फिल्मः पान सिंह तोमर
निर्देशकः तिग्मांशु धूलिया
कास्टः इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा, राजेंद्र गुप्ता, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इमरान हस्नी
स्टारः चार, 4.0/5 कई सुनहरे दृश्यों में ये एक अटककर साथ चला आया है। पान सिंह नेशनल बाधा दौड़ के ट्रैक पर दौड़ रहा है। कोच रंधावा (राजेंद्र गुप्ता) को जब लगता है कि वह धीरे दौड़ रहा है तो चिल्लाकर कहते हैं, "ओए पान सिंह, मा****। याद रखना, अगर हार गया तो तुझे मार-मारकर यहीं के यहीं गाड़ दूंगा।" जब पान सिंह जीत जाता है तो रंधावा बड़े राजी होते हैं, शाबासी देते हैं, पर वह कुछ नाराज है। रंधावा जब उससे पूछते हैं, तो वह रुआंसा होकर कहता है, "कोच साब आप गुरू हैं, लेकिन दोबारा मां की गाली नहीं देना। हमारे गांव में मां की गाली देने वाले को हम गोली मार देते हैं।" इतना कहकर वह रंधावा के पैर छू लेता है। और वो उसे गले लगा लेते हैं।
कई सुनहरे दृश्यों में ये एक अटककर साथ चला आया है। पान सिंह नेशनल बाधा दौड़ के ट्रैक पर दौड़ रहा है। कोच रंधावा (राजेंद्र गुप्ता) को जब लगता है कि वह धीरे दौड़ रहा है तो चिल्लाकर कहते हैं, "ओए पान सिंह, मा****। याद रखना, अगर हार गया तो तुझे मार-मारकर यहीं के यहीं गाड़ दूंगा।" जब पान सिंह जीत जाता है तो रंधावा बड़े राजी होते हैं, शाबासी देते हैं, पर वह कुछ नाराज है। रंधावा जब उससे पूछते हैं, तो वह रुआंसा होकर कहता है, "कोच साब आप गुरू हैं, लेकिन दोबारा मां की गाली नहीं देना। हमारे गांव में मां की गाली देने वाले को हम गोली मार देते हैं।" इतना कहकर वह रंधावा के पैर छू लेता है। और वो उसे गले लगा लेते हैं।
अब देखिए कि कितना सहज लेकिन धमाकेदार सीन है। ये फिल्म कुछ ऐसी ही है। हालांकि मैं पान सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं हूं, हालांकि ट्रैक पर दौड़ने वाले सीन में इरफान की कमजोर शारीरिक क्षमता साफ दिखती है पर तिग्मांशु का कुशल निर्देशन और आरती बजाज की चतुर एडिटिंग उस हिस्से को छिपाते रहते हैं, पर फिल्म बहुत पंसद आई। रॉ, सुंदर, कथ्यात्मक, रुलाने वाली, बांधे रखने वाली और अनुभवों से भरी हुई।
निर्देशक तिग्मांशु धूलिया पान सिंह नाम के इंसान को कितना गहराई से समझते और हमें समझाते हैं, फिल्म यहीं पर सबसे पहले जीतती है। उनके सभी किरदार कैमरे के अस्तित्व को जैसे नकारकर अभिनय करते हैं। पत्रकार बने बृजेंद्र काला, इरफान खान और माही हमारी सिनेमा देखने वाली इंद्रियों को भीतर तक तृप्त करते हैं। बृजेंद्र का अभिनय, अभिनय कम और किसी महीन डिजाइन वाले स्वेटर की बुनावट ज्यादा लगता है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने का उनका पूरा सीक्वेंस यादगार है । इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।
। इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।
कहानी एक तकड़े तोमर की
बहुत स्पष्ट, मेहनती और आम आदमी है पान सिंह तोमर (इरफान खान)। कब का गया 1950 में गांव लौटता है तो फौजी वर्दी में। घर में मां और बीवी इंदिरा (माही गिल) हैं। दौडऩे को वह एंजॉय करता है, इसलिए अपने साथी सैनिकों में सबसे अलग लगता है। वहां मेजर मसंद (विपिन शर्मा) उसकी मदद स्पोट्र्स में जाने में करते हैं। स्टीपलचेज में उसे कोच करते हैं रंधावा (राजेंद्र गुप्ता)। वह जीतता भी है। मगर फिर उसकी जिंदगी उसे खेलों से दूर कर, हाथ में राइफल और नसीब में चंबल के बीहड़ थमा देती है। ये कहानी जितनी औसत लग रही है, परदे पर उतनी ही इंट्रेस्टिंग लगती है। हर पल। *** *** *** *** ***
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गजेंद्र सिंह भाटी
निर्देशकः तिग्मांशु धूलिया
कास्टः इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा, राजेंद्र गुप्ता, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इमरान हस्नी
स्टारः चार, 4.0/5
अब देखिए कि कितना सहज लेकिन धमाकेदार सीन है। ये फिल्म कुछ ऐसी ही है। हालांकि मैं पान सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं हूं, हालांकि ट्रैक पर दौड़ने वाले सीन में इरफान की कमजोर शारीरिक क्षमता साफ दिखती है पर तिग्मांशु का कुशल निर्देशन और आरती बजाज की चतुर एडिटिंग उस हिस्से को छिपाते रहते हैं, पर फिल्म बहुत पंसद आई। रॉ, सुंदर, कथ्यात्मक, रुलाने वाली, बांधे रखने वाली और अनुभवों से भरी हुई।
निर्देशक तिग्मांशु धूलिया पान सिंह नाम के इंसान को कितना गहराई से समझते और हमें समझाते हैं, फिल्म यहीं पर सबसे पहले जीतती है। उनके सभी किरदार कैमरे के अस्तित्व को जैसे नकारकर अभिनय करते हैं। पत्रकार बने बृजेंद्र काला, इरफान खान और माही हमारी सिनेमा देखने वाली इंद्रियों को भीतर तक तृप्त करते हैं। बृजेंद्र का अभिनय, अभिनय कम और किसी महीन डिजाइन वाले स्वेटर की बुनावट ज्यादा लगता है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने का उनका पूरा सीक्वेंस यादगार है
 । इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।
। इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।कहानी एक तकड़े तोमर की
बहुत स्पष्ट, मेहनती और आम आदमी है पान सिंह तोमर (इरफान खान)। कब का गया 1950 में गांव लौटता है तो फौजी वर्दी में। घर में मां और बीवी इंदिरा (माही गिल) हैं। दौडऩे को वह एंजॉय करता है, इसलिए अपने साथी सैनिकों में सबसे अलग लगता है। वहां मेजर मसंद (विपिन शर्मा) उसकी मदद स्पोट्र्स में जाने में करते हैं। स्टीपलचेज में उसे कोच करते हैं रंधावा (राजेंद्र गुप्ता)। वह जीतता भी है। मगर फिर उसकी जिंदगी उसे खेलों से दूर कर, हाथ में राइफल और नसीब में चंबल के बीहड़ थमा देती है। ये कहानी जितनी औसत लग रही है, परदे पर उतनी ही इंट्रेस्टिंग लगती है। हर पल।
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*** *** *** *** ***गजेंद्र सिंह भाटी
