गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

जॉन मैक्लेनः बच्चों की मृगमरीचिका और कातिलों का हीरो

जॉन मूर के निर्देशन में बनी डाई हार्ड सीरीज की पांचवीं फिल्म पर कुछ बातें...


“अ गुड डे टु डाई हार्ड” देखने के बाद जैसे ही बाहर निकला, मन किया शीशा तोड़ते हुए चौथे माले से नीचे चमचमाते मॉल में कूद जाऊं। नीचे जाते हुए स्लो मोशन शॉट बड़ा सम्मोहक होगा। जॉन मैक्लेन को पिछली चार फिल्मों से देखता आया हूं। बंदा हर बार बच जाता है। हर तरह की स्थिति में बच जाता है। इस फिल्म में शुरू के मुख्य लंबे चेस सीन में इतनी कारें (सुंदर-सुंदर रंगों वाली) कुचली जाती हैं, इतने पौराणिकतामय प्रभावी तरीके से उसका ट्रक और उसके दुश्मन रूसी दुष्टों का बड़ा ट्रक मॉस्को की छह-आठ लेन सड़कों पर कलाबाजियां खाते हुए गिरता है कि लगता है वह मर गया, मगर पता है कि नहीं मरा। मैक्लेन भला मर सकता है! वह पूरणमासी की किसी विशेष नक्षत्रों वाली रात में जन्मा था। कुछ-कुछ अपने ‘शिकारी’ गोविंदा की तरह। ऐसा नहीं है कि ऊपर से कूदने का विचार मैक्लेन को देख पहली बार आया है। पहले भी आया है। न जाने कितनी बार आया है। जब-जब कोई हॉलीवुड फ्रैंचाइजी देखी है, आया है। ‘द अवेंजर्स’ के वक्त, ‘हल्क’ के वक्त, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ के वक्त, ‘द बोर्न लैगेसी’ के वक्त, ‘रैंबो-4’ के वक्त, ‘द एक्सपेंडेबल्स’ के वक्त। हर बार इन जैसा हीरो बन जाने की भावना काबू से बाहर होती रही। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ देखी तो बेन बनना चाहा। स्टेडियम का वो दृश्य जहां वो भोला सा बच्चा “ओ से कैन यू सी, बाय द डॉन्स अर्ली लाइट...” गा रहा होता और हजारों दर्शक मैच शुरू होने का इंतजार कर रहे होते, मेरे आने से अनजान, फिर मैच शुरू होता, फील्ड विस्फोट से भरभराकर तबाह होती और मैं मास्क धरे प्रवेश करता। उफ... क्या सीन होता न। फिर उस खौफनाक आवाज में हजारों अमेरिकियों की सांसें अपरिमेय डर से रोक कर रख देता। मेरे होने का अहसास वहां होता, मैं हीरो होता, मैं फुटेज में होता। फिल्म देख पीवीआर से निकला तो लगा, छलांग लगाता हूं, जब बेन लॉजिकली योग्य है, ताकतवर है तो मैं क्यों नहीं। इस ख्याल को धक्का देने वाला वो ख्याल और तर्क था कि जैसे ही तुम छलांग लगाओगे तुम इतने स्मार्ट होवोगे कि कोई न कोई रस्सी, रेलिंग, पत्थर जरूर पकड़ लोगे और ढस्स से लैंड कर लोगे। ये ख्याल सुपर कमांडो ध्रुव की और डोगा कि कॉमिक्स पढ़ते हुए भी आते रहे हैं। वो हर महामानव और दुश्मन का सामना करते ही इतने सम्मोहक-साइंटिफिक तरीके से थे। कूदने का ये ख्याल ‘डाई हार्ड-5’ देखने के बाद और प्रभावी हो उठा, कि एग्जिट गेट के अंदर से भागते बाहर आऊं और वेव सिनेमा के चौथे माले से शीशा तोड़ते हुए कूद जाऊं, पॉन्टी चड्ढा और उसके भाई हरदीप के मर्डर केस की मौन गूंज भरे उस प्रांगण में मुझे कुछ न होगा। मैक्लेन बच सकता है तो मैं क्यों नहीं?
Bruce Willis in his character of John McClane, in a still from the movie.
मगर न जाने क्यों, भगवान ने मुझे हर बार सद्बुद्धि दी और शैतान को मेरे दिमाग पर कब्जा करने से रोका। शायद ऐसा ही हुआ होगा। लेकिन क्या ऐसा हमेशा हो पाएगा। और क्या बच्चों के जेहन को हर बार ये समझ मिल पाएगी की वह बस एक फिल्म है। असली ब्रूस विलिस तो एक सीढ़ी के ऊपर से भी कार नहीं कुदा सकता फिर मॉस्को के उस ब्रिज से गाड़ी कुदा देना तो संभव ही नहीं है। क्या हर बच्चा जान पाएगा कि बेन की आवाज को हांस जिमर और क्रिस्टोफर नोलन ने कैसे विकृत करके बनाया और टॉम हार्डी उस भूमिका के उलट कितना सिंपल बंदा है।

फिल्मों का ये ही जादू होता है। ये हमें सपने देती हैं। किसी विशेष क्षेत्र में करियर बनाने का पुश देती हैं। निराशा के पलों के लिए सूत्रवाक्य देती हैं। दुख में गुनगुनाने के लिए गाने देती हैं। मगर जिस किस्म का मनोरंजन कुछ फिल्में देती हैं वो खतरनाक देती हैं। दिनों-दिन कुशल और प्रभावी होती तकनीक हर स्टंट को आसान और संभव दिखाती है। देख लगता है, हम भी कर सकते हैं। मुझे नहीं पता कि जेम्स होमर, बेन से कितना प्रभावित हुआ था, लेकिन उसके कर्मों में जोकर के अंश जरूर लगे जो कोई अलग बात नहीं है। ये बेन, जोकर, मैक्लेन सभी हिंसा के अलग-अलग प्रतिरूप हैं। कब परदे से दिमाग पर चढ़ जाते हैं पता नहीं चलता। क्या ऐसा मनोरंजन हम ज्यादा दिन चाह पाएंगे। इतने खून-खराबे भरे, रीसाइकिल होते, फ्रैंचाइजीनुमा ड्रामे क्या इतने जरूरी हैं हमारे लिए? क्या आप इनकी कीमत वहन कर पाएंगे? ये सवाल और बलवती हो उठे ‘अ गुड डे टु डाइ हार्ड’ देखकर।

बात करते हैं कहानी की।

मॉस्को, रूस से शुरू होती है। पूर्व अरबपति यूरी कोमोरोव (सबेश्चियन कोश) पर अदालती केस चलने वाला है। कभी उसके साथ मिल कर गैरकानूनी काम करने वाला और अब देश का डिफेंस मिनिस्टर विक्टर शगैरिन (सरगेई कोलिश्निकोव) अपने खिलाफ सबूतों वाली फाइल यूरी से चाहता है। मगर यूरी ऐसा नहीं करने के तैयार। इस मामले में जैक (जय कर्टनी) का प्रवेश होता है। वह कोमोरोव के किसी आदमी को गोली मार देता है, पुलिस गिरफ्तार कर लेती है, जेल में वह यूरी के खिलाफ गवाह बनने के तैयार हो जाता है। अब हम रूस से अमेरिका पहुंचते हैं। जॉन मैक्लेन (ब्रूस विलिस) नौकरी पर ही ध्यान देता रहा, कभी बेटे के साथ स्नेह भरा रिश्ता कायम नहीं कर पाया। जब उसे जैक की गिरफ्तारी का पता चलता है तो वह छुट्टी पर रूस जाता है। अदालत पहुंचता है तो वहां धमाके होते हैं। शगैरिन के आदमी यूरी को पकड़ना चाह रहे हैं तो सीआईए की ओर से काम कर रहा जैक यूरी से गुप्त फाइल लेकर उसे रूस से बाहर सुरक्षित निकलवाने के मिशन पर है। इसी बीच, सामने आ जाते हैं उसके डैड। पिता को फूटी आंख पसंद न करने वाला जैक अपने मिशन को जारी रखता है लेकिन धीरे-धीरे एक जासूसी एजेंट वाले उसके पैंतरे कमजोर पड़ने लगते हैं और डाई हार्ड सीरीज वाले जॉन मैक्लेन का महत्व बढ़ता जाता है। उसका अनुभव काम आता है।

फिल्म की बुनावट और मूड में जाएं तो कुछ चीजें नजर आती हैं। जब जॉन मैक्लेन के पहले दर्शन होते हैं तो उनके पीछे दीवार पर ओबामा की तस्वीर लगी होती है। ये बदले वक्त का पहला संकेत यूं होती है कि 1988 में सीरीज की पहली फिल्म आई तब से अब तक मुल्क के राजनीतिक हालात में एक व्यापक बदलाव हो चुका है (ये भी कि मौजूदा राजनीतिक ढांचे के तले दूसरे मुल्कों से संबंध उतने बुरे नहीं हैं कि कोई विदेशी ताकत से पाला पड़े, इसीलिए फिल्म का नायक ही दूसरे मुल्क में चला जाता है, वहां के अंदरुनी मसले में टांग अड़ाने के लिए)। पुलिस स्टेशन में मैक्लेन है तो एक युवा अश्वेत साथी भी, वह उसे उसके बेटे जैक की जानकारी लाकर देता है। वह जॉन को कहता है, “तुम कैसे हो ग्रैंडपा (दादा)। ” इसके मायने ये हैं कि जासूसी से लेकर देश की रक्षा तक की जिम्मेदारी युवा पीढ़ी ने ले ली है, उसे घर बैठ आराम करना चाहिए। जो वह करना भी चाहता है। मगर अपने ‘007’ बेटे को बचाने उसे जाना ही पड़ता है। मॉस्को में टैक्सी में बैठा जॉन ट्रैफिक में फंसा है। ड्राईवर से पूछता है, “क्या ट्रैफिक के हाल यहां भी बुरे हैं?” ये भी एक वैश्विक महानगरीय समस्या है जो जॉन मैक्लेन के किरदार के अस्तित्व के वक्त से मौजूद है। पहले सिर्फ अमेरिकी महानगरों में थीं, अब अमेरिकी सांस्कृतिक और आर्थिक अतिक्रमण वाले हर मुल्क की समस्या है। इस फिल्म में शुरू में दिखाया जाता है कि जॉन हीरो बनने वाली स्टंटबाजियों को महत्व नहीं देता। लगता है पिछली चार डाई हार्ड फिल्मों से उसने सबक लिया है कि परिवार को वक्त देना कितना जरूरी था। वह कहता है, “मैंने सोचा कि हर वक्त काम करना एक अच्छी चीज थी।” लेकिन अब चाहता है कि वह और उसका बेटा अमेरिका लौट जाएं इस मिशन को छोड़कर और नए सिरे से परिवार की तरह रहना शुरू करें। साइंटिस्ट और अरबपति यूरी की कहानी भी जॉन की तरह समान लगती है कि उसने भी काम के चक्कर में अपनी बेटी को वक्त ही नहीं दिया।

आयरलैंड मूल के निर्देशक जॉन मूर की ‘फ्लाइट ऑफ द फीनिक्स’ मुझे भाई थी, ये फिल्म कमजोर है। इसे सीरीज की पांचवीं फिल्म होने की अति-उम्मीदें मार जाती हैं। पिछली फिल्मों से ज्यादा धाकड़ बनाने के चक्कर में सारा ध्यान अमानवीय एक्शन और स्टंट पर चला जाता है जो आंखों की पुतलियों को कलाबाजियां खिलाता है, पर फिल्म खत्म होने तक वो सुगढ़ अनुभव नहीं देता जैसा 1988, 95 और 99 में आई तीनों शुरुआती फिल्मों ने दिया।

इस फिल्म में अमेरिकी फिल्मों के पसंदीदा और पारंपरिक शत्रुओं पर लौटा गया है। पहली डाई हार्ड में जर्मन आतंकियों ने लॉस एंजेल्स की नाकाटोमी प्लाजा बिल्डिंग को कब्जे में ले लिया था। दूसरी में एक लातिन अमेरिकी तानाशाह को छुड़वाने की कोशिश हुई। तीसरी फिल्म में फिर जर्मन कनेक्शन था और चौथी में एक अमेरिकी ही साइबर आतंकी बनकर उभरा। इस फिल्म में दुश्मन हैं रूसी। लेकिन यहां उनके मुल्क में जाकर हीरो बनने के चक्कर में चर्नोबिल विभीषिका का एंगल घुसाया गया है। दिखाया जाता है कि यूरी और मिनिस्टर के यूरेनियम साइड रैकेट से ये हादसा हुआ। ये अमेरिकी एंटरटेनमेंट का दावा है जबकि चर्नोबिल नरसंहार और भोपाल गैस त्रासदी की तमाम तथ्यपरक चीजें पब्लिक स्पेस में उपलब्ध हैं... वो फैक्ट इतने नाटकीय और सीधे नहीं हैं जितना यहां फिल्म बना देती है। जॉन और जैक चर्नोबिल की इमारत के अवशेष देख बात करते हैं, “ये तुम्हें किसकी याद दिलाता है?”, “नेवार्क”, …नेवार्क दरअसल अमेरिका में परमाणु संयंत्र का एक केंद्र है... क्या डायरेक्टर जॉन मूर कुछ कहना चाहते हैं यहां?

यहां रूसी-अमेरिकी वाले फंडे को देख ये सवाल भी उठता है कि हमेशा मैक्लेन जैसे अमेरिकी नायक ही क्यों हीरो हो जाते हैं?

इसमें उल्टा भी तो हो सकता है...

हो सकता है किसी रूसी का बेटा वहां की गुप्तचर संस्था केजीबी की ओर से काम करे और किसी अमेरिकी यूरेनियम वैज्ञानिक को अमेरिका से हिफाजत सहित बाहर निकालने की बात कहे और शर्त रखे कोई फाइल मांगने की। उसके इस मिशन के बीच उसका रूसी पिता आ जाए जो वहां के पुलिस विभाग का बड़ा काबिल अधिकारी रहा है, एटिट्यूड वाला है। वह अलग-अलग मौकों पर रूस में अपना हीरोइज्म साबित कर चुका है। अब वह अपने बेटे के साथ वक्त बिताना चाहता है, उन दिनों की भरपाई करना चाहता है जब वह काम की वजह से उसके साथ वक्त न बिता सका। पर यहां मामला उल्टा पड़ जाए। कोई साजिश निकल आए। अब वो अमेरिका की सड़कों पर स्टंट करते गाड़ियां दौड़ा रहे हैं। फिल्म के आखिर में वो लोग हिफाजत के साथ रूस आ जाते हैं और अमेरिका में बड़े बम-वम फोड़ आते हैं। हमें ये कहानी हजम क्यों नहीं हो सकती?

या फिर बॉर्डर फिल्म का वो संवाद जहां पाकिस्तानी फौजी अधिकारी भारतीय को ललकारते हुए कहता है, “कुलदीप सिंह, तेरी मौत दे फरिश्ते तेरे दरवाजे ते खड़े ने, या ते अपने बंदेयां समेत सिर ते हाथ रखकर बाहर आ जा, या ते फिर अपनी अंतिम अरदास पढ़ लै।” जवाब में मेजर कुलदीप सिंह कहता है, “ओए तू गुलाम दस्तगीर है ना, लाहौर दा मशहूर गुंडा, गंदे नाले दी पैदाइश। ऐ तां वक्त ही दस्सेगा कि मेरी अंतिम अरदास हुंदी है या फिर तेरा इल्लाह पढ़ेया जांदा है। हुण तू इक कदम वी बाहर निकल्या तां मैं तैनूं उसी गंदे नाले विच मार सुट्यांगा जित्थों तू आया सी।” ये संवाद हमें उल्टा क्यों नहीं हजम हो सकता? जहां पाकिस्तानी अधिकारी किसी भारतीय किरदार को मेरठ के चौराहे का गुंडा बोल दे। क्यों कोई पाकिस्तानी सैनिक हीरो नहीं हो सकता? उसका हीरोइज्म कम क्यों है? कोई सनी देओल पंप उखाड़ अपनी सकीना को सरहद पार ले आता है, ऐसा कोई पाकिस्तानी करे तो, किसी दिव्या पांडे को पाकिस्तान ले जाए तो।

क्यों हीरो हमेशा जनता की नजरों में एक ही तरह के होते हैं? और क्यों दुश्मन भी एक ही तरह के? ये मनोरंजन का दरअसल सूत्र बन चुका है। तय सूत्र। जैसे अमेरिकी कहानियों में विलेन एक ही तरह के होने लगे हैं। ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में नक्सली और जूलियन असांजे जैसे अपराधी हैं, वही सीआईए जब पाकिस्तान में जाकर ओसामा के खिलाफ बड़ा ऑपरेशन कर आता है तो अमेरिकी बुरे नहीं बनते। उनकी इमारतों में दो प्लेन घुस गए तो वो नाराज हो गए। उन्होंने अपने यहां की हथियार कंपनियों के अरबों डॉलर का आयुध अफगानिस्तान-ईराक में उड़ेल दिया तो जवाबी प्रतिक्रिया में उन मुल्कों के लोगों को भी तो अमेरिका आकर अपना हीरोइज्म दिखाने दो! असल में न सही, मनोरंजन में ही सही। जिसका गन्ना उसकी गंडेरी वाली बात भी तो नहीं है न यहां। यहां जिसकी लाठी उसकी भैंस है और सारे बड़े लट्ठ धन्ना सेठ अमेरिका के पास हैं।

इस लिहाज से अभी तक सिर्फ जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ में और नील ब्लूमकांप की ‘डिस्ट्रिक्ट-9’ में ही कुछ नयापन दिखा है। ‘अवतार’ में नक्सली या आदिवासी प्रतिरोध का समर्थन दिखता है। मूल निवासियों की निजता और रिहाइश में सेंध न लगाने का संदेश मिलता है। अन्यथा कुछ नहीं है। कैथरीन बिगलो ने भी ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी जेल शिविरों में दी जाने वाली यंत्रणा की आंशिक तस्वीर ‘जीरो डार्क थर्टी’ में दिखाई है, वह भी हदों में रहते हुए।

जॉन मैक्लेन तो यहां खुले तौर पर अपने बेटे से कहता है, “लेट्स किल सम...”

वैसे ये क्या बात हुई? ऐसे कैसे, किल सम...? 

A Good Day to Die Hard/Die Hard-5 is the fifth from the series which began in 1988. The central character of the movie, a New York City police detective John McClane (Bruce Willis), this time goes to Moscow to find and help his wayward son Jack (Jai Courtney). John doesn't know that his son is a CIA operative and is on a mission there. Russian underworld is pursuing him and a nuclear weapons heist is coming their way. Director of the movie is John Moore, whose 'Flight of the Phoenix' I liked when I saw first.
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