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Thursday, April 5, 2012

"हालांकि मेरी फिल्म का हीरो सामाजिक संदेश नहीं देता, मुश्किलें दूर नहीं करता, पर मेरी फिल्में आसान होती हैं"

इमरान हाशमी से बातचीत

एक वक्त में इन्होंने फौज में लेफ्टीनेंट बनने की परीक्षा दी थी, पर सलेक्शन नहीं हुआ। फिर फिल्मों में आ गए, पर एक फौजी वाला अटल रवैया एग्जाम वाले दिनों से उनके साथ चला आया। तभी तो बुद्धिजीवियों द्वारा उन्हें बी ग्रेड एक्टर माना जाने या कॉमेडी शोज में सीरियल किसर कहकर खारिज करने की बातों ने उनपर असर नहीं डाला। उन्होंने 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' में भी खुद को सिंगल स्क्रीन का स्टार साबित किया था, जो लोग इतने के बाद भी उन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं थे, उनके लिए 'वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई' और 'द डर्टी पिक्चर' जैसे अलग किरदार भी आए। ये इमरान हाशमी हैं। बीते नौ साल से फिल्में कर रहे हैं। सफलता दर अपने समकालीन एक्टर्स से बेहतर है। उनकी आने वाली फिल्में हैं 'मर्डर-3', 'राज-3', 'रश', 'जन्नत-2', 'शंघाई' और 'घनचक्कर'। चूंकि मर्डर, राज और जन्नत के सीक्वल नियमित मिजाज के ही होंगे, इसलिए ज्यादा उत्साह उन्हें शंघाई, घनचक्कर और रश में देखने को लेकर है।

इमरान कहते हैं कि 'जन्नत-2' उनके लिए अब तक की भावनात्मक रूप से सबसे ज्यादा बहा देने वाली फिल्म थी। 'इमोशनल सीन्स के अलावा फिल्म में मुझे नॉर्थ इंडियन एक्सेंट पकडऩे में बहुत मेहनत करनी पड़ी।' भाषा के लिहाज से उन्हें दिबाकर बैनर्जी की फिल्म 'शंघाई' में अपने किरदार (संभवत: प्रेस फोटोग्रफर) का लहजा भी बहुत कठिन लगता है। फिल्म में वह अभय देओल और कल्कि के साथ काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता की 'घनचक्कर' में वह फिर से विद्या बालन के साथ दिखेंगे। वह बताते हैं, 'ये बड़ी फनी रियलिस्टिक कॉमेडी है। लोगों को खूब हंसाएगी। कुछ मायनों में पाथ ब्रेकिंग होगी।' वैसे अपने रोल छिपाकर रखने वाले इमरान यहां बताते हैं कि घनचक्कर में वह एक बैंक के लॉक एक्सपर्ट बने हैं। इन सबके बीच एक खास फिल्म 'रश' भी रहेगी। इसमें इमरान एक न्यूज चैनल के खोजी पत्रकार सैम ग्रोवर का किरदार निभाएंगे। (इस फिल्म के निर्देशक शमीन देसाई शूटिंग के बीच ही चल बसे, बची शूटिंग उनकी बीवी प्रियंका ने पूरी की) खैर, प्रस्तुत है उनसे हुई इस बातचीत के कुछ अंश:

आप हर फिल्म के साथ खुद को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में कैसा लगता है जब कॉमेडी शोज में और दूसरे मंच पर आपको सीरियल किसर कहा जाता है?
मुझे इस इमेज या परसेप्शन से लगाव नहीं है। गलत भी हो सकता हूं पर शायद इन लोगों के दिमाग में है कि किसिंग मेरी फिल्मों में एक तय चीज होती है। तो वो उसे इस्तेमाल करते हैं अपने चुटकुलों में। मुझे तो इस बात को हल्के में ही लेना पड़ेगा। उसके बारे में सीरियस हो जाऊं और रोना शुरू कर दूं तो फिर मुझसे बड़ा बेवकूफ कोई हो नहीं सकता।

स्टार्स की फिल्में हिट या फ्लॉप होती हैं तो उनके करीबी उन्हें बताते हैं कि इसमें तुम्हारा काम ऐसा था। ये बुरा था ये अच्छा था। आपको ये फीडबैक कैसे मिलता है? दोस्त बताते हैं या आप खुद अनजान जगहों पर जाकर लोगों को सुनते हैं, थियेटरों में जाते हैं?
फैमिली और फ्रेंड्स हैं। वह बताते हैं। दूसरा, मैं खुद सिंगल स्क्रीन थियेटर्स में जाता हूं। वहां बैठकर लोगों के बीच फिल्में देखता हूं। छोटे शहरों में खुले दिल से लोग बताते हैं। फिल्म जैसी होती है बिल्कुल दिल से वैसा बता देते हैं। पसंद आती है तो गले लगाते हैं, पसंद नहीं आती तो सीधा मुंह पर कहते हैं। मुझे उनका रिएक्शन पसंद आता है। मुंबई जैसी बड़ी जगहों के मल्टीप्लेक्स में लोगों का रिएक्शन ईमानदार नहीं होता। वो हाथ मिलाते हैं, ऑटोग्राफ लेते हैं बस। तो मैं वहां नहीं जाता।

ये आपकी फिल्मों के चयन में भी नजर आता है। आप चुनते भी वही हैं जो आसानी से समझ आती हों। जो बौद्धिक तौर पर लोगों को डराने की बजाय उन्हें हल्के से एंटरटेन करके निकल जाए। क्या आप इरादतन वैसी फिल्म चुनते हैं या अब तक वैसी ही मिली हैं?
मैं ये समझता हूं कि जिस फिल्म में सरल बात कहनी होती है वही सबसे ज्यादा टफ होती है। सब्जेक्ट तो हर तरह के आते हैं पर मेरी फिल्मों में कोशिश ये रहती है कि आसानी से बात कही जाए। समझने में कहीं कुछ बोझ न लगे। हां, मेरी फिल्मों में ये बातें गहरे अर्थों में नहीं कही जाती है। मेरी फिल्म का हीरो आपको कोई मैसेज नहीं देता, आपकी परेशानियों को सुलझाता नहीं है। कहानी काल्पनिक भी होती हैं पर कहीं न कहीं ये आपकी असल जिंदगी से आकर मिलती हैं। आपको लगता है कि हां, फिल्म में कुछ न कुछ सच्चा है।

कुछ इंडियन फिल्मों के हीरो लोग की आदत होती है कि वो फिल्म करेंगे, उसके बाद इंट्रोवर्ट हो जाएंगे जब तक रिलीज होती है। फिर दूसरी फिल्म में जुट जाएंगे, ज्यादा विज्ञापन नहीं करेंगे और खुद को थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, ताकि उनकी अगली फिल्म आए तो लोगों को देखने में मजा बहुत आए। जैसे, अनिल कपूर हैं। विज्ञापन नहीं करते हैं, या दूसरे स्टार्स हैं। क्या आपने भी ऐसा सोच रखा है या अनजाने में ही आपकी ऐसी छवि बन गई है?
मैं विज्ञापन नहीं करूंगा ऐसा तो कोई प्रण नहीं ले रखा। पर, व्यक्तित्व की बात पर कहूंगा कि ओवर एक्सपोजर से जो मिस्ट्री एलीमेंट यानि रहस्य वाला तत्व है वह चला जाता है। 'स्टार्स शुड बी एनिग्मेटिक।' अगर ऐसा नहीं होता और आपके बारे में लोग सबकुछ जान जाएंगे तो मजा नहीं आएगा। खासकर मेरी फिल्मों में, मैं ऐसे ही कैरेक्टर करता हूं। मेरी फिल्मों के कैरेक्टर्स में थोड़ा रहस्य वाला तत्व होता है और मेरी पर्सनल लाइफ में भी वैसी ही मिस्ट्री मैं बनाकर रखता हूं। इससे लोग मेरे बारे में कम जानेंगे और ये मेरी फिल्मों के किरदारों को और जानने लायक बनाएगा।

अंतर्मुख से
# फिल्में: ज्यादा नहीं देखता, शूटिंग में बिजी रहता हूं।
# कुछ तो पसंद होंगी: हां, राजकुमार गुप्ता की 'नो वन किल्ड जैसिका', दिबाकर बैनर्जी की 'शंघाई' और मिलन लुथरिया की फिल्में।
# किसी भी सीन से पहले: अपनी लाइन याद करता हूं। माहौल में घुसता हूं। दूसरे एक्टर्स से बात करता हूं। निर्देशक से बात करता हूं।
# अनुभव कहां से सीखते हैं: लाइफ से जुड़ा रहता हूं। हर चीज ईमानदारी से देखता हूं। विश्लेषण करता हूं। यह ही तय कर रखा है।
# घर का इंटीरियर: मैंने, मेरे डैड और मेरी वाइफ ने मिलकर डिजाइन किया है।
# पसंद है: ट्रैवल करना।
# फिल्मी पार्टीज: बोरिंग लगती हैं।
# दोस्तों की पार्टीज: ...में जाता हूं।
# बेटा अयान: फरवरी में दो साल का हुआ है। जिम्मेदारी है। सही से निभाने की कोशिश कर रहा हूं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, December 15, 2011

“भेजे का एक स्क्रू हमेशा ढीला ही होना चाहिएः राजकुमार गुप्ता”

राजकुमार गुप्ता नई पीढ़ी के उन चंद डायरेक्टर्स में से हैं, जो कमर्शियल सिनेमा में रियलिज्म की घुट्टी मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सधे कदमों के साथ। 'आमिर’ और 'नो वन किल्ड जैसिका’ के बाद वो अपनी पहली ब्लैक कॉमेडी बनाने जा रहे हैं। फिल्म का नाम 'घनचक्कर’ रखा गया है और इसमें इमरान हाशमी लीड रोल निभाएंगे। इसके अलावा वह एक हल्की-फुल्की उचकी सी रोमैंटिक मूवी 'रापचिक रोमैंसकी स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता से उनके फैमिली बैकग्राउंड, फिल्मों में आने और फिल्में बनाने के अनुभवों पर बात हुई।


आप, दिबाकर बैनर्जी, श्रीराम राघवन और अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर आम लोगों का सिनेमा बनाते हैं, बाकी फिल्ममेकर काल्पनिक कहानियां, क्या ऐसा है?
कभी भी एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। जब मैं अनुराग के साथ काम कर रहा था तो हम 'ब्लैक फ्राइडे’, 'नो स्मोकिंग’, 'गुलाल’ और 'एल्विन कालीचरण’ येफिल्में करना चाहते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। सब फ्रस्ट्रेटेड थे। तब लगता था कि इंडस्ट्री में एक माफिया बन चुका है जो सिर्फ एक तरह की फिल्में बनाना चाहता है। हम इस बात को लेकर लड़ते थे कि यार कम से कम फिल्में तो बननी चाहिए। अलग-अलग तरीके की। मुझे लगता है कि हम अपनी तरह का सिनेमा बनाएं। जो झकझोरने वाला हो जिससे हम संतुष्ट हों। लेकिन कभी ये न करें कि कोई बना रहा है तो उसको गाली दें। कोई पोर्न फिल्म भी बनाना चाहता है तो ये उसका हक है, भले ही बाद में कोई उसकी आलोचना करे।

'बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों की सफलता चुनौती देती है कि जनता का मन समझने में हम कहां भूल कर रहे हैं?
सब फिल्में बनाते हैं, जिसको जो फिल्में बनानी है बनाओ। अब कोई बॉडीगार्ड बनाना चाह रहा है तो मुझसे तो बनेगी नहीं भई। जिससे बन सकती है उसे बनानेदो।

क्या कनविक्शन ही सबसे जरूरी है?
हर डायरेक्टर या क्रिएटिव आदमी सटका हुआ होता है। वो पागल होता है इसीलिए वो वो होता है। उसके भेजे का एक स्क्रू तो हमेशा ढीला होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि लिखने के दौरान, डायरेक्ट करने के दौरान उसे लोगों के हजारों ओपिनियन सुनने पड़ते हैं, ऐसे में उसे खुद से क्या चाहिए इस कनविक्शन को भटकने नहीं देना होता है।

आपका बैकग्राऊंड क्या है?
हजारीबाग, झारखंड में जन्मा। बहुत बुरा स्टूडेंट था। शर्मीला था। जैसा छोटे शहरों में होता है, पापा बैंक में थे तो मैं बैंकर बनना चाहता था। दसवीं वहां से की, बारहवीं डीपीएस बोकारो से और बी. कॉम में ग्रेजुएशन दिल्ली के रामजस कॉलेज से। वहां मेरा क्रिएटिव राइटिंग की तरफ झुकाव हुआ। एड फिल्में देखता था लगता कि मैं एड फिल्में लिख सकता हूं। कॉपीराइटर बन सकता हूं। ग्रेजुएशन हुई तो तय कर लिया कि बंबई जाना है। करना है या मरना है। शुरू में मेरे पास दो-ढाई हजार रुपये ही थे। एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। लड़-झगड़कर हॉस्टल ले लिया। इससे अच्छी बात ये हुई कि अगले नौ महीने तक मेरा रहने और खाने का इंतजाम हो गया। साल 2000 आया। एड फिल्में लिखी। सीरियल लिखे। सहारा का सीरियल 'कगार' लिखा। फिल्ममेकिंग को लेकर मैं सीरियस वहां से हुआ। वहां से चीजें डिस्कवर करते-करते यहां तक पहुंच गया।

'आमिर’ कैसे बनी?
मेरी चौथी या पांचवी स्क्रिप्ट 'आमिर’ थी। 2006 में लिख ली थी। स्ट्रगल शुरू हुआ। तब अनुराग 'नो स्मोकिंग’ के साथ स्ट्रगल कर रहा था। उसने कहा कि तुम्हें भी काम और पैसे चाहिए। स्ट्रगल भी करना है, तो मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म में असिस्टेंट बन जाओ। फिर हम मिलकर तुम्हारी फिल्म के लिए स्ट्रगल करेंगे। 'नो स्मोकिंग’2008 में खत्म हुई और 2007 में मुझे एक इंडिपेंडेंट प्रॉड्यूसर मिल गया 'आमिर’ के लिए। एक बात मैंने तय कर रखी थी कि कॉरपोरेट हाउस के साथ ही फिल्म करनी है। क्योंकि दौ सौ लोगों की फिल्म को बनने के बाद कोई हाथ भी न लगाए तो किसी का भला नहीं होता। फिर यूटीवी स्पॉटबॉय आ गया। मैंने अनुराग को कहा कि मेरी फिल्म के क्रिएटिव प्रॉड्यूसर बनो। मैं उसे साथ इसलिए रखना चाहता था क्योंकि उसने इंडस्ट्री ज्यादा देखी है। तो 2008 में फिल्म बनी और रिलीज हुई।

'नो वन किल्ड जैसिका’ कैसे लिखी?
मैं स्पष्ट था कि इस फिल्म में मुझे किसी पर आरोप नहीं लगाने थे। न ही कोई अपील या जांच करनी थी। इस घटना ने पूरे मुल्क का ध्यान बटोरा। लोग कहने लगे कि हम भी टैक्सपेयर हैं भई, ये बात तो गलत हुई। हमें अच्छी नहीं लगी। हम तो कैंडल लेकर जाएंगे यार। हर दिन तो कोई कैंडल लेकर या मैं हूं अन्ना की टोपी पहनकर घर से निकलता नहीं है न। ये बड़ी ड्रमैटिक चीज थी। डर ये लगा कि इस कहानी के सब पहलुओं को साथ कैसे रख पाऊंगा। स्क्रिप्ट की बारहवीं स्टेज में पता लगा कि स्टोरी कहां जा रही है। कई लोगों से मिला।सबरीना से भी। फिर एक महीना इस प्रोसेस से अलग होकर घर गया। लौटा और लिखना शुरू किया।

कोई फिल्म बनाना चाहता है तो शुरुआत कैसे करे?
पहले तो आपके पास एक कहानी हो, स्क्रिप्ट हो। स्क्रिप्ट होगी तो किसी प्रॉड्यूसर के पास जा सकते हैं। और सीखते-सीखते फिल्म बना सकते हैं। अपने पर भरोसा रखना बहुत जरूरी है। यकीन जानिए आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा रास्ता ये है कि किसी डायरेक्टर को असिस्ट करें और साथ-साथ में लिखते रहें। और जब डेढ़ दो साल बाद सारे तौर-तरीके जान जाएं तो अपनी फिल्म बनाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी