फिल्म: बोल (पाकिस्तानी फिल्म)
निर्देशक: शोएब मंसूर
कास्ट: हुमैमा मलिक, मंजर सेहबई, शफकत चीमा, जैब रहमान, अम्र कश्मीरी, आतिफ असलम, इमान अली, माहिरा खान
स्टार: साढ़े तीन, 3.0
अगर आधी रात में भी पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बोल' देखने की सूरत हो, तो मैं हंसते-हंसते हर सुबह पांच किलोमीटर दूर जाकर एक 'बॉडीगार्ड' देखने को तैयार हूं। खुशी है कि काफी दिन बाद इतनी गले तक तृप्त कर देने वाली फिल्म देखी। ये कोई मनोरंजन करने वाली फिल्म नहीं है, बल्कि उम्दा स्टोरीटेलिंग है। जैसे कि 'मदर इंडिया' है। शोएब मंसूर पाकिस्तानी सिनेमा को नई इज्जत बख्शने वाले फिल्मकार बने हैं। पहले 'खुदा के लिए' से और अब 'बोल' से। फिल्में बनाने के तमाम नियमों को साधारण से साधारण तरीके से फॉलो करती हुई भी ये फिल्म बेहतरीन बनती है, सिर्फ इसलिए कि अपनी कहानी के प्रति ईमानदार बनी रहती है और आखिर तक बनी रहती है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि इसे फैमिली के साथ देखें कि नहीं, पर इतना जरूर कहूंगा कि तमाम एडल्ट कंटेंट होते हुए भी कोई पिता-पुत्र या मां-बेटी असहज हुए बिना इसे देख सकते हैं। ये एडल्ट तत्व परदे पर बिल्कुल भी नहीं आता, पर आप समझ जाते हैं। वाह, कितनी भली बात है। जब फिल्म खत्म होगी तो आप उसी एक्सपीरियंस से गुजर चुके होंगे जिसके लिए फिल्म देखने हम थियेटर जाया करते हैं। ये फील गुड फिल्म तो नहीं, पर मस्ट वॉच है, ताकि आपको पता लगे कि हम बॉलीवुड के दर्शक इस मीडियम के लेकर कितने करप्ट हो चुके हैं, कितने विकल्पहीन हो चुके हैं और कितने पशु हो चुके हैं।
बोल की कहानी
पाकिस्तान के प्रेसिडेंट फांसी की सजा पाई जैनब (हुमाइमा मलिक) की माफी की अपील खारिज कर देते हैं, पर आखिरी ख्वाहिश के तौर पर उसे देश के मीडिया के सामने अपनी कहानी सुनाने की मंजूरी दे देते हैं। वह सुनाती है। बंटवारे के बाद हकीम साहब (मंजर सेहबई) दिल्ली से लाहौर आ जाते हैं। बेटे की चाहत में सात बेटियां जनते जाते हैं। बेटा सैफी (अम्र कश्मीरी) होता भी है, तो आदमी होकर भी औरतों जैसा होता है। बीवी सुरैया (जैब रहमान) और बेटियां हकीम साहब के दकियानूसी और कट्टर धार्मिक विचारों तले घर को बर्बाद होते देखती हैं। पर बड़ी बेटी जैनब गालियां और पिटाई खाते हुए भी पिता का विरोध करती चलती है। बहनों को पिता पढऩे नहीं देते। घर से बाहर जाने नहीं देते। छोटी बहन आयेशा (माहिरा खान) डॉक्टर मुस्तफा (आतिफ असलम) के साथ मिलकर रॉक बैंड बनाती है, पर छिप-छिपकर। हकीम साहब की जिंदगी में न चाहते हुए भी चकला चलाने वाले साका कंजर (शफकत चीमा) और तवायफ मीना (इमान अली) आते हैं। बीच में मुद्दे हैं इस समाज में आर्थिक तंगी के बावजदू दर्जनों बच्चे जनते पुराने ख्यालों के लोग, जो उसे ऊपरवाले की रहमत मानते हैं। सवाल है, जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो। अहम सवाल इस कट्टर समाज में औरत होने के मायनों का भी है।
पाक ईमान से बनी फिल्म
# दिन परेशां है, रात भारी है... जैसे बेहद सिंपल और कारगर गीत और म्यूजिक फिल्म की डार्क टोन को सहलाते चलते हैं।
# भारत-पाकिस्तान का मैच चल रहा है। बेटी मन ही मन सचिन की सेंचुरी पूरी होने की ख्वाहिश रखती है। हकीम साहब आगबबूला हो डांटते हैं। बेटियों को इबादत करने को कहते हैं। पाकिस्तान हारा तो खैर नहीं। यहां जैनब पिता के जड़ विचारों को 'ऑस्ट्रेलिया में तो कोई इबादत नहीं करता फिर भी वो सालों से बेस्ट हैं' जैसे लॉजिक देती है। स्क्रिप्ट में क्रिकेट के साथ 'पाकीजा' और मीनाकुमारी के संदर्भ है। इसलिए कि धर्म के इस हिस्से में फिल्में और संगीत हराम हैं।
# अपने बेटे सैफी के जीने और मरने के फैसला करने के लिए हकीम साब आंख मूंदकर जब अपनी धार्मिक किताब के पन्ने पर अंगुली रखते हैं तो किताब फैसला देती है 'डुबोया मुझको मेरे होने ने, न होता मैं तो क्या होता।' देखिए ऐसी बेजोड़ छोटी-छोटी पंक्तियां स्क्रिप्ट को कितना समृद्ध बनाती हैं।
# फिल्म के आखिर में मेक्डॉनल्ड की तर्ज पर बची बहनों के 'जैनब्स कैफे' खोलने का पश्चिमी पूंजीवादी अंत बहस करने लायक है, अंतिम नहीं।
# हुमाइमा मलिक का अभिनय बहुत अच्छा है। पाकिस्तान के वरिष्ठ थियेटर एक्टर और अभिनेता मंजर सेहबई की अदाकारी इंडियन एक्टर्स के लिए अच्छी-खासी सीख है। बेहतरीन। अम्र कश्मीरी और जैब रहमान की महत्वपूर्ण अदाकारी के बीच रोचक कैरेक्टर साबित होते हैं साका कंजर बने शफकत चीमा। यहां तक कि फिल्म के शुरू में हकीम साहब के घर सैफी को मांगने आए किन्नर का सीन भी आप देखें तो उसका अभिनय दंग कर देता है।
आखिर में दो किस्से...
1. फिल्म खत्म हुई और चंडीगढ़ के थियेटर में आखिर वही लड़के तालियां बजाने के मजबूर हो गए जो शुरू में हर गंभीर और इमोशनल सीन में हंस रहे थे और दूसरों का ध्यान बंटा रहे थे। इनमें वो लड़का था जो इंटरवल में अपने दोस्तों से कह रहा था, 'यार ये क्या फिल्म है। इतनी ज्यादा बैड फीलिंग वाली। मुझसे तो देखी नहीं जा रही चल बाहर होकर आते हैं।'
2. पाकिस्तान में औरतों के हालात का संदर्भ फिल्म में सबसे प्रमुख है और मुस्लिम युवतियों की अपनी इमेज पर वो लड़का रात के दो बजे लिफ्ट में अपने दोस्तों को वाकया सुना रहा था। 'बोल' ने बोलने को जो प्रेरित कर दिया था। मैं भी सामने खड़ा लिफ्ट से नीचे उतर रहा था। दरअसल जब वह किसी एग्जाम के सिलसिले में हैदराबाद गया था। उसने वहां किसी मुहल्ले में एक मुस्लिम लड़की से एग्जाम सेंटर वाली स्कूल का पता पूछा और लड़की बोली, 'यू गो स्ट्रैट एंड टेक लेफ्ट टर्न, यूल बी देयर।' लड़का शॉक सा अपने दोस्तों से कह रहा था 'कम ऑन यार! वो सिंपल सी दिखने वाली लड़की पापड़ बनाती थी और उसके स्मार्ट जवाब ने मेरा दिमाग हिला दिया।' लिफ्ट लोअर बेसमेंट में जा रही थी, मैं उन लोगों की बातों को ओर सुनना चाह रहा था पर मुझे अपर बेसमेंट में उतरना था। मतलब ये कि फिल्म में जो उपाय सुझाया गया है, उसे वह लड़का खुद के साथ हुए वाकये से पुख्ता कर रहा था। माने, फिल्म बनाना सार्थक हुआ।
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गजेंद्र सिंह भाटी