बुधवार, 1 जून 2011

क्यों फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है...

साउथ की मूवीज लोकतांत्रिक और संवैधानिक भले ही नहीं होती। पर वो कमजोर की मां बनना स्वीकार करती हैं। उस कमजोर की जो सड़कों पर चार पहिए वाले बड़ों के शासन में पल-पल बेइज्जत किया जाता है, जो आक्रोश के लहानिया भीखू (ओम पुरी) की तरह गला होते हुए भी गूंगा बना दिया गया है और उसकी मजदूरी करती जवान बहन की कीमत वहशियों की नजर में बस एक बिस्किट का लालच है। हर जायज बात में सवाल करने पर उसे गालियां और जलालत ही मिलती है। वह गुलाल के रणसा की तरह कोई फिल्मी किरदार भी नहीं है, जो पलटकर इतना कह सके कि "ये सवाल से सबकी फटती क्यों है, कोई जवाब नहीं है इसलिए?" बच्चे-बीवी उम्मीद लगाए बैठे रहते हैं और वह रोज शरीर और इरादों से कमजोर होता चला जाता है। वो शूल का समर प्रताप और यशवंत का यशवंत लोहार भी नहीं है कि क्षरण होते हुए भी व्यवस्था से अपना बदला आखिर में ले ही ले। उसकी जिंदगी में दुख के आने के तरीकों के अलावा कुछ भी ड्रमैटिक नहीं है। इसीलिए वह न तो किसी डीयो लगाए छरहरे मॉडल की ब्यूटी और इंग्लिश बातों के आगे अड़ सकता है और न ही सख्त शरीर वाले दर्जनों भीमकाय गुंडों से रोबॉट के रजनी रोबॉट चिट्टी की तरह भिड़ सकता है। सिर पर किसी नेता का नाम या ताकत भी नहीं है... है तो बस शरीर की कुछ अति-औसत सूखी बोटियां। समाज की गोरे रंग की सुंदर इमेज वाली जिंदगी एक-एक पैसे के लिए उसे 46.7 डिग्री तले झुलसाती है। यहां झुलसकर भी उसे जितना मिलता है उतने में शायद दिल्ली अब उसे एक सेर दूध भी न दे।

इस कमजोर की कमजोरी का अनुपात और चेहरा भले ही अलग लगे पर मूलतः साउथ की, हिंदी की, हॉलीवुड की और दूसरे देशों की मसालेदार या यथार्थ से भागने का अफीम कही जाने वाली फिल्मों से उसका रिश्ता सबसे करीबी है। जब पूरी व्यवस्था में उसे लगता है कि कुछ नहीं बदलने वाला और जिस संविधान और कानून की दुहाई दी जाती है उसका कोई नियुक्त प्रतिनिधि उसे जवाब देने को तैनात नहीं है तो उसके कांधे पर हाथ रखने आती हैं मार्टिन स्कॉरसेजी की फिल्म टैक्सी ड्राईवर और जोएल शूमाकर की फॉलिंग डाउन। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जिनके पास सबकुछ है, वो जिनके पास नहीं है उनके लिए चीजों के भाव तय करते हैं। फिर खुद उपभोग करने लगते हैं और दूर बैठे जिनके पास नहीं है उनसे कहते हैं कि "तुम्हारे पास नहीं है. हमारे पास तो है इसलिए तुम बस भुगतो।" इन दोनों फिल्मों के मूल तत्वों में से एक ये है। यहां से कह दिया जाता है कि "सोसायटी में एव्रीथिंग इज ऑलराइट। फिल्में हों तो सभ्य हों, एक लैवल वाली हों वरना न हों।" सभ्यता का पैमाना कहीं न कहीं बन जाते हैं मल्टीप्लेक्स और लैवलहीन होने का लैवल बन जाते हैं सिंगल स्क्रीन थियेटर।

...एक बार चंडीगढ़ के पीवीआर सिनेप्लेक्स में शो से दस मिनट लेट अंधेरे में अपनी सीट तलाशते एक लैवल वाले कस्टमर आए। वहां हाथ बांधे खड़े नीली वर्दी वाले (एम्पलॉयमेंट पाए) लड़के से कहने लगे, "वॉट इज दिस। डोन्ट यू हैव टॉर्च और समथिंग। वॉट इज दिस, इज दिस अ मल्टीप्लेक्स और सम स्टूपिड प्लेस।" उनका अंग्रेजी रुबाब देखता रहा। बीच-बीच में उनके अंग्रेजी डायलॉग आते रहे। शो छूटा। संयोग से लिफ्ट में वो मेरे सामने ही थे। लिफ्ट नीचे जा रही थी। बोले, "यहां तो कुछ है ही नहीं। बड़ी पिछड़ी जगह है। एसी भी ठीक से नहीं चलते। मैं बाहर ही रहता हूं, यहां तो कुछ भी नहीं है।" मैं अचरज से सुन रहा था और उसका भ्रम यूं ही कायम रहे इसलिए धीमी मुस्कान के साथ सिर सहमति में हिला रहा था। लिफ्ट से निकले और पिंड छूटा। पर सवाल रह गया कि आखिर ऐसे दर्शक.. सॉरी ऑडियंस आखिर चांद से आगे भी कुछ चाहते हैं क्या।

मैं अब भी पिछले साल की श्रेष्ठ फिल्म दो दूनी चार को ही मान रहा हूं, पर कुछ-कुछ दो दूनी चार को छोड़ दें तो सड़क पर चलने वालों की मां तो दबंग ही बनी। ये मैं दबंग की दर्जनों खामियों को इस दौरान किनारे रखते हुए कह रहा हूं। उसे व्यक्तिगत तौर पर खास नहीं बता रहा हूं। चुलबुल पांडे नाटकीय ज्यादा हैं पर देखने वालों को पसंद आए। हालांकि रॉबिन हुड पांडे (दबंग), संजय सिंघानिया (गजनी) और राधे (वॉन्टेड) ने कहानी और इमोशंस की आड़ में किए तो अपराध ही न। ये अपराधी हैं पर ज्यादातर दर्शकों के लिए इनके व्यक्तिगत प्रतिशोध तीन घंटे तक बेहद जरूरी भी रहते हैं। संजय सिंघानिया की सदाचारी प्रेमिका कल्पना का निर्मम वध मुझ कमजोर दर्शक के सामने ही होता है। उस सुंदर, मासूम, निर्मल, कमजोरों की मदद करने वाली लड़की की पीठ में चाकू घोंप दिया गया है। घर में हत्यारे छिपे हैं। ये वो मोड़ है जहां मैं संजय के साथ-साथ बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं कि विदेश से लौटने के बाद वह अपने बारे में कल्पना को बताएगा और दोनों खुशी-खुशी अपनी प्यार भरी जिंदगी बिताएंगे। पर अब कांच सी चिकनी सफेद फ्लोर टाइल्स पर गजनी लोहे का विकृत सरिया पटक रहा है। इसकी आवाज खौफनाक है। दिल बींध रहा है। ये सारे भाव भीतर आखिर क्यों पनप रहे हैं? न सिर्फ पनप रहे हैं, बल्कि मैं इस संकट की घड़ी में संजय सिंघानिया के साथ हूं। उससे ज्यादा मैं ये चाहता हूं कि वो शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस (एंटेरोग्रेड एमनीज़िया) में रहते हुए ही चुनौती पूरी करे और पूरी इंटैंसिटी से गजनी का नाश कर दे।

चाहे वैध हो या अवैध पर अनिल मट्टू के निर्देशन में बनी फिल्म यशवंत का यशवंत लोहार (नाना पाटेकर) थियेटर में जाने वाले उस कमजोर को अपना सा लगता है। क्योंकि थियेटर से बाहर की क्रूर दुनिया से जो लड़ा मैं कमजोर दर्शक नहीं लड़ (जीत) सकता, उसे इंस्पेक्टर लोहार जीतता है। मुझ कमजोर दर्शक के सामने होली के दिन कोई मंत्री का साहबजादा किसी लड़की का स्कर्ट खींचकर चला जाए, तो मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। अपनी बेबसी पर ज्यादा से ज्यादा दो आंसू गिरा दूंगा। पर मेरा प्रतिनिधि इंस्पेक्टर लोहार उस मंत्री के लड़के को पकड़कर जीप में डाल देता है। मैं खुश होता हूं। थाने पहुंचते हैं तो क्या देखते हैं कि वह रईसजादा इंस्पेक्टर की कुर्सी पर बैठा है और वो भी मेज पर पैर रखकर। मुझे गुस्सा आता है, पर मैं बेबस हूं। मेरी शक्तियां सीमित से भी सीमित हैं। तभी लोहार आता है, एक मोटा सा डंडा हाथ में लेता है और कसकर उस कमीने लड़के को मारना शुरू करता है। ठीक वैसे ही जैसे मैं करना चाहता था। हां, हां मुझे पता है कि ये अनडेमोक्रेटिक है, पर तीन घंटे के लिए तो मुझे कम-स-कम ये ज्ञान मत ही बांटो। जब मैं बेबस होता हूं थियेटर से बाहर तब तो तुम मुझे कुछ सिखाने-बताने नहीं आते और जब मैं परदे के सामने मजबूत होने लगता हूं तो तुम कानून-कायदा ले आते हो। मैं कमजोर दर्शक जिंदगी की नाइंसाफी के प्रति गंभीर हो जाना चाहता हूं। यहां भी लोहार मेरा प्रतिनिधि बनता है। उस दृश्य में जब लोहार की बीवी रागिनी (मधु) अपनी पति की हो जाना चाहती है तो सीने पर ठंडा लोहा और जीभ पर तेजाब रखकर लोहार शायद यूं ही कुछ बोलता है ... "खेलो। खेलो। तुम खेलो मेरे इस शरीर से खेलो। ये जिस्म तुम्हारा है, तुम्हें इसकी भूख है, पर मेरी आत्मा यहां नहीं है। वो वहां है, जहां किसी को अभी-अभी मार दिया गया है।"

चोर रास्ते से हमारे समाज में आई पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट और पॉजिटिव थिंकिंग की बाहरी किताबें हमें सिखाने लगी हैं कि कुछ भी बुरा न देखो। आप अपने हिस्से को देखकर खुश हो जाओ। अपनी सोचो। पॉजिटिव सोचो पर स्वार्थी बनो। समाज गया तेल लेने। पर उन किताबों ने ये नहीं बताया कि समाज ही नहीं रहेगा तो हम कहां से रहेंगे। इसके ठीक विपरीत मौजूद है यशवंत लोहार। जो हर क्षण समाज और व्यवस्था में फैली गंदगी के अवसाद से ग्रस्त रहता है। राजनीति में, प्रशासन में, घरों में, पढ़ाई के संस्थानों में, चौपालों में, गलियों में, आप में और हम में भ्रष्ट हो जाने को सामूहिक रूप से स्वीकार कर लिए जाने से जो बहुत नाराज रहता है। पूंजी के वल्गर होते नाच से उसके तन-बदन में आग लगी हुई है। इसी लिए वो तेजाबी हो गया है। अब लौटते हैं टैक्सी ड्राईवर और फॉलिंग डाउन की ओर। फिल्मी कथ्य और समाजी असर दोनों ही लिहाज से टैक्सी ड्राईवर के ट्रैविस (रॉबर्ट डी नीरो) का कोई मुकाबला नहीं है। मैनहैटन के ऊंचे नाम और चमक-दमक तले ट्रैविस सबसे करीब है शहर की परेशान करने वाली असलियत के। वही जो यशवंत लोहार को परेशान करती है, वही जो फॉलिंग डाउन के विलियम फॉस्टर (माइकल डगलस) को उत्तेजित बनाए हुए है। ट्रैविस उनींदा है। लगातार टैक्सी चला रहा है। इसमें चढ़ने वालों को देखता है। पीछे की सीट पर न जाने क्या-क्या होता रहता है। जब वो उतरते हैं तो सीट की सफाई करते हुए इस पूर्व मरीन के दिमाग में शहर की बदसूरत तस्वीर और गाढ़ी होती जाती है। उसे शहर के वेश्यालय परेशान करते हैं। एक लड़की में उसे भलाई नजर आती है। वह आकर्षित होता है, खुद को पॉजिटिव बनाता है, पर यहां भी उसकी नजर में उसे धोखा ही मिलता है। चुनाव होने को हैं और सभी राजनेताओं के बयान उसे खोखले और धोखा देने वाले लगते हैं। कहीं व्यवस्था नहीं है। अमेरिका में राजहत्याओं या पॉलिटिकल एसेसिनेशन्स का ज्यादातर वास्ता ट्रैविस जैसे किरदारों से ही रहा है। जैसा हमारे यहां नाथूराम गोडसे का था। हां, उसका रोष विचारधारापरक और साम्प्रदायिक ज्यादा था, यहां ट्रैविस और विलियम सिस्टम से नाखुश हैं। जैसे कि मेरा प्रतिनिधि यशवंत लोहार है और सड़कों पर चलने वाले हम सब हैं।

विलियम फॉस्टर और फॉलिंग डाउन का जिक्र करना यहां बहुत जरूरी है। फिल्मों में जिस एंटरटेनमेंट की बात की जाती है वो टैक्सी ड्राईवर से ज्यादा फॉलिंग डाउन में है। विलियम के साथ एलएपीडी सार्जेंट प्रेंडरगास्ट (रॉबर्ट डूवॉल) की कहानी चलती है। विलियम खतरनाक है और हिंसक, वहीं जिदंगी भर डेस्क के पीछे ही बैठे प्रेंडरगास्ट में अहिंसा का भाव है। हथियार चलाने का सरकारी लाइसेंस होते हुए भी पुलिस के अपने पेशे में उसने गोली चलाने को जिंदगी के अंतिम विकल्प के तौर पर चुन रखा है। बुनियादी तौर पर यशवंत लोहार, विलियम फॉस्टर, ट्रैविस, संजय सिंघानिया, राधे और चुलबुल पांडे से बिल्कुल अलग। नैतिक चुनाव को छोड़कर आगे चलें। डिफेंस एजेंसी से निकाल दिए गए विलियम का अपनी पत्नी बेथ से अलगाव हो गया है। एक छोटी बच्ची है एडेली जिससे वो मिलने को तरस रहा है और उसी से मिलने निकला है। लॉस एंजेल्स में इस दिन विलियम पूरे सिस्टम को आड़े हाथों लेता है, जैसे कभी-कभी हमारा भी करने का मन करता है। गाड़ी खराब हो गई है। एसी नहीं चल रहा। सड़क के बीचों-बीच छोटी सी बात पर लोग बर्बर हो रहे हैं। फोन पर बात करने के लिए एक परचून की अमेरिकी दुकान से वह छुट्टे मांगता है। दुकान का कोरियाई मालिक कहता है कुछ सामान खरीदो तो छुट्टे दूंगा। ठीक वैसे ही जैसे मुझे दवाई, दूध, केंटीन और दूसरी शॉप्स पर छुट्टे नहीं दिए जाते, टॉफी दे दी जाती है। पूछता हूं क्या ये टॉफी लौटाते वक्त भी करंसी का काम करेगी तो जवाब में मुझे गैर-व्यावहारिक घोषित कर दिया जाता है। इस घड़ी में उस कोरियाई दुकानदार के सामने यशवंत लोहार होता तो भी वही करता जो आज विलियम ने किया। ऑफिस पर्सन लगने वाले ने उठा लिया बेसबॉल बैट। भूख लगने पर फास्ट फूड रेस्टोरेंट में घुसता है। ब्रेकफस्ट ऑर्डर करता है, पर उसे कह दिया जाता है कि आप पांच मिनट लेट हो गए हैं, अब तो लंच मैन्यू ऑर्डर करना होगा। चेहरे पर बेशर्मी और जुबान पर 'सर' का संबोधन लिए ये मल्टीनेशनल फास्ट फूड चेन अपने किए को भुगतती है और विलियम का रौद्र रूप देखती है, कि कलेजे में ठंडक पड़ जाती है। तभी तो फॉलिंग डाउन अच्छी लगती है। ये तो हुई सिस्टम के खिलाफ हमारी और इस फिल्म के खून के रिश्ते की बात, पर मनोरंजन के लिहाज से भी इसमें रोमांच हर पल बना रहता है। माइकल डगलस को कोई अगर प्रमुख अमेरिकी अभिनेताओं में न गिनता हो तो उसे फॉलिंग डाउन देखनी चाहिए।

सही-गलत क्या है और कितना है, इस बहस के बीच हर 26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे मौकों पर आखिर डीडी1 क्रांतिवीर ही क्यों दिखाता है, ये भी सोचने वाली बात है। आखिर मेहुल कुमार ने अपनी फिल्म में नायक प्रताप (नाना पाटेकर) के हाथों भ्रष्ट बताए गए नेताओं को अदालती न्याय के उलट गोलियां ही तो मरवाई थीं। सरकारें गांधी की अहिंसा के बीच और संविधान की सख्त लकीर के बीच क्या क्रांतिवीर के इस असंवैधानिक तत्व को देखना नहीं चाहती। या फिर मुझ कमजोर और सबल प्रताप के बीच होते कनेक्शननुमा एंटरटेनमेंट को वो भी प्रमुख मानती है।

बात साउथ की मूवीज से शुरू हुई थी, खत्म भी वहीं पर हो। शुरू-शुरू में इन फिल्मों की अजीब डबिंग भले ही परेशान करती हो और ये हिंदी फिल्मों से कमतर लगती हो पर मनोरंजन और कमर्शियल पहलुओं के लिहाज से ये फिल्में ज्यादा स्मार्ट साबित होती हैं। निश्चित तौर पर हिंसा इनमें बहुत ज्यादा होती है। अब ये हिंसा नाजायज न लगे इसलिए इस पर भावनाओं, रिश्तों, प्रतिशोध और प्रतिरोध का वर्क चढ़ाया जाता है। घटिया फिल्मों में भी ये होता है और सार्थक बातों के साथ आई मूवीज में भी। चिरंजीवी की इंद्र को ले लीजिए या फिर महेश बाबू के अभिनय वाली अर्जुन को। इनमें ऊपर जिक्र की गई फिल्मों की तरह व्यवस्था की कमजोरियां मुद्दा नहीं है। यहां मुद्दा ये है कि आम इंसान और लाइन में खड़े आखिरी दर्शक को कहां मनोरंजनयुक्त संतोष ज्यादा मिलता है। वो यहां मिलता है। इंद्र में इंद्रसेन की कहानी है। कैसे वाराणसी के घाट पर नाव खेने वाला नायक शुरू के कुछ वक्त हंसी-मजाक में आपका मनोरंजन करता है और उसके बाद ऐसे खुलासे होते हैं कि उसके लिए मन में श्रद्धा पैदा होती चली जाती है। उसका सशक्त व्यक्तित्व और देवताओं जैसी इमेज बनती चली जाती है। वजह होती है उसका दूसरों की मदद करना, अपनों के लिए बड़ा त्याग करना और वचन के लिए अपनी जान तक लड़ा देना। थियेटर आने वाले दर्शक की इन मूल्यों के साथ गर्भनाल जुड़ी है। ये और बात है कि अब इन्हें निभा पाना उसके लिए बड़ा मुश्किल हो गया है। ऐसे में अगर इंद्रसेन जैसा किरदार उसका ही होने का दावा करता है तो तीन घंटे वो खुश हो जाता है। अब आते हैं अर्जुन (महेश बाबू) पर। अपनी बहन की रक्षा करने वाला चतुर नौजवान। एक ऐसा नौजवान जो बस जीतता ही है। बहन के सास-ससुर अपनी बहु को मारकर बेटे की दूसरी शादी कर देना चाहते हैं पर अर्जुन मुझ दर्शक की तरह भोला नहीं है। दुश्मनों से दस कदम वह आगे ही चलता है।

देखिए बात सीधी सी है। हिंदी मूवीज में एक बैलेंस बनाने के लिए हीरो को पिटते और एक मोड़ पर हारते भी दिखाया जाता है, पर साउथ के फिल्ममेकर और कथाकार इस बात को समझते हैं कि एक रिक्शेवाला और एक मजदूर दिन भर की निराशा और कड़ी मेहनत के बाद एक अच्छी दुनिया में जाने के लिए अपने खून-पसीने की कमाई लगाना चाहता है। एक ऐसी दुनिया में जहां सारी मुश्किलों को हल होते दिखाया जाता हो। जहां आखिर में सब खुश हों। सब बुरों को उनके किए की सजा दी जाए और भलों को शाबासी। इसी वजह से गजनी में संजय सिंघानिया और वॉन्टेड में राधे सिर्फ मारते ही हैं, मार खाते नहीं हैं। साउथ की फिल्में कमजोर की मां इसलिए भी बनती हैं, कि हर फिल्म में सिस्टम और समाज में फैली बुराइयों को भी पिरोया जाता है। हिंदी मूवीज ने बरास्ते गजनी, वॉन्टेड और रेडी मनोरंजन के स्वर को तो पकड़ लिया है, पर भ्रष्टाचार, नैतिक मूल्य और अन्याय को उसके मूल रूप में पटकथा में जगह दे पाना उसे अभी सीखना है।

गजेंद्र सिंह भाटी