गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

कहानी सुना पाने के लिए 'हीरो विद अ थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़ने की ही जरूरत नहीं है

अंजुम रजबअली से बातचीत...

अंजुम रजबअली सुलझे हुए फिल्म राइटर हैं। गोविंद निहलानी की फिल्म 'द्रोहकाल' में सह-लेखन से उन्होंने शुरुआत की। उनकी लिखी 'आरक्षण' कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई। प्रकाश झा की पिछली चारों फिल्मों की स्क्रिप्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहे अंजुम ने 'चाइना गेट', 'गुलाम', कच्चे धागे' और 'राजनीति' जैसी फिल्में भी लिखी हैं। साथ ही साथ वह एफटीआईआई, पुणे और मुंबई के विस्लिंग वुड़्स फिल्म स्कूल में एचओडी हैं।

इन दिनों किस काम में व्यस्त हैं?
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट, पुणे में ऑनररी हैड ऑफ द डिपार्टमेंट हूं। विस्लिंग वुड्स में भी यही जिम्मा संभाल रहा हूं। दोनों जगह पढ़ाता हूं। वर्कशॉप भी होते रहते हैं। 'इप्सा' सोसायटी की फैलोशिप में चीफ एडवाइजर हूं। फिल्म राइटर एसोसिएशन में कमिटी मैंबर हूं। जहां तक लिखने का काम है तो प्रकाश की अगली फिल्म लिख रहा हूं। 'इश्किया' फेम अभिषेक चौबे के साथ स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। केरल के फिल्ममेकर साजी करूण के लिए भी अंग्रेजी में एक स्क्रिप्ट लिखी है।

इन दोनों फिल्म स्कूलों में बैकग्राउंड और टैलंट के लिहाज से कैसे स्टूडेंट आते हैं?
दोनों के फाइनेंशियल बैकग्राउंड अलग होते हैं। उनमें अपने-अपने समाज और उनकी सोशल-इकोनॉमिक रिएलिटी का भी फर्क होता है। मगर उनमें यूनिवर्सल ह्यूमन क्वेस्ट एक बराबर होती है। चाहे रतन टाटा का बेटा हो या ऑफिस पीयून का, दोनों में खोज की भावना समान होती है। इंटेंसिटी समान होती है। मैं अध्यापक के तौर पर उन्हें बस इतना बता सकता हूं कि तुम्हारी रिएलिटी ये है। दोनों ही संस्थानों के बच्चों को जिंदगी और आसपास के सवाल परेशान करते हैं और यहीं से आइडिया और क्रिएटिविटी आते हैं।

क्या 'हीरो विद थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़े बगैर भी कभी कोई किस्सागो किसी गांव से आकर अपनी कहानी से हमें हिलाकर रख सकता है?
सौ प्रतिशत। कैंपबेल की किताब 'हीरो विद...' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट कोई आविष्कार नहीं हैं। इन्हें किसी ने अपने मन में नहीं गढ़ा है। अगर कोई नेचरल तरीके से चीजों के टच में हो, तो ही काफी है। आदमी के अपने बेसिक स्ट्रगल से ड्रामा निकलता है। हां, इन्हें पढऩे से क्लैरिटी आ जाती है। जो अपने टैलंट को नेचरली आगे बढ़ाते हैं उन्हें फिल्म स्कूलों की जरूरत नहीं है। हां, जिन्हें लगता है कि गाइडेंस चाहिए, वो आएं तो उनकी हैल्प होती है।

दोनों संस्थानों के स्टूडेंट्स ने अब तक किन अच्छी फिल्मों पर काम किया है?
पुणे में सात साल के कोर्स में और विस्लिंग वुड्स में पांच साल के कोर्स में तकरीबन हमारे स्टूडेंट्स ने पंद्रह बेहद अच्छे क्रेडिट लिए हैं। उन्होंने 'शैतान', 'रॉक ऑन', 'आगे से राइट' और 'कच्चा लिंबू' जैसी हिंदी फिल्में लिखी हैं तो 'मी शिवाजी राजे भोसले बोलतोय' जैसी मराठी और अपर्णा सेन की 'इती मृणालिनी' जैसी बंगाली फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी हैं।

'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों की लेखन शैली को आप कैसे देखते हैं?
इन फिल्मों के कैरेक्टर अपने समाज से बहुत गहरे से जुड़े हैं। असल लाइफ से जुड़े इश्यू निकलकर आते हैं। दर्शकों को पहले ही पता था, हमें अब पता लग रहा है कि इस किस्म की ऑथेंटिसिटी रखी जाए तो लोग रिलेट कर सकते हैं। 'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों में आपको बड़े मुद्दों की जरूरत नहीं है, एक स्कूटर भी इश्यू बन सकता है। पहले हमें बड़े ड्रामा चाहिए थे। अमिताभ अपनी मां को लेने आ रहा है, और मंदर इंडिया अपने बेटे को मार रही है। अब इनकी जरूरत नहीं है। माहौल खुला है, लोगों का नजरिया विस्तृत हुआ है। हबीब फैजल ने ये फिल्म लिखी तो कहा कि ये वही लोग हैं जिनसे वह वास्ता रखते हैं। जैसे जयदीप की 'खोसला का घोंसला' थी। 'चक दे इंडिया' थी। 'तारे जमीं पर' थी। अब बड़ी फिल्मों में भी इन मुद्दों को लेकर विश्वास है।

'डेल्ही बैली' और 'कॉमेडी सर्कस' के बीच क्या राइटर्स की कोई आचार संहिता होती है?
नहीं, होती तो नहीं है। सब व्यक्तिगत एस्थैटिक सेंस और व्यक्तिगत मूल्यों पर निर्भर करता है। मुझे ये चीजें गवारा नहीं इसलिए मैं नहीं लिखता हूं। कुछ लिखते हैं। कुछ हद तक ये सोशल सच्चाई का प्रतिबिंब है।

प्रॉड्यूसर्स-राइटर्स मसले में कौन सही है?
फिल्ममेकिंग के एक हिस्से के तौर पर राइटिंग की हमेशा अवहेलना की गई है। राइटर के रोल को प्रॉड्यूसर सही से समझ नहीं पाते। उन्हें सही वैल्यू नहीं देते। राइटर भी वही लिख रहे हैं जो डायरेक्टर कहता है। वो उसमें इंडिपेंडेंट वैल्यू कुछ नहीं लाते। समाधान इसी में है कि प्रॉड्यूसर-राइटर एक दूसरे के बीच के इक्वेशन को समझें।

अपने अनुभव से, रिसर्च करके या टीम में, क्या स्क्रिप्ट लिखने का कोई तय तरीका है?
वैसे तो बहुत होते हैं, पर मूल बात ये है कि क्या एक व्यक्ति के तौर पर आप इमोशनली कनेक्ट कर पा रहे हैं। जयदीप ने कहीं पढ़ा कि वीमन हॉकी की टीम कुछ टूर्नामेंट जीतकर आई है और मीडिया में उसको बहुत छोटी सी जगह मिली। हालांकि क्रिकेट को बहुत ज्यादा स्पेस मिलती है। तो उसे अचंभा हुआ कि यार ये भी तो एक अचीवमेंट है। जब वो गया और कैंप देखा तो वह इमोशनली प्रभावित हुआ। वो बोल रहा था और उसकी आंखों में आंसू आ रहे थे। ऐसा इमोशनल कनेक्शन होना सबसे जरूरी है।

कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग में क्या फर्क है?
कहानी मुख्यत: छह-आठ पेज या पंद्रह पेज तक की फ्री फ्लोइंग कहानी है। बाद में मैं स्टेपआउट लाइन बनाता हूं जिसे स्क्रीनप्ले कहते हैं। फिल्म के जो 100 मूमेंट होते हैं उन्हें कैप्चर करके एक-एक सीन में तोड़ा जाता है। इनका ब्यौरा स्क्रीनप्ले के तौर पर लिखा होता है। अब इन एक-एक सीन को बयां करते हुए डायलॉग लिखे जाते हैं, जो कैरेक्टर बोलता है।

अपने बारे में कुछ बताएं।
एक छोटे से गांव कलागा से हूं जो काठियावाड़, गुजरात में है। वहां जमीन है, खेतीबाड़ी है। पिता किसान थे। शुरुआती बचपन गांव में गुजरा। फिर मुंबई में पढ़ाई हुई। फिल्मराइटर बनने का नहीं सोचा था। साइकॉलजी में मास्टर्स किया। संयोग से बाबा आजमी (शबाना आजमी के भाई) से दोस्ती हो गई। उसने कहा तो लिखा फिर अच्छा लगने लगा। महबूब खान, विमल रॉय, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल की फिल्में पसंद थी। जब कहानियां लिखने की बात आई तो मुझे अपने गांव आने वाले सिंगिंग स्टोरीटेलर 'बारोठ' याद आए। तो बारीकी से याद करने लगा कि कैसे थे, कैसे गाते थे, क्या रिदम होती थी। फिर जिन गोविंद निहलानी का काम मैं बहुत पसंद करता था उन्हीं के साथ 'द्रोहकाल' लिखी। फिर महेश भट्ट के लिए 'गुलाम' लिखी। उसके बाद राजकुमार संतोषी के और प्रकाश झा के साथ काम किया।

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सिंह भाटी