इसके बाद मैं इस विश्वास के साथ फिल्में बनाता हूं कि अगर मैं ये कहानी सिंपल तरीके से कह रहा हूं, सिंपल डायलॉग के साथ, सिंपल किरदार हैं, तो लोग उसे देखेंगे और कंज्यूम करेंगे। और घर जाकर साथ वाले को बोलेंगे यार प्लीज ये देखकर आओ, ये समझ में आ रही है। ऑडियंस का बीड़ा भी उतना ही है जो उन्हें कभी न कभी तो उठाना ही होगा। ये सारी चीजें बहुत बड़े मुद्दों से जुड़ी नहीं हैं, ये सारी चीजें एजुकेशन से जुड़ी हैं, सिस्टम से जुड़ी हैं। ये सब बदलने के लिए एक बड़े स्तर पर बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है। सब मिलकर छोटा-छोटा अपना किरदार निभाकर पूरा कर सकते हैं। वो हम सबको साथ में ही करना है।

जब आप 3 साल की सीरियाई बच्चे ऐलान कुर्दी का समंदर किनारे पड़ा शव या ऐसी कोई भी मानवीय कहानी/छवि देखते हैं तो आपके भीतर क्या प्रक्रिया घटनी शुरू होती है?
मैं भी सबसे पहले एक इंसान के तौर पर ही प्रतिक्रिया देता हूं। क्योंकि मैं फिल्ममेकर बाद में हूं। और मेरे लिए वो कनेक्शन बनाए रखना जरूरी है। कुछ अलग नहीं चलता है। मुझे लगता है ये लंबा प्रोसेस होता है, आप रोज का अपना ह्यूमन एक्सपीरियंस निचोड़ते जाते हैं और उसे एक ह्यूमन की तरह ही कंज्यूम करते हैं। जब भी आप किसी कहानी को लिखना शुरू करते हैं तो उसमें इस निचोड़ के कुछ-कुछ कुछ-कुछ हिस्से बाहर आ जाते हैं। तो मेरे लिए वो इतना कॉन्शियस प्रोसेस नहीं है। और मैं उसे कॉन्शियस रखता भी नहीं हूं। क्योंकि मैं अपने अवचेतन (sub-conscious) को प्रोसेस करने देता हूं जो भी होता है। अगले डेढ़-दो साल तक उसके संदर्भ में जो मेरे अनुुभव बाहर आते हैं पहले ही प्रोसेस किए हुए वो कहानी में जुड़ते जाते हैं। क्योंकि प्रयास यही रहता है कि कहानी को जितना आज की दुनिया से जुड़ा बना सकते हैं उतना बनाएं। कॉन्शियसली अगर आप हर चीज को उस तरह से देखने लग जाएं तो बहुत ही उपभोक्तावादी रवैया (consumerist attitude) बन जाता है। फिर तो आप हर चीज को निचोड़कर स्टोरी बनाना चाह रहे हो। जो कि जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन का उद्देश्य है कि जीवन जिओ और अनुभव करो जो भी अनुभव कर सकते हो। फिर अपनी कहानी आने दो।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे (FTII) के अध्यक्ष के तौर पर गजेंद्र चौहान (टीवी-सीरीज ‘महाभारत’ के युधिष्ठिर बने थे) की नियुक्ति गलत हैं, इसका छात्र विरोध कर रहे हैं। एक छात्रा-छात्र में एक्टिविस्ट को कहां तक चलकर रुक जाना चाहिए और एक फिल्मकार को सक्रिय हो जाना चाहिए?
देखिए एक्टिविज़्म की तो बात ही नहीं है। सबसे पहले इस पर एक्टिविज़्म का लेबल लगाना बहुत ही ज्यादा गलत है। मुझे लगता है ये एक बहुत ही ज्यादा बेवकूफाना हरकत है जिसने भी गजेंद्र चौहान को नियुक्त किया है। वो बिलकुल भी योग्य नहीं हैं। मैं खुद फिल्म स्कूल से हूं और बिल्कुल समझता हूं जो ये स्टूडेंट मुद्दा उठा रहे हैं। सबसे पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि ये स्कूली बच्चे नहीं हैं। 15-16 साल के नहीं हैं। ये सब एडल्ट हैं। 25-26 साल के लोग हैं। जो अपनी शिक्षा खत्म करके एक ऐसी जगह आए हैं जहां उन्हें आजादी से मन की विधा पढ़नी है। ऐसा नहीं है कि स्टूडेंट्स प्रिंसिपल बदलने को बोल रहे हैं। वे ऐसा व्यक्ति चाहते हैं जो उनको आगे लेकर जा सके। ये उनका अधिकार है। ये सब बहुत ही वयस्क नजरिए से आपसे बात कर रहे हैं कि आप किस तरह के फिगरहैड को नियुक्त कर रहे हैं। एशिया का प्रीमियर फिल्म स्कूल है वो, एशिया का सबसे लोकप्रिय फिल्म स्कूल है जिसे देश-विदेश के संस्थानों के समर्थन वाले ख़त आ रहे हैं कि आप ये क्या कर रहे हैं? ये दुखदायी स्थिति है कि 100 दिन से वो लोग लगे हुए हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। अगर आप जागरूक लोगों को बोलेंगे कि वो एक्टिविस्ट हैं तो फिर दुनिया का क्या होगा? वो स्टूडेंट तो बस अपने आप-पास होने वाली परिस्थिति से वाकिफ हैं। और पर्याप्त रूप से रूचि रखते हैं दुनिया से संबंध विकसित करने की। जो उन्हें वहां पर सिखाया जाता है। वही तो उस मंदिर की सबसे बड़ी सीख है। वहां सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि आपको अपने आंखों-कानों के दरवाजे बंद नहीं करने हैं, उनको खुला रखना है और जो अपने आप-पास का जीवन है उसे निचोड़कर अपने दिल में लेकर आना है। जो उनके मंदिर में हो रहा है उसके बारे में ही बात नहीं करेंगे और इस बात करने को आप एक्टिविज़्म बोलने लग जाएंगे तो ये कितना न्यायपूर्ण है!

ये तर्क दिया गया है गजेंद्र जी के खिलाफ कि उन्होंने ‘खुली खिड़की’ और अन्य सी-ग्रेड फिल्में की हैं। क्या ये स्टूडेंट्स का एलिटिस्ट होना नहीं हो गया? क्या संदर्भ गलत लिया गया है कि सिर्फ वे ही ज्ञानवान हैं?
मैं बिलकुल सहमत नहीं हूं। अगर आपने देखा हो तो और भी लोग जिनकी बात हो रही है उस ओहदे के लिए.. जैसे मान लीजिए अनुपम खेर हैं, उन्होंने भी हर तरह का काम किया है। उन्होंने बहुत सारी अच्छी फिल्में की हैं लेकिन वो खुद सबसे पहले मानेंगे कि उन्होंने खराब फिल्में भी की हैं। ये आपकी खराब फिल्मों के बारे में नहीं हैं, ये आपकी योग्यता के बारे में हैं। जिस इंसान से टेलीविजन इंटरव्यू पर पूछा जाता है कि आपकी फेवरेट इंटरनेशनल फिल्म क्या है? और वो खुलेआम कहता है कि ‘मैं जवाब देने से मना करता हूं’ (I refuse to comment), तो वो खुद ही बोल रहा है कि मैं इस पद को योग्य नहीं हूं। एफटीआईआई के चेयरमैन से आप क्या उम्मीद करते हैं? - कल को अगर वो बात कर रहे हैं किसी एक्सचेंज प्रोग्राम में या कहीं जाकर हमारे स्टूडेंट्स के बारे में बोल कर रहे हैं तो वो वार्ता, सुनने लायक, जागरूक और तथ्यपरक तो होनी चाहिए न? उनका तो अनुभव और शब्दावली ही बॉलीवुड तक सीमित है, बात ये हो रही है। ये फिल्में (सी-ग्रेड) करने के बावजूद अगर उनका ज्ञान होता, अनुभव विस्तृत होता तो मुझे नहीं लगता किसी को भी समस्या होती क्योंकि वो उनकी बातों और व्यक्तित्व में साफ झलकता। और सिर्फ गजेंद्र चौहान की भी बात नहीं है। उनकी नियुक्ति के अलावा जो समिति भी गठित हुई है, उसमें आठ में से चार लोग भी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते.. कि वो संस्थान में शैक्षणिक फैसले ले सकें स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि के तौर पर जिससे क्रिएटिव माहौल बन सके संस्थान में। ये राजनीतिक होना, एलिटिस्ट होना या एक्टिविस्ट होना नहीं है। ये सिर्फ करिकुलर के उच्च शैक्षणिक पैमानों के बारे में है और रचनात्मकता के बारे में है जो हमारी फिल्म स्कूल में है। सिर्फ वही मसला है।

नई सरकार आने के बाद सेंसर बोर्ड की नीतियां भी बदल गई हैं। मानें कि अगर दो कार्यकाल तक ये सरकार रहती है तो आप कैसे सामना करेंगे? कुछ महीने पहले दिल्ली में फिल्मकारों के एक समूह ने सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से मुलाकात की थी। उस दौरान उन्हें मुंबई आने और इंडस्ट्री से मेल-जोल बढ़ाने का निमंत्रण दिया तो वे कथित तौर पर बोले, ‘तो आप चाहते हैं मैं आऊं और तुम सबके लिए आइटम नंबर करूं।’ आप इसे कैसे देखते हैं? ये क्या सोच है? फिल्मों की आर्ट फॉर्म का सम्मान न देना।
ये कोई नई समस्या नहीं है। पहले भी थी, आज भी है। 70 के दशक में जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणि कौल और बहुत सारे अन्य फिल्मकार काम कर रहे थे तब भी ये ही मुद्दे थे, तब भी सरकारें यही करती थीं, ये कोई नई बात नहीं है। ये हमेशा से होता आया है। मैं अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर सकता हूं। मुझे जो कहना है मैं वो कह सकता हू्ं। उसके बाद जो भी हालात हैं वो बदलते रहते हैं। अभी कुछ हैं कल को कुछ और भी हो सकते हैं। अंतत: बात तो यही है कि हम लोकतंत्र में रहते हैं, अभी जो सरकार है वो भी लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई है और मान लीजिए ये लोगों के पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो कल को एक और सरकार आ जाएगी। हमें कहीं न कहीं लोकतंत्र में विश्वास तो रखना ही पड़ेगा। और अपने आप में फेथ रखना पड़ेगा। उसके साथ हम अपने मुद्दे उठाकर आगे चलते रहेंगे। ये चीजें एक्चुअली एड करती हैं, ये हमें निराश नहीं करें। बोलें तो अच्छी हैं।

जीवन में कैसे विषय आकर्षित करते हैं जिन पर आगे फिल्में बनाना चाहेंगे?
हर तरह की चीज फेसिनेट करती है। मेरी आजमाइश ये है कि मैं हर तरह की बातों पर बात कर पाऊं। मुझे साइंस-फिक्शन भी उतनी ही रोचक लगती है जितना एक ड्रामा लगता है। जितना थ्रिलर इंट्रेस्ट करता है, जितना एक पोलिटिकल फिल्म इंट्रेस्ट करेगी। मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा। निर्भर करेगा कि मेरी खुद की समझ कितनी है कहानी के बारे में जिंदगी के तब के बिंदु पर। बहुत ही ज्यादा एक गतिशील (dynamic) और बदलने वाली (malleable) सी चीज है। पर मेरी रूचि काफी व्यापक है। मौजूदा समय में मुझे फैमिली स्ट्रक्चर में बहुत रुचि है। न सिर्फ वो एक महीन लेवल पर ह्यूमन अंडरस्टैंडिंग देता है बल्कि व्यापक दुनिया के लिहाज से एक समझ दे जाता है। तो अभी मैं उसमें काम कर रहा हूं क्योंकि उसमें सूक्ष्म और स्थूल (micro & macro) का बहुत अच्छा जुड़ाव नजर आता है। लेकिन अंतत: मैं हर तरह की कहानियां कहना चाहूंगा और सब में गोता लगाना चाहूंगा। इसीलिए मुझे क्यूबरिक जैसा फिल्मकार बहुत ही पसंद है क्योंकि उनकी फिल्में एक-दूसरी से बिलकुल अलग थीं। उनसे भौचक्का हूं।

 
Kanu Behl

Kanu Behl is a young and talented film writer and director based in Mumbai. His directorial debut TITLI is slated to release on October 30 this year. It has gone to several prestigious international film festivals in last one year or so. Most prominently, it was selected in the Un Certain Regard section of the Cannes Film Festival (France) in 2014. It is produced by Dibakar Banerjee and Yashraj Films. Kanu is from Delhi. In 2003, he joined the Satyajit Ray Film and Television Institute and did his PG diploma in cinema. Later he assisted director Dibakar Banerjee on Oye Lucky! Lucky Oye! in 2007-2008 and co-worte Dibakar's next Love Sex aur Dhokha. Kanu as also writing his next titled Agara.

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गुरुवार, 13 अगस्त 2015

Interview: Max Landis, screenwriter of the upcoming AMERICAN ULTRA, VICTOR FRANKENSTEIN and CHRONICLE (2012)

Max Landis
It was the noon of March 2nd in 2012 that I watched “Chronicle”, the American science fiction thriller. A smart found footage film about three boys with sudden superpowers. In the bombardment of Super-men, Bat-men, Spider-men and Iron-Men it was a breather, a completely different take on the superpower genre. These high school boys get superpowers and get baffled. First they play with it and later the side effects play with them. Their carefree lives get over. It gets tragic. Most importantly, they don’t save or destroy the world as it’s always done in Hollywood. Since then I wanted to know the mind of its young screenwriter – Max Landis.


Over the weekend, he released the first four pages of the unmade “Fantastic Four” script of his, perhaps in context with the criticism surrounding the third “Fantastic Four” film (a reboot) directed by Josh Trank (director of “Chronicle”) which released on August 7. The film did miserably at the box office. Josh himself displayed his displeasure that this is not the film he set out to make. Soon after the release he tweeted, and deleted, “A year ago, I had a fantastic version of this. And it would have received great reviews. You’ll probably never see it. That’s reality though.”Indirectly, he blamed the studio (Fox) for the final outcome.

Jesse Eisenberg in "American Ultra."
Now it is Max’s turn to face cinemas. On August 21st “American Ultra”, written by him, is releasing. It’s an action comedy starring Jesse Eisenberg (the “The Social Network”guy who is playing super villain Lex Luther in the 2016 movie“Batman v Superman: Dawn of Justice”) and Kristen Stewart (The Twilight Saga). The story revolves around Mike who’s a stoner but in reality a mind-altered sleeper government operative. Deemed a liability he is to be killed but he’s way too high-trained for it. 


Then “Victor Frankenstein” is lined up. It is a modern adaptation of Mary Shelley’s 1818 novel “Frankenstein.” In the San Diego Comic Con last month (July) director Paul McGuigan said about Max, “What he did basically is, he cherry-picked all the good ideas from the movie, from the book itself and he’s created his own monster within that. He’s made the script which has Igor in it, and of course Igor was never in the book. It has these other little monsters that have never been in the film.” Daniel Radcliffe who is playing Igor in the film said, “…and I think it is unashamedly entertaining all the way through and exciting. The energy behind the film is from him.” 

The other main lead James McAvoy playing Victor Frankenstein commented at the Comic Con, “I think in Mary Shelley’s original, for me, there was something missing and I know it’s sacrilege for a lot of people who know the stuff... it’s an amazing book... a very important book, but for me Victor was obsessed and crazy because he was. I didn’t really see a reason in the story. What Max did, what you (Paul) did and what we’ve done together (with Daniel) is giving him a reason for being so bloody crazy and then not cure him of that half way through. In the book, he kind of like goes into the woods for 18 months of vacation and then comes and says let’s kill the monster, whereas in this we keep him mad all the way till the end. And I think it is truer to his trauma, his back story and who he is.” 

Max is also making his debut as a director with “Me Him Her” which is a comedy. It got premiered at the Seattle International Film Festival in June. The release is awaited. One of Max’s scripts “Mr. Right” is in filming stage. It is a romantic action comedy which stars Sam Rockwell, Anna Kendrick and Tim Roth. This story is about a woman who’s unlucky in love. When she meets a perfect man, it turns out he’s a hitman.

Max is writing from the age of 18 as he comes from a film family. His father Jon Landis is a known director, writer and producer. His mother Deborah is a costume designer in Hollywood films and theater. On the day “Chronicle” released Max uploaded a short film “The Death and Return of Superman.” It was his perspective of the superhero. His friends and actors like Elijah Wood (The Lord of the Rings series) and Simon Pegg (Mission: Impossible series) were seen acting in it. In March this year, Max released another short “Wrestling Isn’t Wrestling” on YouTube. Again several actors, his friends and wrestlers had cameos in the film. It follows the career of Triple H and talks about the nature of professional wrestling in a light-hearted yet analytical way. Max regularly creates stuff like this and comments on subjects like these.

He’s so passionate about comic books, superheroes, Hollywood and American soft culture. I asked him a few questions quite a while back including the status of “Chronicle-2” which he’s off now. He also talked about his perception of India, Bollywood and Indian mythological superheroes. Here it is:

Q. How is the script of “Chronicle 2” coming along? 
ML: Well, I've been off Chronicle 2, so it's hard to say. My original sequel followed a young couple; a punk, anarchist man, and his girlfriend, a troubled, mentally unstable girl who it was gradually revealed was a genius of the highest calibre. The couple, documenting themselves, were obsessed with the events of the first film; they even hacked the government servers, editing together and releasing online the film that we the audience know is Chronicle. They did this as a way to bait out of hiding Matt Garretty, the surviving member of the trio from the first movie, so as to attack and kill him for ideological (as well as painfully personal) reasons, using next-gen technology created by the genius girl. However, as their plan spiralled out of control, our hero Matt and his liaisons in the US Government found themselves in an increasingly difficult and violent series of confrontations with villains who we, the audience, cared so much about that we didn't really want to see either side win. 

But alas, I left Chronicle 2 after differences with the studio; they want to go a different way with the property, and I respect that. I also had other projects to tend to, as well as directing my first feature, so I couldn't continue to develop the script. 

Still, Chronicle was an amazing experience, and I'm thankful every day to the people who allowed it to happen.
Daniel and James in a still from "Victor Frankenstein."
Q. What other projects are you doing right now and how excited are you?
ML: HOW EXCITED!? CRAZY EXCITED. I've got a lot of things going at once, but as a screenwriter, it's hard to guarantee any of them. There are two I'll talk about though, and happily: Frankenstein (is expected to release in November), starring Daniel Radcliffe and James McAvoy, and directed by Paul McGuigan. It's an extremely different take on the story, and I'm very grateful to Fox for giving me the opportunity to tell it my way. That's what's great about iconic stories; ultimately I think all you need are the touch stones, and the rest becomes up to the interpretation of time and the storyteller. I have finished editing on my first directorial project (Me Him Her). I also wrote it, but even so, the plot is kind of hard to describe. It's mainly a movie about identity; it's a comedy, but that doesn't really peg how weirdly intense and hyperactive of an experience I want the film to be. It's almost kind of Bollywood, actually; there's a surreal, larger than life quality that I associate with Eastern films. It's not often you see a Western romantic comedy that ends in a big swordfight. 

Directing a film was a bizarre experience for me; I'd imagine it's how a musician might feel on stage in front of thousands playing a hit song. Even if the movie isn't a hit or even is just completely terrible, on set I had this amazingly active feeling of creation; like I was painting or drawing or some other fine art with measurable lines and colour. I felt constantly stimulated by every choice, and kept finding myself going back and tweaking dialogue and changing things so that they flowed better, it was like writing live for an audience and there's absolutely no feeling I've ever had that can compete with that.

Q. How long did it take to write the script of “Chronicle” way back? What was the process like?
ML: It was actually extraordinarily quick; a little less than three weeks to write the first draft, two months till it sold, four months of development and six months of production, I believe. Trying to explain the process of development would be very difficult for me to do in any kind of concise way, because, while it has its purpose, the “rules” behind it are often arbitrary and unique to the situation. I got into the project because my friend Josh Trank pitched me the very basics of the first act and a half of the movie as it stands; I was enamoured by the idea of it and decided to make it a more tragic, darker story focusing on an antihero character.

Q. Which is your favorite superhero movie?
ML: I would have to say Spider-Man 2. Of all the superhero movies that exist, it most perfectly executes what has made the superhero it's about so iconic. The action, the story, the characters, the direction, the acting, the cinematography; everything is pulled off exactly right to create a movie that truly sings the idea of Spider-Man. It's bright, it's pop, it's fun, it catches you off guard with somber moments; everything the Spider-Man comics have always been about. Watching it was a thrilling experience for me.

Q. You are so critical and deconstructive of superhero movies, but at the same time crazily in love with them and seem mesmerized by them. How come the two personalities in you?
ML: I love mythological and character-based story-telling, so comics have always appealed me as a marriage of the two. I'm an escapist guy, so I look for compelling worlds, and hey, there's a lot of that in comics, too. That said, I'm an outspoken person; I've never been quiet about my opinions, and I will always call a spade a spade when I feel something isn't living up to what I want it to be. I never claim to be an oracle, or that my opinions are definitive. I just state them loudly, with confidence, because doing that, starting a discussion, makes me happy.

Q. Seeing your videos and public expressions, you seem to have a say on almost everything, then how come you've never spoken on political and social issues of your country?
ML: I do tend to stray slightly away from political and social issues in public, but as an American liberal, my cut and dry humanistic view of the world seems pretty rote to me. I don't think I have anything truly intelligent or new to say on the subject, beyond that I feel all humans deserve to be treated humanely, to have the same rights. I don't need to get on that soapbox; it's already much too crowded with smarter, less obnoxious, more eloquent persons than me. If you need a guy to pick apart a movie, or create a new one, or tell you a story, I'm here for that. But I don't know at this point that I'm ready to start acting like my hippy-dippy Californian “can't we just all be chill to each other” politics are unique enough to merit voicing loudly.

Q. You know in the newer editions of Comic book superhero movies, we have different villains with updated “criminal” images. Do you really think they are criminals? For instance, in Nolan's “The Dark Knight Rises” we have Bane and Talia al-Ghul which are identical with the “Occupy Movement.” In Sam Mendes' “Skyfall” we have Raoul Silva who can again be easily connected to Julian Assange. Who knows next we might see Edward Snowden as an antagonist. What is your take on this? If they are criminals then Superman in the last film “Man of Steel” hasn't killed less civilians either.
ML: Bane and Talia WEREN'T ultimately the Occupy movement, and I think that's kind of what killed them for me. They weren't really ultimately anything, other than “bad guys,” whose motivations of revenge felt tiny compared to the actions they took. Bane especially was hard for me to take, because, despite his silly look in the comics, he's probably my favourite Batman villain. He's presented as a massively intelligent, but more than that, incredibly CUNNING man, Batman's strategic cerebral equal. Imagine if Gus Fring from Breaking Bad could rip you in half with his bare hands, THAT'S the character. They turned him into this confusing, Welsh “bad-ass” who ultimately was basically a goon for Talia, and that hurt because I wanted so badly to see the real character. Imagine if at the end of Dark Knight they'd revealed Joker was just an actor hired by a more powerful mob boss. It confused me.

The same can be said of the VERY muddled motivations of Raoul Silva; he starts out as an Assange figure, but again, this is a phantom menace. He ultimately is just another psycho out for revenge. This is actually a theme in recent blockbusters; villains are presented as having some kind of topical or political motivation, but ultimately are reduced to “evil insane criminals” and their original, complex motives swept aside. Star Trek Into Darkness, A Good Day To Die Hard, Skyfall, Dark Knight Rises, and others; at first the villains are presented as having some kind of “ripped from the headlines” goal, which is dismissed in favour ultimately of evil laughter and shooting innocent people.

You could argue that all real world evil is ultimately like this; that it's a bunch of sound to mitigate a bunch of fury, and that ultimately the ideologies of people like Osama Bin Laden or Adolf Hitler are really just psychotic ideation and the ranting of lunatics, but at least those people really did seem to believe their own nonsense. Every time a villain in a movie reveals that their complexity was just a ruse to hide how much they wanted to stab someone, it completely robs meaning from the conflict presented in the film.

“We're going to take over Gotham – for the people” became “we're going to blow it up with a nuclear bomb.” So quickly my head spun. And in doing so, I lost track of what was happening.

This happens because studios have this misguided desire to have “strong villain plots,” but ultimately the villain plots become too complex and you have a guy spouting Shakespeare in the first act and spitting and screaming in the third. It's a bad trend.

Q. Going by the law of the land, don't you think heroes and superheroes across the cinemas are criminals?
ML: Yes, very much so. That's one of the many things that's sexy about them.

Q. For American progeny, comic book characters and films might be the mythology and folk heritage. Have you heard of Indian mythological characters/heroes with extreme superpowers who are hundreds and millions of years old? (Like Lord Hanuman, Rama, Krishna, Bheema, Arjuna, Kumbhakarana and many-many more). What do you think of them? Can they be an exciting prospect for Indian and global audiences?
ML: I have of course! When I was young, I had all the comics, telling the story of Ganesha, all of that, people with blue skin. I think of course they're relevant, or could be made relevant to American cinema, but like everything else that gets adapted they'd have to be whittled down to their core elements. And with characters that precious to a culture, I worry that would be destructive.

Q. What interests you in life? What is your philosophy of living?
 ML: Experience. I constantly seek out new experiences, or at least, I try to live in a way that enables me to do this. I think of myself as an adventurer, and I crave adventure and exploration; not even physically, though that too, but mentally. I'm very much in the moment; I'd say my philosophy of living is “The more things you say you won't do, the more things you don't end up doing.” 

I feel like that's a terrible answer, though. I often feel as though I'm not as smart as people seem to think I am, if only because I can't instantly produce an eloquent answer to a question like this. Like there will be occasional bursts where I find myself soliloquizing and groups of people rapt in attention and I feel smart and well spoken and like I'm the sort of person who has an answer to the question “What is your philosophy of living?” but, more often than not, I'm just dicking around on YouTube.

Q. Your father John Landis is a well known American filmmaker and your mother Deborah is an Oscar nominated costume designer. What influence both of them had on you? Which of their teachings you still carry?
John Landis with son Max.
ML: They were really incredible parents. That was the most important thing. I had a very difficult childhood and they were there for me the whole time, even if that meant dealing with some dark and troubling stuff. What are their influences? To me, they're shockingly obvious; my mother taught me that every visual element can be used to tell a story. Her ability to make the visuals indistinguishable and inseparable from the narrative intelligence of a piece, the “life force” of the story, is reflected in every visual decision I make while both writing and directing. My father is an even more outright steal; the way I tell stories, both professionally and amongst friends, is a very direct evolution of his style. Down to getting all high pitched when I'm excited.

Q. According to you who are the most influential filmmakers in American cinema?
ML: When you say influential, you've sort of got me at a loss. I am not a film historian, and I was never a film student; hell, I'm barely even a proper cinephile when it comes to dates and directors and “the essentials,” I'm just a guy who really really really loves movies and has seen a whole lot of them. I think the director who's most influential, to me as well as to film history, is probably Scorsese (Martin). His ability to perfectly nail any tone, to recreate instantly entire worlds within characters and then build those huge characters into even bigger stories is just something that absolutely terrifies me in the best way possible. That the guy who directed Taxi Driver is the guy who directed The Departed is the guy who directed King of Comedy is the guy who directed Bringing Out The Dead is the guy who directed Casino is the guy who directed Gangs of New York is the guy who directed Goodfellas is the guy who directed After Hours is the guy who directed The Last Temptation Of Christ, I mean COME ON THAT'S INSANE. SO MANY STYLES. So many great stories, so many incredible performances, he's done something like fifty movies and HE'S GOT MORE COMING OUT. Sure, there's some misses in there but his ratio is CRAZY, he's like an exploding oil well of great American cinema. To know that someone like that can exist and prosper isn't just influential; it's inspirational.

Q. Your favorite Indian movies and makers?
ML: Well, I don't know many filmmakers other than Gurinder Chadha, who's been a family friend since I was little. But I'd have to say my favourite Bollywood films I've seen are Kal Ho Na Ho (every time Mahi Ve comes up on my iPod it's an instant dance party) and Om Shanti Om. Om Shanti Om has to stick out to me over Kal Ho Na Ho because I love the story; reincarnation, murder, great music, evil producers, and the final scene where he does the whole play to show the villain that they know what he did and re-enact the soundstage burning down is probably not just one of my favorite Bollywood sequences, but one of my favorite scenes in any movie ever.

Q. What perception American entertainment industry has of Indian movies?
ML: Honestly? I think there's a pretty big cultural gap; the styles are so wildly different that it's hard to even measure a Bollywood film against American Studio stuff. I think there's a perception of them as silly, but in an inimitable, alien way that can't easily be described. They certainly aren't condescended to; if anything, studios wish they could really crack the Indian market in a meaningful way, but since there's such a storytelling-style barrier, it's hard to say how and when and even if that's going to happen.

Q. As an individual what do you think of India and Indian people?
ML: I think that India is one of the best examples of a culture that has endured. So many countries, as we hurtle forward technologically and everything gets all Starbucks'd and Wal-Mart'd, have started to blend together in the inevitable singularity of globalization. But India, with its menagerie of mythological characters still riding high in the nation's zeitgeist, its own entertainment industry and really even its own fashion iconography of what's sexy and what's cool in an indefatigably different way than the west, seems to still be doing its own thing.

So yeah, I think India is pretty neat.
 
Max Landis standing in a fantasy fight with "Man of Steel."

मैक्स लैंडिस अमेरिका के कैलिफोर्निया से हैं। फिल्म लेखक हैं और काम के सिलसिले में लॉस एंजिलिस भी रहते हैं। बतौर स्क्रिप्ट राइटर उनकी पहली फिल्म "क्रॉनिकल’ 2012 में प्रदर्शित हुई थी। ये तीन युवाओं की कहानी थी जो हाई स्कूल में पढ़ते हैं और अचानक कुछ शक्तियां प्राप्त कर लेते हैं। सुपरहीरो फिल्मों के तय फीके सांचों के उलट ये बेहद ताजा रवैये वाली फिल्म थी। इस साल मैक्स की दो बड़ी फिल्में प्रदर्शित होने वाली हैं। 'अमेरिकन अल्ट्रा’ 21 अगस्त को लगेगी जिसमें जेसी आइजनबर्ग और क्रिस्टन स्टीवर्ट मुख्य भूमिकाओं में हैं। ये फिल्म एक ढीले लड़के के बारे में है जो बेहद विशेष क्षमताओं वाला सरकार का सुषुप्त लड़ाका है लेकिन अब वो सक्रिय नहीं हो पा रहा, ऐसे में उसे मारने का फैसला लिया जाता है लेकिन उसकी शक्तियां सक्रिय हैं और वो किसी के हाथ नहीं आता। 

इसके अलावा जेम्स मेकवॉय और डेनियल रेडक्लिफ की मुख्य भूमिकाओं वाली "विक्टर फ्रैंकेंस्टीन’ इस साल नवंबर में रिलीज हो सकती है। ये मैरी शैली के 1818 में लिखे मशहूर उपन्यास "फ्रैंकेंस्टीन’ पर आधारित है जिसकी स्क्रिप्ट मैक्स ने अपने अंदाज और बदलावों के साथ लिखी है।  वे बतौर निर्देशक भी अपनी पहली फिल्म "मी हिम हर’ बना चुके हैं जिसकी रिलीज बाकी है। "मि. राइट’ नाम की एक फिल्म भी मैक्स ने लिखी है जिसकी शूटिंग पिछले साल शुरू हो चुकी है। इसमें टिम रॉथ, सैम रॉकवेल और एना कैंड्रिक जैसे अदाकार हैं। ये एक औरत की कहानी है जिसे कभी सच्चा प्यार नहीं मिलता लेकिन जब मिलता है तो बाद में ज्ञात होता है कि वो एक हत्यारा है। मैक्स 18 की उम्र से लिख रहे हैं और अब 30 के हैं। उनके पिता जॉन लैंडिस हॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक हैं और मां डेबरा ऑस्कर नामित कॉस्ट्यूम डिजाइनर हैं। वे समय-समय पर सुपरहीरोज़, वर्ल्ड रेस्लिंग एंटरटेनमेंट, हॉलीवुड, कॉमिक बुक्स और अमेरिकी एंटरटेनमेंट पर टिप्पणियां करते रहते हैं। 

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गुरुवार, 6 अगस्त 2015

मानो मत, जानोः “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” ...परस्पर

“Do not believe, Know!” …is a series about relevant documentary films and filmmakers around the world who’ve devoted their lives to capture the most real, enlightening, shocking, just and humane stories. They’ll change the way you think and see everything. Watch & read them here. 

 Documentary. .Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair (2012), directed by Ajay Bhardwaj.

“धर्मशाला धाड़बी रैंदे, ठाकर द्वारे ठग्ग
विच मसीतां रहण कुसत्ती, आशक रहण अलग्ग”
- मछंदर खान मिसकीन, फिल्म में बुल्ले शाह की काफी उद्धरित करते हैं
अर्थ हैः धर्मशालाओं में धड़वाई (व्यापारी) और ठाकुरद्वारों में लुटेरे बस गए हैं। मस्जिदों में वे रहते हैं जो वहां रहने के योग्य नहीं। आशिक (ईश्वर से प्रेम करने वाले) तो इन सबसे अलग रहते हैं।

पंजाब का सांझा विरसा और उस विरसे की बहुत परिष्कृत मानवीय-धार्मिक समझ अजय भारद्वाज की डॉक्युमेंट्री “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” में नजर आती है। ये फिल्म उनकी “पंजाब त्रयी” सीरीज में तीसरी है। मौजूदा मीडिया और पॉप-कल्चर ने एक सभ्यता के तौर पर हमें जो सिखाना जारी रखा है उससे हमें सुख और सच्ची समझ की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये फिल्म भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दोफाड़ पंजाब में मजबूती से बचे अलग-अलग धर्मों, वर्गों के लोगों में प्रेम, स्नेह और सह-अस्तित्व के निशान तो दिखाती ही है, दर्शन के स्तर पर भी बहुत समृद्ध और सार्थक करके जाती है। शायद ये समझने के लिए “मिलांगे...” हमें पांच-छह बार देखनी पड़े।

A still from "Milange..."
हम इस डॉक्युमेंट्री के पात्रों की बातों और समझ को देख हैरान होते हैं। वे ईश्वर को माही कहते हैं। वे अंतरिक्ष, आकाशगंगा और साइंस पढ़कर घमंडी नहीं हो गए हैं। वे पूरी विनम्रता से आश्चर्य करते हैं कि उस इलाही की महिमा का पार नहीं जो पानी पर धरती को तैराए रखता है। कि कैसे गर्म, धूल भरी हवाएं लहरा रही होती हैं और न जाने पल में कहां से काले बादल आ जाते हैं। इन पात्रों के विचार फकीरी वाले हैं। इनकी धर्म की व्याख्या बेहद आधुनिक, बेहद मानवीय है। ऐसी फिलॉसफी आधुनिक पाश्चात्य नगरीय सभ्यता शायद कभी नहीं पा सकेगी।

पिछली दो फिल्मों (कित्ते मिल वे माही, रब्बा हुण की करिये) की तरह इसमें भी उस पंजाब को तस्वीरों से सहेजा गया है जो भविष्य में न होगा। ईंटों के सुहावने घर, गोबर लीपे आंगन व दीवारें, गलियों में बैठे कुत्ते, टूटे पेड़ की शाख पर बैठे कौवे, खुली नालियां, स्कूल की ड्रेस में जाते भोले-प्यारे बच्चे। मज़ार के बाहर झाड़ू से सीमेंट की चौकी बुहारी-धोई जा रही है। शांति है। सुकून है। पैसा गौण है, प्रेम प्राथमिक है। धर्म सब स्वीकार्य हैं। ऊपर वाले को लेकर कोई लड़ाई, दंगा, फसाद नहीं है। ये हिंदु भगवान को भी मानते हैं, अल्ला को भी, वाहे गुरु को भी। 2015 के भारत में आप धर्म को लेकर जो बपौती की हेकड़ी पाएंगे, जो वैमनस्य की बू पाएंगे, दंगों का भय पाएंगे, दुनिया में हो रहा क़त्ल-ए-आम पाएंगे.. वो इस पंजाब में नहीं पाएंगे। वो पंजाब जो मुख्यधारा की कवरेज से दूर है। वो पंजाब जिसे बंटवारा भौगोलिक रूप से ही बांट पाया।

अजय इसी पंजाब को ढूंढ़ रहे हैं। उनके हर फ्रेम में जाते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां धर्म की विवेचना अलग है और देश में अभी के माहौल में धर्म की परिभाषा अलग रची जा रही है। इस परिभाषा से लगता है कि कैसे हमें संकीर्ण सोच वाले दड़बों में हमारे बड़ों, हमारी जाति-धर्म वालों ने घेर रखा है। हम हिंदु हैं तो अन्य हिंदुओं से चिपक रहे हैं, हम मुस्लिम हैं तो रूढ़ि की अलग ही बेड़ी में बंधे हैं। अगर कहें कि ऐसा लग रहा है हम कई सौ साल पहले के युग में पहुंच गए हैं और आक्रांताओं का हमला होने वाला है। या ख़लीफायत स्थापित करने का वक्त आ गया है। तो धर्म की रक्षा को हिंदु और आक्रामक हो गए हैं। ये कितना हास्यास्पद है।

राजकुमार हीरानी की दिसंबर में प्रदर्शित फिल्म ‘पीके’ इसका सटीक जवाब देती है। जब स्टूडियो में पीके-तपस्वी संवाद होता है तो छद्म धर्मगुरू तपस्वी धमकाने वाले अंदाज में कहते हैं, “आप हमारे भगवान को हाथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठे रहेंगे? बेटा.. हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है!” जवाब में पीके कहता है, “तुम करेगा रक्षा भगवान का? तुम! अरे इत्ता सा है इ गोला। इससे बड़ा-बड़ा लाखों-करोड़ों गोला घूम रहा है इ अंतरिक्ष मा। और तुम इ छोटा सा गोला का, छोटा सा सहर का, छोटा सा गली में बैठकर बोलता है कि उ की रक्षा करेगा.. जौन इ सारा जहान बनाया? उ को तोहार रक्षा की जरूरत नाही। वो अपनी रक्षा खुदेही कर सकता है”। ये जवाब उन सबको भी है जो खुद को भगवान का संरक्षक या सैनिक मान लेते हैं। जैसे हाल ही में “जय भीम कॉमरेड” और “मुजफ्फरनगर बाकी है” जैसी फिल्मों का प्रदर्शन रोकने वाले। ये खेदजनक है कि अपने भीषण अज्ञान को उन्होंने सर्वोच्च ज्ञान और सार्वभौमिक सत्य मान लिया है जो उनमें उनके पूर्वाग्रहों से है, जो उनमें उनके घर के बड़ों, जातिगत समाजों द्वारा रोप दिया गया है। ये तत्व पशुवत हैं जिनमें सिर्फ अज्ञान और अहंकार है। क्या अहंकार से ईश्वर मिलता है? एक-दूसरे धर्मों से असुरक्षित महसूस करवाए जाने वाले लोग “मिलांगे..” में मछंदर खान को सुनें। वे गुनगुना रहे हैं.. “बालक पुकारते हैं बंसी बजाने वाले। कलजुग में भी खबर लो द्वापर में आने वाले”। सुनकर आप सुन्न हो जाते हैं।

हर पहचान (identity) को अपने में समाहित करने वाले इस धर्म की विवेचना और सूफीयत के अलावा फिल्म बंटवारे के बाद पंजाब में बची सांझी विरासत की मजबूती को भी पुष्ट करती चलती है जो इस “पंजाब त्रयी” की पिछली दो फिल्में भी कर चुकी हैं। शीर्षक में जिन बाबा रतन का जिक्र है वो बाबा हाजी रतन हैं जिनकी दरगाह भटिंडा में स्थित है। उन्हें भारतीय उप-महाद्वीप के अलावा इस्लामी दुनिया में भी श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि वे पैगंबर मोहम्मद से मिले थे। लेकिन इस अपुष्ट तथ्य से ज्यादा जरूरी बात ये है कि कैसे उन जैसे चरित्र अलग-अलग धर्मों और वर्गों के लोगों द्वारा समान रूप से पूजे जाते हैं। इन सूफी चरित्रों के मेले अनेक वर्षों से पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में लगते रहे जो सब लोगों को करीब लाए। जैसे बाबा हाजी रतन का मेला 1947 के बहुत पहले से लगता था। दूर-दूर से लोग वहां आते थे। ये पंजाब का काफी बड़ा मेला था। फिर छापर का, बाबा मोहकम शाह जगरांव वाले का , नोहरभादरा में गोगामेड़ी का और सरहिंद का जोर मेला भी हैं।

पिछली डॉक्युमेंट्री के दयालु पात्र प्रो. करम सिंह चौहान की लिखी पुस्तक ‘बठिंडा’ से हम इन मेलों और विरसे को नजदीक से जानते है। वे बाबा रतन मेले के बारे में लिखते हैं, “यहां मुस्लिम सूफी संत आते थे, कव्वालियां गाते थे, गजब मेला लगता था। बुल्ले शाह, शाह हुसैन और अन्य गाए जाते थे। इस दौरान खास याद आती है बाबू रजब अली की गायकी। विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। 35 साल वहां रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। वे वहां रह-रहकर अपनी जन्मभूमि के लिए आंसू बहाते रहे। भठिंडा की धरती पर बाबू रजब अली शाह अली गाते थे, दहूद गाते थे वहीं साथ ही साथ गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों के बलिदानों की कहानी गाकर श्रोताओं की आंखों में पानी ले आते थे”। इस बीच मछंदर कहते हैं कि हालांकि वो मुस्लिम थे फिर भी साहिबजादों की कहानी ऐसे गाते थे कि कोई गा नहीं सकता। वे सूफी फकीर थे और उनका कोई धर्म नहीं होता। रजब अली, महाभारत के किस्से गाते थे, भीम-कृष्ण सब को गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन ओलिया जैसे मुस्लिम धर्म के मेलों में बाबा रतन का मेला चौथा सबसे बड़ा था और यहां हर धर्म के लोग आते थे।

छापर में गुग्गा मढ़ी (जिसे हम राजस्थान में गोगामेड़ी कहते हैं) की दरगाह में बने भित्तीचित्रों से तब के माहौल और व्यापक सोच की झलक मिलती है। इनमें सोहणी है जो दरिया पार कर रही है महिवाल से मिलने के लिए। मिर्जा पेड़ की छांव में सो रहा है और साहिबा उसके पास बैठी है। उधर साहिबा के भाई पीछा कर रहे हैं। पुन्नू ऊंट पर जा रहा है, पीछे सस्सी बैठी है। पंजाब के नामी पहलवान किक्कर सिंह और गुलाम लड़ रहे हैं। छापर के बेहद मशहूर गायक डोगर और उसके साजी हैं जिनके पीछे गांव का जमींदार रूरिया सिंह बैठकर सुन रहा है। मेले में आए लोगों के लिए निहंग कुएं से पानी सींच रहे हैं।

इस दुनिया के पात्रों का दर्शन (philosophy) बहुत ही सुखद है।

मछंदर कहते हैं, “अल्लाह किसी को मिला है तो बरास्ता (via) ही मिला है। हीर ने रब को पाया तो रांझे के रास्ते पाया। ससी ने पाया तो पु्न्नू के रास्ते पाया। मजनू ने पाया तो लैला के रास्ते”। वे मजनू का किस्सा सुनाते हैं। एक बार अल्ला का प्रतिनिधि उससे मिला। उसने कहा अल्ला ने याद फरमाया है। फकीर मजनू बोला कि मुझे तो अल्लाह से मिलने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर अल्लाह को मुझसे मिलना है तो मैं क्यों जाऊं वो खुद आए। और हां, जहां भी वो है, वो कभी मेरे सामने न आ जाए। अगर मुझसे चार बातें ही करनी हैं तो लैला बनके आ जाए।

क्या प्रेम की ये पराकाष्ठा इस और उस दोनों जन्मों को सफल नहीं कर देती?

एक बेहद अज्ञानी और गैर-स्मार्ट लगने वाला पात्र कहता है, “नमाज पढ़ लो या गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ लो, बात एक ही है.. बस उस मालिक के आगे सुनवाई होनी चाहिए। सब बोलियां उसी की बनाई हुई हैं। वो सब बोलियां जानता है। हम नहीं जानते”।

(यहां ajayunmukt@gmail.com संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी मंगवा सकते हैं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair” - Watch an extended trailer here:


On the eve of the British leaving the subcontinent in 1947, Punjab was partitioned along religious lines. Thus was created a Muslim majority state of Punjab (west) in Pakistan and a Hindu /Sikh majority state of Punjab (east) in India. For the people of Punjab, it created a paradoxical situation they had never experienced before: the self became the Other. The universe of a shared way of life – Punjabiyat — was marginalised. It was replaced by perceptions of contending identities through the two nation states. For most of us this has been the narrative of Punjab– once known as the land of five waters, now a cultural region spanning the border between Pakistan and India.

However, the idea of Punjabiyat has not been totally erased. In ways seen and unseen, it continues to inhabit the universe of the average Punjabi’s everyday life, language, culture, memories and consciousness. This is the universe that the film stumbles upon in the countryside of east Punjab, in India. Following the patters of lived life, it moves fluidly and eclectically across time, mapping organic cultural continuities at the local levels. It is a universe which reaffirms the fact that cultures cannot be erased so very easily. This is a universe marked by a rich tradition of cultural co-existence and exchange, where the boundaries between the apparently monolithic religious identities of ‘Hindu’, ‘Muslim’ and ‘Sikh’ are blurred and subverted in the most imaginative ways.

Moreover, one finds in this universe, mythologies from the past sanctifying such transgressions and reproducing themselves in the present; iconographies of Hindu gods and Sikh gurus share space with lovers, singers and wrestlers, creating a rich convergence of the sacred, the profane, and the subversive. Nothing represents this more than the Qissa Heer, a love balled exemplifying a unique Punjabi spirituality identified with love, whose multiple manifestations richly texture this landscape. Yet, there are absences to deal with. Strewn across this cultural terrain are haunting memories which have become second skin —of violence of 1947; of separation from one’s land; of childhood friends lost forever; of anonymous graves that lie abandoned in village fields. Accompanying this caravan of seekers and lovers are the ascetic non believers in whom a yearning for love and harmony turns into poetry against war and aggression. Such is the land of Punjab where miracles never cease to capture the imagination.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)