रविवार, 16 अक्टूबर 2011

हिंदी फिल्मों को शालीन संवेदनशील मोड़ देते नागेश कुकुनूर

फिल्मः मोड़
निर्देशकः नागेश कुकुनूर
कास्टः आयशा टाकिया, रणविजय सिंह, रघुवीर यादव, तन्वी आजमी, निखिल रत्नपारखी
स्टारः ढाई स्टार, 2.५


नागेश कुकुनूर 'इकबाल' और 'डोर' में जितनी अलग-अलग कहानियों और माहौल में हमें लेकर चलते हैं, उसी की अगली कड़ी है 'मोड़।' लोकेशन अलग, किरदार अलग, मोड़ अलग, बातें अलग मगर समानता एक.. वो है सादगी। कहानी में सस्पेंस भी आता है तो इतना नहीं कि झकझोरे। आराम से आता है। एंटरटेनमेंट के दीवानों को और असंवेदनशील होकर फिल्में निगलने वालों को 'मोड़' स्लो लगेगी। सीटियां मारने के ज्यादा मौके नहीं है। हंसने की जल्दबाजी करेंगे तो सीरियस और भावुक बात की खिल्ली उड़ा बैठेंगे। बॉलीवुड में जैसी कॉपी-पेस्ट फिल्में बनती हैं, वहां घिसी-पिटी कहानियों का जैसे दोहराव होता रहता है, उन सबसे अलग कहीं दूर ये फिल्म शालीनता से खड़ी नजर आती है। दोस्तदारों और मनोरंजनगारों की महत्वाकांक्षा को 'मोड़' पूरा नहीं कर पाएगी, पर हां, फैमिली ऑडियंस और बच्चे जरूर इस भावभीनी स्टोरीटेलिंग को एंजॉय करेंगे। अगर कहूं तो आज के दौर में नागेश और श्याम बेनेगल ही ऐसे दो फिल्मकार बचे हैं तो बिना साइड इफेक्ट और सोशल जुड़ाव वाली फिल्म रचते हैं। अगर देख सकें तो देखें।

सुकून भरी स्टोरी
हरियाली शांत पहाडिय़ों पर बसा है एक छोटा सा कस्बा गंगा। यहां के लोग खुश हैं, कोई अपराध नहीं है, शुद्ध पाने के झरने बहते हैं और इसी माहौल में अपने घर में ही घड़ीसाज का काम करती है अरण्या (आयशा टाकिया)। पिता अशोक महादेव (रघुवीर यादव) किशोर कुमार के भक्त हैं और ऐसे ही बुजुर्ग भक्तों के साथ मिलकर अपनी स्कूल और ऑरकेस्ट्रा चलाते हैं। बाप-बेटी का रिश्ता प्यारा है। अशोक को उनकी वाइफ छोड़कर चली गई, उन्हें उसके आने का इंतजार है। अरण्या ने कह रखा है कि बाबा जब तक शराब नहीं छोड़ेंगे मेरे घर नहीं आना। यहीं पर म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की दुकान है गंगाराम (निखिल रत्नपारखी) की। उसे अरण्या की हां का इंतजार है तभी तो वजन घटाने वाले इलेक्ट्रिक बेल्ट को लगाए रखता है। एक और बात, गंगाराम का दस लाख का कर्ज अरण्या के घर पर बकाया है। अरण्या की कम्युनिस्ट सोच वाली जीजी यानी बुआ गायत्री (तन्वी आजमी) पास ही में अपना छोटा सा रेस्टोरेंट चलाती है। ये तो है कहानी का माहौल। अब आते हैं एंडी (रणविजय) पर। वह अरण्या के पास अपनी भीगी घड़ी ठीक करवाने आता है। फिर रोज आने लगता है। प्यार होता है। वह बताता है कि क्लास 10 बी में दोनों साथ पढ़ते थे। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब उसे पता चलता है कि एंडी की तो दस साल पहले एक्सीडेंट में मौत हो गई थी। तो फिर ये लड़का कौन है? और अरण्या से क्या चाहता है? फर्स्ट हाफ के बाद यही सस्पेंस खुलता है।

अनूठी चीजें और रेफरेंस
# अरण्या का घर सुंदर घडिय़ों से सजा है और किशोर भक्त अशोक महादेव का घर किशोर कुमार की बहुत सी तस्वीरों से। गायत्री का रेस्टोरेंट भी सादगी से सजा है। अरण्या की काइनेटिक भी इतिहास होती चीजों में से है। ये सब सेटिंग्स करीने से की गईं हैं।
# किशोर भक्त मंडली में हिंदु, मुसलमान, सिख और ईसाई चारों हैं। दिखने में ये भले ही खास न लगे पर ये देखिए आज भी एक फिल्ममेकर अपने काम में सामाजिक सद्भाव को लाने की कोशिश कर रहा है। जरा, बाकी समकालीन फिल्ममेकर्स की फिल्मों पर नजर डालिए। क्या ऐसा मिलता है?
# इस हरे-भरे कस्बे में कॉरपोरेट आना चाहते हैं, अपनी होटल बनाने और लोगों की जमीनों का अधिग्रहण करने। एक और नेशनल इश्यू का रेफरेंस। तन्वी की कैरेक्टर गायत्री कस्बे में पोस्टर भी लगाती है 'गो बैक आर.के.सी।'

डायलॉग इस मिजाज के
# मेरा दोस्त कहता है कि सच्चे प्यार की जीत होती है, पर जीत पीछे लगने से होती है। (एंडी बने रणविजय अरण्या से)
# मैं तुम्हें मुझे न बोलने की सजा दूंगा। (कितना हिला देने वाला डायलॉग है, गंगाराम बने निखिल रत्नपारखी अरण्या से, जब वो उसके लव प्रपोजल को स्वीकार नहीं करती)

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गजेंद्र सिंह भाटी