निर्देशक अश्विनी चौधरी को आज भी 10 साल पहले बनाई उनकी हरियाणवी फिल्म 'लाडो' के लिए सबसे ज्यादा पहचाना जाता है। इस पहली ही फिल्म ने उन्हें 47वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलवाया था। उसके बाद उन्होंने 'धूप' जैसी अच्छी फिल्म भी बनाई। इस रीजन से ताल्लुक रखते हैं, मुंबई में रहते हैं और इन दिनों 'घायल' के सीक्वल 'घायल-2' के निर्देशन को लेकर बहुत एक्साइटेड हैं।
खुद के बारे में कुछ बताएं।
हरियाणा के चौटाला गांव से हूं। करियर इंडियन एक्सप्रेस के जनसत्ता अखबार से शुरू किया। दो साल चंडीगढ़ एडीशन में काम किया। कल्चरल बीट देखता था, लिटरेचर और फिल्म रिव्यू पर लिखता था। फिर दिल्ली एडीशन चला गया और 1999 में पहली फिल्म 'लाडो' बनाई।
फिल्में क्यों बनाने लगे?
घर में पढ़ाई का माहौल था, बाऊजी गांव के कुछ सबसे पढ़े-लिखे लोगों में आते थे। दिल्ली में जॉब के दौरान इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट जाया करता था। एक बार गेस्ट कमल हसन थे। ऑडियंस में मेरे पास बैठा दोस्त बोला, यार कितने साल हो गए, दूसरों की फिल्मों पर तालियां बजाते हैं। तो मैंने कहा, कि अगले साल स्टेज पर मैं होऊंगा और लोगों से तालियां बजवाऊंगा। अगले साल मैंने 'लाडो' बना ली थी।
मतलब आपने फिल्म बनाने की टेक्निकल ट्रेनिंग नहीं ली है?
नहीं ली। पर सिनेमा इज अबाउट स्टोरी टेलिंग। मैं जब सात-आठ साल का था तो राजस्थान बॉर्डर पर बसे हमारे गांव में ठंड बहुत पड़ती थी। हम बच्चे दिनभर खूब खेलते और रात में रजाई में नानी से दो-तीन घंटे लंबी कहानियां-किस्से सुनते। ये बात मुझे बहुत साल बाद पता चली कि अगर आप अपनी कहानी से एक आठ साल के बच्चे को दो-ढाई घंटे तक बांध कर रख सकते हैं तो आप बहुत अच्छे कथावाचक हैं। मेरी नानी कभी गांव की हद से बाहर नहीं गई, पर चाहती तो एक फिल्म बना सकती थी, क्योंकि उसे कहानी कहनी आती थी। बाकी टेक्नीक और क्राफ्ट जरूरी है पर कहानी पहले है। 'लाडो' मेरे लिए वो कहानी थी जिसे मैं कहना चाहता था। मेरी वाइफ कुमुद ने स्क्रिप्ट लिखी।
'लाडो' एनएफडीसी ने फाइनेंस की। उसकी फिल्मों के धीमे और नॉन-कमर्शियल पहलू के उलट इसमें गाने हरियाणवी स्टाइल में ही पूरे हिंदी फिल्मों जैसे थे।
फ्राइडे दर्शकों के लिए होता है। लोग पचास-सौ रुपए खर्च करके फिल्म देखने जाते हैं। अगर आप फिल्म में कुछ कहना चाहते हैं तो ऐसे कहिए कि वह दर्शक निराश या चीटेड फील न करे। मैंने 'लाडो' के साथ यही कोशिश की। ये पहली ऐसी हरियाणवी फिल्म थी जिसमें कहानी भी सीरियसली कही गई और मनोरंजन भी पूरा था।
ये फिल्म हरियाणा और राजस्थान के अंदरूनी इलाकों जैसी थी। लड़की की शादी हो गई है और वह अपने देवर से शारीरिक संबंध बनाती है। इन इलाकों में व्यवस्था इतनी क्रूर है कि कहानी के इस मोड़ के बारे में सोचकर ही सिहर जाता हूं। क्या आपको ये सिहरन नहीं हुई?
ये रिएलिटी है। मैं खुद भी वहीं से आता हूं इसलिए हरियाणा-राजस्थान की इस जमीनी सच्चाई को जानता हूं। चूंकि प्रेजेंट सोसायटी पुरुष प्रधान है, तो महिला को यहां दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा गया है। अब खाप और ऑनर किलिंग भी दिखने लगे हैं। तो ये थोड़ा रिस्की तो था पर मुझे सब्जेक्ट उठाना था, मैंने उठाया। पहली फिल्म में मैं स्ट्रॉन्ग कंटेंट चाहता था।
आपकी मूवीज में जब भी कुछ इमोशनल होता है तो बरसात होती है। ऐसा क्यों?
(हंसते हुए) एक जाट ने ये मुझे रोहतक में कहा था कि फिल्म शूट तो आपने हरियाणा में की है लेकिन लगता है असली शूट चैरापूंजी में हुआ है। हर डायरेक्टर का एक ऑब्सेशन होता है। मेरे साथ भी है। शायद सब-कॉन्शियस माइंड में बरसात से कोई लगाव रहा होगा। इससे सीन निखर जाता है।
सोशल रेलेवेंस वाली फिल्मों के बीच आपने 'गुड बॉय बैड बॉय' कैसे बना दी?
सोशल कंसर्न अपनी जगह होती है, पर शाम को बच्चों को खाना भी खिलाना होता है। मैं कोई फिल्मी आदमी नहीं था। पहली ही फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिल गया। पर समाज से, सरकार से जितनी उम्मीद थी उतनी मदद मिली नहीं। हरियाणा में मेरी फिल्म को चलने नहीं दिया गया। कोर्ट केस हुए। घर-वर बिक गया। फिल्म अच्छी बनी पर जिंदगी भर जो कमाया था वो उसमें लग गया। तो फिल्म ने नाम के अलावा मुझे कुछ नहीं लौटाया। ये मेरे लिए बड़ा झटका था। फिर मुंबई आकर 'धूप' और 'सिसकियां' बनाई। पर इस दौरान अस्तित्व पर बन आती है। अपनी लड़ाई खुद लडऩी पड़ती है। इस दौरान कुछ अच्छी फिल्में बनती हैं कुछ बुरी। और मैं अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचा हूं जहां मैं मार्केट फोर्सेज की परवाह किए बगैर अपने मन की फिल्में बना सकूं।
'गुड बॉय...' में जो कमर्शियल कमी रह गई वो क्या 'घायल-2' में पूरी करेंगे?
देखिए सुभाष घई बहुत बड़े प्रॉड्यूसर हैं और मुक्ता आट्र्स जैसे बड़े बैनर ने गुड बॉय... बनाई थी। ये अनुभव बहुत बुरा रहा। उन्होंने मुझे वैसी फिल्म नहीं बनाने दी जैसी मै बनाना चाहता था। क्रिएटिव डिफरेंसेज की वजह से मैंने वो फिल्म 60 पर्सेंट पूरी होने के बाद छोड़ दी थी। फिर बचा डायरेक्शन और एडिटिंग सुभाष जी ने खुद की। पर फिल्म गई मेरे नाम से। इसलिए मुझे मानना पड़ता है कि वो मेरी फिल्म थी, अदरवाइज वो है नहीं।
'घायल-2'से बहुत उम्मीदें हैं, इन्हें बरकरार रखने में सिरदर्दी हो रही है?
ये फिल्म राजकुमार संतोषी ने बनाई थी और अपने टाइम की कल्ट फिल्म थी। ऐसे में जब आप घायल का सीक्वल बनाते हैं तो पहली फिल्म से इक्कीस न हो तो बनाने का कोई मतलब नहीं है। मैं तय करके चल रहा था कि स्क्रिप्ट जब तक बहुत बढिय़ा नहीं होगी फिल्म नहीं बनाउंगा। सनी और मैं बहुत वक्त से इस पर सोच रहे थे, एक दिन दिमाग में कुछ आया और मैंने उसे सुनाया तो वो बहुत एक्साइटेड हो गया। फिर सोच-विचारकर ही हमने फिल्म अनाउंस की।
पिछले ग्यारह-बारह साल में आपने सिर्फ चार-पांच फिल्में ही बनाईं हैं?
पिछले दो साल से मैंने कोई फिल्म नहीं बनाई है। इन 11 साल में कम फिल्में बनाई पर ये वो वक्त होता है जब आप अपने हथियार पैने करते हैं। अब मेरा ब्रेक खत्म हुआ है। आठ जुलाई से आर.माधवन, बिपाशा बसु, ओमी वैद्य और मिलिंद सोमन के साथ एक रोमैंटिक कॉमेडी की शूटिंग शुरू कर रहा हूं। ये फिल्म सितंबर तक खत्म हो जाएगी और अक्टूबर से 'घायल-2' शुरू होगी।
जलेबी-शीला-मुन्नी अब कॉर्पोरेट प्रैशर से फिल्मों में जबरदस्ती रखे जाने लगे हैं। आपकी फिल्मों पर ऐसा कोई दबाव है क्या?
'गुड बॉय..' के अनुभव के बाद मैंने फैसला लिया था कि बेमर्जी की फिल्म नहीं बनाऊंगा। तभी तो लंबे वक्त से फिल्म नहीं बनाई। अब जो माधवन-बिपाशा वाली फिल्म है, उसमें पूरी फ्रीडम है। 'घायल' को भी सनी बना रहे हैं अपने बैनर विजेता फिल्म्स के तले। पिछले एक-डेढ़ साल से चूंकि इसपर काम हो रहा है तो मुझपर उनका भरोसा है।
कैसी फिल्में देखना पसंद करते हैं?
मेरे पसंदीदा इस वक्त राजकुमार हीरानी हैं, उनका कोई जवाब नहीं। अनुराग कश्यप के प्रॉड्क्शन में 'उड़ान' बहुत अच्छी बनी। 'शैतान' देख नहीं पाया हूं। 'दबंग' अच्छी लगी, क्योंकि मैं गया ही उस माइंडसेट के साथ था कि दबंग देखने जा रहा हूं। बाकी मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं।