फिल्मः गेम
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः अभिषेक बच्चन, साराह जेन डियेज, बोमन ईरानी, जिमी शेरगिल, कंगना रानाउत, शहाना गोस्वामी
स्टारः डेढ़, 1.5
'गेम' के डायरेक्टर अभिनय देव अपनी इस फिल्म के साथ क्लासिक थ्रिलर्स के दौर को वापिस ले आने की बातें कर रहे थे। पर ऐसा हो नहीं पाया। फिल्म बनाना तो वैसे भी किसी एड फिल्म को बनाने से बिल्कुल अलग होता है, ऐसे में ये तो बेहद कठिन जॉनर था। हर सेकंड ऑडियंस को सीट की एज पर रखना जरूरी होता है। जैसा कि क्लासिक दौर में 'हमराज', 'मेरा साया', 'कोहरा', 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वैलथीफ' जैसी फिल्मों में था। 'गेम' में आत्मा जरूर इन फिल्मों वाली है पर इनका ट्रीटमेंट हॉलीवुड फिल्मों जैसा है। याद रखने की बात ये थी कि ऑडियंस आज भी हिंदुस्तानी हैं और उससे भी पहले एक डिमांडिग वॉचर है। फिल्म का क्लाइमैक्स ही आधे-अधूरे ढंग से सीट पर रोककर रखता है, उससे पहले का सारा वक्त बावलों की तरह बैठे-बैठे बीतता है। ये एक ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बजाय आप डीवीडी पर 'बॉर्न आइडेंटिटी' के सारे पार्ट देखकर अच्छा टाइम स्पैंड कर सकते हैं। यकीन मानिए नहीं देखेंगे तो ज्यादा कुछ मिस नहीं करेंगे। अब सिर्फ अभिषेक बच्चन को ही देखने थियेटर जाना है तो बात अलग है।
मिस्ट्री में क्या है...
ऑडियंस को ग्रिप में लेने के लिए मुंबई में 22 अगस्त, 2007 की रात से बात शुरू की जाती है। अंधेरी रात में एक लड़की सूनसान सड़क पर जा रही है और एक गाड़ी उसे उड़ाकर चली जाती है। अब ग्रिप लूज होती जाती है। हम पहुंच जाते हैं ग्रीस के सामोस में। बिलियनेयर कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) का यहां अपना एक द्वीप हैं। इनकी असिस्टेंट हैं समारा श्रॉफ (गौहर खान), इन्होंने दुनिया के चार अलग-अलग शहरों से चार लोगों को बुलाया है। पहले हैं विक्रम कपूर (जिमी शेरगिल), मूवी स्टार हैं। दूसरे हैं ओ. पी. रामसे (बोमन ईरानी) जो थाइलैंड में पीपुल्स पार्टी की तरफ से प्राइम मिनिस्टीरियल कैंडिडेट हैं। तीसरी हैं तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) जो लंदन में क्राइम जर्नलिस्ट हैं। चौथे हैं हमारे अभिषेक बच्चन जो नील मेनन का रोल प्ले कर रहे हैं। तुर्की के इस्तांबुल के सबसे बड़े कसीनो के ओनर हैं। इन चारों के अपने-अपने पास्ट हैं, उससे बचने के लिए ये कबीर मल्होत्रा के पास जाने को राजी हो जाते हैं। जब ये सब सामोस पहुंचते हैं तो कबीर मल्होत्रा अपनी बेटी माया (साराह जेन डियेज) की मौत के लिए इनमें से तीन को जिम्मेदार ठहराता है और तिशा से कहता है कि वो उसकी दूसरी बेटी है। यहां तक कहानी बिल्कुल अलग ट्रैक पर चल रही होती है। अगले ही मोड़ कबीर मल्होत्रा का खून हो जाता है। स्पेशल इनवेस्टिगेशन ऑफिसर सिया अग्निहोत्री (कंगना रनाउत) यहां पहुंचती हैं। आप सोच रहे होंगे कि कहानी को इतनी डिटेल में क्यों सुना रहा हूं। दरअसल जिन फिल्मों को थियेटर में जाकर देखने का धर्म नहीं होता उन थ्रिलर्स की कुछ मिस्ट्री खोल भी दें तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। खैर, चारों यहां से चले जाते हैं और फिर किसी कारण से कहानी आगे बहुत सारे नए ट्विस्ट और टर्न से गुजरती है। नील माया से प्यार करता था, वह उसकी मौत का बदला लेने के लिए ओ. पी. रामसे और विक्रम के पीछे जाता है। फिल्म क्लाइमैक्स तक आते-आते बिल्कुल अलग हो चुकी होती है। नील की सच्चाई कुछ और ही निकलती है और कबीर मल्होत्रा का कातिल कोई अनएक्सपैक्टेड ही होता है।
लक्ष्य क्या है तुम्हारा
फिल्म शुरू होती है तो क्रेडिट्स में एक्सेल एंटरटेनमेंट के बैनर में बनी 'लक्ष्य' फिल्म की धुन अच्छा फील करवाती है। बस पहले पहल ही। उसके बाद ऑडियंस को धीमा जहर दिया जाने लगता है। मूवी के आखिरी बीस मिनटों को छोड़ दें तो थ्रिल जैसा कुछ नहीं लगता है। थ्रिलर फिल्म में किरदारों के चेहरों पर सिचुएशन के हिसाब से आने वाले इमोशन ही सबसे बड़ा रोल निभाते हैं। 'गेम' में ये रिएक्शन बड़े बेसिक से हैं। बोमन चिल्लाते हैं, जिमी डरते हैं, शहाना कन्फ्यूज करती हैं और अभिषेक हीरो माफिक बने रहते हैं। कंगना के सर्जरी करवाए हुए होठ अजीब लगते हैं और वो बैचेनी में पेन हिलाने के अलावा एक इनवेस्टिगेशन ऑफिसर के रोल को कुछ और नहीं दे पाती। अनुपम खेर के मुंह से 'ये 30 साल पहले की बात है, ये तीन साल पहले की बात है' के डायलॉग वाकई तीस साल पहले के डायलॉग ही लगते हैं। ये और बात है कि डायलॉग्स को तीस साल से पहले पैदा हुए फरहान अख्तर ने लिखा है।
बनाने वालों ने क्या बना डाला
कंगना के कैरेक्टर की एंट्री से फिल्म में कुछ जान आती है पर डायरेक्टर अभिनय देव की नाकामयाबी यहां हावी रहती है। उनका डायरेक्शन बेहद सतही है। उन्हें चीजों को ड्रमैटिक करना बिल्कुल नहीं आता है। एलन अमीन के एक्शन दृश्यों को छोड़ दें तो फिल्म के किसी सीन में बिल्कुल जान नहीं है। ये एक्शन दृश्य भी इंग्लिश फिल्मों का हिस्सा लगते हैं, हमारी 'गेम' के प्लॉट का हिस्सा नहीं लगते हैं। सामोस, बैंकॉक, लंदन, इस्तांबुल और इंडिया जैसे बड़े स्कैल को कहानी में शामिल करके मूवी को मैग्नम ओपस बनाने की कोशिश तो की जाती है पर सिर्फ यही पैमाना होता तो डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्रैफिक के हर आधे घंटे के प्रोग्रैम को इंडिया के थियेटरों में रिलीज किया जाता।
आखिर में...
सेकंड हाफ के बाद अभिषेक बच्चन के कैरेक्टर नील के मॉर्निंग वॉक पर जाने का चेसिंग सीन फिल्म में सबसे इंटे्रस्टिंग है। इसमें वह इस्तांबुल की गलियों, बाजारों और पब्लिक प्लेसेज से होते हुए दौड़ रहे होते हैं। कुछ सेकंड्स के लिए 'रॉक ऑन' के डायरेक्टर अभिषेक कपूर भी एक डायरेक्टर के ही कैमियो में नजर आते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी
डायरेक्टरः अभिनय देव
कास्टः अभिषेक बच्चन, साराह जेन डियेज, बोमन ईरानी, जिमी शेरगिल, कंगना रानाउत, शहाना गोस्वामी
स्टारः डेढ़, 1.5
'गेम' के डायरेक्टर अभिनय देव अपनी इस फिल्म के साथ क्लासिक थ्रिलर्स के दौर को वापिस ले आने की बातें कर रहे थे। पर ऐसा हो नहीं पाया। फिल्म बनाना तो वैसे भी किसी एड फिल्म को बनाने से बिल्कुल अलग होता है, ऐसे में ये तो बेहद कठिन जॉनर था। हर सेकंड ऑडियंस को सीट की एज पर रखना जरूरी होता है। जैसा कि क्लासिक दौर में 'हमराज', 'मेरा साया', 'कोहरा', 'तीसरी मंजिल' और 'ज्वैलथीफ' जैसी फिल्मों में था। 'गेम' में आत्मा जरूर इन फिल्मों वाली है पर इनका ट्रीटमेंट हॉलीवुड फिल्मों जैसा है। याद रखने की बात ये थी कि ऑडियंस आज भी हिंदुस्तानी हैं और उससे भी पहले एक डिमांडिग वॉचर है। फिल्म का क्लाइमैक्स ही आधे-अधूरे ढंग से सीट पर रोककर रखता है, उससे पहले का सारा वक्त बावलों की तरह बैठे-बैठे बीतता है। ये एक ऐसी फिल्म है जिसे देखने के बजाय आप डीवीडी पर 'बॉर्न आइडेंटिटी' के सारे पार्ट देखकर अच्छा टाइम स्पैंड कर सकते हैं। यकीन मानिए नहीं देखेंगे तो ज्यादा कुछ मिस नहीं करेंगे। अब सिर्फ अभिषेक बच्चन को ही देखने थियेटर जाना है तो बात अलग है।
मिस्ट्री में क्या है...
ऑडियंस को ग्रिप में लेने के लिए मुंबई में 22 अगस्त, 2007 की रात से बात शुरू की जाती है। अंधेरी रात में एक लड़की सूनसान सड़क पर जा रही है और एक गाड़ी उसे उड़ाकर चली जाती है। अब ग्रिप लूज होती जाती है। हम पहुंच जाते हैं ग्रीस के सामोस में। बिलियनेयर कबीर मल्होत्रा (अनुपम खेर) का यहां अपना एक द्वीप हैं। इनकी असिस्टेंट हैं समारा श्रॉफ (गौहर खान), इन्होंने दुनिया के चार अलग-अलग शहरों से चार लोगों को बुलाया है। पहले हैं विक्रम कपूर (जिमी शेरगिल), मूवी स्टार हैं। दूसरे हैं ओ. पी. रामसे (बोमन ईरानी) जो थाइलैंड में पीपुल्स पार्टी की तरफ से प्राइम मिनिस्टीरियल कैंडिडेट हैं। तीसरी हैं तिशा खन्ना (शहाना गोस्वामी) जो लंदन में क्राइम जर्नलिस्ट हैं। चौथे हैं हमारे अभिषेक बच्चन जो नील मेनन का रोल प्ले कर रहे हैं। तुर्की के इस्तांबुल के सबसे बड़े कसीनो के ओनर हैं। इन चारों के अपने-अपने पास्ट हैं, उससे बचने के लिए ये कबीर मल्होत्रा के पास जाने को राजी हो जाते हैं। जब ये सब सामोस पहुंचते हैं तो कबीर मल्होत्रा अपनी बेटी माया (साराह जेन डियेज) की मौत के लिए इनमें से तीन को जिम्मेदार ठहराता है और तिशा से कहता है कि वो उसकी दूसरी बेटी है। यहां तक कहानी बिल्कुल अलग ट्रैक पर चल रही होती है। अगले ही मोड़ कबीर मल्होत्रा का खून हो जाता है। स्पेशल इनवेस्टिगेशन ऑफिसर सिया अग्निहोत्री (कंगना रनाउत) यहां पहुंचती हैं। आप सोच रहे होंगे कि कहानी को इतनी डिटेल में क्यों सुना रहा हूं। दरअसल जिन फिल्मों को थियेटर में जाकर देखने का धर्म नहीं होता उन थ्रिलर्स की कुछ मिस्ट्री खोल भी दें तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। खैर, चारों यहां से चले जाते हैं और फिर किसी कारण से कहानी आगे बहुत सारे नए ट्विस्ट और टर्न से गुजरती है। नील माया से प्यार करता था, वह उसकी मौत का बदला लेने के लिए ओ. पी. रामसे और विक्रम के पीछे जाता है। फिल्म क्लाइमैक्स तक आते-आते बिल्कुल अलग हो चुकी होती है। नील की सच्चाई कुछ और ही निकलती है और कबीर मल्होत्रा का कातिल कोई अनएक्सपैक्टेड ही होता है।
लक्ष्य क्या है तुम्हारा
फिल्म शुरू होती है तो क्रेडिट्स में एक्सेल एंटरटेनमेंट के बैनर में बनी 'लक्ष्य' फिल्म की धुन अच्छा फील करवाती है। बस पहले पहल ही। उसके बाद ऑडियंस को धीमा जहर दिया जाने लगता है। मूवी के आखिरी बीस मिनटों को छोड़ दें तो थ्रिल जैसा कुछ नहीं लगता है। थ्रिलर फिल्म में किरदारों के चेहरों पर सिचुएशन के हिसाब से आने वाले इमोशन ही सबसे बड़ा रोल निभाते हैं। 'गेम' में ये रिएक्शन बड़े बेसिक से हैं। बोमन चिल्लाते हैं, जिमी डरते हैं, शहाना कन्फ्यूज करती हैं और अभिषेक हीरो माफिक बने रहते हैं। कंगना के सर्जरी करवाए हुए होठ अजीब लगते हैं और वो बैचेनी में पेन हिलाने के अलावा एक इनवेस्टिगेशन ऑफिसर के रोल को कुछ और नहीं दे पाती। अनुपम खेर के मुंह से 'ये 30 साल पहले की बात है, ये तीन साल पहले की बात है' के डायलॉग वाकई तीस साल पहले के डायलॉग ही लगते हैं। ये और बात है कि डायलॉग्स को तीस साल से पहले पैदा हुए फरहान अख्तर ने लिखा है।
बनाने वालों ने क्या बना डाला
कंगना के कैरेक्टर की एंट्री से फिल्म में कुछ जान आती है पर डायरेक्टर अभिनय देव की नाकामयाबी यहां हावी रहती है। उनका डायरेक्शन बेहद सतही है। उन्हें चीजों को ड्रमैटिक करना बिल्कुल नहीं आता है। एलन अमीन के एक्शन दृश्यों को छोड़ दें तो फिल्म के किसी सीन में बिल्कुल जान नहीं है। ये एक्शन दृश्य भी इंग्लिश फिल्मों का हिस्सा लगते हैं, हमारी 'गेम' के प्लॉट का हिस्सा नहीं लगते हैं। सामोस, बैंकॉक, लंदन, इस्तांबुल और इंडिया जैसे बड़े स्कैल को कहानी में शामिल करके मूवी को मैग्नम ओपस बनाने की कोशिश तो की जाती है पर सिर्फ यही पैमाना होता तो डिस्कवरी और नैशनल ज्योग्रैफिक के हर आधे घंटे के प्रोग्रैम को इंडिया के थियेटरों में रिलीज किया जाता।
आखिर में...
सेकंड हाफ के बाद अभिषेक बच्चन के कैरेक्टर नील के मॉर्निंग वॉक पर जाने का चेसिंग सीन फिल्म में सबसे इंटे्रस्टिंग है। इसमें वह इस्तांबुल की गलियों, बाजारों और पब्लिक प्लेसेज से होते हुए दौड़ रहे होते हैं। कुछ सेकंड्स के लिए 'रॉक ऑन' के डायरेक्टर अभिषेक कपूर भी एक डायरेक्टर के ही कैमियो में नजर आते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी