अतिरिक्त //
'फ़र्ज़ी' में एक सीन है. ओपनिंग क्रेडिट्स के बाद. सनी (शाहिद कपूर) पेटिंग बना रहा है किसी की. स्मॉल टाइम आर्टिस्ट है. एक कस्टमर खड़ा है. पूछता है -
कस्टमर - ये वैन गॉग तेरी है क्या. कोई फर्क ही नहीं लग रहा है! Its too good. कितना लोगे?
सनी - छह हज़ार
कस्टमर - इतने में तो ओरिजिनल मिल जाएगी. सीधा भाव लगा न. मेरे हिसाब से इसके लिए हज़ार भी बहुत है.
सनी - असली कॉपी बनाने में भी कला लगती है सर. इग्जैक्ट रेप्लिका है.
कस्टमर - बकवास छोड़. है तो नकली ही ना. इसे मैं अपने घर पे लगाऊंगा, तो असली लगेगी?
सनी - अगर आपकी औकात है सौ करोड़ की पेंटिंग घर में लगाने की तो असली लगेगी सर. (यहां आते आते लगने लगा कि कहीं ये कस्टमर इतनी बेइज्जती सुनकर सनी को थप्पड़ न मार दे)
भावार्थ - ये बात सत्य है कि घर महल हो और वहां कोई नकली पेटिंग भी लगी हो तो वैल्यू 100 करोड़ ही मानी जाएगी. जैसे महलों सरीखे घरों में रहने वाले उद्योगपति कोई गलत काम नहीं करते. वे फर्जी भी होते हैं तो खरे ही सर्टिफाइड प्रतीत करवाए जाते हैं. उनके कम्युनिकेशंस डिपार्टमेंट द्वारा. कहीं न कहीं इस सीरीज के पहले एपिसोड के इस पहले सीन से ही सनी की मनोवृत्ति साफ हो जाती है. कि घर या बंगला औकात वाला हो तो आप फर्जी होकर भी फर्जी न होगे. इसीलिए आगे जाकर वो मिलावट का रास्ता लेता है, जाली काम का रास्ता लेता है. जिससे सोने का महल खरीदेगा और ऐसे महल में तो जाली से जाली चीज भी खरी ही लगेगी.
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