मंगलवार, 21 सितंबर 2010

दबंगः मनोरंजन और समाज पर उसके साइड इफेक्ट

'दबंग' रिलीज हुए करीब डेढ़ हफ्ता हो गया। हिंदी और क्षेत्रीय मीडिया ने फिल्म का खूब मजा लिया है। तो अंग्रेजी मीडिया दो-तीन स्टार से ज्यादा नहीं दे पाया। मैं दंबग पर इसकी संपूर्णता में बात करना चाहता था। मगर एक बार रिव्यू लिख चुकने के बाद अब कुछ वक्त तक इसकी दोबारा चीर-फाड़ करने की इच्छा नहीं है। ऐसा नहीं है कि दबंग में मनोरंजन के पहलू की तारीफ नहीं की जा सकती है। दरअसल निर्देशक अभिनव कश्यप से जब पहली बार बात हुई तो उनके जवाब देने के अंदाज से ही जाहिर हो गया था कि उन्होंने क्या बनाया होगा। उनसे जब दबंग के रिलीज होने की तारीख पूछी तो उनका जवाब एकदम ड्रमेटिक यानी नाटकीय था। शायद सुखद नाटकीय। मजा आया बिलाशक। वह ऐसे बोले जैसे कुछ दशक पहले तक तांगे पर बैठा वो शख़्स बोला करता था। गांवों-कस्बों की पगडंडियों में फटे हुए माइक के साथ, सभी को फिल्म के पोस्टर से लेकर हिरोइन के नाच और खूंखार डाकूओं के बारे में बताता।
...मगर ये तो हुआ निर्देशक का पक्ष जिसने सिर्फ और सिर्फ सीटियों का अकाल झेल रहे थियेटरों को नई सांसें देने वाला मनोरंजन बनाया है। मगर फिल्मों के समाज पर पड़ने वाले असर को छानने वाली छलनी लेकर देखें ..तो मजा नहीं आया। ये फिल्म हंसाने वाली दवा जरूर है, पर दीर्घकाल में इसके कई दूसरी फिल्मों की तरह साइड इफेक्ट हैं। अब दर्शक और फिल्म आलोचक इस साइड इफेक्ट को गंभीरता से लेते हैं, या अभिनव की सिर्फ मनोरंजन को दी गई प्रबलता को स्वीकारते हैं। चौपाल पर बैठकर करने लायक बात है।

अभी के लिए तो दबंग की कुछ कमियों पर बात कर रहा हूं। बड़ी व्यापक पब्लिसिटी जब होती देखते हैं, तो कई थोपी गई चीजों को आप अपनी ही सोच मानने लगते हैं, यहां भी कुछ ऐसा नहीं हो इसलिए कुछ एक बातों पर नजर डाल सकते हैं।

मैं एंटरटेनमेंट के मामले में कोई बात नहीं काटूंगा। बात सिनेमैटिक पहलुओं की है। फिल्म का धांसू और पहला फाइट सीन डायरेक्टर लुईस लेटेरिएर की फिल्म 'ट्रांसपोर्टर' से लिया गया है। फर्श पर तेल गिराकर जैसन स्टैथम के अंदाज में फाइट करने की कोशिश करते चुलबुल पांडे और कुछ गुंडे। इस सीन के कुछ पोर्शन एक आम चोरी हैं। दबंग के दूसरे फाइट सीन में कसर कंप्यूटर ग्राफिक्स की रह गई। चुलबुल मार रहे हैं, गुंडे छत से नीचे गिर रहे हैं और थोड़ा गौर करें तो नीचे का नकली आंगन देखा जा सकता है।

फिल्मों को लेकर एक बड़ी सीधी सी बात है। इनमें डायलॉग बिना लॉजिक के चल सकता है, मगर फिल्म का विजुअल नहीं। दबंग में एक्टिंग की बात करें। अरबाज और माही गिल का नदी किनारे वाला सीन आता है और थियेटर में बैठे दर्शक एक-दूसरे से बातें करने लगते हैं। क्यों? शायद इसलिए कि महत्वाकांक्षी मनोरंजन के बीच ये कुछ ढीला शॉट आ जाता है। इंटरवल तक अरबाज फिलर लगते हैं तो फिल्म में माही का रोल न के बराबर है। पुलिस इंस्पेक्टर ओम पुरी को अपनी बेटी की शादी सोनू से करनी है। पूरी फिल्म में नजर आते हैं लेकिन फिल्म के आख्रिर में वो 'चलो हनुमान जी लंका छोडऩे का वक्त आ गया है' .. बोलकर निकल लेते हैं। बिना खास संदर्भ वाले ओमपुरी के रोल को जाया ही किया गया है। 'हमका पीनी है, पीनी है..' गाने पर मेहनत से कोरियोग्राफी हुई है। पर दारू की बरसात और बंदूक से उड़ती गोलियों से ये एक थाना नहीं, किसी बाहुबली या डाकू का अड्डा लगने लगता है। अब इस सीन पर आएं। अरबाज खान तिजोरी से चुलबुल के पैसे निकालकर ले जा रहे है, मां डिंपल रोकती हैं। यहां डिंपल का कमजोर अभिनय खटकता है। ना तो वे मैलोड्रमेटिक मां बन पाती हैं और ना ही 'क्रांतिवीर-दिल चाहता है' जैसी ट्रैडमार्क फिल्मों में की हुई अपनी एक्टिंग दोहरा पाती हैं।

फिल्म में 'साउथ-टैरेंटिनो-बॉलीवुड' का मिक्स मैड वर्ल्ड है फिर भी हर चीज का लॉजिक है। मगर देखिए महेश मांजरेकर यूपी के लालगंज में भी मुंबईया बोल रहे हैं। एक सीन में कहते हैं.. 'ए मेरे को दारू मांगता है...ए दारू की तो मां की आंख..।' शुरू में छेदी सिंह और चुलबुल पांडे के टकराव का सीन सा बनने लगता है, मगर फिर इंटरवल तक के लिए वो गायब सा हो जाता है।

कहानी और कैरेक्टर
लालगंज, उत्तरप्रदेश में पुलिस इंस्पेक्टर हैं चुलबुल पांडे (सलमान खान)। सही-गलत सभी काम करते हैं, पर पूरे टेढ़े और दबंग तरीके से। बचपन से सौतेले पिता प्रजापति पांडे (विनोद खन्ना) से उन्हें वो प्यार नहीं मिला जो छोटे भाई मक्खी (अरबाज खान) को मिला। मां (डिंपल कपाडिय़ा) समझाती हैं कि मक्खी थोड़ा कमजोर है इसलिए उसका ध्यान रखना पड़ता है। पर दर्शकों के लिहाज से एक्साइटेड तरीके से चुलबुल पांडे अपना गुस्सा भाई-पिता पर उतारते रहते हैं। मक्खी मास्टरजी (टीनू आनंद) की बेटी निर्मला (माही गिल) से प्रेम करता है, मगर मास्टरजी राजी नहीं हैं, क्योंकि उनके पास प्रजापति पांडे को देने के लिए दहेज नहीं है। यहां के लोकल नेता हैं दयाल बाबू (अनुपम खेर), जिनका खास आदमी है छेदी सिंह (सोनू सूद)। छेदी अखाड़े में पहलवानी करता है, अपने पर्सनल फोटोग्राफर से फोटो खिंचवाता है, एमएलए का टिकट चाहता है और आपकी-हमारी फिल्म का विलेन है। पियक्कड़ हरिया (महेश मांजरेकर) की सुंदर बेटी राजो (सोनाक्षी सिन्हा) मिट्टी के बर्तन बनाती है।

अब कहानी के धागे खोलें। सलमान डकैती कर भागे गुंडों को को रोकते हैं, और माल अपने पास रख लेते हैं। चुलबुले हैं तो कोई इस बात का लोड नहीं लेता है। छेदी सिंह से ठन जाती है, चोरी का माल छेदी का था। चुलबुल पांडे का दिल राजो पर आ जाता है। मां की मौत हो जाती है और चुलबुल अपने भाई-पिता से अलग हो जाते हैं। हरिया की मौत के बाद चुलबुल राजो से शादी कर लेते हैं। मैं भी क्या कर रहा हूं...एक मसाला बॉलीवुड फिल्म की कहानी सुनाने की कोशिश कर रहा हूं। इसकी जरूरत क्या है। मोटी बात ये है कि अच्छी कहानी है।

कुछ देखी परखी
'हमका पीनी है...' और 'हुण हुण..दबंग दबंग..' गानों के फिल्मांकन और म्यूजिक में विशाल भारद्वाज की 'ओमकारा' का असर दिखता है। 'तेरे मस्त-मस्त दो नैन..' गाना अच्छा तो है, मगर इन दिनों आ रहे गानों की लैंथ कुछ कम सी लगने लगी है। क्वेंटिन टैरेंटीनो के अंदाज को डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने कहीं-कहीं बरता है, पूरी फिल्म में नहीं। कुछ ऐसी ही फील क्लामेक्स में गिटार की आती आवाज से होती है। या फिर उस वक्त जब अंतिम फाइट शॉट्स में परदा गहरा गुलाबी-हल्का लाल सा हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे 'रंग दे बसंती' के कुछ सीन में परदा ब्लैक एंड वाइट और रेतीले रंग सा हो जाता है। दबंग में साउथ की फिल्मों सा 'मसाला-एंटरटेनमेंट' कोशंट है। मगर मेरा मानना है कि ये एंटरटेनमेंट देखने वालों की दिमागी हेल्थ के लिए इतना अच्छा नहीं। इस बात में कोई शक नहीं कि दबंग सलमान के करियर की कुछ एक बेहतरीन फिल्मों में से एक है। 'मुन्नी बदनाम हुई...' गाने में हम सोनू सूद के फिल्मी करियर के सबसे लचीले और उम्दा परफॉर्मेंस को देखते हैं। सलमान के नाच के लिए दबंग को लंबे वक्त तक याद रखा जाना चाहिए। डायलॉग यूनीक हैं। अरसे बाद ऐसी फिल्म आई है जिसके एक-एक डायलॉग को मन से लिखा गया है। थियेटर से घर साथ लेकर जाते हैं...'क्या पांडे जी आप भी..' और 'भईया जी इस्माइल...' जैसे ढेर सारे डायलॉग्स को।
गजेंद्र सिंह भाटी

शनिवार, 3 जुलाई 2010

कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई, कैसे देखी जाए प्रहार ?

प्रहार को गांधी जयंती के दिन देखा था। हिंसा और प्रति-हिंसा का दिन और फिल्म। फिल्म में कई पहलू हैं। देखने के कई तरीके हैं। मनोरंजन के लिए देखी जाए? फिल्म निर्देशन की नई ताजा भाषा का विश्लेषण करने के लिए देखी जाए? फासीवाद जैसे वाद की मौजूदगी पर कैसे बात की जाए, यह देखने के लिए देखी जाए? या, जैसे दिखे वैसे देखी जाए? ज़ाहिराना तौर पर सब अलग-अलग आंखों से ही देखेंगे। मगर, फिल्म मनोरंजन-मनोरंजन के बहाने कैसे आपकी रगों में एक वाद इंजेक्ट कर देती है, यह देखना जरूरी होगा। एक बार देखने में प्रहार जरूर मज़ेदार लगे। मगर, क्या इसमें सुझाए तरीके सही हैं? समर्थन करने लायक हैं? इस पर ख़ूब बात होनी चाहिए। कुछ अन्य बातें...


नाना पाटेकर का निर्देशन है। ये निर्देशन प्रहार में एक औसत किरदार (जो किरदार ग्लैमर से भरा नहीं है) में ग्लैमर गर्ल माधुरी दीक्षित को एक सीधे-साधे रूप में लाया है। ये निर्देशन थियेटर के बड़े पुरूष हबीब तनवीर को भी पीटर डिसूजा के पिता के किरदार में लाया है। कौन नहीं है इसमें..? मकरंद देशपांडे माधुरी के भाई के रूप में, डिंपल कपाड़िया एक विधवा के किरदार में और मकरंद-माधुरी के पिता के किरदार में अच्युत पौद्दार है। विलेन और बुरे किरदार हैं, स्टंट निर्देशक-फाइटर चीता यग्नेश शेट्टी। वही चीता शेट्टी, जिन्होंने रित्विक रोशन को कसरती बदन वाला बनाया।


  • कोई और फिल्म होती तो होटल में मेजर चौहान बने नाना पाटेकर से मिलने डिंपल कपाड़िया अकेले आती, लेकिन इसमें माधुरी भी साथ आईं। क्योंकि, कोई भी अकेली औरत एक होटल में एक अनजान आदमी से मिलने अकेले नहीं आएगी। समाज और हमारी फिल्मों के नैतिक ढांचे में यह बात है।
  • कमांडो ट्रैनिंग ले रहे युवक देखे़। उनकी अंगुलियां पत्थर से भी सख्त और काली। उभरे हुए अंगुलियों के जुड़ाव। प्रशिक्षक पाटेकर की त्वचा, चेहरे पर उभरा तेज, हड्डीनुमा मुंह और किसी आम कपड़ों में दिखने वाले किसी फौजी की तरह। एकदम वैसे ही। यही ख़ास है।
  • प्रहार के अलावा कोई ऐसी फिल्म नहीं जहां एक मरे हुए बेटे के पिता से उसके बेटे का सेना प्रशिक्षक मिलने आया है। और, उसके जवान बेटे के मरने का कारण पूछ रहा है। और, बातों के बीच उसका बाप एक तमाचा आर्मी अधिकारी के गाल पर जड़ देता है। यह दृश्य भी ख़ास है।


प्रहार फिल्म है। लक्ष्य भी थी। सेना में जाने के इच्छुक और एनसीसी के कैडेट युवाओं से पूछिए। उनके बीच हमेशा दोनों फिल्मों को लेकर बहस चल रही होती है। कि, आख़िर कौनसी फिल्म सेना के यथार्थ के ज्यादा क़रीब है। जाहिर है कि दोनों पक्ष अपने पर ही अड़े रहते हैं। सेना में चयन हो जाने या पीछे छूटकर सिविलियन रह जाने पर तर्क और भी पक्के या कच्चे होते जाते हैं। हां, सेना में जाने वाले युवक शहादत की कहानियों को और नायकत्व के आम रोमांसवाद को ख़ारिज करते हुए इस पैशे के साथ बिना किसी ग़लतफहमी के साथ जीने लगते हैं। फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में जो भी है, वह एक आम बॉलिवुडी पुलिसवाला नहीं है।

मीडिया का विश्लेषण यहां भी है। अ वेडनसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, रण, न्यू डेहली टाइम्स, नरसिम्हा और कई ऐसी ही फिल्मों में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने पहले से है। पर यहां सब कुछ धारदार है। मेजर चौहान यानी नाना पाटेकर अख़बार के दफ़्तर जाता है। पीटर को मीडिया के ज़रिए इन्साफ जैसा ही कुछ दिलाने। या शायद परिस्थितियों को टटोलने। वहां बैठे अधेड़ उम्र के पत्रकार से नाना पाटेकर का संवाद चलता है।
" आप इसे न्यूज कहते हैं. बंबई जैसे शहर में यह कोई न्यूज है। रोज़ यहां लोग मरते हैं।"
" पीटर कोई आम इंसान नहीं था। ...उसे शौर्य चक्र मिला था। उग्रवादियों से लड़ते हुए। "
" उग्रवादियों पर तब छापा था। ...अब कोई न्यूज नहीं है। "
(तभी मेज़ पर पड़े फोन की घंटी बजती है)
" हैलौ... क्या? होम मिनिस्टर को ठंडी लग गई ? छापता हूं। क्या? फोरेन जा रहे हैं? ओ भी छापता हूं। "
आगे के संवाद नाना की आंखें कहती है। दृश्य का पटाक्षेप।


  • किराये पर दिए जाने वाले अपने घर के कमरे को दिखाता छोटा लड़का , जो कि लड़की है, विशेष है। चंद्रकांत देवधर यानी प्यार का नाम चीकू। .. फिल्म में किरण का किरदार निभाती डिंपल कपाड़िया का बेटा।
  • एक बूढ़े पिता से उसका जवान बेटा छिन गया। क्योंकि, उसने ग़लत के सामने घुटने नहीं टेके। गर्भवती डिंपल कपाड़िया अपने पति के साथ पिकनिक पर गई, गुंडों ने छेड़खा़नी की तो ग़लत के विरोध में उसका पति मारा गया।
  • शर्ली यानी माधुरी का भाई मकरंद भी विशेष किरदार है। फौज के जीवन आदर्शों से अलग किरदार है शर्ली का भाई। ख़ासतौर पर नाना पाटेकर के लिए। उसके पास भी समाज और देश की कुछ शिकायतें हैं। सिगरेट के काग़ज में मसाला भरकर पीने का डंडा तैयार कर रहा है और अपनी परेशानियां गिनवा रहा है। सामने लाचार वृद्ध बाप बैठा है। पास ही में फौज के अधिकारी बने नाना पाटेकर बैठे हैं। मकरंद का किरदार अपने पिता को बोल रहा है और दर्शक सुन रहे हैं।

" फ्रीडम फाइटर बनते हैं। अरे कंट्री के वास्ते कोई घर बरबाद करता है। जिंदगी भर ईमानदारी की चिंगम चबाते रहे। अरे ईमानदारी से पेट भरता है क्या। अच्छी नौकरी मिल रही थी मुंबई में। लाखों के ढेर लगा देता। मगर, एक 5,000 रुपया नहीं निकला तुम्हारे से। मदद के नाम पर सरकारी भूख मिलती है, .... उसके लिए भी जिंदा होने का सर्टिफिकेट देना पड़ता है।"
यहां संवाद अदायगी में ठहराव और गति इस दृश्य को अक्षुण्ण बनाती है।

सड़क पर से मंत्री की गाड़ी गुजरने वाली है। लोगों को चलने फिरने, सड़क पार करने से रोक दिया गया है। एक पुलिसवाला है, जो एक गर्भवती औरत को सड़क पार कर जाने नहीं देता है। दया की याचना कोई काम नहीं आती है। साथ वाली औरतें फिर भी गिड़गिड़ाती है। सेना के समाज से निकल कर नाना का किरदार नागरिक समाज में आया है। इसलिए घूमकर लोगों, चीजों और समाज के भीतर के समाजों का जायजा ले रहा है। लोगों के बीच बने आर्थिक और सामाजिक वर्गों को देख रहा है। वह इस वक्त खड़ा सबकुछ देख रहा है। पाटेकर पुलिसवाले को झकझोरता है। ".. किस बात की तनख्वाह लेते हैं आप ? किसकी तनख्वाह लेते हैं आप ?अगर आप भी सड़क पर पैदा होते तो। वो देखिए, वो आपकी मां है। और वो आप है.... आप पैदा हुए और मर भी गए।"
हफ्ता लेते गुंडों से भिड़ने पर मुहल्ले के लोग पाटेकर पर ही पत्थर फैंकते हैं। पाटेकर पत्थर खा रहा है। उसका ध्यान पत्थरों पर नहीं है, बल्कि पत्थर मारने वालों पर है। आख़िर ये कैसे लोग हैं। आख़िर ये हमने कैसा समाज बना दिया है। इन गुंडों के ख़िलाफ किसी की नजरें भी नहीं उठती, मगर मेजर चौहान के गुंडों से भिड़ने पर उसे ही मारने के लिए सब अपने-अपने हाथों में पत्थर ले लेते हैं। पाटेकर का किरदार समझ रहा है। माथे से लहू बह रहा है। दिमाग़ लोगों और समाजों को समझने में व्यस्त है। दिल टूट गया है।

अपनी मां को ढूंढने के भ्रम में या कहें तो उसकी यादों और अपने बचपन को ढूंढने नाना पाटेकर नगरवधुओं के इलाके में जाता है। आपके सटीक शब्दों में कहें तो वेश्याओं के मोहल्ले में। मगर, अब क्या। अब वहां कुछ भी तो नहीं है। रात के अंधेरे में लौटते कदमों में मदद के लिए चिल्ला रही एक लड़की को नाना जबरदस्ती करने वालों से छुड़वाता है। छोटी उमर में तो पाटेकर अपनी मां को गुंडों यानी बुरे लोगों से नहीं छुड़ा पाया, मगर अब उसने ऐसा करके अपना कर्तव्य पूरा किया है। अपने किराये के कमरे की सीढ़ियां चढ़ते वक्त डिंपल उससे पूछती हैं, "क्या राजकुमार को उसकी मां मिली?" जवाब में पाटेकर मुस्कुराता है, आज उसने अपनी मां को बिकने से बचा लिया।

अंत में नाना पाटेकर हफ्ता मांगने और पीटर के सिर पर पत्थर पटककर मारने वाले को उसी की बेकरी की दुकान के आगे मारता हैं। ...मार देता है। संहारक की आवाज कहती है, "तुम्हें ख़त्म करना बहुत मुश्किल है। तुम्हारी तादाद बहुत ज्यादा है। कीड़े-मकोड़ों की तादाद में हो तुम। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं चुप बैठुंगा। मैं तुम्हें मारता रहूंगा।"

अंतिम दृश्यों में एक अदालत का दृश्य है। इसमें थियेटर का प्रभाव साफ है। डिंपल, इंस्पेक्टर, शर्ली का भाई, नाना का वरिष्ठ सैन्य अधिकारी, पीटर का पिता, शर्ली और बाकी सभी बैठे हैं। अदालत कहती है कि मेजर चौहान को मानसिक चिकित्सा की जरूरत है।

मानसिक रूग्णालय में नाना जमीन में पौधे लगा रहा है। चिंटू आता है। चेहरे पर लालिमा आ जाती है
"तुम्हारे हाथ में मिट्टी लगी है। छी...
...चिंटू ....मिट्टी को छी नहीं कहते, इसी में तो फूल उगते हैं.." जैसा संवाद फिल्म की रेंज बताता है। यह बताता है कि देश की नई पौध कैसी हो।

फिल्म का अंतिम दृश्य है। नाना पाटेकर खिड़की के बाहर डूबते सूरज को देख रहा है। कि, अगली सुबह नई सुबह होगी। नई पौध को दुश्मन से लड़ने की ट्रैनिंग देंगे। सुबह की दौड़ से शुरुआत होगी। हालांकि इस सोच को एक आदर्श सोच नहीं कहा जा सकता है। मगर, फिल्म के इस दृश्य को देखें। सेना की पोशाक में प्रशिक्षक नाना दौड़ रहे हैं। और, पीछे हैं सैंकड़ों बच्चे। ये बच्चे दौड़ रहे हैं, उसी अवस्था में जैसे वे मां की कोख़ से इस दुनिया में आते हैं। ये सभी पवित्र हैं और दुनिया में आने के साथ ही यहां अपने निर्माण की प्रक्रिया में हैं।
दुश्मन से लड़ने का प्रशिक्षण शुरू हुआ है। पार्श्व में गीत बज रहा है.....
" हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा, जब भी खुलेगी चमकेगा तारा...
कभी ना ढले जो, वो ही सितारा, दिशा जिस से पहचाने संसार सारा..."

हथेली पे रेखाएं हैं सब अधूरी, किस ने लिखी हैं नहीं जानना है,
सुलझाने उनको न आएगा कोई, समझना हैं उनको ये अपना करम है।
अपने करम से दिखाना हैं सब को, खुद को पनपना, उभरना है खुद को,
अंधेरा मिटाए जो नन्हा शरारा, दिशा जिस से....

हमारे पीछे कोई आए न आए, हमें ही तो पहले पहुंचना वहां है
जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन ही रास्तों को बनाना हमें है।
जो भी साथ आए उन्हें साथ ले ले, अगर ना कोई साथ दे तो अकेले
सुलगा के खुद को मिटा ले अंधेरा, दिशा जिस से..."



*** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

रविवार, 3 जनवरी 2010

जैम्स कैमरून का नीला सम्मोहन: अवतार

'मैं भगवान को नहीं मानता हूं, मगर जैम्स कैमरून को हमारे बीच भेजने के लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूं। 'अवतार' में जो दुनिया कैमरून ने रची है, वैसी तो भगवान भी नहीं रच पाते। कैमरून और हमारे बीच सिर्फ एक ही सच है। यह कि कैमरून 200 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ रहे हैं और हम 2 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से। बुद्धिमानी इसी में है कि हम घर लौट आएं और अपनी वही पुरानी रोने-धोने और मारधाड़ वाली फिल्में बनाएं।'
- फिल्म निर्देशक रामगोपाल वर्मा ('अवतार' देखने के बाद)
On the set of AVATAR, James Cameron (center)
सन् 1977 में अमेरिकी फिल्मकार जॉर्ज लुकास के निर्देशन में बनी अंतरिक्ष फंतासी फिल्म 'स्टार वॉर्स' सिनेमाघरों में उतरी। इसे देखने वालों में 22 बरस का एक नौजवान जैम्स कैमरून भी था। ट्रक चलाने और ऑरेंज काउंटी के विद्यालयों में खाना पहुंचाने का काम करने वाले कैमरून ने इस दिन के बाद से 'दीवानगी' और 'जज्बा' जैसे शब्दों को नए अर्थ दिए। आने वाले 32 बरसों में कैमरून ने उन लोगों को गलत साबित कर दिया जो कहते थे कि फिल्में बनाना 'रॉकेट साइंस' नहीं होता और फिल्मकार भगवान नहीं होते।

करीब 2,000 करोड़ रुपये में बनी विश्व की अब तक की सबसे बड़ी फिल्म 'अवतार' के निर्माण के साथ कैमरून ने फिल्म निर्माण तकनीक की परिभाषा और पैमाने पूरी तरह बदल दिए हैं। 'अवतार' और 'साधना' भारतीय शब्द हैं, मगर अपने अवतार बनाने के ख्वाब को जैसे उन्होंने साधा है, वैसे किसी ने भी नहीं। 'स्टार वॉर्स' देखने के बाद से विज्ञान फंतासी और अंतरिक्ष के अंजान ग्रहों की दुनिया में खोए रहने वाले कैमरून ने 1995 में करीब 80 पन्नों की एक कहानी लिखी। यह एक अपंग हो चुके सैनिक की एक अंजान ग्रह पर बिताई जिंदगी की कहानी थी। इस अनोखे ग्रह का नाम पेंडोरा था। पेंडोरा पर बिल्ली जैसी शक्ल और स्तनधारियों जैसी पूंछ वाले 10 फुट लंबे नीली त्वचा के इंसान जैसे जीव रहते थे। इनका नाम 'नावी' था। पेंडोरा का वातावरण विषैला होने के कारण वैज्ञानिक 'नावी' के कृत्रिम अवतार वाले और इंसानी दिमाग से नियंत्रित होने वाले जीव बनाते थे। कैमरून ने इस महागाथा का नाम 'अवतार' रखा। इस कथा की प्रेरणा के बीज कहीं न कहीं लुकास की स्टार वॉर्स से निकले थे। ऐसे में कैमरून की चुनौती लुकास को मात देने की थी।
इसके लिए फिल्म निर्माण की तकनीक में ढेरों बदलाव करने की जरूरत थी। अमेरिका के सिनेमाघरों को भी थ्री-डी युक्त करने की आवश्यकता थी। कैमरून के सहयोगियों ने उनसे कह दिया था कि अगर यह फिल्म बनी तो उन्हें बर्बाद कर देगी। इसके लिए अथाह कम्पयुटर शक्ति और नई तकनीक की जरूरत थी। और ऐसी कोई तकनीक या शक्ति दुनिया में मौजूद ही नहीं थी। इसके बाद कैमरून ने एक विशाल ऐतिहासिक जहाज पर दो युवाओं के बीच पनपी प्रेम कहानी पर सफलतम फिल्म टाईटैनिक का निर्देशन किया। कमाई के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए इस फिल्म ने फॉक्स स्टूडियोज को धन में तौल दिया। इसके बाद 12 साल तक कैमरून ने सिर्फ और सिर्फ अवतार पर काम किया।

कैमरून ऐतिहासिक युद्धपोतों पर अंडरवॉटर डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के बहाने अवतार के निर्माण के साधन जुटाने में लग गए थे। वर्ष 2000 में उन्होंने विंसेंट पेस को अपने साथ लिया। विंसेंट टाईटैनिक और एक अन्य फिल्म में कैमरून के साथ काम कर चुके थे। कैमरून अवतार के दर्शकों को रहस्यमयी पेंडोरा ग्रह की यात्रा पर ले जाना चाहते थे। वह दर्शकों को ग्रह के वातावरण का स्पर्श करवाना चाहते थे। वह चाहते थे कि लोग पेंडोरा की जमीन को अपनी आंखों से सूंघकर महसूस कर सके। इसी खातिर कैमरून ने पेस के साथ मिलकर ऐसा 'हाई-डेफिनिशन' कैमरा बनाने की ठानी, जो 'थ्री-डी' और 'टू-डी' दोनों ही माध्यमों में फीचर फिल्म की गुणवत्ता दे सके। दोनों ही नए कैमरे के निर्माण से जुड़ी चुनौती को भी भली-भांति जानते थे।

टोक्यो में विश्व प्रसिद्ध कैमरा व अन्य इलैक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनी 'सोनी' का दफ्तर है। कुछ हफ्ते बाद कैमरून 'सोनी' के दफ्तर में थे। उन्होंने विंसेंट को भी अमेरिका से टोक्यो बुलाया। दोनों ने सोनी के हाई-डेफिनिशन विभाग के इंजीनियरों से बात की। उन्होंने इंजीनियरों को इस बात के लिए यकीन दिलाया कि उनके कहे मुताबिक सोनी के 'प्रोफेशनल-ग्रेड हाई-डेफिनिशन' कैमरे के प्रोसेसर से लेंस और इमेज सेंसर को अलग कर दिया जाए। इससे इसके भारी-भरकम सी।पी.यू. को एक तार की दूरी पर लैंस से अलग रखा जा सकता था। अब कैमरा चलाने वाले को पुराने वजनी यंत्र से जुझने की जरूरत नहीं थी। तीन महीने में कैमरा तैयार था और परिणाम बेहद शानदार रहे।

अब बारी सिनेमाघरों की थी। इनमें बदलाव और खर्च की जरूरत थी। मगर जब तक कोई थ्री-डी फिल्म अच्छा कारोबार नहीं करती, कोई प्रदर्शक इस बदलाव का हिस्सा बनने का तैयार नहीं था। अपने बनाए कैमरे को कैमरून ने तब दूसरे निर्देशकों को इस्तेमाल करने के लिए दिया। निर्देशक रॉबर्ट रॉड्रिग्स ने वर्ष 2003 में प्रदर्शित 'स्पाई किड्स' को इस कैमरे से बनाया। मगर मुए प्रदर्शक अब भी अनिच्छुक थे। कैमरून ने मार्च 2005 में सिनेमाघर मालिकों की वार्षिक बैठक में भाग लिया। उन्होंने मालिकों को चेताया कि सही वक्त में अगर सिनेमाघर खुद में बदलाव नहीं लाए तो उन्हें आगे पछताना पड़ेगा। ये अमेरिका में बह रही अलग सी बयार थी या कैमरून की भागदौड़ कि अगले 4 वर्षों में पूरे देश में 3,000 थ्री-डी क्षमता वाले परदे और जुड़ गए। अपने सपने के पीछे किसी नन्हें मगर कटिबद्ध बच्चे की तरह दौड़ रहे कैमरून के रास्ते की एक और परीक्षा पूरी हो गई।

विशेष प्रभाव वाले दृश्यों के मामले में अमेरिकी फिल्म उद्योग का कोई जवाब नहीं था। मगर कैमरून की चाह वाले विशेष प्रभाव के दृश्य अब भी एक बड़ी चुनौती थे। वक्त अच्छा था। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. आर. आर. टॉल्किन के उपन्यास पर बनी महाकाव्यात्मक फिल्म-त्रयी 'लॉर्ड ऑफ द रिंग्स' आई। पीटर जैक्सन के निर्देशन में 2001 में 'द फैलोशिप ऑफ द रिंग', 2002 में 'द टू टावर्स' और 2003 में 'द रिटर्न ऑफ द किंग' परदे पर उतरी। सिर्फ एक अंगूठी को केंद्र में रख कर रची गई इस बेहद रोचक और मनोरंजक फिल्म के किरदार 'स्मीगल' उर्फ 'गोलम' ने कैमरून के दिमागी बोझ को कुछ हल्का कर दिया। इस कम्प्युटर सृजित किरदार ने सब का मन मोह लिया। स्मीगल को लॉर्ड ऑफ द रिंग्स के निर्देशक पीटर जैक्सन की वेलिंगटन स्थित विजुअल इफैक्ट्स कंपनी 'वेटा डिजीटल' ने बनाया था। अब कैमरून तैयार थे। टाईटैनिक की महासफलता के बाद से ही कैमरून के इंतजार में बैठे फॉक्स स्टूडियोज को भी तैयार कर लिया गया।

वेटा डिजीटल और जॉर्ज लुकास की कंपनी 'इंडस्ट्रियल लाइट एंड मैजिक' में सैंकडों लोगों ने विशेष प्रभाव वाले दृश्यों पर काम शुरू कर दिया था। पेंडोरा की नीली त्वचा वाले इंसानों की एक नई भाषा ईजाद करने के लिए कैमरून ने भाषा विशेषज्ञ पॉल फ्रॉमर को लिया। फ्रॉमर ने व्याकरण और उच्चारण के साथ 'स्पीक नावी' पुस्तिका तैयार की। कैमरून ने 13 महीनों में भाषा विकसित हो जाने और अन्य समानांतर कार्यों के पूरा हो जाने पर काम शुरू किया। कैमरून पेंडोरा के रचियता और इस ग्रह के भगवान थे, तो अब वह इस ग्रह पर मौजूद हर चीज को नाम और परिचय देना चाहते थे। पेंडोरा की वनस्पति, जैव विविधता, प्रकाश और प्राकृतिक संपत्ति का विवरण रचने के लिए वनस्पति और पौध विशेषज्ञ जूडी होल्ट को लाया गया। उन्होंने इस ग्रह की प्राकृतिक संपदा का वैज्ञानिक विवरण लिखा। तथ्यों और तर्कों को गढ़ा। इतने बारीक काम से बनी हर चीज परदे पर नहीं आनी थी, मगर कैमरून अपने ही आनंद में मगन थे। विशेषज्ञों की नियुक्तियां जारी रही। पुरातत्व, संगीत और अंतरिक्ष भौतिकी के विशेषज्ञों को भी नियुक्त किया गया। अब अंत में 'स्टार वार्स' के परिचय ग्रंथ की तर्ज पर संपादकों-लेखकों के एक समूह ने मिलकर 350 पन्नों की पोथी 'पेंडोरापीडिया' तैयार की। यह बस चमत्कार ही था।
जैम्स कैमरून ने पेंडोरा का एक-एक कण रचा है। जैसे कि पृथ्वी के सृजनकर्ता ने रचा होगा। पेंडोरा पर उगे एक-एक पत्ते पर एक-एक डिजीटल विशेषज्ञ ने काम किया है। 'जुरासिक पार्क' और 'द लॉस्ट वर्ल्ड' के दानवाकार डायनोसोरों से भी आगे के अलग जानवरों की दुनिया अवतार में समाई है। कैमरून का सपना भले ही 1977 में अकुंरित हुआ हो मगर जैसा कि रामगोपाल वर्मा और पश्चिम के अन्य फिल्म समीक्षक कहते हैं अवतार अपने वक्त से 30 साल आगे की फिल्म है। अंतरिक्ष की फंतासी के अलावा फिल्म में की गई आज की राजनीतिक अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और विस्थापन की टिप्पणियां महानगरों में बसने वालों की आंखें खोलने वाली हो सकती है। सुनीता विलियम्स अगर टॉम क्रूज की फिल्म को देखकर आसमान की दुनिया में उडऩे का ख्वाब सजाती है और अंतरिक्ष के कीर्तिमान कायम करती है तो कैमरून की अवतार से विश्व भर के कितने बच्चे, युवा, कलाकार और पैशेवर प्रभावित होंगे, अंदाजा लगाना मुश्किल है।

अवतार में कहीं भविष्य नजर आएगा तो कहीं दूसरे ग्रहों की दुनिया की मानवीय कल्पना, नावी में दर्शक खुद के चेहरे की नसें ढूंढ पाएंगे तो कही अफ्रीका के कबीलों की जीवन-लय, कहीं प्रेम की बातें हैं तो कहीं आध्यात्म की अनूठी प्रस्तुति, युद्धप्रिय शक्तिशाली राष्ट्रों के सदाबहार तर्कों का ठोस जवाब है तो कहीं कमजोर मुल्कों में सरकारों की नीतियों से हो रहे विस्थापन की असलियत। दुनिया भर के सिनेमाघरों के परदे पर इस बार जैसा नीला सम्मोहन उभरा है, वैसा सिनेमा इतिहास में इससे पहले कभी नहीं महसूस किया गया।
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गजेंद्र सिंह भाटी