फिल्मः वेस्ट इज वेस्ट
डायरेक्टरः एंडी डिमोनी
राइटरः अयूब खान-दीन
कास्टः ओम पुरी, अकिब खान, लिंडा बैसेट, विजय राज, इला अरुण, राज भंसाली, एमिल मारवाह, नदीम सावल्हा,लेस्ली निकोल
स्टारः तीन 3.0
कहानी कहने के तरीके में 'ईस्ट इज ईस्ट’ में एक नॉवेल जैसा रोमांच, एक टेंशन हर मोड़ पर रहती है कि अब क्या होगा। इस टेंस-फैमिली ड्रामा के उलट 'वेस्ट इज वेस्ट’ किसी पुरानी खुद को एक्सप्लोर करने वाली अच्छी कहानी जैसी लगती है। सैलफर्ड के हरदम गीले रहने वाले आसमान और मुहल्ले को छोड़कर इस फिल्म में हम पहुंचते हैं धूल भरे पाकिस्तान में। जो पेस पसंद करने वाले दर्शक हैं उन्हें कहीं-कहीं फिल्म धीमी लगेगी। मगर मुझे अच्छी लगी। साफ-सुथरी, समझ आने वाली, चेहरे पर चुटीली हंसी ले आने वाली और टेंशन फ्री। पर्याप्त फिल्मी एंटरटेनमेंट, पर्याप्त स्टोरी सेंस। हर तरह का सिनेमा पसंद करने वाले इसे देखें और फैमिली ऑडियंस भी ट्राई करें। ब्लैंक होकर दोस्तों के साथ जाएंगे तो मजा आएगा।
खान कहानी: 'ईस्ट इज ईस्ट’ के चार साल बाद 1975 का सैलफर्ड, इंग्लैंड। पिछली मूवी में जहां जॉर्ज खान (ओम पुरी, दूसरा नाम जहांगीर खान) और वाइफ एला (लिंडा बैसेट) का घर सात बच्चों से भरा था, वहीं अब घर में सिर्फ सबसे छोटा बेटा साजिद (अकिब खान) ही दिखता हैं। 15 साल का साजिद पूरी तरह ब्रिटिश है पर स्कूल में लड़के 'पाकी’ कहकर चिढ़ाते हैं। घर पर पिता उसे सच्चा मुसलमान और पाकिस्तानी होते देखना चाहता है। उसके मन में यही पहचान का गुस्सा और कन्फ्यूजन है। स्कूल से आती शिकायतों और उसके बुरे बर्ताव का इलाज जॉर्ज को यही लगता है कि अब अपने असली घर यानी पाकिस्तान लौट चला जाए। बड़े बेटे मुनीर (एमिल मारवा) को तो जॉर्ज पहले ही अपनी पहली बीवी बशीरा (इला अरुण) के पास पाकिस्तान भेज चुका है। फिल्म की कहानी तो इतनी ही जानिए। आगे तो साजिद की जर्नी है। वह पाकिस्तान आने के बाद अपने पिता, अपनी पहचान और अपने अंदर के इंसान को बेहतर तरीके से जान पाता है। इसमें उसकी मदद करते हैं पीर नसीम (नदीम सावलहा) और हमउम्र दोस्त जायद (राज भंसाली)। इन दोनों की एक्टिंग बड़ी मिस्टीरियस और अच्छी लगी। इस फिल्म का अंत ठीक उसी सीन पर होता है, जिस पर 'ईस्ट इज ईस्ट’ खत्म हुई थी।
किरदार क्या करते हैं!: खान साहब का एक्सेंट फिल्म को 'ईस्ट इज ईस्ट’ के बिल्कुल बाद से जारी रखता है। जब ओम पुरी बास्टर्ड को 'बास्टर’ कहते हैं, हर लाइन में 'ब्लूडी’ (ब्लडी) शब्द का इस्तेमाल करते हैं और 30 साल लंकाशायर, इंग्लैंड में रहने के बाद भी हर वाक्य में से वर्ब खा जाते हैं तो ब्रिटेन में रह रहे उस जमाने के सच्चे एशियन लगते हैं। ...और पाकिस्तान में हल चलाने के बाद अपने हाथों पर उगे छालों की दवाई ढंढते हुए हमारी ट्रेडमार्क मां की गाली बोलते हैं तो पूरे पाकी-हिंदुस्तानी लगते हैं। अकिब ने साजिद के रोल को अपनी तरफ से एक आइडेंटिटी दी है, जो कम उम्र में समझ भरी एक्टिंग की निशानी है। सैलफर्ड में गुस्सा करते हुए और पिता से पिटते हुए अकिब अलग मुंह बनाते हैं और पाकिस्तान पहुंचने के बाद बिल्कुल अलग। उनका चौंकने का अंदाज फिल्म में स्पेशल है, देखते ही हंसी फूट पड़ती है। इला अरुण नीव का पत्थर हैं। 30 साल बाद विदेश से लौटे अपने पति को देखने के बाद एक औरत कैसे रिएक्ट करती है, वो इला से सीखना चाहिए। इस सीक्वेंस के दौरान 'पूरब और पश्चिम’ में निरुपा रॉय और प्राण के कई साल बाद मिलने के सीक्वेंस को याद कर सकते हैं।
ईस्ट और वेस्ट फिल्मों में: इस रंग-रूप वाली कई फिल्में हमारे सामने है। 'मॉनसून वेडिंग’, 'नेमसेक’, 'ब्रिकलेन’, 'ईस्ट इज ईस्ट’, 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ और कुछ हद तक 'आउटसोस्र्ड’। सब की सब रुचिकर। 'वेस्ट इज वेस्ट’ में साजिद की जो जर्नी है वही जर्नी 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ के पीटर, फ्रांसिस और जैक की है। बस पाकिस्तान हिंदुस्तान का फर्क है। इस फिल्म में ओमपुरी का कैरेक्टर 'ब्रिकलेन’ के सतीश कौशिक और 'नेमसेक’ में इरफान खान के किरदारों के करीब खड़ा है। हर मायने में नहीं, पर एशियाई पहचान और परदेस आने के बाद बदलते रिश्तों के लिहाज से। इन सब फिल्मों में एक समानता रेफरेंस की भी है। चूंकि 'वेस्ट इज वेस्ट’ एक फनी टेक ज्यादा है इसलिए इसके रविशंकर, गांधी, मोगली और रुडयार्ड किपलिंग के नॉवेल 'किम’ के रेफरेंस अलग लगते हैं, पर ये ऐसी मूवीज का अहम हिस्सा ही हैं।
आखिर में: फिल्म में आप जिस 15 साल के साजिद को देखते हैं, वो फिल्म के लेखक अयूब खान-दीन का असल किरदार है। 1970 में 13 साल के एक लड़के के तौर पर सैलफर्ड में अयूब ने जो जिंदगी बिताई, उसकी ही यादें 'ईस्ट इज ईस्ट’ और 'वेस्ट इज वेस्ट’ जैसी फिल्म बनी। अब तीसरी फिल्म पर काम चालू है।
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गजेंद्र सिंह भाटी
डायरेक्टरः एंडी डिमोनी
राइटरः अयूब खान-दीन
कास्टः ओम पुरी, अकिब खान, लिंडा बैसेट, विजय राज, इला अरुण, राज भंसाली, एमिल मारवाह, नदीम सावल्हा,लेस्ली निकोल
स्टारः तीन 3.0
कहानी कहने के तरीके में 'ईस्ट इज ईस्ट’ में एक नॉवेल जैसा रोमांच, एक टेंशन हर मोड़ पर रहती है कि अब क्या होगा। इस टेंस-फैमिली ड्रामा के उलट 'वेस्ट इज वेस्ट’ किसी पुरानी खुद को एक्सप्लोर करने वाली अच्छी कहानी जैसी लगती है। सैलफर्ड के हरदम गीले रहने वाले आसमान और मुहल्ले को छोड़कर इस फिल्म में हम पहुंचते हैं धूल भरे पाकिस्तान में। जो पेस पसंद करने वाले दर्शक हैं उन्हें कहीं-कहीं फिल्म धीमी लगेगी। मगर मुझे अच्छी लगी। साफ-सुथरी, समझ आने वाली, चेहरे पर चुटीली हंसी ले आने वाली और टेंशन फ्री। पर्याप्त फिल्मी एंटरटेनमेंट, पर्याप्त स्टोरी सेंस। हर तरह का सिनेमा पसंद करने वाले इसे देखें और फैमिली ऑडियंस भी ट्राई करें। ब्लैंक होकर दोस्तों के साथ जाएंगे तो मजा आएगा।
खान कहानी: 'ईस्ट इज ईस्ट’ के चार साल बाद 1975 का सैलफर्ड, इंग्लैंड। पिछली मूवी में जहां जॉर्ज खान (ओम पुरी, दूसरा नाम जहांगीर खान) और वाइफ एला (लिंडा बैसेट) का घर सात बच्चों से भरा था, वहीं अब घर में सिर्फ सबसे छोटा बेटा साजिद (अकिब खान) ही दिखता हैं। 15 साल का साजिद पूरी तरह ब्रिटिश है पर स्कूल में लड़के 'पाकी’ कहकर चिढ़ाते हैं। घर पर पिता उसे सच्चा मुसलमान और पाकिस्तानी होते देखना चाहता है। उसके मन में यही पहचान का गुस्सा और कन्फ्यूजन है। स्कूल से आती शिकायतों और उसके बुरे बर्ताव का इलाज जॉर्ज को यही लगता है कि अब अपने असली घर यानी पाकिस्तान लौट चला जाए। बड़े बेटे मुनीर (एमिल मारवा) को तो जॉर्ज पहले ही अपनी पहली बीवी बशीरा (इला अरुण) के पास पाकिस्तान भेज चुका है। फिल्म की कहानी तो इतनी ही जानिए। आगे तो साजिद की जर्नी है। वह पाकिस्तान आने के बाद अपने पिता, अपनी पहचान और अपने अंदर के इंसान को बेहतर तरीके से जान पाता है। इसमें उसकी मदद करते हैं पीर नसीम (नदीम सावलहा) और हमउम्र दोस्त जायद (राज भंसाली)। इन दोनों की एक्टिंग बड़ी मिस्टीरियस और अच्छी लगी। इस फिल्म का अंत ठीक उसी सीन पर होता है, जिस पर 'ईस्ट इज ईस्ट’ खत्म हुई थी।
किरदार क्या करते हैं!: खान साहब का एक्सेंट फिल्म को 'ईस्ट इज ईस्ट’ के बिल्कुल बाद से जारी रखता है। जब ओम पुरी बास्टर्ड को 'बास्टर’ कहते हैं, हर लाइन में 'ब्लूडी’ (ब्लडी) शब्द का इस्तेमाल करते हैं और 30 साल लंकाशायर, इंग्लैंड में रहने के बाद भी हर वाक्य में से वर्ब खा जाते हैं तो ब्रिटेन में रह रहे उस जमाने के सच्चे एशियन लगते हैं। ...और पाकिस्तान में हल चलाने के बाद अपने हाथों पर उगे छालों की दवाई ढंढते हुए हमारी ट्रेडमार्क मां की गाली बोलते हैं तो पूरे पाकी-हिंदुस्तानी लगते हैं। अकिब ने साजिद के रोल को अपनी तरफ से एक आइडेंटिटी दी है, जो कम उम्र में समझ भरी एक्टिंग की निशानी है। सैलफर्ड में गुस्सा करते हुए और पिता से पिटते हुए अकिब अलग मुंह बनाते हैं और पाकिस्तान पहुंचने के बाद बिल्कुल अलग। उनका चौंकने का अंदाज फिल्म में स्पेशल है, देखते ही हंसी फूट पड़ती है। इला अरुण नीव का पत्थर हैं। 30 साल बाद विदेश से लौटे अपने पति को देखने के बाद एक औरत कैसे रिएक्ट करती है, वो इला से सीखना चाहिए। इस सीक्वेंस के दौरान 'पूरब और पश्चिम’ में निरुपा रॉय और प्राण के कई साल बाद मिलने के सीक्वेंस को याद कर सकते हैं।
ईस्ट और वेस्ट फिल्मों में: इस रंग-रूप वाली कई फिल्में हमारे सामने है। 'मॉनसून वेडिंग’, 'नेमसेक’, 'ब्रिकलेन’, 'ईस्ट इज ईस्ट’, 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ और कुछ हद तक 'आउटसोस्र्ड’। सब की सब रुचिकर। 'वेस्ट इज वेस्ट’ में साजिद की जो जर्नी है वही जर्नी 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ के पीटर, फ्रांसिस और जैक की है। बस पाकिस्तान हिंदुस्तान का फर्क है। इस फिल्म में ओमपुरी का कैरेक्टर 'ब्रिकलेन’ के सतीश कौशिक और 'नेमसेक’ में इरफान खान के किरदारों के करीब खड़ा है। हर मायने में नहीं, पर एशियाई पहचान और परदेस आने के बाद बदलते रिश्तों के लिहाज से। इन सब फिल्मों में एक समानता रेफरेंस की भी है। चूंकि 'वेस्ट इज वेस्ट’ एक फनी टेक ज्यादा है इसलिए इसके रविशंकर, गांधी, मोगली और रुडयार्ड किपलिंग के नॉवेल 'किम’ के रेफरेंस अलग लगते हैं, पर ये ऐसी मूवीज का अहम हिस्सा ही हैं।
आखिर में: फिल्म में आप जिस 15 साल के साजिद को देखते हैं, वो फिल्म के लेखक अयूब खान-दीन का असल किरदार है। 1970 में 13 साल के एक लड़के के तौर पर सैलफर्ड में अयूब ने जो जिंदगी बिताई, उसकी ही यादें 'ईस्ट इज ईस्ट’ और 'वेस्ट इज वेस्ट’ जैसी फिल्म बनी। अब तीसरी फिल्म पर काम चालू है।
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गजेंद्र सिंह भाटी