बुधवार, 27 जून 2012

अनुराग के पास लेखकों की लाइन लंबी थी मुझमें धैर्य नहीं था, गाना लिखने वालों की लाइन छोटी थी, उसमें आ गया

गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखने वाले कुशल गीतकार वरुण ग्रोवर से बातचीत
 गर्मियों की छुट्टियां हैं और एक साल बाद वरुण के माता-पिता उनसे मिलने मुंबई आए हैं। इस बार उनका बेटा स्टैंड अप कॉमेडी वाले टीवी शोज में सटायर लिखने वाला राइटर भर नहीं है, अब वह 'गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी बड़ी हिंदी मूवी के दिनों-दिन हिट हो रहे गानों को लिखने वाला गीतकार हो चुका है। ‘भूस के ढेर में राई का दाना’, ‘ओ वुमनिया’, ‘जिया हो बिहार के लाला’ और ‘आई एम अ हंटर’ उन्होंने ही लिखे हैं। जब उनसे बात होती है तो वह बताते हैं कि उनकी आने वाली फिल्मों में वासन बाला की ‘पेडलर्स’ और आशीष शुक्ला की ‘प्राग’ है, जिनके गाने भी उन्होंने लिखे हैं। कामगारी जिदंगी के इस सफल शुरुआती पड़ाव में उनसे ये बातचीत, इस उम्मीद के साथ की आगे भी बहुत बार बातचीत होगी।

लालन-पालन से लेकर मुंबई आने तक, कैसे?
देहरादून में पांचवीं क्लास तक पढ़ा। फिर लखनऊ 12वीं तक। वहीं पर एक साल कोचिंग की। उसके बाद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर पूना (पुणे) में जॉब लग गई। 2004 में बॉम्बे (मुंबई) आ गया। यहां रहते हुए लिखने का काम कर रहा हूं तब से। यहां राइटर बनने ही आया था। संक्षेप में तो यही यात्रा रही।

कब ये लगा कि जोखिम लेकर मुंबई जा सकता हूं, ये या वो कर सकता हूं?
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था। बीएचयू में थियेटर का अच्छा माहौल था। फैकल्टी भी थी। कैंपस में, हॉस्टल में रहने से तरह-तरह की परफॉर्मिंग आट्र्स को देखने का मौका मिला। वहां इंटर यूनिवर्सिटी फेस्ट भी होता है, देश भर का टेलेंट थियेटर से आता है, तो वो किस्मत से मिला। उसी से विश्वास आया। 2002 में मेरा नाटक युनिवर्सिटी लेवल पर और उसके बाद यूथ फेस्ट में चुना गया, ईस्ट जोन में गोल्ड जीता, उससे लगा कि इसे थोड़ा आगे ले जाया जा सकता है। लगा, चल सकते हैं बॉम्बे।

मुंबई आने के बाद?
2004 में कुछ खास था नहीं मुंबई में। 2005 में अच्छा टीवी शो मिल गया था, ‘ग्रेट इंड़ियन कॉमेडी शो’। बड़े और अच्छे लोगों की टीम मिली। रणवीर शौरी और विनय पाठक जैसे कई अच्छे एक्टर उसमें थे। सटायर लिखने का मुझे शौक था ही। इसमें स्टैंड अप कॉमेडी लिखने को मिलती थी। अच्छा शो था। एक्सपोजर मिला। तब से गाड़ी पटरी पर आई।

फिर?
टीवी पर पिछले आठ साल में जितने भी सटायर वाले शो आए, उसका हिस्सा रहा। ‘रणवीर विनय और कौन’ था। आज तक पर आने वाला ‘ऐसी की तैसी’ था, जो आठ महीने चला। इसमें रोजाना की न्यूज पर जोक होते थे। फिर ‘कॉमेडी का मुकाबला’, शुरू में उसमें स्टैंड अप का कंटेंट ज्यादा था, उसमें राजू श्रीवास्तव और राजीव निगम थे, अब तो बिगड़ गया है। फिर ‘जय हिंद’ ऑनलाइन है। कलर्स पर लेट ऩाइट शो आता है। जीटीवी और सब टीवी पर भी थे, जो चले भी नहीं और किसी को याद भी नहीं होंगे। फिर ‘जॉनी आला रे’ आया, जॉनी लीवर का, वो चला नहीं। फिर ‘ओए इट्स फ्राइडे’ फरहान अख्तर के साथ, उसमें लिखता था। फिर एक बच्चों की फिल्म थी ‘जोर लगाके हय्या’ वो लिखी। कोई स्टार भी नहीं था और सीरियस इश्यू पर थी तो चली नहीं। साथ में फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखता रहा। पता नहीं था कि यहां हो पाएगा कि नहीं, यहां तो कई साल वैसे भी बीत जाते हैं।

अनुराग कश्यप से कैसे जुड़े? ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ में एक गाना आपने लिखा था।
‘...यैलो बूट्स’ में एक कबीर का भजन म्यूजिक डायरेक्टर ने यूज किया वो तो मैंने नहीं लिखा। एक गाना था ‘लड़खड़ाया’ 20-25 सैकेंड का, वो मैंने लिखा था। अनुराग एक छोटी फिल्म बना रहे थे 12 दिन में शूट करके, 20-25 लाख में बनने वाली थी। मैं पहले भी मिलता रहा था कि गाने लिखने वाला चाहिए हो तो... क्योंकि लेखक के तौर पर लंबी लाइन उनके पास है, दूसरा वो खुद भी लिखते हैं तो यहां मौका मिलने में एक लंबा इंतजार था, मुझमें शायद इतना पेशेंस नहीं था, लिरिक्स राइटर की लाइन उनके पास छोटी थी तो मैं पहुंच गया। उन्होंने कहा, ठीक है लिखो, गाने तो हैं नहीं, एक छोटा सा गाना है। उसी दौरान ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की तैयारी शुरू हो गई। ऑफिस में बात चल रही थी। मैंने कहा, उसमें भी मौका दो। उन्होंने कहा कि म्यूजिक डायरेक्शन स्नेहा कर रही है तो उससे मिल लो, कुछ बनाकर दिखाओ। अच्छा लगा तो लेंगे। तो मैंने ‘भूस के ढेर में राई का दाना’ लिखा। उन्हें पसंद आया और ले लिया।

क्या माहौल था इस गाने के लिए?
सटायर है, पॉलिटिकल मीनिंग वाला गाना है, ऐसे वक्त में आता है जब इमरजेंसी खत्म हुई है। कैदी लोगों ने जेल में बैठ मंडली बनाई है और गा रहे हैं। एक दिमाग में था कि ‘तीसरी कसम’ वाले सॉन्ग ‘पिंजरे वाली मुनिया’ की तरह कुछ बनाएं। कुछ टेढ़ा हो। जेल का था तो थोड़ा पॉलिटिकल हालत देश की बताने की कोशिश थी कि देश में हर आदमी हताश हो गया है, कि नेहरु जी ने वादा किया था जो 1947 में देश की जनता के साथ, वो बेकार हो गया। तभी गाने में हर लाइन के बाद कहा जाता है ‘ना मिलिहे...’। उसमें आसानी से स्पेल आउट नहीं किया गया है, पर फिल्म देखें तो ऊपर लिखकर आता है। इंस्पिरेशन ‘तीसरी कसम’ था, इसलिए मॉडर्न साउंड वगैरह भी नहीं हैं।

वुमनिया कैसे लिखा गया और बना?
ये शब्द स्नेहा ने दिया। हम कोई शादी का गाना बनाना चाह रहे थे। तीन जेनरेशन है फिल्म में तो शादियों के दो गाने बनाने थे, एक पार्ट वन में एक पार्ट टू में। रिसर्च किया कि शादियों में वहां गाने कैसे होते हैं? किस लेवल का मजाक और बदतमीजी होती है? उसी दौरान स्नेहा के जेहन में ‘वुमनिया’ शब्द आया क्योंकि छेड़छाड़ वाला गाना है। शुरू में मुझे लगा कि सही नहीं है, पर लिखना शुरू किया तो इस शब्द में से ही बहुत सी इंस्पिरेशन निकलकर आई। वुमनिया है तो उसे डिस्क्राइब करने के लिए मॉडर्न शब्द भी जोड़े और देहाती भी। जब लिखना पूरा हुआ... म्यूजिक के बिना लिखा था, फ्री फ्लो में, फिर उसे कंपोज किया गया। उस वजह से तीन अलग फेज में गाना बना। कंपोज करने के बाद मीटर के हिसाब से लाइनें कम लगीं तो मैंने जोड़ा। फिर वो पूरा हुआ। पूरा बनने के बाद लगा कि ऑड नहीं है। क्योंकि मुझे कुछ लोग मिले हैं जो कहते हैं कि सही नहीं है गाना, बिहार के लिंगो के हिसाब से सही प्रयोग नहीं है। पर मुझे लगता है कि ऐसे ही भाषा में नए शब्द आते हैं। अगर भाषा में नहीं तो कम से कम गाने में तो आ ही सकते हैं।

आई एम अ हंटर...
करेबियन गई थी स्नेहा, वेस्टइंडीज। रिसर्च के लिए। उसे पता था कि माइग्रेंट हैं जो 1850 के आसपास यूपी और बिहार से गए थे। उसने वो म्यूजिक सुना हुआ था चटनी म्यूजिक, भोजपुरी और करेबियन इंस्ट्रूमेंट और शब्दों से बना हुआ। वह गई कि क्या पता वहां कोई बुजुर्ग सिंगर मिल जाए, ऐसा गाने वाला। गई तो वहां उन्हें वेदेश सुकू मिले। बिहारी ऑरिजन के हैं, पर हैं वेस्टइंडियन। हिंदी बोलते भी हैं तो अपने एक्सेंट में। वो कुछ अश्लील से गाया करते थे। स्नेहा ने उनके पुराने गाने भी सुने, कुछ एक-दो सॉन्ग थे। फिल्म में बंदूकें बहुत हैं इसलिए एक बंदूक का गाना भी चाहिए था। तो बना। पर लोगों को लगा कि कुछ हिंदी भी हो जाए तो ठीक है। हिंदी मैंने लिखा और अंग्रेजी वेदेश सुकू ने। मुझे तो आज तक भी कुछ वर्ड समझ नहीं आते अंग्रेजी के, क्योंकि एक्सेंट भी वैसा है। मुझे लिखने से पहले लगा कि अश्लील नहीं लगना चाहिए। तो 'हम हैं शिकारी, पॉकेट में लंबी गन, ढांय से जो छूटे, तन-मन होवे मगन’ लिखा। मेरे लिए सबसे आसान गाना था।

जिया हो बिहार के लाला...
स्नेहा हर बड़े जिले में घूमी। वहां का फोक म्यूजिक सुनकर आई। मैथिली, अंगिका, मगही, बजिका... चारों भाषाओं में रिकॉर्ड करके लाई, बहुत सारा सामान था हमने घंटों बैठकर सुना। फ्रेज, शब्द, सेंस सब निकाले। उसी में से ‘जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला, तनी नाची के तनी गाई के, तनी नाची गाई सबका मन बहलावा रे भईया...’ ये इतना हमें मिल गया था। नौटंकी मुकाबलों में सिंगर आते हैं स्टेज पर और गाते रहते हैं रियाज के तौर पर 20-20 मिनट, तो हमें लगा कि इसे ही लेना चाहिए। इस गाने को हमने आगे बढ़ाया।

कितनी खुशी है, जिस तरह के संतोष भरे काम का बरसों इंतजार रहता है, आप उसका हिस्सा हैं?
बहुत ज्यादा खुशी है, इतना ज्यादा अच्छा प्रोजेक्ट मिलना क्योंकि ‘...यैलो बूट्स’ में एक ही गाना था। ‘गैंग्स...’ एक फोक प्रोजेक्ट था। इसमें सब के सब गाने इतने अलग हैं। फिर स्नेहा जैसी म्यूजिक डायरेक्टर का होना, जो एसी स्टूडियो में बैठकर काम करना पसंद नहीं करती है। पूरी फिल्म में पीयूष मिश्रा, अमित त्रिवेदी, स्नेहा और मनोज तिवारी के अलावा कोई ऐसा सिंगर नहीं था जिसने पहले कभी स्टूडियो भी देखा हो। सब नए सिंगर थे, फोक थे, जमीन से जुड़े थे। रिजल्ट भी नजर आ रहा है। अनुराग कश्यप खुद इतना ज्यादा फ्रीडम देते हैं, नहीं तो उनके लिए श्रेया घोषाल या सोनू निगम से गाने गवाकर बेच पाना बड़ा आसान होता, म्यूजिक कंपनियां भी राजी होतीं। यहां वो डर रही थीं, कि क्या गाने हैं, मनोज तिवारी को भी उस अंचल में ही लोग जानते हैं, लेकिन अनुराग अपने फैसले पर अड़े रहे। बस एक गाने में हम अटके थे। अनुराग ने कहा था कि बड़ा सिंगर ले लो, पर स्नेहा ने कहा कि नहीं। ‘भूस के ढेर में के लिए...’ जैसे आठ बार गवाया गया अलग-अलग लोगों से, ढूंढते-ढूंढते कि कोई थोड़ा गा दे फिर देखें। फिर आखिर में दिल्ली में मिले टीपू।

घरवालों को घबराहट नहीं हुई कि मुंबई में राइटर बनने जा रह है?
घर से बड़ा सपोर्ट मिला। पापा-मम्मी ने एक बार भी नहीं कहा कि जॉब क्यों छोड़ी। पापा को भी बचपन से शौक है फिल्मों का। उन्होंने जिदंगी भर सरकारी काम किया है तो जानते हैं कि बोर होता है सरकारी काम। खुशी-खुशी सपोर्ट किया।

बाहर बैठकर फिल्मों पर लिखना, उनकी आलोचना करना और बाद में फिल्म के भीतर होने पर उनपर कोई भी बात आलोचनात्मक ढंग से कह पाना कितना आसान रह जाता है?
आसान नहीं रहता। पर कोशिश रहती है कि कुछ तो कहूं। जैसे ‘...यैलो बूट्स’ आई। हमने घंटा अवॉर्ड्स में फिल्म को नॉमिनेट भी किया था। अनुराग पर मैंने ही जोक भी किए थे। तो इतनी फ्रीडम तो होनी ही चाहिए। मेरे पास अलग-अलग मंच भी हैं जहां से मैं बोल सकूं। कोशिश है कि सटायर करता रहूं।

टीवी पर, ट्रेलर्स में, दोस्तों के बीच... जब अपने लिखने गाने आने लगते हैं, तो कुछ आभास होता है सेलेब्रिटी राइटर होने का?
इंडस्ट्री में मुझे नहीं लगता कि राइटर्स की जिदंगी कभी सुधरती है। वो सेलेब्रिटी नहीं होते। पचास साल में सिर्फ जावेद अख्तर और गुलजार ही हुए हैं, अब प्रसून जोशी हैं। वो ही स्टार हो पाए हैं। बाकी राइटर्स को कोई स्टार नहीं मानता। मैंने बहुत कम मीडिया में देखा है, सिर्फ प्रॉड्यूसर्स के ही इंटरव्यू आ रहे होते हैं। ये राइटर्स के लिए सुकून वाली बात है। हां स्कूल के दोस्तों के फोन आऩे लगे हैं। कि ये तू ही है क्या।

कान और दूसरे फिल्म फेस्ट में दर्शकों ने ‘गैंग्स...’ जैसी फिल्म को कैसे लिया होगा? क्यों चुना होगा? जिसके गाने हिंदी अंचल के हैं, जिनका कोई आइडिया उन दर्शकों को नहीं है, जिसमें ह्यूमर और हाव-भाव समझना विदेशी दर्शकों के लिए इतना आसान भी नहीं।
लोग बाहर के कल्चर को जानने को उत्सुक रहते हैं, इंटरनेट का युग आने के बाद से। वो जानना चाहते हैं और आसानी से स्वीकार भी करते हैं। उनमें जो ‘वासेपुर...’ देखने आए तो जानबूझकर आए। कान जैसे फिल्म फेस्ट में एक-एक घंटा कीमती होता है। हमें भी वहां बुकलेट मिलती है तो प्रेफरेंस ऑफ ऑर्डर में टिक करते हैं कि पूरे दिन क्या देखना है। गूगल करके देख लेते हैं कि कौन है, उसने पहले क्या फिल्म बनाई है। तो जो लोग ‘...वासेपुर’ देखने आए तो वो अनुराग को जानते होंगे, या गैंगस्टर ड्रामा देखने आए होंगे। आपको उनको चौंकाना है तो लिमिट तक ही, यानी कि उम्मीद से जरा ज्यादा। उस वजह से अच्छा रहा। मैंने ये केलकुलेशन पहले नहीं की थी तो सरप्राइज हुआ कि विदेशी लोग हिंदुस्तानी फिल्म के लिए तालियां बजा रहे हैं। मुंबई में पले-बढ़े लड़के को बोलें ‘...वासेपुर’, तो वो नहीं देखेगा पर इंडिया से बाहर के आदमी के लिए भोजपुर और इंडिया का भेद नहीं होता। वो एक ही मुल्क की फिल्म मानते हैं। ओपन माइंड से देखते हैं। यहां के लोग नुक्स बहुत निकालेंगे कि बिहारी ऐसा होता है, नहीं होता है। लोग जजमेंटल होते हैं। बाहर नॉन-जजमेंटल व्यू मिला। अनुराग की फिल्मों को वैसा व्यू मिलता रहता है। वो कुछ कहती हैं।

पर ‘जिया हो बिहार के लाला’ जैसे गानों को कोई विदेशी उनकी पूरी देशज समझ में कैसे देख पाया होगा?
इस फिल्म में बहुत ही वेस्टर्न सेंसेबिलिटी के हिसाब से गाने बने हैं। वो फिल्म के एटमॉसफेयर का हिस्सा हैं, माहौल बनाते हैं, पंद्रह-बीस सेकेंड तक लाउड होते हैं, फिर चले जाते हैं पीछे बजते रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहरी फिल्मों में होता है कि गाना और म्यूजिक मूड बनाता है। यहां भी गाने बहुत हद तक वैसे ही यूज हुए हैं। दूसरा, नीचे सबटाइटल होते हैं, जैसे हमने इनारितू की देखी थी ‘एमेरोस पेरोस’ जिसमें नीचे सबटाइटल में पोएट्री आती है, तो उसे मैं बड़े चाव से देखता हूं। मैं फिल्म बार-बार लगाकर देखता ही उस पोएट्री की वजह से हूं, बाद में बंद कर देता हूं। और गाने की पोएट्री की भाषा ज्यादा यूनिवर्सल होती है। इस फिल्म में ऐसा है तो ये नई चीज है और लोगों को पसंद आए। लास्ट में ‘जिया तू बिहार के लाला’ आया तो कान में लोग काफी देर तक खड़े होकर, नीचे लिखकर आ रही पोएट्री भी पढ़ते रहे, ढूंढते रहे।

अनुराग के नाम, या गैंग्स जैसे टाइटल, या ऑफबीट इंडियन फिल्म, या इंडियन टैरेंटीनो... ऐसी अटकियों की वजह से क्या ऐसा तो नहीं हुआ होगा कि वहां दर्शकों ने फिल्म देखने से पहले ही उसे इतनी दिव्यता अपने मन में दे दी कि देखना शुरू करने के बाद हर सेकेंड को आलोचनात्मक नजर से नहीं भक्त की नजर से देखा होगा। मसलन, इनारितू को या कोरियाई किम की डूक को ले लें। उन्हें उनके मुल्क के दर्शकों ने उतना सम्मान नहीं दिया जितना कल्ट रुतबा बाहर के दर्शकों ने दिया?
इस पर मैंने ज्यादा नहीं सोचा है पर हां, हो सकता है इस फिल्म के साथ हुआ होगा। एक ये भी वजह है कि फिल्म की हर लेयर को हम नहीं जानते हैं, तो उसे ज्यादा भक्ति या रेवरेंस के साथ देखते हैं। जैसे हम इनारितू की फिल्म को देखते हैं तो वो हमारी फिल्म को देखते हैं। ये जायज भी है।
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गजेंद्र सिंह भाटी