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Sunday, September 16, 2012

जोकर बनाने की विडंबना और पागलपन की परिभाषा

शिरीष कुंदर की  फिल्म ‘जोकर’ पर कुछ लंबित शब्द

एक नई चीज, उदित नारायण ने बहुत दिन बाद गाना गाया है... “जुगनू बनके तू जगमगा जहां...” हालांकि ये उनके ‘बॉर्डर’, ‘लगान’ और ‘1942 अ लव स्टोरी’ के मधुर स्वरों से बहुत बिखरा और बहुत पीछे है। ऐसा गाना है जिसे सुनने का दिल न करे। बोल ऐसे हैं कि कोई मतलब प्रकट नहीं होता। लिखे हैं शिरीष कुंदर ने। निर्देशन, सह-निर्माण, संपादन, लेखन और बैकग्राउंड म्यूजिक (और भी न जाने क्या-क्या) सब उन्हीं ने किया है। या तो उन्हें दूसरे लोगों की काबिलियत पर यकीन नहीं है या फिर ऑटर बनने की रेस में वह फ्रांसुआ त्रफो और ज्यां लूक गोदार से काफी आगे निकल चुके हैं। खैर, नो हार्ड फीलिंग्स। उनके ट्वीट बड़े रोचक होते हैं। सामाजिक, सार्थक, हंसीले, तंजभरे, टेढ़े, स्पष्ट, बेबाक, ईमानदार और लापरवाह। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं ‘जोकर’ की...

महीनों पहले आई न्यू यॉर्क टाइम्स की 2012 में प्रदर्शित होने वाली बहुप्रतीक्षित फिल्मों की सूची में एक हिंदी फिल्म भी थी। ‘जोकर’। बहुप्रतीक्षा थी कि जबरदस्त पटकथा वाली ये एक आश्चर्य में डाल देने वाली साई-फाई (साइंस फिक्शन) होगी। जब तक फिल्म का पहला पोस्टर बाहर न आया था, सभी को यही लग रहा था। मगर एक फिल्मी किसान वाले अच्छे से धोए-इस्त्री किए परिवेश में जब अक्षय कुमार पहली बार पोस्टर में नजर आए तो व्यक्तिगत तौर पर अंदाजा हो गया था कि ‘सॉरी वो इसे नहीं बचा सके’। हुआ वही, ‘मृत्यु’। इसे नहीं बचाया जा सका। क्यों नहीं बचाया जा सका? इस पर आगे बढ़ने से पहले शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ की सबसे अच्छी तीन बातें:-

  • पागलों के गांव से अगस्त्य के अमेरिका तक पहुंचने का विचार कुछ वैसा ही है जैसे गांवों में अभावों या देश के किसी भी अविकसित इलाके से निकले हर पीढ़ी के युवा का पढ़ाई-लिखाई करके लायकी तक पहुंचने का होता है। ये सांकेतिक है। ऐसा सोचा जा सकता है। हो सकता है पटकथा लिखते हुए फिल्मकार ने ये बड़ी शिद्दत से सोचा है, हो सकता है उसने बिल्कुल भी नहीं सोचा है। पर फिल्म में ये (अपरिवक्वता से फिल्माई) अच्छी बात है।
  • अमेरिका से आए हैं तो कोई प्रोजेक्ट लगाने के लिए ही आए होंगे? पानी... अच्छा मिनरल वॉटर प्लांट? कोई भी एनआरआई भारत आता है और किसी सरकारी नुमाइंदे या राजनेता से मिलता है तो उनकी यही धारणा उसके बारे में होती है। मसलन, सुभाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में दिवालिया हो चुके रजत कपूर के किरदार का भारत आना और वहां उन्हें डॉलरपति समझकर अगुवा कर लिया जाना। ये धारणा और हकीकत (अपरिवक्वता से फिल्माई) दिखाई जानी अच्छी है।
  • जब पगलापुर में बिजली आने की घोषणा कर दी जाती है और वहां दूर-दूर से आए लोगों का मेला जुटना शुरू होता है तो एक गाना आता है। उसमें फ्रिज बेचने वाली दुकानों और बाजारवाद की आंशिक आलोचना की गई लगती है, जो सार्थक है।

...पर अंततः ये सब बिखरा है।

फिल्म शुरू होती है कैलिफोर्निया से। अगस्त्य (अक्षय कुमार) यहां एक वैज्ञानिक है। परधरती पर जीवन की खोज कर रहा है। एलियंस से संपर्क करने की मशीन बना रहा है। यहां राकेश रोशन और ‘कोई मिल गया’ की याद आती है, जब अगस्त्य कहता है, “या तो बाहर कोई दुनिया नहीं है, या मेरे पास वो मशीन नहीं है जिससे एलियंस से संपर्क हो सके”। खैर, हम नए संदर्भ तो पाल ही नहीं सकते। ले दे के दो-तीन तो हैं। बहरहाल, जो रिसर्च के लिए अगस्त्य को पैसा दे रहे हैं उन्हें नतीजे चाहिए। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए उसके पास एक महीना है। थका-हारा ये एनआरआई घर पहुंचता है। घर पर उसकी गर्लफ्रेंड-कम-वाइफ दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) इंतजार कर रही होती है। इस खबर के साथ कि इंडिया से अगस्त्य के भाई का फोन आया था कि उसके पिता की तबीयत बहुत खराब है, फौरन चले आओ। दोनों भारत निकलते हैं। अलग-अलग परिवहन से पगलापुर पहुंचते हैं। जगह जो भारत के नक्शे पर नहीं है। कहा जाता है कि इसी वजह से यहां कोई भी आधारभूत ढांचा नहीं है। इसे पागलों का गांव बताया जाता है। यहां आते-आते मुझे आशंका होने लगती है कि पगलापुर नाम से शुरू की गई ये कॉमेडी उनके साले साहब साजिद खान की फिल्मों (हे बेबी, हाउसफुल, हाउसफुल-2) की कॉमेडी की दिशा में ही जा रही है। एनिमेटेड चैपलिन सी, गिरते-पड़ते किरदारों वाली, अजीब शाब्दिक मसखरी वाली और ऊल-जुलूल।

अगस्त्य और दीवा पैदल गांव में प्रवेश कर रहे हैं कि उन्हें छोटा भाई बब्बन (श्रेयस तलपडे) दिखता है। वह कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठा होता है, उसे ही काट रहा होता है। बाद में दिखता है कि वही नहीं बहुत से दूसरे गांव वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं और बाद में सभी डाल कटने पर नीचे गिर जाते हैं। ठीक है, ऐसा हो सकता है, हम हंस भी सकते हैं, पर फिर पूरे संवाद, घटनाक्रम, कहानी में उसी किस्म का सेंस बनना चाहिए। जो नहीं बनता। श्रेयस के किरदार की भाषा जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अवतार’ के नावी की तरह बनाने की कोशिश की गई है। पर श्रेयस बार-बार कुल तीन-चार शब्दों को ही बोल-बोलकर हंसाना चाहते हैं और ऐसा हो नहीं पता।

आगे बढ़ने पर खुले में बच्चों को पढ़ा रहे मास्टरजी (असरानी) दिखते हैं। वह बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे होते हैं। बच्चों को कहते हैं, “जोर से बोलो”, तो बच्चे बोलते हैं, “जय माता दी”, इस पर मास्टरजी कहते हैं “अरे पहाड़ा जोर से बोलो”। इतनी बार सार्वजनिक दायरे में इस चुटकुले को सुना-सुनाया जा चुका होगा पर फिल्म में इस्तेमाल कर लिया जाता है। असरानी का ये किरदार अंग्रेजी की टांग मरोड़कर बोलता है। जब वह कहते हैं “हेयर हेयर रिमेन्स”... तो उसका मतलब होता है ‘बाल-बाल बचे’। इसी पाठशाला से पढ़कर साइंटिस्ट बना है सत्तू (अगस्त्य का गांव का नाम)।

मास्टरजी के दो अंग्रेजी के जुमले भी पढ़ते चलें...
“हाइडिंग रोड़” (ये छुपा हुआ रास्ता है)
“डोन्ड फ्लाइ आवर जोक्स” (तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो)

हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी न बोल पाकर किरदारों ने बहुत से अंग्रेजों को हंसाया है। इनमें सबसे कामयाब मानें तो हाल में संजय मिश्रा के किरदार रहे हैं। वह ‘गोलमाल-3’ जैसी फिल्मों में जिस अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसकी स्पेलिंग गलत बोलते हैं और लोग हंसते हैं। ऐसा उनका किरदार अनवरत एक समान करता है, कहीं भी बिना किसी भटकाव के। पर मास्टरजी तो एक टूटती कलम से लिखे गए किरदार हैं, ये शुरू के दो मौकों पर हंसा देते हैं तो पटकथाकार आगे फर्जीवाड़ा करके निकल जाता है।

पगलापुर के किरदारों के परिचय के मौके पर लोग हंसते हैं। मुझे लगता है, लोग पागल शब्द से जोड़कर देखते हैं हर घटना, किस्से और आदमी को। फिल्म के किरदारों की हरकतों पर लोग ज्यादा हंसते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनके दिमाग की परतों में सिनेमा के पागल किरदारों और उनपर हंसने की प्रवृत्ति हावी है। यहां जब कह दिया जाता है कि ये पगलापुर के लोग हैं और इनका खौफ इतना है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी जो भारत के नक्शे पर गावों और कस्बों को दर्ज कर रहा होता है, उन्हें आता देख गांव के बाहर से ही अपनी गाड़ी मुड़वा लेता है। पर असल मायनों में ‘पागल’, ‘ग्रामीण’, ‘हंसोड़’ और ‘भोले’... इन चार शब्दों में शिरीष ने कोई फर्क नहीं किया है। कहीं पर जो ग्रामीण भर है वो पागल लगता है, कहीं पर जो पागल है वो महज ग्रामीण लगता है। कहीं वो बस भोले लगते हैं पागल नहीं, कहीं वो बस हंसा देना चाहते हैं कमतर नहीं होना चाहते। पर यहीं किरदारों-शब्दों का निरूपण न करने की बेपरवाह प्रवृत्ति नाखुश करती है और फिल्म को मृत्यु की ओर ले जाती है।

कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिता के पास पहुंचने पर अगस्त्य को पता चलता है कि वह तो बिल्कुल ठीक हैं (हालांकि यहां तक उन्हें पागल बताया जाता है)। जब नाराज होकर वह निकलने लगता है तो पिता (दर्शन जरीवाला) रोकते हैं और समझाते हैं कि इतने साल से उनका गांव नक्शे पर नहीं है, कोई सरकारी मदद और विकास उन तक नहीं पहुंचता, चूंकि तुम पढ़-लिखकर आगे बढ़े हो तो गांव के अपने भाइयों को भी इस दलदल से निकालो (दलदल, जिसे सभी काफी एंजॉय करते प्रतीत होते हैं)। ये सुनकर अगस्त्य रुक जाता है। यहां तक ‘सबकुछ ठीक है’, ‘अच्छा है’, ‘बहुत बुरा है’, ‘ऐसा क्यों’, ‘अरे यार’, ‘अरे शिरीष’, ‘धत्त’, ‘स्टूपिड’... ये विचार मन में चल रहे होते हैं। फिल्म खत्म होने तक सभी नैराश्य में तब्दील हो जाते हैं।

जानते हैं कुछ जिज्ञासाएं और बिंदुपरक बातें जो शिरीष की इस कोशिश को सम्मान नहीं दिला पातीं:-

  • यहां सब पागल हैं फिर भी इनकी बातों को सीरियसली लेकर अगस्त्य गांव क्यों चला आता है? और फिर बब्बन तो बोल भी नहीं सकता, फिर अगस्त्य का कौनसा भाई कैलिफोर्निया दीवा से फोन पर बात करता है? चलो बात किसी ने भी की हो, पर अगस्त्य को तो पता है न कि उसका भाई आम भाषा में बोल नहीं सकता। इतना सब न सोचने और गांव चले आने पर अक्षय के किरदार का नाराज होना।
  • एक तरफ हमें यकीन दिलाया जा रहा है कि ये पागलों का गांव है। इसका नाम तक किसी ने नहीं सुना और यहां कोई आता नहीं है। फिर अक्षय-सोनाक्षी के किरदार जिस दिन पहुंचते हैं, उस रात पगलापुर में शानदार आलीशान ग्लैमरस आइटम सॉन्ग का आयोजन किया जाता है। यहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है, आधारभूत ढांचा नहीं है पर आइटम सॉन्ग के लिए दुरुस्त लड़कियां-सेट और रोशनी आ जाती है। यहां पढ़ने के लिए रोशनी नहीं है पर इस गाने के सेट को देखिए जो चित्रांगदा सिंह से ज्यादा दमक रहा होता है। कहते हैं यहां पढ़ाई ही नहीं है, पर गाने के लिरिक्स देखिए। पीछे खड़े सैंकड़ों डांसर देखिए। अगर ये गांव के ही हैं तो पागल क्यों नहीं? दिखने में तो बस ज्यादातर खूबसूरत लड़कियां हैं या फिर गे या वृहन्नला।
  • यहां सब घर टूटे हैं, खंडहर से हैं। पर अक्षय-सोनाक्षी एकदम साफ-सुथरे हैं। उन्होंने गांव पहुंचने के बाद मुंह कहां धोया, नाश्ता क्या किया? रात तक पता नहीं चलता। (ये सब वो चीजें हैं जो फिल्म के सेट पर चीजों के मैनेज करते डायरेक्टर की टेंशन में नहीं आती कि छूट जाएं। ये वो चीजें हैं जो पटकथा लिखने की टेबल पर ही लिखी जाती हैं। अगर आप सैंकड़ों घंटे एक एनिमेटेड एलियन बनाने में लगा सकते हैं तो इन मूल चीजों को दुरुस्त करने में क्यों नहीं?)
  • श्रेयस और विंदू के कपड़े और अभिनय। इनका क्लीन शेव्ड चेहरा, सामान्य रूप से कटे बाल, न जाने किस काल के किसानी कपड़े और जिंदगी के पहले स्कूल प्ले सी एक्टिंग क्या नाव में बड़े-बड़े छेद नहीं हैं?
  • प्रिंस के कुएं में गिरने की बात को इतने साल बाद फिल्म में संदर्भ के तौर पर लिया जाना। क्या उसके बाद कोई बच्चा कुएं में नहीं गिरा? उसे क्यों नहीं लिया जा सकता था?
  • जहां बिजली नहीं है वहां टीवी या मल्टीप्लेक्स के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में एक दृश्य में बब्बन बने श्रेयस 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ के गीत “घनन घनन घन घिर आए बदरा” को अपनी एलियन सी भाषा में गुनगुना रहे होते हैं। ये कैसे?
  • ये अभावों से ग्रस्त इलाका है। बिजली नहीं है तो ट्यूबवेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। नहरी खेती के लिहाज से भी सरकारी फाइलों में पानी की बारी का यहां के खेतों में आ पाना संभव नहीं है। जब कोई विकल्प ही नहीं है तो क्या मान लें कि महज बरसाती खेती करके पगलापुर के लोगों ने आलीशान फसलें खड़ी कर रखी हैं? ऐसे लोगों ने जो कथित तौर पर पागल हैं। जिन्हें अपने घर पर सफेदी करने तक का शऊर नहीं है।
  • बिन बिजली अगस्त्य का एप्पल का लेपटॉप यहां कैसे चार्ज होता है?
  • लोकल नेता गांव के लिए बिजली की घोषणा भर करता है कि बस मेक्डी, लैपटॉप और कोका कोला जैसे ब्रैंड के जगमगाते होर्डिंग तुरंत लग जाते हैं (तुरंत कायापलट हो जाता है) कैसे? इतने बड़े ब्रैंड इतनी अंदरुनी जगह पर कैसे पहुंच जाते हैं? क्या इंतजार कर रहे होते हैं? (अगर इस तथ्य को सांकेतिक तौर पर लिया गया है तो भी फिल्म में यूं फिट नहीं होता) और फिर पगलापुर के सब लोग अजीब सी घड़ियां, गॉगल्स, जूते और कलरफुल जैकेट तो गांव में ब्रैंड्स के आने से पहले ही पहनने लग जाते हैं।
  • अमेरिकी साइंटिस्ट और अगस्त्य के प्रतिस्पर्धी साइमन को ढूंढने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी एफबीआई के हैलीकॉप्टर्स पगलापुर के आसमान में उड़ते नजर आते हैं। क्या पगलापुर भारतीय टैरेटरी में नहीं आता है? क्या ये अफगानिस्तान या क्यूबा की खाड़ी है कि अमेरिकी लोगो लगे हैलीकॉप्टर इस तरह खुले तौर पर कभी भी घुस आएं? भारतीय वायुसेना क्या ऐसे वक्त में सांप-सीढ़ी खेल रही होती है?
  • जमीन से तेल निकलता है तो क्या उससे कोई नहाता है? फिर यहां सब गांववाले क्यों नहाते हैं?

फिल्म में ऐसे कई और सवाल भी बनते हैं, पर इतनों से चित्र स्पष्ट होता है। ये कैसी विडंबना है कि शिरीष बड़े सपने देखते हैं और उनका पालन करते वक्त न जाने क्या गलतियां कर बैठते हैं कि ख्वाबों का एक-एक पंख टूटकर बिखर जाता है। वह कहीं बाजारवाद की सफल आलोचना कर पाते हैं तो कहीं पर विकास की अवधारणा को रत्तीभर भी नहीं समझ पाते। ‘जोकर’ के आखिर में वह दिखाते हैं कि पगलापुर की जमीन के नीचे बह रहा तेल फूट पड़ा है और अब विकास होगा। क्या तेल निकलना किसी जगह के लिए विकास का प्रतीक होता है? एक इंसान, विचारक और फिल्मकार के तौर पर वह क्या समाज और विकास के मॉडल की इतनी ही समझ रखते हैं? जितनी निराशाजनक ये डेढ़ घंटे की फिल्म है उतना ही ये असमझियां। इससे अच्छा तो तेल और खून से सनी डेनियल डे लुइस के अभिनय वाली ‘देयर विल बी ब्लड’ देखना है जो तेल के कुओं वाली जगहों और तेल से नहाए लोगों पर धारदार टिप्पणी करती है। और ‘जोकर’ हंसते-हंसते भी सामाजिक-आर्थिक विद्रूपताओं का कान नहीं मरोड़ पाती।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, July 21, 2012

जेम्स होमर की तरह आपके बच्चे भी क्या बैटमैन सीरिज के 'जोकर' और 'बेन' से प्रेरित नहीं होते होंगे!

फिल्मों के समाज पर असर से जुड़े पूर्व लेख यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं,
(कॉलम सीरियसली सिनेमा से)
Bane (played by Tom Hardy) in 'The Dark Knight Rises'


James Holmer in two different pictures
डेनवर, कॉलोराडो (अमेरिका) के थियेटर में एक मास्कधारी लड़के की गोलीबारी से 12 लोगों की मौत और 50 से ज्यादा के घायल होने की घटना एक बार फिर फिल्मों में हिंसा के ग्लैमराइज्ड चित्रण के सोशल असर को सामने लाती है। इस घटना के दौरान ‘द डार्क नाइट राइजेज’ का प्रीमियर चल रहा था। अमेरिका के हर शहर में शो हाउसफुल चल रहे थे। यानी प्रमोशनल गतिविधियों के बाद फिल्म का ग्लैमर युवा दर्शकों के सिर चढ़कर बोल रहा था। क्रिस्टोफर नोलन ने बैटमैन सीरीज की अपनी तीसरी फिल्म ‘द डार्क नाइट राइजेज’ को भी इतने अद्भुत तरीके से डायरेक्ट किया है कि दुनिया का कोई भी दर्शक सम्मोहित हो जाए। हालांकि सुपरहीरो बैटमैन हथियारों का इस्तेमाल नहीं करता, मगर उनकी फिल्मों के विलेन की हिंसक इमेज हांस जिमर के म्यूजिक की तरह भव्य और विराट होती जाती है। आसपास की मुश्किलों और नैराश्य को देखते हुए एक औसत दर्शक भी वैसा ही सबको डरा देने वाला विलेन कहीं न कहीं बनना चाहता है।

Heath ledger as Joker in 'The Dark Knight'
 और दुर्योग देखिए, डेनवर का 24 साल का हमलावर लड़का जेम्स होमर फिल्म के विलेन ‘बेन’ जैसे खौफनाक अंदाज में प्रस्तुत होना चाहता था। उसके लिए कॉलोराडो और डेनवर ‘गॉथम सिटी’ बन गए थे। वहां के पुलिस कमिश्नर रेमंड कैली की मानें तो जेम्स होमर खुद को बैटमैन का दुश्मन ‘जोकर’ (नोलन की पिछली फिल्म ‘द डार्क नाइट’ में हीथ लेजर ने जोकर का किरदार निभाया था, इस उलझे-नकारात्मक किरदार को निभाते-निभाते ही कहा जाता है कि हीथ इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि नशे की ओवरडोज से एक होटल में उनकी मौत हो गई, फिल्म की रिलीज से पहले। जोकर के रूप में हीथ के अभिनय को अब कल्ट माना जाता है।) कहकर संबोधित कर रहा था। कैली के मुताबिक उसने अपने बाल भी लाल रंग में रंगे हुए थे।

विश्व में जितने भी कमर्शियल फिल्में बनाने वाले निर्देशक हैं उनसे कभी भी पूछा जाए तो वो सीधे तौर पर फिल्मों के समाज पर असर को खारिज कर देते हैं। अगर वो सही हैं तो डेनवर, कॉलोराडो में हुई ये घटना क्या है? असल बात ये है कि किसी फिल्ममेकर ने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि वह जाने कि उनकी फिल्मों का समाज के अलग आयुवर्ग और मनस्थिति वाले लोगों-बच्चों पर क्या असर होता है? अगर नहीं होता तो बड़ी फ्रैंचाइजी वाले अपनी फिल्मों की मर्चेंडाइज क्यों बाजार में उतारते? ‘कृष’ के दौरान राकेश रोशन और उनके फिल्म निर्माण सहयोगियों ने ऋतिक रोशन के पहले सुपरहीरो इंडियन कैरेक्टर की मर्चेंडाइज उतारी। ऐसा ही ‘रा.वन’ के वक्त शाहरुख खान ने किया। अनुराग कश्यप ने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के बारे में कह तो दिया कि जो होता है वह ही दिखाते हैं, पर बात इतनी ही तो नहीं है? देखादेखी भी तो लोग स्टाइल मारते हैं। मसलन, ‘कुंवारी हो... सादी नहीं हुई’ सरदार खान का ये संवाद सुनने में हजारों दर्शकों को बड़ा ही अनूठा लगता हो, और दोस्त लोग आपस में बोलना भी शुरू कर देते हैं, पर ये एक ग्लैमराइज्ड असर तो हुआ न। अगर ये दिखता असर है तो बहुत से अनदिखते असर भी तो होंगे न? क्या ये हत्यारा किरदार इस तरह से दर्शकों की घृणा का कारण बनने की बजाय उनका प्यारा नहीं हो गया?

अगर आपको याद हो तो पिछले साल इसी तरह नॉर्वे नरसंहार करने वाला आंद्रे बेरविंग भी घटना को अंजाम देने से पहले समाज से कटकर अलग ही जहनियत वाला हो चुका था गया था, जाहिर है उसपर भी कई असर रहे होंगे। ‘फॉलिंग डाउन’, ‘टैक्सी ड्राइवर’ और ‘होबो विद शॉटगन’ जैसी फिल्मों के मुख्य किरदार भी ऐसे ही हैं। ये फिल्में ऐसे अपराधियों के बनने की वजहों पर रोशनी डालती हैं।

आज ऐसे वक्त में जब दुनिया भर का समाज धीरे-धीरे एक-दूसरे से कट रहा है, जब बच्चे और युवा आसानी से फिल्मों की कहानियों को असल मानकर जीना चाहते हैं, ‘डेनवर थियेटर’ जैसी घटनाएं होती हैं। अमेरिका में ज्यादातर सुपरमार्केट में एक चॉकलेट खरीदने वाला युवा बंदूक खरीद सकता है। भारत भी उसी व्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है। युवा मल्टीप्लेक्स में जाते हैं, 200 से 1000 रुपये आसानी से एक मूवी शो और पॉपकॉर्न-कोल्डड्रिंक पर खर्च कर देते हैं, जबकि उसी शहर में उनके हमउम्र युवा शिक्षाहीन और बिना किसी रुपये के हैं। उनमें निराशा और दिशाहीनता है। टीवी पर कॉमेडी करने वाले एक-दूसरे को थप्पड़ मारते हैं, गे लोगों या बार गल्र्स का मजाक उड़ाते हैं, एडल्ट बातें करते हैं, डबल मीनिंग डायलॉग बोलते जाते हैं और घोर लापरवाही बरतते हैं। ये सब जो हो रहा है, युवा और बालमन में कुछ सहनशील और सकारात्मक तो डालने से रहा।

आप आज के दौर की हिंदी फिल्में और फिल्ममेकर देखिए। प्रभुदेवा ‘राउडी राठौड़’ को साउथ की फिल्मों के सफल हिंसक-मनोरंजक फॉर्मेट पर बनाते हैं सिर्फ कारोबारी फायदे के लिए। इस ग्लैमराइज्ड एक्शन के बच्चों पर होने वाले बुरे असर के बारे में एक बार उनसे पूछा तो वह बोले, ‘आपके पूछने से पहले सोचा नहीं, आगे ध्यान रखने की कोशिश करूंगा’। जाहिर है वो ध्यान क्या ही रखेंगे? फिर आते हैं कारोबारी लिहाज से सफल डायरेक्टर रोहित शेट्टी पर। अपनी मूवीज (गोलमाल, सिंघम, बोल बच्चन) में ग्लैमराइज्ड एक्शन पर वह बार-बार पूरी दिशाहीनता के साथ कहते हैं, ‘मैं फिल्में समाज के भले के लिए नहीं बनाता, बस एंटरटेन करने के लिए बनाता हूं’। यानी वह भी जिम्मेदारी नहीं कुबूलते। ऐसा ही हाल तकरीबन समाज की बजाय बस सिनेमा को ही देखने और तवज्जो देने वाले तमाम फिल्मकारों के साथ है।

मैं डेनवर में हुई इस दुखद घटना को किसी एक इंसान की दिमागी खराबी नहीं मानता। हम जैसा समाज बनाते हैं, हमें वैसे ही समाज का सामना करना पड़ता है। अब देखिए न, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ जैसी हिंसक फिल्म में भी उस थियेटर में एक कपल अपने तीन महीने के बच्चे को साथ लेकर गया था। अब समझिए कि भला उस बच्चे को कौन से मनोरंजन की जरूरत रही होगी? वो इस फिल्म से क्या सीखने वाला होगा? इस गोलीबारी में वह नवजात भी घायल हुआ और फिलहाल अस्पताल में है।
*** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, April 25, 2012

"मायापुरी पढ़के अचानक ही नहीं चला आया था बॉम्बे, काम को पॉलिश करके आया था: पित्तोबाश"

पित्तोबाश त्रिपाठी ने राजकुमार हीरानी की फिल्म 'थ्री इडियट्स' में जूनियर स्टूडेंट का छोटा सा रोल किया था, याद करने के लिए शायद डीवीडी फॉरवर्ड करके देखना पड़े। मगर अगले साल उनकी दो ऐसी फिल्में आई जिन्होंने उनका करियर बदल कर रख दिया। पहली थी नील माधव पांडा की 'आई एम कलाम' और दूसरी राज निदिमोरू-कृष्णा डीके द्वारा निर्देशित 'शोर इन द सिटी'। दूसरी फिल्म में मंडूक के रोल के लिए उन्हें 'बेस्ट एक्टर इन अ कॉमिक रोल' के कई अवॉर्ड इस साल मिले। उड़ीसा के पित्तोबाश ने भुवनेश्वर से 12वीं तक की पढ़ाई की। फिर कोलकाता से इंजीनियरिंग करने के बाद पुणे के नामी संस्थान फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया से एक्टिंग में तीन साल का कोर्स किया। मुंबई में आने के छह महीने के भीतर उन्हें 'मिर्च' फिल्म में पहला रोल ऑफर हो गया था। उनकी आने वाली फिल्मों में शिरीष कुंदर की 'जोकर' और दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' जैसे बड़े नाम हैं। दो दिन पहले ही उन्होंने अपने ड्रीम एक्टर अमिताभ बच्चन के साथ एक हेयर ऑयल की ऐड फिल्म शूट की है। प्रस्तुत हैं मौजूदा वक्त के कुछ बेहद काबिल युवा अभिनेताओं में से एक पित्तोबाश से बातचीत के कुछ अंश, विस्तृत बातों का कारवां भविष्य के गर्भ में कभी आने वाली विस्तृत साक्षात्कारों की श्रंखला में:

स्ट्रग्ल नहीं करना पड़ा?
इस प्रफेशन में असुरक्षाएं तो हमेशा रहेंगी, लेकिन आप आते हो। मैं मायापुरी पढ़के अचानक यूं ही नहीं आ गया था। इंजीनियरिंग पढऩे के साथ पांच साल थियेटर किया कोलकाता में। फिर तीन साल फिल्म ट्रेनिंग, पूना से। अपने काम को अच्छी तरह पॉलिश करके फिर मुंबई आया।

'आई एम कलाम' से लेकर 'शोर इन द सिटी' तक, हर किरदार अलग कैसे बना? अलग कैसे बनता है?
तीन चीज हैं, ऑब्जर्वेशन, इमैजिनेशन, कॉन्सनट्रैशन। आप चीजें ऑब्जर्व करते हो और कल्पना मिलाकर किरदार को एक रूप देते हो। फिर ध्यान केंद्रित करके परफॉर्म करते हो। यह तो मूल चीज हो गई। लेकिन घिसना तो पड़ेगा। उसी चीज को करते-करते आपकी वॉयस ट्रैनिंग होगी, इमैजिनेशन पावर तेज होगी, आप कैरेक्टराइजेशन करना भी समझेंगे।

रोल मिलने और शूटिंग शुरू होने के बीच क्या करते हैं?
मुझे किरदार का 90 फीसदी स्क्रिप्ट से मिलता है। बस पढ़ते रहिए। हर बार किरदार के बारे में नया जानेंगे। उसे जोड़ते रहिए और अपने किरदार का एक स्कैच सा बनाते रहिए। उसके पीछे की कहानी कि वह ऐसा क्यों हो गया है? फिर उसकी बॉडी लेंग्वेज, डायलेक्ट, लुक, एक्सेंट और सोच पर मेहनत होती है।

मैथड एक्टिंग करना और जैसे हो वैसे ही रिएक्ट करके एक्ट करना, इन दोनों शैलियों में फर्क है?
कई तरह की एक्टिंग स्कूल हैं। जैसे माइजनर (अमेरिकी थियेटर कलाकार) की अलग है। स्टैनिस्लावस्की (पहला एक्टिंग सिस्टम इजाद करने वाले) का मैथड भी है। मैं स्टैनिस्लावस्की मैथड फॉलो करता हूं। अभिनय की दुनिया में 90 फीसदी स्वीकार्य तरीका यही होता है। मैं हमेशा क्या करता हूं, कि मान लीजिए पुलिस का रोल मिला। तो मैं ऐसे नहीं सोचता हूं कि खुद पुलिस होता तो क्या करता। मैं सोचता हूं कि एक लाख पुलिस होती है और मैं उनमें से एक हूं तो मैं कैसे व्यवहार करूंगा।

मौजूदा अच्छे एक्टर?
कई हैं। मसलन 'शैतान' में जो लड़के थे, या जो लिक्विड था 'प्यार का पंचनामा' में।

'शोर इन द सिटी' के लिए जब बेस्ट कॉमिक रोल का अवॉर्ड आपको मिला तो शो एंकर कर रहे शाहरुख खान ने क्या कहा?
फंक्शन के बाद उन्होंने कहा कि तेरा नाम बड़ा मुश्किल है यार। पता नहीं मैंने उच्चारण सही किया था कि गलत। मैंने कहा, मुश्किल तो है पर इसीलिए तो आप शाहरुख खान हैं, क्योंकि आपने बिल्कुल सही बोला। उन्होंने बधाई दी और कहा कि तुम्हें सिल्वर स्क्रीन पर और भी ज्यादा देखना चाहता हूं।

कोई एक्टिंग में आना चाहे तो...
घास भी काटते हो तो ट्रेनिंग की जरूरत है। पहले पढ़ाई लिखाई करो, फिर अच्छी ट्रेनिंग लो, फिर आओ। ऐसे ही मुंह उठाकर चले आना गलत बात है। यहां कोई रिटायर नहीं होता। कि 200 सीटें हैं और 100 रिटायर हो गए और खाली हो गईं। मैं जिस दिन बॉम्बे इंडस्ट्री में आया तब भी अमिताभ बच्चन वहां थे, जितने लोग हैं वो सब थे, लेकिन आपको प्रूव करना पड़ेगा कि मैं भी आउंगा।

बिना इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग लिए नहीं आ सकते?
सीखने का मतलब सिर्फ यह नहीं कि इंस्टिट्यूट से ही आएं। कोई 15 साल थियेटर करके आते हैं कोई 10 साल। लेकिन फिल्म में आते हो तो मीडिया की ट्रेनिंग लेनी बहुत जरूरी है। करोड़ों रुपये खर्च होते हैं एक फिल्म में, अब कोई आपको सिखाने के लिए तो वहां बैठा नहीं है। एक शॉट रीटेक होता है आपकी वजह से, तो पांच लोग चिल्लाते हैं।

स्टार्स की औलादों के बारे में लोग कहते हैं कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। आपने तुषार के साथ 'शोर इन..' में काम किया। लगा नहीं कि यार इसे तो एक्टिंग नहीं आती?
अब फ्रेम में मेरा और तुषार दोनों का काम अच्छा था तभी तो उन्हें भी सराहा गया और फिल्म भी अच्छी गई। मैं कोशिश करता हूं कि किसी के साथ काम कर रहा हूं तो उस सीन में हम दोनों बेस्ट करें ताकि सीन अच्छा निकले।

भारत और वल्र्ड सिनेमा में ऐसी फिल्में जो आपको खूब पसंद हैं और लोगों को देखनी चाहिए?
एमेरोस पेरोस, सिटी ऑफ गॉड, बर्थ ऑफ नेशन, चिल्ड्रन ऑफ हैवन, राशोमोन, बाबेल, पल्प फिक्शन, कागज के फूल, गरम हवा, दो बीघा जमीन, मदर इंडिया, आवारा.

निर्देशकों में किसका काम पसंद है?
जॉनर के हिसाब से। थ्रिलर में श्रीराम राघवन इज द बेस्ट। कमाल। इंडियन सिनेमा में अगर आप थ्रिलर की बात करेंगे तो मैं उदाहरण दूंगा 'एक हसीना थी' का। डॉर्क जॉनर में विशाल भारद्वाज हैं। एंटरटेनमेंट और कंटेंट में राजकुमार हीरानी कमाल हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी