रविवार, 4 दिसंबर 2011

हम इससे बेहतर डिजर्व करते हैं, सिखिज्म भी!

फिल्म: आई एम सिंह
निर्देशक:
पुनीत इस्सर
कास्ट: गुलजार चहल, पुनीत इस्सर, रिजवान हैदर, ब्रुक जॉनस्टन, एमी रसिमस
स्टार: आधा, 0.5

'पुस इन बूट्स' फिल्म में पुस और उसके दोस्त हम्पटी-डम्पटी को चोरी-चकारी करने पर समझाते हुए उनकी सरोगेट मां इमेल्डा कहती हैं, 'तुम लोगों ने ये क्या किया? यू आर बैटर दैन दिस।' मैं यही बात डायरेक्टर पुनीत इस्सर से कहना चाहूंगा। आप इससे बेहतर हैं। कम से कम सिखों के मान पर इससे लाख गुना बेहतर फिल्म बन सकती थी। और फिर 'आई एम सिंह' तो किसी लोकल म्यूजिक वीडियो से भी बचकानी लगती है। अपनी जिंदगी में या तो मैं 'हिस्स' देखते हुए इतना शर्मिंदा हुआ था या फिर ये फिल्म देखते हुए। बहुत जगहों पर इतनी इरीटेशन और हैरान करने वाली मूर्खताएं हैं कि अपने मुंह को हाथ से ढककर झुका लेता हूं। गुलजार चहल से बेहतर एक्सप्रेशन कपड़ों के शोरूम के बाहर लगे डमी देते हैं। हर सीन में वो परफेक्ट पगड़ी और सूट पहने दूर से किसी मॉडल की तरह चलते हुए आते हैं और बस खतम बात। उन्हें एक्टिंग चींटी भर भी नहीं आती। जब एग्रेसिव होना होता है या गुस्सा दिखाना होता है तो वो चीखने-चिल्लाने के अलावा कुछ नहीं करते। खैर, ये चीखने वाली प्रॉब्लम तो पुनीत इस्सर के डायरेक्शन के साथ भी है। वो अपनी फिल्म की अल्ट्रा इमोशनल मां से जरूरत से ज्यादा रोना-धोना करवाते हैं। जहां भी एक्टिंग की जरूरत होती है वहां उनके कैरेक्टर चीखते हैं। हेट क्राइम फैलाने वाले गोरों की गैंग भी, पुलिस स्टेशन का चीफ भी, हीरो भी, उसके दोस्त भी और एशियन कम्युनिटी का केस लड़ रही वकील भी। सब बस चीखते ही हैं। फिल्म में न एंटरटेनमेंट है, न ये सिनेमैटिकली बिल्कुल भी समझदार है, न इसमें स्क्रिप्ट और डायलॉग है, न म्यूजिक है, न मैसेज है और न ही डायरेक्शन है। मेरी व्यक्तिगत हिदायत है कि मूवी को न देखें। मगर ये फिल्म बुरी क्यों है ये जानना चाहें तो जरूर देखें।

कुछेक कमजोरियां
# डबिंग में कलाकारों की आवाज कान को खाती है।
# जितने कलाकारों ने नकली दाढ़ी लगाई है, उनके किनारों पर लगा ग्लू तक दिखता है। मसलन, पुनीत इस्सर की दाढ़ी।
# कहानी में एक सीन के बाद दूसरे का कोई सेंस नहीं है। अमेरिका आने के बाद रणवीर गुरद्वारे जाता है और ऐसे उभरता है जैसे कोई जंग लडऩे जा रहा है। और उसके बाद वो करता बस इतना ही है कि पुलिस स्टेशन जाकर दो-चार सवाल पूछ लेता है और लौट आता है। लॉजिक के नाम पर बस उसके पास महात्मा गांधी के एक-दो किस्से हैं।
# सिखिज्म का जो बहादुरी और इंसानियत का शानदार इतिहास रहा है, उसे एक बेहतर फिल्म की जरूरत है। और लोग उसे वाकई में पसंद करेंगे। मीका का पंजाबी में एक आइटम नंबर करना या अमेरिका जैसे पूंजीवादी मुल्क में फतेह सिंह जैसे किरदारों का अपने धर्म को समझने की गुहार लगाना, समझदारी भरा नहीं लगता।
# इस फिल्म को बनाने वाले दशकों से फिल्ममेकिंग में हैं, पर उन्होंने इंग्लिश का जरूरत से बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया। ये नहीं सोचा कि छोटे सेंटर्स पर और आम फैमिली ऑडियंस कैसे समझ पाएगी। अमेरिकी मूवीज तक हिंदी में डब करके रिलीज की जाती हैं। 'डेल्ही बैली' तक हिंदी में डब की गई।
# हर कैरेक्टर किसी महल जैसे घर में रहता है, क्या मूर्खता है। क्या एशियन कम्युनिटी की यही हकीकत है। क्या वो सबर्ब या गंदले से उपनगरों में नहीं रहते हैं?

कहानी है पर कहीं दिखी नहीं
रणवीर सिंह (गुलजार चहल) पंजाब में रहता है। एक रात रोती हुई मां का अमेरिका से फोन आता है। उसे पता चलता है कि उसके पिता कोमा में हैं, बड़ा भाई गायब है और उनसे छोटा भाई मारा जा चुका है। कैसे? ये जानने वो अमेरिका आता है। पाकिस्तान मूल का अमेरिकी सिटीजन रिजवान हैदर (रिजवान हैदर) उसे असलियत बताता है। कि अमेरिका पर 9/11 के आतंकी हमलों के बाद एशियन लोग हेट क्राइम्स का शिकार हो रहे हैं। खास तौर पर दाढ़ी रखने वाले और पगड़ी पहनने वाले। जैसे सिख और मुसलमान। रणवीर को पता चलता है कि उसके बड़े भाई को ही पुलिस ने जेल में बंद कर रखा है जबकि खूनी बाहर खुले घूम रहे हैं। उसे छुड़वाने की लड़ाई में लॉस एंजेल्स पुलिस डिपार्टमेंट (एलएपीडी) का ऑफिसर फतेह सिंह (पुनीत इस्सर) उसकी मदद करता है। पुलिस की नई टर्बन पॉलिसी के तहत पगड़ी नहीं उतारने और दाढ़ी नहीं कटवाने पर फतेह को नौकरी से निकाल दिया गया, तब से वह हक की लड़ाई लड़ रहा है। ये दोनों केस अपने हाथ में लेती है सिविल और ह्यूमन राइट्स के लिए लडऩे वाली वकील एमी वॉशिंगटन (एमी रसिमस) और एमीलिया वाइट (ब्रुक जॉनस्टन)।

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गजेंद्र सिंह भाटी