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Thursday, December 15, 2011

“भेजे का एक स्क्रू हमेशा ढीला ही होना चाहिएः राजकुमार गुप्ता”

राजकुमार गुप्ता नई पीढ़ी के उन चंद डायरेक्टर्स में से हैं, जो कमर्शियल सिनेमा में रियलिज्म की घुट्टी मिलाते हुए आगे बढ़ रहे हैं। सधे कदमों के साथ। 'आमिर’ और 'नो वन किल्ड जैसिका’ के बाद वो अपनी पहली ब्लैक कॉमेडी बनाने जा रहे हैं। फिल्म का नाम 'घनचक्कर’ रखा गया है और इसमें इमरान हाशमी लीड रोल निभाएंगे। इसके अलावा वह एक हल्की-फुल्की उचकी सी रोमैंटिक मूवी 'रापचिक रोमैंसकी स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं। राजकुमार गुप्ता से उनके फैमिली बैकग्राउंड, फिल्मों में आने और फिल्में बनाने के अनुभवों पर बात हुई।


आप, दिबाकर बैनर्जी, श्रीराम राघवन और अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर आम लोगों का सिनेमा बनाते हैं, बाकी फिल्ममेकर काल्पनिक कहानियां, क्या ऐसा है?
कभी भी एकतरफा चीज नहीं होनी चाहिए। जब मैं अनुराग के साथ काम कर रहा था तो हम 'ब्लैक फ्राइडे’, 'नो स्मोकिंग’, 'गुलाल’ और 'एल्विन कालीचरण’ येफिल्में करना चाहते थे, लेकिन कुछ हो नहीं रहा था। सब फ्रस्ट्रेटेड थे। तब लगता था कि इंडस्ट्री में एक माफिया बन चुका है जो सिर्फ एक तरह की फिल्में बनाना चाहता है। हम इस बात को लेकर लड़ते थे कि यार कम से कम फिल्में तो बननी चाहिए। अलग-अलग तरीके की। मुझे लगता है कि हम अपनी तरह का सिनेमा बनाएं। जो झकझोरने वाला हो जिससे हम संतुष्ट हों। लेकिन कभी ये न करें कि कोई बना रहा है तो उसको गाली दें। कोई पोर्न फिल्म भी बनाना चाहता है तो ये उसका हक है, भले ही बाद में कोई उसकी आलोचना करे।

'बॉडीगार्ड’ जैसी फिल्मों की सफलता चुनौती देती है कि जनता का मन समझने में हम कहां भूल कर रहे हैं?
सब फिल्में बनाते हैं, जिसको जो फिल्में बनानी है बनाओ। अब कोई बॉडीगार्ड बनाना चाह रहा है तो मुझसे तो बनेगी नहीं भई। जिससे बन सकती है उसे बनानेदो।

क्या कनविक्शन ही सबसे जरूरी है?
हर डायरेक्टर या क्रिएटिव आदमी सटका हुआ होता है। वो पागल होता है इसीलिए वो वो होता है। उसके भेजे का एक स्क्रू तो हमेशा ढीला होता है। होना भी चाहिए। क्योंकि लिखने के दौरान, डायरेक्ट करने के दौरान उसे लोगों के हजारों ओपिनियन सुनने पड़ते हैं, ऐसे में उसे खुद से क्या चाहिए इस कनविक्शन को भटकने नहीं देना होता है।

आपका बैकग्राऊंड क्या है?
हजारीबाग, झारखंड में जन्मा। बहुत बुरा स्टूडेंट था। शर्मीला था। जैसा छोटे शहरों में होता है, पापा बैंक में थे तो मैं बैंकर बनना चाहता था। दसवीं वहां से की, बारहवीं डीपीएस बोकारो से और बी. कॉम में ग्रेजुएशन दिल्ली के रामजस कॉलेज से। वहां मेरा क्रिएटिव राइटिंग की तरफ झुकाव हुआ। एड फिल्में देखता था लगता कि मैं एड फिल्में लिख सकता हूं। कॉपीराइटर बन सकता हूं। ग्रेजुएशन हुई तो तय कर लिया कि बंबई जाना है। करना है या मरना है। शुरू में मेरे पास दो-ढाई हजार रुपये ही थे। एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन लिया। लड़-झगड़कर हॉस्टल ले लिया। इससे अच्छी बात ये हुई कि अगले नौ महीने तक मेरा रहने और खाने का इंतजाम हो गया। साल 2000 आया। एड फिल्में लिखी। सीरियल लिखे। सहारा का सीरियल 'कगार' लिखा। फिल्ममेकिंग को लेकर मैं सीरियस वहां से हुआ। वहां से चीजें डिस्कवर करते-करते यहां तक पहुंच गया।

'आमिर’ कैसे बनी?
मेरी चौथी या पांचवी स्क्रिप्ट 'आमिर’ थी। 2006 में लिख ली थी। स्ट्रगल शुरू हुआ। तब अनुराग 'नो स्मोकिंग’ के साथ स्ट्रगल कर रहा था। उसने कहा कि तुम्हें भी काम और पैसे चाहिए। स्ट्रगल भी करना है, तो मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म में असिस्टेंट बन जाओ। फिर हम मिलकर तुम्हारी फिल्म के लिए स्ट्रगल करेंगे। 'नो स्मोकिंग’2008 में खत्म हुई और 2007 में मुझे एक इंडिपेंडेंट प्रॉड्यूसर मिल गया 'आमिर’ के लिए। एक बात मैंने तय कर रखी थी कि कॉरपोरेट हाउस के साथ ही फिल्म करनी है। क्योंकि दौ सौ लोगों की फिल्म को बनने के बाद कोई हाथ भी न लगाए तो किसी का भला नहीं होता। फिर यूटीवी स्पॉटबॉय आ गया। मैंने अनुराग को कहा कि मेरी फिल्म के क्रिएटिव प्रॉड्यूसर बनो। मैं उसे साथ इसलिए रखना चाहता था क्योंकि उसने इंडस्ट्री ज्यादा देखी है। तो 2008 में फिल्म बनी और रिलीज हुई।

'नो वन किल्ड जैसिका’ कैसे लिखी?
मैं स्पष्ट था कि इस फिल्म में मुझे किसी पर आरोप नहीं लगाने थे। न ही कोई अपील या जांच करनी थी। इस घटना ने पूरे मुल्क का ध्यान बटोरा। लोग कहने लगे कि हम भी टैक्सपेयर हैं भई, ये बात तो गलत हुई। हमें अच्छी नहीं लगी। हम तो कैंडल लेकर जाएंगे यार। हर दिन तो कोई कैंडल लेकर या मैं हूं अन्ना की टोपी पहनकर घर से निकलता नहीं है न। ये बड़ी ड्रमैटिक चीज थी। डर ये लगा कि इस कहानी के सब पहलुओं को साथ कैसे रख पाऊंगा। स्क्रिप्ट की बारहवीं स्टेज में पता लगा कि स्टोरी कहां जा रही है। कई लोगों से मिला।सबरीना से भी। फिर एक महीना इस प्रोसेस से अलग होकर घर गया। लौटा और लिखना शुरू किया।

कोई फिल्म बनाना चाहता है तो शुरुआत कैसे करे?
पहले तो आपके पास एक कहानी हो, स्क्रिप्ट हो। स्क्रिप्ट होगी तो किसी प्रॉड्यूसर के पास जा सकते हैं। और सीखते-सीखते फिल्म बना सकते हैं। अपने पर भरोसा रखना बहुत जरूरी है। यकीन जानिए आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरा रास्ता ये है कि किसी डायरेक्टर को असिस्ट करें और साथ-साथ में लिखते रहें। और जब डेढ़ दो साल बाद सारे तौर-तरीके जान जाएं तो अपनी फिल्म बनाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, January 8, 2011

नो वन... से साल की गुड शुरुआत

फिल्मः नो वन किल्ड जेसिका
डायरेक्टरः राज कुमार गुप्ता
कास्टः विद्या बालन, रानी मुखर्जी, मोहम्मद जीशान, माइरा, राजेश शर्मा
स्टारः तीन***

पोस्टर देखने से ये अंदाजा नहीं होता कि 'नो वन किल्ड जेसिका' किस किस्म का एंटरटेनमेंट है। एजुकेट करने वाला, एंटरटेनमेंट देने वाला, सिनेमैटिकली संतुष्ट करने वाला या फिर चटख एक्टिंग और मजबूत स्क्रीनप्ले की खुशी देने वाला। जब 2011 की जनवरी का पहला शुक्रवार आता है, तो जवाब मिल जाता है। 'आमिर' के बाद डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता अपनी इस दूसरी मूवी में इन सभी पहलुओं में करीब-करीब जीत ही जाते हैं। मूवी को बढ़िया बनाने में उनका साथ देता है अमित त्रिवेदी का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर, आरती बजाज की बेदाग एडिटिंग और गौतम किशनचंदानी की कास्टिंग। ये सब परदे के पीछे के चेहरे हैं, पर असली चेहरे हैं। दिल्ली का जेसिका लाल मर्डर केस 1999 से 2010 तक चला। इतने बड़े दायरे को सवा दो घंटे की मूवी में भी समेटना है और उसमें फैक्ट-फिक्शन मिलाकर दिखाना है, ये संभव हुआ गौतम की कास्टिंग चॉयस की वजह से। थियेटर से घर अगर साथ कुछ ले जाते हैं तो वो यादें, रानी मुखर्जी और विद्या बालन नहीं देती हैं। वो यादें मिलती हैं माइरा (जेसिका), मोहम्मद जीशान अयूब (मनीष भारद्वाज) और राजेश शर्मा (इंस्पेक्टर एन.के.) के परफॉर्मेंस में। मूवी में काफी एफ.. वर्ड हैं, ऐसे में फैमिली के साथ जाना न जाना आपकी मर्जी पर है, हां.. दोस्तों के साथ सौ फीसदी जाएं। शानदार फर्स्ट हाफ, कुछ कमजोर सेकंड हाफ और कुल मिलाकर बढ़िया मूवी।

तो किसने मारा जेसिका को?
पोकरण में परमाणु परीक्षण हुए ही हैं, मीरा गैती (रानी मुखर्जी) एक रिपोर्टर के तौर पर अपने पहले बड़े असाइनमेंट करगिल वॉर के बारे में बता रही हैं। कहती हैं कि '1999 में करगिल की तोपें अभी शांत नहीं हुर्इं थी कि देश की राजधानी दिल्ली में एक फूट पड़ी।' इशारा है दिल्ली की मॉडल जेसिका लाल (माइरा) की ओर। मीरा कहानी कहती चलती है। सोशलाइट मल्लिका सहगल (बबल्स सब्बरवाल) के रेस्टोरेंट 'केनोज' में 29 अप्रैल 1999 को यहां की गेस्ट बारटेंडर जेसिका को गोली मार दी जाती है। मारने वाला हरियाणा सरकार की केबिनेट में मंत्री प्रमोद भारद्वाज (शिरीष शर्मा) का बेटा मनीष भारद्वाज (मोहम्मद जीशान) है। जेसिका की बहन सबरीना (विद्या बालन) रोते-बिलखते अपनी बहन के हत्यारों को न्याय दिलाने की ठान लेती है, पर एक-एक करके उसकी मुश्किलें बढ़ती रहती हैं। जेसिका का दोस्त और प्रमुख चश्मदीद गवाह विक्रम जयसिंह (नील भूपलम) बयान से मुकर जाता है। बाद में मूवी में मीरा की फुल एंट्री होती है और जाना-पहचाना क्लाइमैक्स उभरता है। मूवी का ट्रीटमेंट, डायरेक्शन और बड़ी सी कास्ट के नए चेहरे फिल्म को फ्रैश बनाए रखते हैं।

काट कलेजा कमियां
'आईसी 814' के कंधार हाइजैक वाले सीन में रानी के न्यूज पढ़ने का सीन रद्दी क्वालिटी का है। उन जैसी एक्ट्रेस से इतनी सतही एक्टिंग की उम्मीद नहीं थी। सिगरेट पीती, न्यूजरीडिंग करती, एफ..वर्ड बोलती, खुद को बिच कहती रानी इन सीन में ठीक तो लग सकती हैं, पर अपने रोल में वो खुद की तरफ से कुछ भी एैड नहीं कर पाई हैं। मूवी 'ए' सर्टिफिकेट से पास हुई है इसलिए हम करगिल से लौट रही मीरा गैती के मुंह से प्लैन में ..वहां होते तो गां** फट के हाथ में आ जाती... सुनते हैं। इनके गालियों के इस्तेमाल से एक बोल्ड सा कैरेक्टर ऑडियंस के आगे उभरने लगता है। पर जैसे जे.पी. दत्ता की 'एलओसी' में बिना कनविंस किए मां-बहन की गालियां बोलते बॉलीवुड के सोल्जर अनफिट लगे, ठीक वैसे ही इसमें हर जगह इस्तेमाल करती मीरा यानी रानी भी लगीं। फिल्मी एंटरटेनमेंट के रास्ते गालियों को ऑडियंस समाज के बीच ऑफिशियल करने की इतनी जरूरत थी भी नहीं।

बारीक मेहनत
मूवी में बारीकियों का इतना ध्यान रखा गया है कि केस के शुरुआतों दिनों में न्यूज चैनल की स्क्रीन बार पर सेंसेक्स 3,128 पॉइंट पर दिखता है। कोर्टरूम ड्रामा का जितना हिस्सा भी है बिल्कुल असली है। कोर्टरूम की बेंच-कुर्सियां-ट्यूबलाइट, वकीलों का टेंस करने वाला अंदाज और जज साब की चुप्पी, ये सब चीजें मेनस्ट्रीम मूवीज में बहुत ही कम ऐसे दिखती हैं। इनके लिए ज्यादातर सेट्स का ही इस्तेमाल किया जाता है, यहां राजकुमार गुप्ता ऐसा नहीं करते। कोर्टरूम की टेंशन और उमस एंटरटेनिंग तरीके से याद आती है तो 'मेरी जंग' और 'दामिनी' से। 'शौर्य' की भी याद आती है, पर मैं उसकी जगह 'अ फ्यू गुड मैन' को याद करना चाहूंगा। एनडीटीवी का पुराना लोगो, पुराने ऑफिस की बिल्डिंग, अंदर का व्यू और वहां पड़े तब के जमाने के पीसी मूवी को ऑथेंटिक फील देते हैं।

डायलॉग की बात
बेटे मनीष को सजा से बचाने के लिए घर पर अंकल लोग बात कर रहे हैं, रेफरेंस है जेसिका केस से जुड़े असली वकीलों का, अंदाजा लगाइए कौन है। डायलॉग है ..भाई साहब, बी. एल. पंडित को ले लेते हैं। 50 पर्सेंट सक्सेस का रिकॉर्ड है। और वो दूसरा 100 पर्सेंट रिकॉर्ड वाला? सुरेश दुलाऩी। अरे अब वो केस नहीं लेता।.. जेसिका लाल बनी माइरा की एक्टिंग शुरू के सीन में 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' की चित्रांगदा सिंह की याद दिलाती है। मूवी का दूसरा बेस्ट डायलॉग उनके हिस्से आया है। सड़क किनारे जेसिका-सबरीना जा रही हैं। पास से गुजरी बाइक पर पीछे बैठा आदमी सबरीना पर हाथ मारता है और जेसिका उसके पीछे दौड़ती है, उसे पकड़कर पीटती है और उस आदमी के माफी मांगकर भाग जाने के बाद सबरीना से कहती हैं ... भेंजी तू भेन्जी ही रहेगी, लड़ना सीख। ये दिल्ली है दिल्ली, आज छूकर गया है, कल रेप करके जाएगा.... माइरा की ये इंटेंस डायलॉग डिलीवरी खास है। मनीष भारद्वाज के कैरेक्टर का एक डायलॉग कल्ट है। उसके बोलने का अंदाज मोहम्मद जीशान के डायलॉग पर किए अपने काम को दर्शाता है। '...सर, सर गुस्सा आ गया था मुझे। हजार रुपए तक देणे के लिए तैयार था मैं, वो फिर भी ड्रिंक्स देणे के लिए मना कर रही थी सर। .... फिर ? ...फिर मैंने पिस्टल निकाल ली।' सिंपली ब्रिलियंट। मनीष की मां के कैरेक्टर में एक्ट्रेस का बार-बार पति से कहना... कुछ भी हो जी, मेरे मोनू को कुछ नहीं होना चाहिए.. फनी तरीके से ही सही, ज्यादातर माओं की अंधी ममता को अच्छे से साथ लेकर चलता है।

अमित त्रिवेदी का ढिंचेक-ढिंचेक म्यूजिक
फिल्म की आधी जान है अमित का म्यूजिक। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गाने पूरे वक्त फ्रैश रखते हैं। टेंस इश्यू होने के बावजूद मूवी में आप टेंस नहीं होते, बल्कि अपनी रगों में एंटरटेनमेंट और स्टोरीटेलिंग को फील करते हैं। कैमरे से फिल्माई किसी औसत वीडियो फुटेज को सिनेमा में तब्दील करने का मुश्किल काम यहां म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर करता है। कुछ-कुछ क्लासिक सा फील मिलता रहता है।
# ये पल, जो हैं वो हादसे हैं... बहुत ही सॉफ्ट और मार्मिक गाना है।
# आली रे साली रे... की बेस्ट लाइन है.. जिसकी लुगाई बणेगी रे भाई, उसकी तबाही, पेपर में छपेगी हट!
# मेरा काट कलेजा दिल्ली, मुई दिल्ली ले गई... में दिल्ली की बारी भी काफी पहले आ जाती है। प्रगति मैदान के हनुमान मंदिर से लेकर आईएसबीटी तक, कालकाजी से लेकर पुरानी दिल्ली तक... रिक्शेवाले, ऑटोवाले, पानीवाले... सब इस एक गाने में सिमट आते हैं और मूवी का बेस तैयार कर देते हैं। इन शुरुआती तीन मिनटों में दर्शक को सीरियस हो जाना पड़ता है।
# जार जार हुआ एतबार, टुकड़े हजार हुआ एतबार... मूवी के एक हिस्से को एक्सप्लोर करता है। केस के मजबूत विटनेस पुलिस को दिए अपने बयान से कोर्ट में पलट गए हैं। एक कमजोर बहन सबरीना का एतबार टूट गया। अब वो दिल्ली की सड़कों पर से इन इमोशंस के साथ गुजर रही है। एक रुपए की पानी की गिलास पीते हुए, डीटीसी की बस में लटककर चलते हुए, राह पर हाथी से टकराते हुए। इन्हीं भावों को आगे बढ़ाती गाने की एक लाइन देखें... झुलसी हुई रुह के, चिथड़े पड़े बिखरे हुए.. उड़ती हुई उम्मीद, रोंदे जिन्हें कदमों तले।
गजेंद्र सिंह भाटी