जगमोहन मूंदड़ा 1948-2011
तब का कलकत्ता। बड़े बाजार की तंग गलियों में राजस्थान से आकर बसे मारवाड़ी बाणियों की बड़ी रिहाइश में एक घर मूंदड़ों का भी था। उसी घर में रहता था जगमोहनदास नाम का वो लड़का। टॉलीगंज में अपने एक रिश्तेदार के घर की खिड़की में बैठता तो इंतजार करता सामने पुरानी इमारत की छत पर नहाने के बाद बाल सुखाने आया करती उस नई-नवेली बंगाली दुल्हन का। कामुकता के साथ वो उसका पहला वास्ता था। घर में सख्त दादी को फिल्में पसंद न थीं। ले देकर साल में एक-आध धार्मिक फिल्म दिखा दी जाती। पर उसे बंधना न था। वह अंग्रेजी बोलना चाहता था। खुले समाज में जीना चाहता था। बारह बरस के जगमोहन ने 'कागज़ के फूल' देखी तो न जाने कैसे अपनी कम उम्र के उलट ये समझ बना ली कि एक फिल्म में निर्देशक की अहमियत सबसे ज्यादा होती है। बीते रविवार की सुबह जब उस लड़के ने अपनी अंतिम सांस ली, तो वह 62 साल का था और उसे लोगों ने एक फिल्म निर्देशक के तौर पर पहचाना। वह निर्देशक जिसने 'बवंडर', और 'प्रोवोक्ड' जैसी सार्थक फिल्में बनाई।
क्या इन दो फिल्मों के परे कोई जगमोहन मूंदड़ा था ही नहीं? क्या इसके अलावा उन्हें 'नॉटी एट फॉर्टी' और 'अपार्टमेंट' जैसी खारिज फिल्में बनाने वाला मान लिया जाए? क्या उनकी फिल्मों में कोई सिनेमैटिक भाषा नहीं होती थी? कोई कहानी नहीं होती थी?
ये सवाल बहुत बाद में आए, भारत में तो जगमोहन मूंदड़ा को बहुत पहले से ही बी ग्रेड इरॉटिक हॉलीवुड थ्रिलर्स बनाने वाला माना गया, जबकि ऐसा था नहीं। इतना जरूर था कि पूरी जिंदगी वो एक किस्म की फिल्में बनाने तक सीमित नहीं रहे। संजीव कुमार और शबाना आजमी को लेकर 1982 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'सुराग' बनाई। फिर 1985 में दीप्ति नवल और शबाना की शीर्ष भूमिकाओं वाली वूमन सेंट्रिक फिल्म 'कमला' बनाई। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी की फिल्मों जैसे फ्रेम्स वाली 'कमला' भारत में नेशनल अवॉर्ड के लिए नामित हुई। यहां से लेकर 2000 में 'बवंडर' आने तक जग मूंदड़ा (हॉलीवुड में उनका नाम) ने अमेरिकन ऑडियंस के लिए इरॉटिक हॉरर-थ्रिलर फिल्में बनाईं। ये फिल्में थीं 'द जिग्सॉ मर्डर्स' (1988), 'हैलोवीन नाइट्स' (1988), 'नाइट आइज' (1990), 'एलए गॉडेस' (1993), 'सेक्सुअल मेलिस' (1994) और 'टेल्स ऑफ द कामसूत्र २: मॉनसून' (1998) हालांकि इनमें कोई बड़े अमेरिकी सितारे नहीं थे, पर अपनी समकालीन कम बजट वाली थ्रिलर्स से बेहतर 'जग मूंदड़ा मार्का' नयापन इनमें होता था।
वो सेंसलेस नहीं थे। कमतर भी नहीं थे। ऐसा होता तो 'बवंडर', 'कमला', 'प्रोवोक्ड' और 'शूट ऑन साइट' जैसी बिना नुक्स वाली फिल्में न बनती। साथिन भंवरी देवी के साथ हुए रेप की सच्ची घटना पर बनी 'बवंडर' उनकी बेहतरीन फिल्म थी। वो हर तरह की फिल्में बनाते थे। 'नॉटी एट फॉर्टी' की स्क्रिघ्ट लेकर गोविंदा मिले तो वो बना दी, किसी महिला प्रधान स्क्रिघ्ट के लिए ऐश्वर्या राय ने संपर्क किया तो उन्होंने 'प्रोवोक्ड' बना दी। लॉस एंजेल्स उनका पहला घर था, जहां वो आईआईटी मुंबई से पढऩे के बाद गए थे। जहां उन्होंने थियेटर किराए पर लेकर कुछ साल हिंदी फिल्में दिखाईं। जहां देवआनंद की 'देस परदेस', राज कपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' और यश चोपड़ा की 'कभी कभी' के प्रीमियर उन फिल्ममेकर्स की मौजदूगी में वहां हुए।
मैं समझता हूं उनका अच्छा काम आना बाकी थी। उनकी पॉलिटिकल सटायर 'किस्सा कुत्ते का' की शूटिंग अक्टूबर से शुरू होने वाली थी। वह सोनिया और राजीव गांधी की प्रेम कहानी पर 'सोनिया' बनाना चाहते थे, जो राजनीतिक पेचों में फंसी थी। उन्होंने कोलकाता जाकर चित्रा बैनर्जी की शॉर्ट स्टोरी पर 'भद्रलोक' बनाने की सोची थी। वह 'बर्दाश्त' बनाना चाहते थे। एक ऐसे आदमी की कहानी जिसने जिंदगी में बहुत अन्याय झेला है पर अब उसका जवाब देना चाहता है। मगर ये चारों कहानियां अनकही रह गईं। जगमोहन मूंदड़ा ने श्रेष्ठ अमर फिल्में भी बनाई और पॉपकॉर्न सिनेमा भी। मगर हॉलीवुड और हिंदी दोनों अलग फिल्मी धाराओं को उन्होंने बिना मिलाए बनाया, जो बहुत कम निर्देशक कर पाते हैं। उन्होंने चुपचाप बिना किन्हीं फिल्मी हथकंडों के फिल्में बनानी शुरू कीं और उसी ईमानदारी के साथ बनाते हुए हमारे बीच से चले गए।
लोग शायद उन्हें भूल जाएंगे, मगर मैं और मेरे दोस्त नहीं। हम लोगों के लिए 'बवंडर' हमारे उस उम्र के किस्सों और बेशकीमती यादों का अहम हिस्सा थी। हम दोस्त जब-जब अपने बीते दोस्ताने और भोलेपन भरी हंसी-ठिठोली का जिक्र बुढ़ापे की देहरी लांघने तक करेंगे, तब-तब जगमोहन मूंदड़ा और रेतीली माटी की कहानी 'बवंडर' को याद करेंगे। हम तुरंत हंसेंगे और उस दौर में लौट जाएंगे। सिर्फ जगमोहन मूंदड़ा की बदौलत। फिल्में यही तो करती हैं और जो फिल्मकार हमारी उस वक्त की फिल्मों को बनाने वाला रहा होता है, वो बस खुद की जिंदगी का हो जाता है। अपनी तमाम फिल्मी कमियों और आलोचनाओं के बावजूद। ... और फिर 'बवंडर' तो आज भी उन लाजवाब ठोस फिल्मों में से है। दुआओं में रहोगे तुम... जगमोहन मूंदड़ा।
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गजेंद्र सिंह भाटी