फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' का केंद्रीय किरदार जो गन चलाकर "न्याय" करता है. |
आंदर्स. गिरफ्तार होने के बाद. |
आंदर्स से आते हैं इस केस के मनोविज्ञान पर और ऐसे विषयों की प्रतिनिधि फिल्मों पर। ऐसी फिल्में जो महीन तरीके से 'मेकिंग ऑफ अ किलर' विषय का स्टडी मटीरियल बनती हैं। जो सोसायटी पर अटैक करने वालों के मन में घुसती हैं। दो महीने पहले रिलीज हुई निर्देशक जेसन आइजनर की कैनेडियन फिल्म 'होबो विद अ शॉटगन' एक हक्का-बक्का करने वाली फिल्म है। इसमें 67 साल के डच एक्टर रुटजर हुवे ने एक ऐसे बिना घर-बार के फक्कड़ की भूमिका अदा की है जो 'होप टाऊन' में आता है। इस कस्बे में होप कहीं नहीं है बस अपराध और अन्याय है। वह मेहनत करने की कोशिश करता है, एक अपराधी को पुलिस स्टेशन तक पकड़कर ले जाता है, पर पुलिस उसे ही पीटती है। उसके सीने पर गर्म लोहा दागकर कचरे के डिब्बे में फैंक दिया जाता है। बिना संवेदना और बिना न्याय वाली व्यवस्था में वह बंदूक हाथ में ले लेता है। कस्बे के अपराधियों को एक-एक करके खत्म करता है। उसके कृत्यों से लोगों में हौसला आता है। मैं इस फिल्म के संदेश, हिंसक कंटेंट और निष्कर्ष से वास्ता नहीं रखता, पर इस बुजुर्ग होबो की कहानी में आप एक किलर को बनाने में सिस्टम और समाज की भूमिका को देखते हैं।
मार्टिन स्कॉरसेजी की कल्ट फिल्म 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट डि नीरो का किरदार ट्रैविस भी उसी मानसिक ब्लास्ट वाली स्थिति में है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वह उनींदा है। रात-दिन टैक्सी चला रहा है। इसमें चढऩे वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की उसे भली दिखती है, पर धोखा खाता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और
साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस सिस्टम से नाखुश हैं।
'फॉलिंग डाउन' के पोस्टर में माइकल डगलस; 'टैक्सी ड्राइवर' में रॉबर्ट. |
होबो, ट्रैविस और विलियम तीनों भले ही सही नहीं हैं, पर सिस्टम और समाज भी इन तीनों से पहले इन तीनों से ज्यादा दोषी है। आंद्रे का केस इनसे अलग है, पर ये बात समान है कि आप अपने मीडिया, समाज और राजनीति के जरिए लोगों को जैसा बना रहे हैं, वो वैसा ही बन रहे हैं। माइकल मूर की 2002 में बनी डॉक्युमेंट्री 'बॉलिंग फॉर कोलंबाइन' नॉर्वे नरसंहार जैसे हादसों को सबसे ज्यादा सार्थकता से देखती है। ऑस्कर से सम्मानित ये डॉक्यु फीचर बताती है कि क्यों 1999 का कोलंबाइन हाई स्कूल नरसंहार हुआ और क्यों अमेरिका में सबसे ज्यादा अपराध दर है। इस असल वाकये में एरिक और डिलन नाम के दो सीनियर छात्रों ने एक सुबह अपने स्कूल कैंपस में अचानक गोलियां चलानी शुरू कर दी और दर्जनों को घायल करते हुए 12 दोस्तों और एक टीचर को मार डाला। बाद में दोनों में खुद को गोली मार ली।
(साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित.)