हिंदी फिल्म 'सतरंगी पैराशूट' के निर्देशक विनीत खेत्रपाल से संक्षेप में बातचीत
मेरे लिए नए फिल्मकार और अपनी पहली फिल्म बना सकने वाले (डेब्युटेंट) फिल्मकार हमेशा कौतुहल और महत्व का विषय रहे हैं। अपनी फिल्म बना पाना एक तपस्या है। तमाम विषम परिस्थियों से गुजरते हुए, हारते, रोते और घुटनों पर गिरते-उठते हुए एक फिल्म बन पाती है। इनकी फिल्म बनती है तो तब के दौर में फिल्म निर्माण के तमाम सूत्र पता चल पाते हैं। एक ऐसी ही फिल्म है 'सतरंगी पैराशूट।' इसके प्रोमो टेलीविजन पर इन दोनों काफी भीनी-भीनी उत्सुकता जगा रहे हैं। इसे प्रॉड्यूस और डायरेक्ट किया है दिल्ली के विनीत खेत्रपाल ने। लंदन से फिल्ममेकिंग पढ़कर लौटे विनीत ने अपनी उम्र के दूसरे फिल्ममेकर्स की तरह किसी डार्क फिल्म या रोमैंटिक कॉमेडी की बजाय कहानी चुनी कुछ भोले बच्चों की, जो सपने देखना चाहते हैं। ये फिल्म इस शुक्रवार 25 फरवरी को रिलीज हो रही है। परिचय स्वरूप इस युवा डेब्युटेंट फिल्मकार से एक संक्षिप्त साक्षात्कारः
अपने बारे में बताएं। ब्रिटेन से फिल्ममेकिंग सीखकर लौटने से लेकर सतरंगी पैराशूट बनने तक की जर्नी कैसी रही?
पैदाइश, पढ़ाई और परवरिश दिल्ली में हुई। स्कूल में होने वाले प्ले में एक्टिव रहता था, डायरेक्शन का भूत रहता था। ग्रेजुएशन के बाद लंदन में चार साल फिल्ममेकिंग पढ़ी। डेढ़ साल पहले भारत लौटा तो एड फिल्में और डॉक्यूमेंट्री बनाईं। मैंने कुल छह एड फिल्में बनाईं जिनमें एक इक्रेडेबल इंडिया भी थी। चार डॉक्यूमेंट्री बनाईं, जिनमें एक बीबीसी के लिए थी। 'सतरंगी पैराशूट' को पेपर पर लिखने से लेकर पोस्ट प्रॉडक्शन-डबिंग सब करने तक कुछ छह महीने लगे।
ये फिल्म किस बारे में है?
बच्चों की कहानी है जो नैनिताल में शुरू होकर मुंबई तक जाती है। कहानी के मेन प्रोटोगनिस्ट हैं आठ बच्चे। हिंदुस्तान में बच्चों पर फिल्में कम ही बनती हैं, इसलिए मैंने इस विषय को चुना। मूवी में मैसेज ये कि नन्हे बच्चों को अपने सपनों के पीछे जरूर दौड़ना चाहिए। बाकी फिल्मों की तरह इसमें बैंग-बैंग कुछ भी नहीं है। सब लाइट हार्टेड है, फिल्म में कुछ भी ओवर नहीं होता है।
फिल्म के म्यूजिक में क्या खास है?
सॉफ्ट-हल्का सा म्यूजिक है। खास ये है कि लता मंगेशकर ने फिल्म के लिए गाना गाना स्वीकार किया। उन्होंने 83 उम्र में एक आठ साल की बच्ची के लिए गाना गाया है। मैं नया लड़का हूं, पर सब सिंगर और एक्टर फिल्म के बारे में वन-लाइनर सुनते ही राजी हो गए। बाकी सिंगर्स में राहत फतेह अली खान, श्रेया घोषाल, कैलाश खेर और शान जैसे नाम हैं।
बच्चों की फिल्म है, मगर प्रोमो में संजय मिश्रा पुलिसवाले बने कुछ आपत्तिजनक डायलॉग बोलते दिखते हैं?
ये दरअसल प्रोमो में फिल्म के संदर्भ से अलग लग रहा है। फिल्म के ओवरऑल मैसेज में देखेंगे तो साधारण ही लगेगा।
शूटिंग कहां पर और कितने दिनों में हुई?
कुल अस्सी फीसदी शूटिंग नैनिताल में हुई और बाकी मुंबई में। क्रू थी 125-150 लोगों की। छह महीने में शूटिंग पूरी हो गई। सबका इतना सहयोग था कि नैनिताल में 45 दिन का शूट 32 दिन में निपट गया। बीच में खूब बारिश हुई, पर सब आर्टिस्ट आकर बोले कि जो चीज दस दिन में खत्म होने वाली थी वो हम तीन दिन में करेंगे।
इस प्रोसेस में सबसे बेस्ट चीज क्या थी?
मैंने एक बार एक्टर्स को कैरेक्टर समझाए तो उसके बाद सबने अपनी तरफ से रोल में कुछ न कुछ जोड़ा। के. के. मेनन, जैकी श्रॉफ, संजय मिश्रा, राजपाल यादव और रुपाली गांगुली जैसे सब एक्टर पहले पांच दिन कैरेक्टर्स में घुले, फिर डिस्कशन हुआ और उसके बाद शूटिंग शुरू हुई। पहले ये डर था कि मूवी में बच्चे क्या काम ठीक से कर पाएंगे। शेड्यूल भी तय दिनों का था, मौसम भी खराब था। पर आखिर में सब ठीक रहा। के. के. और संजय जैसे एक्टर्स जैसे ही सेट पर आते तो पूरा सेट लाइव हो जाता था। सब मोटिवेट हो जाते थे।
बच्चों की कास्टिंग कैसे हुई?
पूरे भारत में हमने दस हजार बच्चों का ऑडिशन लिया। सब टेलेंटेड थे। इनमें से आठ बच्चे फिट हुए। इनका रिहर्सल लिया। आठ साल का बच्चा पप्पू इसमें मेन प्रोटोगनिस्ट है। आपने इस छोटे एक्टर को सर्फ एक्सेल के एड में रोजी मिस का कुत्ता मर जाने पर उनको हंसाने के लिए कुत्ता बनते देखा होगा।
पहली फिल्म के लिए ये कहानी ही क्यों चुनी?
देखिए, कोई मूवी बिना नैतिकता नहीं आती। हालांकि मैंने दस-पंद्रह स्क्रिप्ट पहले पढ़ी थी, पर इसका पंच इतना मजबूत लगा कि पहले इसे ही बनाया।
अब जब बना चुके हैं तो क्या फीलिंग हो रही है? क्या कुछ मुश्किलें भी आईं?
हम सब लोगों को तो बहुत अच्छा लग रहा है। इंतजार है लोगों के रिएक्शन का। जहां तक मुश्किलों की बात है तो पिक्चर बनाना जितना आसान था, ऑडियंस तक इसे पहुंचाना उतना ही मुश्किल। पर जब रिलीज डेट सामने आती है तो संतुष्टि मिलती है। फिल्म को प्रिव्यू में देखने वाले सभी लोगों का यही कहना था कि इसका लुक फ्रैश है और कंटेंट भी अच्छा है।
पिछले दो साल में कोई दर्जन भर डेब्युटेंट डायरेक्टर बॉलीवुड में आए हैं और सबने अच्छी फिल्में बनाई हैं। अब पहली फिल्म बनाना इतना आसान क्यों हो गया है?
आडियंस को चाहिए रियल फिल्में। डेब्यूटेंट 25 से 30 की उम्र में आते हैं। उनके दिमाग में और युवा दर्शकों के मन में एक ही तरीके के सब्जेक्ट चल रहे होते हैं, यही सबसे बड़ी वजह है। दूसरा हर मूवी एक कंसेप्ट के साथ आ रही है। किसी प्रॉड्यूसर के पास जाते हैं तो वो सबसे पहले ये नहीं पूछते कि एक्टर कौन सा लोगे, वो पूछते हैं कि कंटेंट क्या है। कंटेंट अच्छा है तभी मूवी चलेगी। मोबाइल जैसी टेक्नोलजी ऐसी है कि बच्चे भी आज दो मिनट-दो मिनट की क्लिप मूवी बना लेते हैं।
बच्चों के इमोशंस को ईरानी फिल्में बहुत अच्छे से डील करती हैं, क्या वो भी प्रेरणा रही हैं?
ईरानी मूवीज सॉफ्ट इमोशन को केप्चर करती हैं। मुझे एक ऐसी फिल्म 'काइट रनर' बहुत पसंद आई। 'सतरंगी पैराशूट' में भी आपको कुछ ऐसा इरानियन लुक देखने को मिलेगा। इसकी झलक आपको मेरी मूवी में भी दिखेगी।
कौनसी फिल्में और फिल्ममेकर फॉलो करते हैं?
ऑनेस्टी से कहता हूं, बहुत फिल्में फॉलो की हैं। कोई मूवी नहीं छोड़ता हूं। सब देखता हूं। आमिर खान की सब मूवीज का क्रेज है। आमिर कंसेप्ट से लेकर हर चीज पर खरे उतरते हैं। बॉलीवुड में राजू हीरानी और यशराज चोपड़ा मुझे खूब पसंद हैं। अनुराग कश्यप को भी पंसद करता हूं। अंग्रेजी फिल्मों में 'सिटीजन केन' सबसे ज्यादा पसंद हैं। डायरेक्टर्स में स्टीवन स्पीलबर्ग के बाद डैनी बॉयल और जैम्स कैमरून बेहतरीन हैं।
इंडिया से बाहर स्टूडेंट इंडियन फिल्मों को कैसे देखते हैं?
लंदन में हम करीब पांच-छह इंडियन स्टूडेंट थे। सब गोरों में बॉलीवुड को जानने की जिज्ञासा रहती थी। 'मुगले आजम', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और अनुराग कश्यप की 'देव डी' ...इन तीन फिल्मों पर खूब बात होती थी। जब कोर्स करके निकल रहा था तो 'थ्री इडियट्स' आ गई। विदेशी बच्चे क्यूरियस होकर पूछते थे कि यार, बॉलीवुड की फिल्में इतनी भव्य दिखती हैं, ये तो हॉलीवुड की फिल्मों से महंगी होती हैं। अब मेरी मूवी आ गई है तो क्यूरियस हैं, वहां पर उसे प्रमोट कर रहे हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी