Showing posts with label force. Show all posts
Showing posts with label force. Show all posts

Sunday, October 2, 2011

फोर्स संभाल नहीं पाए निशिकांत

फिल्मः फोर्स
निर्देशकः निशिकांत कामत
कास्टः जॉन अब्राहम, जेनेलिया डिसूजा, विद्युत जमवाल
स्टारः ढाई, 2.5

चाहे 'फोर्स' का एसीपी यशवर्धन हो या 'दम मारो दम' का एसीपी विष्णु कामत, इनका पहला वास्ता हमेशा 'सरफरोश' के एसीपी राठौड़ की आदर्श इमेज से होता है। होना भी चाहिए, क्योंकि अभी तक तो हमारी फिल्मों में राठौड़ (आमिर खान) जैसा दर्शकों को आसानी से समझ आने वाला, स्मार्ट और ह्यूमन एसीपी कोई आया नहीं है। 'फोर्स' में ये सब नहीं है और यही दिक्कत है। जॉन एक्टिंग में और बेहतर होते तो फिल्म का रुख अलग होता। विद्युत जमवाल विलेन बने हैं। कहना होगा कि शायद ही किसी फिल्म में किसी गुंडे या विलेन की उन जैसी हीरोनुमा एक्शन वाली एंट्री हुई है। जेनेलिया बबली लगकर अपना फर्ज निभा जाती हैं। निर्देशक निशिकांत ही फिल्म के इमोशन और प्रस्तुतिकरण संभाल नहीं पाते। मैं 'फोर्स' नहीं देखने की सलाह नहीं दे रहा हूं। देखें, जरूर देखें, बल्कि कुछ चीजें तो बहुत अच्छी हैं। पर 'सरफरोश' वाला सुकून इस फिल्म में नहीं है। दोस्तों के साथ एक बार ट्राई कर सकते हैं।

फोर्स की कहानी
एसीपी यशवर्धन (जॉन अब्राहम) सीनियर नारकोटिक्स ऑफिसर है। कम बात करता है। न कोई आगे है न पीछे इसलिए अपने पेशे में किसी टास्क से डरता नहीं है। मुंबई में अपनी चार लोगों की टीम से वह ड्रग्स का खात्मा करने में बड़ी सफलता पाता है। फिर उसकी जिंदगी में माया (जेनेलिया डिसूजा) आती है। प्यार होता है। पर यहीं विष्णु (विद्युत जमवाल) के रूप में एक बड़ी लड़ाई उसका इंतजार कर रही है।

प्रस्तुति में गड़बड़ी
वैसे तो फिल्म में सबकुछ है। हैंडसम और हल्क जैसा हीरो जॉन अब्राहम। हैंडसम, खूंखार, तेज तर्रार और बहुत शक्तिशाली विलेन विद्युत जमवाल। बबली, स्वीट और फूलों सी खिली-खिली हीरोइन जेनेलिया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की स्पेशल चार लोगों की टीम। गुजरात के कच्छ, गोवा, पंजाब बॉर्डर, अफगानिस्तान बॉर्डर, जालंधर की जेल और हिमाचल के सोलन तक फैली ड्रग्स रैकेट की दास्तां। सॉलिड बातें। एक लव स्टोरी। एक हेट स्टोरी। और सबसे ऊपर एक बेहतरीन डायरेक्टर निशिकांत कामत। समस्या है प्रस्तुतिकरण। किस इमोशन को दर्शक के सामने कितनी देर रखना है और कब उठाकर दूसरा सीन देना है, ये पता नहीं। निशिकांत ने अपनी फिल्म 'मुंबई मेरी जान' में पांच-छह कहानियों का बहुत ही सरलता से और मनोरंजक तरीके से पेश किया था। यहां एक ही फिल्म, एक ही कहानी है पर वह उसे कुछ उलझा देते हैं। हम विलेन से नफरत करें, उससे पहले ही एसीपी सर की माला जपती हिरोइन आ जाती है। जब इनके प्यार को एंजॉय करने लगते हैं तो फिर ड्यूटी कॉल आ जाती है और हम गुंडों के बीच पहुंच जाते हैं। आप हीरोइन को फिल्म खत्म होने के पांच मिनट पहले तक जिंदा रखते हैं फिर मार देते हैं, ये स्टूपिड क्लाइमैक्स है। हीरो का प्रतिशोध सिर्फ पांच मिनट चलता है जो स्टूपिड है।

खामी मसलन ये
जेनेलिया का बार-बार हर दूसरे फ्रेम में आना फिल्म में एसीपी, उसके मिशन और विलेन लोगों के असर को ढीला करता है। वो सीन जिसमें जमवाल अपने आदमी के सिर पर पत्थर फैंककर मार देता है। उससे दर्शक भौंचक्के रह जाते हैं, पर वो उस औचकपन को एंजॉय कर पाए उससे पहले ही सीन कट हो जाता है और अगले सीन में जॉन जेनेलिया कोल्ड कॉफी पी रहे होते हैं। एक इमोशन में दर्शक को डुबोकर इतनी जल्दी निकाल लेना, गलत फैसला होता है।

हमारे हीरो के डायलॉग कितने करारे
# (खरीदना नहीं है, छीनना है) साइज देखकर बात किया कर, बच्चे के हाथ से बर्फ का गोला नहीं छीनना है। (एक टपोरी से)
# (तुम डरे नहीं? वो चेहरे पर पानी की जगह असल में तेजाब फैंक देता तो?) वो ऐसा नहीं करता, मुझे टपोरी को देखते ही उसकी औकात का अंदाजा हो जाता है। (जेनेलिया से)
# ये सूखे पेड़ पर गुलाब का फूल कब खिल गया। (एनसीबी टीम में जॉन का साथी, जॉन जेनेलिया से बात करते देख)
***************
गजेंद्र सिंह भाटी