डीडीवन पर हर रविवार सुबह मुकेश खन्ना का सीरियल 'शक्तिमान' टेलीकास्ट होता था। कस्बों, छोटे शहरों और महानगरी बच्चों को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि हॉलीवुड मूवी 'सुपरमैन' में क्लार्क केंट के रोल से ही पंडित गंगाधर विद्याधर मायाधर ओमकारनाथ शास्त्री का किरदार गढ़ा गया। उनपर तो बस प्रोग्रेम का खतरनाक असर था। रविवार की सुबह उन्हें बड़े खुलासे की लगती थी। टेक्नीकली ये प्रोग्रेम इतना कमजोर था कि इसके पसंद किए जाने की कोई वजह नहीं थी। पर शक्तिमान बचाने आएगा यह सोचकर असल में कई बच्चे ऊंची मंजिलों से कूद गए। ये है फिजीकल असर। यहां इस फिल्म मीडियम ने कई बच्चों की जान ली। हालांकि बाद में उभारकर टीवी पर ये पट्टी चलाई जाने लगी कि धारावाहिक पूरी तरह काल्पनिक है, इससे प्रभावित न हों।
लोग 'लगे रहो मुन्नाभाई' देखकर थियेटर से निकले तो प्रोटेस्ट मार्च में गुलाब और गेट वेल सून के प्लेकार्ड जुड़ गए। ये एक रोमैंटिसाइज्ड असर था। 'मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस' के बाद जादू की झप्पी बंटने लगी। अस्पतालों, कॉलेजों और स्कूलों में। सोशल डिक्शनरी में 'मामू', 'रुलाएगा क्या', 'बोले तो', 'सर्किट' और 'गुड मार्निंग मुंबई' जैसे शब्द एड हो गए। आज 'ये साली जिंदगी' और 'डेल्ही बैली' में खूब गालियां होती हैं तो भी यही कहा जाता है कि यूथ बोलता है, इसलिए दिखाते हैं। पर ये बताएं कि हमने ये 'एफ' वर्ड बोलना कहां से सीखा? हमारी अपनी देसी गाली है, पर हम ये शब्द (फिल्मों से सीख) बोलने लगे। ये बताएं कि कौन अपने ट्राउजर पर बैठे दोस्त से कहता है कि 'योर गा** इज लाइक सोलर एक्लिप्स'? कौन अपने दोस्त को ससुर से गिफ्ट में मिली कार के बारे में कहता है कि 'वेन अ डॉन्की फ** अ रिक्शा, देन यू गेट दिस'? करोड़ों में कोई एक कहता भी होगा, तो थियेटर से निकलने के बाद हजारों बोलने को प्रेरित हो गए या होंगे। फिल्म बनाने वाले को कमर्शियल गेन के अलावा इस असर से कोई सरोकार नहीं है। सरोकार रखने हैं तो लोगों को ही रखने होंगे।
फिल्में हमारी सोच और जिंदगी जीने के तरीके को भी बदलती है। अगर फिल्में न होती तो सुनीता विलियम्स कभी पायलट न बनती, अंतरिक्ष में 195 दिन रहने का रिकॉर्ड न बनाती। टॉनी स्कॉट की फिल्म 'टॉप गन' में मैवरिक (टॉम क्रूज) को एफ-14 उड़ाते देख ही उन्होंने यूएस एयरफोर्स में जाने को अपनी जिंदगी
जोया अख्तर ने 'जिंदगी न...' प्योर एंटरटेनमेंट के लिए बनाई होगी, इसके सोशल असर के बारे में ज्यादातर फिल्ममेकर्स की तरह उन्होंने भी नहीं सोचा होगा। सिंगल स्क्रीन, कस्बाई, मिडिल क्लास और अधपकी इंग्लिश बोलने की कोशिश करने वाली ऑडियंस ये फिल्म देखकर थियेटर से निकलेगी तो सोच चुकी होगी कि जिंदगी हो तो फिल्म के कैरेक्टर्स जैसी। फ्लाइट्स में सफर करना, स्पेन जाना, ल टॉमेटाना फेस्टिवल में हिस्सा लेना और कटरीना की तरह न्यूड बीच पर चलना दिव्य है। उन्हें मासूमियत से लगेगा कि पैसा है तो सब है, ब्रैंडेड कपड़े बहुत जरूरी हैं और अपने बच्चों को एडवेंचर स्पोट्र्स सिखाएंगे। पर क्या एंजॉय करने के लिए केरल या मैसूर नहीं जा सकते? ऋषिकेश या धर्मशाला नहीं घूम सकते? दिसंबर में जोधुपर, जैसलमेर और जयपुर की ट्रिप नहीं बना सकते? पंजाब नहीं जा सकते? ये सवाल इसलिए भी क्योंकि इंडिया की आधी से ज्यादा आबादी, जो फिल्म की ऑडियंस होगी, निश्चित तौर पर आर्थिक कारणों से कभी विदेश टूर पर नहीं जा पाएगी। पर उनके मन में असंतोष का बीज बो देगी। 'द दार्जलिंग लिमिटेड' के तीन विदेशी जोड़ीदार भारत के अंदरुनी हिस्सों की जर्नी के दौरान जिंदगी के असल मायने समझते हैं, पर 'जिंदगी न..' हमें सब-कॉन्शियस में ही सही ये सिखाएगी कि जीना हो तो बाहर स्पेन या ईजिप्ट जाओ।
हां, ये सही है कि हर निर्देशक-राइटर को अपनी कहानी चुनने का अधिकार है, पर जहां रीमा कागती और जोया अख्तर का काम खत्म होता है, वहीं से सोसायटी पर उनकी कहानी का असर पडऩा शुरू होता है।
गजेंद्र सिंह भाटी
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एक हिंदी दैनिक के साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा में प्रकाशित