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Sunday, August 5, 2012

क्यों सनी, पूजा और महेश भट्ट हमें उत्प्रेरित नहीं कर पाते!

फिल्म: जिस्म-2
निर्देशक: पूजा भट्ट
कास्ट: रणदीप हुड्डा, सनी लियोनी, अरुणोदय सिंह
स्टार: एक, 1.0
आगे कहानी के कुछ अंश का खुलासा भी है, ये ध्यान रखते हुए ही पढ़ें...
सेंसर और बाकी कैंचियों के बाद ‘जिस्म-2’ की विषय-वस्तु उतनी वयस्क नहीं रह गई है, जितनी किसी को उम्मीद हो सकती है। फिल्म में एक भी असहज करने वाला या रौंगटे खड़े करने वाला या यौन सुख देने वाला दृश्य नहीं है। हिसाब से ‘ए’ सर्टिफिकेट भी नहीं बनता... अगर मां-बहन की दो गालियों, मुख्य दृश्यों में सनी के अल्प वस्त्रों, पांच-छह स्मूच और नग्न पीठ पर तेल मसाज करने के एक दृश्य को छोड़ दें तो। अब फिल्म में एडल्ट भाव इतना ही रह जाता है कि सनी लियोनी नाम की इंडो-कैनेडियन पॉर्नस्टार एक हिंदी फिल्म में पहली बार नजर आ रही हैं (हालांकि दर्शकों को ये भूलकर सनी को वैसे ही देखना चाहिए जैसे उन्होंने ‘जन्नत-2’ में ईशा गुप्ता का या फिर ‘रॉकस्टार’ में नरगिस फाकरी को देखा था)। और यही भाव स्क्रिप्ट राइटर महेश भट्ट और निर्देशक पूजा भट्ट के लिए ‘जिस्म-2’ को बनाने का सबसे बड़ा उत्प्रेरक रहा। उन्हें लोगों की नसों में भी बस यही उत्प्रेरक भरकर काम चलाना था।

मगर हम उत्प्रेरित नहीं हुए। इसी जिस्मानी विषय वस्तु से चल रहा भट्ट निर्माण उद्योग ‘जिस्म-2’ को ‘जन्नत-2’, ‘राज’ और ‘मर्डर-2’ जितना अच्छा भी नहीं बना पाता। सिंगल स्क्रीन के दर्शकों को भी खुश नहीं कर पाया। दर्शक देखते हुए अपनी सीट पर ऊंघने लगते हैं, या फिर वो सनी की डबिंग, आंहों, कपड़ों और किसिंग दृश्यों की मजाक उड़ाते हैं। जाहिर है फिल्म एंगेज कर पाती तो दर्शक पूरे अनुशासन के साथ देखते। महज चार कलाकारों (सनी, अरुणोदय, रणदीप, आरिफ जकारिया) और एक आलीशान फार्महाउस की लोकेशन के भरोसे एक महात्वाकांक्षी कहानी को खींचने की कोशिश की जाती है। इसके अलावा फिल्म को जिन तत्वों का सहारा होता है वो हैं सनी लियोनी की देह, महेश भट्ट की लिखी कहानी और स्क्रिप्ट, शगुफ्ता रफीक के काव्यात्मक संवाद और यंग म्यूजिक डायरेक्टर अर्को मुखर्जी के गाने। अफसोस ये सब बैल बनकर भी फिल्म को खींच नहीं पाते। खैर, इन पर जाने से पहले आते हैं कहानी पर।

इज्ना (सनी) के पास इंटेलिजेंस ऑफिसर अयान (अरुणोदय) और उसके सीनियर गुरु (आरिफ जकारिया) मदद के लिए आते हैं। वह कबीर (रणदीप हुड्डा) नाम के बड़े अपराधी को पकडऩा चाहते हैं। उनके मुताबिक कबीर पहले उन्हीं के साथ काम करता था पर अब एक दुर्दांत हत्यारा बन चुका है और उसका नेटवर्क देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। वह इज्ना के पास इसलिए आए हैं क्योंकि एक वही है जो कबीर के सबसे करीब पहुंच सकती है और उसकी हार्ड ड्राइव में बंद गुप्त जानकारियां ला सकती है। क्योंकि एक वक्त (पांच-छह साल पहले) में इज्ना और कबीर एक-दूसरे के बेपनाह प्यार करते थे। इज्ना और अयान के बीच भी कुछ-कुछ प्यार जैसा है ये कहानी में महसूस होने लगता है। इज्ना इस मिशन का हिस्सा इसलिए नहीं बनना चाहती क्योंकि वह कबीर को बड़ी मुश्किल से भुला पाई है (जो बिना बताए एक रात उसे छोड़कर चला गया), दूसरा वो बहुत बड़ा हत्यारा है। खैर, वह मिशन का हिस्सा बनती है और कबीर के करीब जाती है। लेकिन यहीं से उलझने और प्यार की धक्का-मुक्की चालू हो जाती है। कबीर नहीं चाहता कि उसकी वजह से इज्ना को कोई तकलीफ हो और जिस जिंदगी को वह अभी जी रहा है उसमें इज्ना को सिर्फ दुख ही मिलेगा। कहानी में बस यही कहानी है। आखिर में जो जैसा है वो वैसा नहीं निकलता ये एक सरप्राइज करने वाली चीज है, पर इसे असरदार तरीके से प्रस्तुत नहीं किया जाता।

बात कलाकारों की। कहानी में अरुणोदय इंटेलिजेंस ऑफिसर बने हैं पर उनके हाव-भाव वैसे नहीं हैं। वह ज्यादा से ज्यादा इतना कर पाते हैं कि बीच-बीच में आरिफ जकारिया को सर (यस सर) कहते हुए सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं। या फिर रोने लगते हैं, या फिर चिल्लाने लगते हैं, या फिर सहनशीलता की प्रतिमूर्ति बनकर सबकुछ सहन करते रहते हैं। अरुणोदय की जबान बहुत साफ है। अंग्रेजी का एक्सेंट भी और खालिस हिंदी-उर्दू जबान भी। पर किरदार में ब्यौरे और बारीकियों की काफी कमी है। उन्हें अपने किरदार की पृष्ठभूमि और अनोखे हावभाव की अध्ययन करना चाहिए था। अरुणोदय ने अयान के किरदार को अपनी तरफ से कुछ नहीं दिया है, बस उसे औसत बनाकर छोड़ दिया है, जो हिंदी सिनेमा की डिजिटल रीलों में कहीं न कहीं दबा रह जाएगा।

सनी लियोनी ने जिंदगी भर महज एक इमोशन देते हुए तमाम फिल्में की हैं। ऊंची-ऊंची गर्म आंहें। यहां भी पहले सीन से लेकर आखिर तक वह बस सांसों से ही एक्सप्रेशन देती हैं। पहले सीन में जब आरिफ और अरुणोदय के किरदार उनसे कबीर के बारे में बातें कर रहे होते हैं, तो तकरीबन पांच-छह मिनट से भी लंबे इस सीन में सनी असमंजस भरे चेहरे के साथ लंबी-लंबी सांसें लेती रहती हैं और बिखरे हाव-भाव दिखाती रहती हैं। उनका वॉयसओवर जिसने भी किया है, उसी अनुशासन से किया है जैसे कटरीना कैफ या नरगिस फाकरी का किया जाता रहा है। स्वर में कोई भाव नहीं निकलता। सबकुछ सपाट है।

रणदीप हुड्डा को आने वाले वक्त में बहुत फिल्में मिलने वाली हैं। क्योंकि उन्हें लगातार गंभीर, शारीरिक तौर पर हीरोइक से लगने वाले और एंग्री एटिट्यूड वाले रोल मिल रहे हैं। ‘रिस्क’, ‘जन्नत-2’, ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ और ‘जिस्म-2’ के उदाहरण सामने हैं। वह कैजुअल टी-शर्ट पहनते हैं, जिसमें उनका चौड़ा ग्रीक देवताओं जैसा सीना और इमपरफेक्शन वाले परफेक्ट डोले दिखते रहते हैं। उनकी हल्की दाढ़ी-मूछें और साइड से खाली गाल और सिर पर कम बाल उन्हें रफ लुक देते हैं। मगर इस फिल्म के लिए उन्हें न जाने क्या ब्रीफ किया गया था कि सबकुछ व्यर्थ जाता है। फिल्म में उनके रोल को सहारा देने वाले कोई तथ्य और घटनाएं ही नहीं हैं।
इज्ना से उनके प्यार की मन में जो भी भावनाएं हैं, लोगों को नहीं पता चल पाती क्योंकि सबकुछ एब्सट्रैक्ट लगता है। जब इज्ना उनका दरवाजा खटखटाती है तो (दोनों छह-सात साल बाद एक-दूजे को देख रहे हैं) एक पल देखे बगैर वह मुंह पर दरवाजा बंद कर देते हैं। क्लाइमैक्स में उन्हें उनकी किताबों (नोम चोमस्की) वाली विचारधारा का दिखाया जाता है, पर जिसे देश और देश के असली दुश्मन अफसरों के खात्मे की इतनी चिंता है उसके रहने का मिजाज समझ नहीं आता। एक आलीशान फार्महाउस में कबीर रह रहा है, स्विट्जरलैंड में उसके अकाउंट में कभी न खत्म होने वाला पैसा है, वह हथियार बनाने वाली लॉबी से भिड़ रहा है पर फार्महाउस का इंटीरियर खास डिजाइन किया गया है। इसके एक विहंगम नीले रंग वाले अनोखे रोशनीदार कमरे में बैठकर वह सूफी अंदाज में डबल बास बजाते रहते हैं, दूसरे कमरे के इंटीरियर में लाल रंग प्रॉमिनेंट है। मुझे नहीं पता था कि देश के दुश्मनों से लडऩा और सिस्टम के खिलाफ क्रांति का बिुगल बजाना इतना वैभव भरा भी हो सकता है। जब ऐसी खामियां उभरती हैं तो तथाकथित एडल्ट ड्रामा मूवी बनाने की फिल्मकारों की मंशा पर संदेह होता है।

महेश भट्ट ने ‘जिस्म-2’ को ‘लास्ट टैंगो इन पैरिस’ का इंडियन जवाब बताया था। मगर न जाने उन्होंने कैसे मर्लन ब्रांडो और मारिया श्नाइडर के अभिनय की बराबरी रणदीप और सनी से कर दी। बड़बोलेपन से बड़ी फिल्में नहीं बनती, कथ्यात्मक और सिनेमैटिक होने से बनती हैं। उनकी स्क्रिप्ट में कुछ भी नहीं है। किरदारों के उठाव और ब्यौरे पर काम करने की बजाय उन्होंने बस इधर-उधर इम्प्रेस करने की कोशिश की है। जैसे, रणदीप का गुरुदत्त के जमाने का एक ब्लैक एंड वाइट गाना बजाना, या फिर अरुणोदय का सनी के किरदार को बारबरा टेलर ब्रेडफोर्ड का नॉवेल ‘प्लेइंग द गेम’ देना। जाहिर है इन दो-तीन तितरे-बितरे इनपुट से कोई मूवी कल्ट नहीं हो जाती।

व्यावहारिक तौर पर भी ये मूर्खतापूर्ण लगता है कि इतनी रेंज की बातें (वॉर लॉबी, विरोध, सिस्टम के खिलाफ व्यक्तिगत जंग, प्यार, जिस्म, जासूसी, लैपटॉप में बंद इनफॉर्मेशन, पॉर्नमूवीस्टार और भी बहुत कुछ) की जाती है, पर फिल्म सिर्फ एक फार्महाउस में पूरी कर ली जाती है। कबीर के इज्ना को छोड़कर जाने के बाद छह-सात साल उसने क्या किया? कैसे लड़ाई लड़ी? कैसे साथी बनाए? किस-किस को मारा? इज्ना को कितना याद रखा-कितना नहीं? उसका मकसद क्या है? उसने जुटाई इनफॉर्मेशन किसे सौंपने का प्लैन बनाया है? और ये फार्महाउस कहां से पाया है?... ये डीटेलिंग कहां है? महेश हमें किसी भी किरदार की कोई आदत नहीं बताते। कमजोरी नहीं बताते। हां, इतना कि अरुणोदय का किरदार इज्ना को चाहता है पर कह नहीं पाता, वह अपने गुरु का विरोध नहीं कर पाता। शुरू में इतना भरोसा करता है कि इज्ना को कबीर के करीब जाने को मनाता है पर फिर शक करने लगता है। हां, ऐसा असल जिंदगी में होता है, पर तर्क कहां है? सबकुछ एब्स्ट्रैक्ट क्यों है?

अगर महेश की नजर में ये सब ‘लास्ट टैंगों इन पैरिस’ की बराबरी है तो, ऐसा नहीं है। बस उन्होंने स्क्रिप्ट में कुछ समानताएं देखकर ये बात की है। मसलन, लंबे वक्त बात दो लोगों का फिर से मिलना और कैजुअल से-क्-स करना, फिर किसी का किसी को मार देना। जाहिर है ये वो महेश भट्ट नहीं हैं जिन्होंने ‘जख्म’ या ‘दुश्मन’ जैसी फिल्में (‘सारांश’ और ‘अर्थ’ का नाम तो ले ही नहीं रहा) लिखी थीं।

इतने के बाद एक दृश्य का जिक्र करना चाहूंगा जो शायद फिल्म में महेश ने इरादतन नहीं रखा हो पर इस तरीके से भी देखा जा सकता है...
रणदीप के एंट्री सीन में होटल के ऊपर से पटाखे (रॉकेट) आसमान में जा रहे हैं रोशनियां बिखेरते हुए फूट रहे हैं। पृष्ठभूमि में आवाज आ रही है रेगिस्तान में मंडराती चील सी। चीं... चीं...। कमतरी से ही सही इस आवाज का यहां अच्छा असर होता है। कबीर के बारे में अब तक फिल्म में एक बड़ा हत्यारा (पॉलिटिकल किलर) होने की हवा बनाई गई है, उसे कुछ-कुछ रहस्यमयी बताया गया है। इर्द-गिर्द भय का जो आवरण बनाना था उसमें ये चीं चीं वाली चील की आवाज असरदार और सांकेतिक लगती है। मगर तब तक फिल्म फ्लैशबैक में जा चुकी होती है जहां वह एक ईमानदार ऑफिसर हुआ करता था।

अब शगुफ्ता रफीक के डायलॉग। वह बहुत काव्यात्मक लिखती हैं। उनकी बातें ज्यादा ही कवियों-शायरों जैसी है। जाहिर है जब किरदार अपने मॉडर्न मुंह से ऐसे चालीस साल पुराने मुशायरों-बैठकों वाले एहसास की बातें बोलते हैं तो कुछ बेमेल सा लगता है। कुछ अतार्किक और संप्रेषणहीन लगता है। हालांकि चार-पांच डायलॉग ऐसे हैं जिनकी तारीफ कर सकते हैं।
मसलन, जब कबीर के लिए इज्ना खून से लिखा खत और गुलदस्ता लेकर आती है। खत पढ़ते हुए कबीर कहता है, ये क्या है? तुमने ऐसा क्यों किया? तो इज्ना कहती है...
सिर्फ एक ही शिकायत है अपने खून से,
कि ये मेरे एहसास जितना गहरा नहीं है...

इन्हीं के बीच बात आगे बढ़ती है... तो एक कहता है
ये इश्क नहीं पागलपन है
जवाब आता है,
जो पागल न कर दे वो इश्क ही क्या

एक सीन में कबीर ब्लैक एंड वाइट जमाने का एक गाना बजा रहा होता है तो इज्ना चौंकती है...
तो कबीर कहता है
पुराने गाने अच्छे लगते हैं मुझे,
हम सब अपना चलता-फिरता अतीत ही तो हैं...

एक मौके पर कबीर कहता है,
मौसम गुजर जाते हैं याद नहीं गुजरती

शुरू में अपनी प्रेम कहानी का जिक्र करते हुए इज्ना कहती है,
और एक दिन वो चला ही गया
छोड़ गया अपनी खुशबू
मेरे तन पे, मेरे कपड़ों पे

कुछ संवाद ऐसे भी हैं जो सैंकड़ों बार सुने-सुनाए जा चुके हैं, मसलन
और भी गम है जमाने में मोहब्बत से सिवा

फिल्म में सिर्फ म्यूजिक ऐसी चीज है जिसे आलोचना के दायरे से बाहर रखा जा सकता है। इस फिल्म को नए लड़के अर्को मुखर्जी (इनके नाम के आगे डॉ. की उपाधि भी लगी है) के कंपोज किए गाने ही संभालते हैं। ‘इश्क भी किया रे मौला…’ मजबूत गाना है, रसभरा है, इमोशन भरा है। इसके साथ ‘ये जिस्म है तो क्या’ भी पाकिस्तानी गायक अली अजमत ने गाया है। ‘ये कसूर मेरा है कि यकीन किया है, दिल तेरी ही खातिर रख छोड़ दिया है’ सोनू कक्कड़ ने गाया है। उनकी आवाज सपाट नहीं है, कई लहरों-परतों वाली है, इतनी कि सनी को गाने के वक्त खूबसूरत बनाती है। जब गाना शुरू होता है तो आप पहचानने की कोशिश करते हो कि ये कौन सी सिंगर है, पहले इसे कभी नहीं सुना।

पूजा भट्ट के निर्देशन में ही ऊपर के सारे तत्व कहीं न कहीं मिल जाते हैं। यानी अगर कहीं कुछ कसर रही तो जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है। जैसे समझने के लिए, अगर मणिरत्नम या सुधीर मिश्रा अरुणोदय और सनी को लेकर कोई फिल्म बनाते तो दोनों एक्टर्स की लाइफ का बेस्ट काम होता। जैसे अगर इसी कहानी पर तिग्मांशु धूलिया फिल्म का निर्देशन करते तो स्वरूप ही कुछ और होता, जैसा ‘साहिब बीवी और गैंगस्टर’ का था। क्योंकि तिग्मांशु की उस फिल्म में भी कोई बड़े एक्टर नहीं थे, उसे भी खींचा तो बस तिग्मांशु की स्क्रिप्ट ने, डायलॉग ने और उनके निर्देशन ने। इसी लिहाज से पूजा बुरी निर्देशक साबित होती है।
उनकी नजरों से बची दो खामियां देखिए...
  • मौला... गाने में रणदीप की लिप सिंक। पहली लाइन गाने की वह सही से लिप सिंक करते हैं.. दूसरी लाइन में उनके होठ नहीं हिलते और कहीं से गाना बजता रहता है, तीसरी लाइन में फिर से रणदीप लिप सिंक करने लगते हैं। गाना खत्म होने तक ये गलती चलती रहती है। कभी लगता है हीरो गाना गा रहा है, कभी लगता है कि कहीं बज रहा है।
  • एक सीन में रणदीप घर का ताला खोलने के लिए चाबी का गुच्छा निकालते ही हैं कि सीढिय़ों के नीचे खड़ी सनी आहट देती है... वह रिवॉल्वर निकाल लेता है... फिर उससे बात करता है, वह कहती है यहीं बात करोगे.. तो वह अंदर आने के लिए कहते हुए दरवाजे को धक्का देता है.... यानी पता नहीं चल पाता कि ताला कब खुला। क्योंकि सीन तो बिना टूटे चल रहा है।
 हिंदी सिनेमा की हाल ही में आई बहुत सी दूसरी बचकानी फिल्मों में से एक ‘जिस्म-2’ भी रही है। अगर फिल्म में सनी लियोनी नहीं भी होती तो भी ये उतनी ही बुरी होती।
*** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, May 21, 2012

संवादों की मजबूती वाली एक अच्छी फिल्म 'जन्नत-2'

फिल्मः जन्नत-2
निर्देशकः कुणाल देशमुख
कास्टः इमरान हाशमी, रणदीप हुड्डा, मनीष चौधरी, एशा गुप्ता, मोहम्मद जीशान अयूब, बृजेंद्र काला
स्टारः तीन, 3.0
रेटिंगः ए (एडल्ट)  - गालियों का ध्यान रखें


इसे हथियारों की तस्करी पर बनी एक सस्ती फिल्म माना जा रहा था। इमरान हाशमी की बाकी फिल्मों जैसी ही एक और। कम से कम जरा एलीट किस्म की फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों के मन में तो यही पूर्वापेक्षा थी। पर फिल्म बहुत मामलों में अलग हो जाती है। बहुत फर्क पड़ता है संजय मासूम के संवादों से। शुरू से ही इमरान अपने चपल संवादों और वैसे ही हंसी भरे हाव-भाव से अपने किरदार सोनू दिल्ली को बेहद संप्रेषित बनाते जाते हैं। कैसे, इन संवादों के जरिए देखते हैं। सोनू दिल्ली छोटे-मोटे हथियारों की गैर-कानूनी ब्रिकी करता है। ऐसे अपराधियों पर एसीपी प्रताप (रणदीप हुड्डा) की नजर है। उसे लगता है कि सोनू के जरिए वह हथियारों के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता तक पहुंच सकेगा। तो वह उसे दिल्ली के एक पुल पर बुलाता है। और इस मुलाकात में सोनू अनजान, भोला और ईमानदार आदमी बनते हुए कहता है... 
क्या बात कर रहे हो साहब
करीना कट पीस
इसी नाम से दुकान है जमना पार अपनी
कभी आ जाओ
अच्छी मलाई वाली चाय पिलाऊंगा...

पर जाहिर है खान नहीं मानता। वह हथकंडे अपनाता है। सोनू से पूछताछ करता रहता है, उसकी हथेली पर चाकू मारकर डराता है, उसे पुल से नीचे यमुना में लटका देने की कोशिश करता है, पर जैसे-तैसे बात निपटती है। यहां से सोनू अस्पताल पहुंचता है। बड़बड़ाता हुआ, हमें हंसाता हुआ। यहां डॉक्टर होते नहीं हैं, रात का वक्त होता है, ड्यूटी पर तकरीबन कोई नहीं होता। एक कमरे के आगे एक आदमी लाइन में लगा होता है। उसे हटाते हुए वह कहता है और हम चकित होते जाते हैं...
भाईसाहब, खून निकल रहा है
पहले मैं दिखा दूं, कहीं एड्स न हो जाए

भोली मक्कारी बरतते हुए वह डॉक्टर जाह्नवी सिंह तोमर के पास पहुंच जाता है। सीरियस मूड में, लंबे कद की खूबसूरत मॉडल जैसी डॉक्टर। अब यहां हाथ से बहते खून का दर्द मिट सा जाता है, और उसे मन ही मन प्यार हो जाता है। जाह्नवी हाथ पर पट्टी बांधते हुए पूछती है, वैसे तुम्हारे हाथ पर क्या हुआ... और वह (वैसे वह जाह्नवी से शुरू में झूठ नहीं बोलता, जैसा एक छोटा-मोटा अपराधी तो हर बात में आसानी से बोलता जाएगा) कहता है...
एक पुलिस वाले को गलतफहमी हो गई थी
उसने हाथ पर चाकू मारकर पुल पर उल्टा टांग दिया था
ये जो नए-नए पुल हैं न
कितने डेंजरस है आज समझ आ रहा है

मुझे इस डायलॉग में छिपा गहरा सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत ज्यादा रास आया। भला कितनी बार ऐसा होता है जब चलताऊ किस्म की मूवीज में इतने गहरे निहितार्थ वाले संवाद डाले जाते हों। महानगरों में जो बड़े-बड़े कंक्रीट के फ्लाइओवर और छह लेन-आठ लेन सड़के बन रही हैं, उनपर तो आलोचनाओं की पोथियां लिखी जा रही हैं, जो विकास के मॉडल पर विमर्श करती हैं। मैं खुद इसे बहुत जरूरी विषय मानता हूं। पर यहां इमरान हाशमी की कमर्शियल सी फिल्म में, वो भी हंसी-भरे संवाद में यह कहना कि ये नए-नए पुल कितने डेंजरस हैं आज पता चल रहा है... औसत बात तो नहीं है। इमरान के हाव-भाव और मैनरिज्म इस फिल्म में कुछ बदले-बदले हैं। उन्होंने खुद के अभिनय में पहले की तुलना में बेहतरी लानी शुरू की लगता है, जिसकी परिणीति ‘शंघाई’ में जरूर होगी।

आते हैं रणदीप हुड्डा पर। उनका खुले बटन वाला लुक और चुस्ती से भागने वाला अंदाज उन्हें आम एसीपीयों में अलग बनाता है। उनका हर रात शराब पीना, फिर अपनी टीम के द्ददा (बृजेंद्र काला) से छुट्टे सिक्के मांगना, टेलीफोन बूथ में जाना और अपने ही घर में बार-बार फोन मिलाना, घंटी का बजना, बाद में मैसेज छोड़ने की प्रतिक्रिया देती टेलीफोन ऑपरेटर की आवाज का बार-बार आना। ये सब कहानी का एक अलग जायकेदार इमोशनल पहलू है। दरअसल प्रताप की जान से ज्यादा प्यारी वाइफ ऐसे ही किसी गैर-कानूनी हथियार से मारी गई थी, जिसके जिम्मेदार थे हथियारों के तस्कर। तो वह ऐसे रैकेट के पीछे पड़ा है। ‘रिस्क’ और ‘डी’ जैसी फिल्मों के बाद से उनके लिए ऐसे धीर-गंभीर और सपट रोल करना आसान हो गया है। हमें उन्हें ऐसी भूमिकाओं में स्वीकार करना भी। उनके हिस्से भी एक बड़ा अच्छा संवाद आता है। जब फिल्म के महत्वपूर्ण अंत की ओर जाते हुए सोनू दिल्ली कहीं पीछे न हट जाए, एसीपी प्रताप उसे कहता है...
जैसे मेरे सिर में अटकी हुई गोली मुझे मरने नहीं देती
वैसे ही बल्ली की मौत तुझे जीने नहीं देगी...

आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में कहानी जान लेते हैं। पुरानी दिल्ली की गलियों में सोनू दिल्ली (इमरान हाशमी) कुत्ती कमीनी चीज के नाम से मशहूर है। वह और उसका जिगरी दोस्त बल्ली (मोहम्मद जीशान अयूब) छोटे-मोटे गैरकानूनी हथियार, शराब और पायरेटेड डीवीडी बेचने जैसा काम करते हैं। उन्हीं से उनकी लाइफ चलती है। सोनू को डॉक्टर जाह्नवी (एशा गुप्ता) से प्यार हो जाता है और यहीं से वह शरीफों वाली जिंदगी जीने का मन बना लेता है। मगर इससे पहले उसे एसीपी खान (रणदीप हुड्डा) की मदद करनी होगी, हथियारों के सबसे बड़े सप्लायर मंगल सिंह तोमर (मनीष चौधरी) तक पहुंचाने में। वह ऐसा करने भी लगता है, पर एक के बाद एक उसका रास्ता कठिन होता जाता है।

‘रॉकेट सिंह सेल्समैन ऑफ द ईयर’, ‘ब्लड मनी’ और टीवी सीरिज ‘पाउडर’ में दिखने वाले मनीष चौधरी ने इस फिल्म में हरियाणवी रूप धरा है। मंगल सिंह तोमर के रूप में वह उन्हीं मैनरिज्म के साथ नजर आते हैं, उसमें कोई फर्क नहीं आया है। हां, भाषा और उच्चारण में जरा बदलाव वह लाए हैं। सोनू से जब वह मिलते हैं तो कहते हैं...
हम दोनों की कुंडली मिलेगी
लगता है
शनि प्रबल है तेरा
लोहे में फायदा पहुंचाएगा...

हथियारों के इस गैरकानूनी धंधे को करने के पीछे की वजहों में खानदानी रसूख कायम रखने या पाने की न जाने मंगल सिंह की कौन सी कोशिश है। इसमें एक कम्युनिटी, जाति और धर्म की बात भी है। खैर, ये चीज भी नित्य-प्रतिदिन वाली नहीं है। एक सीन में सोनू को समझाते हुए मनीष का किरदार कुछ यूं बोलता है...
सन्यासी, अपराधी और लीडर
इन तीनों के रास्ते में रोड़ा होता है परिवार
इसलिए मैंने अपनी बीवी को मार दिया
क्योंकि मेरे लिए मिशन जरूरी था
पुरखों की कला का लोहा मनवाना था

फिल्म में मेरे पसंदीदा संवादों में एक वह है जिसमें एक इंस्पेक्टर एसीपी बने रणदीप के लिए कहता है (जब वह दारु पीकर अपनी मरी हुई वाइफ को फोन करने की कोशिश करता है) ...अढ़ाया पढ़ाया जाट फिर भी सौलह दूनी आठ।

पहले की फिल्मों में कहानी का लक्ष्य होता था दो दिलों के बीच प्यार होते दिखाना, फिर उसे पाने की लड़ाई और शादी के पहले क्या हुआ ये बताना। मगर ‘विकी डोनर’ और ‘जन्नत-2’ देखते वक्त महसूस होता है कि स्क्रिप्ट बेधड़क हो चली है। शादी इंटरवल से पहले ही हो जाती है। उसके बाद कुछ मोड़ आते हैं और हमें उससे एतराज नहीं होता। फिल्मों में रिसर्च के मामले में हाल ही में ‘पान सिंह तोमर’ का नाम लिया गया। ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में भी कहानी पर शोध किया गया, हालांकि उसमें विषयवस्तु की कमी नहीं थी। ‘जन्नत-2’ के बारे में भी एक वरिष्ठ अभिनेता ने मुझसे एक साक्षात्कार में हाल ही कहा था कि इसके लिए निर्देशक कुणाल देशमुख ने काफी रिसर्च की है। हथियारों की तस्करी, गैरकानूनी मैन्युफैक्चरिंग की जगहों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में।

फिल्म में गालियां बहुत है। आंशिक रूप से जे पी दत्ता की ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ में, सुधीर मिश्रा की ‘ये साली जिंदगी’ में और बाकी कई फिल्मों में पहले हम सुन चुके हैं, मगर इस फिल्म में बहुत हैं। अब ऐसा लगता है कि गालियों वाली फिल्मों के लिए अलग रेटिंग हो जानी चाहिए। क्योंकि फिल्मों की नई पौध में एक किस्म ऐसी है जो रिएलिटी को सिनेमा बना देने में यकीन रखती है और ऐसा करने पर रिएलिटी की बहुतेरी ऐसी चीजें भी इस लोकप्रिय माध्यम में आ जाती है जो सबको नहीं करनी चाहिए, पर लोग करते हैं। फिल्मों में गालियां न हो तो बहुत ही अच्छा, पर कम से कम उम्र को तो रेटिंग में डाला जा ही सकता है। ‘जन्नत-2’ में गालियां मानें तो थोपी नहीं लगतीं। जैसे किरदार हैं, वो जिंदगी के हर पल में ऐसे ही कर्स वर्ड बोलते हैं। और वो इस फिल्म में भी है। तकनीकी तौर पर कहीं कोई खामी नहीं लगती। फिल्म का अंत बड़ा हिम्मती है, पर चतुराई से समेटा गया है। कुल मिलाकर हम दो-ढाई घंटे के शो के बाद ठगा महसूस नहीं करते, न ही हमें कुछ भी फालूदा परोसा जाता है। हथियारों की तस्करी से ये कहानी बहुत आगे जाती है। फिल्म का नाम भी उपयुक्त नहीं है। बस सीक्वल बनाकर जन्नत ब्रैंड से कुछ फायदा दिलाने की कोशिश है, जो बेहद कमजोर बात है। आगे खुद देखें और जानें।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, October 2, 2011

समझने में आसान और बनावट में होशियार फिल्मकारी

फिल्मः साहब बीवी और गैंगस्टर
निर्देशकः
तिग्मांशु धूलिया
कास्टः माही गिल, जिमी शेरगिल, रणदीप हुड्डा
स्टारः तीन, 3.0

पहला शॉट। हरे पेड़ों के झुरमुट के बीच पुराने पैलेस का व्यू। ऊपर एक चीत्कारती हुई चील मंडरा रही है। यहीं से धोखे और प्यार की इस कहानी का मूड तय हो जाता है। कि यहां सब चील और बाज जैसे मांस नोचने वाले हैं। शेक्सपीयरन ड्रामा या विशाल भारद्वाज की फिल्मों में जो अंधेरा और कड़वापन होता है वो बहुत बार दर्शकों की समझ से बाहर होता है। ऐसी फिल्में बेहद तनाव देने वाली और मुश्किल होती हैं। यहीं पर 'साहब बीवी और गैंगस्टर' अलग हो जाती है। बेडरूम ड्रामा होते हुए भी और 'हासिल' और 'शागिर्द' जैसे ठोस निर्देशक (तिग्मांशु धूलिया) के हाथों बनी होने के बावजूद फिल्म सरल है, पर पूरी तरह स्मार्ट भी। खासतौर पर बड़े शहरों के दर्शकों के लिहाज से आराम से समझ में आने वाला ड्रामा है। स्क्रिप्ट और डायलॉग ऐसे हैं जो इन दिनों फिल्मों में दुर्लभ हो गए हैं। फिल्म के सब कैरेक्टर्स की एक्टिंग बेदाग है। ये जरूर है कि सेकंड हाफ में फिल्म की कसावट जरा ढीली हो जाती है। कुछ एडल्ट सब्जेक्ट, कुछ सेकंड हाफ का ढीलापन और कुछ जरा कम धांसू क्लाइमैक्स। इन तीन वजहों से फिल्म बहुत बेहतरीन नहीं हो पाती है। देखने की सलाह।

एक छोटी पूर्व रियासत में
उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश में कहीं एक छोटी सी रियासत है। यहां के राजा साहिब (जिमी शेरगिल) खुद को राजनीतिक और आर्थिक रूप से ताकतवर बनाए रखने में लगे हैं। रानी (माही गिल) दिमागी तौर पर प्यार की भूखी है, पर साहिब का प्यार लालबाड़ी की महुआ (श्रिया नारायण) के पास है। कन्हैया (दीपराज राणा) बरसों से साहिब की परछाई है। साहिब का लोकल दुश्मन है गेंदा सिंह (विपिन शर्मा)। फिर हवेली में बबलू उर्फ ललित (रणदीप हुड्डा) की एंट्री होती है। यहीं से कहानी में प्यार, धोखा, छल, खून और साजिशें सरल तरीके से शामिल होती हैं।

मधुर और डिफाइनिंग गाने
फिल्म के गाने कहानी के तीनों किरदारों को डिफाइन करते हैं। शुरू में ही 'जुगनी दम साहिब दा भरदी, पर ए प्यार यार नू करदी...' सुनाई देता है और जुगनी, साहब, यार की कहानी समझ आ जाती है। फिर फिल्म की दो नायिकाओं (माही और श्रिया) के मन का हाल बताने आता है 'रात मुझे ये कह के चिढ़ाए, तारों से भरी मैं, तू अकेली हाये...''साहिब बड़ा हठीला...' गाने के बोल जिमी के किरदार के लिए है। अपनी रानी, अपने कस्बे को लोगों, अपने दुश्मनों और अपनी लाइफ के प्रति सरवाइव करने के हठीले रवैये को न्यायोचित करता हुआ। गैंगस्टर कहलाने वाले बबलू के हिस्से सटीक बोल आते हैं। 'मैं एक भंवरा, छोटे बागीचे का, मैंने ये क्या कर डाला...'। इन सभी गानों का संगीत गुनगुनाने लायक है। फिल्म में उनकी प्लेसिंग और भी बेहतर।

ऐसे हों डायलॉग और राइटर लोग
संजय चौहान तिग्मांशु की लेखनी से निकले नगीने...
1. और सुनो.. जिसे जान से मार रहे हो, उसे दोस्त तो नहीं कहो। (साहिब अपने दोस्त की सुपारी लेकर आए एक ठेकेदार से)
2. मार मार के खोल दूंगा इसको, और देखूंगा इसके अंदर क्या है जो मेरे अंदर नहीं है। (बबलू अपनी गर्लफ्रैंड से, उसके नए बॉयफ्रैंड को हॉकी से पीटते हुए)
3. जो भी करना तमीज से करना, यहां बदतमीजी भी तमीज से की जाती है। (साहिब की बीवी बबलू से)
4. वेजिटेरियन या नॉन वेजिटेरियन? जी मौकाटेरियन। (बबलू साहिब की बीवी से)
5. खाना क्या बनवाया है? मुर्गा मंगवाया है साहब। अबे, मुर्गी भी मंगवा लिया करो कभी। (गेंदा सिंह अपने आदमी से)
6. सोच समझ के तो इम्तिहान लिया जाता है, इंतकाम नहीं लिया जाता राजाजी। (गेंदा सिंह)

नजरअंदाज नहीं करें

# दीपल शॉ का यू.पी. के एक्सेंट में बबलू को बे, बेटा और बा बा लू कहना। उनके करियर का पहला स्मार्ट रोल, जहां वो नेचरल लगी हैं।
# मंत्री जी बने अभिनेता। उनका मुख्यमंत्री से फोन पर अपने थाइलैंड टूअर के बारे में बात करना और 'वहां' के 'उस' एक्सपीरियंस के बारे में कहना, 'सर वहां तो फील ही नहीं होता कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। देयर इज नो फील ऑफ चीटिंग, एट ऑल सर।'

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गजेंद्र सिंह भाटी