फिल्मः रेडी
डायरेक्टरः अनीस बज़्मी
कास्टः सलमान खान, असिन थोट्टूकमल, परेश रावल, मोहित बाघेल, शरत सक्सेना, महेश मांजरेकर, पुनीत इस्सर, मनोज जोशी, मनोज पावा, आर्य बब्बर, अखिलेंद्र मिश्र, सुदेश लहरी, हेमंत पांडे, निकितेन धीर, मिथिलेश चतुर्वेदी, इवा ग्रोवर
स्टारः ढाई स्टार
साउथ की मूवीज के फॉर्म्युला दर्शकों के लिए ढेर सारा एंटरटेनमेंट (अच्छा कम, बुरा ज्यादा) लाते हैं और प्रॉड्यूसर्स के लिए पैसों की खान। दूसरे कारण से हमारी 'रेडी’ बनी। लगता है डायरेक्टर अनीस बज्मी को अब 'फ्रैश’ शब्द से कोई लगाव नहीं रहा है। हां, इंटरवल के पांच मिनट बाद मूवी कुछ वक्त के लिए बड़ी इंट्रेस्टिंग जरूर होती है। फिर आखिर तक ठीक-ठाक ही रहती है। ओवरऑल ये फिल्म उस खाने की तरह है जो न स्वास्थ्य देता है और न ही स्वाद। फिल्म के स्क्रिप्ट कंसल्टेंट मशहूर राइटर सलीम खान रहे हैं, पर एक-दो सीन छोड़कर कहीं ऐसा लगता नहीं है। मैं तारीफ करूंगा छोटे स्टैंडअप कमेडियन मोहित बाघेल की जो छोटे अमर चौधरी के रोल में हैं। उनके शुरुआती दो सीन सबसे ज्यादा हंसाने वाले हैं। सुदेश लहरी भी कुछ ताजगी लाते हैं। संभव हो तो आप 2008 में आई तेलुगु मूवी 'रेडी’ देख लें। टाइम पास के लिए कोई बेहतर ऑप्शन न हो तो फैमिली के साथ जा सकते हैं। डबल मीनिंग कंटेंट आपकी टेंशन।
प्रेम की कहानी
मानें तो कहानी है नहीं तो फटी स्क्रिप्ट में इधर-उधर से बीनकर लगाए पैबंद। प्रेम कपूर (सलमान खान) फिल्म का हीरो है। काम क्या करता है पता नहीं। इतना मालूम है कि रईस है। घर में मां और पिता (महेश मांजरेकर) हैं, दो चाचा हैं (मनोज जोशी, मनोज पावा) और दो चाचियां हैं। दोस्तों की हेल्प करता है और टेढ़ा है। फैमिली वाले चाहते हैं कि सुधर जाए। एक दिन संजना (असिन) उसकी जिंदगी में आती है। जाहिर है प्यार हो जाता है। पर दिक्कत हैं संजना के दो डॉन मामा (शरत सक्सेना, अखिलेंद्र मिश्र) जो एक दूसरे से नफरत करते हैं, और संजना की शादी उसकी जायदाद के लिए अपने-अपने सालों से करवाना चाहते हैं। कहानी सिंपल और जानी-पहचानी है। कुछ नया नहीं है, बस उसका ट्रीटमेंट कैसा हो यही बड़ा सवाल रहता है।
कुछ पोस्टमॉर्टम
फिल्म में कई घिसे-पिटे कैरेक्टर हैं, लाइन्स हैं और हालात हैं। एक क्लीशे है महेश मांजरेकर का कैरेक्टर। यहां वैसे ही हकलाते हैं जैसे पहले अपनी कई मूवीज में कर चुके हैं। राहत बस इतनी है कि महेश अपनी चतुराई से इस हकलाहट को अलग बनाकर चलते हैं। जैसा दर्जनों बार हुआ है, सलमान की एंट्री कैरेक्टर ढीला है... जैसे एक गाने से होती है। गाने के डबल मीनिंग मतलब को उचित ठहराने के लिए फेसबुक, इशक, शीला और मुन्नी जैसे कॉमन वर्ड डाले गए हैं। एक और टोटका 'रेडी’ में किया गया है और वो है गेस्ट अपीयरेंस में ढेर सारे एक्टर्स का आना। फिल्म की शुरू में कंगना रनाउत, अरबाज खान, अजय देवगन, संजय दत्त और जरीन खान सब नजर आते हैं। गलतफहमी होती है कि फिल्म में उनका मजबूत रोल है, पर अगले ही पल से वो सब नजर ही नहीं आते। इतने गेस्ट अपीयरेंस, प्रेम का बड़ा परिवार, संजना का बड़ा परिवार और कइयों गुंडे। ये लोग इतने ज्यादा हैं कि शुरू में फिल्म को कुछ बिखेर सा देते हैं। जैसे किसी को, कहीं भी, कुछ भी बना दिया गया हो। इंटरवल की जगह 'पी ब्रेक’ लिखा आता है और लोगो पर चाय की गिलास छपी होती है। मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन दोनों के दर्शकों का इस बदलाव में खास ध्यान रखा गया है। कई शॉर्टकट लिए गए हैं और बहुत से डायलॉग्स और उनकी भाषा निचले दर्जे की रखी गई है। ढिंक चिका... और मेरी अदा भी क्या कमाल कर गई... दोनों सिचुएशन के हिसाब से काफी प्रभावी लगते हैं।
मसलन...
'मैं कुत्ता हूं, ये कुतिया है, कि आया मौसम प्यार का।‘ इसे एक इमोशनल सीन होना था जैसा कि 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में फरीदा जलाल और शाहरुख के कैरेक्टर के बीच होता है। वह कहती है कि सिमरन के बाबूजी इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे। वैसे ही यहां संजना की मामी कहती है कि उसके दोनों मामा शादी के लिए राजी नहीं होंगे। तो पहले सीन में आप शाहरुख का इमोशनल और इज्जतदार जवाब जानते ही हैं और यहां है ये कुत्ता-कुतिया जवाब। यहां तक कि सलमान की ही एक मूवी के अच्छे गाने ...कि आया मौसम प्यार का को भी नहीं ब शा गया। ऐसे कई आइडिया मूवी की स्क्रिप्ट में लगाए गए हैं जो फनी नहीं, स्टूपिड लगते हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी
डायरेक्टरः अनीस बज़्मी
कास्टः सलमान खान, असिन थोट्टूकमल, परेश रावल, मोहित बाघेल, शरत सक्सेना, महेश मांजरेकर, पुनीत इस्सर, मनोज जोशी, मनोज पावा, आर्य बब्बर, अखिलेंद्र मिश्र, सुदेश लहरी, हेमंत पांडे, निकितेन धीर, मिथिलेश चतुर्वेदी, इवा ग्रोवर
स्टारः ढाई स्टार
साउथ की मूवीज के फॉर्म्युला दर्शकों के लिए ढेर सारा एंटरटेनमेंट (अच्छा कम, बुरा ज्यादा) लाते हैं और प्रॉड्यूसर्स के लिए पैसों की खान। दूसरे कारण से हमारी 'रेडी’ बनी। लगता है डायरेक्टर अनीस बज्मी को अब 'फ्रैश’ शब्द से कोई लगाव नहीं रहा है। हां, इंटरवल के पांच मिनट बाद मूवी कुछ वक्त के लिए बड़ी इंट्रेस्टिंग जरूर होती है। फिर आखिर तक ठीक-ठाक ही रहती है। ओवरऑल ये फिल्म उस खाने की तरह है जो न स्वास्थ्य देता है और न ही स्वाद। फिल्म के स्क्रिप्ट कंसल्टेंट मशहूर राइटर सलीम खान रहे हैं, पर एक-दो सीन छोड़कर कहीं ऐसा लगता नहीं है। मैं तारीफ करूंगा छोटे स्टैंडअप कमेडियन मोहित बाघेल की जो छोटे अमर चौधरी के रोल में हैं। उनके शुरुआती दो सीन सबसे ज्यादा हंसाने वाले हैं। सुदेश लहरी भी कुछ ताजगी लाते हैं। संभव हो तो आप 2008 में आई तेलुगु मूवी 'रेडी’ देख लें। टाइम पास के लिए कोई बेहतर ऑप्शन न हो तो फैमिली के साथ जा सकते हैं। डबल मीनिंग कंटेंट आपकी टेंशन।
प्रेम की कहानी
मानें तो कहानी है नहीं तो फटी स्क्रिप्ट में इधर-उधर से बीनकर लगाए पैबंद। प्रेम कपूर (सलमान खान) फिल्म का हीरो है। काम क्या करता है पता नहीं। इतना मालूम है कि रईस है। घर में मां और पिता (महेश मांजरेकर) हैं, दो चाचा हैं (मनोज जोशी, मनोज पावा) और दो चाचियां हैं। दोस्तों की हेल्प करता है और टेढ़ा है। फैमिली वाले चाहते हैं कि सुधर जाए। एक दिन संजना (असिन) उसकी जिंदगी में आती है। जाहिर है प्यार हो जाता है। पर दिक्कत हैं संजना के दो डॉन मामा (शरत सक्सेना, अखिलेंद्र मिश्र) जो एक दूसरे से नफरत करते हैं, और संजना की शादी उसकी जायदाद के लिए अपने-अपने सालों से करवाना चाहते हैं। कहानी सिंपल और जानी-पहचानी है। कुछ नया नहीं है, बस उसका ट्रीटमेंट कैसा हो यही बड़ा सवाल रहता है।
कुछ पोस्टमॉर्टम
फिल्म में कई घिसे-पिटे कैरेक्टर हैं, लाइन्स हैं और हालात हैं। एक क्लीशे है महेश मांजरेकर का कैरेक्टर। यहां वैसे ही हकलाते हैं जैसे पहले अपनी कई मूवीज में कर चुके हैं। राहत बस इतनी है कि महेश अपनी चतुराई से इस हकलाहट को अलग बनाकर चलते हैं। जैसा दर्जनों बार हुआ है, सलमान की एंट्री कैरेक्टर ढीला है... जैसे एक गाने से होती है। गाने के डबल मीनिंग मतलब को उचित ठहराने के लिए फेसबुक, इशक, शीला और मुन्नी जैसे कॉमन वर्ड डाले गए हैं। एक और टोटका 'रेडी’ में किया गया है और वो है गेस्ट अपीयरेंस में ढेर सारे एक्टर्स का आना। फिल्म की शुरू में कंगना रनाउत, अरबाज खान, अजय देवगन, संजय दत्त और जरीन खान सब नजर आते हैं। गलतफहमी होती है कि फिल्म में उनका मजबूत रोल है, पर अगले ही पल से वो सब नजर ही नहीं आते। इतने गेस्ट अपीयरेंस, प्रेम का बड़ा परिवार, संजना का बड़ा परिवार और कइयों गुंडे। ये लोग इतने ज्यादा हैं कि शुरू में फिल्म को कुछ बिखेर सा देते हैं। जैसे किसी को, कहीं भी, कुछ भी बना दिया गया हो। इंटरवल की जगह 'पी ब्रेक’ लिखा आता है और लोगो पर चाय की गिलास छपी होती है। मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन दोनों के दर्शकों का इस बदलाव में खास ध्यान रखा गया है। कई शॉर्टकट लिए गए हैं और बहुत से डायलॉग्स और उनकी भाषा निचले दर्जे की रखी गई है। ढिंक चिका... और मेरी अदा भी क्या कमाल कर गई... दोनों सिचुएशन के हिसाब से काफी प्रभावी लगते हैं।
मसलन...
'मैं कुत्ता हूं, ये कुतिया है, कि आया मौसम प्यार का।‘ इसे एक इमोशनल सीन होना था जैसा कि 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में फरीदा जलाल और शाहरुख के कैरेक्टर के बीच होता है। वह कहती है कि सिमरन के बाबूजी इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे। वैसे ही यहां संजना की मामी कहती है कि उसके दोनों मामा शादी के लिए राजी नहीं होंगे। तो पहले सीन में आप शाहरुख का इमोशनल और इज्जतदार जवाब जानते ही हैं और यहां है ये कुत्ता-कुतिया जवाब। यहां तक कि सलमान की ही एक मूवी के अच्छे गाने ...कि आया मौसम प्यार का को भी नहीं ब शा गया। ऐसे कई आइडिया मूवी की स्क्रिप्ट में लगाए गए हैं जो फनी नहीं, स्टूपिड लगते हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी