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Thursday, August 6, 2015

मानो मत, जानोः “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” ...परस्पर

“Do not believe, Know!” …is a series about relevant documentary films and filmmakers around the world who’ve devoted their lives to capture the most real, enlightening, shocking, just and humane stories. They’ll change the way you think and see everything. Watch & read them here. 

 Documentary. .Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair (2012), directed by Ajay Bhardwaj.

“धर्मशाला धाड़बी रैंदे, ठाकर द्वारे ठग्ग
विच मसीतां रहण कुसत्ती, आशक रहण अलग्ग”
- मछंदर खान मिसकीन, फिल्म में बुल्ले शाह की काफी उद्धरित करते हैं
अर्थ हैः धर्मशालाओं में धड़वाई (व्यापारी) और ठाकुरद्वारों में लुटेरे बस गए हैं। मस्जिदों में वे रहते हैं जो वहां रहने के योग्य नहीं। आशिक (ईश्वर से प्रेम करने वाले) तो इन सबसे अलग रहते हैं।

पंजाब का सांझा विरसा और उस विरसे की बहुत परिष्कृत मानवीय-धार्मिक समझ अजय भारद्वाज की डॉक्युमेंट्री “मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते” में नजर आती है। ये फिल्म उनकी “पंजाब त्रयी” सीरीज में तीसरी है। मौजूदा मीडिया और पॉप-कल्चर ने एक सभ्यता के तौर पर हमें जो सिखाना जारी रखा है उससे हमें सुख और सच्ची समझ की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये फिल्म भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद दोफाड़ पंजाब में मजबूती से बचे अलग-अलग धर्मों, वर्गों के लोगों में प्रेम, स्नेह और सह-अस्तित्व के निशान तो दिखाती ही है, दर्शन के स्तर पर भी बहुत समृद्ध और सार्थक करके जाती है। शायद ये समझने के लिए “मिलांगे...” हमें पांच-छह बार देखनी पड़े।

A still from "Milange..."
हम इस डॉक्युमेंट्री के पात्रों की बातों और समझ को देख हैरान होते हैं। वे ईश्वर को माही कहते हैं। वे अंतरिक्ष, आकाशगंगा और साइंस पढ़कर घमंडी नहीं हो गए हैं। वे पूरी विनम्रता से आश्चर्य करते हैं कि उस इलाही की महिमा का पार नहीं जो पानी पर धरती को तैराए रखता है। कि कैसे गर्म, धूल भरी हवाएं लहरा रही होती हैं और न जाने पल में कहां से काले बादल आ जाते हैं। इन पात्रों के विचार फकीरी वाले हैं। इनकी धर्म की व्याख्या बेहद आधुनिक, बेहद मानवीय है। ऐसी फिलॉसफी आधुनिक पाश्चात्य नगरीय सभ्यता शायद कभी नहीं पा सकेगी।

पिछली दो फिल्मों (कित्ते मिल वे माही, रब्बा हुण की करिये) की तरह इसमें भी उस पंजाब को तस्वीरों से सहेजा गया है जो भविष्य में न होगा। ईंटों के सुहावने घर, गोबर लीपे आंगन व दीवारें, गलियों में बैठे कुत्ते, टूटे पेड़ की शाख पर बैठे कौवे, खुली नालियां, स्कूल की ड्रेस में जाते भोले-प्यारे बच्चे। मज़ार के बाहर झाड़ू से सीमेंट की चौकी बुहारी-धोई जा रही है। शांति है। सुकून है। पैसा गौण है, प्रेम प्राथमिक है। धर्म सब स्वीकार्य हैं। ऊपर वाले को लेकर कोई लड़ाई, दंगा, फसाद नहीं है। ये हिंदु भगवान को भी मानते हैं, अल्ला को भी, वाहे गुरु को भी। 2015 के भारत में आप धर्म को लेकर जो बपौती की हेकड़ी पाएंगे, जो वैमनस्य की बू पाएंगे, दंगों का भय पाएंगे, दुनिया में हो रहा क़त्ल-ए-आम पाएंगे.. वो इस पंजाब में नहीं पाएंगे। वो पंजाब जो मुख्यधारा की कवरेज से दूर है। वो पंजाब जिसे बंटवारा भौगोलिक रूप से ही बांट पाया।

अजय इसी पंजाब को ढूंढ़ रहे हैं। उनके हर फ्रेम में जाते हुए ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां धर्म की विवेचना अलग है और देश में अभी के माहौल में धर्म की परिभाषा अलग रची जा रही है। इस परिभाषा से लगता है कि कैसे हमें संकीर्ण सोच वाले दड़बों में हमारे बड़ों, हमारी जाति-धर्म वालों ने घेर रखा है। हम हिंदु हैं तो अन्य हिंदुओं से चिपक रहे हैं, हम मुस्लिम हैं तो रूढ़ि की अलग ही बेड़ी में बंधे हैं। अगर कहें कि ऐसा लग रहा है हम कई सौ साल पहले के युग में पहुंच गए हैं और आक्रांताओं का हमला होने वाला है। या ख़लीफायत स्थापित करने का वक्त आ गया है। तो धर्म की रक्षा को हिंदु और आक्रामक हो गए हैं। ये कितना हास्यास्पद है।

राजकुमार हीरानी की दिसंबर में प्रदर्शित फिल्म ‘पीके’ इसका सटीक जवाब देती है। जब स्टूडियो में पीके-तपस्वी संवाद होता है तो छद्म धर्मगुरू तपस्वी धमकाने वाले अंदाज में कहते हैं, “आप हमारे भगवान को हाथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठे रहेंगे? बेटा.. हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है!” जवाब में पीके कहता है, “तुम करेगा रक्षा भगवान का? तुम! अरे इत्ता सा है इ गोला। इससे बड़ा-बड़ा लाखों-करोड़ों गोला घूम रहा है इ अंतरिक्ष मा। और तुम इ छोटा सा गोला का, छोटा सा सहर का, छोटा सा गली में बैठकर बोलता है कि उ की रक्षा करेगा.. जौन इ सारा जहान बनाया? उ को तोहार रक्षा की जरूरत नाही। वो अपनी रक्षा खुदेही कर सकता है”। ये जवाब उन सबको भी है जो खुद को भगवान का संरक्षक या सैनिक मान लेते हैं। जैसे हाल ही में “जय भीम कॉमरेड” और “मुजफ्फरनगर बाकी है” जैसी फिल्मों का प्रदर्शन रोकने वाले। ये खेदजनक है कि अपने भीषण अज्ञान को उन्होंने सर्वोच्च ज्ञान और सार्वभौमिक सत्य मान लिया है जो उनमें उनके पूर्वाग्रहों से है, जो उनमें उनके घर के बड़ों, जातिगत समाजों द्वारा रोप दिया गया है। ये तत्व पशुवत हैं जिनमें सिर्फ अज्ञान और अहंकार है। क्या अहंकार से ईश्वर मिलता है? एक-दूसरे धर्मों से असुरक्षित महसूस करवाए जाने वाले लोग “मिलांगे..” में मछंदर खान को सुनें। वे गुनगुना रहे हैं.. “बालक पुकारते हैं बंसी बजाने वाले। कलजुग में भी खबर लो द्वापर में आने वाले”। सुनकर आप सुन्न हो जाते हैं।

हर पहचान (identity) को अपने में समाहित करने वाले इस धर्म की विवेचना और सूफीयत के अलावा फिल्म बंटवारे के बाद पंजाब में बची सांझी विरासत की मजबूती को भी पुष्ट करती चलती है जो इस “पंजाब त्रयी” की पिछली दो फिल्में भी कर चुकी हैं। शीर्षक में जिन बाबा रतन का जिक्र है वो बाबा हाजी रतन हैं जिनकी दरगाह भटिंडा में स्थित है। उन्हें भारतीय उप-महाद्वीप के अलावा इस्लामी दुनिया में भी श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। माना जाता है कि वे पैगंबर मोहम्मद से मिले थे। लेकिन इस अपुष्ट तथ्य से ज्यादा जरूरी बात ये है कि कैसे उन जैसे चरित्र अलग-अलग धर्मों और वर्गों के लोगों द्वारा समान रूप से पूजे जाते हैं। इन सूफी चरित्रों के मेले अनेक वर्षों से पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में लगते रहे जो सब लोगों को करीब लाए। जैसे बाबा हाजी रतन का मेला 1947 के बहुत पहले से लगता था। दूर-दूर से लोग वहां आते थे। ये पंजाब का काफी बड़ा मेला था। फिर छापर का, बाबा मोहकम शाह जगरांव वाले का , नोहरभादरा में गोगामेड़ी का और सरहिंद का जोर मेला भी हैं।

पिछली डॉक्युमेंट्री के दयालु पात्र प्रो. करम सिंह चौहान की लिखी पुस्तक ‘बठिंडा’ से हम इन मेलों और विरसे को नजदीक से जानते है। वे बाबा रतन मेले के बारे में लिखते हैं, “यहां मुस्लिम सूफी संत आते थे, कव्वालियां गाते थे, गजब मेला लगता था। बुल्ले शाह, शाह हुसैन और अन्य गाए जाते थे। इस दौरान खास याद आती है बाबू रजब अली की गायकी। विभाजन के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। 35 साल वहां रहने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। वे वहां रह-रहकर अपनी जन्मभूमि के लिए आंसू बहाते रहे। भठिंडा की धरती पर बाबू रजब अली शाह अली गाते थे, दहूद गाते थे वहीं साथ ही साथ गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों के बलिदानों की कहानी गाकर श्रोताओं की आंखों में पानी ले आते थे”। इस बीच मछंदर कहते हैं कि हालांकि वो मुस्लिम थे फिर भी साहिबजादों की कहानी ऐसे गाते थे कि कोई गा नहीं सकता। वे सूफी फकीर थे और उनका कोई धर्म नहीं होता। रजब अली, महाभारत के किस्से गाते थे, भीम-कृष्ण सब को गाते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन ओलिया जैसे मुस्लिम धर्म के मेलों में बाबा रतन का मेला चौथा सबसे बड़ा था और यहां हर धर्म के लोग आते थे।

छापर में गुग्गा मढ़ी (जिसे हम राजस्थान में गोगामेड़ी कहते हैं) की दरगाह में बने भित्तीचित्रों से तब के माहौल और व्यापक सोच की झलक मिलती है। इनमें सोहणी है जो दरिया पार कर रही है महिवाल से मिलने के लिए। मिर्जा पेड़ की छांव में सो रहा है और साहिबा उसके पास बैठी है। उधर साहिबा के भाई पीछा कर रहे हैं। पुन्नू ऊंट पर जा रहा है, पीछे सस्सी बैठी है। पंजाब के नामी पहलवान किक्कर सिंह और गुलाम लड़ रहे हैं। छापर के बेहद मशहूर गायक डोगर और उसके साजी हैं जिनके पीछे गांव का जमींदार रूरिया सिंह बैठकर सुन रहा है। मेले में आए लोगों के लिए निहंग कुएं से पानी सींच रहे हैं।

इस दुनिया के पात्रों का दर्शन (philosophy) बहुत ही सुखद है।

मछंदर कहते हैं, “अल्लाह किसी को मिला है तो बरास्ता (via) ही मिला है। हीर ने रब को पाया तो रांझे के रास्ते पाया। ससी ने पाया तो पु्न्नू के रास्ते पाया। मजनू ने पाया तो लैला के रास्ते”। वे मजनू का किस्सा सुनाते हैं। एक बार अल्ला का प्रतिनिधि उससे मिला। उसने कहा अल्ला ने याद फरमाया है। फकीर मजनू बोला कि मुझे तो अल्लाह से मिलने की कोई ख्वाहिश नहीं है। अगर अल्लाह को मुझसे मिलना है तो मैं क्यों जाऊं वो खुद आए। और हां, जहां भी वो है, वो कभी मेरे सामने न आ जाए। अगर मुझसे चार बातें ही करनी हैं तो लैला बनके आ जाए।

क्या प्रेम की ये पराकाष्ठा इस और उस दोनों जन्मों को सफल नहीं कर देती?

एक बेहद अज्ञानी और गैर-स्मार्ट लगने वाला पात्र कहता है, “नमाज पढ़ लो या गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ लो, बात एक ही है.. बस उस मालिक के आगे सुनवाई होनी चाहिए। सब बोलियां उसी की बनाई हुई हैं। वो सब बोलियां जानता है। हम नहीं जानते”।

(यहां ajayunmukt@gmail.com संपर्क करके अजय भारद्वाज से उनकी पंजाबी त्रयी की डीवीडी मंगवा सकते हैं, अपनी विषय-वस्तु के लिहाज से वो अमूल्य है)

“Let’s Meet at Baba Ratan’s Fair” - Watch an extended trailer here:


On the eve of the British leaving the subcontinent in 1947, Punjab was partitioned along religious lines. Thus was created a Muslim majority state of Punjab (west) in Pakistan and a Hindu /Sikh majority state of Punjab (east) in India. For the people of Punjab, it created a paradoxical situation they had never experienced before: the self became the Other. The universe of a shared way of life – Punjabiyat — was marginalised. It was replaced by perceptions of contending identities through the two nation states. For most of us this has been the narrative of Punjab– once known as the land of five waters, now a cultural region spanning the border between Pakistan and India.

However, the idea of Punjabiyat has not been totally erased. In ways seen and unseen, it continues to inhabit the universe of the average Punjabi’s everyday life, language, culture, memories and consciousness. This is the universe that the film stumbles upon in the countryside of east Punjab, in India. Following the patters of lived life, it moves fluidly and eclectically across time, mapping organic cultural continuities at the local levels. It is a universe which reaffirms the fact that cultures cannot be erased so very easily. This is a universe marked by a rich tradition of cultural co-existence and exchange, where the boundaries between the apparently monolithic religious identities of ‘Hindu’, ‘Muslim’ and ‘Sikh’ are blurred and subverted in the most imaginative ways.

Moreover, one finds in this universe, mythologies from the past sanctifying such transgressions and reproducing themselves in the present; iconographies of Hindu gods and Sikh gurus share space with lovers, singers and wrestlers, creating a rich convergence of the sacred, the profane, and the subversive. Nothing represents this more than the Qissa Heer, a love balled exemplifying a unique Punjabi spirituality identified with love, whose multiple manifestations richly texture this landscape. Yet, there are absences to deal with. Strewn across this cultural terrain are haunting memories which have become second skin —of violence of 1947; of separation from one’s land; of childhood friends lost forever; of anonymous graves that lie abandoned in village fields. Accompanying this caravan of seekers and lovers are the ascetic non believers in whom a yearning for love and harmony turns into poetry against war and aggression. Such is the land of Punjab where miracles never cease to capture the imagination.

(Users in India and International institutions, can contact Ajay Bhardwaj at ajayunmukt@gmail.com for the DVDs (English subtitles). You can join his facebook page to keep updated of his documentary screenings in a city near you.)

Sunday, February 10, 2013

मक्खी शब्द के मायने बदलने का वर्षः 2012

मूलतः तेलुगू भाषा में फिल्म बनाने वाले के. के. राजामौली की शुरुआती फिल्में बहु-भाषाओं में डब हुईं तो बाद की फिल्मों के कई भाषाओं में रीमेक बने। अक्षय कुमार स्टारर राउडी राठौड़ और अजय देवगन की सन ऑफ सरदार उन्हीं की कारोबारी तौर पर बेहद सफल दक्षिण भाषी फिल्मों की हिंदी रीमेक रही हैं। गुजरे साल उन्होंने एक मक्खी की कहानी बड़े परदे पर दिखाई। मक्खी जो पैसे, पावर और पाप से चूर एक मनुष्य को धूल चटाती है। न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी फिल्म की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है। आइए जानते हैं इस फिल्म के भीतर की गहराइयों को और इसे देखने के और भिन्न परिपेक्ष्य को।


“मैं यह मरियल देह नहीं हूं, देह तो केवल ऊपर की क्षुद्र पपड़ी है; और दूसरा यह कि मैं कभी न मरनेवाला अखंड और व्यापक आत्मा हूं”। - विनोबा, ‘गीता प्रवचन’ में

Poster of 'Makkhi.'
वैज्ञानिक सोच रखना इतना जरूरी अभी बना दिया गया है कि पुनर्जन्म, कर्म, आस्था, पवित्रता, परोपकार और स्पर्शहीन प्रेम की बात करने वाला अंकल जी समझा जाता है, पुरानी सोच वाला समझा जाता है, खारिज समझा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस को हिंदी में उद्धरित करें तो आधुनिकता की बात आ जाती है, जिक्र करने वाले को पिछड़ा हुआ महसूस करवाया जाता है। हां, अगर ये ग्रंथ अंग्रेजी में हों और उन्हें उद्धरित करने वाले परदेसी शिक्षाविद्, पत्रकार, राजनेता, साहित्यकार, फिल्मकार और नौजवां हों तो कोई आपत्ति नहीं होती। समाज में जब अपनी पृष्ठभूमि और पुराण यूं बहिष्कृत कर दिए गए हों वहां फिल्मकारी और एस. एस. राजामौली आते हैं। वह जो कहते और दिखाते हैं, हम मानते हैं। अगर उनकी फिल्म का नायक मार दिया जाता है और पुनर्जन्म से उसका आत्मा उसी क्षण एक मक्खी के अंडे में प्रविष्ट हो जाता है, हम मानते हैं। बाद में मक्खी की देह में वह नायक इंसानों की भांति सोचता, समझता, पढ़ता, याद रखता और क्रियाएं करता है... हम मानते हैं। उस मक्खी से नायक की (उसकी) प्रेमिका प्रेम करने लगती है, हम मानते हैं। अंततः वह अपना बदला पूरा कर लेता है, हम सबकुछ मानते हैं।

क्यों?...

क्योंकि ये फिल्में हैं, और एक फिल्म रचने वाला जहान भर की अतार्किक चीजें सिनेमाई तर्कों से मानव मस्तिष्क में डालना जानता है। उसके पास इतने फिक्स तरीके हैं कि जो चाहे मनवा सकता है। कुछ भी। बेन एफ्लेक की इस बार के ऑस्कर पुरस्कारों में धूम मचाने जा रही ‘अर्गो’ भी ऐसी ही एक सुखद फिल्म है। 1979 की इस कहानी में तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर आतंकी कब्जा कर लेते हैं, 50 से ज्यादा लोग बंधक बनते हैं, उनमें से छह भागकर दूसरे देश के एक राजदूत के घर में छिप जाते हैं। उन छह को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए एक सीआईए अधिकारी टोनी मेंडेज (एफ्लेक) को ईरान में घुसना है। तो वह एक छद्म फिल्म निर्माता बन वहां जाता है। थ्रिलर-ड्रामा ‘अर्गो’ के भीतर ही वह ‘अर्गो’ नाम की साइंस-फैंटेसी बनाने का ढोंग करता है और वो छह लोग लौटते में उसके कैनेडियन क्रू होने का। फिल्म क्रू होने के बहाने इस खतरनाक मिशन पर दुश्मन देश जाने की ऐसी नाटकीय कोशिश 33 साल पहले सच में हुई थी। पिछले साल आई तमिल फिल्म ‘पयनम’ में भी मेजर रविंद्र (नागार्जुन) विमान बंधक बनाने वालों को यकीन दिलाने के लिए कि उनका मर चुका आतंकी लीडर यूसुफ खान जिंदा है, एक फिल्म निर्देशक (ब्रह्मानंदम) और एक्टर (श्रीचरन) की मदद लेता है। फिर एक वीडियो फुटेज बनाई जाती है जिसमें डायरेक्टर उस एक्टर को हूबहू आतंकी लीडर जैसा प्रस्तुत करता है।

ये दोनों ही किस्से निर्देशक राजामौली की जादूगरी के समानांतर चलते हैं। जादूगरी ऐसी कि जब तक मक्खी खत्म होती है, एक आश्चर्यजनक-मजबूत संदेश दर्शक की रीढ़ तक पहुंच चुका होता है, कि ‘अब कोई किसी मक्खी को यूं न मारेगा’। चींटी और हाथी की कहानी से हम सभी पहले परिचित थे, कि एक चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो उसके प्राण ले सकती है। इस फिल्म के बाद हम मक्खी और इंसान की कहानी याद रखते हैं। वाकई लगने लगता है कि अंततः एक मक्खी भी ताकतवर होती है, अगर अपनी असल शक्ति पहचान ले तो। अद्भुत! हालांकि फिल्म का तमिल नाम ‘एगा’ ज्यादा इज्जत भरा और अज्ञात-रहस्यमय लगता है, पर फिर सोचने लगता हूं कि मक्खी नाम निम्न, नीचा, गंदा, कुत्सित, कमजोर, कायर, पैरों में गिरा, आम और गरीब जैसे शब्दों का पर्याय बन चुका है... ‘एगा’ नाम रखकर फिल्म का स्तर तो ऊपर आ जाता पर ‘मक्खी’ शब्द के मायने सम्मानजनक बनाने ज्यादा जरूरी हैं, वो कब हो पाता। इसलिए मक्खी शब्द ही बार-बार दोहराना होगा, इतनी बार कि हमारे जेहन में इस शब्द के पर्याय ही बदल जाएं। चूंकि मक्खी आज देश के आम आदमी की समानार्थक है तो ऐसा हो कि इस शब्द को सुनकर जेहन में कमजोर की नहीं सम्मानित पर्याय की छवि उभरे।

सरल शब्दों में कहूं तो देखने से पहले फिल्म का नाम सुनकर इच्छा हुई कि ‘हुंफ... मक्खी। क्या नाम है? ऐसी ही होगी... इसे भी अखबार पटककर मार दो और दूर फैंक दो’। पर जब देखी तो राय बदल गई। ये फिल्म हमें कभी किसी को मक्खी न कहने और छोटा या गरीब न समझने का अप्रत्यक्ष एहसास देती है जो कि बहुत ही अच्छी बात है।

Nani and Samantha in a still.
तो ये कहानी सबसे पहले एक नौजवान जॉनी/नानि (नवीन बाबू) और लड़की बिंदु (समांथा) की है। जॉनी बिंदु के घर के सामने रहता है। उससे बेइंतहा प्यार करता है। बिंदू माइक्रो आर्टिस्ट है। चावल के दानों से कलाकृतियां बना देती है। प्यार दोनों में काफी वक्त से है पर शर्म के साये पलता है। शांत, मासूम, मर्यादित और आत्मीय प्यार। लोगों को अचरज होता होगा कि दक्षिण की अनजानी फिल्म, अनजाने एक्टर और बेसिर-पैर की कहानी भला पूरी दुनिया में एक स्वर में क्यों सराही जा रही है? जवाब इतना आसान नहीं है, मगर फिल्म के शुरू में ही दर्शकों से जुड़ जाने की एक वजह इन दोनों किरदारों के प्यार का ये भोला स्वरूप है। लोग भले ही कितने ही आधुनिक बना दिए जा रहे हैं, पर मूलतः वह आज भी अपने उन्हीं नजरों में छिपे अस्पृश्य बने रहते प्यार की जड़ों से पोषित होते हैं। खैर, दोनों ने प्यार का मौखिक इजहार नहीं किया है, पर एक-दूसरे की परवाह प्यार वालों के जैसे करते हैं। बिजली चली जाती है तो जॉनी डिश की छतरी को लाइट बनाकर बिंदू की खिड़की में रोशनी फैंकता है जिसके तले वह अपना काम कर पाती है। अपने एनजीओ से लौटते वक्त जब उसकी स्कूटी पंक्चर हो जाती है तो वह जॉनी को मिस्ड कॉल देती है और जब वह गली में आ जाता है तो उसके आगे-आगे अपने घर की ओर पैदल बढ़ती है। वह बिंदू के पीछे-पीछे चलता रहता है और उसे घर तक छोड़कर आता है। रास्ते में सपने में दोनों गाने गाते हैं।

अब यहां दो-तीन चीजें हैं।

एक तो बिंदू का शर्म-ओ-हया और मर्यादा में रहना। उसे पता है, आम हिंदुस्तानी लड़कियों को उनकी मांएं क्या सीख देती हैं, कि रात को अकेले नहीं आना-जाना, देर हो जाए तो किसी भरोसेमंद को साथ ले लेना। इसलिए वह जॉनी को फोन करती है। दूसरा, जॉनी बात करना चाहता है, पर समझ जाता है कि उसकी स्कूटी पंक्चर है और वह चाहती है कि उसके साथ घर तक सुरक्षा के लिहाज से जाऊं। तो वह जाता है। बिना बातों के, बिना किसी स्पर्श की कामना के उसके साथ चलता है। तीसरा, इन दोनों के प्यार का ये स्वरूप ही कहानी में आगे ज्यादा काम आता है। अगर ये दोनों हाथों में हाथ डाले पार्क में बैठते, फोन पर बहुत बातें करते, रोमैंस करते या शारीरिक होते तो कहानी और दर्शक दोनों ही इनका साथ छोड़ देते क्योंकि आगे तो जॉनी के शरीर का स्वरूप पूरी तरह बदल जाना है। ऐसे में अनकंडिशनल लव और शरीर की कम महत्ता वाले प्यार का शुरू में होना जरूरी था। जब जॉनी मक्खी हो जाता है तो भी बिंदू उससे जुड़ाव महसूस कर पाती है और उस आत्मा से प्यार कर पाती है जो जॉनी के शरीर के इतर था।

कहानी में फिर बहुत ही जल्द सुदीप (सुदीप, रामगोपाल वर्मा की ‘रण’ में अमिताभ के किरदार के बेटे बने थे) का प्रवेश होता है। वह करोड़पति कारोबारी है। व्याभिचारी है। पता चलता है कि पैसों के लिए उसने अपनी पत्नी को मार दिया था। बिंदु की सुदीप से मुलाकात अपने एनजीओ के लिए डोनेशन लेने के सिलसिले में होती है। वहां बिंदु पर नजर पड़ते ही सुदीप के मन में हवस जाग जाती है। वह यहीं से बिंदु को अपनी अच्छी छवि से प्रभावित करने की कोशिश करता है। पर जॉनी बीच में आ जाता है। सुदीप उसे बेरहमी से मरवा देता है जिसकी जानकारी बिंदु को नहीं होती। पर ये हिंदुस्तान है और ये दक्षिण भारत है। यहां आस्था का रास्ता तर्कों से नहीं भावों से होकर गुजरता है। उसका पुनर्जन्म होता है, पूरे दैवीय और भरोसेमंद तरीके से। और वह सुदीप से बदला लेता है। और वह बिंदु की रक्षा करता है।

कंप्यूटर प्रभावों से रचित इस मक्खी और कुछ दृश्यों में हमें एनिमेशन के नकली रंगों को बर्दाश्त करना पड़ता है, पर चलता है। बावजूद इसके फिल्म ऐसी बन पड़ती है कि विदेशी फिल्मकार भी देख लें तो भाव विह्अल हो जाएं। आखिर फिल्म इतनी विश्वसनीय और जादुई कैसे हो पाती है? इसका एक मूलभूत उत्तर एरॉन सॉर्किन देते हैं। ‘द सोशल नेटवर्क’ के स्क्रीनप्ले राइटर एरॉन से दो साल पहले एबीसी न्यूज के एक साक्षात्कार में पूछा गया, “जो इंसान सोशल मीडिया को खुद इतना नापसंद करता है आखिर वह फेसबुक की कहानी कैसे लिख बैठता है?” और एरॉन ने कहा, “मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि मैंने फेसबुक की कहानी लिखी है। हां, केंद्र में ये आधुनिक आविष्कार (फेसबुक) जरूर है, इसकी कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि कहानी कहने की विधा। इसमें दोस्ती, धोखे, वफादारी, ईर्ष्या, ताकत और वर्ग (क्लास) की थीम हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में एस्केलस (प्राचीन लैजेंड्री ग्रीक नाटककार) ने लिखा होता, शेक्सपीयर ने लिखा होता और कुछ दशक पहले पैटी चेयोवस्की (पॉलिश उपन्यासकार और लेखक) ने लिखा होता”। राजामौली की फिल्म के पीछे भी तार्किकता, भावुकता और नाटकीयता की प्राचीन संगति वाली स्क्रिप्ट काम करती है। जॉनी के मक्खी के रूप में जन्म लेने की कड़ी के बाद में हम एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, रक्त रंजित बदले की भावना। अभी पूरा तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और हिंदी सिनेमा हिंसा के इस भाव को भुना, धड़ाधड़ पैसे कूट रहा है। खैर, इसमें साथ देता है राजामौली के पुराने सहकर्ता एम. एम. कीरावेनी का संगीत। बाकी भावों में असर पैदा करने के लिए स्लो मोशन में उड़ते पत्ते, गाए जाते लव सॉन्ग और स्टंट होते दिखते हैं।

देश के मौजूदा हालातों से फिल्म एक सीन में जबर्दस्त सांकेतिक रूप से जुड़ती है। इस सीन में सुदीप भाप स्नान लेने के लिए हॉट एयर मशीन में फिट होकर बैठता है। मुंह को छोड़ वह बाकी सारे शरीर को मशीन में लॉक करवा लेता है। अब वहीं मक्खी के रूप में इंतजार कर रहा होता है जॉनी। वह सुदीप की नाक पर बैठकर उसे बेबस कर देता है। यहां ये एक कॉमन मैन की सत्ता को सबक सिखाने वाली गूंज लगती है। यहां वह पल याद आता है जब जॉनी नाम का ये अदना सा लड़का और भी मामूली सी मक्खी बनकर लौटता है। इस पल उसे एहसास होता है कि वह कितना लाचार है। वह सुदीप को पहली बार देखता है और आग-बबूला हो जाता है। उसकी मक्खी वाली आंखों में ज्वालामुखी फूटने लगता है। वह पूरी ताकत जुटाकर हवाई यान की गति से उड़ता हुआ आता है, ये सोचते हुए कि एक टक्कर में सुदीप के टुकड़े-टुकड़े कर देगा और वह भिड़ता है। पर देखता है कि कुछ नहीं हुआ। सुदीप ने तो उसे देखा तक नहीं, उसे चोट पहुंचाना तो बहुत दूर की बात है। एक दर्शक के तौर पर मैं रूआंसा हो जाता हूं। उस मक्खी में खुद का अक्स देखता हूं। जॉनी न सिर्फ अभी मक्खी है बल्कि जीते जी भी एगा यानी मक्खी ही था। तभी तो उसे सुदीप ने चुटकी बजाते मरवा दिया। मैं एक आम इंसान भी ऐसा ही हूं। किसी चीज का विरोध करूं तो रातों-रात नक्शे से मेरा नाम मिटा दिया जाए। चाहे बेटी को छेड़छाड़ से बचाने की कोशिश में गोली मार दिए गए पंजाब के एक ए.एस.आई. रविंदर पाल सिंह का मामला हो या हर राज्य में निरंकुशता की ऐसी दर्जनों बर्बर घटनाएं; चाहे गैस सिलेंडर के बढ़े भाव हों, मल्टी ब्रैंड रिटेल में एफ.डी.आई. को मंजूरी हो और दमनकारी तरीके से थोप दी गई नई आर्थिक नीतियां हों, हम जनता तो मक्खी ही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उभरे घोटालों पर कोई कार्रवाही न होना और रोज सत्ता पक्ष के वकील प्रवक्ताओं की मूर्ख बनाने वाली बातों का मजमा लगना, हमारा मखौल उड़ाता है। कि तू लाचार है, तू आम है। है कोई माई का लाल तुममें जो प्रधानमंत्री के कान में जूं भी रेंगवा दे। उन्हें डरा के दिखा दे। उन्हें ये समझा दे कि आम आदमी के हिसाब से सब तय करो। उन्हें ये समझा के दिखा दे कि पूंजीवाद इस देस की मूल धारा नहीं था। सिलेंडर के दाम कम करवा के दिखा दे। कोई नहीं करवा सकता है। तो शुरुआती दृश्य में सुदीप सत्ता और मक्खी आम इंसान है, लगता है सत्ता के गाल से कितना भी भिड़ लें कुछ न होगा। पर बाद में मशीन में बंद भाप स्नान करते सुदीप को जॉनी रुला देता है। यहां से सीन दर सीन वह अपने दुश्मन को तोड़ता जाता है और हराता जाता है। ठीक अरविंद केजरीवाल के घोटालों के खुलासों की तरह। ये एगा प्रेरणा बनता है कि समाज के कमजोर सोच लें तो क्या कुछ नहीं कर सकते।

इस सांकेतिक दृश्य के बाद सारा ध्यान स्थिर होता है मक्खी के भाव व्यक्त करने के तरीके पर और कहानी की प्रस्तुति पर। सुदीप से बात करने के लिए निर्देशक महोदय जाब्ता ये करते हैं कि टीवी का रिमोट दब जाता है और टीवी पर आ रही रजनीकांत की फिल्म शिवाजी का डायलॉग गूंजता है। इसमें रजनी बोलता है पर सुदीप को एहसास हो जाता है कि ये किसी और की चुनौती है, “मुन्ना झुंड में तो सूअर आते हैं, शेर तो अकेला ही आता है...” और रिमोट दबा रह जाता है और ये लाइन दोहराती रहती है। सुदीप अपने आदमियों से पूछता है, “ये एनिमल्स बदला लेते हैं क्या?” तो एक कहता है, “हां सर, बड़जात्या की पिक्चरों में”। वह पूछता है, “अरे असल में क्या?” वह आदमी कहता है, “हां सर, सांप, छोटे सांप सब बदला लेते हैं। एक बार मेरी दादी ने बताया था कि दादा को सांप ने काट लिया था”। सुनकर सुदीप की जिज्ञासा और सोच बढ़ती जाती है, वह पूछता है, “सांप नहीं, छोटे जानवर... जैसे चिड़िया, चूहा, मक्खी?” तो वह कहता है, “ले सकते हैं सर। सांप ले सकते हैं तो मक्खी को भी मौका मिलना चाहिए न सर”। ऐसे डायलॉग धीमे-धीमे तर्क बनते जाते हैं। दर्शक सुदीप को भरोसा करते देखता है, डरते देखता है तो उसके लिए भी तसल्ली की बात हो जाती है कि हां भई, मक्खी वही लड़का है और अब ये विलेन डरने लगा है। देखो, कैसे अपने आदमियों से पूछ रहा है। आदमियों के जवाब देने के तरीके में जो हास्य है वो दर्शकों के लिए दोतरफा काम करता है। एक तो फिल्मी हास्य का कोटा पूरा होता है और दूसरा विलेन के चेहरे की हवाइयां उड़ती देख उसके थियेटर में आने का ध्येय पूरा हो जाता है।

Sudeep in a still.
कहानी में अघोरी भी आता है, सुदीप को देख कहता है, “पैसे की आग, मुंह पे राख, होगा, सब होगा, तब इस तंत्रा को ढूंढने आओगे”। मगर बिना किसी परलौकिक शक्तियों के अघोरी को भी मक्खी हरा देता है। फिल्म में एक बड़ा रूपक भी आता है। बिंदु हवा में जहरीला स्प्रे मार रही है और उसे देख मोहित हो चुका मक्खी जहर पी हवा में गिर रहा है। दोबारा स्प्रे करने के दौरान डिब्बे में अड़कर उसके गले का हार उड़कर टूट जाता है, ये हार जॉनी और उसके प्यार की निशानी है। जब दर्शक भावुक तौर पर यहां निचोड़ा जा चुका होता है और मक्खी मरने को होती है तो जाते-जाते बिंदु बगीचे में पानी का नल चालू कर देती है और उस पानी से मक्खी बच जाता है। बाद में जब बिंदु को बताना होता है कि वह जॉनी है और इस रूप में लौटा है तो लकीरें खींचकर मक्खी लिखता है, “आई एम जॉनी रीबॉर्न”। ऐसे क्षण में ये पहलू किसी भी फिल्मकार के लिए चुनौती भरा हो सकता है कि अब भला इस नर मक्खी और इस युवती के बीच संवाद कैसे हो? वह फिर से मिल रहे हैं तो गले मिलें? हाथ मिलाएं? कि क्या करें? यहां इन जरूरतों से बचा इसीलिए जाता है क्योंकि कहानी के शुरू में दोनों का अस्पृश्य प्यार दिखाया जा चुका था। जब संवाद और शारीरिक स्पर्श पहले भी अप्रत्यक्ष ही थे तो यहां भी ऐसे ही चल जाता है। अपनी महबूबा को पा मक्खी में और हिम्मत आ जाती है। अब उसके लिए पार्श्व गीत बजाया जाता है। “मक्खी हूं मैं मक्खी, सैर कर नरक की, मेरी इक नजर से तूने मौत चक्खी..”। इस दौरान मक्खी जो कर रहा होता है, वो दर्शकों के सामने अपनी पूरी किरकिरी करवाने वाला होता है, पर दर्शक उसे गंभीरता से ले रहे होते हैं। जॉनी यहां मक्खी बना कसरत कर रहा होता है। डंबल उठाता है, पुशअप करता है, और तो और कैसेट रील को ट्रेडमिल बनाकर उस पर जॉगिंग करता है। कुछ को ये मूर्खता की पराकाष्ठा लग सकती है, पर शुरू में मैंने जिन फिक्स तरीकों का जिक्र किया था जिनमें एक फिल्मकार दर्शकों से कुछ भी मनवा सकता है, ये उन्हीं में आते हैं।

यहां इस दृश्य के बचकानेपन पर हम जिरह करने भी लगें तो देखिए कहां तक पहुंचते हैं। पहला तर्क मन में आता है कि मक्खी और सुदीप के शरीर में भौतिक रूप से जमीन-आसमान का फर्क है। चाहे मक्खी कितनी भी कसरत कर ले वह वैज्ञानिक रूप से फूंक भर ज्यादा ताकतवर भी न होगा। दूसरा कि हिंदी फिल्मों में जब भी किसी हीरो को किसी दुर्घटना से वापसी करनी होती है या उसे कमजोर से ताकतवर बनना होता है तो इन्हीं सब प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। 2003 में आई ‘दम’ (और दो साल पहले आई मूल तमिल फिल्म ‘धिल’) में जब उदय (विवेक ओबेराय) को इंस्पेक्टर शंकर मार-मार कर ट्रेन की पटरियों पर फिंकवा देता है तो उसकी वापसी के चरण भी ऐसे ही होते हैं। अस्पताल में मृतप्राय पड़ा उदय दोनों टूटी टांगों से एक दिन चलने लगता है, फिर जॉगिंग और कसरत आदि करके खुद को लड़ने लायक और पुलिस की परीक्षा देने लायक बनाता है। निर्देशक मंसूर खान की सदाबहार प्रस्तुति ‘जो जीता वही सिकंदर’ में जब रतन (मामिक सिंह) को राजपूत कॉलेज के लड़के मारपीट के दौरान गलती से पहाड़ियों पर से धकेल देते हैं तो वह बुरी हालत में अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है। पिता (कूलभूषण खरबंदा) और पूरे मॉडल कॉलेज के लिए आने वाली साइकिल रेस में आशा की किरण रतन ही था, मगर अब उसके वापसी करने में इतना वक्त लगेगा कि देर हो जाएगी। ऐसे में पिता की आंखों के आंसू पोंछने के लिए निखट्टू और आवारा छोटा बेटा संजय (आमिर खान) सामने आता है। उसके कमजोर से योग्य बनने की प्रक्रिया भी यही होती है। जॉगिंग, साइकलिंग और परिवार-दोस्तों की हौसला अफजाई। वही हौसला अफजाई जो मक्खी की बिंदु करती है।

मक्खी की भाव-भंगिमाओं में तरंग डालने की राजामौली छोटी, घिसी-पिटी पर सफल कोशिश करते हैं। गाड़ी में जा रहे सुदीप की हालत वह ऐसी करता है कि उसका बुरा एक्सीडेंट होता है, उसके बाद वह उसकी कार के शीशे पर लिख जाता है, “आई विल किल यू”। वह अपने खड़े बालों पर हाथ फिराता है जैसे हिंदी फिल्म का कोई बड़ा हीरो है, जो वह है भी। बिंदु के साथ मक्खी हाई फाइव करता है। इसी दौरान एक दृश्य में अपने दुश्मनों के खून से नहाए मक्खी को बिंदु सीरिंज के पानी से नहलवाती है। हमारी दक्षिण भारतीय फिल्मों में हीरो गंडासों-तलवारों से रक्त बहाते हैं (गिप्पी ग्रेवाल की आने वाली पंजाबी फिल्म ‘सिंह वर्सेज कौर’ का ये गाना दुनाली भी देख लें) और रक्त से नहाते हैं, फिर उन्हें दुग्ध स्नान करवाया जाता है। ये किरदार अच्छे-बुरे राजपूती वीरों की ऐतिहासिक लड़ाइयों से निकलकर आए लगते हैं। मसलन, एस. शंकर की ‘नायक’ में जब शिवाजी (अनिल कपूर) का गुंडे पीछा करते हैं। वह लड़ता है। फिर कीचड़ और खून से सना शिवाजी जब एक दुकान में पहुंचकर एक कोल्ड ड्रिंक मांगता है औऱ उससे अपना मुंह धोता है तो लोग पहचान जाते हैं और उसे पद पर बिठाकर दुग्धाभिषेक वाली मुद्रा में नहलवाते हैं।

पिता के बताए छोटे से विचार से पनपा इस पूरी फिल्म का व्याकरण राजामौली की पिछली फिल्मों में भी दिखा है। राजामौली ने रवि तेजा को लेकर ‘विक्रमारकुडू’ बनाई थी जिसकी हिंदी रीमेक प्रभुदेवा ने अक्षय कुमार को लेकर बनाई, ‘राउडी राठौड़’। मूल फिल्म हिंदी से ज्यादा प्रभावी है। घोर मसालेदार। उन्होंने कॉमिक एक्टर सुनील वर्मा को हीरो लेकर एक्शन-कॉमेडी ‘मर्यादा रामन्ना’ बनाई, जिसकी हिंदी रीमेक रही अजय देवगन-सोनाक्षी सिन्हा की ‘सन ऑफ सरदार’। दक्षिण भारत की फिल्मों को अचरज की दृष्टि से देखने को मजबूर कर देने वाली ‘मगधीरा’ भी उन्होंने ही बनाई थी। विशेष कंप्यूटर प्रभाव वाले दृश्यों के मामले में इसने बड़ी-बड़ी हिंदी फिल्मों को नीचे बैठा दिया। इसमें बतौर हीरो नजर आए थे राम चरण तेजा। चिरंजीवी के बेटे यही राम चरण जल्द ही ‘जंजीर’ की हिंदी रीमेक में दिखेंगे। इन सभी फिल्मों की कहानी शुरू में बड़ी असाधारण रही है, फिर उसे फिल्मी प्रारुप में जमाने के लिए एनिमेशन और इमोशन इन दो चीजों का सबसे ज्यादा उपयोग बतौर निर्देशक उन्होंने किया। ‘मक्खी’ की रिलीज से पहले एक साक्षात्कार में राजामौली ने कहा भी कि किसी भी दूसरी चीज से ज्यादा इमोशनल कंटेंट काम करता है, जो कि बिल्कुल सही है।

‘मक्खी’ बहुत हिम्मत के साथ बनाई गई फिल्म है। हिंसा और बदले की भावना को छोड़ दें तो ये बच्चों की फिल्म भी बनती है। एक ऐसी फिल्म जो वक्त के साथ और बेहतर होते कंप्यूटर ग्राफिक्स और विजुअल इफेक्ट्स के बीच भी कभी पुरानी या तकनीकी तौर पर कमजोर नहीं लगेगी। क्योंकि इसकी कहानी में इमोशन हैं और किसी भी फिल्म को अमर करने के लिए ये एक शब्द काफी होता है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उत्साहित ये बात करती है कि ऐसे वक्त में जब जेम्स बॉन्ड की नवीनतम फिल्म ‘स्काइफॉल’ में हम जूलियन असांजे के वृहद संदर्भ को पाते हैं, ‘द डार्क नाइट राइजेज’ में हम ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट का जिक्र देखते हैं, भारतीय फिल्मों में ‘मक्खी’ या ‘एगा’ ही ऐसी है जो फिलवक्त मुल्क में चल रहे किसी मुद्दे (केजरीवाल का व्यवस्था से टकराव) पर संदर्भात्मक बात करने का मौका देती है। बस बुनियादी तौर पर ये बहसें सही भी हो जाएं तो वारे न्यारे हैं।
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जानकारी के लिएः बीच में किए जिक्र के विपरीत मक्खियों, मच्छरों, चींटियों और वायुमंडल में विद्यमान जीवों को मारना या मारने देना मुझे पसंद नहीं। फिल्म देखने के पहले से ही, होश संभालने के बाद से ही। ये बतौर प्रजाति हमारे असंवेदनशील होने को दिखाता है। जब हम इन जीवों के साथ सह-अस्तित्व नहीं कर पाते तो फिर दूसरी आपराधिक घटनाओं पर व्याकुल क्यों होते हैं। संवेदनाएं जीव-जंतुओं के लिए जा रही है तो आपसी भी तो जाएंगी न।

 (‘Makkhi’ is a 2012 Hindi feature film written and directed by S S Rajamouli. It was dubbed from the Telugu and original version ‘Eega’. It stars Sudeep, Nani and Samantha in main leads. The film was full of visual effects and animation. ‘Makkhi’ won critical acclaim from almost all corners for gripping direction and convincingly staging a fly as a protagonist.) 
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Friday, January 11, 2013

बंत सिंह जैसे लोग पंजाब की असली स्पिरिट हैं: मंजीत सिंह

2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की तकरीबन हर सूची में शामिल रही ‘मुंबई चा राजा’। फिल्म के निर्देशक मंजीत सिंह अब कुछ और बेहद उत्साहित करने वाली कहानियों पर काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक है पंजाब के सिख दलित गायक और अत्यधिक ज्यादतियों का बहादुरी से मुकाबला करने वाले बंत सिंह की कहानी।

Manjeet Singh
पंजाब मूल के मंजीत सिंह अमेरिका में इंजीनियर की अच्छी-भली जॉब छोड़ मुंबई लौट आए, फिल्में बनाने के लिए। कुछ वक्त के संघर्ष के बाद उन्होंने ‘मुंबई चा राजा’ बनाई। एक ऐसी फिल्म जो गरीबी को विशेष तरीके से नाटकीय करने और भुनाने के ढर्रे के तोड़ती है। मुंबई के राजा गणपति भी हैं, जिनके उत्सव की पृष्ठभूमि में फिल्म चलती है, और कहानी में दिखने वाले आवारा लड़के भी, जो सही मायनों में इस मुश्किलों वाले महानगर के राजा हैं। अपने बुरे और कष्ट भरे जीवनों में खुशियां ढूंढ लेते ये बच्चे संभवतः लंबे वक्त बाद भी सराहे जाएंगे। विश्व के नामी फिल्म महोत्सवों में इसे डैनी बोयेल की ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ का भारतीय जवाब तक कहा गया। 2012 की शानदार स्वतंत्र फिल्मों की हर सूची में इस फिल्म का नाम है। फिल्म को कुछ और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भेजने की तैयारियों में जुटे मंजीत चार-पांच नायाब कहानियों पर काम कर रहे हैं। अगर ये फिल्में अपने स्वरूप में आ पाईं तो यथार्थवादी सिनेमा में जान आएगी। पंजाबी स्वतंत्र सिनेमा का जो खाली परिदृश्य है, गुरविंदर सिंह के बाद वह भी उसमें योगदान दे सकते हैं, अगर बंत सिंह की उनकी कहानी के लिए प्रोड्यूसर मिल पाए तो। स्वतंत्र सिनेमा की राह में बाधाओं, उनकी जिंदगी और बाकी विषयों पर हुई मंजीत सिंह से ये बातचीत। प्रस्तुत है...
 
पंजाब से क्या ताल्लुक है?
मेरा जन्म जामनगर, गुजरात का है। पिता इंडियन नेवी में थे, तो उनकी पोस्टिंग वहां थी। वैसे हैं हम लुधियाना से। फिर ट्रांसफर के बाद बॉम्बे शिफ्ट हो गए। बीच में अमेरिका में था। लौट आया। सब रिश्तेदार मेरे लुधियाना, पंजाब में हैं। तो बहुत आना-जाना होता है।

पंजाबी में यहां अभी बहुत माहौल बन रहा है। लोग ‘जट एंड जूलियट’ देख रहे हैं, ‘तू मेरा 22 मैं तेरा 22’ का इंतजार कर रहे हैं। ‘अन्ने घोड़े दा दान’ भी बनी है। मुख्यधारा वाले दर्शकों की नजर उस पर नहीं गई है, लेकिन दुनिया भर में सराही जा रही है। ये जो दोनों तरह की पंजाबी फीचर फिल्मों का परिदृश्य है, इस पर आपकी कितनी नजर है, कैसी नजर है और क्या लगता है, कैसी फिल्में बनें तो इस क्षेत्र के दर्शक ज्यादा फायदे में रहें?
गुरविंदर की फिल्म तो मैंने देखी है, अच्छी भी लगी मुझे काफी। पर जो कमर्शियल फिल्में आप कह रहे हैं वो मैंने शायद देखी नहीं हैं। पर ऐसा लगता है कि उनका बॉलीवुड की तरफ रुझान ज्यादा है। जैसी फिल्में बॉलीवुड में बनती हैं वैसी ही लोग पंजाबी में भी बना रहे हैं। मुझे लगता है कि सभी प्रकार के सिनेमा के लिए जगह तो भारत में है, पर इंडिपेंडेंट सिनेमा का अस्तित्व कुछ है नहीं। उन फिल्मों को भी कमर्शियल फिल्मों के साथ थियेटरों में दिखाया जाता है, उतने रुपये की ही टिकट के साथ। ये एक दिक्कत है। उनके सैटेलाइट राइट और दूसरे राइट भी आसानी से नहीं बिकते। उन्हें डिस्ट्रीब्यूट करने का बहुत ऑर्गनाइज्ड तरीका नहीं है। पंजाबी इंडिपेंडेंट सिनेमा में लगता नहीं कि कुछ खास फिल्में बनी हैं, बस शायद गुरविंदर की ही है। संभवतः पहले बनी थी 80 या 70 के दशक में। शायद एक राजबब्बर की थी जो डीडी वन पर देखी थी। वो भी सेल्फ फंडेड ही थी, जैसे हमारी है। तो उस तरह शायद और फिल्में बन सकती हैं, मैं भी एक फिल्म बनाना चाहता हूं। बंत सिंह जी के जीवन पर। उनकी जिंदगी जो रही, उन्हें जो मुश्किलें आईं, बहादुरी से जैसे उन्होंने सब गलत चीजों के खिलाफ लड़ा है। ये सब लोगों को बताना बहुत जरूरी है। इनके जैसे लोग ही तो पंजाब की असली स्पिरिट हैं। कि इतनी प्रॉब्लम के बाद भी ये आदमी खुश है और आम जिंदगी जी रहा है और उसने इतना त्याग किया है। पर वही है कि उसके लिए फंड जमा करना बहुत ही मुश्किल है। समझ नहीं आ रहा कि फंडिंग कहां से लाएं। अभी तो पहली बनी है। दूसरी बनाऊंगा और उससे कुछ पैसा आए तो इस कहानी पर काम करूं। प्राइवेट प्लेयर्स भी ऐसी फिल्मों में आते नहीं, मार्केट वैल्यू है नहीं। इसलिए ये सब कहानियां रह जाती हैं, लोगों तक पहुंचती नहीं हैं। तो जरूरत है कि कोई जरिया निकले जिससे ये फिल्में बनें पंजाब में भी। अभी गुरविंदर की दूसरी फिल्म जो है वो भी पंजाबी में ही है। शायद उसको भी समय लगेगा फंड्स जमा करने में। पंजाबी में ऐसी फिल्में बनें तो अच्छा है।

बंत सिंह की कहानी पर कितना काम किया है?
मैं उनसे मिलकर आया हूं। मेरे गांव से ज्यादा दूर नहीं हैं। उनके घर गया हूं, उनके साथ बैठा हूं, बातें की हैं। रिसर्च वगैरह तो मैंने कर रखी है, अब थोड़ा सा अगर कोई मदद कर दे फंड्स में तो अच्छी फिल्म बन सकती है।

एनएफडीसी से जब ‘अन्ने घोड़े दा दान’ पर पैसे लगाए हैं तो आपकी इस फिल्म पर क्यों नहीं...
हां, वो अप्लाई वगैरह करना पड़ेगा, इतना आसान नहीं है। देखिए...

‘मुंबई चा राजा’ को रिलीज करने का कब तक का है?
बातचीत अब शुरू करूंगा, वह भी बहुत मुश्किल काम है रिलीज करना। रिलीज भी हो जाती है तो स्क्रीन नहीं मिलती। लोगों को पता भी नहीं चलता कि ऐसी फिल्म आई और चली गई। ये समस्या है हमारी स्वतंत्र फिल्मों के साथ दिखाने की।

Official Poster of 'Mumbai Cha Raja'
‘मुंबई चा...’ का पहला ख्याल कब आया? फिर बात कैसे आगे बढ़ी?
काफी टाइम से था मेरे दिमाग में। फिल्म का बैकड्रॉप गणपति फेस्टिवल का था। मैं आइडिया आने के बाद दो गणपति फेस्ट मिस कर चुका था तीसरा नहीं करना चाहता था। जो भी संसाधन थे उनको लेकर बना दी। गणपति फेस्ट की लाइटिंग और माहौल बहुत खूबसूरत होता है। बहुत जीवंत होता है। उसे भी डॉक्युमेंट करना थे। यहां रोजमर्रा की जिदंगी में स्ट्रगल करने वाले बच्चे नजर आते हैं जो बहुत खुश होते हैं नाचते हैं। हमें सीख मिलती है कि समाज ने इनको कुछ दिया नहीं, न ही इनके पास कुछ है, फिर भी ये खुश हैं और जैसे भी है लाइफ को एंजॉय कर रहे हैं। ये सब चीजें मैंने नोटिस की, जब एक फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था। मैंने जितनी भी फिल्में देखी हैं उनमें कोई भी फिल्मकार इन चीजों को कैप्चर करता नहीं दिखा है। उन फिल्मों में दिखाया ये गया है कि ये लोग अपनी गरीबी से दूर भागना चाहते हैं। वैसा है नहीं। उन्हें पछतावा नहीं है, वो अपनी लाइफ को एंजॉय करते हैं। उन्हें प्रॉब्लम्स तो हैं पर छोटी-छोटी चीजों में वो खुशी ढूंढ लेते हैं।

बजट कितना लग जाता है?
आपके संसाधन क्या हैं इस पर निर्भर करता है। अगर आपके पास लोकेशन है, टेक्नीशियन हैं, एक्टर हैं तो बना सकते हो। निर्भर करता है कि स्टोरी क्या है। डिजिटल टेक्नॉलजी आ गई है तो आपके पास स्टोरी अच्छी है, एक्टर हैं, सीन रेडी हैं, क्रू है तो बना सकते हो कम लागत में भी।

आपकी फिल्म में जो काम करने वाले लड़के हैं या दूसरे लोग नॉन-एक्टर्स हैं या सड़कों पर उनसे कम्युनिकेट करने वाले हैं... उन्हें कैसे चुना?
इसमें गुब्बारे बेचने वाला कैरेक्टर अरबाज मेरे यहीं गुब्बारे बेचता है। मैंने एक-दो बार उससे बात की तो बड़ा मजा आया। फिर देखा कि सब मजे लेकर उससे बात करते हैं, जो लेता है वो भी, जो नहीं लेता वो भी। मुझे लगा कि इस बच्चे में बहुत करिज्मा है। ये स्क्रीन पर काफी अच्छा भी लगेगा। फिर जो मुख्य किरदार है राहुल उसे यूं लिया कि हमारे यहां एक समोसा बेचने वाला है। मैंने उससे पूछा कि मुझे इस एज ग्रुप में बच्चा चाहिए, कोई हो तो बताओ। तो उसने मुझे एक ग्रुप दिया, उसमें कोई सात-आठ बच्चे थे। उन बच्चों से हमने बात की, उन्हें जाना। पता लगा कि राहुल की रियल लाइफ में दिक्कतें थी। उसके पिता पीकर आते हैं, मां को मारते हैं, राहुल को भी मारते हैं। वह भाग जाता है। फिर हफ्ते-दस दिन बाहर रहता है। किसी तरह जीता है, कभी रिक्शा में सो जाता है, कभी कहीं चला जाता है। ये सुनकर मुझे लगा कि जिसने रियल लाइफ में ये देखा है तो उसे इससे किरदार निभाने में मदद मिलेगी। हमने एक्टिंग तो उसकी देखी नहीं थी पर लगा कि यार ये कर लेगा, क्योंकि उसे वो इमोशन पता हैं। बच्चे यूं कास्ट हुए। जो बड़े हैं मां-बाप के रोल में तो उनमें से एक तो मेरा दोस्त ही था। वो यहां थियेटर करता है। एक्ट्रेस भी थियेटर से है। उन्हें मैं जानता था और एक दूसरी फिल्म की कास्टिंग के दौरान उनसे ताल्लुक हुआ।

उनसे काम निकलवाते हुए कोई दिक्कत आई हो तो?
नहीं, बच्चों से तो काम निकलवाते हुए तो कोई दिक्कत हुई नहीं। किस्मत कहूंगा कि बड़ी आरामी से कर दी एक्टिंग। कुछ-कुछ बच्चे माइंडसेट बना नहीं पा रहे थे, जो हमें चाहिए था। इसलिए हमने वो सीन बदले। काफी कुछ इनकी लाइफ से हमने नया सीखा। नए सीन जोड़े और शूटिंग के दौरान ही कहानी भी बदली। काफी मजेदार रहा बच्चों के साथ काम करना।

बहुत बार ये होता है कि जो पहली फिल्म बना रहे होते हैं, वो अपनी निजी जिंदगी के अनुभव फिल्म में डालते हैं, उन इमोशन का पुश ही इतना होता है। क्या फिल्म के इन किरदारों का या कहानी के किसी हिस्से का आपकी असल जिदंगी से कोई लेना-देना रहा है। या खुद से बाहर इन चीजों को देखा और उनसे कहानी बनाई?
कुछ-कुछ वाकये हैं जो मैंने अपनी लाइफ से डाले हैं। जैसे बचपन की चीजें हैं, मुझे लगता है कि हर किसी ने वो काम किए होंगे। जैसे, किसी के बाग से आम चुरा लिए। आलू वाले के आलू चुराना। ऐसी बचपन की मस्तियां मैंने डाली हैं फिल्म में। और गणपति में जो-जो चीजें हम किया करते थे, वो सब फिल्म में दिखाया है। बच्चों की क्या-क्या एक्टिविटी रहती हैं और उन्हें क्या करने में मजा आता है ये सब कैप्चर किया है।

कहानी का औपचारिक खाका क्या है?
पारंपरिक नरेटिव स्ट्रक्चर फॉलो नहीं किया है। गणपति में लास्ट के दो दिन के दौरान के वाकये दिखाए हैं जिनसे पता चलता है कि इन बच्चों की एक्टिविटी क्या है, इनके घर पर क्या होता है, ये कहां अपना वक्त बिताते हैं। कहानी है उसमें पर बहुत बारीक है। बस अनुभव है इन बच्चों का और गणपति उत्सव में जो शहर का माहौल होता है उसका।
 
अभी तक कौन-कौन से फेस्ट में जाकर आई है?
टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर हुआ था। रफ कट ‘फिल्म बाजार - वर्क इन प्रोग्रेस’ सेक्शन में दिखाया गया, तब बन ही रही थी। वहां अवॉर्ड मिला हमें। वहां ‘मिस लवली’ और ‘शिप ऑफ थिसियस’ जैसी अच्छी फिल्में भी थीं। वहां से रॉटरडम प्रॉड्यूसर्स लैब में चुनी गई। चार फिल्में चुनी गईं थी, उसमें एक मेरी थी। फिर आबूधाबी कॉम्पिटीशन सेक्शन में थी जहां सिर्फ गिनी-चुनी फिल्में ही दुनिया भर से दिखाई जाती हैं। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे बेहतरीन मंचों से ये फिल्में चुनते हैं। फिर ये मुंबई फिल्म फेस्टिवल में थी इंडियन कॉम्पिटीशन में जहां इसको स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड मिला। अब ये प्रीमियर होगी पाम स्प्रिंग फिल्म फेस्टिवल में जो कि अमेरिका का बहुत प्रतिष्ठित फिल्म समारोह है। काफी फिल्म फेस्ट अभी इंट्रेस्टेड हैं। बुलावे तो आ रहे हैं अभी देखते हैं कि कहां जाती है।

वही बात है कि डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं मिलते, मिल जाते हैं तो दर्शक नहीं मिलते। यानी फिल्म बनाने के बाद सारी चुनौतियां शुरू होती हैं, इनका क्या कोई समाधान है? क्या युवा साथी सलाह देते हैं? या पैशन फॉर सिनेमा वाले दिनों के जो दोस्त हैं उनसे मशविरा होता है? क्योंकि करना तो पड़ेगा, बिना किए सारी मेहनत बेकार जाएगी।
मुझे लगता है कि हर कोई अपनी जंग अकेले लड़ रहा है और अगर हम एक समूह के तौर पर साथ आकर डिस्ट्रीब्यूटर्स या टीवी चैनलों से बात करें तो शायद कोई सुनने वाला हो। अभी तो कोई सुनता नहीं है। पक्के तौर पर लोग तो अलग फिल्में देखना चाहते हैं। पर फिलहाल तो सब बैठे हैं, अकेले ही जंग लड़ रहे हैं, पता नहीं कैसे सबको साथ लाया जाए और आगे बढ़ा जाए। हम यूनाइटेड फ्रंट बनाकर बातचीत करें तो शायद कुछ हो सकता है। बाकी अभी जो भारतीय सिनेमा के सौ साल हुए हैं तो इस मौके पर सिनेमा के प्रसार के लिए सरकार कुछ पैसा दे रही है। हम बहुत सारे फिल्ममेकर्स ने याचिका दस्तख़त करके दी है कि कोई 200 करोड़ रुपये इंडिपेंडेंट फिल्मों के लिए अलग थियेटर्स बनाने पर खर्च किए जाएं। अगर वैसा कुछ होता है तो भी अच्छा है। बाकी ये हाइली टैक्स्ड इंडस्ट्री है, 30-40 फीसदी मनोरंजन टैक्स कटता है। फ्रांस में तो ऐसे पैसे से छोटी फिल्मों की मदद की जाती है, वहां तो अंतरराष्ट्रीय फिल्मों तक पर पैसा खर्च किया जाता है। अब हमें पता नहीं कि हमारे यहां एंटरटेनमेंट टैक्स जो लिया जाता है उसका कितना हिस्सा फिल्मों पर निवेश किया जाता है या नहीं किया जाता है। हालांकि इस पैसे का इस्तेमाल भी इंडिपेंडेंट फिल्में बनाने में होना चाहिए। अभी एनएफडीसी और फिल्म डिविजन ही हैं जो फिल्में बनाते हैं, पर मुझे लगता है कि फंड ग्रुप भी होने चाहिए। विदेशों में फंड ग्रुप होते हैं, यानी आपको अपने प्रोजेक्ट डिवेलपमेंट के लिए फंड मिलते हैं। फिर आपको फिल्म बनाने के लिए फंड मिलता है, फिर फिल्म डिस्ट्रीब्यूट करने के लिए फंड मिलता है। तो ऐसा हमारे यहां भी हो। हमारे यहां भी एग्जिबीशन सेंटर हों और सरकार फंड देना शुरू करे तो काबिल लोगों को फिल्म बनाने और आगे आने का मौका मिलेगा। ये सब किया जा सकता है।

‘मुंबई चा...’ से पहले क्या-क्या किया है?
इंजीनियरिंग की। अमेरिका में मास्टर्स की। वहां काम भी किया। एक महीने का कोर्स किया फिल्ममेकिंग में। फिर लगा कि ये चीज करनी चाहिए क्योंकि बहुत सम्मोहक लगी। बचपन से ही पेंटिंग में बहुत रुचि रही है। फोटोग्राफी भी की है। सिनेमा भी विजुअल मीडियम है जैसे एडिटिंग हो गई, सिनेमैटोग्राफी हो गई, डायरेक्शन हो गया.. तो उस कोर्स ने मेरी इमैजिनेशन को काफी कैप्चर किया, लगा कि जिंदगी में कुछ और किया तो मतलब नहीं है। तो धीरे-धीरे जॉब समेटी और यहां आ गया। यहां आकर एक वेबसाइट थी पैशन फॉर सिनेमा जो अब नहीं है, उस पर लिखने का काम शुरू किया। बॉलीवुड से थोड़ा अलग जो फिल्में थीं उनको हमने सपोर्ट किया। इंडियन इंडिपेंडेट सिनेमा पर लिखा। वहां एक्सपोजर मिला। फिर लगा कि अगर आपको फिल्म बनानी है तो बस स्क्रिप्ट लिख दो, जो भी हो। पर बात बनी नहीं क्योंकि वो कमर्शियल फिल्में तो थी नहीं जो मैं बनाना चाहता था। उसके बाद पांच-छह स्क्रिप्ट लिखीं। उसमें से एक के बारे में लगा कि ये बना सकते हैं। तो फिर मैंने ये फिल्म बनाई। बाकी मेरा किसी भी फिल्म में एक भी ऑफिशियल क्रेडिट है नहीं।

किस फिल्म से जुड़े रहे थे, क्या सीखा?
ये तो बहुत मुश्किल है कहना कि क्या सीखा, क्योंकि आपको पता नहीं चलता कि क्या सीख रहे हैं। पर जैसे, ‘नो स्मोकिंग’ थी तो उसके सेट पर जाना और वहां से ब्लॉगिंग करना, ये ट्रेंड मैंने शुरू किया। मेकिंग देखी फिल्म की, पर वो भी कमर्शियल प्रोसेस ही था। फिर मौका मिला न्यू यॉर्क में सनी देओल की फिल्म ‘जो बोले सो निहाल’ के प्रोडक्शन का हिस्सा बनने का। उसमें मेरा काम था कि सनी देओल की वैन न्यू यॉर्क में चलाता था और उन्हें घुमाता था। यहां भी इसका और ‘नो स्मोकिंग’ का प्रोसेस एक जैसा ही लगा। फिर एहसास हुआ कि डायरेक्टर बनना है तो ये सब करने से नहीं होगा। इसलिए मैंने इधर-उधर काम ढूंढने में ज्यादा ध्यान दिया नहीं। सोचा कि क्यों किसी के आगे-पीछे घूमना, ये एक तरह से वक्त जाया करना ही हुआ। कुछ मिलना तो है नहीं, फ्रस्ट्रेशन ही आएगी। लगा कि स्क्रिप्ट तैयार करूं और फिल्म बनाऊं। एक प्रोड्यूसर मुझे मिले भी, उनकी हालत खराब हो गई तो पीछे हट गए। बाकी कुछ साल पहले डिजिटल टेक्नोलॉजी आ गई तो इसने बहुत आसान कर दिया, कि अगर आपके पास कहानी है और अच्छे आइडिया हैं तो आप अच्छी फिल्म बना सकते हो। तय किया कि एक फिल्म बनाई जाए, चाहे जितने भी संसाधन हों, जैसी भी कहानी हो। फिर मैंने अपनी टीम जुटाई, लोकेशन देखी, कास्टिंग की बच्चों की और शूट कर दी फिल्म।

आपने इंजीनियरिंग की, फिल्में देखीं, फिर यहां आ गए, पैशन फॉर सिनेमा में लिखा। तो जिस वक्त आप लिख रहे थे और दूसरी फील्ड से आए फिल्म पैशनेट्स से बात करते थे, तो भीतर बहुत आग रही होगी। अब फिल्मों का मेकिंग प्रोसेस समझने के बाद और ये देखने के बाद कि नए फिल्मकारों के लिए सारा रास्ता बंद पड़ा है, क्या कुछ निराशा उस आग में जुड़ गई है?
मैं ये तो नहीं कहूंगा कि निराश हूं। निराश तो बिल्कुल नहीं हूं। एक तरह से संतुष्टि है कि ‘मुंबई चा राजा’ ने एक मुकाम हासिल किया है। अगर इंडिया के इंडिपेंडेंट सिनेमा की बात आती है तो 2012 के इंडि सिनेमा की हरेक सूची में इस फिल्म का नाम है। और जिन दूसरी फिल्मों का इसमें नाम लिया जाता है, उनमें से अधिकतर बॉलीवुड के पैसे से बनी है। शायद मेरी ही ऐसी है जो प्योरली इंडिपेंडेंट है और उसी वजह से सराही गई है। इस बात की खुशी है कि हमने ऐसी फिल्म बनाई और इतने बड़े-बड़े बजट वाली फिल्मों के बराबर में इसका नाम लिया जा रहा है। हर कोई जानता है इस फिल्म के बारे में। तो निराश नहीं हूं। एक तरह से ये बहुत अच्छी बात है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी आने से जिसको फिल्म बनानी है वो बना रहा है। कुछ लोग हैं जो इंतजार भी कर रहे हैं कि कोई आए, उनके कंधे पर हाथ रखे और उनकी फिल्म बनवा पाए। कुछ शायद वेट ही करते रहेंगे। बहुत सारी फिल्में बन रही हैं अभी जो लोग डिजिटली शूट कर रहे हैं। ये अच्छा साइन है जो पिछले एक साल में देखने में आ रहा है। मतलब किसी की परवाह न करते हुए खुद ही आगे आकर फिल्म बना रहे हैं। एक परेशान करने वाली बात ये है कि बॉलीवुड की कुछ फिल्में हैं जिन्हें इंडिपेंडेट फिल्मों का नाम दिया जा रहा है। जिनमें विचार भी वैसा नहीं है, जाने-माने एक्टर भी हैं, गाने हैं और सब चीजें हैं... फिर भी इंडिपेंडेंट करार दिया जा रहा है। हमारे यहां हर तरह के सिनेमा के लिए जगह है, दर्शक हर तरह की फिल्में देखता है। लोग सलमान की फिल्में भी देखेंगे, अनुराग की भी देखेंगे, इंडिपेंडेंट भी देखेंगे। पर जो फिल्म बॉलीवुड से आ रही है उसे कम से कम बॉलीवुड फिल्म कहा जाना चाहिए, इंडिपेंडेंट नहीं। ये थोड़ा गड़बड़ है। लोगों को बेवकूफ भी बनाया जा रहा है कि ये इंडिपेंडेंट फिल्म है।

पर हमारे यहां इंडिपेंडेंट या इंडि की परिभाषा भी बहुत से लोगों को नहीं मालूम। वो असमंजस में हैं कि क्या है? छोटे बजट की फिल्म, जो थोड़ी अलग लगे या जो थोड़ी आर्टिस्टिक लगे... उसके कह देते हैं। ये स्पष्टता आई नहीं है...
हां, ये बहुत गलत धारणा है स्वतंत्र सिनेमा को लेकर। यहां तक कि हमारे क्रिटिक्स भी गड़बड़ करते हैं, आम लोगों की तो बात छोड़िए आप। क्रिटिक्स को भी नहीं पता कि कौन सी बॉलीवुड हैं और कौन सी इंडिपेंडेट। फेस्टिवल्स भी कन्फ्यूज्ड हैं, उन्हें भी समझ नहीं आता, वो भी बॉलीवुड फिल्म को चुन लेते हैं।

ये जानना इसलिए भी जरूरी है कि जब कभी भी कोई ऐसी यंत्रावली (मेकेनिज्म) बनेगी जो इंडि फिल्मों को सपोर्ट करने की शुरुआत करेगी तो सारी दिक्कत शुरू हो जाएगी... नुकसान कहां होगा?
जैसे कुछ फिल्में हैं तो वो गवर्नमेंट फंड से बन रही हैं और उनमें बॉलीवुड का पैसा भी लगा है। तो फंड देने वाले भी कन्फ्यूज्ड हैं। एक फिल्म पर इतना लग रहा है जितने में आप चार-पांच इंडिपेंडेंट फिल्में बना लोगे। फिर तुलना जब होती है तो बॉलीवुड की फिल्मों से होती है। सूचियां गलत हो जाती हैं। क्रिटिक्स देखते नहीं हैं। क्योंकि उन फिल्मों को फायदा मिल रहा है, उन्हें रिलीज भी मिल रही है, बजट भी हाई रहा है। तो ये टक्कर भी समान नहीं रहती। अब इसकी परिभाषा भी चकराने वाली है, आप कैसे परिभाषित करोगे कि कौन सी इंडि फिल्म है, कौन सी नहीं है। ये लोग जैसे बात करते हैं या किसी रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो बहुत अजीब लगता है कि ये आदमी क्या बात कर रहा है, इसको बिल्कुल भी पता नहीं है।

परिवार वाले क्या कहते हैं, आपके फैसले से खुश हैं, या कहते हैं छोड़ दो?
किस्मत से मेरे परिवार वाले तो शुरू से ही बहुत सहयोग करते रहे हैं। उनकी वजह से ही मैं ये फिल्म बना सका हूं। अगर फैमिली सपोर्ट न हो तो तकरीबन नामुमकिन है ये सब करना। पर वो काफी डाउट में भी रहते ही हैं कि क्या कर रहा है। लेकिन उन्हें समझाना आपकी जिम्मेदारी है। उन्हें यकीन दिलाओ की मुझे तो यही करना है और कुछ करना ही नहीं है। शुरू में अगर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का कोई बच्चा कहता है कि मुझे फिल्म बनानी है तो पेरेंट्स सोचेंगे ही और खासकर तब जब आपने इंजीनियरिंग की हुई है। मगर उन्हें यकीन दिला पाते हो तो वो पक्का सपोर्ट करेंगे, और सपोर्ट बहुत जरूरी है क्योंकि आपकी लाइफ में बहुत प्रॉब्लम्स आएंगी औऱ आप अकेले नहीं कर सकते हो। परिवार का समर्थन चाहिए ही चाहिए।

आपके परिवार में किस-किस का सपोर्ट रहा?
मेरे डैडी सुरिंदर सिंह माहे और माताजी सुखदेव कौर का। मेरी वाइफ रीना माहे का बहुत योगदान रहा। मेरे भाई सुखदीप सिंह ने बहुत मदद की है।

कौन से ऑल टाइम फेवरेट भारतीय या विदेशी फिल्मकार है जिनकी फिल्मों को आप बहुत सराहते हैं?
मुझे सत्यजीत रे बहुत पसंद हैं। उनकी स्टोरीटेलिंग क्षमता जो है वो बहुत ही उच्चतर क्वालिटी की है। मैं तुलना नहीं कर रहा पर उन्होंने एक अलग ही मुकाम हासिल किया है। बिल्कुल एफर्टलेस स्टोरीटेलिंग है उनकी। फिर मुझे कुरोसावा (अकीरा) बहुत पसंद हैं, जापान के फिल्ममेकर। अभी इंटरनेशनल फिल्मकारों में मुझे ब्रिलेंटे मेंडोजा बहुत पसंद हैं। वह फिलीपीन्स के हैं। इनका काफी नाम भी है, तो समकालीनों में ये बहुत पसंद हैं।

आपके बचपन की प्यारी और प्रभावी फिल्में कौन सी रहीं? क्योंकि बचपन की फिल्मों का शायद सबसे ज्यादा योगदान होता है आपके फिल्मी तंतुओं को विकसित करने में...
तब तो कमर्शियल देखकर भी मजा आता है। हमने भी अमिताभ बच्चन साहब की फिल्में देखीं, बड़ा आनंद आता था। वह मेरे फेवरेट थे, माने अभी भी हैं। फिल्ममेकर्स में, शायद हम इंजीनियरिंग कर रहे थे जब शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ आई थी, मुझे बहुत अच्छी लगी थी। एक मुझे ‘मालगुड़ी डेज’ बहुत अच्छा लगता था जो टीवी पर आता था। फिर रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ बहुत अच्छी लगी। अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ अच्छी लगी थी नई फिल्मों में। मुझे वर्ल्ड सिनेमा बहुत अट्रैक्ट करता है। वर्ल्ड सिनेमा बहुत असर छोड़ता है। ‘सिटी ऑफ गॉड’ (2002) है, ईरान की बहुत फिल्में हैं जैसे ‘चिल्ड्रेन ऑफ हैवन’ (1997)। फिर मेक्सिसन-स्पैनिश फिल्म निर्देशक लुई बुवेल की ‘लॉस ऑलविडोस’ (1950) है। विट्टोरियो डि सीका की ‘बाइसिकिल थीव्ज’ (1948) है।

आपकी फिल्म का जैसे वो दृश्य मैं देखता हूं जहां गली में वो धुआं छोड़ने वाला आता है और उसमें से जो उस गुब्बारे बेचने वाली की इमेज उभरती है, थोड़ा सा ही दिखता है कि दूसरे लड़के उसे पीटते हैं और फिर दृश्य को धुंआ ढक लेता है और आवाजें ही सुनाई देती हैं। या फिर दूसरा दृश्य जिसमें लड़के के हाथ पीछे को बंधे हैं और वह बेतहाशा सड़कों पर दौड़ रहा है और पीछे पीटने के लिए दौड़ रहा है उसका पिता। तो जब इंडिया में और विश्व में हजारों-लाखों फिल्में बन रही हैं या बन चुकी हैं। हजारों-लाखों कहानियां अलग-अलग विजुअल्स के साथ कही जा रही हैं या कही जा चुकी हैं... ऐसे में ये दो सीन जब मैं देखता हूं तो फिर भी मौलिक लगते हैं। सवाल ये है कि इतना कुछ कहा जा चुका है कि कोई हद नहीं है और हर चीज कही जा चुकी है। उसके बावजूद अब कुछ ऐसा नया लाना है हर फिल्मकार को जो बिल्कुल मौलिक हो और पहले किसी ने कहा न हो और दिखाते ही लोगों को बस रोक ले। ये कितना कठिन है और कैसे आता है?
मुझे लगता है कि अगर अपने कैरेक्टर्स के प्रति ईमानदारी है तो वहां से बहुत कुछ मिलेगा। अगर आप अपने किरदारों के साथ रहो और देखो कि वो क्या कर रहा है तो रियललाइफ से ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी। जैसे, धुंए वाला सीन हमने किया तो पता चला कि बच्चे ऐसे मस्ती करते हैं कि धुएंवाला आता है और बच्चे एक-दूसरे को पीटते हैं और भाग जाते हैं। हमें लगा कि ये मजेदार चीज होगी दिखाने में। तो हमने शूट किया और शायद पहले ऐसे कहीं नहीं दिखाया गया है। बाकी जिस भागने वाले सीन की आप बात कर रहे हो वो दरअसल मेरी कल्पना ही थी कि दिखाया जा सकता है और असल लगेगा। इससे थोड़ा ये इमोशन भी आएगा कि बच्चा भाग रहा है और सब अपनी ही दुनिया में चल रहे हैं, कोई मदद नहीं कर रहा, किसी का ध्यान उस बच्चे पे जा नहीं रहा है। पता नहीं ये कहना मुश्किल है कि कहां से ये विचार आया होगा।

हम पुराने से पुराने लिट्रेचर और माइथोलॉजी का इस्तेमाल वैसे क्यों नहीं कर पाते जैसे हॉलीवुड फिल्में अपनी कॉमिक्स और नई-नवेली बायोग्राफी का कर लेती हैं? हम हजारों साल पुरानी चीजों का फायदा नहीं ले रहे हैं और वो पचास-साठ साल पुरानी चीजों को बार-बार रीसाइकल कर रहे हैं। ये अंतर क्यों है? इसका कारण आप क्या पाते हैं?
इसकी अहमियत आगे और भी ज्यादा होगी जब हम स्क्रिप्ट केंद्रित होंगे... उनके बजट और हमारे बजट में जमीन-आसमान का फर्क है। उनके बजट और मार्केट हमसे ज्यादा हैं। उनका एक प्रोसेस सेट है। सुनियोजित है। टेक्नीशियन तो हमारे भी अच्छे हैं। पर उनका जो प्रोसेस है, जैसे वहां साऊंड डिजाइन चलेगा तो अगर अच्छी फिल्म है तो उसके साउंड डिजाइन में आठ-नौ महीने और एक साल तक लग जाता है। हमारे यहां वैसा नहीं है। अगर ग्राफिक्स का काम होगा तो मिसाल लें जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ की, जिसे बनने में दस-बारह साल लग गए। वैसा हमारे यहां नहीं होता, न उतनी मेहनत लगती है न उतना पैसा। तो ये एक प्रॉब्लम है कि अधिकतर फिल्में साठ-पैंसठ दिनों में शूट होकर खत्म हो जाती हैं। हमारे यहां पैसे स्टार्स को चले जाते हैं, फिल्म में नहीं लगते। अगर 100 करोड़ की फिल्म है और उसमें 50 करोड़ स्टार ले लेगा तो बजट खत्म सा हो जाता है। हॉलीवुड में फिल्म बड़ी है तो स्टार्स नए होते हैं। अगर वहां एक एपिक बनाते हो तो आप शायद टॉम क्रूज को नहीं लोगे, नए एक्टर को लोगे। इंडिया में उल्टा है, अगर कोई बड़ी फिल्म बना रहे हो तो बड़ा स्टार चाहिए। कोई रिस्क भी लेना नहीं चाहता कि फिल्म में पैसा लगाएं और फिल्म अच्छी बनाएं। सबको इज़ी मनी चाहिए, मतलब टेबल पर ही पैसा बनाना है। हमारी धंधे वाली सोच है न। हम प्रॉडक्ट अच्छा नहीं बनाना चाहते। हम बना बनाया खेल चाहते हैं कि फलां स्टार ले लेंगें, उतने करोड़ दे देंगे, 20-30 करोड़ खर्चा करके बना लेंगे और 100 करोड़ में बेच देंगे। अगर स्टार को ही पचास करोड़ दे रहे हो सौ करोड़ की फिल्म में, तो कैसे चलेगा। बॉलीवुड के व्यूअर्स ज्यादा है हॉलीवुड से... वेस्टर्न ऑडियंस ज्यादा पैसे देकर भी फिल्म देखती हैं। सोच का फर्क है प्रोसेस का फर्क है। अब अगर एक इंडिपेंडेंट फिल्म बनाना चाहते हैं तो कोई प्रॉड्यूसर या डिस्ट्रीब्यूटर नहीं चाहता कि हाथ लगाए। मुनाफे की बात आ जाती है।

इस साल तमाम फिल्म फेस्टिवल में किन फिल्मों ने अपनी प्रस्तुति या कहानी से आपको हैरान किया है?
एक जो मैंने देखी और मुझे बहुत अच्छी लगी वह है चिली की ‘इवॉन्स वीमन’ (फ्रांसिस्का सिल्वा)। ‘शिप ऑफ थीसियस’ बहुत अच्छी फिल्म है इंडियन में, आनंद गांधी ने बनाई है। ‘मिस लवली’ भी कुछ अलग है। एक ‘शाहिद’ है हंसल मेहता की... मतलब ये दो-तीन फिल्में बहुत अच्छी निकली हैं। एक मैंने ‘द पेशेंस स्टोन’ (अतीक़ रहीमी) देखी है, अफगानिस्तानी कहानी पर बनी है, बहुत अच्छी लगी।

जब सक्षम होंगे और संसाधन पास होंगे तो कैसे विषय पर फिल्में बनाना पसंद करेंगे?
भारत की वो कहानियां कहना चाहूंगा जो दरकिनार कर दी जाती हैं। अभी असली भारत की कहानियों पर फिल्में इसलिए नहीं बनाई जा सकतीं क्योंकि वो मिडिल क्लास मार्केट को केटर नहीं करती हैं, वो मल्टीप्लेक्स में नहीं चलती हैं। मैं तो यही चाहूंगा कि ये कहानियां कही जाएं। जो स्क्रिप्ट मेरे पास हैं उनमें चार कहानियां तो जातिगत भेदभाव (कास्ट डिसक्रिमिनेशन) को लेकर ही हैं। एक बंत सिंह की है। फिर बिहार के जातिगत नरसंहार पर है। एक महाराष्ट्र में वाकया हुआ था जिसमें एक दलित फैमिली को सरेआम मार दिया गया था, एक कहानी वो है। फिर एक दलित आदमी के बारे में है जो मंदिर बनाना चाहता है, उसकी कहानी है। कुछ कमर्शियल स्क्रिप्ट भी हैं। एक फिल्म है जिसमें सारे मसाले हैं बॉलीवुड के। उन क्लीशे को मिलाकर कुछ मीनिंगफुल बनाने की कोशिश की है। उसमें आतंकवाद भी है और सोशल मुद्दे भी। काफी कहानियां हैं, देखते हैं पहली कौन सी शुरू होती हैं।

क्या ऐसी भी फिल्में हैं जिनसे आप नफरत करते हैं?
नफरत तो किसी से नहीं, पर कोई एजेंडा थोपने के लिए बनाता है तो नहीं देखता। मुझे फिल्म में एक मासूमियत नजर आनी चाहिए, वो फिल्म देखने में नजर आएगी। जिन फिल्मों में डायरेक्टर का ध्यान नहीं हो और जबरदस्ती बनाने की कोशिश की हो तो मजा नहीं आता।

कैसी किताबें पढ़ते हैं?
पढ़ता ही नहीं। मैंने कोशिश की है पर पढ़ी नहीं जाती, मैं नॉन-फिक्शन पढ़ लेता हूं पर पता नहीं क्यों किताबें मुझे रोक नहीं पातीं। मैं विजुअल्स से ज्यादा आकर्षित होता हूं। फिक्शन से थोड़ी एलर्जी सी है। नॉन-फिक्शन तो फिर भी पढ़ लेता हूं। इसमें असली इंसानों की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। ये सब मुझे पसंद हैं चाहे वो न्यूजपेपर आर्टिकल हों, ऑनलाइन ब्लॉग हों या अच्छे नॉन-फिक्शन हों।

‘पैशन फॉर सिनेमा’ क्यों बंद हो गया?
शुरू ऐसे हुआ कि इस जगह हम अपने विचार बांट सकें, पर चलते-चलते अपने आप में बहुत बड़ा बन गया, बड़े नाम वहां जुड़ गए। फिर वह प्लेटफॉर्म ऐसा हो गया कि काफी कुछ अचीव करना चाहता था। और भी काफी कुछ शुरू हो गया था। फिर वो ब्लॉग भर नहीं रहा कि अपना पॉइंट ऑफ व्यू शेयर कर पाएं। वो पीरियोडिकल या न्यूजपेपर जैसा हो गया। कि हर हफ्ते और महीने इतना तो छापना ही है। फिर पता नहीं कि कुछ मुख्य ऑथर्स के बीच हुआ कि वो बंद कर दिया गया। पुराने लोग वहां नहीं लिख रहे थे, वो वहां से निकल गए। एक मौके पर तो इतना स्तर गिर गया कि बरकरार करने का मतलब नहीं रहा।

फिल्म क्रिटिसिज्म कैसा होना चाहिए?
जो कॉमन प्रॉब्लम मैंने देखी हैं वो ये कि क्रिटिक्स लिखते हुए उम्मीद करते हैं कि फिल्म में ये होना चाहिए था। वह लिखते हैं कि डायरेक्टर को ये दिखाना चाहिए था ये नहीं दिखाना चाहिए था। जबकि हमें ये देखना चाहिए कि फिल्म में डायरेक्टर ने क्या किया है। अगर आप ऐसे करते हो तो लगता है कि आपका पहले से फिल्म को लेकर कोई एजेंडा है। आप उसे एक सेकेंड में इसलिए खारिज कर देते हो। क्रिटिक्स ही ऐसा करते हैं कि तुरंत कह देते हैं कि ये फिल्म तो भइय्या उस फलानी फिल्म जैसी है। जबकि उसे थोड़ा ये सोचना चाहिए कि फिल्ममेकर क्या करना चाहता था और वह ईमानदारी से क्या कर पाया है।

न्यूडिटी और अब्यूजिव लैंग्वेज आने वाले वक्त में शायद हम लोगों के बीच चर्चा का विषय रहेंगे। तो इन पर आप क्या सोचते हैं, होनी चाहिए, नहीं होनी चाहिए, कितनी होनी चाहिए?
मुझे लगता है कि अगर आपका सब्जेक्ट डिमांड करता है तो .. फिर वही ऑनेस्टी वाली बात है कि हां, अगर वो किरदार वाकई में ऐसा है तो आप कर सकते हो। ऑनेस्टी से फिल्माओं तो ठीक जरूर लो। पंजाब में तो हर लाइन में आपको दो गालियां मिलेंगी। अगर न्यूडिटी को कमर्शियल पॉइंट से भुना रहे हो तो फिर वो गलत है। अगर आपकी कहानी की मांग है तो दिखा सकते हो, गालियां भी दिखा सकते हो, पर अगर वो नहीं है और आप जबरदस्ती थोप रहे हो तो दिक्कत है। बाकी सेंसर बोर्ड पर है कि आपको क्या सर्टिफिकेट देते हैं। फिर लोगों पर है कि वो कैसे लेते हैं।

बहुत अधिक निराश होते हैं तो क्या करते हैं, कौन सी फिल्म लगाकर बैठते हैं या क्या सोचते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं होता मेरे साथ। मुझे नहीं लगता कि मैं निराश होता हूं। पर निराशा और नकारात्मक सोच को दूर रखना चाहिए। पहले लगता था क्या करें। फिर सोचा कि खुद ही करना पड़ेगा, कोई मदद तो आने से रही। फिल्म आपकी ही जिम्मेदारी है आपको ही पहल करनी पड़ेगी। पर अब तो फिल्म बन गई है फेस्ट में ट्रैवल कर रही है। पर मायूस तो होना ही नहीं चाहिए। इस दुनिया में तो बहुत धीरज चाहिए, यहां मायूसी की कोई जगह नहीं है। सही में अगर सिनेमा से लगाव है आपका, तो मायूसी आएगी ही नहीं। ये मीडियम सिखाता चलता है और इंटरनेट इतना अच्छा जरिया है कि सारा ज्ञान और सामग्री वह उपलब्ध है।

(साक्षात्कार का छोटा प्रतिरूप यहां पढ़ सकते हैं, कृपया पृष्ठ संख्या 4 पर जाएं)
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, January 10, 2013

बाहें जिना दी पकड़िए, सिर दीजे, बाहें न छोड़िए

उनके जाने के कुछ ही घंटों में कुछ लिखा था। बींध दिए गए काळजे से, बींध दी गई सोचने की इंद्रीय से और थोप दिए गए उस अवाकपन से जो 2012 में बहुत बार आया। दुख हुआ। बहुत दुख हुआ। पर उन शब्दों को यहां बांटने से कतराता रहा। कतराने की वजह जो हमेशा रहती ही है, कि शब्द बेबस होते हैं, जहरीले होते हैं, प्रदूषक होते हैं। फिल्में देखने के अनुभव व्यक्तिगत होते हैं और बेशकीमती होते हैं, उन्हें शब्दों से कभी दूसरे को व्यक्त नहीं किया जा सकता है। जब किया भी जाता है तो आंशिक हो पाता है। उनमें छिपे विचारों पर परिचर्चा कर सकते हैं, पर भावों पर नहीं। यश चोपड़ा भाव थे। प्यार के, पंजाबियत के, दोस्ती के, दर्द के, दुर्दिन के, जलसे के, जिंदगी जीने के, क़िस्सागोई के, कर्मठता के, संगीत के, सपनों के, साथ के, ऐश्वर्य के, आजादी के, खुशी के, खतरे के, शुरुआत के और अंत के। कुछेक विषयपरक आलोचनाएं हैं जो फिर कभी, फिलहाल कुछ वो जिसके लिए मैं उन्हें याद रखूंगा, संभवतः हम सभी।
स्मृतिशेषः यश चोपड़ा 1932 - 2012
 “ऐसा कुछ कर पाएं,
 यादों में बस जाएं,
 सदियों जहान में हो  चर्चा हमारा
 दिल करता,
 ओ यारा दिलदारा मेरा दिल करता...”
‘आदमी और इंसान’ 1969 में आई थी। बतौर डायरेक्टर यश चोपड़ा की चौथी फिल्म। साहिर लुधियानवी का लिखा और महेंद्र कपूर का गाया ये गाना उनकी जिंदगी का सार भी है और उनकी तमाम फिल्मों की काव्यात्मक थीम भी। इसमें नाचते सैनिकों को देख और उनके लफ़्जों को सुन कोई भाव विह्अल न हो, आज भी ऐसा नहीं हो सकता। इसमें सब है। देशभक्ति, कर्मठता, किसी गोरी की कलाई थामने की ख्वाहिश, जीने की खुशी, नाचने-गाने का पंजाबी रंग और कुछ कर गुजरने का जज़्बा। देशभक्ति, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की उनकी परिभाषा सबसे पहले उनकी दो शुरुआती फिल्में थीं। 1959 में आई उनकी पहली ही फिल्म ‘धूल के फूल’ में जंगल में छोड़ दिए गए एक हिंदू नाजायज बच्चे को एक मुस्लिम अब्दुल रशीद पालता है। उसे गाकर सुनाता है “तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”। यकीनन, इन नैतिक शिक्षाओं को अपनी फिल्मों में आज हम बहुत मिस कर रहे हैं। उनकी दूसरी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ में बंटवारे का दर्द था, वही जो यश खुद झेल चुके थे। दिल्ली के दो सद्भाव से रहने वाले हिंदु-मुस्लिम परिवारों की कहानी थी। यहां से आगे ‘वीर-जारा’ तक उन्होंने कोई विशुद्ध मैसेज वाली फिल्में नहीं बनाईं। जो भी बनाईं थोड़ी भलमनसाहत, बाकी मनोरंजन की चाशनी और सुरीले गुनगुनाते डायलॉग्स में डुबोकर बनाई, पर सब में उनका दिल जरूर होता था। फिर उनकी फिल्मों की थीम प्यार, किस्मत, गरीबी, अमीरी, नैतिकता, आधुनिकता, रिश्ते-नाते, विरसे और जिंदगी जैसे दार्शनिकता भरे विषयों पर चली गईं।

लाहौर में जन्मे इस लड़के को जब 19 की उम्र में घरवाले जालंधर से इंजीनियर बनने भेज रहे थे तब उसके शरीर में दिल और पोएट्री दो ही चीजें धड़क रही थीं। बाद में वो पोएट्री कहानियां बन गईं और बड़े भाई बलदेवराज चोपड़ा की शार्गिदी में सीखी फिल्ममेकिंग आगे बढ़ने का जरिया। मूलमंत्र एक ही था, ‘जो काम जिंदगी दे वो दिल लगाकर करते जाओ’। वही जज़्बा जो हर मेहनती, जुझारू और उसूलों वाले हिंदुस्तानी में पराए मुल्क जाकर सफल हो जाने से पहले होता है। आदित्य चोपड़ा की ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में जिस चौधरी बलदेव सिंह को हम देखते हैं, वह असल में उनके पिता यश चोपड़ा की छवि ही लगती है। सुबह-सवेरे लंदन के भीगे आसमान तले, भीगी सड़कों पर हाथ में छड़ी और जेब में कबूतरों के लिए दाने लिए जा रहे बलदेव सिंह की पंजाब को लेकर दिल में उठती हूक और इस किरदार को निभा रहे अमरीश पुरी की चौड़ी जॉ-लाइन, दोनों यश चोपड़ा की याद दिलाते हैं।

‘ए मेरी ज़ोहरा-जबीं’ (वक्त) से लेकर ‘चल्ला रौंदा फिरे’ और ‘हीर’ (जब तक है जान, आखिरी फिल्म) तक अलग-अलग रूपों में वह हिंदुस्तानी सिनेमा में पंजाबियत स्थापित करते रहे। उनकी फिल्मों में कोहली, कपूर, चौधरी, चोपड़ा, खन्ना, मेहरा, मल्होत्रा, गुप्ता, वर्मा, सक्सेना, लाला, खान और सिंह जैसे सरनेम ज्यादा रहे। 1973 में आई उन्हीं की फिल्म ‘दाग़’ में नायिका गाती हैं, “यार ही मेरा कपड़ा लत्ता, यार ही मेरा गहना। यार मिले तो इज्जत समझूं कंजरी बनकर रहना। नी मैं यार मनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें”। इश्क की तड़पन यहां भी पंजाबी थाप और शब्दों के बिना पूरी नहीं होती। यशराज प्रॉडक्शंस तले बनी फिल्मों में तो ‘ऐंवेई ऐंवेई’ (बैंड बाजा बारात) पंजाब आता-जाता रहा।

आम राय के उलट यश चोपड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर विदेशी रीमेक और साहित्यिक कृतियों में भी रुचि लेते थे। ‘काला पत्थर’ जोसेफ कॉनरेड के नॉवेल ‘लॉर्ड जिम’ से प्रेरित थी। ‘दाग़’ थॉमस हार्डी के नॉवेल ‘द मेयर ऑफ कास्टरब्रिज’ पर आधारित थी। ‘इत्तेफाक’ ब्रिटिश फिल्म ‘साइनपोस्ट टु मर्डर’ की रीमेक थी। ‘धर्मपुत्र’ आचार्य चतुरसेन से नॉवेल पर बनी थी। मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक ‘मशाल’ वसंत कानेटकर के मराठी प्ले ‘अश्रूंची झाली फुले’ पर आधारित थी।

प्यार में विरह और त्याग के सबसे पुराने रूल को उन्होंने बहुत बरता। ‘वीर-जारा’, ‘कभी-कभी’, ‘सिलसिला’ और ‘चांदनी’ देखें। उनके टॉपिक बोल्ड रहे। हालांकि वक्त के साथ उनके किरदारों के प्यार में दुश्वारियां कम होती गईं। उनकी फिल्मों में पीढ़ियां होती थीं, जॉइंट फैमिलीज होती थीं, बहुत सारी फैमिलीज होती थीं। अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के साथ उनकी ‘दीवार’ को चाहे स्टैंड अप कॉमेडियंस ने हल्का करने की कोशिश की हो, पर ये फिल्म आज भी एंग्री यंग मैन वाली फिल्मों में ‘मशाल’ के साथ शीर्ष पर बनी हुई है। ‘मशाल’ में अख़बार चलाने वाले भले इंसान विनोद कुमार बनते हैं दिलीप कुमार। उनका एक सीन शायद यश चोपड़ा के निर्देशन वाले तमाम श्रेष्ठ सीन्स में से एक है। आधी रात को, बेघर, सड़क पर पति संग ठोकर खा रही सुधा (वहीदा रहमान) के पेट में दर्द शुरू हो जाता है। वह फुटपाथ पर गिरी दर्द में कराह रही है और लाचार, गिड़गिड़ाते, हर संभव तरीके से मदद मांगते विनोद इधर-उधर दौड़ रहे हैं। दरवाज़ों, दुकानों, खिड़कियों को पीट रहे हैं, हर गुजर रही गाड़ी के आगे मिन्नतें कर रहे हैं (पर कोई नहीं रुक रहा) ...
“अरे कोई आओ,
अरे देखो बेचारी मर रही है,
अरे मर जाएगी बचा लो रे।
गाड़ी रोको...
ऐ भाई साहब गाड़ी रोक दो,
गाड़ी रोको भाई साहब।
ऐ भाई साहब...
मेरी बीवी की हालत बहुत खराब है,
उसको... उसको अस्पताल पहुंचाना है।
भाई साहब वो मर जाएगी,
आपके बच्चे जिएं,
हमारी इत्ती मदद कर दो
उसको अस्पताल पहुंचा दो भाई साहब,
भाई साहब आपके बच्चे जीएं,
भाई गाड़ी रोको...
ए भाई गाड़ी रोक दो”।

आपको रुला देता ये पूरा दृश्य रौंगटे खड़े करता है। बेहद। एहसास करवाता है कि क्यों आज तक दिलीप कुमार अभिनय के भारतीय आकाश में सबसे चमकीले तारे हैं। दृश्य के रोम-रोम में प्राकृतिक भाव हैं, उन्हें लिखा और फिल्माया उसी दर्द को महसूस करते हुए गया है। पीड़ा के अलावा यश चोपड़ा की ऐसी ही आत्मानुभूति रोमैंस के मोर्चे पर भी दिखती है। चाहे ‘लम्हे’ के अधेड़ वीरेंद्र और उम्र में उससे आधी पूजा के बीच का अपनी परिभाषा ढूंढता अस्थिर प्यार हो या ‘चांदनी’ के रोहित-चांदनी का रोमैंटिक-काव्यात्मक ख़तों से भरा गर्मजोश प्यार। जब रोहित की चिट्ठी आती है तो वीणा के झनझनाते तारों वाले बैकग्राउंड म्यूजिक और पीले फूलों वाले बगीचे में लेटकर चांदनी पढ़ना शुरू करती है... रोहित ने लिखा है...
चांदनी,
तुम्हें हवा का झोंका कहूं
कि वक्त की आरजू,
दिल की धड़कन कहूं
कि सांसों की खुशबू।
तुम्हें याद करता हूं
तो फूल खिल जाते हैं,
सुबह होती है तो लगता है...
तुम अपनी जुल्फें शबनम में भिगो रही हो,
और मैं, तुम्हारी आंखों को चूम रहा हूं।
सुनहरी धूप में लगता है
जैसे चांदनी जमीन पे उतर आई है,
शाम का ढलता सूरज
तुम्हें चंपई रंग के फूल पहना रहा है,
और तुम्हारी खुशबू से
मेरा बदन महक रहा है।
जब रात अपना आंचल फैलाती है...
तुम्हारी कसम,
तुम बहुत याद आती हो।
पूनम का चांद
अपनी गर्दिश भूलकर,
ठहरा हुआ तुम्हारा रूप देख रहा है,
मैं आंखें बंद कर लेता हूं...
और चांदनी मेरे दिल में उतर आती है।
तुम्हारा, सिर्फ तुम्हारा
- रोहित

और फिर ख़त पढ़कर फूलों सी शरमाई, खिली, मुस्काई चांदनी लिखती है...
 रोहित,
क्या लिखूं?
वक्त जैसे ठहर गया है।
हवा, खुशबू, रात...
सब सांस थामे इस इंतजार में हैं
कि मैं कुछ लिखूं,
पर दिल की बात लफ्जों में कैसे आएगी।
रोहित, तुम्हारी पसंद की सब चीजें हैं,
मोगई के फूल,
मुस्कुराती शमा
और तुम्हारी चांदनी।
काश, तुम यहां होते!
मगर तुम कैसे होते?
मगर तुम हो तो सही
मेरी सांसों में,
मेरे दिल में,
मेरी धड़कन में।

चांदनी-रोहित की ये बातें यश चोपड़ा की फिल्मों में लफ़्जों की अति-भावुकता (जिनका अति होना जरूरी भी था) का एक बेहतरीन उदाहरण है। भले ही आप उन पंक्तियों के भीतर तक न घुसें पर आपके बाहर-बाहर से गुजरते हुए भी ये पोएट्री आपको सीट पर पीछे की ओर सहला जाती हैं। और वह खुद भी मानते थे कि उनकी हर फिल्म असल में महज पोएट्री ही होती थी। ‘कभी-कभी’, ‘वीर-जारा’, ‘चांदनी’ और ‘जब तक है जान’ में ये सीधे तौर पर थी तो बाकी फिल्मों में संवादों और गानों में। अगर सकारात्मक लिहाज से लें तो यश चोपड़ा बड़े सेंटिमेंटल आदमी थे, जो एक डायरेक्टर को होना ही चाहिए। उनका संगीत भी वैसा ही रहा। दिल से बना, सीधा-सपट और मजबूत। एन दत्ता, रवि, खय्याम से लेकर उत्तम सिंह तक सभी उनकी फिल्मों का म्यूजिक दे गए पर ज्यादा काम उनका शास्त्रीय तासीर वाले शिव-हरि की जोड़ी के साथ ही निकला। यश की फिल्मों ने बहुत ही खूबसूरत, कर्णप्रिय गाने दिए पर मुझे तसल्ली देता और यश चोपड़ा को भी कुछ बयां करता एक ही रहा। 1981 में आई ‘सिलसिला’ में भाई हरबंस सिंह जगाधरी का गाया संगीत ‘बाहें जिना दी पकड़िए’... अद्भुत। इस संगीत का भाव यश चोपड़ा की फिल्मों में सर्वत्र है। कलेजा निचोड़ देता, गीला, छलछलाता, तांतेदार और दिल से संचालित होने वाला भाव।

उन्होंने अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान को उनकी जिंदगी का ऊंचा मुकाम दिया। उन्होंने साइकिल पर अपने पूरे परिवार को ढोने वाले दर्शक को सूरजमुखी के फूलों में रोमैंस की सपनीली तस्वीर दिखाई। हालांकि, वो दर्शक कभी ठीक वैसा काव्यात्मक रोमैंस कर न सका, वह स्विट्जरलैंड (ये आलोचनात्मक पहलू रहेगा कि बहुतों ने स्विट्जरलैंड जाने को अपना ध्येय बनाया भी ) जा न सका, पर इन फिल्मों से उसे विदेशों का एक सिनेमाई आइडिया हुआ। मनोरंजन के लिहाज से ये ठीक-ठीक था, जागरूक करने के लिहाज से नहीं। यश चोपड़ा ने हमेशा ईमानदार दिल से फिल्में बनाई जो तकनीकी तौर पर बेदाग होती थीं जो सदा धड़कती थीं।

मुझे लगता है कि वक्त से साथ उनकी फिल्मों का कद बढ़ेगा। उनकी चल्ले वाली बड़ी क्लीन-सघन लाइफ में फिल्मों के इतर असल जिंदगी का एक बहुत बड़ा सबक है। उस दौर पर जब हम मिनट-मिनट में फुटेज न मिलने पर, लाइक्स न मिलने पर और अपने दायरों में सेलेब न बन पाने पर निराश हो जाते हैं, हार से जाते हैं, यश चोपड़ा अपनी लाइफ की ऐसी कहानी देकर जाते हैं जो कर्म करने से बनती गई। न हर कदम पर सफलता के लिए अतिरिक्त प्रयास करने थे, न आगे बढ़ने के लिए ताकत लगानी थी... बस एक काम में मन लग गया, उसे करते चले गए, बिना परिणाम की प्रतीक्षा के... और बात बन गई। एक भरा-पूरा जीवन और कार्य-संग्रह जमा हो गया। जो भी ऐसा मनोबल पाना चाहते हैं और ऐसी प्रेरक कहानी सुनना चाहते हैं वो ये साक्षात्कार देख सकते हैं। मृत्यु से कुछ वक्त पहले उन्होंने शुरू से लेकर आखिर तक जीवन का हर पड़ाव लोगों से बांटा।

 ...इधर-उधर के बीच केवल एक यश चोपड़ा नजर आते हैं, जो ऊर्जा देते हैं, होंसला देते हैं और याद आते हैं।
***** ***** *****
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 27, 2012

निकोलस जरैकी की आर्बिट्राजः हिरना समझ-बूझ बन चरना

Richard Gere in a still from Nicholas Jarecki's 'Arbitrage.'

'लाल जूतों वाली लड़की', 'कुबड़ा', 'पानी में आग', 'दिल्ली के दरिंदे', 'नीला फूल', 'मैं उससे प्यार करता था', 'नन्हा राजू', 'सोफिया माई लव', 'घर-गृहस्थी', 'खूनी बाज़', 'परोपकारी शरमन', 'गैंग्स ऑफ लुधियाना', 'ग़रीबनवाज', 'डेंजर्स ऑफ पोएट्री', 'अल्वा ने बनाया गाजर का हलवा', 'वीर दुर्गादास राठौड़', 'चंचल चितवन', 'हो जाता है प्यार', 'मेरे सपनों की मल्लिका', 'आखिरी इम्तिहान', 'घबराना नहीं', 'इनडीसेंट वूमन', 'प्ले डे', 'ही विल किल यू' और 'बस गई अब बस करो'। फिल्म का नाम चाहे कोई भी हो, अलग छाप लगाता है। हर नाम, हर दर्शक के मानस रसायनों में अलग चित्रों को लिए घुलता है। जिसे अंग्रेजी ज्यादा न आती हो और ‘आर्बिट्राज’ देखने जाना हो तो वह इस शब्द के पहले अक्षर में आती ‘अ’ की ध्वनि में कुछ सकारात्मक महसूस करेगा या फिल्म कैसी होगी इसको लेकर न्यूट्रल उम्मीदें रखेगा। जो जरा ज्यादा जानता हो और कभी आर्बिट्ररी अदालतों के बारे में सुना हो तो कुछ पंच-पंचायती या बीच-बचाव का अंदाजा लगाएगा। फिर वो जो जानते हैं कि आर्बिट्राज का मतलब उस किस्म के बड़े कारोबारी मुनाफे से होता है जो एक जैसी परिसंपत्तियों या लेन-देन के बीच छोटे अंतर से उठाया गया होता है, हालांकि ये तरीका नैतिक नहीं होता। हम जब फिल्म देखते हैं तो इसके मुख्य किरदार रॉबर्ट मिलर (रिचर्ड गेयर) को जिंदगी के हर मोर्चे पर, चाहे वो कारोबार हो या रिश्ते, ऐसे ही आर्बिट्राज करते पाते हैं। उसकी आदर्श और सफल अमेरिकन बिजनेसमैन होने की विराट छवि के पीछे खोई हुई नैतिकता है, कारोबारी घपले हैं और रिश्तों में आई दरारें हैं। मगर निर्देशक निकोलस जरैकी अपनी इस कहानी में उसे आर्बिट्राज करने देते हैं। उसे इन गलत मुनाफों को कमाने देते हैं। उसे जीतने देते हैं। पर हर सौदा एक टूटन छोड़ जाता है। रॉबर्ट इंडिया और सकल विश्व में बनने वाली बिलियनेयर्स की सूची के हरेक नाम की कम-ज्यादा कहानी है। वो सभी जो आदर्श कारोबारी की छवि ओढ़े हैं, समाज में अपनी रसूख की कमान पूरे गर्व के साथ खींचे हैं और जिनकी कालिख कभी लोगों के सामने नहीं आ पाती, वो रॉबर्ट हैं। 2008 में वॉल स्ट्रीट भरभराकर ऐसे ही लोगों की वजह से गिरी, भारत में हाल ही में उभरे घोटालों में ऐसे ही कारोबारी हाथ शामिल रहे। सब कानून की पकड़ से दूर आर्बिट्राज कर रहे हैं।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में धृतराष्ट्र को अधर्म (दुर्योधन) का साथ छोड़ने का उपदेश देते हुए महात्मा विदुर कहते हैं, “हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम्। सुह्रदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः”।। जिसका अर्थ होता है कि ‘महाराज, दूसरे का धन छीनना, परस्त्री से संबंध रखना और सच्चे मित्र को त्याग देना, ये तीनों ही भयंकर दोष हैं जो विनाशकारी हैं’। पर रॉबर्ट की बिजनेस वाली दुनिया में जो विनाशकारी है वही रिस्क टेकिंग है। जो भयंकर दोष है वही आर्बिट्राज है। और उसे ऐसे तमाम सौदे पूरे करने हैं। उसकी कहानी कुछ यूं है। वह न्यू यॉर्क का धनी हैज फंड कारोबारी है। समाज में उसकी इज्जत है, आइकॉनिक छवि है। घर पर भरा-पूरा परिवार है जो उसे बेहद प्यार करता है, उसके 60वें जन्मदिन की तैयारी करके बैठा है। वह घर लौटता है और नातियों को प्यार करता है। अपनी सुंदर योग्य बेटी (ब्रिट मारलिंग) और जमाई को थैंक यू कहता है। पत्नी एलन (सूजन सैरेंडन) को किस करता है। सब खाने की मेज पर बैठते हैं और हंसी-खुशी वाली बातें होती हैं। एक आम दर्शक या नागरिक अपने यहां के बिजनेसमैन को इतना ही जानता है। ये कहानी इसके बाद जिस रॉबर्ट से हमें मिलाती है वो अनदेखा है। रात को वह पत्नी को बेड पर सोता छोड़ तैयार हो निकल जाता है। वह जाता है जूली (लीएतितिया कास्टा) के पास। ये खूबसूरत जवान फ्रेंच आर्टिस्ट शादी के बाहर उस जैसे कारोबारियों और धनिकों की आवश्यकता है। घर पर बेटी-बीवी को तमाम अच्छे शब्दों और उपहारों से खुश करता है तो यहां जूली के न बिकने वाले आर्टवर्क को ऊंचे दामों पर लगातार खरीदता रहता है, ताकि उसे सहेज सके। यहां इनका प्रणय होता है। रॉबर्ट किसी देश में बहुत सारा रूपया लगा चुका है। मगर अब उस मुल्क में हालात कुछ और हैं और उसका पैसा डूब चुका है। वह इन 400 मिलियन डॉलर की भरपाई कंपनी के खातों में हेर-फेर करके करता है। इससे पहले कि निवेशक, उसकी बेटी या खरीदार कंपनी पर बकाया इस रकम के बारे में जाने वह अपने वेंचर कैपिटल कारोबार का विलय एक बड़े बैंक के साथ कर देना चाहता है। पर अंतिम आंकड़ों को लेकर बातचीत बार-बार पटरी से उतर रही है। यहां तक रॉबर्ट के पास करने को पर्याप्त कलाबाजियां हैं, पर भूचाल आना बाकी है। अब कुछ ऐसा होता है कि एक अपराध उससे अनजाने में हो जाता है और न्यू यॉर्क पुलिस का एक ईमानदार डिटेक्टिव माइकल ब्रायर (टिम रॉथ) उसके पीछे पड़ जाता है।

जरैकी अपने इस किरदार को जीतने देते हैं लेकिन बताते हैं कि ये जीत रिश्तों में बड़ी टूटन छोड़ जाती है। एक-एक रिश्ते में। पत्नी एलन वैसे तो पहले भी एक रईस कारोबारी की बीवी होने के साथ आई शर्तों से वाकिफ होती है और चुप होती है, पर जब बात आर-पार की आती है तो वह रॉबर्ट से अपनी बेटी के लिए पद और पर्याप्त पैसे मांगती है। वह मना कर देता है तो एलन कहती है, “पुलिस मुझसे बात करने की कोशिश कर रही है और मैं तुम्हारे लिए झूठ नहीं बोलने वाली”। कुछ रुककर वह फिर कहती है, “आखिर तुम्हें कितने रुपये चाहिए? क्या तुम कब्र में भी सबसे रईस आदमी होना चाहते हो?” ब्रूक पिता के कारोबार की सीएफओ है। अब तक वह खुद को पिता का उत्तराधिकारी समझती है पर जब खातों में हेर-फेर का पता चलता है और ये भी कि ये पिता ने ही किए हैं तो वह भाव विह्अल हो जाती है। रॉबर्ट उसे वजह बताता है पर वह सहज नहीं हो पाती। गुस्से में कहती है कि “आपने ये किया कैसे, आपके साथ मुझे भी जेल हो सकती है”। रॉबर्ट कहता है, “नहीं तुम्हें कुछ नहीं होगा”। वह कहती है, “मैं इस कंपनी में आपकी हिस्सेदार हूं, मैं भी दोषी पाई जाऊंगी”। तो वह कहता है, “नहीं, तुम मेरे साथ काम नहीं करती हो तुम मेरे नीचे काम करती हो”। बेटी का आत्मविश्वास और भ्रम यहां चूर-चूर हो जाता है। हालांकि रॉबर्ट एक पिता के तौर पर उसे बचाने के उद्देश्य से भी ये कहता है कि तुम मेरे साथ नहीं मेरे अंडर काम करती हो, पर ब्रूक को ठेस लगती है। फिल्म में आखिरी सीन में जब एक डिनर पार्टी में बड़ी घोषणा की जाती है और अपने पिता के बारे में ब्रूक भाषण पढ़ती है और उन्हें सम्मानित करते हुए स्टेज पर बुलाती है तो दोनों औपचारिक किस करते हैं और वहां ब्रूक के चेहरे पर नब्ज की तरह उभरता तनाव इन सभी घरेलू रिश्तों के अंत की तस्वीर होता है। रॉबर्ट रिश्ते हार जाता है।

फिल्म के प्रभावी किरदारों में टिम रॉथ हैं जो पहले ‘रिजरवॉयर डॉग्स’, ‘पल्प फिक्शन’ और ‘द इनक्रेडेबल हल्क’ में नजर आ चुके हैं। एक पिद्दी सी सैलरी पाने वाले डिटेक्टिव होते हुए वह अरबपति रॉबर्ट मिलर का पेशाब रोक देते हैं। जब ब्रायर बने वह रॉबर्ट के पास तफ्तीश के लिए जाते हैं तो पूछते हैं, “ये आपके माथे पर क्या हुआ”। रॉबर्ट कहता है, “कुछ नहीं, दवाइयों वाली अलमारी से टकरा गया”। तो उस अनजानेपन से वह जवाब देता है, जिसमें दोनों ही जानते हैं कि सच दोनों को पता है कि “हां, मेरे साथ भी जब ऐसे होता है तो बड़ा बुरा लगता है”। कहानी में इस अदने से जांच अधिकारी का न झुकना और सच को सामने लाने में जुटे रहना अच्छी बात है। ये और बात है कि रॉबर्ट उसे सफल नहीं होने देता। केस में एक जगह वह टिम और पुलिस विभाग को अदालती फटकार दिलवा देता है तो दर्शक खुश होते हैं जबकि असल अपराधी रॉबर्ट होता है। फिल्म में अच्छे-बुरे की पहचान और दर्शकों की सहानुभूति का गलत को चुनना परेशान करने वाला चलन रहा है और रहेगा।

जैसा कि हम बात कर चुके हैं रॉबर्ट आदर्श अमेरिकी कारोबारी की छवि रखता है। सेल्फ मेड है। हो सकता है अमेरिकी संदर्भों में उसके आर्बिट्राज सही भी हों। पर रिचर्ड गेयर अपने इस किरदार की पर्सनैलिटी की तहों में काफी ब्यौरा छोड़ जाते हैं। सेल्समेन और सेल्सगर्ल्स के इस युग में सभी को आर्थिक सफलता के लिए डेल कार्नेगी या उन जैसों की लिखी सैंकड़ों रेडीमेड व्यक्तित्व निर्माण की किताबें मुहैया हैं, जिनमें सबको चेहरे पर खुश करना सिखाया जाता है। “सर आपने आज क्या शर्ट पहनी है”... “कल तो जो आपने कहा न, कमाल था”... “आपने जो अपने आर्टिकल में लिखा वो मुझे... उसकी याद दिलाता है”। रॉबर्ट मिलर भी इन्हीं सूत्रों से सफल बना है। वो सूत्र जो ऊपर-ऊपर बिन्नैस और रिश्तों को सुपरहिट तरीके से कामयाब रखना सिखाते हैं, पर उतनी ही गहराई में जड़ें खोखली करते हैं। क्योंकि पर्सनैलिटी डिवेलपमेंट वाले इसका जवाब नहीं देते कि आखिर जब रॉबर्ट ने भी ये नियम सीखे थे तो क्यों बुरे वक्त में फैमिली ने उसका साथ न दिया? क्यों उसने रिश्तों में वफा नहीं बरती? क्यों उसमें सच को कहने की हिम्मत नहीं बची?

खैर, अगर अब उसके उद्योगपति लोक-व्यवहार को देखें तो वह जरा कम सहनशील हो चुका है। जैसे अपनी आलीशान महंगी कार में बैठकर वह फोन पर अपने अर्दली से कहता है, “बस पता लगाओ कि मेफिल ने हमें अभी तक फोन क्यों नहीं किया है?” तो वह जवाब देता है, “लेकिन मैं कैसे पता लगाऊं”। इस पर रॉबर्ट जरा भड़ककर कहता है, “अरे यार, क्या हर चीज मुझे खुद ही करनी पड़ेगी क्या, बस पता लगाओ। ...लगाओ यार, ...प्लीज। थैंक यू”। ये फटकार वाली लाइन आखिर में जो ‘प्लीज’ और ‘थैंक यू’ शब्द लिए होती है, ये चाशनी का काम करते हैं और लोक-व्यवहार की कला को कायम रखते हैं। जब बैंक के प्रतिनिधि से बात करने एक नियत जगह पर पहुंचता है तो मुश्किल हालातों में नहीं हो पा रहे विलय का गुस्सा उतारते हुए कहता है, “मैं ग्रेसी चौक का शहंशाह हूं (आई एम द ऑरेकल ऑफ ग्रेसी स्क्वेयर), मैं तुम्हारे पास नहीं गया था तुम मेरे पास आए थे...” पर जब सामने वाला कहता है, “रॉबर्ट मुझे लगता है हम बेकार बात कर रहे हैं (उसकी अरुचि दिखने लगती है, हो सकता है वह उठकर ही चला जाए)” तो तुरंत अपना रुख बदलते हुए रॉबर्ट कहता है, “अच्छा छोड़ो, छोड़ो, डील को भी भूल जाओ...”। यूं कहकर वह बात बदल देता है और बाद में उसी बिंदु पर घूमकर ज्यादा बेहतरी से आता है।

निकोलस जरैकी की ये पहली फीचर फिल्म है, इससे पहले वह टीवी सिरीज और डॉक्युमेंट्री फिल्मों व फीचर फिल्मों के तकनीकी पक्ष से जुड़े रहे हैं। वह मशहूर जरैकी परिवार से हैं। उनके माता-पिता दोनों न्यू यॉर्क में ही कमोडिटी ट्रेडर रहे हैं। आर्थिक जगत की कहानी का विचार उन्हें इसी पृष्ठभूमि से आया। उनके तीन भाई हैं। एक एंड्रयू जो फिल्म पोर्टल और वेबसाइट ‘मूवीफोन’ के सह-संस्थापक रहे हैं और जिन्होंने 2003 की मशहूर डॉक्युमेंट्री ‘कैप्चरिंग द फ्रीडमैन्स’ बनाई थी। दूसरे हैं थॉमस जो वित्त अधिकारी हैं। तीसरे हैं यूजीन जो खासतौर पर अपनी डॉक्युमेंट्री फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने ‘वाइ वी फाइट’, ‘फीक्रोनॉमिक्स’ और ‘द हाउस वी लिव इन’ जैसी कई चर्चित डॉक्युमेंट्री बनाई हैं।

प्रतिभाशाली निकोलस ने अपने बूते बिना बड़े हॉलीवुड स्टूडियो के सहयोग के आर्बिट्राज बनाई है। रिचर्ड गेयर और सूजन सैरेंडन समेत सभी अदाकारों के पास ये स्क्रिप्ट लेकर जाना उनके लिए किसी सपने से कम न था। वह गए, सबने स्क्रिप्ट पर भरोसा किया, उन्हें परखा और हां की। किसी भी लिहाज से अमेरिका की बाकी मुख्यधारा की फिल्मों से कम न नजर आने वाली ये फिल्म पूरी तरह चुस्त है और सबसे प्रभावी है इसकी निर्देशकीय प्रस्तुति। सभी वॉल स्ट्रीट फिल्मों के स्टीरियोटाइप्स से परे ये फिल्म देखने और समझने में जितनी आसान है, थ्रिल के पैमाने पर उतनी ही इक्कीस। अगर किसी युवा को महत्वाकांक्षी फिल्म बनानी हो और बजट का भय हो तो उसे आर्बिट्राज देखनी चाहिए जो उसे हौसला देगी और सिखाएगी कि कहानी और स्क्रिप्ट है तो सब कर लोगे। अमेरिकी फिल्मों के आने वाले चमकते चेहरों में निकोलस का नाम पक्का है। वह कसावट और अभिनव रंगों से भरी फिल्में बनाएंगे क्योंकि उनकी फिल्मी व्याकरण का आधार बहुत मजबूत है। बस जितने धाकड़ विषय, उतनी उम्दा फिल्में।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 20, 2012

100 करोड़ की कमाई बकवास बात हैः अभिषेक कपूर

‘रॉक ऑन’ के पांच साल बाद अपनी फिल्म ‘काई पो चे’ लेकर आ रहे निर्देशक अभिषेक कपूर से बातचीत। अगले साल फरवरी में रिलीज होने वाली इस फिल्म में राज कुमार यादव, सुशांत राजपूत, अमित साध और अमृता पुरी जैसे चेहरे नजर आएंगे।

Raj Kumar Yadav, Sushant Rajput and Amit sadh seen in movie's official poster

अभिषेक कपूर से मैं पहली बार सितंबर, 2010 में मिला था। ‘फीयर फैक्टर: खतरों के खिलाड़ी-3’ में वह प्रतिभागी थे। कार्यक्रम के बारे में बात करने वह अपने सह-प्रतिभागी शब्बीर अहलुवालिया के साथ चंडीगढ़, हमारे दफ्तर पहुंचे थे। मुख्यतः उस कार्यक्रम से जुड़े सवाल पूछते हुए मेरे मन में चल रहा था, कि ये वही है जिसने ‘रॉक ऑन’ का निर्देशन किया था? क्या हो गया है इसे? क्यों किसी टीवी कार्यक्रम के करतबों में खुद को जाया कर रहा है? पर वह जिंदगी को लेकर ज्यादा शिकायती नहीं लगे, तो ज्यादा नहीं टटोला। ऐसा नहीं था कि निर्देशन ही उनका इलाका रहा था। अभिनय से उनका गहरा नाता पहले था। 1995 में आई फिल्म ‘आशिक मस्ताने’ की छोटी सी भूमिका को छोड़ दें तो दो हिंदी फिल्मों में बतौर हीरो वह दिख चुके थे। पहली थी ‘उफ ये मोहब्बत’, जिसमें वह ट्विंकल खन्ना के लिए बौद्ध मठों में “उतरा न दिल में कोई इस दिलरुबा के बाद...” गाना गाते हुए एक टिपिकल हिंदी फिल्म हीरो वाले स्टेप्स करते आज भी याद आते हैं। दूसरी थी 2000 में आई ‘शिकार’। दोनों ही फिल्में नहीं चलीं और एक उगते अभिनेता का सूरज ढल गया। 2004 तक आते-आते उन्होंने यश चोपड़ा की फिल्म ‘वीर-जारा’ का स्क्रीनप्ले लिखा। इसके दो साल बाद बॉक्सिंग की कहानी को लेकर सोहेल खान के साथ ‘आर्यन’ बनाई। वह अब निर्देशक बन गए थे। पर संघर्ष जारी रहा। फिल्म नहीं चली। दो साल बाद बतौर निर्देशक उनकी दूसरी फिल्म ‘रॉक ऑन’ लगी। यहां से उनके लिए दुनिया बिल्कुल बदल गई थी। इस फिल्म ने लोगों के दिल में खास जगह बनाई, फरहान अख्तर को बतौर अभिनेता पहला मंच देते हुए स्थापित भी किया, अर्जुन रामपाल को उनके मॉडल वाले पट्टे से मुक्ति देते हुए ‘जो मेस्केरेनहैस’ जैसा यादगार किरदार दिया और अगले साल दो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते। उनसे अब दूसरी बार बातें हो रही थीं। वजह थी ‘काई पो चे’। चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास ‘3 मिसटेक्स ऑफ माई लाइफ’ की कहानी पर बनाई गई ये फिल्म 22 फरवरी, 2013 को भारत और बाहर लगनी प्रस्तावित है।
 
तो इस बार उन्हें देख रहा था बदले स्वरूप में। गालों पर घनी काली दाढ़ी छा चुकी थी। बीच-बीच में कुछ सफेद बाल निकल आए थे। आंखों पर जॉन लूक गोदार जैसे ऑटरों के माफिक काला चश्मा लगा था। बातों में निर्देशकों वाली खनक ज्यादा थी। समझदारी थी। इस अवतरण के इतर वह ट्विटर पर जॉन लेनिन, जी. बी. शॉ और विलियम ब्लेक को उद्धरित करने लगे थे। उनके निर्देशक दिमाग को जरा और समझने की इच्छा हो तो कुछ वक्त ट्विटर पर ही हो आ सकते हैं। यहां वह ज्यादातर दर्शन की बात करते हुए लिखते हैं... “रचनात्मकता तब जिंदा हो उठती है जब हम अपने आराम के दायरे से बाहर निकलते हैं. जब हम डर के भ्रम को तोड़ डालते हैं. प्रदीप्ति बस उसी के बाद है. जादुई!” और... “ये जो दो गहरी सांसों के बीच हम आराम पाते हैं न, कई बार पूरे दिन में बस वही एक सबसे जरूरी चीज होती है.” सपट भावों को बिना छाने, आने देने की प्रवृति भी कभी उनमें नजर आती है। मसलन... “आहहहह!! मैंने अपना बटुआ खो दिया.. लग रहा है कि मैं एक मूर्ख हूं... मुझे वो वापस चाहिए.. हे विश्व क्या तुम सुन रहे हो!” या “एयरपोर्ट पर आज मेरा सबसे बुरा अनुभव रहा.. थाई एयरवेज तुम्हारी ऐसी की तैसी...” सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी वह भावुक और समझदार टिप्पणी करते हैं। इसमें इजरायल-फिलीस्तीन हिंसा है तो कसाब की फांसी भी। “इजरायली और फिलीस्तीनी जो एक-दूसरे के साथ कर रहे हैं उसे देख दिल टूटा जाता है। हालात बेहद नाजुक लग रहे हैं। दुआ है कि अक्लमंदी बरपे”। और  “कसाब को लटकाने को लेकर लोगों की खुशी को मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इससे न तो हो चुके नुकसान की भरपाई हो पाएगी, न ही अपने पड़ोसी मुल्क के साथ अपनी मुश्किलों को दूर करने में हमें मदद मिलेगी”। उनकी निजी जिंदगी, बीते अफेयर और एकता कपूर के ममेरे भाई होने के पेशेवर फायदों वाले सवालों से ज्यादा रुचिकर है एक निर्देशक वाले मन में झांकना। क्योंकि इससे ज्यादा बेहतरी से पता चलता है कि ‘काई पो चे’ बनाने वाला व्यक्तित्व भावुक, तार्किक, शैक्षणिक और बौद्धिक तौर पर कैसा है, और वही जानना जरूरी भी है।
Abhishek Kapoor, In conversation.

तो, काई पो चे! सबसे पहली तो अनूठा नाम रखने की बात और इस तीन शब्दों वाले नाम के मायने। अभिषेक बताने लगते हैं, “जब पतंग कटती है तो गुजरात में काटने वाला चिल्लाता है काई पो चे। यानि कि वो काटा। इस नाम में मुझे जिस किस्म की ऊर्जा महसूस हुई, किसी दूसरे नाम में नहीं हो सकती थी। ऊर्जा भरा नाम इसलिए भी जरूरी था क्योंकि युवा मन और यूथ की फिल्म है। कहानी के केंद्र में ढेर सारी एनर्जी है। फिल्म की पृष्ठभूमि गुजरात है तो ये नाम सटीक बैठता है। एक अहम निहित अर्थ ये भी है कि फिल्म की थीम में जैसे तीन यारों की दोस्ती एक बिंदु पर टूटती है, वैसे ही है पतंगों का कटना। दोनों ही बातों में एक किस्म का सांकेतिक जुड़ाव है”। पहले ऐसा भी बताया जा रहा था कि फिल्म चेतन के ही अंग्रेजी उपन्यास ‘टू स्टेट्स’ पर बन रही है, मगर ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में अभिषेक बताते हैं कि उन्हें ‘टू स्टेट्स’ और ‘3 मिसटेक्स...’ में से कोई एक कहानी चुननी थी। ऐसे में उन्होंने दूसरे उपन्यास की कहानी इसलिए चुनी क्योंकि बतौर फिल्मकार दूसरी कहानी में बदलाव करने की गुंजाइश ज्यादा थी। इसमें लव स्टोरी भी थी, भूकंप भी, पॉलिटिक्स भी और दोस्ती भी। और जाहिर है उन्हें दोस्ती ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया, तो फिल्म की मुख्य थीम दोस्ती हो गई। जब ये तय हो गया तो लिखने की बारी आई। हालांकि ‘रॉक ऑन’ सफल रही थी पर उसके पहले उनकी राह में काफी संघर्ष रहा, ये वह यहां स्वीकारते हैं। जब ‘काई पो चे’ को लेकर बाकी योजनाएं बन गई तो उन्होंने 8-10 महीने की छुट्टी ली और फिल्मी प्रारुप में इस कहानी को लिखा। वह कहते हैं, “जब आप किताब या उपन्यास को एडेप्ट करते हो फिल्मी स्क्रीनप्ले में, तो बहुत टाइम लगता है। खुद को दीन-दुनिया से पूरी तरह काटना पड़ता है”।

ये कहानी तीन अमदावादी (अहमदाबादी) लड़कों और नई सदी के नए भारत में उनके सपनों, आकांक्षाओं, टूटन और मिलन की है। मगर तीनों ही किरदारों में अभिषेक ने नए चेहरों को चुना। ईशान, ओमी और गोविंद के ये किरदार निभाए हैं टीवी के ज्ञात चेहरे सुशांत सिंह राजपूत, बिग बॉस में नीरू बाजवा (अब स्थापित पंजाबी हिरोइन) की तस्वीर लिए फफकते रहने वाले अमित साध और इन दिनों बहुत ही तेजी से शानदार फिल्मों में नजर आ रहे राज कुमार यादव (लव सेक्स और धोखा, रागिनी एमएमएस, गैंग्स ऑफ वासेपुर-2, शैतान, चिटगॉन्ग, तलाश, काई पो चे और इनके इतर एक बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म, शाहिद) ने। किसी स्थापित अभिनेता को नहीं लेने की इस बात पर अभिषेक बोले, “ऐसा नहीं है कि मैंने बड़े स्टार्स को इन भूमिकाओं में लेने के बारे में सोचा नहीं था। मैंने सोचा था। मगर जब आप तीन लड़कों की कहानी कह रहे हो और बात एक खास उम्र समूह की कर रहे हो तो फिर उम्रदराज अभिनेता लेने संभव न थे। और फिर मेरे प्रॉड्यूसर्स ने भी इस मामले में पूरी आजादी दी कि मन की कास्टिंग कर सकूं। इस दौरान मैंने कई एक्टर देखे। फिल्म शुरू होने से पहले मैंने डेढ़ साल कास्टिंग करने की चाह में बिता दिए। भई नॉवेल था तो अलग कास्ट होनी भी तो बहुत जरूरी थी। तभी मैंने इन लड़कों को देखा। जब टीवी पर ये नजर आए तो मुझे वही एनर्जी नजर आई जो मेरी फिल्म के किरदारों में होनी थी”।

इस दौरान वह उस सवाल को खारिज कर देते हैं जो फिल्म की रिलीज से पहले बहुत ओर से पूछे जा रहे हैं। कि भला टीवी वाले एक्टर एक बड़ी हिंदी फिल्म में गहन-गंभीर एक्टिंग कैसे दे पाएंगे? अभिषेक कहते हैं कि टीवी वालों की एक्टिंग को किसी अलग श्रेणी में बांटना बकवास बात है। टेलिविजन पर बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, सभी टेलेंटेड हैं और काम को लेकर बेहद ईमानदार हैं। वह उस 100 करोड़ क्लब वाली फिल्मों के सवाल पर भी नाखुश नजर आते हैं। ये राहत की बात है कि इस आंकड़े के पागलपन के बीच बतौर निर्देशक उनका ये जवाब स्पीडब्रैकर का काम करता है। वह बोलते हैं, “100 करोड़ रुपये की कमाई करने का दबाव मुझे बकवास बात लगती है। मुझे समझ नहीं आता कि ये 100 करोड़-100 करोड़ है क्या? क्यों है? हर तरह की फिल्म होती है और फिल्म अपनी कमाई से बेहतर नहीं होती है। कुछ फिल्मों ने कमाई कर ली तो आखिर बाकियों को भी उसमें छलांग लगाने के लिए क्यों कहा जा रहा है?” बात जब एक और स्टीरियोटिपिकल या सांचे में ढले सतही सवाल (आइटम नंबर) पर आती है तो वह शांत होकर कहते हैं, “जबर्दस्ती का लफड़ा फिल्म पर भारी पड़ सकता है। और फिर ऐसी चीजें सेंसिबल फिल्मों के कथानक को बहुत ज्यादा बाधित करती हैं। हमारी फिल्म एक संजीदा कोशिश है और उसमें कोई ऐसा खतरा हम नहीं उठा सकते थे। हालांकि फिल्म में गाने जरूर होंगे। पर अलग तरीके से और अलग संदर्भों में होंगे”। फिल्म में संगीत अमित त्रिवेदी का है। अभिषेक गुजराती किरदारों के टीवी और फिल्मों में इन दिनों किए जाने वाले स्टीरियोटिपिकल चित्रण से जुड़ी चिंता पर आश्वस्त करते हैं। कहते हैं, “गुजराती लोगों का जैसा घिसा हुआ चित्रण किया जाता है, मैं आपको पूरी तरह भरोसा दिलाता हूं कि इस फिल्म में कतई नहीं होगा”।

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गजेंद्र सिंह भाटी