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Sunday, September 16, 2012

जोकर बनाने की विडंबना और पागलपन की परिभाषा

शिरीष कुंदर की  फिल्म ‘जोकर’ पर कुछ लंबित शब्द

एक नई चीज, उदित नारायण ने बहुत दिन बाद गाना गाया है... “जुगनू बनके तू जगमगा जहां...” हालांकि ये उनके ‘बॉर्डर’, ‘लगान’ और ‘1942 अ लव स्टोरी’ के मधुर स्वरों से बहुत बिखरा और बहुत पीछे है। ऐसा गाना है जिसे सुनने का दिल न करे। बोल ऐसे हैं कि कोई मतलब प्रकट नहीं होता। लिखे हैं शिरीष कुंदर ने। निर्देशन, सह-निर्माण, संपादन, लेखन और बैकग्राउंड म्यूजिक (और भी न जाने क्या-क्या) सब उन्हीं ने किया है। या तो उन्हें दूसरे लोगों की काबिलियत पर यकीन नहीं है या फिर ऑटर बनने की रेस में वह फ्रांसुआ त्रफो और ज्यां लूक गोदार से काफी आगे निकल चुके हैं। खैर, नो हार्ड फीलिंग्स। उनके ट्वीट बड़े रोचक होते हैं। सामाजिक, सार्थक, हंसीले, तंजभरे, टेढ़े, स्पष्ट, बेबाक, ईमानदार और लापरवाह। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं ‘जोकर’ की...

महीनों पहले आई न्यू यॉर्क टाइम्स की 2012 में प्रदर्शित होने वाली बहुप्रतीक्षित फिल्मों की सूची में एक हिंदी फिल्म भी थी। ‘जोकर’। बहुप्रतीक्षा थी कि जबरदस्त पटकथा वाली ये एक आश्चर्य में डाल देने वाली साई-फाई (साइंस फिक्शन) होगी। जब तक फिल्म का पहला पोस्टर बाहर न आया था, सभी को यही लग रहा था। मगर एक फिल्मी किसान वाले अच्छे से धोए-इस्त्री किए परिवेश में जब अक्षय कुमार पहली बार पोस्टर में नजर आए तो व्यक्तिगत तौर पर अंदाजा हो गया था कि ‘सॉरी वो इसे नहीं बचा सके’। हुआ वही, ‘मृत्यु’। इसे नहीं बचाया जा सका। क्यों नहीं बचाया जा सका? इस पर आगे बढ़ने से पहले शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ की सबसे अच्छी तीन बातें:-

  • पागलों के गांव से अगस्त्य के अमेरिका तक पहुंचने का विचार कुछ वैसा ही है जैसे गांवों में अभावों या देश के किसी भी अविकसित इलाके से निकले हर पीढ़ी के युवा का पढ़ाई-लिखाई करके लायकी तक पहुंचने का होता है। ये सांकेतिक है। ऐसा सोचा जा सकता है। हो सकता है पटकथा लिखते हुए फिल्मकार ने ये बड़ी शिद्दत से सोचा है, हो सकता है उसने बिल्कुल भी नहीं सोचा है। पर फिल्म में ये (अपरिवक्वता से फिल्माई) अच्छी बात है।
  • अमेरिका से आए हैं तो कोई प्रोजेक्ट लगाने के लिए ही आए होंगे? पानी... अच्छा मिनरल वॉटर प्लांट? कोई भी एनआरआई भारत आता है और किसी सरकारी नुमाइंदे या राजनेता से मिलता है तो उनकी यही धारणा उसके बारे में होती है। मसलन, सुभाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में दिवालिया हो चुके रजत कपूर के किरदार का भारत आना और वहां उन्हें डॉलरपति समझकर अगुवा कर लिया जाना। ये धारणा और हकीकत (अपरिवक्वता से फिल्माई) दिखाई जानी अच्छी है।
  • जब पगलापुर में बिजली आने की घोषणा कर दी जाती है और वहां दूर-दूर से आए लोगों का मेला जुटना शुरू होता है तो एक गाना आता है। उसमें फ्रिज बेचने वाली दुकानों और बाजारवाद की आंशिक आलोचना की गई लगती है, जो सार्थक है।

...पर अंततः ये सब बिखरा है।

फिल्म शुरू होती है कैलिफोर्निया से। अगस्त्य (अक्षय कुमार) यहां एक वैज्ञानिक है। परधरती पर जीवन की खोज कर रहा है। एलियंस से संपर्क करने की मशीन बना रहा है। यहां राकेश रोशन और ‘कोई मिल गया’ की याद आती है, जब अगस्त्य कहता है, “या तो बाहर कोई दुनिया नहीं है, या मेरे पास वो मशीन नहीं है जिससे एलियंस से संपर्क हो सके”। खैर, हम नए संदर्भ तो पाल ही नहीं सकते। ले दे के दो-तीन तो हैं। बहरहाल, जो रिसर्च के लिए अगस्त्य को पैसा दे रहे हैं उन्हें नतीजे चाहिए। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए उसके पास एक महीना है। थका-हारा ये एनआरआई घर पहुंचता है। घर पर उसकी गर्लफ्रेंड-कम-वाइफ दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) इंतजार कर रही होती है। इस खबर के साथ कि इंडिया से अगस्त्य के भाई का फोन आया था कि उसके पिता की तबीयत बहुत खराब है, फौरन चले आओ। दोनों भारत निकलते हैं। अलग-अलग परिवहन से पगलापुर पहुंचते हैं। जगह जो भारत के नक्शे पर नहीं है। कहा जाता है कि इसी वजह से यहां कोई भी आधारभूत ढांचा नहीं है। इसे पागलों का गांव बताया जाता है। यहां आते-आते मुझे आशंका होने लगती है कि पगलापुर नाम से शुरू की गई ये कॉमेडी उनके साले साहब साजिद खान की फिल्मों (हे बेबी, हाउसफुल, हाउसफुल-2) की कॉमेडी की दिशा में ही जा रही है। एनिमेटेड चैपलिन सी, गिरते-पड़ते किरदारों वाली, अजीब शाब्दिक मसखरी वाली और ऊल-जुलूल।

अगस्त्य और दीवा पैदल गांव में प्रवेश कर रहे हैं कि उन्हें छोटा भाई बब्बन (श्रेयस तलपडे) दिखता है। वह कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठा होता है, उसे ही काट रहा होता है। बाद में दिखता है कि वही नहीं बहुत से दूसरे गांव वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं और बाद में सभी डाल कटने पर नीचे गिर जाते हैं। ठीक है, ऐसा हो सकता है, हम हंस भी सकते हैं, पर फिर पूरे संवाद, घटनाक्रम, कहानी में उसी किस्म का सेंस बनना चाहिए। जो नहीं बनता। श्रेयस के किरदार की भाषा जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अवतार’ के नावी की तरह बनाने की कोशिश की गई है। पर श्रेयस बार-बार कुल तीन-चार शब्दों को ही बोल-बोलकर हंसाना चाहते हैं और ऐसा हो नहीं पता।

आगे बढ़ने पर खुले में बच्चों को पढ़ा रहे मास्टरजी (असरानी) दिखते हैं। वह बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे होते हैं। बच्चों को कहते हैं, “जोर से बोलो”, तो बच्चे बोलते हैं, “जय माता दी”, इस पर मास्टरजी कहते हैं “अरे पहाड़ा जोर से बोलो”। इतनी बार सार्वजनिक दायरे में इस चुटकुले को सुना-सुनाया जा चुका होगा पर फिल्म में इस्तेमाल कर लिया जाता है। असरानी का ये किरदार अंग्रेजी की टांग मरोड़कर बोलता है। जब वह कहते हैं “हेयर हेयर रिमेन्स”... तो उसका मतलब होता है ‘बाल-बाल बचे’। इसी पाठशाला से पढ़कर साइंटिस्ट बना है सत्तू (अगस्त्य का गांव का नाम)।

मास्टरजी के दो अंग्रेजी के जुमले भी पढ़ते चलें...
“हाइडिंग रोड़” (ये छुपा हुआ रास्ता है)
“डोन्ड फ्लाइ आवर जोक्स” (तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो)

हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी न बोल पाकर किरदारों ने बहुत से अंग्रेजों को हंसाया है। इनमें सबसे कामयाब मानें तो हाल में संजय मिश्रा के किरदार रहे हैं। वह ‘गोलमाल-3’ जैसी फिल्मों में जिस अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसकी स्पेलिंग गलत बोलते हैं और लोग हंसते हैं। ऐसा उनका किरदार अनवरत एक समान करता है, कहीं भी बिना किसी भटकाव के। पर मास्टरजी तो एक टूटती कलम से लिखे गए किरदार हैं, ये शुरू के दो मौकों पर हंसा देते हैं तो पटकथाकार आगे फर्जीवाड़ा करके निकल जाता है।

पगलापुर के किरदारों के परिचय के मौके पर लोग हंसते हैं। मुझे लगता है, लोग पागल शब्द से जोड़कर देखते हैं हर घटना, किस्से और आदमी को। फिल्म के किरदारों की हरकतों पर लोग ज्यादा हंसते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनके दिमाग की परतों में सिनेमा के पागल किरदारों और उनपर हंसने की प्रवृत्ति हावी है। यहां जब कह दिया जाता है कि ये पगलापुर के लोग हैं और इनका खौफ इतना है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी जो भारत के नक्शे पर गावों और कस्बों को दर्ज कर रहा होता है, उन्हें आता देख गांव के बाहर से ही अपनी गाड़ी मुड़वा लेता है। पर असल मायनों में ‘पागल’, ‘ग्रामीण’, ‘हंसोड़’ और ‘भोले’... इन चार शब्दों में शिरीष ने कोई फर्क नहीं किया है। कहीं पर जो ग्रामीण भर है वो पागल लगता है, कहीं पर जो पागल है वो महज ग्रामीण लगता है। कहीं वो बस भोले लगते हैं पागल नहीं, कहीं वो बस हंसा देना चाहते हैं कमतर नहीं होना चाहते। पर यहीं किरदारों-शब्दों का निरूपण न करने की बेपरवाह प्रवृत्ति नाखुश करती है और फिल्म को मृत्यु की ओर ले जाती है।

कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिता के पास पहुंचने पर अगस्त्य को पता चलता है कि वह तो बिल्कुल ठीक हैं (हालांकि यहां तक उन्हें पागल बताया जाता है)। जब नाराज होकर वह निकलने लगता है तो पिता (दर्शन जरीवाला) रोकते हैं और समझाते हैं कि इतने साल से उनका गांव नक्शे पर नहीं है, कोई सरकारी मदद और विकास उन तक नहीं पहुंचता, चूंकि तुम पढ़-लिखकर आगे बढ़े हो तो गांव के अपने भाइयों को भी इस दलदल से निकालो (दलदल, जिसे सभी काफी एंजॉय करते प्रतीत होते हैं)। ये सुनकर अगस्त्य रुक जाता है। यहां तक ‘सबकुछ ठीक है’, ‘अच्छा है’, ‘बहुत बुरा है’, ‘ऐसा क्यों’, ‘अरे यार’, ‘अरे शिरीष’, ‘धत्त’, ‘स्टूपिड’... ये विचार मन में चल रहे होते हैं। फिल्म खत्म होने तक सभी नैराश्य में तब्दील हो जाते हैं।

जानते हैं कुछ जिज्ञासाएं और बिंदुपरक बातें जो शिरीष की इस कोशिश को सम्मान नहीं दिला पातीं:-

  • यहां सब पागल हैं फिर भी इनकी बातों को सीरियसली लेकर अगस्त्य गांव क्यों चला आता है? और फिर बब्बन तो बोल भी नहीं सकता, फिर अगस्त्य का कौनसा भाई कैलिफोर्निया दीवा से फोन पर बात करता है? चलो बात किसी ने भी की हो, पर अगस्त्य को तो पता है न कि उसका भाई आम भाषा में बोल नहीं सकता। इतना सब न सोचने और गांव चले आने पर अक्षय के किरदार का नाराज होना।
  • एक तरफ हमें यकीन दिलाया जा रहा है कि ये पागलों का गांव है। इसका नाम तक किसी ने नहीं सुना और यहां कोई आता नहीं है। फिर अक्षय-सोनाक्षी के किरदार जिस दिन पहुंचते हैं, उस रात पगलापुर में शानदार आलीशान ग्लैमरस आइटम सॉन्ग का आयोजन किया जाता है। यहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है, आधारभूत ढांचा नहीं है पर आइटम सॉन्ग के लिए दुरुस्त लड़कियां-सेट और रोशनी आ जाती है। यहां पढ़ने के लिए रोशनी नहीं है पर इस गाने के सेट को देखिए जो चित्रांगदा सिंह से ज्यादा दमक रहा होता है। कहते हैं यहां पढ़ाई ही नहीं है, पर गाने के लिरिक्स देखिए। पीछे खड़े सैंकड़ों डांसर देखिए। अगर ये गांव के ही हैं तो पागल क्यों नहीं? दिखने में तो बस ज्यादातर खूबसूरत लड़कियां हैं या फिर गे या वृहन्नला।
  • यहां सब घर टूटे हैं, खंडहर से हैं। पर अक्षय-सोनाक्षी एकदम साफ-सुथरे हैं। उन्होंने गांव पहुंचने के बाद मुंह कहां धोया, नाश्ता क्या किया? रात तक पता नहीं चलता। (ये सब वो चीजें हैं जो फिल्म के सेट पर चीजों के मैनेज करते डायरेक्टर की टेंशन में नहीं आती कि छूट जाएं। ये वो चीजें हैं जो पटकथा लिखने की टेबल पर ही लिखी जाती हैं। अगर आप सैंकड़ों घंटे एक एनिमेटेड एलियन बनाने में लगा सकते हैं तो इन मूल चीजों को दुरुस्त करने में क्यों नहीं?)
  • श्रेयस और विंदू के कपड़े और अभिनय। इनका क्लीन शेव्ड चेहरा, सामान्य रूप से कटे बाल, न जाने किस काल के किसानी कपड़े और जिंदगी के पहले स्कूल प्ले सी एक्टिंग क्या नाव में बड़े-बड़े छेद नहीं हैं?
  • प्रिंस के कुएं में गिरने की बात को इतने साल बाद फिल्म में संदर्भ के तौर पर लिया जाना। क्या उसके बाद कोई बच्चा कुएं में नहीं गिरा? उसे क्यों नहीं लिया जा सकता था?
  • जहां बिजली नहीं है वहां टीवी या मल्टीप्लेक्स के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में एक दृश्य में बब्बन बने श्रेयस 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ के गीत “घनन घनन घन घिर आए बदरा” को अपनी एलियन सी भाषा में गुनगुना रहे होते हैं। ये कैसे?
  • ये अभावों से ग्रस्त इलाका है। बिजली नहीं है तो ट्यूबवेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। नहरी खेती के लिहाज से भी सरकारी फाइलों में पानी की बारी का यहां के खेतों में आ पाना संभव नहीं है। जब कोई विकल्प ही नहीं है तो क्या मान लें कि महज बरसाती खेती करके पगलापुर के लोगों ने आलीशान फसलें खड़ी कर रखी हैं? ऐसे लोगों ने जो कथित तौर पर पागल हैं। जिन्हें अपने घर पर सफेदी करने तक का शऊर नहीं है।
  • बिन बिजली अगस्त्य का एप्पल का लेपटॉप यहां कैसे चार्ज होता है?
  • लोकल नेता गांव के लिए बिजली की घोषणा भर करता है कि बस मेक्डी, लैपटॉप और कोका कोला जैसे ब्रैंड के जगमगाते होर्डिंग तुरंत लग जाते हैं (तुरंत कायापलट हो जाता है) कैसे? इतने बड़े ब्रैंड इतनी अंदरुनी जगह पर कैसे पहुंच जाते हैं? क्या इंतजार कर रहे होते हैं? (अगर इस तथ्य को सांकेतिक तौर पर लिया गया है तो भी फिल्म में यूं फिट नहीं होता) और फिर पगलापुर के सब लोग अजीब सी घड़ियां, गॉगल्स, जूते और कलरफुल जैकेट तो गांव में ब्रैंड्स के आने से पहले ही पहनने लग जाते हैं।
  • अमेरिकी साइंटिस्ट और अगस्त्य के प्रतिस्पर्धी साइमन को ढूंढने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी एफबीआई के हैलीकॉप्टर्स पगलापुर के आसमान में उड़ते नजर आते हैं। क्या पगलापुर भारतीय टैरेटरी में नहीं आता है? क्या ये अफगानिस्तान या क्यूबा की खाड़ी है कि अमेरिकी लोगो लगे हैलीकॉप्टर इस तरह खुले तौर पर कभी भी घुस आएं? भारतीय वायुसेना क्या ऐसे वक्त में सांप-सीढ़ी खेल रही होती है?
  • जमीन से तेल निकलता है तो क्या उससे कोई नहाता है? फिर यहां सब गांववाले क्यों नहाते हैं?

फिल्म में ऐसे कई और सवाल भी बनते हैं, पर इतनों से चित्र स्पष्ट होता है। ये कैसी विडंबना है कि शिरीष बड़े सपने देखते हैं और उनका पालन करते वक्त न जाने क्या गलतियां कर बैठते हैं कि ख्वाबों का एक-एक पंख टूटकर बिखर जाता है। वह कहीं बाजारवाद की सफल आलोचना कर पाते हैं तो कहीं पर विकास की अवधारणा को रत्तीभर भी नहीं समझ पाते। ‘जोकर’ के आखिर में वह दिखाते हैं कि पगलापुर की जमीन के नीचे बह रहा तेल फूट पड़ा है और अब विकास होगा। क्या तेल निकलना किसी जगह के लिए विकास का प्रतीक होता है? एक इंसान, विचारक और फिल्मकार के तौर पर वह क्या समाज और विकास के मॉडल की इतनी ही समझ रखते हैं? जितनी निराशाजनक ये डेढ़ घंटे की फिल्म है उतना ही ये असमझियां। इससे अच्छा तो तेल और खून से सनी डेनियल डे लुइस के अभिनय वाली ‘देयर विल बी ब्लड’ देखना है जो तेल के कुओं वाली जगहों और तेल से नहाए लोगों पर धारदार टिप्पणी करती है। और ‘जोकर’ हंसते-हंसते भी सामाजिक-आर्थिक विद्रूपताओं का कान नहीं मरोड़ पाती।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, July 17, 2012

दावा था राउडी मनोरंजन का, जो राठौड़ ने कुछ पूरा भी किया

फिल्मः राउडी राठौड़
डायरेक्टरः प्रभुदेवा
कास्टः अक्षय कुमार, सोनाक्षी सिन्हा, परेश गनतारा, नासर
स्टारः तीन, 3.0
संक्षिप्त टिप्पणी

कहानियों के मामले में तेलुगू और तमिल फिल्मों में फ्लैशबैक तो अनिवार्य चीज होती है। एक कहानी होगी, उसमें दूसरी कहानी होगी और फिर उसमें सबसे बड़ी महाकहानी होगी। कॉमेडी, क्रूरता, तुरंत न्याय और हीरोइज्म से भरी ऐसी ही एक तेलुगू फिल्म 'विक्रमारकुडू’ की हिंदी रीमेक (ऐसे चार-पांच रीमेक भिन्न-भिन्न भाषाओं में बन चुके हैं) है 'राउडी राठौड़’। इसमें मर्दानगी से भरा मूछों पर ताव देता हीरो है, तो खिलखिलाती तुरंत रीझकर प्यार कर बैठती सुंदर हीरोइन भी है। फिर एक ग्रामीण इलाके में खैनी चबाता, धोती पहनता, जाहिल सा विलेन भी है। हां, ये सब अफीम जैसे एंटरटेनमेंट वाली एक हिट फिल्म बनाने के साउथ के फिक्स फंडे हैं जो हर बार चल भी जाते हैं। अब ‘दबंग’, ‘वॉन्टेड’, ‘सिंघम’ और ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्मों के जरिए हिंदी में भी आ गए हैं।

इस विश्लेषण को छोड़ दें तो ‘राउडी...’ जो दावा करती है, वो देती है। फिल्म कहती है कि एंटरटेन करूंगी और वो करती है। रंग-बिरंगी लोकेशन, खूबसूरत कॉस्ट्यूम और आसान कोरियोग्रफी भरे तीन-चार अच्छे गाने हैं। जिसमें ‘आ रे प्रीतम प्यारे’ गाने में शक्ति मोहन, मुमैद खान और मरियम जकारिया का नृत्य बेहद जानदार है। कहानी की सिचुएशन में बिल्कुल फिट। बहुत दिनों बाद आया ऐसा आइटम नंबर जिसकी कोरियोग्रफी अनूठी है, जो बिल्कुल भी वल्गर नहीं लगती। इसके अलावा अक्षय-सोनाक्षी की जोड़ी कुछ बिखरी मगर लुभाने वाली है। शिवा के कॉमिक अवतार में अक्षय एकरूप नहीं रह पाते। कभी सीरियस हो जाते हैं, कभी नॉर्मल तो कभी बहुत ज्यादा फनी। एएसपी विक्रम राठौड़ का रोल छोटा मगर दमदार है, दो-तीन सॉलिड डायलॉग और एक्शन से भरा। मगर शिराज अहमद के पास इस कहानी में धांसू डायलॉग लिखने की अच्छी-खासी गुंजाइश थी, जो उन्होंने खो दी। प्रभुदेवा के निर्देशन में मेहनत बहुत सारी है, पर उन्हें धार तेज करनी होगी। एडिटिंग पर ध्यान देकर फिल्म को और व्यवस्थित करना होगा। ये फिल्म अच्छी है पर मुझे ‘विक्रमारकुडू’ अपनी इंटेंसिटी और चुस्ती के लिहाज से ज्यादा बेहतर लगी। एक्टिंग में अक्षय से बेहतर हैं इसके तेलुगू वर्जन के हीरो रवि तेजा।

कहानीः व्यवहार में मजाकिया और अलग सा शिवा (अक्षय कुमार) मुंबई में अपने दोस्त के साथ मिलकर लोगों को ठगता और लूटता है। उसे प्रिया (सोनाक्षी सिन्हा) से प्यार हो जाता है। इस बीच उसे चोरी के बक्से में एक पांच-छह साल की बच्ची नेहा मिलती है, जो उसे अपना पापा कहती है। शिवा अपनी लाइफ में आई इस प्रॉब्लम से कन्फ्यूज है तभी उसे पता चलता है विक्रम राठौड़ नाम की एक शख्सियत का, जिसकी शक्ल हूबहू उसके जैसी है। बहादुरी, बदले और रोमांच से भरी इस कहानी में आगे ढेरों मोड़ आते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, November 25, 2011

यूं ही भुला दी जाएगी देसी बॉयज

फिल्मः देसी बॉयज ()
निर्देशकः रोहित धवन
कास्टः अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, चित्रांगदा, दीपिका पादुकोण, अनुपम खेर
स्टारः ढाई स्टार, 2.5

अंतत: रोहित धवन ने 'देसी बॉयज’ में कुछ भी नया क्रिएट नहीं किया है। उनके इमोशनल करने और हमें एंगेज रखने के तरीके में पिता डेविड धवन की फिल्मों का अंश दिखता है। वहीं कहानी, कैरेक्टर्स के सोचने का ढंग और मैसेज एकदम हॉलीवुड फिल्मों सा है। बावजूद इसके कि फिल्म मुझे बहुत औसत लगी, रोहित का निर्देशन टेक्नीकली कहीं भी कमजोर नहीं पड़ता। हां, क्लाइमैक्स में दो-चार झोल-झाल हैं। उन्होंने एक्टर्स के काम निकलवाया है, सीन कम्युनिकेटिव रखे हैं, गानों को फिल्माने में बहुत सारे रंग बरते हैं। तेरे पीछे आया मैं... गाने की ही बात करें तो जॉन-दीपिका के पीछे नाचते दर्जनों विदेशी डांसर, डेविड की 'राजा बाबू’ और 'साजन चले ससुराल’ जैसी दर्जनों फिल्मों के सॉन्ग पिक्चराइजेशन की याद दिलाते हैं। पर टाइटल से लेकर कहानी तक हमें कुछ भी नया नहीं लगता। मेल एस्कॉर्ट का कॉन्सेप्ट इंडिया की ऑडियंस (कुछेक अंग्रेजी बोलने वाले यूथ को छोड़ दें तो) के लिहाज से अनफिट लगता है। ये तो जैरी के कैरेक्टर में अक्षय के अपने नैफ्यू वीर के साथ और गुजरात में रहने वाली मां के साथ जो इमोशनल कनेक्शन है, हम उसी में सेंटी हो जाते हैं, वरना कहानी में जॉन-अक्षय के मर्द वेश्या बनने और फैंसी डांस करने में कुछ कनविंसिंग नहीं है। फैमिली के साथ देखने के लिए ये फिल्म नहीं है। यंगस्टर्स अपनी-अपनी समझदारी पर जा सकते हैं, वैसे नहीं भी देखेंगे तो कुछ मिस नहीं करेंगे। रोहित धवन के पास निर्देशक के तौर पर बाकी सब कुछ है, बस दिशा नहीं है। उनके एंटरटेनमेंट की आप परिभाषा देखिए, जैरी सुबह नाश्ते में कॉर्नफ्लैक्स में दूध डालता है और दूध पूरा नहीं होता तो शैंपेन मिला देता है, ये महज कूल लगता ही है, है नहीं। या फिर जॉन का अक्षय को कहना कि जितना तू अपने जूते का साइज (मेल एस्कॉर्ट बनने वाले फॉर्म पर साइज के कॉलम में अक्षय का किरदार जैरी 11 लिख आता है) लिखकर आया है न उससे कल सुबह शहर की सारी लड़कियों की लाइन लग जाएगी। अगर हम अपनी फिल्मों को 'कॉमेडी सर्कस’ या 'रास्कल्स’ जितनी औकात तक न समेटें तो इंडियन सिनेमा के सुनहरे पल सृजित हो सकते हैं और ये होना दर्शकों और फिल्ममेकर्स पर निर्भर करता है।

मंदी में मेल प्रॉस्टिट्यूट बनने की कथा
इंडिया से यूके पढऩे आए थे जैरी (अक्षय कुमार) और निक (जॉन अब्राहम)। कई साल बीत गए और अब दोनों दोस्त लंदन के अपार्टमेंट में साथ रहते हैं। जैरी का पूरा नाम जिग्नेश पटेल है और निक का निखिल माथुर। निक इनवेस्टमेंट बैंकर है और जैरी चूंकि ग्रेजुएट नहीं है इसलिए छोटा-मोटा काम करता है। निक की मंगेतर राधिका अवस्थी (दीपिका पादुकोण) है तो जैरी की जिंदगी में उसका नन्ना सा नैफ्यू वीर (शरमन जैन) है। जब ब्रिटेन में मंदी का असर होता है तो दोनों की नौकरी चली जाती है। वीर की स्कूल फीस भरने और उसकी कस्टडी बनाए रखने के लिए निक को पैसे चाहिए। नहीं तो उसे किसी फॉस्टर फैमिली को दे दिया जाएगा। ऐसे में शहर की सबसे मशहूर मेल एस्कॉर्ट (मर्द वेश्या) कंपनी होने का दावा करते उसके मालिक (संजय दत्त) इन दोनों को जॉब ऑफर करते हैं। मगर पैसे आने के बावजूद दोनों अपनी सबसे कीमती चीजों को खो देते हैं। बाकी कहानी इनके उन चीजों को हासिल करने के बारे में है। फिल्म में इकोनॉमिक्स प्रफेसर तान्या मेहरा (चित्रांगदा सिंह) और राधिका के पिता सुरेश (अनुपम खेर) के किरदार भी हैं।

कुछ सीन और रोल के अंदर...
# मां (भारती आचरेकर) हर बार गुजरात से बेटे जिग्नेस को फोन करती है। बेटा गुजराती में जवाब देता है और हम हंसते हैं। क्लाइमैक्स के दौरान वह बेटे की ग्रेजुएशन सेरेमनी में भी आती है और वो सीन एंटरटेनिंग है। निक
से अपनी 15 साल की दोस्ती तोडऩे के लिए वह बेटे को चांटा लगाते हुए कहती है, 'अगर तू उसे माफ नहीं करेगा तो मुझे लगेगा कि तुझे पैदा करके मैंने अपना फिगर यूं ही खराब किया।
# अनुपम खेर के रूप में एक पिता है जो बेटी के बॉयफ्रेंड के साथ पूल में लेटे-लेटे नशीली सिगरेट पी रहा है और हमें हॉलीवुड मूवी के किसी सीन का सेंस दे रहा है। उसकी अजीब सी शेव की हुई मूछें और खुद को फॉर्मर गायनेकॉलोजिस्ट कहना पर वैसा बिल्कुल भी लग पाना भी वैसा ही माजरा है।
# अजय बापट के रोल में 'थ्री इडियट्स’ की स्टैंप लिए ओमी वैद्य आते ही चौंकाते हैं, लगता है कि लो, तुम इस फिल्म में भी हो। यहां के बाद से वो घिसे-पिटे लगते हैं।
# संजय दत्त का ये कहना कि मां, बहन और बीवी को अपने-अपने रिश्तों में खुशी तो मिलती है। पर उनके अंदर की औरत को जो खुशी चाहिए वो हम देसी बॉयज ही देते हैं। अगर नहीं समझ आया बापट, तो अपनी सातों बहनों के मुस्कराते चेहरों को देख लेना तुम्हें पता चल जाएगा। ये डायलॉग ढीला और बेहुदा है।
# रा रा री री... 'खलनायक फिल्म की ये धुन संजय दत्त की आहट को शायद सबसे ज्यादा ड्रमैटिक बनाती है। रोहित धवन ने यहां इसका यूज किया।
# जो लोग दीपिका पादुकोण की अकड़ी हुई असहज एक्टिंग से परेशान रहते हैं, उन्हें इस फिल्म में भी परेशानी ही मिलेगी, बस एक आंसू बहाने वाले सीन को छोड़ दें तो। चित्रागंदा को सेंशुअस और ग्लैमरस इकोनॉमिक्स प्रफेसर लगना था और वो लगीं भी। वैसे उनका रोल उतना डिफाइन किया हुआ नहीं था, क्लाइमैक्स में उनका जिगनेस की मां के सामने गुजराती बोलना मुस्कान देता है।
# जॉन और अक्षय की एक्टिंग हमेशा जैसी है। डायरेक्टर रोहित ने उनके किरदारों को बीच-बीच में अलग करते स्ट्रोक दिए हैं। जैसे, जॉन की गर्लफ्रैंड दीपिका के साथ अक्षय के किरदार का चिढ़े रहने वाला रिश्ता।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 9, 2011

नो जी थैंक यू!

फिल्मः थैंक यू
डायरेक्टरः अनीस बज्म़ी
कास्टः अक्षय कुमार, सोनम कपूर, इरफान खान, रिमी सेन, बॉबी देओल, सेलीना जेटली, सुनील शेट्टी
स्टारः डेढ़ 1.5


साउथ के एक्टर चिरंजीवी को लेकर 1990 में एक फिल्म बनी थी। नाम था 'प्रतिबंध।' इसके राइटर थे 'थैंक यू' के डायरेक्टर अनीस बज्मी। अनीस ने उस फिल्म में चिरंजीवी को बनाया बॉम्बे पुलिस में सब-इंस्पेक्टर सिद्धांत और जूही चावला को खिलौने बेचने वाली शांति। ये सारा का सारा खांचा 'जंजीर' और उसमें अमिताभ बच्चन-जया भादुड़ी के कैरेक्टर्स से उठाया गया। अनीस की वो इमेज और एटिट्यूड 'थैंक यू' में भी जिंदा है। ये फिल्म आसानी से टाली जा सकती है। अक्षय कुमार ने अपने पिता के नाम पर बनाई 'हरि ओम प्रॉडक्शंस' तले एक और बुरी फिल्म प्रॉड्यूस की है। एक बांसुरी बजाते मसीहा की कहानी सोचे जाने तक तो ठीक थी, पर स्क्रिप्ट, एक्टिंग और डायरेक्शन की प्रक्रिया में उसे बिखेर दिया गया। एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स का इश्यू भी सीरियस था पर क्रेडिट्स में राइटर्स की जगह जो चार-पांच नाम आते हैं, वो मिलकर भी इसे एक डीसेंट कहानी नहीं बना सके। थियेटर में लोग हंसते जरूर हैं पर फिल्म हिस्ट्री में इस मूवी का नाम कभी याद नहीं रखा जाएगा। न देखें तो बेहतर।

कहें कहानी
इंडिया से बाहर की तमाम खूबसूरत लोकेशन कभी हमारे कैरेक्टर्स का घर बनती हैं तो कभी नाचने-कूदने की जगह। खैर, इस पर गौर भी न करिएगा कि ये कहानी है कहां की। बस सुनिए। तीन दोस्त हैं। विक्रम (इरफान खान), राज (बॉबी देओल) और योगी (सुनील शेट्टी)... इनकी वाइफ हैं शिवानी (रिमी सेन), संजना (सोनम कपूर) और माया (सेलीना जेटली). मैन आर डॉग, जो घर से बाहर मुंह मारते रहते हैं, इसी अंग्रेजी कहावत पर एक और कहानी। तीनों पति एक-दूसरे के दोस्त, बिजनेस पार्टनर और अय्याशियों में राजदार हैं। एक बार संजना को अपने पति राज पर शक हो जाता है। यहां आना होता है माया के दोस्त किशन (अक्षय कुमार) का, जो एक प्राइवेट डिटैक्टिव है। ये बात पतियों को नहीं पता। इससे आगे कोई कहानी नहीं है बस टुकड़ों में बंटे सीन हैं, जो कभी हजम होते हैं कभी नहीं। जाहिर है आखिर में ये तीनों मर्द रंगे हाथों पकड़े जाएंगे, पर लाख टके का (मगर मालूम) सवाल ये है कि फिर क्या होगा? इनकी वाइफ क्या करेंगी? किशन का मकसद क्या है? घबराने की बात नहीं। ये सवाल जितने सीरियस यहां पढऩे में लग रहे हैं उतने, मूवी देखने के दौरान नहीं लगेंगे।

इतनी ढिलाई क्यों?
तीनों हीरोइन दोस्त हैं। एक मॉल में जब पहली बार मिलती हैं तो हाय-हैलो कहते वक्त उनके होठों से वॉयसओवर बिल्कुल नहीं मिलता। एक मल्टीस्टारर और घोर कमर्शियल फिल्म में ये छोटी-छोटी भद्दी गलतियां देखनी पड़ जाएंगी ये सोचा न था। कुछ ऐसा ही होता है अक्षय कुमार के कैरेक्टर के इंट्रोडक्टरी सीन में। टोरंटो जैसे किसी शहर की ऊंची इमारत की छत पर लेटे किशन अंग्रेजी बांसुरी बजा रहे हैं और उनके होठ सिले पड़े हैं। वो बांसुरी में फूंक नहीं रहे पर उसमें से प्रीतम का म्यूजिक निकल रहा है। फिल्म में मुन्नी और शीला के मुकाबले रजिया को उतारा गया। रजिया गुंडों में फंस गई... इस गाने में बस ये पांच शब्द हैं जो नए या रोचक जुमले से लगते हैं। बेहतर होता अगर इनका इस्तेमाल किसी 20 सैकंड के एड में कर लिया जाता। क्योंकि यहां इस गाने में और कुछ भी नहीं है। मल्लिका शेरावत गैरजरूरी और बेढंगी लगीं, अब उन्हें सोच-समझकर कपड़े उतारने चाहिए। एक सेकंड के लिए भी उन्हें या उनके डांस को देखना मुश्किल हो जाता है। डायलॉग कहीं-कहीं काफी फनी हैं और कहीं औसत। मसलन इरफान के कैरेक्टर का ये डायलॉग... औरत को ऋषि-मुनी नहीं समझ सके तो मैं कैसे समझूंगा। फर्स्ट हाफ में फिल्म एडल्ट कंटेंट और भाषा वाली लगती है। लगता है कि कमर्शियल कारणों से ही एक्स्ट्रा मैरिटल अफैयर्स जैसे गंभीर इश्यू में ऐसी मिलावट की गई। इस पर भी कुछ कमी न रह जाए तो पुराने फिल्मी मसालों में से करवा चौथ का सीक्वेंस उठाकर डायरेक्टर अनीस बज्मी ने यहां लगा लिया।

घिस रहे हैं फ्लॉप चिराग
फिल्म का पहला हाफ देखकर लगता है कि इरफान खान ने (फीस को छोड़ दें तो) अपनी जिंदगी की सबसे व्यर्थ फिल्म चुनी है। सेकंड हाफ में वो तीन-चार अच्छे गुदगुदाने वाले सीन देते हैं। जब इरफान की वाइफ बनी रिमी बताती है कि उसने सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करवा ली है तो बीवी पर शेर बने रहने वाले इस कैरेक्टर की आवाज हलक में अटक जाती है। पूरी फिल्म में ये पहला और शायद आखिरी कंप्लीट ह्यूमरस सीन है। इसके अलावा सब कैरेक्टर्स को भांत-भांत के ढेरों फैशनेबल कपड़े पहनाने में 'थैंक यू' जरूर एक सीरियस मूवी लगती है। क्लाइमैक्स में अपनी वाइफ को मनाने के लिए इरफान का अक्षय से हेल्प मांगने वाला सीन भी छोटा मगर रिझाने वाला है। सोनम कपूर को देखना किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। ये संजय लीला भंसाली ही थे जिन्होंने रणबीर-सोनम को 'सांवरिया' में अदभुत रूप में पेश किया, बस उसके बाद से दर्शक इस हीरोइन को झेल ही रहे हैं। न वो रो पाती हैं, न हंस पाती हैं। ऐसा लगता है जैसे दो दिन से उन्हें खाना नहीं दिया गया है। मुकेश तिवारी तो 'गोलमाल सीरिज' के टाइम से ही साइड किक डॉन बनकर रह गए हैं। वही मूछें, वही बाल और आस-पास काली टी-शर्ट में पिस्टल पकड़े गुर्गे। न लुक में कोई फर्क है न डायलॉग डिलीवरी में और न ही रोल में।

थोड़ी एक्टिंग होती तो अहसान होता
मूवी में सबसे ज्यादा इरिटेट किया है एक्टर्स की एक्टिंग ने, जो उन्होंने की ही नहीं। करोड़ों की फीस लेते हैं, स्टार्स बने बैठे हैं पर बस एक्ट ही नहीं करते। अगर इसका दोष भी डायरेक्शन और स्क्रिप्ट पर डाला जाए तो सिरफिरी फिल्में पहले भी होती थी। प्राण, जगदीप, धर्मेंद्र, सुनील दत्त और असरानी ये कुछ पुराने नाम हैं, जो फिल्ममेकिंग की बाकी कमतरी को अपने अभिनय से ढकते थे। फिर अरुणा ईरानी, कादर खान, गुलशन ग्रोवर और अनिल कपूर जैसे नाम भी रहे जिन्होंने पूरे करियर में एक भी फिल्म में ढीली एक्टिंग नहीं की, फिल्में भले ही घटिया रही हों। पर क्या करें हमारे गोरे दिमाग वाले इंडियन अक्षय कुमारों, बॉबी देओलों और सोनम कपूरों का जिन्हें कैमरे के लेंस के पीछे बैठे ऑडियंस नजर नहीं आते। अक्षय और सोनम के बीच हर फ्रेम में उम्र के तालमेल का टकराव साफ दिखता है। वो भी असहज होते रहते हैं, हम भी। उल्टे सुनील शेट्टी कई सपाट फिल्मों के बाद यहां कुछ अलग करने की कोशिश करते दिखते हैं।

आखिर में...
शुरू होने से पहले ही अहसास हो जाता है कि ये 'मस्ती' और 'नो एंट्री' की सीधी नकल है। क्लाइमैक्स में कुछ देर के लिए हीरो जेल पहुंचते हैं तो यहां आते-आते ये 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया' बन जाती है। आखिर में 'बावर्ची' के राजेश खन्ना की तरह रिश्तों के जग में उजियारा फैलाने वाले मसीहा बनकर अक्षय कुमार चौंकाते कम और हमारा मजाक बनाते ज्यादा लगते हैं। मुझे यकीन नहीं होता कि (ऑरिजिनल हो या किसी दूसरी फिल्म से प्रेरित) इन्हीं अनीस बज्मी ने 'सिर्फ तुम', 'प्यार तो होना ही था', 'दीवाना मस्ताना', 'लाडला', 'राजा बाबू', 'गोपी किशन' और 'आंखें' जैसी फिल्में और उनके डायलॉग लिखे थे। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 12, 2011

काहलों फैमिली से एक परिचय कर ही लें

फिल्मः पटियाला हाउस
डायरेक्टरः निखिल अडवाणी
कास्टः अक्षय कुमार, अनुष्का शर्मा, ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया, टीनू आनंद, फराज खान, हार्ड कौर, सोनी राजदान, अरमान किरमानी, रैबिट सेक सी, जेनेवा तलवार, नासिर हुसैन, एंड्र्यू साइमंड्स
स्टारः ढाई 2.5

'पटियाला हाउस’ एकबारगी का ठीक-ठाक मनोरंजन है। ऋषि कपूर 'दो दूनी चार’ में संतोष दुग्गल देसाई के रूप में इम्प्रैस करने के बाद यहां बाउजी के मजबूत रोल में हैं, तो डिंपल कपाडिय़ा 'दबंग’ बाद फिर पति का साथ देने वाली मां के रोल में दिख रही हैं। 'बैंड बाजा बारात’ की श्रुति कक्कड़ बनना अनुष्का शर्मा के करियर की सबसे सुनहरी घटना थी, दूसरी ऐसी घटना है 'पटियाला हाउस।‘ अक्षय कुमार को कुछ हद तक अपने जीवन की 'स्वदेश’ मिल गई है। याद रखिएगा पूरी तरह नहीं। फ्रेंड्स, फैमिली, फिलॉसफी या अकेले.. किसी भी मूड के साथ 'पटियाला हाउस’ देखने जा सकते हैं, आपके पैसे जाया नहीं जाएंगे। चूंकि अच्छी फिल्ममेकिंग और नए किस्म के एंटरटेनमेंट का तकाजा है इसलिए मैं इसे खास फिल्म नहीं मान सकता। ग्रेटर लंदन में रहने वाले थियेटर एक्टर फराज खान पुनीत सिंह कहलों के रोल में बाकियों से अलग दिखते हैं, इसलिए खास जिक्र।

पता पटियाला हाउस काः स्टोरी
कहानी गुरतेज सिंह काहलों (ऋषि कपूर) की है। इन्हें घर पर सब बाउजी कहते हैं। 20 साल पहले सीनियर एडवोकेट लीडर सैनी साब (प्रेम चोपड़ा) को बेदर्दी से कत्ल कर दिए जाने के बाद से ही बाउजी ब्रिटिश कौम से नफरत करने लगे। उन्होंने लंदन के साउथहॉल में अपनी इंडियन कम्युनिटी को मजबूत बनाया, उनके लिए जेल गए, उनके अधिकारों के लिए लड़े। एक दिन पूरी कम्युनिटी के सामने कह दिया कि उनका फास्ट बॉलर बेटा परगट (अक्षय कुमार) इंग्लैंड के लिए क्रिकेट नहीं खेलेगा। अगले 17 साल तक परगट उर्फ गट्टू सिर झुकाए अपने बाउजी के वचनों का पालन करता है। मां (डिंपल कपाड़िया) भी अपने पति के आगे चुप है पर बेटे के दबे सपनों को खूब समझती है, जानती है कि वह आज भी रोज रात छिपकर बॉलिंग प्रैक्टिस करने जाता है। पड़ोस में रहती है सिमरन (अनुष्का शर्मा), जो 'शोले’ की बसंती जैसी चुलबुली और प्यारी है। वो परगट की जिंदगी में सपने फिर से जगाने की कोशिश करती है। इसी का हिस्सा बनते हैं बेदी साब (टीनू आनंद) भी। इस कहानी में पटियाला हाउस फैमिली से जुड़े बाकी मेंबर कोमल, जसमीत, हिमान, जसकिरण, अमन, डॉली, पुनीत, रनबीर और प्रीति हैं। इनमें से किसी का ड्रीम शेफ-रैपर-फिल्ममेकर या डिजाइनर बनने का है तो कोई इसाई बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती है। ये सब चुप हैं क्योंकि गट्टू चुप है। अब गट्टू को बाउजी के हुकुम और अपने सपने के बीच एक को चुनना है। क्लाइमैक्स का अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। बाकी आप मालिक।

कितने अलग हैं परगट
पिछली दर्जनों फिल्मों की तरह 'पटियाला हाउस’ भी अक्षय कुमार की कोई नई इमेज नहीं गढ़ पाती है। जिन क्रिकेटिंग शॉट्स पर अक्षय के कैरेक्टर का अलग होना टिका था, उनमें परफेक्शन की खासी कमी दिखती है। हालांकि कुछ बॉलिंग वाले सीन में एनिमेशन के इस्तेमाल से काम चल जाता है। मगर इस क्रिकेट तत्व वाली फिल्म से 'लगान’ वाले रियल टच की उम्मीद करना बेकार है। हल्के-फुल्के ड्रामा वाले मनोरंजन के साथ चूंकि ये मूवी बेहतरीन होने की महत्वाकांक्षा भी नहीं रखती इसलिए हमें भी इस पर कोई बात नहीं ही रखनी चाहिए। फिर भी स्पोर्ट्स का हिस्सा कहानी में जहां भी आएगा, इसकी तुलना हमेशा दूसरी खेल वाली फिल्मों से होगी ही। जैसे 1992 में मंसूर खान की बनाई 'जो जीता वही सिंकदर।‘ खेल के साथ परिवार, कॉलेज लाइफ और प्रेम जैसे तत्वों से मिलकर बनी ये हिंदी फिल्म इस श्रेणी में आज भी शीर्ष पर बनी हुई है। हालांकि इस फिल्म का संजय लाल शर्मा (आमिर खान) और 'पटियाला हाउस’ का परगट सिंह काहलों कई मायनों में अलग हैं, पर खेल खेलने या न खेलने का पैशन, बीच में पिता के साथ गैप भरा रिश्ता, एक चाहने वाली फ्रेंड-कम-लवली सी गर्लफ्रेंड, कुछ यंग दोस्त-रिश्तेदार और क्लाइमैक्स में जीत पर टिकी सबकी आंखें.. जैसी बातें दोनों फिल्मों को जोड़ती हैं।

इंडिया से दूर परदेस
अब अगर लंदन, साउथहॉल, नस्लभेद, एशियाई कम्युनिटी और खेल के पैशन वाले नायकों वाली कहानी की बात करें तो 'दन दना दन गोल’ सबसे करीबी नाम है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ अंग्रेजी फिल्में लीं और कुछ जॉन अब्राहम, अरशद वारसी, बोमन इरानी लिए.. और डायरेक्ट कर दी 'दन दना दन गोल।‘ ऐसे में करण जौहर को 'कुछ कुछ होता है’ में असिस्ट कर चुके निखिल अडवाणी के लिए कोई मुश्किल नहीं थी। उन्होंने और अन्विता दत्त गुप्ता ने मिलकर एक ठीक-ठाक स्क्रीनप्ले लिख दिया। बाकी काम फिल्म विधा में मौजूद चालाकी कर देती है। जिन स्पोर्ट्स फिल्मों का मैंने जिक्र किया है, उनसे कुछ अलग इसमें मिल पाता है तो वो है अक्षय कुमार का अंडरडॉग वाला कैरेक्टर। अपने बाउजी के सामने हाथ बांधे खड़े रहने वाले और घर में सब छोटे भाई-बहनों के ताने सुनने वाले इस नॉन-वॉयलेंट कैरेक्टर को उन्होंने अपनी एक्टिंग क्षमताओं के साथ पूरी ईमानदारी से निभाया है। कुछ सीन में वो अपनी सारी कमियों को पीछे छोड़ देते हैं। बताना चाहूंगा कि सुबह-सुबह साउथहॉल की सड़कों-गलियों से चुपचाप अपनी शॉप की ओर बढ़ता परगट 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ के बाउजी (अमरीश पुरी) वाली सिनेमैटिक एनआरआई यादें दे जाता है। ऐसा हो भी क्यों न सुबह के हल्के कोहरे में, बादलों के बीच, देस से दूर लंदन की सड़कों से गुजरने वाले, कबूतरों को दाना डालने वाले अमरीश पुरी ही तो पहले थे न, उसमें भी गोरों के खिलाफ गुस्सा और पंजाब की संस्कृति से अनहद प्यार करने वाला सरदारी तेवर वहीं से आया है। इससे पहले के जुड़ाव ढूंढने के लिए मनोज कुमार की फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

असल खिलाड़ियों की एक्टिंग
अंग्रेजी फिल्म 'गोल-द ड्रीम बिगिन्स’ के सांतियागो मुनेज (कूनो बेकर) वाली बात अक्षय में यहां नहीं आ पाती है। 2005 में आई डायरेक्टर डैनी कैनन की इस फिल्म को फीफा का पूरा सपोर्ट था इसलिए असल खिलाड़ी पूरे दो घंटे फिल्म में दिखते रहे। 'पटियाला हाउस’ में कुछ छितरे हुए से खाली बैठे प्लेयर ले लिए गए हैं। जिन ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के क्रिकेटर्स को रोल प्ले करने के लिए चुना गया उनमें सिर्फ इंग्लैंड की क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके नासिर हुसैन ही फिल्म का हिस्सा लगते हैं। एंड्रयू साइमंड्स परगट सिंह के प्रतिद्वंदी के तौर पर दो-तीन बार मूवी में आते हैं, पर न जाने क्यों वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते हैं। इंग्लैंड क्रिकेट चयन बोर्ड की मीटिंग वाले सीन और भी असरदार हो सकते थे। अगर ऐसी स्पोर्ट्स-फैमिली ड्रामा मूवीज में इन बोर्ड मीटिंग्स और खिलाड़ियों के प्रैक्टिस सैशन वाले सीन कुछ गंभीरता से लिखे-फिल्माए जाएं तो औसत होते हुए भी फिल्म की एंटरटेनमेंट वैल्यू 'चक दे’ इंडिया सरीखी हो सकती है। कुछ-कुछ 'लगान’ जैसी भी।

ब्रीफ में बड़ी बातें
अनुष्का के कैरेक्टर का परगट सिंह को आई लव यू बोलना और जाते-जाते पीछे से परगट का लव यू टू बोलना सुनकर लौटकर आना और गुदगुदी करते हुए-गले लगते हुए पूछना कि तुमने भी कहा न, तुमने भी कहा... फ्रैश आइडिया लगता है। अनुष्का के जिस चुलबुलेपन की मैं बात कर रहा था, वो इसमें देख सकते हैं। तुंबा-तुंबा तुड़क गया... और लॉन्ग दा लिश्कारा... दोनों ही (सदाबहार तो नहीं पर) खूबसूरत गाने हैं। हार्ड कौर, सोनी राजदान और टीनू आनंद का फिल्म में उतना इस्तेमाल नहीं किया गया जितना किया जा सकता था। शुरू के दस मिनट फिल्म का फ्लैवर ही कुछ और (रोचक और अच्छा) होता है। उस वक्त बाउजी के यंग-सीरियस और समझदार कैरेक्टर में कोई और एक्टर होता है और वॉयसओवर होता है ऋषि कपूर का। ये भी ठीक ही प्रयोग है, कम से कम कैरेक्टर्स के एज गैप के बाद उनकी शक्लें स्वीकार न भी हो तो आवाज तो एक रहे। शुरू में किन हालात ने बाउजी (ऋषि) को बदलकर इतना सख्त और निरंकुश बना दिया, देखना इंट्रेस्ट जगाता है। फिल्म में मीडियोक्रिटी शब्द का इस्तेमाल किया गया है। मुझे एतराज है। इसे ऐसे ही नहीं मान लेना चाहिए। आप फिल्म एनआरआई ऑडियंस को प्राथमिकता में रखते हुए बनाते हैं, लेकिन नसों में खास किस्म का विचार या विचारधारा इंजेक्ट करते हैं इंडिया के महानगरों और कस्बों में भी। जो गलत है। जब तक इस पर सार्वजनिक बहस पूरी न हो, आपको फिल्मी माध्यम का इस्तेमाल कुछ बेपरवाही से नहीं करना चाहिए। जाहिर है, मीडियोक्रिटी शब्द के पीछे अपने तर्क पुख्ता करने के लिए निखिल अडवाणी ने लॉजिकल सीन और डायलॉग प्रायोजित करने की कोशिश तो की ही है। खैर, इस पर खूब बात होनी चाहिए।

आखिर में...
मुझे सबसे अच्छा लगा फिल्म में अक्षय के कैरेक्टर का नाम... परगट सिंह काहलों। ऐसे जमीनी ठसक वाले नाम गुडी-गुडी फिल्मों के चक्कर में जैसे गायब ही हो गए थे। सरदारों के नाम बस मजाक में ही इस्तेमाल करने के लिए गढ़े जाने लगे। परगट सिंह काहलों छाछ और दही पिया हुआ नाम लगता है। दूसरी अच्छी बात अनुष्का-अक्षय की कैमिस्ट्री। तीसरी ऋषि की परफॉर्मेंस और डिंपल की साथ उनकी जोड़ी। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी