फिल्म: आई एम कलाम
निर्देशक: नील माधव पांडा
कास्ट: हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर, हसन साद, पितोबाश त्रिपाठी, बिएट्रिस, मीना मीर
स्टार: तीन, 3.0
चूंकि मैं खुद बीकानेर मूल का हूं इसलिए फिल्म में भाषा और किरदारों के मारवाड़ी मैनरिज्म में रही बहुत सारी गलतियों को जानता हूं। मगर उन्हें यहां भूलता हूं। डायरेक्टर नील माधव सोशल विषयों पर फिल्में और डॉक्युमेंट्री बनाते हैं। उनकी ये पहली फिल्म बच्चों के लिए काम करने वाले स्माइल फाउंडेशन के बैनर तले बनी है। खासतौर पर बच्चों और हर तबके को समझ आए इसलिए फिल्म बेहद सिंपल रखी गई है। ऐसे में बात करने को दो ही चीजें बचती हैं। एक एंटरटेनमेंट और दूसरा मैसेज। दोनों ही मामलों में फिल्म 80-100 करोड़ में बनने वाली फिल्मों से लाख अच्छी है। धोरों पर बिछे म्यूजिक और दृश्यों को बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए। एक बार सपरिवार जरूर देखें।
कलाम से मिलिए
अपने धर्ममामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के फाइव स्टार नाम वाले ढाबे पर काम करने लगा है छोटू (हर्ष मायर)। जयपुर रोड़ पर बसे रेतीले डूंगरगढ़ और बीकानेर की लोकेशन है। ढाबे पर बच्चन का बड़ा फैन लिप्टन (पितोबाश त्रिपाठी) भी काम करता है। वह छोटू से जलता है क्योंकि तेजी से फ्रेंच व अंग्रेजी बोलना और भाटी मामा जैसी चाय बनाना सीखकर बाद में आया छोटू सबकी आंखों का तारा बन रहा है। ऊपर से वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी भी बनना चाहता है। पास ही में एक हैरिटेज हवेली है जहां रॉयल फैमिली रहती है और सैलानी भी आकर रुकते हैं। सुबह-सुबह अपनी ऊंटनी पर बैठकर चाय पहुंचाने जाते छोटू (खुद को वह कलाम कहलवाना ज्यादा पसंद करता है) की दोस्ती हवेली के राजकुमार कुंवर रणविजय (हसन साद) से हो जाती है। मगर दोनों की मासूम दोस्ती के बीच ऊंचे-नीचे की खाई है। मगर छोटू के सपने अडिग हैं, उसकी आंखों में भयंकर पॉजिटिविटी है और चेहरे पर हजार वॉट की स्माइल है। बच्चों की शिक्षा और उन्हें सपने देखने देने की सीख के साथ फिल्म खत्म होती है। एक नैतिक शिक्षा की अच्छी कहानी की तरह क्लाइमैक्स करवट बदलता है।
सुंदर निर्मल कोशिश
अपने-अपने बच्चों को हर कोई ये फिल्म आपातकालीन तेजी से दिखाना चाहेगा। इसमें आज के प्रदूषित माहौल का एक भी कार्बन कण नहीं है। अच्छी भाषा और स्वस्थ मोटिवेशन के साथ सिनेमा के आविष्कार को सार्थक करते हुए हम हमारे वक्त की सख्त जरूरत वाली कहानी परदे पर देखते हैं। ओवरऑल आडियंस के साथ खासतौर पर बच्चों के लिए 'चिल्लर पार्टी' के बाद आई दूसरी अच्छी फिल्म है 'आई एम कलाम'।
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इस फिल्म की टेक्नीक और शुद्धता-अशुद्धता पर मुट्ठी भर बातें और हो सकती है। कहां इसकी शूटिंग हुई। वो जगह कैसी है। बीकानेर के जिस भैंरू विलास में फिल्म के बहुत बड़े हिस्से को फिल्माया गया, उसका इतिहास क्या रहा है। कैसे उस हैरिटेज हवेली की अपनी एक शेक्सपीयर के नाटकों सी तबीयत वाली कहानी है। वो ढाबा असल में कैसे डूंगरगढ़ रोड़ पर बना है। उस ऊंटनी के मालिक का क्या नाम है। उस ऊंटगाड़ी में बैठे ढोली का नाम क्या है। कैसे फिल्म की स्टारकास्ट के कपड़ों पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। कैसे एक उड़ीसा मूल का फिल्म डायरेक्टर मारवाड़ की पृष्ठभूमि, उसकी रेत, उसके भाषाई रंगों, वहां के कल्चर में छिपी सत्कार की शैली और लोगों को अपने तरीके से एक दो घंटे की फिल्म में दिखाता है। कैसे उसके इस परसेप्शन को दुनिया भर के लोग 'आई एम कलाम' देखने के बाद अपना सच बना लेते हैं। चूंकि फिल्म का संदेश पवित्र है इसलिए ये सब बातें और तकनीकियां बाद में भी देखी-भाली जा सकती हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी