फिल्मः माई फ्रेंड पिंटो
निर्देशकः राघव धर
कास्टः प्रतीक बब्बर, कल्कि कोचलिन, अर्जुन माथुर, दिव्या दत्ता, श्रुति सेठ, मकरंद देशपांडे, राज जुत्शी, अमीन हाजी, करीम हाजी
स्टारः ढाई, 2.5
नीले होते परदे पर जब 'संजय लीला भंसाली फिल्म्स' नाम उभरता है तो दर्शकों में फुसफुसाहट शुरू हो जाती है। 'अरे यार ये उसी बेकार डायरेक्टर की फिल्म तो नहीं। मुझे नहीं पसंद।' फिर ओपनिंग क्रेडिट्स आते हैं, समीर-पिंटो के बचपन की ब्लैक एंड व्हाइट फोटो में छिपे। डेब्युटेंट डायरेक्टर राघव धर की ये रचनात्मकता उस नीलेपन से ध्यान हटाती है। परदे पर पिंटो आता है और दर्शक उसके कैरेक्टर में इंट्रेस्ट लेने लगते हैं। चार्ली चैपलिन और रॉवन एटकिंसन इन दोनों ही ने जो हास्य ईजाद किया था, उसे प्रतीक यहां फॉलो करते नजर आते हैं। आप प्रतीक के ऊपर की तरफ अधखुले होठों और बेबी स्टेप्स लेते कदमों में चैपलिन को पाएंगे। वहीं चीजों से टकराने, सामान गिराने, अपनी पीछे जलती कार छोड़ जाने और मल्लू डॉन को परदे से लटककर अनजाने में ही बचाने में एटकिंसन यानी मिस्टर बीन को। 'माई फ्रेंड पिंटो' कहीं-कहीं खूब हंसाती है, पर ओवरऑल बहुत अच्छी नहीं है। पिंटो के रोल के साथ बहुत कुछ किया जा सकता था, पर प्रतीक की कुछ सीमाएं हैं, यहीं पर कैरेक्टर कुचला जाता है। प्रतीक के साथ फ्रेम में जहां-जहा शकील खान और दिव्या दत्ता है, वहीं वह ऑरिजिनल लग पाते हैं। दिव्या का नशे में झूमते हुए पिंटो से बात करने वाला सीन बेदाग है। शायद सबसे ठीक। फिल्म के गानों में लॉन्जी फर्नांडिस की कोरियोग्रफी है। चूंकि वह संजय भंसाली की फिल्मों में रेग्युलर हो गए हैं ऐसे में यहां भी गानों में वैसे ही स्टेप दिखते हैं। म्यूजिक निराश करने वाला है। एक बार देखने के लिए फिल्म बुरी नहीं है, ट्राई कर सकते हैं। ज्यादा शिकायत नहीं होगी।
कहानी पिंटो की
माइकल पिंटो (प्रतीक बब्बर) गोवा के किसी छोटे से गांव में पला बढ़ा है। मुंबई अपने दोस्त समीर (अर्जुन माथुर) के पास आया है। ममा के गुजरने के बाद अब दुनिया में बचपन के बेस्ट फ्रेंड समीर के अलावा कोई नहीं है। समीर अपनी नौकरी और अपनी म्यूजिक कंपनी बनाने के सपने में उलझा है। उसकी वाइफ सुहानी (श्रुति सेठ) पिंटो को देखकर ज्यादा खुश नहीं होती। अब कहानी इसी रात के कुछ घंटों की है। कि कैसे समीर और सुहानी पिंटो को अपने फ्लैट पर छोड़कर एक पार्टी में जाते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि पिंटो वहां से निकलकर अपने भोलेपन से मुंबई को दोस्त बना लेता है। उस रात वह स्ट्रगलिंग डांसर आरती (कल्कि कोचलिन), रिटायर हो चुके मलयाली डॉन (मकरंद देशपांडे), बी ग्रेड फिल्मों की एक्ट्रेस रेशमा (दिव्या दत्ता) और बहुत से दूसरे लोगों के दिलों में जगह बना लेता है।
किरदारों का काम-धाम
# प्रतीक का चेहरा मासूम जरूर है पर फेक लगता है, डायलॉग डिलीवरी में तो वो अभी पासिंग मार्क्स लेना भी नहीं सीखे हैं।
# कल्कि के जमा चार-पांच सीन हैं। फिल्म में वो डांसर बनना चाहती हैं, पर हम पूरे दो घंटे बस प्रतीक को ही नाचते देखते हैं। टैक्सी से उतरती कल्कि की पहली झलक बहुत आकर्षक है, उसके बाद खास नहीं।
# 'लगान' के बाघा यानी अमीन हाजी अपने हमशक्ल भाई करीम हाजी के साथ नजर आते हैं। इनके रोल भी अधपके हैं।
# राज जुत्शी को उनके नकली दांतों में पहचान पाना मुश्किल होता है।
# मकरंद देशपांडे का बेस्ट वर्क 'सर' में ही पीछे छूट गया है। शुरू के सीन्स में तो ये ही समझ नहीं आता कि वो पारसी डॉन हैं कि साउथ इंडियन। बाद में जब कहीं लिखा आता है मल्लू डॉन, तब मालूम चलता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी