अच्छे इरादों से बनी, भलाई और त्याग का संदेश देती निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ उस बहस को खत्म नहीं कर पाती जिसे शुरू करने का दावा करती रही
सुधीर मिश्रा की पिछली फिल्म ‘ये साली जिंदगी’ मुझे काफी अच्छी लगी थी। सीधी, स्पष्ट, अनूठी प्रस्तुति वाली और रोचक। ‘इनकार’ भी जरा फ्लैशबैक में चलती है पर अस्पष्टता लिए है। अर्जुन रामपाल, चित्रांगदा और सुधीर जिस तरह न्यूज चैनल्स के दफ्तरों में और शैक्षणिक संस्थानों में इसे ‘कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ यौन शोषण’ पर बनी फिल्म कहकर प्रचारित कर रहे थे, वैसी ये है नहीं। फिल्म में ‘मौला तू मालिक है’ गाने में स्वानंद किरकिरे की लिखी एक पंक्ति आती है, ‘नैनों के भीगे भीगे इश्तेहारों से, तुझको रिझाना है...’, ‘इनकार’ भी इश्तेहारी पेशे को पृष्ठभूमि बनाकर यौन शोषण और महिला-पुरुष गैरबराबरी का इश्तेहार सा गढ़ती है और रिझाने की कोशिश करती है। इसका अंत अच्छे संदेश के साथ होता है, हमें भला इंसान बनाता है, पर बात पूरी फिल्म में चलती बहस से अंत में अलग हो जाने की है। आखिर के दस मिनट को छोड़कर पूरे वक्त हम कोर्टरूम ड्रामा वाले अंदाज में सुनवाई होती देखते हैं। ‘राशोमोन’ (अकीरा कुरोसावा की इस क्लासिक में एक घटना का सच तीन लोग अपने-अपने संस्करणों में सुनाते हैं) वाले अंदाज में सच के अलग-अलग संस्करण देखते हैं। कौन गलत है, कौन सही है ये तय करना चाहते हैं। ...पर आखिर में फिल्म एक लव स्टोरी का रंग घोलकर खत्म हो जाती है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे फिल्म के क्लाइमैक्स में अच्छी बातें नजर आती हैं, मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है, पर फिर इनकार शब्द के मायने क्या रहे? फिर यौन शोषण को ना कहने के संदेश का क्या हुआ?
Chitrangada Singh and Arjun Rampal, in a still from 'Inkaar' |
कथित तौर पर लियो बर्नेट और ग्रे वर्ल्डवाइड जैसी विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तरों में शूट हुई ये कहानी शुरू होती है हरियाणवी लहजे में। छोटा राहुल रोता हुआ घर आता है और अपने पिता (कंवलजीत सिंह) से बाहर खेलने नहीं दे रहे लड़कों की शिकायत करता है। पिता जवाब में उसे जिंदगी का बड़ा (सही/गलत) सबक देता है, जो कुछ यूं होता है, “देख बेट्टा, कोई चीज तेरी हो ना और तुझे कोई नहीं दे ना... तो तू छीन लियो उसको...”। लगता है सुधीर हमें सुझा रहे हैं कि वर्क प्लेसेज में महिलाओं के साथ गैर-बराबरी या यौन शोषण के बीज पुरुषों में यहीं ऐसे ही पड़ते हैं और खाप के संदर्भ में मर्दवादी मर्द ढूंढने में हरियाणा से आसान संदर्भ कोई मिल नहीं सकता। हांलाकि ये शॉर्टकट ही है। खैर, बताता चलूं कि फिल्म का क्लाइमैक्स इस धारणा को तोड़ देता है। यही राहुल फिल्म के आखिर में जब अपने एजेंसी के साथियों को ई-मेल भेजता है तो उसमें इन्हीं पिता की सीख का जिक्र करते हुए लिखता है, “मेरे पिताजी हमेशा कहते थे कि तुझे कोई गलत साबित कर दे ना तो उसे (उसका साथ) कभी छोड़ियो मत...”। और हम गलत साबित हो जाते हैं कि ये सहारणपुर का बच्चा और उसका पिता गलत वैल्यूज वाले लोग नहीं थे, जैसा हमें शुरू के डायलॉग से लगे। लेकिन पूरी फिल्म में दर्शक सच के हर नए पक्ष के साथ मैन्यूपुलेट होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे राहुल और माया हुए अपने-अपने पूर्वाग्रहयुक्त सचों से। ये फिल्म कुछ और हो न हो, ये जरूर साबित करती है कि हम जल्दी से जल्दी बलि के बकरे या बुरे को ढूंढने के लिए तड़प रहे होते हैं। हम सच्चाई या भलाई को संभावना ही नहीं देना चाहते। कुछ चाहते हैं कि माया को गलत साबित करने के लिए मुझे जरा सा लॉजिक मिल जाए, बाकी राहुल के लिए ऐसा सोचते हैं... पर फिल्म के डायरेक्टर सुधीर मिश्रा दोनों तरह की सोच को गलत साबित कर देते हैं। ये वर्क प्लेसेज में सेक्सुअल हरासमेंट की कहानी कम और मानव मस्तिष्क की तहों में जाती फिल्म ज्यादा है। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के प्रमोशन के वक्त रिपोर्टर पूछते हैं कि फिल्म में हीरो कौन है या विलेन कौन है? फिल्मकार की चिढ़ से बेखबर और इस बात से अपरिचित कि ग्रे शेड्स भी होते हैं, हर इंसान में बुरे-अच्छे दोनों बसते हैं। खैर, हम कहानी क्या थी इससे ज्यादा खिसक लिए।
मुंबई की एक प्रतिष्ठित विज्ञापन एजेंसी का सीईओ है राहुल वर्मा (अर्जुन रामपाल) और उसकी नेशनल क्रिएटिव डायरेक्टर है माया लूथरा (चित्रांगदा सिंह)। बात ये है कि माया ने राहुल पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। कंपनी के अंदर ही जांच पैनल बना है। इसकी अध्यक्ष हैं समाज सेविका मिसेज कामदार (दीप्ति नवल) और बाकी सदस्य है एजेंसी के लोग। अब सुनवाई हो रही है। राहुल और माया अलग-अलग आकर अपना-अपना पक्ष रख रहे हैं। राहुल का कहना है कि माया सोलन की एक डरी हुई लड़की थी जिसे चलना, बैठना, बात करना, सोचना, विज्ञापन के आइडिया प्रेजेंट करना और इस पेशे का क-ख-ग उन्होंने ही सिखाया है। एक ऐसी जगह में जहां निरोध, ब्रा, पेंटी, डियो से लेकर न जाने कैसे-कैसे विज्ञापन बनाते हैं तो हंसी-मजाक भरी फ्लर्टेशन (एक किस्म की छेड़छाड़) चलती रहती है। प्रोजेक्ट पर बात करने के लिए लेट नाइट एक-दूसरे के घर भी जाते हैं, पार्टी भी करते हैं। ऐसे में कोई इसे शोषण मानता है तो शोषण की सीमा कहां शुरू होती है? ऐसे तो इतने डेडलाइन वाले माहौल में काम करना मुश्किल हो जाएगा? माया के आरोप हैं कि राहुल ने कुछ शब्दों के इस्तेमाल में या एक बार अपने घर बुलाकर उसे परेशान करने की कोशिश की है। वह कहती है कि दफ्तर में जैसे उसके बारे में सब बातें करते हैं कि वह राहुल के साथ सोई तो उसकी तरक्की हुई या जैसे मर्द कलीग उसे देखते हैं, ये सब सहनशक्ति की सीमा के परे हैं। इस प्रकार से बहुत परतें बाहर आती हैं। आखिर में कहानी एक नतीजे पर पहुंचती है, पर मुद्दे से जुड़े किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती और यौन शोषण पर बनी फिल्मों की श्रेणी से बाहर हो जाती है।
सुनवाई के दौरान माया कहती है, “हां, मैं मानती हूं कि उसने (राहुल) मुझे सबकुछ सिखाया है, पर इसका मतलब ये नहीं कि वह हर बार आएगा तो मैं अपनी टांगें चौड़ी (स्पलिट माई लेग्स) कर लूंगी”। यहां फिल्म का अंदरुनी टकराव ये है कि ऐसा पहले कहीं दिखाया ही नहीं गया कि यौन संबंध वाला सीधा न्यौता राहुल ने कहीं दिया है या फिर उसकी कामेच्छा धधक-धधक कर बाहर आई है। ऐसे में रोचकता लाने या सनसनी फैलाने का औजार मानने के अलावा इस संवाद की दो संभावनाएं और हैं। पहली: आदमी जब गुस्से में होता है अथवा जब किसी को बहुत बुरा समझता है जो उसका दिमाग, जो-जो घटा है उन घटनाओं का अपना ही सच तैयार करता है, अपने पूर्वाग्रहों के साथ। हो सकता है माया का ये संवाद उसका अपना वही सच हो। दूसरा: गुस्से में होने की वजह से माया के मन में राहुल के जेस्चर्स या उससे जुड़ी स्मृतियों की छवि सुनवाई के दौरान यूं ही लापरवाही से रीसाइकिल होकर बाहर आती है। गुप्ता (विपिन शर्मा) का संवाद “औरत जब हो जाए खूंखार, खा जाए सारी दुनिया मारे न डकार” भी कहानी के किसी लॉजिक को मदद नहीं करता। माया का कहा “इन एल्फा मेल्स की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए एक एम्बीशस वूमन को एल्फा वूमन बनना पड़ता है” भी किसी पक्ष को संपुष्ट नहीं करता, हां उसका नजरिया दिखाता है जो इस पेशे में आगे बढ़ने के लिए उसे अपनाना पड़ा। इस पूरी डिबेट में शायद सबसे ईमानदार और हकीकत भरी बात एक ही होती है, जब माया का बॉस उसे कहता है, “देखो माया, तुम एक बहुत पुरानी कहावत को सच साबित कर रही हो कि औरतें सीनियर पजिशन के लिए बहुत इमोशनल और कमजोर होती हैं”। ऐसा असल जीवन में भी समझा जाता है। मर्द लोग हूबहू ऐसा ही सोचते हैं। इसका सार्वजनिक जीवन में जहां भी हो विरोध किया जाना चाहिए।
बीच में एजेंसी के हेड से बात करते हुए माया बैठे-बैठे सपना देखने लगती है कि एक बड़ा क्लाइंट उसके हाथ से निकल गया है और बॉस उसे डांटते हुए कह रहा है, “उल्लू, गधी, कबूतरी, साली, पान की पीक से रंगी...”। फिल्म में यह एकमात्र फनी सीन पूरी बातचीत की गंभीरता खत्म करता है। सेक्सुअल हरासमेंट पर बहस, वर्जन सुनने की उठा-पटक, राहुल-माया की सफाइयां-गवाहियां... सब मजाक लगने लगती हैं। एक तरफ तो हम माया से सहानुभूति दर्ज करते हैं जब वह कहती हैं कि “इन लोगों ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है और आप मेरी तकलीफ समझ नहीं सकते...”, हम समझने की कोशिश करते हैं, पर इस फनी अवरोध के बाद पूरी फिल्म ही निरर्थक सी हो जाती है। एक और दृश्य में माया का मंगेतर उससे कहता है, “बहुत हो गया। तुम ये केस वापस ले लो। लंदन-न्यू यॉर्क में मेरे भी बहुत से क्लाइंट हैं, बहुत बदनामी होगी। एंड यू वर स्लीपिंग विद हिम ना... (वैसे तुम भी तो उसके साथ सो रही थी न)”। इस संवाद से दो चीजें स्पष्ट होती हैं। पहला, यानी प्रफुल्ल ये हकीकत जानता है और वह भी कहीं किसी के साथ सोता होगा। दोनों व्याभिचारी हैं और इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। दूसरा, आधुनिकता के इस तमाशे में दोनों इस बारे में कैजुअल हैं। कॉरपोरेट कार्यक्षेत्र में शोषण के इस रूप के प्रति सहानुभूतिशील हो पाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि यहां चारों तरफ दारू है, हर बात पर जाम हैं, भोगवाद है, झूठ बेचने का धंधा है, पूंजी प्रधानता है और सामाजिक गैर-जिम्मेदारी है। क्या ऐसे में सब सही हो जाने की उम्मीद की जा सकती है? इन चीजों को बोने से उगता तो कामेच्छा या भोग ही है न। एक किस्म की आर्थिकी से उपजा चक्र तो वही है न। ऐसे में किस विमर्श की बात हम कर रहे हैं? शायद यही वजह है कि कहानी के अंत में यौन शोषण जैसी कोई चीज निकलती ही नहीं है।
मुझे किसी दिन पंचायतों में महिला-पुरुष सरपंचों की गैर-बराबरी वाली कहानी देखकर बड़ी खुशी होगी। वह कहानी कम कैपिटलिस्ट होगी, कम मानव रचित परिस्थितियों वाली होगी। वह ज्यादा बेसिक/मूल होगी। राजस्थान के गांवों में घूंघट में काग़जी सरपंचाई कर रही औरतें और असल में काम संभालते उनके पति की कहानी... क्या ये भारत की जड़ों के ज्यादा करीब नहीं होगी? महानगरी वर्किंग एरिया में जो असमानताएं हैं या जो आपसी असमंजस हैं वो ज्यादा उसी व्यवस्था की वजह से हैं। जबकि पंचायतों में जो महिलाओं के साथ गैर-बराबरी है वो हमारी मूल सामाजिक परिस्थितियों का नतीजा है। इसमें माया ने ये समझा और राहुल तो ऐसा था, वगैरह नहीं होगा। चीजें क्रिस्टल क्लियर होंगी और फैसला लेना, सीख लेना और सोचना आसान होगा। अन्यथा अपने अंत की वजह से ‘इनकार’ तो एक आम हिंदी फिल्म बनकर रह जाती है।
'Inkaar' is a Sudhir Mishra movie. His previous presentation 'Yeh Saali Zindagi' was a complete film with great performances and tight direction. This is the story of Rahul (Arjun Rampal) and Maya (Chitrangada Singh) working in one of India's leading advertisement agencies as CEO and National Creative Head, respectively. She files a sexual harassment complaint against him. A committee is set up, headed by Mrs. Kamdar (Dipti Naval) a social worker. A hearing begins and layered and biased truth starts to come out. Though the end of the story is less about physical harassment and more about how a human being should be. I appreciate it.
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