रविवार, 13 जनवरी 2013

मैंने कुमुद मिश्रा को ‘इल्हाम’ में देखा और बस रो दियाः मंत्र

रंगमंच अभिनेता, टेलीविजन प्रस्तोता, रेडियो जॉकी, फिल्म कलाकार और स्टैंड अप कॉमेडियन मंत्र से मुलाकात हुई। अपने मनमोहक अंदाज में इस लंबी बातचीत में वह छूते चले पिया बहरुपिया, कॉमेडी सर्कस, रेडियो, दिनेश ठाकुर, ओशो, थियेटर, अतुल कुमार, सखाराम बाइंडर, शाहरुख खान, दर्शन, पीयूष मिश्रा, बॉलीवुड, ब्रॉडवे बनाम पारंपरिक रंगमंच, अश्लीलता, बर्फी, कॉमेडी, मिस्टर बीन और जीने का फलसफे जैसे कई विषयों को। धैर्य रख सकें तो पढ़ें।
 
Mantra
सर एंड्रयू एग्यूचीक सीधे बंदे हैं। वह ऑलिविया से शादी करना चाहते हैं, पर सब जानते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। वह बुद्धिमान हैं, बहादुर हैं, भाषाओं के जानकार हैं, नाचना जानते हैं, रंगत वाले कपड़े पहनते हैं, नौजवान हैं। मगर उनके हालात उनकी छवि किसी मूर्ख की सी बना देते हैं जैसा कि हमारी आदत होती है, मुसीबत में पड़े किसी पर हंसना। विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ (वॉट यू विल) में एंड्रयू पर हम हंसते हैं। मगर पूरणजीत दासगुप्ता की परिस्थितियां बेचारगी वाली नहीं हैं। हम उन पर हंसते नहीं हैं, बल्कि वह हमें हंसाते हैं। कोई बारह साल ‘रेडियो मिर्ची’ के पहले ब्रेकफस्ट शो में रेडियो जोकींग करते हुए भी, बाद में भी रेडियो पर ‘बजाते हुए’ लगातार, फिर दिल्ली के गलियारों में 2003 में बैरी जॉन से थियेटर सीखने के बाद बहुत सारे प्ले करते हुए, ‘भेजा फ्राई-2’ और ‘हम तुम और शबाना’ जैसी कुछ फिल्मों में सहायक भूमिकाओं में, टेलीविजन पर भांति-भांति के शो की एंकरिंग करते हुए, ‘कॉमेडी सर्कस’ में स्टैंड अप कॉमेडी करते हुए, थियेटर को समर्पित अतुल कुमार द्वारा निर्देशित शेक्सपियर के हिंदी रूपांतरित प्ले ‘पिया बहरुपिया’ में एग्यूचीक को निभाते हुए... वह लगातार हंसा रहे हैं। असल जिंदगी में भी जब उनसे मिलता हूं तो उनका स्वर, आभा, व्यक्तित्व इलाइची के दानों की गंध से भी हल्का और भीतर समाहित करने लेने वाला होता है। जीवंतता सुलगते लोबान की खूबसूरती लिए सुलगती है। लंबी बातचीत के दौरान बीच-बीच में वह हंसाने की कोशिश करते हैं, हालांकि इससे जवाब कट-कट जाते हैं, पर उनके इरादे नेक होते हैं। कोई बारह-चौदह साल पहले जबलपुर के ओशो आश्रम में उन्होंने सन्यास ले लिया था। वहां उन्होंने ‘मंत्र’ नाम धारण किया। इसीलिए 2000 से शुरू हुए उनके कार्यक्षेत्र में उन्हें मंत्र नाम से ही जाना जाता है। उच्चारण हालांकि मंत्रा हो चुका है। हमें हिंदी नाम को भी पहले अंग्रेजी में लिखकर फिर हिंदी में पढ़ने की कोशिश करने की आदत जो है। मंत्र की मां चंद्रा दासगुप्ता एक अभिनेत्री रहीं। पिता प्रबीर दासगुप्ता कोलकाता में ‘दासगुप्ता पब्लिकेशंस’ चलाते थे। हालांकि मंत्र बातचीत में प्रमुखता से मां के बारे में बात करते हैं। वह खुलकर हर मुद्दे पर बात करते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाले लगते हैं। कहते हैं कि भाषा कोई भी हो बस काम अच्छा होना चाहिए। उन्हें हीरो बनने या मुख्य भूमिका करने की कोई लालसा नहीं है। बोलते हैं, “कैरेक्टर आर्टिस्ट हूं, मुझे हीरो नहीं बनना। मेरे आदर्श शाहरुख नहीं हैं, इरफान खान हैं”। फिलहाल ‘कॉमेडी सर्कस’ के मौजूदा संस्करण में हिस्सा लेते, कुछ टीवी शो की एंकरिंग करते, ‘पिया बहरुपिया’ का मंचन देश के अलग-अलग शहरों में करते हुए... मंत्र अपने तीन नए प्रोडक्शन में व्यस्त हैं। प्रस्तुत है उनसे हुई ये बातचीतः

तो क्लाउन आपका स्कूल ऑफ थियेटर है, कुछ बताइए आपकी इस दुनिया के बारे में।
2008 से ही मैं अतुल कुमार से जुड़ गया था। उनके स्कूल ऑफ थियेटर को पसंद करता हूं। जो इस एक्सट्रीम पर हैं जैसे रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी। इनका ‘हैमलेट - द क्लाउन प्रिंस’, ये जो थियेटर क्लाउन वाला करते हैं जिसमें शेक्सपीयर की बड़ी से बड़ी ट्रैजेडीज को वो क्लाउन के जरिए पेश करते हैं, ये मेरा स्कूल ऑफ थियेटर था। मैंने ज्यादातर अंग्रेजी थियेटर किया है और अंग्रेजी थियेटर का मार्केट है भी और नहीं भी। इंडिया हैबिटैट सेंटर से लेकर कामानी से लेकर एलटीजी से लेकर चिन्मय मिशन तक.. दिल्ली में कोई ऐसा हॉल नहीं है जो हमने छोड़ा हो। 60-65 प्रतिशत तक मेरे प्ले अंग्रेजी में रहे हैं। इसकी एक अलग ऑडियंस है, जो कमर्शियल थियेटर में नहीं गिनी जाती है, हालांकि मैं हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुका हूं। हिंदी मेरी उत्तीर्ण भाषा है, सबसे ज्यादा मैं हिंदी का ही उपयोग करता हूं लेकिन अंग्रेजी पर मेरी पकड़ उतनी ही ज्यादा है और ये जो थोड़ा चेहरा मिला है फिरंगियों माफिक तो इसका भरपूर फायदा डायरेक्टर साहब उठाते हैं।

और नाम आपका मंत्र है...
हां, और नाम मंत्र है तो आदमी कन्फ्यूज हो जाता है कि भइया ये आदमी है क्या, गोरा-चिट्टा लग रहा फिरंगी है, नाम मंत्र है, बोल शुद्ध हिंदी रहा है, आवाज अमरीश पुरी जैसी है, क्या करेगा ये? ...थियेटर करते मुझे 12 साल हो गए। लेकिन ‘पिया बहरुपिया’ मेरा सबसे बड़ा हिंदी प्रोडक्शन रहा है। इसके अलावा मेरे अंग्रेजी प्रोडक्शन बहुत बड़े रहे। अतुल के साथ काम करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। वो अगर मुझे प्रोडक्शन में भी ले लेते तो मैं अपने बिजी शेड्यूल में से टाइम निकालकर प्रोडक्शन भी देखता, क्योंकि अतुल के आस-पास बहुत कुछ देखने को मिलता है, समझने को मिलता है। हालांकि उनका डायरेक्शन का स्टाइल बहुत अलग है। वह बेहतर एक्टर हैं, ही इज अ ब्रिलियंट एक्टर ऑन स्टेज। और एक डायरेक्टर के तौर पर वह सब-कुछ एक्टर्स पर छोड़ देते हैं। ‘पिया बहरुपिया’ भी वैसे ही बना। हम पे ही छोड़ दिया और हम पूछते रहे कि सर करें क्या? बोले, कल्ल लो। तो अच्छा कर लेते हैं, तो हमने अपने हिसाब से किया। थोड़ा ये, थोड़ा वो। सब इम्प्रोवाइजेशन था। बाकी मेरा अपना एक अलग स्कूल ऑफ थॉट है, अलग स्कूल ऑफ थियेटर है, वो मैं करूंगा आने वाले टाइम में, मेरे अपने तीन प्ले तैयार हो रहे हैं। उन पर काम कर रहा हूं।

आदमी एक हद के बाद सीख चुका होता है, या सीखता रहता है?
नहीं, नहीं... हमेशा सीखता रहता है। थियेटर में तो हमेशा वही हालत रहती है जो कक्षा में एग्जाम देने वाले बच्चे की होती है। कि क्या होगा? बड़े से बड़ा एक्टर... वहां जाकर जबान फिसल जाए... फंबल कर जाए, कितना भी बड़ा आपका कॉन्फिडेंस क्यों न हो। और मेरे लिए तो हर प्ले के साथ कुछ नया हो जाता है। टीवी का क्या है एक-बार कर दिया तो वही रहता है, 25 साल बाद भी ‘शोले’ में बच्चन साहब को देखेंगे तो उनका हाथ वैसा ही रहेगा लेकिन अगर वो प्ले होता तो अलग हो जाता। बच्चन साहब कुछ और कर रहे होते, शाहरुख कुछ और कर रहे होते।

स्टेज पर उतरने के बाद नर्वस होते हैं स्कूली दिनों के माफिक, लेकिन जब एक बार उतर जाते हैं तो खुलकर खेलते हैं?
अरे, उसके बाद तो... मैं इतना मानता हूं कि एक बार स्टेज पर उतरने के बाद डायरेक्टर मेरा क्या कल्ल लेगा। डायरेक्टर का सबसे बड़ा डर भी रहता है कि ऐसे एक्टरों से पाला न पड़े लेकिन मैं कभी साथी कलाकारों को परेशान करने वाला रिस्क, चेंज या एक्सपेरिमेंट नहीं लेता। ऐसी कोई लाइन नहीं बोल दूंगा कि मेरे सामने जो एक्टर है वो घबरा जाए कि ये क्या बोल गया। लेकिन खेलने का बड़ा मौका मिलता है। थियेटर में मेरे लिए सबसे जरूरी चाह ये है कि मुझे पुराने जमाने वाला ख्याल आ जाता है कि सामने ऑडियंस बैठी हैं और आप उनके सामने पेश कर रहे हो कुछ। ये कहीं हिल के जाएगा नहीं ये आदमी...। टीवी पर वह मुझे रिमोट से बंद करके उठ सकता है, ये (थियेटर ऑडियंस) उठ कर जाएगा नहीं, मैं रोक सकता हूं इसको। मुझे ये सब करने में बड़ा मजा आता है।

लेकिन इतने किस्म की पहचान आपकी हैं, कहीं न कहीं तो दिक्कत होती होगी? कहीं तो सोचते होंगे कि मैं इस आइडेंटिटी का अपने से करीबी ताल्लुक मानता हूं? जैसे अब लग रहा है कि आप थियेटर को सबसे ज्यादा करीब पाते हैं।
नहीं गजेंद्र जी, मैं क्या बताऊं। मैं ये कहता हूं कि मैं एक कलाकार हूं। मुझे मीडियम से इत्ता फर्क नहीं पड़ता। अपने करियर के ज्यादातर वक्त मैं रेडियो पर रहा। 12 साल रेडियो किया। 10 साल थियेटर किया। तकरीबन 6 साल से टेलीविजन कर रहा हूं मैं। फिल्में कर रहा हूं 5-6 सालों से लेकिन मेरे लिए कोई बदलाव नहीं रहा। हां, रेडियो पर मेकअप नहीं लगाना पड़ता था। बस यही फर्क था। रेडियो में चड्डी बनियान पहनकर पहुंच गए, जो भी बोल दिया बोल दिया, लोगों को मजा आता था। आपको वो नहीं करना पड़ता था कि थोड़ी बॉडी बनाएं, थोड़ा फिट रहें, फेशियल कराने जाएं, थोड़ा शेव करें। मैं तो सर एक्टर नहीं होता, मैं कभी दाढ़ी नहीं बनाता। नेचुरल चीजें रोकने में मेरे को बड़ा तकलीफ होती है। मैं दाढ़ी-बाल नहीं काटता, लेकिन अब एक्टर हूं तो करना पड़ता है। कोई मीडियम मेरे लिए खास नहीं है, कोई मीडियम मेरे लिए दूसरे से ज्यादा उत्तीर्ण नहीं है। हां, रेडियो से प्यार करता हूं क्योंकि रेडियो ने बहुत ज्यादा सिखाया है। ये नाटक करना भी एक तरह से रेडियो से ही शुरू हुआ। रेडियो पर प्ले हुआ करते थे, ‘हवामहल’ प्रोग्रैम आता था। स्टूडेंट होते थे हम तब। ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में हम लोग साउंड डिपार्टमेंट में हुआ करते थे। आज हमारे पास हजार चीजें हैं। आपको किसी की भी आवाज चाहिए, दुनिया में किसी की आवाज चाहिए, बटन दबाया आ गया। उस टाइम पे मेरे को आज भी याद है हमारे सीनियर थे बोस साहब। वो विनोद के किरदार की आवाज निकालते थे तो... हमारे पास क्यू शीट आती थी लंबी सी, कि मतलब 2 मिनट 35 सेकेंड के बाद चहल-कदमी होगी। वो चहल-कदमी का मेरे पास क्यू आता था तो ईंट लगाते थे और ऐसे रस्सी बांधते थे, वेट करते थे, जैसे ही लाल लाइन वहां पर जली, चहल-कदमी शुरू, खटक-खटक-खटक-खटक... बीच-बीच में गड़गड़ाहट के लिए एल्युमीनियम शीट बजाते थे। वो रेडियो थियेटर ही था एक तरह से। एक तरह से आप बना रहे थे, इट वॉज अ थियेटर ऑफ माइंड। कहते हैं न नेत्रहीन का चलचित्र है रेडियो। जो आप पेंट कर सको एक पिक्चर श्रोता के लिए वही मजेदार बात है।

मगर आपकी ‘कॉमेडी सर्कस’ वाली पहचान भी हावी है, लोग स्टेज पर प्ले के बाद कामेडी करने की रिक्वेस्ट करने लगते हैं।
‘कॉमेडी सर्कस’ चल गया यार। मतलब, आप विश्वास नहीं करेंगे, मैंने ‘कॉमेडी सर्कस’ को पांच सीजन लगातार ना बोला है। क्योंकि मेरा प्रण था कि मैं कभी कोई रिएलिटी शो नहीं करूंगा। ये लोग लगातार मेरे पीछे पड़े रहे जबकि मेरा फिक्स था कि एक्टिंग के लिए फिल्म्स और थियेटर। टेलीविजन, सिर्फ एंकरिंग। बहुत सारे शो मैंने एंकर किए हैं। मैं चैनल वी का वीजे था। बिंदास टीवी पर वीजेइंग करता था। ज्यादातर मैं वीजे ही था, पर ये लोग पीछे पड़े। फिर एक बार तो लिटरली हमारे जो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर हैं विपुल शाह और निकुल देसाई, उनने आए और बोला कि (बेहद ड्रमैटिक अंदाज में) “देखो बेटा, छोटी सी इंडस्ट्री है, कहीं न कहीं टकराएंगे, अच्छा नहीं लगेगा ...तब हम ना बोल दें”। मैंने कहा, सर आप धमकी दे रहे हो क्या। “...हां, ...यही समझो”। (हंसते हुए) मजाक कर रहे थे, फिर उन्होंने मुझे समझाया।

जैसे नसीरुद्दीन शाह हैं, शबाना आजमी हैं। बाद के इंटरव्यू में इन्होंने एक तौर पर स्वीकार किया कि “जितनी जान हम थियेटर के प्लेज में लड़ाते थे, बीच में हमारे पास जो ऐसी कमर्शियल फिल्में आईं जो बिल्कुल सिर के ऊपर से निकलने वालीं थीं, उनमें जब हमने काम किया तो उतनी मेहनत नहीं की। हमने सोचा कि जब उतनी ही ऊर्जा की जरूरत है तो ऊपर-ऊपर से ही करके निकल जाते हैं”। आपके परफॉर्मेंस में ‘कॉमेडी सर्कस’ में ऐसा नहीं नजर आता, आप अपने परफॉर्मेंस में अनवरत हैं, वहां स्क्रिप्ट चाहे कितनी भी ढीली हो।
‘कॉमेडी सर्कस’ थियेटर ही है। उसे करने के लिए मेरे पास सबसे बड़ा कारण ही ये है कि वो थियेटर है। वो उसको कैप्चर करके टीवी पर दिखा रहे हैं, उसका मेरे से कोई लेना-देना नहीं है। मैं उस वक्त वहां मौजूद उन चालीस-पचास लोगों और सामने बैठे अर्चना-सोहेल के लिए परफॉर्म कर रहा हूं। आखिरकार वो एक्ट दस-पंद्रह मिनट के प्ले ही तो हैं।

...लेकिन जो स्क्रिप्ट आपको दे रहे हैं, वो आपके पसंद न आए, कभी बचकानी लगे?
उसमें आप कुछ नहीं कर सकते। ‘कॉमेडी सर्कस’ फैक्ट्री है। वहां मशीन से जैसे प्रोडक्ट निकलते हैं वैसे प्रोडक्ट निकलते हैं। शो के राइटर्स सात-सात दिन कमरे से बाहर नहीं निकलते हैं। मैं उनको जानता हूं। मेरे चहेते राइटर हैं वकुंश अरोड़ा, कानपुर का लड़का है। इतना बेहतरीन राइटर है। वो एक ही चीज बोलता है, “यार और कोई टेंशन नहीं है, पर बाहर निकलूं और देखूं, तो कुछ नया लिखूं न”। वो कमरे से बाहर नहीं निकलते। हफ्ते के सातों दिन अंदर ही रहते हैं और मशीन की तरह लिखते हैं। कैसे लिख लेते हैं मेरे को भी नहीं मालूम। और वहीं पर से ये हल्की स्क्रिप्ट आती हैं। ऐसे में आपको जुगाड़ बिठाकर, कुछ नया-पुराना लगाकर एक कलाकारी दिखाकर, अगर वो आठ नंबर की है तो उठाकर नौ पर पहुंचाना पड़ता है। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ये शो ही ऐसा है। उनको बनाना है। चैनल कितने साल से चला है? पांच साल से चल रहा है..।
Mantra performing in 'Piya Behrupiya.'

फिल्मों में अगर ऐसे रोल आएं तो, या उनमें रुचि नहीं है?
नहीं, किए हैं मैंने पांच-छह रोल। लेकिन फिल्मों की दुनिया ही अलग लगी। एक थियेटर एक्टर के तौर पर मेरे लिए बड़ा मुश्किल काम रहा। क्योंकि आप समझते हैं, थियेटर की जैसे शुरुआत होती है, मसलन, ‘पिया बहरुपिया’। फरवरी (2012) में हमने प्ले बनाना चालू किया। किरदार को डिवेलप किया। लगातार लाए, लाए, लाए और प्ले के महीने भर पहले आप किरदार बन गए। प्ले के दिन तो आप अपने आपको जानते ही नहीं, किरदार को ही जानते हैं। और प्ले शुरू होता है और आखिर तक जाता है, एक ग्राफ रहता है। फिल्मों में जिस दिन आया तो मेरी जान ही निकल गई, पहले दिन ही क्लाइमैक्स शूट। ओपनिंग सीन, आखिरी दिन। मैं बोला ऐसे कैसे होगा, मुश्किल है थोड़ा। तो बोले, “ऐसे ही होगा सर, हमारे पास यही लोकेशन पहले है तो क्लाइमैक्स ही शूट होगा”। मैंने बोला, हीरो-हिरोइन मिले नहीं, रोमैंस हुआ नहीं, तुम पहले शादी का सीक्वेंस शूट कर रहे हो, फिर उनका कॉलेज में मिलना दिखाओगे, फिर कहीं बीच में रोमैंस करोगे। तो फिल्मों के साथ बड़ा मुश्किल है। और एक सीन डिवेलप होता है प्ले में। अगर कोई सीन है, मां मर गई... तो पहले मां मरेगी, फिर बेटे को मालूम पड़ेगा, फिर बेटा रिएक्ट करेगा, फिर वो कुछ करेगा। जबकि फिल्म के अंदर सीधे, मां मर गई... । वो फीलिंग जब तक कि आती है, तब तक तो कट है। मैं ये नहीं कहता कि फिल्म के एक्टर्स कुछ कम हैं। मैं बोलता हूं फिल्म के एक्टर्स को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, टु बी ऑन द मूमेंट, ऑन द स्पॉट। तुरंत, शिफ्ट। मैंने फिल्म एक्टर्स को देखा है, मैंने थियेटर एक्टर्स को भी देखा है, प्ले से पहले लगे पड़े हैं, लाइनें रट रहे हैं। वहीं फिल्म वाले मजे से सुट्टा मार रहे हैं, आने-जाने वाले को ...और बढिय़ा सब, क्या हाल-चाल... फिर आवाज आई... मां मर गई और वो मां-मां करके रोने लगता है। औचक कट, औचक शिफ्ट।

कोई 30-35 साल पहले जैसे हमारी फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं (कैरेक्टर आर्टिस्ट) हुआ करती थीं। जो ‘मिली’ में गोपी काका थे, ‘मदर इंडिया’ में लाला थे, या वही ‘गंगा-जमुना’ में लाला बने थे और पॉजिटिव लाला बने थे, और जो ललिता पंवार के रोल हुआ करते थे, निरुपा रॉय के हुआ करते थे, उनमें एक किस्म से इमोशंस की इंटेंसिटी थी जो बाद में वैसे किरदारों के लिए इतनी क्लीशे बना दी न... कॉमेडी से भी बनी.. कि देखो मां है तो रोती ही रहती है। लेकिन उन अदाकारों की जो एक्टिंग हुआ करती थी, जैसे आप कह रहे हैं न कि चुटकी बजाते बोलोगे और रोने लगेंगे कि मां मर गई.. तो क्या उस मामले में वो दिग्गज नहीं थे। उन्हें आज कितना कम पहचाना जाता है?
अरे, कैरेक्टर आर्टिस्टों के बल पर तो फिल्में चलती हैं और उन्हीं को सबसे कम पहचान मिलती है। आज आप देखिए हीरोज को जरूरत है कैरेक्टर आर्टिस्ट की। अकेले नहीं संभाल पा रहे। कैरेक्टर आर्टिस्ट एक रिएलिटी लाते हैं। एक असलियत लाते हैं फिल्म के अंदर, क्योंकि हीरो तो हीरो ही लगता है।

जैसे ‘रॉकस्टार’ में कैंटीन वाले खटाना (कुमुद) का रोल न होता तो रणबीर के किरदार में भी बात नहीं आती...
कुमुद जी से मेरी बातचीत होते रहती है वक्त-वक्त पे। उनका मैंने लास्ट प्ले देखा ‘इल्हाम’मानव कौल का प्ले था। सर मैं रो दिया। मैं स्टेज पर रो दिया। मैं बैकस्टेज गया उनसे बात करने के लिए मैं बात नहीं कर पाया मैं रो दिया। मैं इतना भावुक हो गया कि मैंने बोला ये आदमी असली रॉकस्टार है। मेरे ख्याल से रणबीर ने बहुत सीखा होगा उनसे। लेकिन कुमुद जी को आप फिल्म में देखिए... और कुमुद जी को आप स्टेज पे देखिए। दोनों में अलग इंसान नजर आएंगे आपको। स्टेज एक अलग दुनिया है सर।
Kumud Mishra (right) in 'Ilhaam'. Photo Courtesy: Kavi Bhansali
मैं अगर एक आम आदमी की तरह समझना चाहूं। कि मुझे कुछ नहीं पता थियेटर के बारे में। मैं अपनी जिंदगी और दो वक्त की रोटी में उलझा रहता हूं, बस मनोरंजन के लिए कभी घुस जाता हूं फिल्मों में। कभी थियेटर का नाम अखबार में पढ़ लेता हूं ... कि ये थियेटर वाले हैं, ऐसा... वैसा। इस बीच आखिर ऐसा क्या है थियेटर में कि लोग इतनी तारीफ करते हैं? थियेटर ही सब-कुछ है, फिल्में उतनी नहीं हैं?
आम आदमी को सबसे ज्यादा मजा थियेटर में इसलिए आता है... दो कारण मानता हूं मैं इसके। एक तो मुझे एंटरटेन किया जा रहा है, ये शाही फीलिंग आती है, ठीक है...। कि मेरे लिए हो रहा है कुछ काम। एक महत्व महसूस होता है। कि ये एक्टर मुझसे बात कर रहा है। फिल्म के अंदर वो स्टार है, वो कैमरे से बात कर रहा है। यहां पर वो मुझसे बात कर रहा है, मेरी आंखों में आंखें डालकर बात कर रहा है। एक वो वाली फीलिंग सबसे ज्यादा जरूरी है। दूसरी सबसे बड़ी बात है, आप टच कर सकते हो थियेटर को। आप छू सकते हो, महसूस कर सकते हो। जबकि फिल्मों के अंदर वो नहीं होता, फिल्मों में अगर हवा चली है तो वहां चली है। थियेटर में अगर मैं बोल रहा हूं कि ये चली हवा, तो सामने वाले को अंदर महसूस होने लगता है। वो जो लाइव सा इसका तत्व है, वो आपको केवल थियेटर में मिल सकता है। अतुल कुमार का मैं उदाहरण देता हूं आपको। हाल ही में वह दक्षिण अफ्रीका में थे। जोहानसबर्ग में प्ले कर रहे थे, ‘नथिंग लाइक लीयर’। किंग लीयर का रूपांतरण। उसके अंदर एक सीन है। जहां पर उसकी जिंदगी में कुछ तूफान आया है और वो तूफान से कहता है, अंग्रेजी में डायलॉग है कि जिसका मतलब है कि “मेरी जिंदगी में तू जब से आया है, मेरी जिंदगी में खलबली मचा दी है। ए तूफान तू कब तक चलेगा”। जिस वक्त वो ये डायलॉग बोल रहे थे, जोहानसबर्ग में, स्टेज के ऊपर बने कांच के गुंबद के ऊपर ओले गिरने लगे। और यहां पर उन्होंने कहा कि “ऐ तूफान ..” तो वहां घड़ घड़ घड़.. मतलब असली। अतुल बोले, “मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए और ऑडियंस में दो-तीन की फ* गई”। बोले, “ये क्या हो गया”। लाइव फील... वहां पर हो गया तो हो गया। आपके डायलॉग बोलते-बोलते, आप बारिश की बात कर रहे हो बारिश हो गई, तूफान की बात कर रहे हो तूफान हो गया, फिल्म में नहीं हो सकता। फिल्म में क्रिएट किया जाता है, लेकिन वो माहौल जो लाइव होता है। आपको मजा आने लग जाता है कि यार केवल एक्टर और थियेटर ही नहीं, पांचों तत्व जो हैं वो उस वक्त एकजुट हो गए हैं। तो हवा मेरी बात सुन रही है, पानी मेरी बात सुन रहा है, ये फीलिंग आती है।

थियेटर के इतिहास में चाहे भारत में ले लीजिए, क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय... ऐसे कौन से तानसेन या बैजू बावरा हैं जो दीया जला देते हैं गाके, या दिया बुझा देते हैं?
मैं गिरीष कर्नाड साहब का बहुत बड़ा फैन हूं। उनके लेखन का बहुत कायल हूं। भले ही वो ‘अग्निबरखा’ हो जिसमें मैंने किरदार निभाया था ब्रह्मराक्षस का, उसका किरदार फिल्म में प्रभुदेवा जी ने निभाया था। और प्रभुदेवा जी को लोग याद रखते हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मराक्षस का किरदार निभाया था। सब ने अपने अलग-अलग किस्म के ब्रह्मराक्षस बनाए हैं। या गिरीष कर्नाड साहब का ‘तुग़लक’। मैं तो मोहम्मद-बिन-तुग़लक को वैसे ही याद करता हूं जैसे कर्नाड साहब ने दिखाया है। मैंने इतिहास नहीं पढ़ा, मैंने कर्नाड साहब को पढ़ा। वहां से मुझे बहुत कुछ उठाने को मिला, सीखने को मिला क्योंकि वो मेरी जेनरेशन के नहीं हैं पर कम से कम उन्हें ही मैं देख सकता हूं, मैंने तानसेन को तो देखा नहीं, जहां तक नाटक का सवाल है। उसके बाद अगर आप संगीत पर आ जाएं, लाइव परफॉर्मेंस में जो जादू क्रिएट करते हैं, वो अपने आप में फिर बेताज बादशाह हैं आरिफ लोहार साहब पाकिस्तान के। उनका एक लाइव परफॉर्मेंस देख लिया मैंने.. (सरप्राइज होते हुए) कौन है वो आदमी.. कहां से आया है? उनके जो वालिद साहब हैं आलम लोहार वो अपने आप में संगीत के सम्राट हुआ करते थे। संगीत थियेटर का अंतनिर्हित अंग है। मैं आजकल हर चीज को संगीत के साथ जोड़कर देखता हूं। कि कहीं न कहीं इन दोनों का कॉम्बिनेशन मिल जाए थियेटर और म्यूजिक का, तो असली जादू पैदा होता है।

और कौन हैं जिनकी परफॉर्मेंस नहीं देखी तो क्या देखा?
दिनेश ठाकुर साहब, दुर्भाग्य से अब वह नहीं हैं। मुझे याद है, मैं 2006 में रेडियो कर रहा था और कर-कर के गला बंद हो गया और ऐसा बंद हुआ कि आवाज की सिसकी तक बंद हो गई। मैंने महीने भर की छुट्टियां ले ली थीं। करने को कुछ था नहीं तो उस वक्त तकरीबन एक हफ्ते तक मैंने दिनेश ठाकुर साहब का पूरा फेस्टिवल देखा और उनके अलग-अलग नाटक देखे। सिंपल। कोई ताम-झाम नहीं। कि कहीं से लाइट आ रही है, कि कहीं से म्यूजिक आ रहा है, कि कहीं से कुछ विजुअल डिलाइट आ रहा है। कुछ नहीं, बस स्टोरीटेलिंग। साधारण स्टोरीटेलिंग। उनको देख बड़ा मजा आया। एक रियल एलिमेंट। ये दिनेश ठाकुर, कुमुद मिश्रा आम इंसान दिखते हैं। स्टार्स नहीं दिखते हैं। मैं एक तरीके से कभी-कभी खुश होता हूं कि यार ऊपर वाले ने सूरत दी है, फिर मैं ये सोचता हूं कि इस सूरत के साथ एक आम इंसान का किरदार निभाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। जबकि कुमुद जी के लिए या दिनेश जी के लिए ये बाएं हाथ का खेल था। क्योंकि कहते हैं न, इफ यू लुक द कैरेक्टर, हाफ द वर्क इज डन। नाना पाटेकर को देखा, मराठी प्ले करते हुए। अरे, उस आदमी के तो मैं पैर धो-धो के पिऊं। ‘सखाराम बाइंडर’ देखा मैंने उनका। बाप रे, मतलब, मुझे नहीं लगता कि सखाराम उनसे बेहतर कोई कर सकता है। ‘सखाराम...’ सयाजी शिंदे ने किया, वो भी थियेटर किया करते थे, मतलब ये लोग रियल लगते हैं। मैं ‘सखाराम बाइंडर’ करूंगा तो मेरे को किसी अलग तरीके से सखाराम को पेश करना पड़ेगा। मैं नहीं लगता वो बीड़ी फूंकने वाला। अगर मुझे वीजे का रोल मिलेगा तो बड़ा आसानी से कर लूंगा। लेकिन वहीं पर तो एक कलाकार, वहीं पर तो एक अभिनेता का काम शुरू होता है। मुझे ऐसे किरदार मिलें इसका मैं इतंजार कर रहा हूं। भले ही वो फिल्मों में हों, भले ही वो थियेटर में हों।

कुछ शानदार रोल वाली फिल्में करने की इच्छा नहीं है?
उस किस्म के किरदारों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं। अभी तक जो भी फिल्में करी थीं अधिकतर में मेरा सहयोगी किरदार था, हीरो के बेस्ट फ्रेंड वाला रोल था, अब वही रोल आ रहे हैं। क्योंकि फिल्में बड़ी सीमित हैं। कि जो चलता है वही चलने दो। कोई भी एक्सपेरिमेंट करने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए खान साहब चलते हैं और चलते ही हैं। और सही बात है। बॉलीवुड जो है क्रिएटिव आर्ट को दिखाने से ज्यादा बिजनेस मीडियम है। आज आप सलमान खान साहब की ‘एक था टाइगर’ को लेकर 400 करोड़ कमा सकते हैं, वहीं सलमान खान अगर मंत्र को ले लेते तो 4000 रुपये नहीं कमा पाते, या चार लाख नहीं कमा पाते। क्योंकि स्टोरी ऐसी कोई खास नहीं थी। वो सलमान खान थे इसलिए चली। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री कला को पलट के नहीं देगी केवल बिजनेस करेगी तो कब तक चलेगा ये। इसी लिए जो ये डायरेक्टर्स की नई खेंप है... ये कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये भी अब उसी सेक्टर का हिस्सा बन गए हैं। सब आते हैं, एक ऑफ बीट फिल्म बनाते हैं और उसके बाद इंतजार करते हैं कि एक बड़ा डायरेक्टर उन्हें मिल जाए क्योंकि सबको रोटी कमानी है।

जो आते हैं वो पहले सिस्टम और स्टार्स के खिलाफ खरी-खोटी सुनाते हैं, पर उन्हीं के साथ फिल्में डिस्कस करने लगते हैं, पूछने पर कहते हैं कि यार क्या करें उनके साथ भी काम करना पड़ेगा।
सबको कमर्शियल हिट चाहिए। बहुत कम ऐसे... अतुल कुमार की बात करता हूं। इस मामले में मैंने उनके जैसा आदमी मंच पर नहीं देखा। उन्होंने ‘तक्षक’ फिल्म में काम किया था। उन्हीं के साथी हैं रजत कपूर, विनय पाठक, रणवीर शौरी, कोंकणा सेन शर्मा। आज आप उन सबको देखते हैं, वक्त निकाल कर ... वो करते हैं। अतुल कुमार ने जीवन रंगमंच को समर्पित किया है। इस बात पर मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूं। इसलिए जब मुझे उन्हें बोलना होता है कि दो नई फिल्में मेरे को मिली हैं तो मैं गर्व के साथ नहीं जाता हूं उनके पास, शर्म के साथ जाता हूं, सिर झुकाकर जाता हूं कि सर... फिल्में... मिली हैं... करता .... हूं मैं... जाके। वो भी कहते हैं, ...ठीक है बेटा, करो। करो सबका अपना-अपना है। न कि ये कि क्या बात कर रहा है दो नई फिल्में मिली हैं, वाह। तो बहुत कम हैं जो थियेटर को समर्पित हैं। इसलिए मैं परेश रावल साहब को बहुत मानता हूं। जैसे उनकी ‘ओ माई गॉड’ आई है वो उन्हीं का प्ले है ‘किशन वर्सेज कन्हैया’, उसी पर बनी है। परेश रावल या नसीरुद्दीन शाह ऐसे हैं जिन्होंने बैलेंस बनाकर रखा है। ये मेरे आदर्श हैं। मैं ऐसा बैलेंस बनाकर रखना चाहता हूं जहां पर मैं थियेटर, फिल्म या टेलीविजन, सब में समान रूप से मिल-बांटकर काम कर सकूं और वो बड़ा मुश्किल है। क्योंकि टाइम नहीं निकलता है। प्ले के लिए अपने शूट छोड़कर जाता हूं। वहां प्ले की फीस जितनी मिलती है उससे दोगुना तो मैं अपने खाने-पीने पर खर्च कर देता हूं। थियेटर पैसे के लिए नहीं किया जा सकता। अगर पैसों के लिए आप थियेटर कर रहे हो तो आप जी नहीं पाओगे। और पैसों के लिए नहीं कर रहे हो तो कहां से लाओगे पैसा। कहीं न कहीं से तो आएगा, आज मैं थियेटर में पैसा लगाता हूं, खुद का प्रोडक्शन चालू करने वाला हूं, कहां से लाऊंगा प्रोडक्शन करने का पैसा। वो मैं दूसरे क्षेत्रों से लाता हूं लेकिन उसका मतलब ये नहीं है कि उनकी इज्जत कम है। टेलीविजन ने तो बहुत कुछ दिया है, उसकी वजह से आज लोग जानते हैं पहचानते हैं और शायद वो देखकर मेरा प्ले देखने आते हैं।

लेकिन अतुल और सत्यदेव दुबे जैसे व्यक्तित्व थियेटर के गलियारों तक ही सिमट कर रह जाते हैं।
चलेगा न सर। हमारे लिए अतुल कुमार अमिताभ बच्चन से बड़ा है। सत्यदेव जी का जब निधन हुआ तो जो एक रैली निकली थी पृथ्वी (पृथ्वी थियेटर, मुंबई) से वो देखने लायक थी, जब मैंने देखी तो मैं मान गया कि सत्यदेव जी अमर हो गए। जरूरी नहीं कि अख़बार में उनके बारे में छपे, कि लोग उनके बारे में बात करें या न करें। जिनको जानना था वो उनके कायल थे, उनका (सत्यदेव दुबे) काम हो गया। उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा। थियेटर का समुदाय भी बहुत बड़ा समुदाय है। ऐसा नहीं है कि कम लोग हैं। लेकिन बात ये है कि हर थियेटर एक्टर फिल्म अभिनेता नहीं बनना चाहता। ...ये जानकर मेरे को खुशी होती है। कि केवल थियेटर को सीढ़ी बनाकर नहीं चल रहे फिल्मों में जाने के लिए, वो अपने आप में एक जरिया है, अपने आप में एक मीडियम है।

हर फील्ड में जो एक अंदरूनी आलोचना चलती रहती है ...कम्युनिटी के भीतर कि हम लोग क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, वो बंदा गलत कर रहा है, ये सही कर रहा है, उसने एक्सपेरिमेंट ज्यादा कर दिया ये नहीं करना चाहिए था, वहां सीमा पार कर दी। पत्रकारिता में जैसे होता है कि हम बहुत से एंकर्स की आलोचना करते हैं कि वो किस तरीके से बात कर रहे हैं, जिसका मजाक सीरियल्स या फिल्मों में उड़ता भी है जो जायज है। तो थियेटर में अभी कौन सी आलोचना है जो चल रही है?
... कि क्या आप ब्रॉडवे या वेस्टर्न थियेटर को टक्कर दे सकते हैं? या क्या वो टक्कर देने लायक हैं? या उनकी दुनिया अलग है, हमारी दुनिया अलग है? मैं लंदन में थियेटर पढ़ा हूं, वहां पर गया, मैं वहां के म्यूजिकल्स का हिस्सा बना। इतने भव्य प्रोडक्शंस कि उत्ते मैं तो फिल्म बन जाए। हवा में उड़ रहा है आदमी, आप केबल ढूंढ नहीं सकते कि काहे में उड़ रहा है। हमारे यहां दिल्ली में वो... ‘किंगडम ऑफ ड्रीम्स’ या ‘जिंगारो’। उन्होंने भरपूर कोशिश की वहां पर पहुंचने की। बहुत पैसे लगाए ...क्या हुआ? वो एक जगह रुके हुए हैं। क्योंकि वो अपना थियेटर बदल नहीं सकते हैं। वो कमानी में आकर शो नहीं कर पाएंगे। क्यों? क्योंकि उनका सीमित है। वहीं पर चार केबल उन्होंने लगा रखी हैं, उसी से उनको उडऩा है। तो सबसे बड़ी आलोचना ये भी है कि कहीं ये तामझाम या विजुअल डिलाइट, इस शब्द को मैं बार-बार कह रहा हूं, दिखाने के चक्कर में प्ले की आत्मा को तो नहीं खो रहे? या आत्मा दिखाने के चक्कर में आप सामने वाले को बोर तो नहीं कर रहे? कि ये फ्लड लाइट लगा ली और उसी में पूरा प्ले निपटा दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता। ऑडियंस वहां पर आई है और अपना कीमती समय आपको दे रही है। उसे मनोरंजन दो। भले ही वह किसी भी जॉनर का प्ले हो, उसको एंटरटेनमेंट दो। ये जो दुविधा है कि थियेटर में ये करना चाहिए या नहीं? क्या केवल एक कहानीकार से काम चल जाएगा या उसके साथ उसको एक आइटम डांस डालना जरूरी है? थियेटर में भी वही हो रहा है, आइटम क्या है प्ले का? मतलब रंग, विजुअल डिलाइट, गाना-बजाना... क्या इनकी इतनी ज्यादा जरूरत है? या जैसे पुराने जमाने के सादे नाटक हुआ करते थे। कि मैं आऊंगा, कहानी सुनाऊंगा, ये मां है ये बेटा है, दोनों की बातचीत... बस। लेकिन अब उसे नए तरीके से दर्शाया जाता है। पहले बालक का रोल, फिर वो बड़ा हुआ थोड़ा, फिर और बड़ा हुआ, फिर पूरा बड़ा हुआ तो इस तरह चार एक्टर हो गए एक ही किरदार को निभाते हुए... सबका अपना-अपना क्रिएटिव तरीका है उसे दर्शाने का।

पीयूष मिश्रा जब थे ‘एक्ट-वन’ में दिल्ली में तो उनके दीवाने बहुत थे और जैसे सुपरस्टार्स के फैन होते हैं, वैसे उनके हुआ करते थे। उस समय उनकी जो एक बाग़ी विचारधारा थी, वो तेजाब फैंकते थे जब बोलते थे... लोग जल जाते थे। लेकिन पिछले दिनों जब उनसे मुलाकात हुई तो पूरी बातचीत में ये लगातार आता रहा कि यार अब छोड़ो। तो ऐसे लोग जो इतना असर अपने कहने-करने में रखते हैं और बॉलीवुड में यूं पूरी तरह चले जाते हैं और विज्ञापन और फिल्म करने के बाद उनके सार्वजनिक बोल-चाल में सपोर्ट की बजाय थियेटर वालों के लिए एक चुनौती आ जाती है... तो लोग कहते हैं अब आपके पास क्या जवाब है आपका सबसे खास बंदा तो ये कह रहा है? उसके जवाब में आप क्या कहेंगे? या वो थियेटर और फिल्मों में एक बैलेंस बनाकर चल रहे हैं? या ठीक है फर्क नहीं पड़ता? या उनको हक़ है कि वो इतनी कमाई करें... या ये कि अभी वो अपना नया मत ठीक से बना नहीं पाए हैं, बना रहे हैं? जैसे वो बड़ा मजबूती से कहते हैं कि यार ठीक है छोड़ो, सबको पैसा कमाना है। ‘बॉडीगार्ड’ हिट है तो हिट है, तुम कौन होते हो खारिज करने वाले...
पीयूष मिश्रा जी जैसे जो हैं, इन्होंने इतना काम कर दिया है कि अब उनको उस मामले में टोका नहीं जा सकता। वो जितना थियेटर को दे सकते थे उन्होंने दिया है और अभी भी कोशिश कर रहे हैं देने की। और हम कोई नहीं होते कि उन्हें कहें कि आप ऐसा न करें। जैसे सचिन तेंडूलकर को कब रिटायर होना चाहिए, ये उस इंसान पर ही निर्भर करता है जिसने इतना कुछ कर दिया है। हां, मैं रोहित शर्मा के लिए बोल सकता हूं, क्योंकि रोहित शर्मा को खुद को प्रूव करना बाकी है। एक वक्त के बाद उन्हें (पीयूष) एक्सपेरिमेंट करने का पूरा-पूरा हक़ है। आज अगर पीयूष मिश्रा जी प्ले करने आएंगे तो वो आदमी जिसने उन्हें फिल्मों से या किसी और माध्यम से जाना है वो दूसरे को भी कहेगा कि अरे यार उनका ये प्ले देखने चलते हैं इनको अपन ने उसमें देखा था न। वो बड़ा मजेदार होता है। शाहरुख खान ने भी अपने करियर की शुरुआत थियेटर से की। उन्होंने भी काफी थियेटर किया। जरा सोचिए, अगर शाहरुख खान कल को एक प्ले करता है, थियेटर को कितना बड़ा बूस्ट मिलेगा। इसलिए नहीं कि उन्हें ऐसा करने की जरूरत है, इसलिए नहीं कि हमें उनकी जरूरत है लेकिन उनका भी एक हक बनता है। ये उनका कर्तव्य और दायित्व है दरअसल। उनको वक्त निकाल कर एकाध प्ले कर देना चाहिए। फिर मैं विदेश का उदाहरण दूंगा आपको। वहां सौ-सौ पाउंड की टिकट है। सौ पाउंट कित्ते हो गए... आठ हजार.. आठ हजार की टिकट है। क्यों? क्योंकि वो प्ले में लीड एक्टर वो है... क्या नाम है उसका हैरी पॉटर... डेनियल रेडक्लिफ और सुनने में आया है प्ले में वो पूरा न्यूड सीन दे रहा है। लोग सोचते हैं अरे क्या बात है, न्यूड सीन... प्ले देखें तो सही क्या कर रहा है..। बहुत बड़े-बड़े एक्टर्स हैं हॉलीवुड के, जो अपना वक्त निकालकर थियेटर करते हैं, न केवल थियेटर को कुछ देने के लिए बल्कि थियेटर से बहुत कुछ लेने के लिए। तो ये दूरी कम होनी बहुत जरूरी है। थियेटर वालों को फिल्मों में जाने की जरूरत है, फिल्म वालों को थियेटर में जरूरत है। बहुत कुछ एक-दूसरे से सीखने को मिलेगा।

‘कॉमेडी सर्कस’ का कुल-मिलाकर अनुभव कैसा रहा? वो जो एक अनवरत मजाक जज लोगों की और एक-दो जोड़ियों की होती है वहां। जिन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है जैसे कृष्णा-सुदेश हो गए या कपिल हो गए, उनकी स्क्रिप्ट में कुछ लोगों का मजाक एक बार नहीं बार-बार लिखा जाता है। राजीव ठाकुर हुए और दूसरे भी हैं... तो वो शर्मसार करने वाला वाकई में होता है उनके लिए जिनका मजाक उड़ता है?
अरे होता है। राजीव ठाकुर बता रहा था। ठाकुर साहब फ्लाइट में बैठे हैं और पीछे से बीच सीटों के आवाज आई, “ठाकुर बोहत आठ-आठ ले रहे हो”। तो वो शर्म से पानी-पानी हो गए। क्योंकि इस मामले में ‘कॉमेडी सर्कस’ में हम बड़े मजे लेते हैं ठाकुर साहब के। हमारे भी लिए जाने लगे, सस्ता डेली बोला जाने लगा। अब उसका कितना अपने ऊपर ले रहे हैं ये आप पर है। जैसे ‘गुरु’ में अभिषेक बोलता है न कि “लोग बात कर रहे हैं तो अच्छा ही है”। ‘कॉमेडी सर्कस’ के अंदर वैरी फ्रैंकली, ये आपस में ही मजे ले रहे हैं और जनता को मजा इसीलिए आ रहा है कि ये हंसते-खेलते लोग हैं, एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे हैं। जिस दिन सीरियस हो गए न उस दिन इनका भी वही हाल हो जाएगा जो बाकियों का हुआ है। ये मस्तमौला लोग हैं, इसमें काम करने वाले 80 प्रतिशत पंजाबी हैं और काम करवाने वाले बाकी 20 पर्सेंट गुजराती हैं। तो इन्हीं दोनों ने दुनिया चला रखी है। तो एक-दूसरे का मजाक उड़ाना या बॉलीवुड के बड़े लोगों का मजाक उड़ाना इसकी हिम्मत सिर्फ ‘कॉमेडी सर्कस’ ही कर सकता है, ये जोक कोई और करे तो उस पर पुलिस केस हो जाएगा। कभी-कभी जोक हद पार कर जाते हैं, वल्गैरिटी की सीमा पार कर जाते हैं। उस समय पर हमारी भी भौंहे चढ़ जाती हैं कि यार, क्या हम सही कर रहे हैं? तो हम भी अपनी तरफ से बोल देते हैं कि भई ये नहीं बोलेंगे हम। लेकिन वो कॉमेडी का जॉनर ही वही सर। आप वेस्टर्न कॉमेडी भी देखें, स्टैंड अप कॉमेडी, दो ही चीज है से-क्-स और ड्रग।

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस समय जितनी भी फिल्में बन रही हैं, जैसे ‘क्या सुपरकूल हैं हम’ नहीं बन सकती थी इस टाइम के अलावा कभी। हालांकि ‘क्या सुपरकूल...’ को मैं बहुत खराब फिल्म मानता हूं, बेहद गैर-जरूरी फिल्म मानता हूं... लेकिन जो ये कोशिश हो रही है कि ‘कॉमेडी सर्कस’ में एडल्ट बातें जितनी होती हैं... है न... डाल दिया निकाल लिया... तो इसकी एक वजह ये नहीं है कि भारत में ज्यादातर अभी व्यस्क हैं। गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली उम्र के ज्यादा हैं, नए-नवैले शादीशुदा हैं?
हां, और वैरी फ्रैंकली, आज का यूथ जो भाषा बोल रहा है, उस जेनरेशन को अभी-अभी पार किया है मैंने। मैंने 15-16 साल की उम्र में वो सब चीजें नहीं बोली थीं... लेकिन आज न केवल टेलीविजन के जरिए, फिल्मों के जरिए ये डायलॉग अब बहुत आम हो गए हैं। और बच्चे-बच्चे की जबां पर गाली है, बच्चे-बच्चे की जबां पर नंगाई है। वह केवल टेलीविजन तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ा अगर कोई जरिया है तो वो है इंटरनेट। वो दिन दूर नहीं जब इंटरनेट सब चीजों को खा जाएगा। टीवी, फिल्म, रेडियो सब निगल लेगा वो... दुनिया केवल इंटरनेट से चलेगी, शादियां इंटरनेट पे हो जाएंगी, बच्चे इंटरनेट पे पैदा हो जाएंगे और वो कोई नहीं रोक सकता। एक वक्त में मुझे कोई जानकारी चाहिए होती थी तो फलानी लाइब्रेरी में जाके फलाने कोने से फलानी किताब निकालनी होती थी। आज मैं गूगल टाइप करता हूं सब मालूम चल जाता है यार, दो सेकेंड के अंदर-अंदर। तो एक्सेसेबिलिटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। उसी का नतीजा है कि आप क्या सुपरकूल हैं हम या कॉमेडी सर्कस या इस किस्म के काम देखते हैं।

हेल्दी सब्जेक्ट पर ‘विकी डोनर’ भी आती है। स्पर्म डोनेशन पर बहुत ही सकारात्मक तरीके से सोचते हैं। इससे करीने से बनी आ भी नहीं सकती थी।
अच्छे तरीके से दिखाया गया। वही चीज अगर अश्लील तरीके से दिखाते तो फिल्म बिगड़ जाती। आपको हर दौर में एक गांधी और एक हिटलर मिलेगा ही मिलेगा। इस दौर में भी वैसे ही हैं। अभी भी अपने आपको साध कर काम कर रहे हैं सब। नहीं भई, हम साफ-सुथरा काम ही करेंगे। कुछ हैं जो वक्त के साथ चल रहे हैं और वक्त इस वक्त का ये है कि उल्टा-सीधा एक समान।

आपका और ‘कॉमेडी सर्कस’ के बाकी लोगों का इस पर कोई मत नहीं होता... जो प्रोसेस उन्होंने एक शुरू किया है या बाकी जगह भी चल चुका है? ऐसा प्रोसेस जिसे रोका या पलटा नहीं जा सकता। जैसे आप कह रहे हैं इंटरनेट कब्जा कर लेगा, तो उससे पहले के जिस एक टाइम फ्रेम में हम हैं कि कौन क्या कर रहा है और कितना जिम्मेदार है, तो उस पर कोई ओपिनियन है कि यार सब ऐसा ही हो गया है हम क्या करें?
नहीं, नहीं। बिल्कुल नहीं। मेरा पूरा मानना है कि एक-एक चीज जो हमारे आस-पास है वो हमारी ही बनाई गई है। ऐसा तो है नहीं कि एक दिन अचानक से आकर अश्लीलता ने हमें टेकओवर कर लिया। हमारे ही द्वारा बनाई गई चीज है। और कितना ज्यादा इंसान ईज़ी हो गया है, चीजों को अपनाने लग गया है। एक टाइम था, बाहरवाली औरत बहुत बड़ा हौव्वा था और घरवाली-बाहरवाली एक कॉमन फैक्टर हो गया है। वैसे ही कॉमेडी में चार्ली चैपलिन का केले के छिलके पर फिसलकर गिरना ह्यूमर था। आज होता है तो... अरे यार बहुत पुराना कर रहा है यार। आज तो तंबू और बंबू है। आज जब तक कोई जाकर गर्म तवे पर बैठ नहीं जाता, ऐसे टेढ़े-मेढ़े चलता नहीं है तब तक हंसी नहीं आती है। तो वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती हैं। और बदलाव तो प्रकृति का नियम है उसे अपनाना भी चाहिए। लेकिन वही है बैलेंस... कितना बैलेंस आप बनाकर चल सकते हो।

‘कॉमेडी सर्कस’ पर आपने जितने भी एक्ट किए हैं, उस दौरान मैंने देखा है... कि कृष्णा-सुदेश के हिस्से कुछ गैग आएं हैं तो वो थप्पड़ मार लेंगे या सूदिया बोल देंगे या फिर मां का साकीनाका। कपिल हैं तो वो उस लड़की को गले लगाते रहेंगे या उसे कोस देंगे.. या उनके भी फिक्स गैग्स हैं कि लोग हंस पड़ेंगे। आपके अपने जोड़ीदारों के साथ कोई तय मुहावरे या गैग नहीं हैं, आप व्यस्क बातें भी नहीं करते। ऐसे में ये ज्यादा चुनौती भरा हो जाता है?
मेरे लिए तो ‘कॉमेडी सर्कस’ एक जरिया है भड़ास निकालने का। मुझे वो किरदार जो कहीं और जाकर करने को मिलेंगे नहीं, मैं वहां पर जाकर कर देता हूं। और चूंकि मैं थियेटर से जुड़ा हूं मुझे एक चीज पता है कि प्ले जब खत्म हो तो सामने वाला अपने साथ कुछ लेकर जाए। मनोरंजन तो मिले ही मिले, साथ में कुछ ख़्याल लेकर जाए, सोचना लेकर जाए। तो मेरे 60-70 फीसदी एक्ट व्यंग्यात्मक होते हैं। उनमें सामाजिक या किसी न किसी दृष्टिकोण से मैसेज देने की कोशिश करता ही करता हूं। जैसे, हमारा एक अच्छाई-बुराई वाला एक्ट था, वो ऐतिहासिक एक्ट हो गया, अर्चना पूरण सिंह रो दी उसमें। उनने बोला कि मैंने आज तक पांच साल के करियर में ऐसा एक्ट देखा नहीं। क्यों? क्योंकि कॉमेडी थी और साथ में संदेश भी था। पूरी तरह सेंसफुल था और पूरा पैकेज था। हमारी कोशिश रहती है कि ज्यादातर चीजें वैसी बन पाएं। मैं रेडियो में था, रेड एफएम पर, जहां पर टैगलाइन थी ‘बजाते रहो’, लोगों को बड़ा लगता था, बजाते रहो, मतलब लोगों की बड़ी बजा रहे हैं यार। मेरा मंत्र था कि बजाने वाले को मजा आना चाहिए और बजवाने वाले को मजा आना चाहिए। उसको भी मजा आना चाहिए कि अरे यार अच्छी बात बोली इसने मेरे बारे में, मैं इस चीज का ख्याल रखूंगा अगली बार। नहीं तो आप.. अरे यार तुम तो क्या...। तो वो भी एक तरीका है क्योंकि आपके पास ताकत है माइक्रोफोन की। लेकिन अपनी जिम्मेदारी समझेंगे तो आप उसी चीज को कपड़े में लपेटकर रखेंगे और ऐसे इस्तेमाल करेंगे कि सामने वाले के काम आए।

फैमिली में कौन हैं? कैसा सपोर्ट है?
मेरा खानदान कलकत्ता से है। पूरे खानदान में किसी ने दूर-दूर तक कभी टेलीविजन पर, फिल्मों में या थियेटर में काम नहीं किया। वो संगीत से जुड़े हुए हैं। क्योंकि हर बंगाली घर में आपको रविंद्र नाथ टैगोर की तस्वीरें, किताबें और रबींद्र संगीत मिलेगा ही मिलेगा। हमारे वहां भी है। वो खुश होते हैं। मैं कभी-कभी जाता हूं। पहली बार गया। अपने भाई-बहनों से मिला, कजिन हैं सब। मैंने देखा मेरे खानदान में कोई डबल इंजीनियर, कोई साइंटिस्ट, एक एनवायर्नमेंटलिस्ट, एक जियोलॉजिस्ट, एक डॉक्टर... तो उनने मेरी तरफ पलटकर देखा कि “आप..?” मैं बोला कि मैं... एंटरटेनर हूं मैं। बोले, “हां वो सब तो ठीक है, पर काम क्या करते हो”। खैर, तो उनको क्या समझाऊंगा मैं। वो मेरा खानदान थोड़ा अलग है और उनके साथ मैं कभी रहा नहीं हूं। मेरी पैदाइश इंदौर, मध्य प्रदेश की रही है। बचपन से वही मेरी फैमिली हैं। और माताजी अब मेरी पुत्री जैसी बन गई हैं। जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है उनकी उम्र कम ही होती जा रही है। मेरी मां को मजा आता है कि मेरा बेटा टीवी पर आ रहा है। वो कभी मेरे को ये नहीं बोलती कि ये करो, वो करो।

शादी, बच्चे?
नहीं सर मैं बैरागी। मैंने अभी तक अपने आप को बचाए रखा है। और अब पूरी कोशिश रहेगी की ऐसा ही रहूं। हम में इतना प्रेम है कि उसमें एक इंसान समा नहीं पाएगा। तो किसी एक की जिंदगी बर्बाद करने से अच्छा है सबकी जिंदगी आबाद की जाए। मेरा स्कूल ऑफ थॉट आप आध्यात्मिक भी कह सकते हैं और एक तरह से सन्यास आश्रम में पला हूं। मैं कहीं सेटल नहीं हो सकता। कोई एक जगह मेरी फाइनल जगह नहीं है। मेरे लिए यात्रा मायने रखती है, डेस्टिनेशन नहीं। तो किसी एक को मैं डेस्टिनेशन नहीं बना सकता। 

कौन-कौन से दोस्त हैं जो आज फिल्मों में चल गए हैं और खुशी होती है?
खुराना (आयुष्मान) का बड़ा अच्छा लगता है मेरे को। मेरा रेडियो का एक साथी था होज़ेक जो आज एमटीवी पर बड़ा फेमस वीजे बन गया है। और ज्यादातर मेरे साथ थे वो पीछे ही रह गए यार। चंदन राय सान्याल बेहतरीन है। थियेटर में साथ थे। ‘कमीने’ में थे। रणवीर शौरी और विनय पाठक मेरे सीनियर हैं। यही बेल्ट है।

आपमें बड़ी एनर्जी है, ऐसा क्या है कि रोज सुबह उठकर आप इतने उत्साहित पूरे दिन रहते हैं?
जीने की इच्छा है। केवल एक ही सीक्रेट है मेरा। थैंकफुलनेस। शुक्रिया। भगवान का नहीं। मैं नास्तिक नहीं हूं, पर प्रकृति का शुक्रिया जिसने मुझे इतना कुछ दिया। इसने इतनी पत्तियां दी, इतनी हरियाली दी है, आप इतने अच्छे महाशय मेरे सामने बैठकर मुझसे बात कर रहे हैं, मेरे पास फोन है जिससे मैं बात कर सकता हूं, सिगरेट रखी है मेरे पास में, चड्डा मिल गया है पहनने को, हवा लग रही है। छोटी-छोटी चीजों में मेरे को खुशी मिल जाती है। जितना मैं शुक्रिया अदा करता हूं, थैंकफुल रहता हूं उतनी ही एनर्जी मुझमें बढ़ जाती है। जीने की इच्छा रहती है। नहीं तो इंसान जीने की इच्छा छोड़ दे तो अरबों-खरबों पास हों क्या कर लेगा।

निराशाओं से घिर जाते हैं...
मैंने कोई गुरु बना नहीं रखा है पर रजनीश (ओशो) की बातें मुझे बहुत प्रभावित करती हैं। एक वक्त पर मैंने रजनीश को बहुत पढ़ा है। रजनीश ने एक ही चीज कही थी कि लाइफ इज अ सेलिब्रेशन। उस सेलिब्रेशन का हिस्सा बनो और फूल के साथ कांटे भी आना लाजिमी है, अगर फूल ही फूल मांगोगे तो वो कांटे कहां जाएंगे बेचारे। हर चीज को अपना लो तो अपने आप अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाएगा। तो निराशाओं से घिरना स्वाभाविक है, पर उसी वक्त में सोचना चाहिए कि सांस ले रहा हूं। कौन है जो सांसें पहुंचा रहा है, टैक्स तो मैं दे ही नहीं रहा हूं इसके लिए। मुफ्त में मिल रही हैं, थैंक यू यार। इत्ता काफी है मेरे लिए।

निजी जिंदगी में दिक्कत हो, उस मौके पर भी परफॉर्म करना होता है। कैसे करते हैं?
मुझे स्टेज पर चढ़ने के बाद मां, बाप, भाई, बहन कोई नहीं दिखता। जब तक एक्ट खत्म नहीं हो जाता मैं और कुछ सोचता भी नहीं हूं। और चिंता हो भी जाती है तो मुझे और ज्यादा ताकत मिलती है। सोचता हूं कि अरे ये तो एक्टर की परीक्षा है। कि यहां पर कोई मृत्युशैय्या पर पड़ा है और तुझे स्टेज पर जाकर कॉमेडी करनी है। राज कपूर साहब की ‘मेरा नाम जोकर’ याद आ जाती है। मैं खुश हो जाता हूं, और बेहतर परफॉर्म कर देता हूं। दो-तीन दोस्तों को बोल रखा है, तबीयत खराब करवाते रहा करो अपनी और फोन करते रहा करो एक्ट के पहले।

प्लैनिंग नहीं करते कभी न आप?
नहीं, मैं बिल्कुल फ़ितरती इंसान हूं। जो भी है अब है, ये मेरा हमेशा का मंत्र है।

बुक्स कौन सी पढ़ते हैं?
रजनीश की किताबें। लोगों से और बाकियों से कहना चाहूंगा कि ‘संभोग से समाधि तक’ के अलावा बहुत कुछ कहा है उनने। वो अपने वक्त के बहुत आगे पैदा हुए शख़्स थे। आप उनकी बातों में विश्वास करें न करें, उनका ज्ञान लें न लें, लेकिन उनकी किताबों में बहुत कुछ पड़ा है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा, मतलब छान मारा, ऐसी कोई उनकी किताब नहीं है जो मैंने न पढ़ी हो। बाकी पब्लिशिंग हाउस से आता हूं। दासगुप्ता पब्लिकेशंस है कलकत्ता में। 1886 से है। तो पढऩे लिखने के तो शौकीन है हीं। कुछ अच्छा आ जाए तो वो पढ़ लेते हैं। उससे कहीं ज्यादा मुझे आध्यात्म की बातें इंट्रेस्ट देती हैं। आजकल सद्गुरू जग्गी वासुदेव काफी चल रहे हैं। उनका ईशा योग। तो वो मुझे ठीक लगते हैं। उनकी बातों को सुनता हूं। सुनता सबकी हूं करता अपनी हूं।

मूवीज जो अच्छी लगी?
‘पान सिंह तोमर’, क्योंकि मैं इरफान खान की कोई फिल्म मिस नहीं करता। ‘बर्फी’ सबसे अच्छी लगी। रणबीर वैसे मेरे पुराने परिचित हैं पर एक बार जब ‘कॉमेडी सर्कस’ में फिल्म प्रमोट करने आए तो धमका कर गए कि फिल्म रिलीज हो रही है देखना और देखकर मैसेज जरूर करना, वरना मैं समझूंगा तूने देखी नहीं। मैं शाम का शो देखने गया। मैंने लिखा कि आपने अच्छा किया और आपमें और भी ज्यादा टेलेंट है तो इससे भी अच्छा करेंगे। ‘बर्फी’ रणबीर-प्रियंका से कहीं ज्यादा डायरेक्टर-सिनेमैटोग्राफर की फिल्म थी। जैसे दार्जिलिंग को उन्होंने दिखाया है। तो इतना क्रेडिट आमतौर पर उन्हें मिलता नहीं है।

बीन, चैपलिन और हार्डी... ये ईंधन के स्त्रोत हैं जो कभी खत्म नहीं होने वाले।
बिल्कुल। बीन का तो मैं बहुत बड़ा कायल हूं। इसलिए कि वो आदमी बहुत ही खडूस आदमी है असली जीवन में। जैसे मेरे साथ भी होता है, पर बीन के सामने आकर कोई कहता है एक जोक सुनाओ न, तो बीन उनके मुंह पर कहता है “तुम्हारी ऐसी की तैसी, मैं तुम्हारे बाप का नौकर बैठा हूं यहां पर। मैं फिल्मों में जो करता हूं वो असल जिंदगी में नहीं हूं”। जो फिल्मों में उन्होंने किया वो असल जिंदगी में नहीं किया। कलाकार की इज्जत करनी चाहिए। वो जहां जो करता है उसे वहां वो करने दो। कहीं प्लंबर मिला तो ऐसे थोड़े ही करोगे कि नल ठीक करने लग जा।

(From Mantra’s wall – “The palaces you build will be the abodes of someone else tomorrow.”)
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