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Thursday, March 15, 2012

"रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रैचर होनी चाहिए, सब फिल्में हिट होने लगीं तो मैथेमैटिक्स हो जाएंगी"

कहानी की रिलीज और सफलता से पहले भारत देश की जनता को इनका नाम भी नहीं पता था। अब लोग जानना चाह रहे हैं कि विद्या बालन को लेकर एक बेहतरीन बंगाली जायके वाली थ्रिलर बनाने वाला ये बंदा कौन है। ये हैं यंग राइटर-डायरेक्टर सुजॉय घोष। 2003 में आई इनकी पहली फिल्म झनकार बीट्स.डी.बर्मन उर्फ पंचमदा के म्यूजिक को याद करती उनकी इस फ्रैश फिल्म को लोगों ने, खासतौर पर युवाओं ने चाहा, पसंद किया। इसके बाद सुजॉय विवेक ओबेरॉय, बोमन ईरानी और आयशा टाकिया के अभिनय वाली च्छी फिल्म होम डिलीवरी लेकर आए, पर न जाने क्यों फिल्म को तारीफ के बजाय दुत्कार मिली। फिर बारी थी अमिताभ बच्चन, रितेश देशमुख और श्रीलंकाई अभिनेत्री जैक्लीन फर्नाडिस के साथ बच्चों की कहानी अलादीन के मॉडर्न-एनिमेटेड-बॉलीवुड संस्करण की। फिल्म थी अलादीन। फिल्म नहीं चली। तो अब कुछ वक्त के बाद सुजॉय लौटे हैं ‘कहानी’ के साथ। लंदन से अपने पति की तलाश में कोलकाता आई विद्या बागची की इस कहानी में एक सशक्त स्क्रिप्ट और चतुर निर्देशन छिपा है। फिल्म रिलीज होने से पहले सुजॉय से ये वार्ता हुई। इस संक्षिप्त बातचीत में हालांकि उनके फिल्मकार बनने की यात्रा और फिल्म लेखक होने की गहराई में नहीं जाया जा सका, पर उन्होंने तकरीबन हर सवाल और विश्लेषण का हल्का और तुरत उत्तर दिया। उन्होंने मेरे शहर आने की इच्छा भी जताई, हां, शर्त या अनुरोध एक ही था कि मक्के की गरमा-गरम रोटी पर सफेद बटर चाहिए, जो वो दबाकर खाएंगे। बातचीत के कुछ अंशः

जर्नी डायरेक्टर बनने की?
मुंबई आया काम के लिए तो सबकी तरह मैंने भी एक स्क्रिप्ट लिखी। ये झंकार बीट्सथी। लोगों ने पढ़कर भगा दिया कि आ गया अजीब सी स्क्रिप्ट लेकर। कुछ ने कहा खुद ही बनाओ। तो नौकरी छोड़ी और फिल्म बनाई। सिर्फ यही कहूंगा कि डोन्ट गिव अप। दूसरों पर कभी निर्भर नहीं रहो। आप अकेले पचास बराबर हो।

कहानी की कहानी कहां से आई?
आपकी मां, मेरी मां और सबकी मां की कहानी है। औरत को कुछ होता है जब वो मां बन जाती है। अजीब सा चेंज आता है उसमें। जिसने कभी खाना नहीं बनाया वो खाना बनाना सीख जाती है, जो कभी पढ़ी नहीं वो पढ़ना सीख जाती है। हर काम वो खुशी-खुशी करती है। लड़की पहले कुछ और होती है और मां बनने के बाद कुछ और हो जाती है। वो अपने बच्चे को प्रोटेक्ट करने के लिए कुछ भी करेगी। आप अंगुली भी दिखाएंगे, तो आपकी गां* मा*** रख देगी। भगवान के करीब मां ही होती है। तो मुझे देखना था कि एक औरत में ये चीज कहां से आता है। एक प्रेग्नेंट औरत को आप अनजाने माहौल में डाल देंगे, अलग भाषा, शहर और लोगों के बीच... तो वो इसका सामना कैसे करेगी। यहीं से फिल्म का ख्याल आया। जब इश्किया की शूटिंग शुरू होने को थी तब मैंने और विद्या ने सोचा था। तब ये सिर्फ आइडिया था। मैं अलादीन की कहानी पर भी काम कर रहा था। फिर ‘अलादीन’ बनी थी, बुरी तरह फ्लॉप भी हुई।

इसमें बहुत से बंगाली थियेटर एक्टर्स भी हैं...
सब कोलकाता से हैं। फिल्म की डिमांड थी। कोलकाता की खूबी इसमें है कि आप परदे पर उसे कैसे दिखाते हैं और उसमें जो इंसान बसते हैं वो उस शहर का दिल हैं। बॉलीवुड में बंगाली दिखाए जाते हैं पर असल में बंगाली वैसे नहीं होते। तो मुझे असली बंगाली दिखाने थे। फिल्म में जो यंग सा एक्टर विद्या के साथ भागदौड़ करता दिखता है वो कोलकाता का ही एक्टर है परमब्रत चैटर्जी। बहुत टैलेंटेड है।

स्क्रिप्ट लिखते वक्त क्या मैनस्ट्रीम हिंदी मूवीज में अलग बंगाल दिखाना चाहते थे?
जब मैंने लिखा तो एक चीज क्लीयर थी कि फिल्म में दो हिरोइन है, एक विद्या, दूसरा कोलकाता। अब विद्या को तो स्क्रीन पर दिखा सकता हूं, कोलकाता को कैसे दिखाऊं, ये चैलेंज था। ऐसा कोलकाता दिखाना कि लोगों को उससे प्यार हो जाए। तो जो मेरा तजुर्बा था, पढ़ते, खेलते-कूदते और बड़े होते वक्त, तब जो कोलकाता मैंने देखा और जिया वो मैंने फिल्म में दिखाया है। यहां बहुत सी जगह शानदार हैं, पर ये देखना था कि वो शूटिंग फ्रेंडली भी हो। तो पहले मैं जाकर रहा वहां और देखा कि कहां पर शूटिंग आसान रहेगी।

‘होम डिलीवरी’ और ‘अलादीन’ नहीं चली, उसके बाद क्या था दिमाग में?
कुछ नहीं। सबने बोला कि ऐसी फिल्में मत बनाओ। कमर्शियल बनाओ। पर मैं वही बनाता हूं जो बनाना चाहता हूं। फ्लॉप होनी भी जरूरी है। वरना तो सभी हिट बना देगे। नहीं तो क्रिएटिविटी का मतलब क्या होगा रचनात्मकता इंग्लिश लिट्रेचर होनी चाहिए, सब हिट होने लगी तो मैथ बन जाएंगी।

फेवरेट फिल्में और फिल्ममेकर?
ऑलटाइम फेवरेट सत्यजीत रे। फिर स्टीवन स्पीलबर्ग। मनमोहन देसाई और यश चोपड़ा की फिल्में देखकर बहुत कुछ सीखा।घायल बहुत पसंद,अंदाज अपना-अपना बहुत पसंद। अमिताभ बच्चन की कोई भी फिल्म। मुझे तो हजारों फिल्में पसंद हैं। अभी फ्लाइट से लौटा हूं तो पूरे रास्ते कालीचरणदेखी। मुझे उसका एक-एक डायलॉग याद है। मूवी में कुछ न कुछ होना चाहिए। ऋषिकेश मुखर्जी जैसे लोग हुए। ये सब लोग क्या फिल्में बनाते थे। दिल में घुस जाती थीं।

इन दिनों आई फिल्मों में?
बेस्ट स्क्रीनप्ले मेरे हिसाब से ‘लगे रहो मुन्नाभाई’। मेरी बहुत-बहुत फेवरेट मूवी है।

सबको राजकुमार हीरानी ही क्यों पसंद हैं?
वो सिंपल स्टोरीटेलर हैं। हार्ट जो होता है न उनकी पिक्चर में, वो मैं पसंद करता हूं। मुझे बहुत पसंद हैं उनकी फिल्में, पर न तो मैं वैसी बनाऊंगा, न बना सकता हूं। उसके लिए कुछ धारणा और टेलंट चाहिए। परलगे रहो...’ अच्छी है तो इसका मतलब ये नहीं कि ‘सलाम नमस्ते’ अच्छी नहीं है, कि ‘जॉनी गद्दार’ या ‘एक हसीना थी’ अच्छी नहीं है। ये सब बहुत अच्छी हैं। मुझे तो ‘कल हो न हो’ भी बड़ी पसंद हैं। करण जौहर भी मेरे फेवरेट्स में से हैं।

कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
मुझे बस वही कहनी-बतानी हैं जो मैं कहना चाहता हूं। ऐसी कहानी जो मैंने सुनाई और किसी ने सुनी।

सुनील गांगुली की कहानी ‘अरण्येर दिन रात्रि’ पर फिल्म बनाएंगे क्या? क्या है कहानी और कास्टिंग वगैरह के बारे में बताइए?
उसके राइट्स लिए हैं। हिंदी में। फिलहाल तो उस नॉवेल के साथ एक साल बिताना है, फिर बाकी चीजें होंगी। कुछ मैच्योर उलझी सी स्टोरी है।

‘झनकार बीट्स’ का सीक्वल बन रहा है, आप ही डायरेक्ट करेंगे?
ये तो प्रीतिश नंदी साहब प्रोड्यूसर हैं, वही तय करेंगे।

अपनी पहली फिल्म तक तो आप बेहद प्राकृतिक, निर्मल और ईमानदार लग रहे थे, फिर ऐसा क्यों हुआ कि ‘अलादीन’ तक आते-आते नजर आने लगा कि आप बहुत ज्यादा प्रयास कर रहे हैं, लेकिन लोगों से जुड़ नहीं पा रहे हैं?
मैंने कभी कुछ साबित करने को मूवी नहीं बनाई। अलादीन बहुत बड़ी फिल्म थी। उसने डिमांड किया कि अगर बच्चों की मूवी बना रहा हूं तो कहीं उसका बैंचमार्क तो होना ही चाहिए। इंडिया में जो बच्चे आज ‘हैरी पॉटर’ देखते हैं, उन्हें मैं पुराने स्टूपिड से स्पेशल इफैक्ट्स तो नहीं दिखा सकता था न। तो ‘अलादीन’ में कुछ बनाने का प्रैशर था कि इसमें मैं वो दिखाऊं जो पहले किसी फिल्म में नहीं दिखाया गया है। और ऐसा हुआ भी। मेरी इ फिल्म में ऐसे सीन और विजुअल इफैक्ट्स थे जो इंडिया में तो क्या वर्ल्ड सिनेमा में भी कहीं नहीं दिखाए गए थे। और, ये सब इस फिल्म की कहानी की मांग थी। अगर ये आगे भी किसी फिल्म में करना पड़ा तो मैं करूंगा। अगर कहानी की डिमांड है कि मैं रस्ते में जाकर नंगा हो जाऊं, तो हो जाऊंगा। जैसेअरण्येर दिन रात्रि मैं हमें जंगल के अंदर की जिंदगी को शामिल करना है, तो मैं जाऊंगा और बहुत दिन जंगल में रहूंगा, वहां शूट करूंगा।
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गजेंद्र
सिंह भाटी

Sunday, January 15, 2012

सैंटा क्लॉज को क्रिसमस की सीख देता बच्चा आर्थर

फिल्म: आर्थर क्रिसमस (थ्रीडी)
निर्देशक: साराह स्मिथ
कास्ट: जिम ब्रॉडबेंट, ह्यू लॉरी, जेम्स मेक्वॉय, एश्ले जेनसन, रमोना मारकेज, बिल नाई
स्टार: तीन, 3.0
हफ्ते की एक बेहतरीन फिल्म। क्रिसमस की पूरी सद्भावना को कवर करती हुई और ह्यूमन इमोशंस को महत्ता देती हुई। आर्थर के रोम-रोम में इतना अपनत्व और प्यार भरा है कि क्लाइमैक्स तक गालों पर दो-तीन बूंदे लुढ़क ही जाती हैं। 'बैड सैंटा' से लेकर 'होम अलोन' जैसी दर्जनों फिल्में क्रिसमस के बहाने हमें अच्छा इंसान बनने और मुश्किलों का सामना करने की बात सिखाती हैं और उनमें सबसे साधारण कहानी वाली है 'आर्थर क्रिसमस'। कहानी में कुछ भी रोमांचक नहीं है, मगर डायरेक्टर साराह स्मिथ और मूवी का एनिमेशन इसे असाधारण बना देता है। और यहीं पर ये फिल्म बाकी क्रिसमस मूवीज से अलग लगने लगती है। ग्रैंड सैंटा की पुरानी बग्घी, ऐतिहासिक रेनडियर यानी बारहसिंगे और आसमान में उड़ाने वाली जादुई रेत दिल में धुकधुकी पैदा करते हैं। हर पल आपका मन करता है कि आर्थर के साथ-साथ चलें। जरूर देखें ये फिल्म और जरूर दिखाएं अपने बच्चों को।

'आर्थर क्रिसमस' के हीरो निश्चित तौर पर आर्थर, ग्रैंड सैंटा और एल्फ ब्रायोनी हैं। ग्वेन नाम की छोटी सी बच्ची तक उसकी पिंक साइकल का गिफ्ट पहुंचाने में तीनों जिन उतार-चढ़ाव से गुजरते हैं, वो पूरी जर्नी बड़ी मजेदार है। आर्थर का मासूम टेढ़ी स्माइल भरा चेहरा और उसके बल्ब जलते नकली आंखों वाले जूते उसे सबसे साधारण बनाते हैं, फिर जब वो हीरो बनता है तो हमें खुशी होती है। ग्रैंड सैंटा की नकली बत्तीसी, चिड़चिड़ा स्वभाव और मॉडर्न टेक्नॉलजी को कोसने का तरीका फिल्म में एक नमकीन फ्लेवर लाता है। उनके बड़बड़ाने को ध्यान से सुनिएगा, उसमें बड़े मजेदार डायलॉग हैं पर वो इतना तेजी से बोलते हैं कि कान से बातें स्लिप हो जाती हैं। गिफ्ट को रैप करने वाली ब्रायोनी आखिर तक डटी रहती है कि किसी भी गिफ्ट की रैपिंग में रत्तीभर भी कसर न रह जाए।

सैंटा के ज्यादा ईमानदार बेटे की कहानी
नॉर्थ पोल की सबसे खास रात है। क्रिसमस की रात। यहां के मौजूदा सैंटा हैं मैल्कम (जिम ब्रॉडबेंट)। उनका फौजी कमांडर सा बड़ा बेटा स्टीव (ह्यू लॉरी) सोच रहा है कि इस क्रिसमस तमाम बच्चों तक गिफ्ट पहुंचाने के मिशन के बाद मैल्कम रिटायर होंगे और वह सैंटा बनेगा। वहीं उसका छोटा भाई आर्थर (जेम्स मेक्वॉय) बहुत भला और प्यारा है। गिफ्ट पहुंचाने का मिशन पूरा होने के बाद जब हजारों एल्फ, सैंटा मैल्कम और स्टीव आराम करने चले जाते हैं तो गिफ्ट रैप करने वाली बटैलियन की ईमानदार सैनिक ब्रायोनी (एश्ले जेनसन) को एक साइकल मिलती है, पता चलता है कि दुनिया में एक बच्ची ग्वेन (रमोना मारकेज) तक गिफ्ट गलती से पहुंचा ही नहीं। इस स्थिति में जब सैंटा और स्टीव लापरवाही बरतते हैं तो सैंटा क्लॉज के प्रति बच्चों के विश्वास को कायम रखने के लिए आर्थर ये गिफ्ट ग्वेन तक पहुंचाने की ठानता है। इसमें उसकी मदद करते हैं उसके दादा,
मैल्कम के पिता और रिटायर्ड चिड़चिड़े 136 साल के ग्रैंड सैंटा (बिल नाई)।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, January 10, 2012

अमेरिकी प्रपंच से दूर, एलियन हमले का नया केंद्र रूस

फिल्म: द डार्केस्ट आवर (अंग्रेजी)
निर्देशक: क्रिस गोराक
कास्ट: ऐमिल हर्श, मैक्स मिंघेला, रैचल टेलर, ऑलिविया थर्लबॉय, वरॉनिका ऑजरोवा, यूरी कुत्सेंको, जोएल किनामैन
स्टार: दो, 2.0नील ब्लॉमकांप के निर्देशन में बनी 'डिस्ट्रिक्ट 9', एलियन जीवों के धरती पर होने की अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है। अकेली ऐसी फिल्म जिसमें चौंका देने वाले एंटरटेनमेंट के साथ बड़े गंभीर पॉलिटिकल और सोशल विमर्श भी सिमटे थे। सबसे खास बात थी कि पहली बार एलियन अमेरिका की बजाय दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर उतरे। इसी लिहाज से निर्देशक क्रिस गोराक की 'द डार्केस्ट आवर' भी अलग होती है। इसमें भी परग्रही जीवों का हमला अमेरिका पर नहीं होकर रूस पर होता है। शायद इसलिए भी क्योंकि प्रॉड्यूसर तिमूर रूस से हैं। और शायद वो चाहते थे कि फिल्मों में ये घिसा-पिटा जुमला बदले। और एंटरनेटमेंट के इस एलियन प्रपंच की धुरी गैर-अमेरिकी, गैर-हॉलीवुडी हो। और हर बार दुनिया को एलियंस से बचाने वाले सिर्फ एक ही देश (अमेरिका) से न हों।

खैर, एलियन दिखेंगे कैसे? उनकी शक्तियां कैसी होंगी? वो इंसानों को नुकसान किस तरीके से पहुंचाएंगे? उनके आने का कारण क्या है? वो चाहते क्या हैं? और उनका मुकाबला कैसे किया जाए? ...इन सब सवालों के लिहाज से भी एलियन फिल्में एक-दूसरे से अलग हो सकती हैं। ये फिल्म अलग तो है, लेकिन जहां भी अलग है वहां संतुष्ट नहीं करती। मसलन, इसमें एलियन दिखते नहीं हैं, बस कुछ इलैक्ट्रिकल बिजली जैसी चमकीली रेखाओं जैसी आकृतियों में वो आए हैं और जिसे भी छूते हैं वो राख में तब्दील हो जाता है। ये दिखने में नई चीज है पर आखिर में जब हमें इन एलियंस का चेहरा दिखता भी है तो मजा नहीं आता। कुछ बचकाना सा लगता है।

फिल्म की एक बड़ी खामी ये है कि इसका कोई भी कैरेक्टर रोचक नहीं है। सीन (ऐमिल हर्श) फिल्म का हीरो है पर उसमें वैसी बात नहीं है। बेन (मैक्स मिंघेला) में वो बात है पर जिंदा नहीं रहता। एनी (रैचल टेलर) ग्लैमरस दिखने, सुबकने और डरने में ही अपना सारा वक्त बिता देती है। नटाली (ऑलिविया थर्लबाय) आखिर तक फिल्म में रहती है पर उन्हें देख बोरियत होती है। रूसी लड़की वाइका (वरॉनिका ऑजरोवा) इंट्रेस्टिंग लगती है पर इस किरदार पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया है। फिल्म में जब तरह-तरह की धातू और जाल से ढके घोड़े पर बैठे मातवेई (यूरी कुत्सेंको) और उनके साथियों की एंट्री होती है तो रूचि जागती है। पर तब तक फिल्म दूसरे किनारे तक पहुंच रही होती है।

तो एलियंस के प्रति किसी जिज्ञासा का न होना और कहानी में डायलॉग्स और इंट्रेस्टिंग किरदारों के स्तर पर बोरियत होना, फिल्म को कमजोर बनाता है। आप फिल्म देख सकते हैं, उसके साधारण होने में हो सकता है खूबियां भी पाएं, पर मोटा-मोटी दर्शकों को कुछ खास नहीं मिलता। मिली-जुली प्रतिक्रिया लेकर थियेटर से निकलेंगे। पर फिल्म बुरी नहीं है। एक बार ट्राई कर सकते हैं। एक बड़ी अच्छी बात आखिर में कही जाती है। रूसी सोल्जर सा दिखने वाला मातवेई जब बचे हुए उन लोगों को अमेरिका जाने के लिए पनडुब्बी तक पहुंचाता है और खुद अपनी मातृभूमि में ही रहकर मरना पसंद करता है तो बड़ा बदलाव नजर आता है। जो हमेशा फिल्मों में नहीं होता। मातवेई कुछ-कुछ यूं कहता है, 'मैं यहीं रुकूंगा। तुम जाओ और उन एलियंस से बचने का जो रास्ता तुमने यहां रहकर सीखा है वो बाकी मानवता को सिखाओ, ताकि वो भी लड़ सकें। सामना कर सकें।'

यूं होता है परग्रही हमला

सीन और बेन अमेरिका से रूस सोशल नेटवर्किंग के अपने आइडिया पर कोई डील करने आए हैं। दोनों जिंदगी में कुछ बनना चाहते हैं, सबकुछ हासिल करना चाहते हैं। पर जब वो तय जगह पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि स्काइलर (जोएल किनामैन) ने उन्हें धोखा दिया और अब वो दोनों इस योजना का हिस्सा नहीं हैं। रात किसी पब में बिता रहे ये दोनों वहां दो अमेरिकी लड़कियों एनी और नटाली से मिलते हैं। स्काइलर भी यहां होता है। तभी सारी बत्तियां चली जाती हैं और सब लोग सड़कों पर आकर देखते हैं कि आसमां से रंगीन तंतुओं और इलैक्ट्रिक किरणों सी कुछ चीजें गिर रही हैं। थोड़ी देर में सबको पता चल जाता है कि ये एलियन अटैक है। मानवता को अब इस अटैक से बचना है और इन किरदारों को भी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, December 17, 2011

इस एलीट एक्शन में कुछ हंसी लाए हैं रैटाटूई वाले ब्रेड बर्ड

फिल्मः मिशन इम्पॉसिबल-घोस्ट प्रोटोकॉल (अंग्रेजी)
निर्देशक: ब्रेड बर्ड
कास्ट: टॉम क्रूज, पॉला पैटन, जैरेमी रेनर, साइमन पेग, माइकल नेक्विस्ट, अनिल कपूर, व्लादिमीर माशकोव
स्टार: तीन, 3.0'मिशन: इम्पॉसिबल-घोस्ट प्रोटोकॉल' का सबसे थ्रिलिंग सी है। ईथन बने टॉम क्रूज दुबई की 2,717 फुट ऊंची ईमारत बुर्ज खलीफा की एक सौ चौबीसवीं मंजिल पर, कांच पर सिर्फ चुंबकी दस्तानों के सहारे चढ़ रहे हैं। बिना कोई सिक्योरिटी वायर पहने। नीचे गिरे तो मौत पक्की। तभी कुछ बुरा होता है। एक दस्ताने की बैटरी खत्म हो जाती है। वो उस दस्ताने को फैंक देते हैं। मौत से बाल-बाल बचते हुए कुछ ऊप चढ़ते हैं तो देखते हैं कि हवा से उड़कर वो दस्ताना जरा दूर कांच पर चिपक गया है। जैसे हीरो को चिढ़ा रहा हो। सीन में यहां ऐसा कॉमिक सेंस बनता है कि ऑडियंस हंस पड़ती है। यकीन नहीं होता कि मिशन इम्पॉसिबल जैसी एलीट एक्शन सीरिज में, सबसे रौंगटे खड़े करने वाले सीन में भी हमें हंसाने की कोशिश हो सकती है। चुस्त एक्शन में चुटकी काटने भर की कॉमेडी की एंट्री इस फ्रैंचाइजी में डायरेक्टर ब्रेड बर्ड की एंट्री से ही हो जाती है। इन्होंने 'रैटाटूई' और 'द इनक्रेडेबल्स' जैसी फनी फन फिल्में बनाई है। अगर दुबई, मुंबई और मॉस्को में ईथन के जेम्स बॉन्डनुमा सनसनीखेज एक्शन सीन कहीं कम नहीं होते तो बीच-बीच में चपल हास्य भी घुलता रहता है।

अस्पताल से भागने की कोशिश में खिड़की से बाहर हवा में टंगा ईथन फंस गया है, तो मुंह में सिगरेट दाबे रूसी इंटेलिजेंस ऑपरेटिव सिदिरोव (व्लादिमीर माशकोव) खिड़की पर कुहनियां टिकाए कहता है, '(इशारे में) अब कूदो। नॉट गुड आइडिया।' ईथन वापिस कहता है, 'एक मिनट पहले तो लगा था।' इसी तरह बुर्ज खलीफा वाले स्टंट में मरते-मरते बचे ईथन और ब्रैंट को हांफते देख बस कुछ टेक्नीकल काम करके कमरे में लौटा बेंजी कहता है, 'ओह, ड़ा टफ काम है। (फिर) तुम लोग हांफ क्यों रहे हो, डि आई मिस समथिंग।'

उपलब्धि के नाम पर फिल्म में डायरेक्टर बर्ड का ये सेंस ऑफ ह्यूमर ही है। बाकी 'एम.आई.-4' में जो दावे स्टंट्स को लेकर किए गए थे, वो हैं। आप थियेटर में जाकर देख सकते हैं। फिल्म एंगेज करके रखती है। पर सीक्वल में हमारी उम्मीदें बिलाशक बहुत ज्यादा थी, जो पूरी नहीं हुईं। इसके अलावा स्क्रिप्ट के स्तर पर कुछ अनोखा सोचने की जरूरत है। क्या प्रॉड्यूसर लोग पढ़ रहे हैं? बीच में हमें लगता है कि उसी पुराने 'रूसी बुरे और विलेन होते हैं, अमेरिकी अच्छे होते हैं' ट्रैक पर फिल्म दौड़ रही है, पर कहानी कुछ बदल जाती है। पर अंत में वही होत़ा है, एक अमेरिकी हीरो हो जाता है और एक रूसी उसे थैंक यू बोल रहा होता है। हद है भई।

खैर, जैरेमी रेनर फिल्म में स्मार्टनेस लाते हैं और क्रोएशिया के अपने मिशन के बारे में बताते हुए इंटेंस लगते हैं। अच्छा है। साइमन पेग सबसे इंट्रेस्टिंग हैं। अगली फिल्म में भी वो जरूर रहेंगे। वो हर सीन में राहत देते हैं। अनिल कपूर का रोल सबसे कमजोर है। तकरीबन न के बराबर। पर अचरज क्या करना, एशियन कलाकारों का कद अमेरिकी फिल्मों में इतना ही तो रखा जाता है।

एम.आई. 4 की कहानी
आईएमएफ की एजेंट कार्टर (पॉला पैटन) और टेक्नीकल फील्ड एजेंट बेंजी (साइमन पेग) मॉस्को की एक जेल में बंद मशहूर एजेंट ईथन हंट (टॉम क्रूज) को निकालते हैं। अब ये ईथन की नई टीम है और उन्हें अगला मिशन मिलता है रूस के मशहूर क्रेमलिन पैलेस से सीक्रेट डॉक्युमेंट चुराने और 'कोबाल्ट' कोड नेम वाले शख्स का पता लगाने का। उनके इस मिशन के बीचोंबीच के्रमलिन का एक हिस्सा बम से उड़ा दिया जाता है। इसका आरोप अमेरिका पर लगता है। ईथन को आईएमएफ सेक्रेटरी (टॉम विल्किनसन) बताते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने ऑपरेशन 'घोस्ट प्रोटोकॉल' घोषित कर दिया है। इसका मतलब होता है कि पूरी संस्था आईएमएफ को बंद कर दिया जाए। पर ईथन और उसकी टीम को सरकार के हाथों में पडऩे से पहले कोबाल्ट का पता लगाना है और क्रेमलिन पर हमले का दाग अमेरिका के सिर से धोना है। इस टीम में अब आईएमएफ का डेस्क एनेलिस्ट विलियम ब्रैंट (जैरेमी रेनर) भी शामिल है। इन लोगों का लक्ष्य दुबई से होता हुआ मुंबई तक जाता है। कहानी के प्रमुख किरदारों में रूसी न्यूक्लियर रणनीतिकार कर्ट हैंड्रिक्स (माइकल नेक्विस्ट) भी है। अनिल कपूर मुंबई के मशहूर रईस बृजनाथ बने हैं।


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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 15, 2011

“भेजे का एक स्क्रू हमेशा ढीला ही होना चाहिएः राजकुमार गुप्ता”

राजकुमार गुप्ता नई पीढ़ी के उन चंद डायरेक्टर्स में से हैं, जो कमर्शियल सिनेमा में रियलिज्म की घुट्टी मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सधे कदमों के साथ। 'आमिर’ और 'नो वन किल्ड जैसिका’ के बाद वो अपनी पहली ब्लैक कॉमेडी बनाने जा रहे हैं। फिल्म का नाम 'घनचक्कर’ रखा गया है और इसमें इमरान हाशमी लीड रोल निभाएंगे। इसके अलावा वह एक हल्की-फुल्की उचकी सी रोमैंटिक मूवी 'रापचिक रोमैंसकी स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता से उनके फैमिली बैकग्राउंड, फिल्मों में आने और फिल्में बनाने के अनुभवों पर बात हुई।


आप, दिबाकर बैनर्जी, श्रीराम राघवन और अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर आम लोगों का सिनेमा बनाते हैं, बाकी फिल्ममेकर काल्पनिक कहानियां, क्या ऐसा है?
कभी भी एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। जब मैं अनुराग के साथ काम कर रहा था तो हम 'ब्लैक फ्राइडे’, 'नो स्मोकिंग’, 'गुलाल’ और 'एल्विन कालीचरण’ येफिल्में करना चाहते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। सब फ्रस्ट्रेटेड थे। तब लगता था कि इंडस्ट्री में एक माफिया बन चुका है जो सिर्फ एक तरह की फिल्में बनाना चाहता है। हम इस बात को लेकर लड़ते थे कि यार कम से कम फिल्में तो बननी चाहिए। अलग-अलग तरीके की। मुझे लगता है कि हम अपनी तरह का सिनेमा बनाएं। जो झकझोरने वाला हो जिससे हम संतुष्ट हों। लेकिन कभी ये न करें कि कोई बना रहा है तो उसको गाली दें। कोई पोर्न फिल्म भी बनाना चाहता है तो ये उसका हक है, भले ही बाद में कोई उसकी आलोचना करे।

'बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों की सफलता चुनौती देती है कि जनता का मन समझने में हम कहां भूल कर रहे हैं?
सब फिल्में बनाते हैं, जिसको जो फिल्में बनानी है बनाओ। अब कोई बॉडीगार्ड बनाना चाह रहा है तो मुझसे तो बनेगी नहीं भई। जिससे बन सकती है उसे बनानेदो।

क्या कनविक्शन ही सबसे जरूरी है?
हर डायरेक्टर या क्रिएटिव आदमी सटका हुआ होता है। वो पागल होता है इसीलिए वो वो होता है। उसके भेजे का एक स्क्रू तो हमेशा ढीला होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि लिखने के दौरान, डायरेक्ट करने के दौरान उसे लोगों के हजारों ओपिनियन सुनने पड़ते हैं, ऐसे में उसे खुद से क्या चाहिए इस कनविक्शन को भटकने नहीं देना होता है।

आपका बैकग्राऊंड क्या है?
हजारीबाग, झारखंड में जन्मा। बहुत बुरा स्टूडेंट था। शर्मीला था। जैसा छोटे शहरों में होता है, पापा बैंक में थे तो मैं बैंकर बनना चाहता था। दसवीं वहां से की, बारहवीं डीपीएस बोकारो से और बी. कॉम में ग्रेजुएशन दिल्ली के रामजस कॉलेज से। वहां मेरा क्रिएटिव राइटिंग की तरफ झुकाव हुआ। एड फिल्में देखता था लगता कि मैं एड फिल्में लिख सकता हूं। कॉपीराइटर बन सकता हूं। ग्रेजुएशन हुई तो तय कर लिया कि बंबई जाना है। करना है या मरना है। शुरू में मेरे पास दो-ढाई हजार रुपये ही थे। एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। लड़-झगड़कर हॉस्टल ले लिया। इससे अच्छी बात ये हुई कि अगले नौ महीने तक मेरा रहने और खाने का इंतजाम हो गया। साल 2000 आया। एड फिल्में लिखी। सीरियल लिखे। सहारा का सीरियल 'कगार' लिखा। फिल्ममेकिंग को लेकर मैं सीरियस वहां से हुआ। वहां से चीजें डिस्कवर करते-करते यहां तक पहुंच गया।

'आमिर’ कैसे बनी?
मेरी चौथी या पांचवी स्क्रिप्ट 'आमिर’ थी। 2006 में लिख ली थी। स्ट्रगल शुरू हुआ। तब अनुराग 'नो स्मोकिंग’ के साथ स्ट्रगल कर रहा था। उसने कहा कि तुम्हें भी काम और पैसे चाहिए। स्ट्रगल भी करना है, तो मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म में असिस्टेंट बन जाओ। फिर हम मिलकर तुम्हारी फिल्म के लिए स्ट्रगल करेंगे। 'नो स्मोकिंग’2008 में खत्म हुई और 2007 में मुझे एक इंडिपेंडेंट प्रॉड्यूसर मिल गया 'आमिर’ के लिए। एक बात मैंने तय कर रखी थी कि कॉरपोरेट हाउस के साथ ही फिल्म करनी है। क्योंकि दौ सौ लोगों की फिल्म को बनने के बाद कोई हाथ भी न लगाए तो किसी का भला नहीं होता। फिर यूटीवी स्पॉटबॉय आ गया। मैंने अनुराग को कहा कि मेरी फिल्म के क्रिएटिव प्रॉड्यूसर बनो। मैं उसे साथ इसलिए रखना चाहता था क्योंकि उसने इंडस्ट्री ज्यादा देखी है। तो 2008 में फिल्म बनी और रिलीज हुई।

'नो वन किल्ड जैसिका’ कैसे लिखी?
मैं स्पष्ट था कि इस फिल्म में मुझे किसी पर आरोप नहीं लगाने थे। न ही कोई अपील या जांच करनी थी। इस घटना ने पूरे मुल्क का ध्यान बटोरा। लोग कहने लगे कि हम भी टैक्सपेयर हैं भई, ये बात तो गलत हुई। हमें अच्छी नहीं लगी। हम तो कैंडल लेकर जाएंगे यार। हर दिन तो कोई कैंडल लेकर या मैं हूं अन्ना की टोपी पहनकर घर से निकलता नहीं है न। ये बड़ी ड्रमैटिक चीज थी। डर ये लगा कि इस कहानी के सब पहलुओं को साथ कैसे रख पाऊंगा। स्क्रिप्ट की बारहवीं स्टेज में पता लगा कि स्टोरी कहां जा रही है। कई लोगों से मिला।सबरीना से भी। फिर एक महीना इस प्रोसेस से अलग होकर घर गया। लौटा और लिखना शुरू किया।

कोई फिल्म बनाना चाहता है तो शुरुआत कैसे करे?
पहले तो आपके पास एक कहानी हो, स्क्रिप्ट हो। स्क्रिप्ट होगी तो किसी प्रॉड्यूसर के पास जा सकते हैं। और सीखते-सीखते फिल्म बना सकते हैं। अपने पर भरोसा रखना बहुत जरूरी है। यकीन जानिए आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा रास्ता ये है कि किसी डायरेक्टर को असिस्ट करें और साथ-साथ में लिखते रहें। और जब डेढ़ दो साल बाद सारे तौर-तरीके जान जाएं तो अपनी फिल्म बनाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, December 14, 2011

“मैं आपसे असहमत हूं: अभिषेक बच्चन”

सफेद कुर्ते-पायजामे में बैठे अभिषेक बच्चन। अपने हंसने-हंसाने के उस जाने-पहचाने अंदाज के साथ, जो उन्होंने अपने पिता अमिताभ बच्चन से विरासत में पाया है। अपने एक्सक्लूसिव होने के उस आवरण के साथ, जो हर हिट-फ्लॉप के बावजूद उनके इर्द-गिर्द बना हुआ है। कोई ऐसा सवाल पूछता है तो कोई वैसा। पर मुंह बनाने की बजाय वह या तो अहसमति जताते हैं, या फिर उस सवाल को हंसी में छिपा देते हैं। बेटी के जन्म के बाद उनके व्यक्तित्व में एक अलग किस्म का ठहराव, झुकाव और तसल्ली देखी जा सकती है। हो सकता है ऐसा ही कुछ बदलाव परदे पर उनके अभिनय में भी दिखे। अब्बास-मुस्तान के निर्देशन में उनकी फिल्म 'प्लेयर्स’ 6 जनवरी 2012 को रिलीज हो रही है। इसी सिलसिले में उनसे बातचीत हुई। कुछेक सवाल दूसरे सिरों से भी आए, बाकी इसी छोर से।


आलोचना
मुझे स्वीकार है
फिल्म क्रिटिक्स भले ही उनकी फिल्मों की तारीफ नहीं कर पाते हों, पर अभिषेक कहते हैं कि मैंने हमेशा खुद को बदला है। उनके मुताबिक, “मेरी कोशिश रहती है कि हर फिल्म पिछली से अलग हो। 'दिल्ली-6’, 'दोस्ताना’, 'खेलें हम जी जान से’ या 'दम मारो दम’ सब अलग थीं। अब 'प्लेयर्स’ आई है जो एक्शन फिल्म है। आने वाली फिल्मों में 'बोल बच्चन’ कॉमेडी है और 'धूम-3’ मसाला एंटरटेनर है।" मगर इतनी कोशिशों के बाद भी जब उनकी फिल्म आती है तो एक झटके से आलोचक उनके काम को खारिज कर दते हैं। क्या वो इस क्रिटिसिज्म को स्वीकार करते हैं या मन ही मन कहते हैं कि नहीं, इस फिल्म में मैंने अच्छा काम किया था, मैं सहमत नहीं हूं? उनका बेहद सुलझा हुआ छोटा जवाब आता है, “नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं हमेशा क्रिटिसिज्म को स्वीकार करता हूं।"

इंडियन सेंस में देखें ये रीमेक
अब्बास-मुस्तान की फिल्में देखकर जवान हुए अभिषेक इनमें से अपनी फेवरेट बताते हैं। कहते हैं, “खिलाड़ी, बाजीगर और 1990 के बाद की सारी फिल्में मैंने देखी हैं। मुझे रेस और एतराज भी पसंद है। आई लव देम। शायद इसलिए मैं शुरू से उनके साथ काम करना चाहता था।" इन भाइयों की हालिया फिल्म 'प्लेयर्स’ हॉलीवुड फिल्म 'इटैलियन जॉब’ की ऑफिशियल रीमेक है। जब ऑरिजिनल फिल्म लोग देख चुके हैं, तो रीमेक के दर्शक क्या घट नहीं जाते? उन्हें क्यों और कैसे देखा जाए? सुनकर फिल्म में चार्ली मैस्केरेनहस का लीड रोल कर रहे अभिषेक कहते हैं, “ये फिल्म पहले 1969 में बनी थी और फिर 2003 में। उन्होंने इसके राइट्स खरीदे हैं। और इंडियन संदर्भ में अब्बास-मुस्तान भाई ने कहानी बदली है। वो लोगों को जरूर पसंद आएगी। और चाहे अंग्रेजी फिल्म का रीमेक हो, हमें इंडियन सेंस में देखना चाहिए। मैं भी फिल्में ऐसे ही देखता हूं।"

पापा की फिल्में लैजेंड्री और कल्ट
इस फिल्म में अभिषेक एक थीफ बने हैं। लेकिन ये रोल पॉजिटिव है। कहते हैं, “ये कैरेक्टर रॉबरी पैसों के लिए नहीं करता है, बदला लेने के लिए करता है। फिल्म सोना लूटने के बारे में है। जिसे मेरा कैरेक्टर चार्ली अपने दोस्तों के साथ लूटता है।" बातचीत के दौरान सवाल कहीं से उठकर कहीं जाते रहे। 'डॉन-टू’ और 'अग्निपथ’ जैसी अमिताभ बच्चन की फिल्मों की रीमेक वो क्यों नहीं करते? इसके जवाब में उनकी प्रतिक्रिया आती है, “अरे भाई, कोई मुझे पूछता नहीं तो मैं क्या करूं। मैं चाहूंगा कि मेरी फिल्मों का रीमेक हो, दूसरों की फिल्मों का मैं न करूं। पापा की जितनी भी फिल्में हैं वो लैजेंड्री हैं और कल्ट हैं। उन्हें वैसे ही रहने दिया जाए।"

आधे-अधूरे पर पूरे...
# 'बोल बच्चन’ में अजय देवगन के साथ काम कर रहा हूं।
# 'प्लेयर्स’ में जॉनी भाई भी हैं। वो बहुत बिजी एक्टर हैं और एक लैजेंड हैं। उनके साथ काम करके हमेशा सीखता हूं।
# उनका नाम मुस्तान (डायरेक्टर मुस्तान बर्मावाला) है और दुर्भाग्य से इंडस्ट्री ने उन्हें मस्तान नाम से रीनेम कर दिया है।
# ये डिबेट पुरानी है कि आर्ट जिंदगी की नकल करता है या जिंदगी आर्ट की। ये एंटरटेनमेंट की दुनिया है। आपको बस अपनी फिल्में बनाते रहना चाहिए।
# मैंने दोनों 'इटैलियन जॉब’ देखी है। ऑरिजिनल 1969 में बनी थी, ब्रिटिश एक्टर माइकल केन के लीड रोल वाली, वो मेरी फेवरेट फिल्मों में से है।

प्रश्नोत्तर सहमति-असहमति के
इन
दिनों हमारी फिल्में स्टाइल, टेक्नीक और एक्शन में हूबहू हॉलीवुड मूवीज सी ही लगने लगी हैं। हॉलीवुड ने तो अपना अंदाज खुद इजाद किया था, क्या हमें भी उन्हें कॉपी करने की बजाय अपना अंदाज नहीं ढूंढना चाहिए?
मैं इसे ऐसे नहीं देखता। मैं आपको बहुत सारी हॉलीवुड मूवीज दिखा सकता हूं जो इंडियन फिल्मों से इंस्पायर्ड हैं और उन जैसी बनी हैं। हॉलीवुड और हम सब एक बड़ी क्रिएटिव फैमिली हैं। हमारे बीच ये शेयरिंग होनी चाहिए। हमारे टेक्नीशियन वहां काम करते हैं, वहां के टेक्नीशियन यहां। तो ये भेद नहीं होना चाहिए।

'प्लेयर्समल्टीप्लेक्स के लिए है या सिंगल स्क्रीन के लिए। क्या हम ये बंटवारा करके देख सकते हैं?
नहीं, ये फिल्म दोनों के लिए है। अगर आपने अब्बास-मुस्तान भाई की फिल्में देखी हैं तो वो हर तरह की ऑडियंस के लिए होती हैं। और मुझे ये मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन को अलग करके देखने की बात कभी समझ नहीं आई है। मैं ये फर्क नहीं मानता। क्योंकि पांच साल पहले मल्टीप्लेक्स नहीं थे तो सब ऑडियंस थियेटर में जाकर देखती थी। फर्क कहां था?

नहीं, कस्बों में और इंडिया के इंटीरियर्स में लोगों को 'डेल्ही बैलीजैसी फिल्मों का सेंस ऑफ ह्यूमर शायद समझ आए, जबकि उन्हें 'सिंघमसमझ आएगी।
नो, नो! आई डिसअग्री विद यू! ये कहना गलत होगा कि रूरल में ऑडियंस को समझ नहीं आता। वो लोग बहुत इंटेलिजेंट हैं। उनकी पसंद अलग जरूर हो सकती है। समझ आना एक बात है और पसंद आना दूसरी। आप चंडीगढ़ से हैं, आपको शायद साउथ इंडियन फिल्म पसंद न आए, पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको समझ नहीं आएगी।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, December 11, 2011

सूडानी बच्चों का मशीन गन वाला संत

फिल्मः मशीन गन प्रीचर
निर्देशकः मार्क फॉर्स्टर
कास्टः जेरॉर्ड बटलर, मिशेल मोनाहन, माइकल शैनॉन, मैडलिन कैरल, सोउलेमने सवाने, रेमा मारवेन
सर्टिफिकेटः ए (एडल्ट)
स्टारः तीन, 3.0

सोमालिया के बागियों के खिलाफ अमेरिकी सैनिकों की हेल्प पर बनी 'ब्लैक हॉक डाउन’ और स्टीवन स्पीलबर्ग की 'सेविंग प्राइवेट रायन’ में रिएलिटी और इमोशन दोनों थे। बावजूद इसके दोनों मसाला एंटरटेनर थी। 'मशीन गन प्रीचर’ मसाला एंटरटेनर नहीं है। 'द रम डायरी’ जैसी बायोपिक की तरह ये भी जोड़ती तो है, पर कुछ फॉर्मल है। जैसे लाइफ होती है। फिल्म सैम चिलर्स की जिंदगी पर आधारित है जिन्होंने दक्षिणी सूडान में बच्चों के लिए काम किया। उनके लिए अनाथालय बनवाया और उन्हें अगुवा करने वालों के कब्जे से मुक्त करवाया। मगर असली सैम चिलर्स के काम करने के तरीके को सही और गलत ठहराने का फैसला फिल्म से करने की बजाय, उनके बारे में जानकर ही करें। फिल्म में आते हैं। जब सैम 'लॉड्र्स रजिस्टेंस आर्मी’ की गाडिय़ों पर हमले करके अगुवा बच्चों को छुड़वाना शुरू करता है तो वो सीन थ्रिलिंग बन पड़ते हैं। कुछ-कुछ रंगो को धुकधुकाते हुए। जेरॉर्ड बटलर सैम चिलर्स के रोल के लिए सही चुनाव रहे। उनका साथ देते अश्वेत एक्टर सोउलेमने सवाने भी सुहावने लगते हैं। कुछेक सीन विचलित करने वाले हैं इसलिए मूवी को ए सर्टिफिकेट मिला है। पर फूहड़, फालूदा और टाइमपास फिल्मों के बीच ऐसी फिल्में भी होनी चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की तरफ, फिल्मों में ही सही, रुचि जगाए। सूडान और उसके आंतरिक संघर्ष को ही लीजिए। इसमें इंटरनेशनल एजेंसियों की भूमिका भी जांची-परखी जा सकती है। अपने सब्जेक्ट और जरा से हटके ट्रीटमेंट की वजह से ये फिल्म मुझे औसत से अच्छी लगी। फिल्म में अमेजिंग चाइल्ड सिंगर रेमा मारवेन भी हैं। सैम बने जेरॉर्ड की बैप्टिज्म सैरेमनी के वक्त रेमा का फिल्म में असल में अमेजिंग ग्रेस गाना अद्भुत है।कौन है ये वाइट प्रीचर
पेंसिलवेनिया की जेल से सैम चिलर्स (जेरॉर्ड बटलर) छूटा है। ड्रग्स और आवारागर्दी में रहता है। घर पर एक बच्ची (मैडलिन कैरल), बीवी (मिशेल मोनाहन) और मां (कैथी बेकर) है। जब नशे की अति हो जाती है तो बीवी उसे चर्च ले जाती है और नशा छुड़वाती है। खैर, समुद्री तूफान आने से कस्बा तबाह हो जाता है और सैम को हाउसिंग का बिजनेस मिलता है। वो कुछ समृद्ध हो जाता है। एक बार युगांडा से आए किसी मिशनरी को सुनने के बाद उसकी सूडान जाने की इच्छा होती है। वहां लॉड्र्स रजिस्टेंस आर्मी (एलआरए) लोगों पर अत्याचार करती है। खासतौर पर छोटे बच्चों का किडनैप करना, उनके हाथों में हथियार थमाना और उनका यौन शोषण करना। सैम की मुलाकात यहां पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के एक सैनिक डेंग (सोउलेमने सवाने) से होती है। यहां से सैम दक्षिणी सूडान की हिंसक खूनी हकीकत देखता है और बच्चों को बचाने की कोशिश करता है। पर इस भलाई के काम के लिए भी सैम बहुत सारी मुश्किलों से गुजरता है।

असली सैम का संदेश
दूसरे इंटरनेशनल हेल्प ग्रुप्स के सैम के हिंसक तरीकों की आलोचना करने पर फिल्म के आखिर में असली सैम चिलर्स का वीडियो फुटेज है। उसमें वह कहते हैं, 'कोई अपहरणकर्ता या टेरेरिस्ट आपके बच्चे को अगुवा कर ले। और मैं आपसे कहूं कि आपके बच्चे को वापिस ला सकता हूं। तो फिर, इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उसे कैसे लाता हूं।‘ फिल्म खत्म होने के बाद भी ये असली डॉयलॉग इम्प्रेस करता है। ये और बात है कि हिंसा कभी जायज नहीं होती।

सोचता हूं...
# जेल से छूटकर आए सैम से घर में सबसे पहले उसकी छोटी सी बेटी मिलती है। कुछ सीन बाद जब वो उम्र में कुछ बड़ी नजर आती है तो पता चलता है कि सैम चिलर्स की जिंदगी के कुछ साल अपने काम को करते हुए बीच चुके हैं। क्योंकि हाउसिंग के काम में फक्कड़ से समृद्ध होने का कोई और संकेत फिल्म में नहीं है। एक सीन है। रात को पेंसिलवेनिया में हरिकेन आता है, सुबह बिजनेस से जुड़ा आदमी आकर कहता है कि बहुत सा बिजनेस आया है, टूटे घरों को बनाने का, करोगे क्या, तो सैम कहता है, 'हां, फिफ्टी-फिफ्टी में।' खैर, यहां के बाद सीधा वो सीन है जहां सैम अपनी वाइफ और बेटी को उनका नया बड़ा बंगला दिखाने लाया है। कुछ पलों में समझ आता है कि सैम पैसे वाला हो गया है। बाद में उसके सूडान जाने और आने के कई मौकों में भी बीतते टाइम का पता उसकी बेटी के बड़े होने से ही लगता है।
# चाहे इसे मिसिंग पहलू कह लें या नया प्रयोग कि सैम के दिमाग में चल रही उधेड़बुन और सुसाइडल टेंडेंसी स्क्रीन पर देखकर सीधे-सीधे समझ नहीं आती। दर्शक को खुद अनुमान लगाना पड़ता है। मसलन ये कि हां, शायद सूडानी लोगों की मदद के लिए लड़ रहा अश्वेत लीडर जब हैलीकॉप्टर क्रैश में मारा जाता है, तो सोफे पर बैठा सैम बौखला जाता है। अपने सूडानी कैंप के लिए बड़ी गाड़ी चाहिए, ताकि ज्यादा बच्चों को बचाया जा सके, पर कोई भी हैल्प करने से मना कर देता है। पैसे की किल्लत और ऊपर से मानवता की इस लड़ाई में एक बड़ा लीडर भी मारा गया और उसपर बेटी लिमोजीन खरीदने की बात कह रही है। फिर अपने दोस्त डॉनी को उसका बुरा भला कहना और टुकड़ों पे पल रहा कुत्ता कहना। कारोबार बेच, बीवी और बच्ची को रोता छोड़ चला जाना। पीछे से दोस्त डॉनी का ड्रग्स ओवरडोज और सैम के बुरा-भला कहने की वजह से मर जाना। वहां सूडान कैंप में पहुंचने पर भी बच्चों के प्रति वो प्यार अपनी आंखों में नहीं रख पाना। उस बागी को माथे में गोली मारना। हाथ पर गलती से सूप गिरा देने वाले अनाथ बच्चे को धक्का देना। ...ये सब विश्लेषण हमारे सामने जरूर होते हैं, पर सैम क्यों खुद को शूट कर लेना चाहता है। इसके कोई सीधे समझ आते इमोशन नहीं हैं। हमें सोचना पड़ता है। ये कि भगवान का उसकी मदद न करना और उसका सूडानी बच्चों की मदद न कर पाना उसे फ्रस्ट्रेट कर देता है।
# ये तो सैम के इमोशन की एक स्टेज है। शुरू में भी जैसे, एक युगांडा से आए हेल्पएड सज्जन को चर्च में सुनना और फिर एकदम से अफ्रीका जाने का मन बनाना, जबकि दर्शकों को पता नहीं चलता कि आखिर सैम इतना इम्प्रेस और प्रेरित, बाहर जाने के लिए क्यों हुआ है। इतना ही सपाट उसका बैप्टाइज होने का इरादा भी है। ये सपाट और पता न चलने वाली बात अच्छी भी है और बुरी भी। अच्छी इसलिए क्योंकि कुछ दर्शक स्मार्ट होते हैं, वो खुद समझना चाहते हैं और हीरो की लाइफ में कुछ भी अद्वितीय होता नहीं देखना चाहते। हर बार हीरो अपनी लाइफ में कोई बड़ा फैसला ले इसलिए किसी बड़े दैवीय चमत्कार का होना जरूरी नहीं होता। और वैसे भी असल लाइफ में ऐसा कहां होता है। होता भी है तो हम उसका विश्लेषण उतना हीरोइक तरीके से कहां करते हैं। चे गुवेरा की बायोपिक को ही लें। वो कोढिय़ों की मदद करने के लिए जाने को क्यों और कितना इच्छुक है ये उसी के दिमाग में है दर्शक को पता नहीं चलता। बस वो मोटरसाइकल जर्नी पर अपने दोस्त के साथ निकलता है। वैसे ही, यहां सैम का सूडान जाने का फैसला लेना भी उतना ही सिंपल सा हो सकता है। इंसानी सा। बुरा बस इतना ही है कि कहानी फिल्मी नहीं हो पाती।
# फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट्स में असली सैम चिलर्स नजर आते हैं। उनकी, उनकी फैमिली की तस्वीरें, उनके सूडान और चर्च में प्रीच करते हुए वीडियो, उनकी पर्सनैलिटी और अंदाज नजर आता है। बहुत कम ही ऐसा होता है जब फिल्मी नायक से असली बायोग्राफिकल फिगर ज्यादा प्रभावी लगता है। यहां भी सैम फिल्म के सैम (जेरॉर्ड बटलर) से बिल्कुल भी कम नहीं लगते हैं।ये फिल्म सैम चिलर्स की लिखी स्मृतियों "अनॉदर मेन्स वॉर" पर बनाई गई है। सैम आज भी युगांडा, सूडान, दक्षिणी सूडान और पूर्वी अफ्रीका में अपने काम जारी रखे हुए हैं। तमाम विवादों के साथ।
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गजेंद्र सिंह भाटी

मकबूल की बनाई चुस्त लंका

फिल्मः लंका
निर्देशकः मकबूल खान
कास्टः मनोज बाजपेयी, अर्जन बाजवा, टिया बाजपेयी, यशपाल शर्मा, मनीष चौधरी
सर्टिफिकेटः ए (एडल्ट)
स्टारः तीन, 3.0

'लंका माइंडब्लोइंग फिल्म नहीं है। मगर मनोज, टिया और अर्जन को लेकर इससे बेहतर फिल्म नहीं बन सकती थी। इस सब्जेक्ट से मिलती-जुलती फिल्म तिग्मांशु धूलिया की 'साहब, बीवी और गैंगस्टर भी थी। ऐसे में स्क्रिप्ट के स्तर पर कुछ भी बासी होता तो, लंका लुट जाती। पर मकबूल खान का डायरेक्शन, चीजों को रियल रखने की जिद और औसत से अच्छे डायलॉग फिल्म को चुस्त और हमें फ्रैश रखते हैं। पुलिस ऑफिसर भूप सिंह बने यशपाल शर्मा और सीआईडी लखनऊ के ऑफिसर बने मनीष चौधरी भी इसमें जान फूंकते जाते हैं। एंटरटेनमेंट को लेकर कोई दावे नहीं करूंगा, पर कोशिश ईमानदार और मेहनतभरी रही है। टिया बाजपेयी शुरू में अपने किरदार को स्थापित करते वक्त बेहद कमजोर एक्टिंग करती हैं और बाद में रोल ही स्लो हो जाता है। मनोज के लुक्स और अंदाज में वो भाईसाहब वाला डर और लाचारी दोनों है। अर्जन रोल में फिट लगते हैं, करियर के सबसे नेचरल रोल में। सिनेमा फैन्स जरूर देखें। एक-दो खूनी सीन्स के लिए फिल्म को 'ए’ सर्टिफिकेट मिला है। नो प्रॉब्लम।

भाई साहब की लंका
अजीब मिजाज का शहर है ये बिजनौर। इस लंका के रावण हैं जसवंत सिसोदिया यानी भाई साहब (मनोज बाजपेयी)। यहां की क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव हैं और पॉलिटिकल प्रभाव रखते हैं। दूसरे लफ्जों में कहें तो रसूखदार गुंडे हैं। तभी तो बिजनौर के चीफ मेडिकल ऑफिसर की बेटी अंजू (टिया बाजपेयी) को उसके ही घर में अपनी बिन ब्याही बना रखा है। कहानी में और बिजनौर में एक दिन जसवंत के चचेरे भाई (अर्जन बाजवा) की एंट्री होती है, जो बरसों पहले भाईसाहब का अपमान करने पर एक पुलिसवाले के सिर पर बैट मारकर भाग गया था। वह भाईसाहब से प्यार करता है, पर जब अंजू को देखता है तो दुविधा में फंसता है। गलत होते हुए भी भाईसाहब का साथ दे या अंजू की मदद करे?

मिंट की डली से डायलॉग
# आप मुख्यमंत्री जी से कह दो। या तो पानी आधा-आधा हो या फिर बिजनौर के बाहर से ही नहर निकालकर ले जाए।
# कप्तान हूं जिले का, अब क्या करूं, आप तो घास नहीं डालते।
अबे तू कोई गधा है जो घास डालूं।
# अंटी जी, चा शा नहीं पिलाएंगी?
# ये लड़का नहीं है सांड है, नकेल डालकर रखो।
अरे नकेल डाल के रखा तो खेत का बैल बन जाएगा। इसे तो छुट्टा सांड ही रखना है।
# पढऩे-लिखने से आता है धीरज। और धीरज सिखाता है सही वक्त का चुनाव करना। टाइम तो आण दे।
# जीने के लिए हिम्मत चाहिए होती है, मरने के लिए नहीं।
# याद रखो डाक साब। अगर अंजू मेरी न हुई तो मैं उसे दुनिया की कर दूंगा। उसे हर बाजार में बेचूंगा, हर चौक में बेचूंगा। और बेचता रहूंगा, बेचता रहूंगा, बेचता रहूंगा। जब तक उसकी सांसें बंद न हो जाएं।

मकबूल ने चुने जो ताजा तत्व
# टिया के मेडिकल ऑफिसर पिता का लाल-पीले रंग का सरकारी क्वार्टर।
# अर्जन बाजवा का बस से उतरकर, रिक्शे में बैठ, बिजनौर की सड़कों और ट्रैफिक में घुसते जाना।
# अंजू का डॉक्टरी का एग्जैम सेंटर, एक पुराना सा टूटा राजीव गांधी स्कूल।
# जसवंत भाईसाहब की गाड़ी के आगे लगी 'सिसोदिया’ लिखी जंग खाई नेमप्लेट।
# भूप सिंह का जान बचाने के लिए छिछली सी नदी के बीच से दौड़ते हुए आना।

'बैंडिट क्वीनके उस सीन को आदरांजलि...
जसवंत और उसके आदमियों का गांव के मोहल्ले और हर एक घर में घुसकर दुश्मनों को मारना खास सीन है। यहां कैमरा 380 डिग्री घूमता है। ये हूबहू 'बैंडिट क्वीन’ के उस सीन से प्रेरित है जिसमें फूलन और डाकू उस मुहल्ले के हर एक घर में घुसते हैं, जहां के कुएं पर उसके कपड़े उतारे गए थे। एक बातचीत में डायरेक्टर मकबूल खान ने खुद बताया था कि धौलपुर में 'बैंडिट क्वीन’ की शूटिंग वो स्कूल से भागकर देखने जाया करते थे। उसमें मनोज बाजपेयी भी थे।****************
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, October 6, 2011

जिन्हें नाज है डेविड पर वो कहां हैं: रास्कल्स

फिल्म: रास्कल्स
निर्देशक: डेविड धवन
कास्ट: अजय देवगन, संजय दत्त, कंगना रनाउत, अर्जुन रामपाल, लीजा हैडन, चंकी पांडे
स्टार: डेढ़, 1.5


डेविड धवन की 'आंखें, 'साजन चले ससुराल', 'हीरो/कुली नं. वन' और 'स्वर्ग' पर बड़ी हुई पीढ़ी उनकी फिल्मों पर जान छिड़कती है। उनकी 'राजाबाबू' आज टीवी पर आती है तो सौंवी बार भी फिल्म की रिपीट वैल्यू वही होती है। मगर वो ये डेविड नहीं हैं जो हमें 'रासकल्स' देते हैं। यूं ज्यादातर नहीं होता कि थियेटर में लोग हंस रहे हों और फिल्म मुझे न पसंद आए। पर यहां हुआ। फिल्म वाहियात है, अब से पहले बन चुकी फिल्मों का फालूदा है, डायलॉग्स में हद से ज्यादा बॉलीवुड का रेफरेंस है, गानों की कोरियोग्रफी अश्लील से कम नहीं है, न कोई कहानी है न एक्टिंग। सारे कैरेक्टर इतने लाऊड हैं कि सिर दुखने लगता है। कुछ जगह हंसी आती है, पर अगले ही पल छिन जाती है। चेतू और भग्गू की ये कहानी अगर दिखाई जानी भी चाहिए रात को साढ़े दस के बाद वाले शो में, वो भी 'ए' सर्टिफिकेट के साथ। ये जुमला डेविड धवन की फिल्मों के साथ शुरू हुआ था कि 'इनकी फिल्में देखनी हैं तो दिमाग घर छोड़कर जाइए।' अब नया जुमला ये है कि 'अपना कॉमन सेंस और मॉरैलिटी भी दरिया में बहाकर जाइए।'

बदमाशों की कहानी
वैसे तो युनूस सजवाल के लिखे इस स्क्रीनप्ले में कहानी ढूंढने से भी नहीं मिलती पर पढ़ लीजिए। भगत भोंसले (अजय देवगन) और चेतन चौहान (संजय दत्त) ठग यानी कॉनमैन हैं। दोनों अलग-अलग वाकयों में एंथनी (अर्जुन रामपाल) को लूटकर बैंकॉक भाग जाते हैं। यहां दोनों एक ही पैसेवाली लड़की खुशी (कंगना रनाऊत) को फंसाने और एक-दूसरे को रास्ते से हटाने की कोशिशों में लगे हैं। इर्द-गिर्द कॉलगर्ल डॉली (लीजा हैडन) और होटल मैनेजर बीबीसी (चंकी पांडे) जैसे किरदार भी हैं।

बंद करो बर्बादी
एक गाना है 'परदा गिरादे'। इसमें ढेर सारे टेक्नीशियन, पैसा, डांसर्स और रिसोर्सेज खर्च हुए हैं, मगर बदले में मिलते हैं तो बस कुछ अश्लील इशारे और घटिया कोरियोग्रफी। उसपर अजय और संजय दत्त का अकड़े शरीरों के साथ नाचने की कोशिश करना। इस गैर-जरूरी फिल्म को बनाने में भी सोमालिया के गरीब बच्चों के जिक्र को बार बार लाया गया है। एक तो ये असंवेदनशील है और दूजा ये संदर्भ दर्शकों के रत्तीभर भी काम नहीं आता। डॉली और खुशी से बात-बात पर जोंक की तरह चिपटते दोनों हीरो छिछोरे लगते हैं। ऐसा लगता है कि डायरेक्टर डेविड धवन कोमा से उठे हैं और फिल्में बनाना सीख रहे हैं। और 'रासकल्स' के रूप में उनकी अच्छी और लुभावनी फिल्मों का विकृत रूप सामने आया है।

वूडी से लेते डेविड
सन 1969 में वूडी एलन की बनाई एक कॉमेडी फिल्म आई थी 'टेक द मनी एंड रन'। इसके एक सीन में वूडी का किरदार बैंक लूटने जाता है। काऊंटर पर कैशियर को वह जो पर्ची देता है उसपर लिखा होता है, 'प्लीज पुट 50 थाउजेंड डॉलर इनटू दिस बैग। एक्ट नेचरल। आई एम पॉइंटिंग अ गन एट यू।' इस अद्भुत सीन में कैशियर एक्ट को एब्ट और गन को गब पढ़ता है। फिर पूरे बैंक का स्टॉफ इन दो शब्दों पर ही उससे बहस करने लगता है। ठीक 42 साल बाद डेविड धवन गन को गम पढ़वाते हुए ये सीन 'रासकल्स' में अजय-संजय और बैंकॉक के बैंक स्टॉफ पर फिट कर देते हैं। ऐसी बहुत सारी नकलें मारकर भी बुरी तरह फेल होने की ये फिल्म बेहतरीन मिसाल है।

संजय छैल के डायलॉग्स का खेल
# मैं हूं अजरूद्दीन जलालुद्दीन फकरूद्दीन फेसबुकवाला।
# अमेरिका को लादेन मिल गया, लेकिन आपको चेतन नहीं मिलेगा।
# ए भगु भाई, आ तमारे मस्त मस्त दो नैन अस्त कैसे हो गए।
# क्या कहानी बनाई है, इसे सुनकर तो संजय लीला भंसाली 'ब्लैक' पार्ट-2 बना दे।
# हे भगवान, आज पता चला कि कपड़ा उतारना कितना आसान है और पहनाना कितना मुश्किल। (शायद फिल्म में सबसे फनी)
# नग्नमुखासन, बैंक की लोन की तरह ध्यान अंदर लो और इंस्टॉलमेंट की तरह छोड़ो।
# प्लीज वेलकम भगत भोसले, भोसले के होंसले ने दुश्मनों के घोंसले तोड़ दिए।
# एंथनी बदनाम हुआ रास्कल्स तेरे लिए।
# जिस आंधी तूफान में लोगों के आशियाने उजड़ जाते हैं, उसमें हम लोग चड्डी और बनियान सुखाते हैं।
# ये इसकी बेटी है? इसकी कैसे हो सकती है। काले गुलाबजामुन के घर सफेद रसगुल्ला।

आखिर में
धवन की कॉमेडी को गोविंदा और करिश्मा बेस्ट एक्सप्लोर कर पाते थे। यहां सब लाऊड हैं। फिल्म में शक्ति कपूर, कादर खान, गोविंदा और जॉनी लीवर को मिस करते हैं। इस फिल्म में हैं तो बस चंकी पांडे और सतीश कौशिक। वो भी फीके से। अनीस बज्मी, रूमी जाफरी, कादर खान... डेविड से ज्यादा हम उनकी सफल फिल्मों के राइटर्स को मिस कर रहे हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, October 2, 2011

समझने में आसान और बनावट में होशियार फिल्मकारी

फिल्मः साहब बीवी और गैंगस्टर
निर्देशकः
तिग्मांशु धूलिया
कास्टः माही गिल, जिमी शेरगिल, रणदीप हुड्डा
स्टारः तीन, 3.0

पहला शॉट। हरे पेड़ों के झुरमुट के बीच पुराने पैलेस का व्यू। ऊपर एक चीत्कारती हुई चील मंडरा रही है। यहीं से धोखे और प्यार की इस कहानी का मूड तय हो जाता है। कि यहां सब चील और बाज जैसे मांस नोचने वाले हैं। शेक्सपीयरन ड्रामा या विशाल भारद्वाज की फिल्मों में जो अंधेरा और कड़वापन होता है वो बहुत बार दर्शकों की समझ से बाहर होता है। ऐसी फिल्में बेहद तनाव देने वाली और मुश्किल होती हैं। यहीं पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर' अलग हो जाती है। बेडरूम ड्रामा होते हुए भी और 'हासिल' और 'शागिर्द' जैसे ठोस निर्देशक (तिग्मांशु धूलिया) के हाथों बनी होने के बावजूद फिल्म सरल है, पर पूरी तरह स्मार्ट भी। खासतौर पर बड़े शहरों के दर्शकों के लिहाज से आराम से समझ में आने वाला ड्रामा है। स्क्रिप्ट और डायलॉग ऐसे हैं जो इन दिनों फिल्मों में दुर्लभ हो गए हैं। फिल्म के सब कैरेक्टर्स की एक्टिंग बेदाग है। ये जरूर है कि सेकंड हाफ में फिल्म की कसावट जरा ढीली हो जाती है। कुछ एडल्ट सब्जेक्ट, कुछ सेकंड हाफ का ढीलापन और कुछ जरा कम धांसू क्लाइमैक्स। इन तीन वजहों से फिल्म बहुत बेहतरीन नहीं हो पाती है। देखने की सलाह।

एक छोटी पूर्व रियासत में
उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश में कहीं एक छोटी सी रियासत है। यहां के राजा साहिब (जिमी शेरगिल) खुद को राजनीतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर बनाए रखने में लगे हैं। रानी (माही गिल) दिमागी तौर पर प्यार की भूखी है, पर साहिब का प्यार लालबाड़ी की महुआ (श्रिया नारायण) के पास है। कन्हैया (दीपराज राणा) बरसों से साहिब की परछाई है। साहिब का लोकल दुश्मन है गेंदा सिंह (विपिन शर्मा)। फिर हवेली में बबलू उर्फ ललित (रणदीप हुड्डा) की एंट्री होती है। यहीं से कहानी में प्यार, धोखा, छल, खून और साजिशें सरल तरीके से शामिल होती हैं।

मधुर और डिफाइनिंग गाने
फिल्म के गाने कहानी के तीनों किरदारों को डिफाइन करते हैं। शुरू में ही 'जुगनी दम साहिब दा भरदी, पर ए प्यार यार नू करदी...' सुनाई देता है और जुगनी, साहब, यार की कहानी समझ आ जाती है। फिर फिल्म की दो नायिकाओं (माही और श्रिया) के मन का हाल बताने आता है 'रात मुझे ये कह के चिढ़ाए, तारों से भरी मैं, तू अकेली हाये...''साहिब बड़ा हठीला...' गाने के बोल जिमी के किरदार के लिए है। अपनी रानी, अपने कस्बे को लोगों, अपने दुश्मनों और अपनी लाइफ के प्रति सरवाइव करने के हठीले रवैये को न्यायोचित करता हुआ। गैंगस्टर कहलाने वाले बबलू के हिस्से सटीक बोल आते हैं। 'मैं एक भंवरा, छोटे बागीचे का, मैंने ये क्या कर डाला...'। इन सभी गानों का संगीत गुनगुनाने लायक है। फिल्म में उनकी प्लेसिंग और भी बेहतर।

ऐसे हों डायलॉग और राइटर लोग
संजय चौहान तिग्मांशु की लेखनी से निकले नगीने...
1. और सुनो.. जिसे जान से मार रहे हो, उसे दोस्त तो नहीं कहो। (साहिब अपने दोस्त की सुपारी लेकर आए एक ठेकेदार से)
2. मार मार के खोल दूंगा इसको, और देखूंगा इसके अंदर क्या है जो मेरे अंदर नहीं है। (बबलू अपनी गर्लफ्रैंड से, उसके नए बॉयफ्रैंड को हॉकी से पीटते हुए)
3. जो भी करना तमीज से करना, यहां बदतमीजी भी तमीज से की जाती है। (साहिब की बीवी बबलू से)
4. वेजिटेरियन या नॉन वेजिटेरियन? जी मौकाटेरियन। (बबलू साहिब की बीवी से)
5. खाना क्या बनवाया है? मुर्गा मंगवाया है साहब। अबे, मुर्गी भी मंगवा लिया करो कभी। (गेंदा सिंह अपने आदमी से)
6. सोच समझ के तो इम्तिहान लिया जाता है, इंतकाम नहीं लिया जाता राजाजी। (गेंदा सिंह)

नजरअंदाज नहीं करें

# दीपल शॉ का यू.पी. के एक्सेंट में बबलू को बे, बेटा और बा बा लू कहना। उनके करियर का पहला स्मार्ट रोल, जहां वो नेचरल लगी हैं।
# मंत्री जी बने अभिनेता। उनका मुख्यमंत्री से फोन पर अपने थाइलैंड टूअर के बारे में बात करना और 'वहां' के 'उस' एक्सपीरियंस के बारे में कहना, 'सर वहां तो फील ही नहीं होता कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। देयर इज नो फील ऑफ चीटिंग, एट ऑल सर।'

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गजेंद्र सिंह भाटी

फोर्स संभाल नहीं पाए निशिकांत

फिल्मः फोर्स
निर्देशकः निशिकांत कामत
कास्टः जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जमवाल
स्टारः ढाई, 2.5

चाहे 'फोर्स' का एसीपी यशवर्धन हो या 'दम मारो दम' का एसीपी विष्णु कामत, इनका पहला वास्ता हमेशा 'सरफरोश' के एसीपी राठौड़ की आदर्श इमेज से होता है। होना भी चाहिए, क्योंकि अभी तक तो हमारी फिल्मों में राठौड़ (आमिर खान) जैसा दर्शकों को आसानी से समझ आने वाला, स्मार्ट और ह्यूमन एसीपी कोई आया नहीं है। 'फोर्स' में ये सब नहीं है और यही दिक्कत है। जॉन एक्टिंग में और बेहतर होते तो फिल्म का रुख अलग होता। विद्युत जमवाल विलेन बने हैं। कहना होगा कि शायद ही किसी फिल्म में किसी गुंडे या विलेन की उन जैसी हीरोनुमा एक्शन वाली एंट्री हुई है। जेनेलिया बबली लगकर अपना फर्ज निभा जाती हैं। निर्देशक निशिकांत ही फिल्म के इमोशन और प्रस्तुतिकरण संभाल नहीं पाते। मैं 'फोर्स' नहीं देखने की सलाह नहीं दे रहा हूं। देखें, जरूर देखें, बल्कि कुछ चीजें तो बहुत अच्छी हैं। पर 'सरफरोश' वाला सुकून इस फिल्म में नहीं है। दोस्तों के साथ एक बार ट्राई कर सकते हैं।

फोर्स की कहानी
एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) सीनियर नारकोटिक्स ऑफिसर है। कम बात करता है। न कोई आगे है न पीछे इसलिए अपने पेशे में किसी टास्क से डरता नहीं है। मुंबई में अपनी चार लोगों की टीम से वह ड्रग्स का खात्मा करने में बड़ी सफलता पाता है। फिर उसकी जिंदगी में माया (जेनेलिया डिसूजा) आती है। प्यार होता है। पर यहीं विष्णु (विद्युत जमवाल) के रूप में एक बड़ी लड़ाई उसका इंतजार कर रही है।

प्रस्तुति में गड़बड़ी
वैसे तो फिल्म में सबकुछ है। हैंडसम और हल्क जैसा हीरो जॉन अब्राहम। हैंडसम, खूंखार, तेज तर्रार और बहुत शक्तिशाली विलेन विद्युत जमवाल। बबली, स्वीट और फूलों सी खिली-खिली हीरोइन जेनेलिया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की स्पेशल चार लोगों की टीम। गुजरात के कच्छ, गोवा, पंजाब बॉर्डर, अफगानिस्तान बॉर्डर, जालंधर की जेल और हिमाचल के सोलन तक फैली ड्रग्स रैकेट की दास्तां। सॉलिड बातें। एक लव स्टोरी। एक हेट स्टोरी। और सबसे ऊपर एक बेहतरीन डायरेक्टर निशिकांत कामत। समस्या है प्रस्तुतिकरण। किस इमोशन को दर्शक के सामने कितनी देर रखना है और कब उठाकर दूसरा सीन देना है, ये पता नहीं। निशिकांत ने अपनी फिल्म 'मुंबई मेरी जान' में पांच-छह कहानियों का बहुत ही सरलता से और मनोरंजक तरीके से पेश किया था। यहां एक ही फिल्म, एक ही कहानी है पर वह उसे कुछ उलझा देते हैं। हम विलेन से नफरत करें, उससे पहले ही एसीपी सर की माला जपती हिरोइन आ जाती है। जब इनके प्यार को एंजॉय करने लगते हैं तो फिर ड्यूटी कॉल आ जाती है और हम गुंडों के बीच पहुंच जाते हैं। आप हीरोइन को फिल्म खत्म होने के पांच मिनट पहले तक जिंदा रखते हैं फिर मार देते हैं, ये स्टूपिड क्लाइमैक्स है। हीरो का प्रतिशोध सिर्फ पांच मिनट चलता है जो स्टूपिड है।

खामी मसलन ये
जेनेलिया का बार-बार हर दूसरे फ्रेम में आना फिल्म में एसीपी, उसके मिशन और विलेन लोगों के असर को ढीला करता है। वो सीन जिसमें जमवाल अपने आदमी के सिर पर पत्थर फैंककर मार देता है। उससे दर्शक भौंचक्के रह जाते हैं, पर वो उस औचकपन को एंजॉय कर पाए उससे पहले ही सीन कट हो जाता है और अगले सीन में जॉन जेनेलिया कोल्ड कॉफी पी रहे होते हैं। एक इमोशन में दर्शक को डुबोकर इतनी जल्दी निकाल लेना, गलत फैसला होता है।

हमारे हीरो के डायलॉग कितने करारे
# (खरीदना नहीं है, छीनना है) साइज देखकर बात किया कर, बच्चे के हाथ से बर्फ का गोला नहीं छीनना है। (एक टपोरी से)
# (तुम डरे नहीं? वो चेहरे पर पानी की जगह असल में तेजाब फैंक देता तो?) वो ऐसा नहीं करता, मुझे टपोरी को देखते ही उसकी औकात का अंदाजा हो जाता है। (जेनेलिया से)
# ये सूखे पेड़ पर गुलाब का फूल कब खिल गया। (एनसीबी टीम में जॉन का साथी, जॉन जेनेलिया से बात करते देख)
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गजेंद्र सिंह भाटी