रविवार, 27 फ़रवरी 2011

127 घंटों का हौसला

फिल्मः 127 आवर्स
निर्देशकः
डैनी बोयेल
कास्टः जेम्स फ्रैंको
स्टारः साढ़े तीन 3.5

उन लोगों के लिए '127 आवर्स' एक डॉक्युमेंट्रीनुमा छोटी और साधारण फिल्म हो सकती है जो इसे बिना खास कोशिश के देखेंगे डैनी बॉयेल की इस फिल्म का सबसे ज्यादा मजा लेना है तो आप एक फिल्म राइटर, डायरेक्टर या स्टोरीटेलर बनकर इसे देंखे। या फिर आपको इंसानी जज्बे और संघर्ष की कहानियों से लगाव हो। अगर ये सब नहीं है, तो ये फिल्म आपको बोरिंग भी लग सकती है और आखिरकार इंस्पायरिंग भी। साइमन बुफॉय और डैनी की लिखी '127 आवर्स' में बिना ड्रामा के भी बहुत सारा ड्रामा और फिल्मीपन दिखता है। यही इसकी खासियत भी है। अगर तालियां बजाने, पॉपकॉर्न खाने और फन के लिए जाना है तो न जाएं। लेकिन अपनी फैमिली की, एक बूंद पानी की, अपने प्यार की, बचपन की यादों की, मुश्किल वक्त की, हिम्मत की, हौसले की, जिंदगी की और मौत की कहानी सुनना चाहते हैं, तो दिल बड़ा रखकर जरूर जाएं। एक बड़े इरादों वाली छोटी सी फिल्म आपका इंतजार कर रही है।

सत्य है स्टोरी
ये ऑटोबायोग्राफिकल फिल्म अमेरिका के एक माऊंटेन क्लाइंबर एरॉन रेलस्टन (जेम्स फ्रैंको) की जिंदगी पर बनी है। 2003 की बात है। हमेशा की तरह अपनी स्पीड से चल रहे अमेरिका में एरॉन अपनी ही तैयारी में है। भीड़-भाड़ से दूर केनियनलैंड नेशनल पार्क में वह रात के स्टे के बाद सुबह अपनी बाइसाइकल पर ब्लू जॉन केनियन के पथरीले-धूल भरे इलाके में एडवेंचर करने निकलता है। बिल्कुल आश्वस्त से एरॉन का एडवेंचर और जिंदगी उस वक्त थम जाती है जब केनियनरिंग (माउंटेनियरिंग) करते हुए एक बड़ी चट्टान के बीच दरार में उसका हाथ बड़े पत्थर के नीचे दब जाता है। दूर-दूर तक उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है। कोई है तो एरॉन के मरने का इंतजार करती सिर पर मंडरा रही चील, नीचे रेंग रही चींटी और एक गिरगिट। अब तय है कि वह बड़ा सा पत्थर उसके हाथ पर से नहीं हटेगा... तो एरॉन क्या करेगा? ये 127 घंटे यानी पांच दिन उसकी हिम्मत का कैसे इम्तिहान लेते हैं? ये सवाल क्लाइमैक्स में सुलझते हैं। हालांकि एरॉन के नॉवेल 'बिटवीन अ रॉक एंड अ हार्ड प्लेस' को पहले पढ़ा जा सकता है।

डैनी की बात
फिल्में कैसी हों? कमर्शियल मसाला वाली या आर्टिस्टिक रिएलिटी पर आधारित? इस लंबी और अभी आगे भी चलने वाली बहस का एक जवाब डैनी बोयेल की ये फिल्म है। एक ऑटोबायोग्रफी जिसमें हर तरह के इमोशन और ड्रामा हैं, रिएलिटी भी है, सिनेमैटिक एक्सिलेंस भी है, फिल्ममेकिंग में जुड़ती नई चीजें भी हैं। ऐसा लगता है कि 'स्लमडॉग मिलियनेयर' के लिए ऑस्कर जीत चुकने के बाद '127 आवर्स' को उन्होंने ऑस्कर के बोझ तले दबकर नहीं बनाया है। एकदम फ्रैश माइंड से बनी फिल्म लगती है, जिसमें एक फिल्ममेकर के तौर पर खुद को प्रूव करने की कोई कोशिश नहीं है। इंसानों से रहित दुनिया डैनी को आकर्षित करती है। वो एक्ट्रीम ऑपोजिट्स में मूवी बनाते हैं। भीड़ वाली बनाएंगे तो 'ट्रैनस्पॉटिंग' जैसी नशीली, बदबूदार और चिपचिपाहट वाली फिल्म चुनेंगे। फिर 'स्लमडॉग मिलियनेयर' बनाएंगे। इसमें उनकी फिल्म बनाने की ब्रिटिश शैली बॉलीवुड के रास्ते चलती है। वो यहां दो भाइयों के 'दीवार' वाले फॉर्म्युले के साथ अनिल कपूर को लेते हैं और 'हू वॉन्ट्स टु बी ए मिलियनेयर' के टीवी ड्रामा को भी। जब भीड़ के उलट अकेलेपन को लेंगे तो '28 डेज लेटर' बनाएंगे, जिसमें सूनसान लंदन की सड़कें दिखेंगी। अब पूरी '127 आवर्स' भी है। इसमें मोटा-मोटी एक ही कैरेक्टर है और उसे निभाया है जेम्स फ्रैंको ने।

आखिर में...
# जेम्स फ्रैंको के इस रोल के लिए कोई भी एक्टर जिंदगी भर इंतजार करेगा। हर घंटे के साथ उनका फीका पड़ता चेहरा और कमजोरी दिखती है, साथ ही उनके एटिट्यूड में आस से भरी चिंगारी भी। दोनों को साथ रख पाना मुश्किल काम होता है, पर उन्होंने करके दिखाया।
# ए. आर. रहमान के म्यूजिक वाला आखिरी गाना इफ आई राइज... फिल्म में मेरा फेवरेट है। आवाज भी रहमान और डीडो की है। इस फिल्म के साथ रहमान ने अपने म्यूजिक को 'स्लमडॉग मिलियनेयर' से आगे ले जाने की कोशिश की है और वो इसमें सफल भी रहे हैं। एरॉन के संघर्ष के पलों में हल्की तबले की थाप और हल्की वीणा की झंकार भी दिल हुमार लेती है।
# फिल्म के शुरू में क्रेडिट्स पेश करने का तरीका भा गया। स्क्रीन तीन हिस्सों में बांटकर दुनिया के कुछ भीड़ भरे सीन और खेल दिखाए जाते हैं। बस क्रेडिट्स में ही। खेल और खेलों की विनिंग स्पिरिट शायद इस शुरू के सीन का संदर्भ है। बाद में इसमें एरॉन की कहानी जोड़ दी जाती है। फिल्म जब खत्म होती है तो पता चलता है कि डैनी बोयेल ने शुरू के क्रेडिट्स में वैसे भीड़भरे रशेज क्यों डाले थे। इसके साथ ही फिल्म एक पूरा सर्कल ले लेती है। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी