रविवार, 10 फ़रवरी 2013

मक्खी शब्द के मायने बदलने का वर्षः 2012

मूलतः तेलुगू भाषा में फिल्म बनाने वाले के. के. राजामौली की शुरुआती फिल्में बहु-भाषाओं में डब हुईं तो बाद की फिल्मों के कई भाषाओं में रीमेक बने। अक्षय कुमार स्टारर राउडी राठौड़ और अजय देवगन की सन ऑफ सरदार उन्हीं की कारोबारी तौर पर बेहद सफल दक्षिण भाषी फिल्मों की हिंदी रीमेक रही हैं। गुजरे साल उन्होंने एक मक्खी की कहानी बड़े परदे पर दिखाई। मक्खी जो पैसे, पावर और पाप से चूर एक मनुष्य को धूल चटाती है। न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी फिल्म की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। आइए जानते हैं इस फिल्म के भीतर की गहराइयों को और इसे देखने के और भिन्न परिपेक्ष्य को।


“मैं यह मरियल देह नहीं हूं, देह तो केवल ऊपर की क्षुद्र पपड़ी है; और दूसरा यह कि मैं कभी न मरनेवाला अखंड और व्यापक आत्मा हूं”। - विनोबा, ‘गीता प्रवचन’ में

Poster of 'Makkhi.'
वैज्ञानिक सोच रखना इतना जरूरी अभी बना दिया गया है कि पुनर्जन्म, कर्म, आस्था, पवित्रता, परोपकार और स्पर्शहीन प्रेम की बात करने वाला अंकल जी समझा जाता है, पुरानी सोच वाला समझा जाता है, खारिज समझा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस को हिंदी में उद्धरित करें तो आधुनिकता की बात आ जाती है, जिक्र करने वाले को पिछड़ा हुआ महसूस करवाया जाता है। हां, अगर ये ग्रंथ अंग्रेजी में हों और उन्हें उद्धरित करने वाले परदेसी शिक्षाविद्, पत्रकार, राजनेता, साहित्यकार, फिल्मकार और नौजवां हों तो कोई आपत्ति नहीं होती। समाज में जब अपनी पृष्ठभूमि और पुराण यूं बहिष्कृत कर दिए गए हों वहां फिल्मकारी और एस. एस. राजामौली आते हैं। वह जो कहते और दिखाते हैं, हम मानते हैं। अगर उनकी फिल्म का नायक मार दिया जाता है और पुनर्जन्म से उसका आत्मा उसी क्षण एक मक्खी के अंडे में प्रविष्ट हो जाता है, हम मानते हैं। बाद में मक्खी की देह में वह नायक इंसानों की भांति सोचता, समझता, पढ़ता, याद रखता और क्रियाएं करता है... हम मानते हैं। उस मक्खी से नायक की (उसकी) प्रेमिका प्रेम करने लगती है, हम मानते हैं। अंततः वह अपना बदला पूरा कर लेता है, हम सबकुछ मानते हैं।

क्यों?...

क्योंकि ये फिल्में हैं, और एक फिल्म रचने वाला जहान भर की अतार्किक चीजें सिनेमाई तर्कों से मानव मस्तिष्क में डालना जानता है। उसके पास इतने फिक्स तरीके हैं कि जो चाहे मनवा सकता है। कुछ भी। बेन एफ्लेक की इस बार के ऑस्कर पुरस्कारों में धूम मचाने जा रही ‘अर्गो’ भी ऐसी ही एक सुखद फिल्म है। 1979 की इस कहानी में तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर आतंकी कब्जा कर लेते हैं, 50 से ज्यादा लोग बंधक बनते हैं, उनमें से छह भागकर दूसरे देश के एक राजदूत के घर में छिप जाते हैं। उन छह को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए एक सीआईए अधिकारी टोनी मेंडेज (एफ्लेक) को ईरान में घुसना है। तो वह एक छद्म फिल्म निर्माता बन वहां जाता है। थ्रिलर-ड्रामा ‘अर्गो’ के भीतर ही वह ‘अर्गो’ नाम की साइंस-फैंटेसी बनाने का ढोंग करता है और वो छह लोग लौटते में उसके कैनेडियन क्रू होने का। फिल्म क्रू होने के बहाने इस खतरनाक मिशन पर दुश्मन देश जाने की ऐसी नाटकीय कोशिश 33 साल पहले सच में हुई थी। पिछले साल आई तमिल फिल्म ‘पयनम’ में भी मेजर रविंद्र (नागार्जुन) विमान बंधक बनाने वालों को यकीन दिलाने के लिए कि उनका मर चुका आतंकी लीडर यूसुफ खान जिंदा है, एक फिल्म निर्देशक (ब्रह्मानंदम) और एक्टर (श्रीचरन) की मदद लेता है। फिर एक वीडियो फुटेज बनाई जाती है जिसमें डायरेक्टर उस एक्टर को हूबहू आतंकी लीडर जैसा प्रस्तुत करता है।

ये दोनों ही किस्से निर्देशक राजामौली की जादूगरी के समानांतर चलते हैं। जादूगरी ऐसी कि जब तक मक्खी खत्म होती है, एक आश्चर्यजनक-मजबूत संदेश दर्शक की रीढ़ तक पहुंच चुका होता है, कि ‘अब कोई किसी मक्खी को यूं न मारेगा’। चींटी और हाथी की कहानी से हम सभी पहले परिचित थे, कि एक चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो उसके प्राण ले सकती है। इस फिल्म के बाद हम मक्खी और इंसान की कहानी याद रखते हैं। वाकई लगने लगता है कि अंततः एक मक्खी भी ताकतवर होती है, अगर अपनी असल शक्ति पहचान ले तो। अद्भुत! हालांकि फिल्म का तमिल नाम ‘एगा’ ज्यादा इज्जत भरा और अज्ञात-रहस्यमय लगता है, पर फिर सोचने लगता हूं कि मक्खी नाम निम्न, नीचा, गंदा, कुत्सित, कमजोर, कायर, पैरों में गिरा, आम और गरीब जैसे शब्दों का पर्याय बन चुका है... ‘एगा’ नाम रखकर फिल्म का स्तर तो ऊपर आ जाता पर ‘मक्खी’ शब्द के मायने सम्मानजनक बनाने ज्यादा जरूरी हैं, वो कब हो पाता। इसलिए मक्खी शब्द ही बार-बार दोहराना होगा, इतनी बार कि हमारे जेहन में इस शब्द के पर्याय ही बदल जाएं। चूंकि मक्खी आज देश के आम आदमी की समानार्थक है तो ऐसा हो कि इस शब्द को सुनकर जेहन में कमजोर की नहीं सम्मानित पर्याय की छवि उभरे।

सरल शब्दों में कहूं तो देखने से पहले फिल्म का नाम सुनकर इच्छा हुई कि ‘हुंफ... मक्खी। क्या नाम है? ऐसी ही होगी... इसे भी अखबार पटककर मार दो और दूर फैंक दो’। पर जब देखी तो राय बदल गई। ये फिल्म हमें कभी किसी को मक्खी न कहने और छोटा या गरीब न समझने का अप्रत्यक्ष एहसास देती है जो कि बहुत ही अच्छी बात है।

Nani and Samantha in a still.
तो ये कहानी सबसे पहले एक नौजवान जॉनी/नानि (नवीन बाबू) और लड़की बिंदु (समांथा) की है। जॉनी बिंदु के घर के सामने रहता है। उससे बेइंतहा प्यार करता है। बिंदू माइक्रो आर्टिस्ट है। चावल के दानों से कलाकृतियां बना देती है। प्यार दोनों में काफी वक्त से है पर शर्म के साये पलता है। शांत, मासूम, मर्यादित और आत्मीय प्यार। लोगों को अचरज होता होगा कि दक्षिण की अनजानी फिल्म, अनजाने एक्टर और बेसिर-पैर की कहानी भला पूरी दुनिया में एक स्वर में क्यों सराही जा रही है? जवाब इतना आसान नहीं है, मगर फिल्म के शुरू में ही दर्शकों से जुड़ जाने की एक वजह इन दोनों किरदारों के प्यार का ये भोला स्वरूप है। लोग भले ही कितने ही आधुनिक बना दिए जा रहे हैं, पर मूलतः वह आज भी अपने उन्हीं नजरों में छिपे अस्पृश्य बने रहते प्यार की जड़ों से पोषित होते हैं। खैर, दोनों ने प्यार का मौखिक इजहार नहीं किया है, पर एक-दूसरे की परवाह प्यार वालों के जैसे करते हैं। बिजली चली जाती है तो जॉनी डिश की छतरी को लाइट बनाकर बिंदू की खिड़की में रोशनी फैंकता है जिसके तले वह अपना काम कर पाती है। अपने एनजीओ से लौटते वक्त जब उसकी स्कूटी पंक्चर हो जाती है तो वह जॉनी को मिस्ड कॉल देती है और जब वह गली में आ जाता है तो उसके आगे-आगे अपने घर की ओर पैदल बढ़ती है। वह बिंदू के पीछे-पीछे चलता रहता है और उसे घर तक छोड़कर आता है। रास्ते में सपने में दोनों गाने गाते हैं।

अब यहां दो-तीन चीजें हैं।

एक तो बिंदू का शर्म-ओ-हया और मर्यादा में रहना। उसे पता है, आम हिंदुस्तानी लड़कियों को उनकी मांएं क्या सीख देती हैं, कि रात को अकेले नहीं आना-जाना, देर हो जाए तो किसी भरोसेमंद को साथ ले लेना। इसलिए वह जॉनी को फोन करती है। दूसरा, जॉनी बात करना चाहता है, पर समझ जाता है कि उसकी स्कूटी पंक्चर है और वह चाहती है कि उसके साथ घर तक सुरक्षा के लिहाज से जाऊं। तो वह जाता है। बिना बातों के, बिना किसी स्पर्श की कामना के उसके साथ चलता है। तीसरा, इन दोनों के प्यार का ये स्वरूप ही कहानी में आगे ज्यादा काम आता है। अगर ये दोनों हाथों में हाथ डाले पार्क में बैठते, फोन पर बहुत बातें करते, रोमैंस करते या शारीरिक होते तो कहानी और दर्शक दोनों ही इनका साथ छोड़ देते क्योंकि आगे तो जॉनी के शरीर का स्वरूप पूरी तरह बदल जाना है। ऐसे में अनकंडिशनल लव और शरीर की कम महत्ता वाले प्यार का शुरू में होना जरूरी था। जब जॉनी मक्खी हो जाता है तो भी बिंदू उससे जुड़ाव महसूस कर पाती है और उस आत्मा से प्यार कर पाती है जो जॉनी के शरीर के इतर था।

कहानी में फिर बहुत ही जल्द सुदीप (सुदीप, रामगोपाल वर्मा की ‘रण’ में अमिताभ के किरदार के बेटे बने थे) का प्रवेश होता है। वह करोड़पति कारोबारी है। व्याभिचारी है। पता चलता है कि पैसों के लिए उसने अपनी पत्नी को मार दिया था। बिंदु की सुदीप से मुलाकात अपने एनजीओ के लिए डोनेशन लेने के सिलसिले में होती है। वहां बिंदु पर नजर पड़ते ही सुदीप के मन में हवस जाग जाती है। वह यहीं से बिंदु को अपनी अच्छी छवि से प्रभावित करने की कोशिश करता है। पर जॉनी बीच में आ जाता है। सुदीप उसे बेरहमी से मरवा देता है जिसकी जानकारी बिंदु को नहीं होती। पर ये हिंदुस्तान है और ये दक्षिण भारत है। यहां आस्था का रास्ता तर्कों से नहीं भावों से होकर गुजरता है। उसका पुनर्जन्म होता है, पूरे दैवीय और भरोसेमंद तरीके से। और वह सुदीप से बदला लेता है। और वह बिंदु की रक्षा करता है।

कंप्यूटर प्रभावों से रचित इस मक्खी और कुछ दृश्यों में हमें एनिमेशन के नकली रंगों को बर्दाश्त करना पड़ता है, पर चलता है। बावजूद इसके फिल्म ऐसी बन पड़ती है कि विदेशी फिल्मकार भी देख लें तो भाव विह्अल हो जाएं। आखिर फिल्म इतनी विश्वसनीय और जादुई कैसे हो पाती है? इसका एक मूलभूत उत्तर एरॉन सॉर्किन देते हैं। ‘द सोशल नेटवर्क’ के स्क्रीनप्ले राइटर एरॉन से दो साल पहले एबीसी न्यूज के एक साक्षात्कार में पूछा गया, “जो इंसान सोशल मीडिया को खुद इतना नापसंद करता है आखिर वह फेसबुक की कहानी कैसे लिख बैठता है?” और एरॉन ने कहा, “मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि मैंने फेसबुक की कहानी लिखी है। हां, केंद्र में ये आधुनिक आविष्कार (फेसबुक) जरूर है, इसकी कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि कहानी कहने की विधा। इसमें दोस्ती, धोखे, वफादारी, ईर्ष्या, ताकत और वर्ग (क्लास) की थीम हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में एस्केलस (प्राचीन लैजेंड्री ग्रीक नाटककार) ने लिखा होता, शेक्सपीयर ने लिखा होता और कुछ दशक पहले पैटी चेयोवस्की (पॉलिश उपन्यासकार और लेखक) ने लिखा होता”। राजामौली की फिल्म के पीछे भी तार्किकता, भावुकता और नाटकीयता की प्राचीन संगति वाली स्क्रिप्ट काम करती है। जॉनी के मक्खी के रूप में जन्म लेने की कड़ी के बाद में हम एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, रक्त रंजित बदले की भावना। अभी पूरा तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और हिंदी सिनेमा हिंसा के इस भाव को भुना, धड़ाधड़ पैसे कूट रहा है। खैर, इसमें साथ देता है राजामौली के पुराने सहकर्ता एम. एम. कीरावेनी का संगीत। बाकी भावों में असर पैदा करने के लिए स्लो मोशन में उड़ते पत्ते, गाए जाते लव सॉन्ग और स्टंट होते दिखते हैं।

देश के मौजूदा हालातों से फिल्म एक सीन में जबर्दस्त सांकेतिक रूप से जुड़ती है। इस सीन में सुदीप भाप स्नान लेने के लिए हॉट एयर मशीन में फिट होकर बैठता है। मुंह को छोड़ वह बाकी सारे शरीर को मशीन में लॉक करवा लेता है। अब वहीं मक्खी के रूप में इंतजार कर रहा होता है जॉनी। वह सुदीप की नाक पर बैठकर उसे बेबस कर देता है। यहां ये एक कॉमन मैन की सत्ता को सबक सिखाने वाली गूंज लगती है। यहां वह पल याद आता है जब जॉनी नाम का ये अदना सा लड़का और भी मामूली सी मक्खी बनकर लौटता है। इस पल उसे एहसास होता है कि वह कितना लाचार है। वह सुदीप को पहली बार देखता है और आग-बबूला हो जाता है। उसकी मक्खी वाली आंखों में ज्वालामुखी फूटने लगता है। वह पूरी ताकत जुटाकर हवाई यान की गति से उड़ता हुआ आता है, ये सोचते हुए कि एक टक्कर में सुदीप के टुकड़े-टुकड़े कर देगा और वह भिड़ता है। पर देखता है कि कुछ नहीं हुआ। सुदीप ने तो उसे देखा तक नहीं, उसे चोट पहुंचाना तो बहुत दूर की बात है। एक दर्शक के तौर पर मैं रूआंसा हो जाता हूं। उस मक्खी में खुद का अक्स देखता हूं। जॉनी न सिर्फ अभी मक्खी है बल्कि जीते जी भी एगा यानी मक्खी ही था। तभी तो उसे सुदीप ने चुटकी बजाते मरवा दिया। मैं एक आम इंसान भी ऐसा ही हूं। किसी चीज का विरोध करूं तो रातों-रात नक्शे से मेरा नाम मिटा दिया जाए। चाहे बेटी को छेड़छाड़ से बचाने की कोशिश में गोली मार दिए गए पंजाब के एक ए.एस.आई. रविंदर पाल सिंह का मामला हो या हर राज्य में निरंकुशता की ऐसी दर्जनों बर्बर घटनाएं; चाहे गैस सिलेंडर के बढ़े भाव हों, मल्टी ब्रैंड रिटेल में एफ.डी.आई. को मंजूरी हो और दमनकारी तरीके से थोप दी गई नई आर्थिक नीतियां हों, हम जनता तो मक्खी ही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उभरे घोटालों पर कोई कार्रवाही न होना और रोज सत्ता पक्ष के वकील प्रवक्ताओं की मूर्ख बनाने वाली बातों का मजमा लगना, हमारा मखौल उड़ाता है। कि तू लाचार है, तू आम है। है कोई माई का लाल तुममें जो प्रधानमंत्री के कान में जूं भी रेंगवा दे। उन्हें डरा के दिखा दे। उन्हें ये समझा दे कि आम आदमी के हिसाब से सब तय करो। उन्हें ये समझा के दिखा दे कि पूंजीवाद इस देस की मूल धारा नहीं था। सिलेंडर के दाम कम करवा के दिखा दे। कोई नहीं करवा सकता है। तो शुरुआती दृश्य में सुदीप सत्ता और मक्खी आम इंसान है, लगता है सत्ता के गाल से कितना भी भिड़ लें कुछ न होगा। पर बाद में मशीन में बंद भाप स्नान करते सुदीप को जॉनी रुला देता है। यहां से सीन दर सीन वह अपने दुश्मन को तोड़ता जाता है और हराता जाता है। ठीक अरविंद केजरीवाल के घोटालों के खुलासों की तरह। ये एगा प्रेरणा बनता है कि समाज के कमजोर सोच लें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।

इस सांकेतिक दृश्य के बाद सारा ध्यान स्थिर होता है मक्खी के भाव व्यक्त करने के तरीके पर और कहानी की प्रस्तुति पर। सुदीप से बात करने के लिए निर्देशक महोदय जाब्ता ये करते हैं कि टीवी का रिमोट दब जाता है और टीवी पर आ रही रजनीकांत की फिल्म शिवाजी का डायलॉग गूंजता है। इसमें रजनी बोलता है पर सुदीप को एहसास हो जाता है कि ये किसी और की चुनौती है, “मुन्ना झुंड में तो सूअर आते हैं, शेर तो अकेला ही आता है...” और रिमोट दबा रह जाता है और ये लाइन दोहराती रहती है। सुदीप अपने आदमियों से पूछता है, “ये एनिमल्स बदला लेते हैं क्या?” तो एक कहता है, “हां सर, बड़जात्या की पिक्चरों में”। वह पूछता है, “अरे असल में क्या?” वह आदमी कहता है, “हां सर, सांप, छोटे सांप सब बदला लेते हैं। एक बार मेरी दादी ने बताया था कि दादा को सांप ने काट लिया था”। सुनकर सुदीप की जिज्ञासा और सोच बढ़ती जाती है, वह पूछता है, “सांप नहीं, छोटे जानवर... जैसे चिड़िया, चूहा, मक्खी?” तो वह कहता है, “ले सकते हैं सर। सांप ले सकते हैं तो मक्खी को भी मौका मिलना चाहिए न सर”। ऐसे डायलॉग धीमे-धीमे तर्क बनते जाते हैं। दर्शक सुदीप को भरोसा करते देखता है, डरते देखता है तो उसके लिए भी तसल्ली की बात हो जाती है कि हां भई, मक्खी वही लड़का है और अब ये विलेन डरने लगा है। देखो, कैसे अपने आदमियों से पूछ रहा है। आदमियों के जवाब देने के तरीके में जो हास्य है वो दर्शकों के लिए दोतरफा काम करता है। एक तो फिल्मी हास्य का कोटा पूरा होता है और दूसरा विलेन के चेहरे की हवाइयां उड़ती देख उसके थियेटर में आने का ध्येय पूरा हो जाता है।

Sudeep in a still.
कहानी में अघोरी भी आता है, सुदीप को देख कहता है, “पैसे की आग, मुंह पे राख, होगा, सब होगा, तब इस तंत्रा को ढूंढने आओगे”। मगर बिना किसी परलौकिक शक्तियों के अघोरी को भी मक्खी हरा देता है। फिल्म में एक बड़ा रूपक भी आता है। बिंदु हवा में जहरीला स्प्रे मार रही है और उसे देख मोहित हो चुका मक्खी जहर पी हवा में गिर रहा है। दोबारा स्प्रे करने के दौरान डिब्बे में अड़कर उसके गले का हार उड़कर टूट जाता है, ये हार जॉनी और उसके प्यार की निशानी है। जब दर्शक भावुक तौर पर यहां निचोड़ा जा चुका होता है और मक्खी मरने को होती है तो जाते-जाते बिंदु बगीचे में पानी का नल चालू कर देती है और उस पानी से मक्खी बच जाता है। बाद में जब बिंदु को बताना होता है कि वह जॉनी है और इस रूप में लौटा है तो लकीरें खींचकर मक्खी लिखता है, “आई एम जॉनी रीबॉर्न”। ऐसे क्षण में ये पहलू किसी भी फिल्मकार के लिए चुनौती भरा हो सकता है कि अब भला इस नर मक्खी और इस युवती के बीच संवाद कैसे हो? वह फिर से मिल रहे हैं तो गले मिलें? हाथ मिलाएं? कि क्या करें? यहां इन जरूरतों से बचा इसीलिए जाता है क्योंकि कहानी के शुरू में दोनों का अस्पृश्य प्यार दिखाया जा चुका था। जब संवाद और शारीरिक स्पर्श पहले भी अप्रत्यक्ष ही थे तो यहां भी ऐसे ही चल जाता है। अपनी महबूबा को पा मक्खी में और हिम्मत आ जाती है। अब उसके लिए पार्श्व गीत बजाया जाता है। “मक्खी हूं मैं मक्खी, सैर कर नरक की, मेरी इक नजर से तूने मौत चक्खी..”। इस दौरान मक्खी जो कर रहा होता है, वो दर्शकों के सामने अपनी पूरी किरकिरी करवाने वाला होता है, पर दर्शक उसे गंभीरता से ले रहे होते हैं। जॉनी यहां मक्खी बना कसरत कर रहा होता है। डंबल उठाता है, पुशअप करता है, और तो और कैसेट रील को ट्रेडमिल बनाकर उस पर जॉगिंग करता है। कुछ को ये मूर्खता की पराकाष्ठा लग सकती है, पर शुरू में मैंने जिन फिक्स तरीकों का जिक्र किया था जिनमें एक फिल्मकार दर्शकों से कुछ भी मनवा सकता है, ये उन्हीं में आते हैं।

यहां इस दृश्य के बचकानेपन पर हम जिरह करने भी लगें तो देखिए कहां तक पहुंचते हैं। पहला तर्क मन में आता है कि मक्खी और सुदीप के शरीर में भौतिक रूप से जमीन-आसमान का फर्क है। चाहे मक्खी कितनी भी कसरत कर ले वह वैज्ञानिक रूप से फूंक भर ज्यादा ताकतवर भी न होगा। दूसरा कि हिंदी फिल्मों में जब भी किसी हीरो को किसी दुर्घटना से वापसी करनी होती है या उसे कमजोर से ताकतवर बनना होता है तो इन्हीं सब प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। 2003 में आई ‘दम’ (और दो साल पहले आई मूल तमिल फिल्म ‘धिल’) में जब उदय (विवेक ओबेराय) को इंस्पेक्टर शंकर मार-मार कर ट्रेन की पटरियों पर फिंकवा देता है तो उसकी वापसी के चरण भी ऐसे ही होते हैं। अस्पताल में मृतप्राय पड़ा उदय दोनों टूटी टांगों से एक दिन चलने लगता है, फिर जॉगिंग और कसरत आदि करके खुद को लड़ने लायक और पुलिस की परीक्षा देने लायक बनाता है। निर्देशक मंसूर खान की सदाबहार प्रस्तुति ‘जो जीता वही सिकंदर’ में जब रतन (मामिक सिंह) को राजपूत कॉलेज के लड़के मारपीट के दौरान गलती से पहाड़ियों पर से धकेल देते हैं तो वह बुरी हालत में अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है। पिता (कूलभूषण खरबंदा) और पूरे मॉडल कॉलेज के लिए आने वाली साइकिल रेस में आशा की किरण रतन ही था, मगर अब उसके वापसी करने में इतना वक्त लगेगा कि देर हो जाएगी। ऐसे में पिता की आंखों के आंसू पोंछने के लिए निखट्टू और आवारा छोटा बेटा संजय (आमिर खान) सामने आता है। उसके कमजोर से योग्य बनने की प्रक्रिया भी यही होती है। जॉगिंग, साइकलिंग और परिवार-दोस्तों की हौसला अफजाई। वही हौसला अफजाई जो मक्खी की बिंदु करती है।

मक्खी की भाव-भंगिमाओं में तरंग डालने की राजामौली छोटी, घिसी-पिटी पर सफल कोशिश करते हैं। गाड़ी में जा रहे सुदीप की हालत वह ऐसी करता है कि उसका बुरा एक्सीडेंट होता है, उसके बाद वह उसकी कार के शीशे पर लिख जाता है, “आई विल किल यू”। वह अपने खड़े बालों पर हाथ फिराता है जैसे हिंदी फिल्म का कोई बड़ा हीरो है, जो वह है भी। बिंदु के साथ मक्खी हाई फाइव करता है। इसी दौरान एक दृश्य में अपने दुश्मनों के खून से नहाए मक्खी को बिंदु सीरिंज के पानी से नहलवाती है। हमारी दक्षिण भारतीय फिल्मों में हीरो गंडासों-तलवारों से रक्त बहाते हैं (गिप्पी ग्रेवाल की आने वाली पंजाबी फिल्म ‘सिंह वर्सेज कौर’ का ये गाना दुनाली भी देख लें) और रक्त से नहाते हैं, फिर उन्हें दुग्ध स्नान करवाया जाता है। ये किरदार अच्छे-बुरे राजपूती वीरों की ऐतिहासिक लड़ाइयों से निकलकर आए लगते हैं। मसलन, एस. शंकर की ‘नायक’ में जब शिवाजी (अनिल कपूर) का गुंडे पीछा करते हैं। वह लड़ता है। फिर कीचड़ और खून से सना शिवाजी जब एक दुकान में पहुंचकर एक कोल्ड ड्रिंक मांगता है औऱ उससे अपना मुंह धोता है तो लोग पहचान जाते हैं और उसे पद पर बिठाकर दुग्धाभिषेक वाली मुद्रा में नहलवाते हैं।

पिता के बताए छोटे से विचार से पनपा इस पूरी फिल्म का व्याकरण राजामौली की पिछली फिल्मों में भी दिखा है। राजामौली ने रवि तेजा को लेकर ‘विक्रमारकुडू’ बनाई थी जिसकी हिंदी रीमेक प्रभुदेवा ने अक्षय कुमार को लेकर बनाई, ‘राउडी राठौड़’। मूल फिल्म हिंदी से ज्यादा प्रभावी है। घोर मसालेदार। उन्होंने कॉमिक एक्टर सुनील वर्मा को हीरो लेकर एक्शन-कॉमेडी ‘मर्यादा रामन्ना’ बनाई, जिसकी हिंदी रीमेक रही अजय देवगन-सोनाक्षी सिन्हा की ‘सन ऑफ सरदार’। दक्षिण भारत की फिल्मों को अचरज की दृष्टि से देखने को मजबूर कर देने वाली ‘मगधीरा’ भी उन्होंने ही बनाई थी। विशेष कंप्यूटर प्रभाव वाले दृश्यों के मामले में इसने बड़ी-बड़ी हिंदी फिल्मों को नीचे बैठा दिया। इसमें बतौर हीरो नजर आए थे राम चरण तेजा। चिरंजीवी के बेटे यही राम चरण जल्द ही ‘जंजीर’ की हिंदी रीमेक में दिखेंगे। इन सभी फिल्मों की कहानी शुरू में बड़ी असाधारण रही है, फिर उसे फिल्मी प्रारुप में जमाने के लिए एनिमेशन और इमोशन इन दो चीजों का सबसे ज्यादा उपयोग बतौर निर्देशक उन्होंने किया। ‘मक्खी’ की रिलीज से पहले एक साक्षात्कार में राजामौली ने कहा भी कि किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा इमोशनल कंटेंट काम करता है, जो कि बिल्कुल सही है।

‘मक्खी’ बहुत हिम्मत के साथ बनाई गई फिल्म है। हिंसा और बदले की भावना को छोड़ दें तो ये बच्चों की फिल्म भी बनती है। एक ऐसी फिल्म जो वक्त के साथ और बेहतर होते कंप्यूटर ग्राफिक्स और विजुअल इफेक्ट्स के बीच भी कभी पुरानी या तकनीकी तौर पर कमजोर नहीं लगेगी। क्योंकि इसकी कहानी में इमोशन हैं और किसी भी फिल्म को अमर करने के लिए ये एक शब्द काफी होता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उत्साहित ये बात करती है कि ऐसे वक्त में जब जेम्स बॉन्ड की नवीनतम फिल्म ‘स्काइफॉल’ में हम जूलियन असांजे के वृहद संदर्भ को पाते हैं, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में हम ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जिक्र देखते हैं, भारतीय फिल्मों में ‘मक्खी’ या ‘एगा’ ही ऐसी है जो फिलवक्त मुल्क में चल रहे किसी मुद्दे (केजरीवाल का व्यवस्था से टकराव) पर संदर्भात्मक बात करने का मौका देती है। बस बुनियादी तौर पर ये बहसें सही भी हो जाएं तो वारे न्यारे हैं।
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जानकारी के लिएः बीच में किए जिक्र के विपरीत मक्खियों, मच्छरों, चींटियों और वायुमंडल में विद्यमान जीवों को मारना या मारने देना मुझे पसंद नहीं। फिल्म देखने के पहले से ही, होश संभालने के बाद से ही। ये बतौर प्रजाति हमारे असंवेदनशील होने को दिखाता है। जब हम इन जीवों के साथ सह-अस्तित्व नहीं कर पाते तो फिर दूसरी आपराधिक घटनाओं पर व्याकुल क्यों होते हैं। संवेदनाएं जीव-जंतुओं के लिए जा रही है तो आपसी भी तो जाएंगी न।

 (‘Makkhi’ is a 2012 Hindi feature film written and directed by S S Rajamouli. It was dubbed from the Telugu and original version ‘Eega’. It stars Sudeep, Nani and Samantha in main leads. The film was full of visual effects and animation. ‘Makkhi’ won critical acclaim from almost all corners for gripping direction and convincingly staging a fly as a protagonist.) 
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