बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

अकीरा कुरोसावा की क्लासिक ' राशोमोन '




क्लिंटन ट्रायल्स के वक़्त भी ' राशोमोन ' शब्द का इस्तेमाल होता रहा था। अमरीका में तो यह शब्द एक मुहावरा सा बन गया था। अकीरा कुरोसावा की श्वेत-श्याम फ़िल्म 'राशोमोन' एक ही घटना का तीन अलग - अलग तरीकों से जीवंत प्रस्तुतीकरण है। एक यात्री सामुराई जंगल में से गुज़र रहा है, साथ में उसकी पत्नी है। रास्ते में ' ताजोमारू ' नाम का एक डाकू उसे बंदी बना लेता है। उसकी पत्नी के साथ दुष्कर्म करता है।..और बाद में सामुराई की लाश जंगल में पड़ी मिलती है।

इस घटना के तीन संस्करण तब उभरते हैं, जब भारी मूसलाधार बारिश में जापान के क्योटो में ' राशोमोन गेट ' के नीचे तीन व्यक्ति शरण लेते हैं। एक पुजारी है और एक लकड़हारा है। ये गए जमाने के मासूम और शीतल किरदार आज कल कभी-कभार बच्चों के लिए बनी फिल्मों में दिखाई पड़ जाते हैं बस। उसमें भी ' होम अलोन ' के हैरी पुत्तर नुमा क्लोन बनने शुरू हो गए हैं। पुजारी हीरो - हिरोइन को प्रसाद और फूल देकर समाप्त हो जाता है तो लकड़हारों की कौम फिल्मों से विलुप्त हो चुकी है। खैर....... ये दोनों ही अपनी स्थानीय न्याय-व्यवस्था के सामने अपना-अपना बयान देकर आए हैं। और जो कुछ अभी-अभी हुआ था उस पर यकीन करने की .....समझने की कोशिश कर रहे हैं। तभी वहाँ से एक राहगीर... गुज़रते हुए आ रुकता है। दोनों के संस्करण सुनता है।

फ़िल्म में निर्देशक ने अद्भुत तनाव और असमंजस की स्थितियाँ पैदा की हैं। हालाँकि मनोरंजन के पहलू से यह फ़िल्म कमजोर पड़ती है। डाकू और बीवी के किरदारों ने कमाल का अभिनय किया है। दोनों ही किरदारों की विविधता को बड़ी ही खूबसूरती से फ़िल्माया गया है। फ़िल्म का प्रष्ठभूमि संगीत बेहद प्रभावी और जरूरी है। सांकेतिक रूप से फ़िल्म में संवाद आगे बढ़ता चलता है। फ़िल्म का हर फ्रेम बोलता है, चाहे उसमें संवाद नहीं भी हो।

स्त्री की वफ़ादारी और नैतिकता पर पहले निर्देशक सवाल खड़े करता है। फिर ख़ुद ही किसी दूसरे किरदार से एक छोटी बेईमानी करवाकर समाज को उसका जवाब भी दे देता है। दशकों पहले बनी ' राशोमोन ' का विषय अपने वक़्त के हिसाब से काफी बोल्ड है।

गजेन्द्र सिंह भाटी