आप, दिबाकर बैनर्जी, श्रीराम राघवन और अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर आम लोगों का सिनेमा बनाते हैं, बाकी फिल्ममेकर काल्पनिक कहानियां, क्या ऐसा है?
कभी भी एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। जब मैं अनुराग के साथ काम कर रहा था तो हम 'ब्लैक फ्राइडे’, 'नो स्मोकिंग’, 'गुलाल’ और 'एल्विन कालीचरण’ येफिल्में करना चाहते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। सब फ्रस्ट्रेटेड थे। तब लगता था कि इंडस्ट्री में एक माफिया बन चुका है जो सिर्फ एक तरह की फिल्में बनाना चाहता है। हम इस बात को लेकर लड़ते थे कि यार कम से कम फिल्में तो बननी चाहिए। अलग-अलग तरीके की। मुझे लगता है कि हम अपनी तरह का सिनेमा बनाएं। जो झकझोरने वाला हो जिससे हम संतुष्ट हों। लेकिन कभी ये न करें कि कोई बना रहा है तो उसको गाली दें। कोई पोर्न फिल्म भी बनाना चाहता है तो ये उसका हक है, भले ही बाद में कोई उसकी आलोचना करे।
'बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों की सफलता चुनौती देती है कि जनता का मन समझने में हम कहां भूल कर रहे हैं?
सब फिल्में बनाते हैं, जिसको जो फिल्में बनानी है बनाओ। अब कोई बॉडीगार्ड बनाना चाह रहा है तो मुझसे तो बनेगी नहीं भई। जिससे बन सकती है उसे बनानेदो।
क्या कनविक्शन ही सबसे जरूरी है?
हर डायरेक्टर या क्रिएटिव आदमी सटका हुआ होता है। वो पागल होता है इसीलिए वो वो होता है। उसके भेजे का एक स्क्रू तो हमेशा ढीला होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि लिखने के दौरान, डायरेक्ट करने के दौरान उसे लोगों के हजारों ओपिनियन सुनने पड़ते हैं, ऐसे में उसे खुद से क्या चाहिए इस कनविक्शन को भटकने नहीं देना होता है।
आपका बैकग्राऊंड क्या है?
हजारीबाग, झारखंड में जन्मा। बहुत बुरा स्टूडेंट था। शर्मीला था। जैसा छोटे शहरों में होता है, पापा बैंक में थे तो मैं बैंकर बनना चाहता था। दसवीं वहां से की, बारहवीं डीपीएस बोकारो से और बी. कॉम में ग्रेजुएशन दिल्ली के रामजस कॉलेज से। वहां मेरा क्रिएटिव राइटिंग की तरफ झुकाव हुआ। एड फिल्में देखता था लगता कि मैं एड फिल्में लिख सकता हूं। कॉपीराइटर बन सकता हूं। ग्रेजुएशन हुई तो तय कर लिया कि बंबई जाना है। करना है या मरना है। शुरू में मेरे पास दो-ढाई हजार रुपये ही थे। एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। लड़-झगड़कर हॉस्टल ले लिया। इससे अच्छी बात ये हुई कि अगले नौ महीने तक मेरा रहने और खाने का इंतजाम हो गया। साल 2000 आया। एड फिल्में लिखी। सीरियल लिखे। सहारा का सीरियल 'कगार' लिखा। फिल्ममेकिंग को लेकर मैं सीरियस वहां से हुआ। वहां से चीजें डिस्कवर करते-करते यहां तक पहुंच गया।
'आमिर’ कैसे बनी?
मेरी चौथी या पांचवी स्क्रिप्ट 'आमिर’ थी। 2006 में लिख ली थी। स्ट्रगल शुरू हुआ। तब अनुराग 'नो स्मोकिंग’ के साथ स्ट्रगल कर रहा था। उसने कहा कि तुम्हें भी काम और पैसे चाहिए। स्ट्रगल भी करना है, तो मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म में असिस्टेंट बन जाओ। फिर हम मिलकर तुम्हारी फिल्म के लिए स्ट्रगल करेंगे। 'नो स्मोकिंग’2008 में खत्म हुई और 2007 में मुझे एक इंडिपेंडेंट प्रॉड्यूसर मिल गया 'आमिर’ के लिए। एक बात मैंने तय कर रखी थी कि कॉरपोरेट हाउस के साथ ही फिल्म करनी है। क्योंकि दौ सौ लोगों की फिल्म को बनने के बाद कोई हाथ भी न लगाए तो किसी का भला नहीं होता। फिर यूटीवी स्पॉटबॉय आ गया। मैंने अनुराग को कहा कि मेरी फिल्म के क्रिएटिव प्रॉड्यूसर बनो। मैं उसे साथ इसलिए रखना चाहता था क्योंकि उसने इंडस्ट्री ज्यादा देखी है। तो 2008 में फिल्म बनी और रिलीज हुई।
'नो वन किल्ड जैसिका’ कैसे लिखी?
मैं स्पष्ट था कि इस फिल्म में मुझे किसी पर आरोप नहीं लगाने थे। न ही कोई अपील या जांच करनी थी। इस घटना ने पूरे मुल्क का ध्यान बटोरा। लोग कहने लगे कि हम भी टैक्सपेयर हैं भई, ये बात तो गलत हुई। हमें अच्छी नहीं लगी। हम तो कैंडल लेकर जाएंगे यार। हर दिन तो कोई कैंडल लेकर या मैं हूं अन्ना की टोपी पहनकर घर से निकलता नहीं है न। ये बड़ी ड्रमैटिक चीज थी। डर ये लगा कि इस कहानी के सब पहलुओं को साथ कैसे रख पाऊंगा। स्क्रिप्ट की बारहवीं स्टेज में पता लगा कि स्टोरी कहां जा रही है। कई लोगों से मिला।सबरीना से भी। फिर एक महीना इस प्रोसेस से अलग होकर घर गया। लौटा और लिखना शुरू किया।
कोई फिल्म बनाना चाहता है तो शुरुआत कैसे करे?
पहले तो आपके पास एक कहानी हो, स्क्रिप्ट हो। स्क्रिप्ट होगी तो किसी प्रॉड्यूसर के पास जा सकते हैं। और सीखते-सीखते फिल्म बना सकते हैं। अपने पर भरोसा रखना बहुत जरूरी है। यकीन जानिए आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा रास्ता ये है कि किसी डायरेक्टर को असिस्ट करें और साथ-साथ में लिखते रहें। और जब डेढ़ दो साल बाद सारे तौर-तरीके जान जाएं तो अपनी फिल्म बनाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी