बुधवार, 21 सितंबर 2011

तीस सेकंड की खरपतवार की खपत हम पर कैसे हो

बहुत भोली और मासूम लगने वाली एड फिल्में सिर्फ तीस सेकंड में हमारे अगले तीस सालों पर असर छोड़ जाती हैं। अच्छा भी और बुरा भी। इन दिनों इसके बुरे उदाहरण ज्यादा रहे हैं। कुछ हफ्ते पहले ही ब्रिटेन की विज्ञापनों के स्टैंडर्ड पर नजर रखने वाली एजेंसी ने कॉस्मेटिक्स कंपनी 'लॉरिएल' के लेटेस्ट एड पर रोक लगा दी। वजह ये थी कि इसमें हॉलीवुड एक्ट्रेस जूलिया रॉबट्र्स और क्रिस्टी टर्लिंगटन के चेहरों को फोटोशॉप सॉफ्टवेयर के जरिए डिजीटली ज्यादा सुंदर बनाया गया था, जितना इस क्रीम के इस्तेमाल से नहीं होता। ये अनैतिक भी था और प्राकृतिक ब्यूटी के खिलाफ भी। लॉरिएल ऐश्वर्या रॉय को लेकर जो इंडियन वर्जन बनाती है, उसमें भी फोटोशॉप के जरिए एक्ट्रीम गोरापन और झीनी स्किन दिखाई जाती है। वहीं शाहरुख का 'मर्दों वाली क्रीम लगाते हो' एड तो बेहूदगी की इंतहा है।

आपका ये जानना जरूरी है कि इन विज्ञापनों को बनाने वाले आपकी आलोचना से परे नहीं होते। एड और पीआर का कोर्स पढ़कर फील्ड में आने वाले यंगस्टर कुछ भी कैची और शॉकिंग बनाने लगते हैं। टेलीकॉम कंपनी यूनीनोर का बीते दिनों टीवी पर दिन में दर्जनों बार आने वाला एड लीजिए। 'लव सेक्स और धोखा' और 'शैतान' जैसी हालिया फिल्मों में दिखे एक्टर राजकुमार यादव के पैर पर प्लास्टर बंधा है और वह अपनी गर्लफ्रेंड और उसकी दूसरी दोस्त को फोन पर झूठ बता रहा है कि बच्चों की पतंग उतारते हुए चालीस फुट नीचे गिर गया और लग गई। जब उसका दोस्त कहता है, क्यों फोन का बिल बढ़ा रहा है तो राम कुमार कहता है, 'अबे दो पैसे में दो पट रही हैं, क्या प्रॉब्लम है।' यहां से टेलीकॉम कंपनी का नाम हमें याद हो जाता है, एड बनाने वाले का भी प्रमोशन पक्का हो जाता है, पर दो पैसे में दो पटाने का संवाद कितना ओछा और घटिया है, ये हम ज्यादा सोचते नहीं हैं। ऐसा ही एड है टाटा नैनो का। कार में पत्नी कुछ गुनगुनाने लगती है तो पति कहता है, 'इतने साल स्कूटर की तेज हवा मुझसे कुछ चुरा रही थी'.. जब वह पूछती है क्या, तो जवाब होता है, 'तुम्हारी आवाज' उद्देश्य क्या है? सिर्फ इतना कि स्कूटर वालों, स्कूटर फैंको और कार ले लो। मतलब नैनो की सेल्स बढ़ाने के लिए स्कूटर को आउटडेटेड या व्यर्थ बताने का अप्रत्यक्ष संदेश। क्या ये एड एक नैनो को बनने में खर्च होने वाले देश के हजारों लीटर पानी की बात करता है। करोड़ों नैनो खरीदने पर पार्किंग और सड़कों पर ट्रैफिक की समस्या होगी उसका क्या? स्कूटर वाला उसी पर रहना चाहता है। वह संतोषी जीव है, आप उसे जबरदस्ती महत्वाकांक्षी क्यों बनाना चाहते हैं। संसार में सबकी जरूरत के लिए तो पर्याप्त है, लालच के लिए नहीं।


'कौन बनेगा करोड़पति' के इस सीजन में अमिताभ बच्चन ने वापसी की है। इस बार फिल्म माध्यम के इमोशनल टूल्स का इस्तेमाल करते हुए गरीबी और मध्यम वर्ग की लाचारी को भुनाते हुए एड बनाए गए हैं। यहां इस एड में एक युवती बुझे चेहरे और लाचारगी के साथ कैमरे में बोलती है, 'मैं अपनी मां के लिए घर बनाना चाहती हूं। (अब भयंकर विवशता का एहसास करवाते हुए कहती है)...हमारा घर बहुत छोटा है।' सुनकर दिल कांप जाता है। पर क्या 'गजब राखी की अजब कहानी' की कमर्शियल नौटंकी से आगे भी 'कौन बनेगा करोड़पति' बढ़ पाएगा।


हालिया 'रॉयल एनफील्ड: हैंडक्राफ्टेड इन चेन्नई' विज्ञापन, शानदार सिनेमैटिक स्टोरीटेलिंग और फोटोग्रफी का उदाहरण है। सुबह घर से एनफील्ड के प्लांट में जाने को निकलता पति, बाल बांधती वाइफ, घर में बैठी बूढ़ी मां, दरवाजे से झरकर आती सूरज की किरणें, भागकर पिता को टिफिन पकड़ाती और गाल पर पाई देती बिटिया, चेन्नई की सड़कों के रंग समेटता अपनी एनफील्ड पर चलता व व्यक्तिआसपास धार्मिक नाच भी हो रहे हैं और रजनीकांत की फिल्म 'रोबॉट' के पोस्टर भी लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे आप थियेटर में फिल्म देख रहे हैं। ये मिसाल है कि एड फिल्में सिनेमैटिकली भी फीचर फिल्मों जैसी होती हैं।


मैं आज की इन एड फिल्मों में नुक्स इसलिए निकाल पा रहा हूं क्योंकि हमारे पास सोशल एडवर्टीजमेंट के सुंदर प्रयास मौजूद हैं। उनमें फोटोग्रफी, डायरेक्शन, लिरिक्स, कॉपी और कहानी को किसी फिल्म सी तवज्जो दी गई है। सार्थकता के भाव के साथ हमारे दिलों को पवित्र कर जाने वाली एक ऐसी ही एड थी राष्ट्रीय साक्षरता अभियान की जो दूरदर्शन पर आती थी।
इसके बोल थे, पूरब से सूर्य उगा, ढला अंधियारा, जागी हर दिशा दिशा, जागा जग सारा...।

गजेंद्र सिंह भाटी
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साप्ताहिक कॉलम सीरियसली सिनेमा से