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Thursday, February 7, 2013

कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बना रहा था, यानी मेरी सोच गलत थीः आनंद कुमार (जिला गाज़ियाबाद)

ये आनंद कुमार हैं। दक्षिण भारत के हैं, पर दिल्ली से हैं और अब मुंबई के हो गए हैं। उन्होंने वही फिल्म बनाई है जिसकी जब बनने की घोषणा हुई तो काफी जिज्ञासा लोगों के बीच जगी। एक वजह ये भी थी कि तब ‘पान सिंह तोमर’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ एक नई धारा की शुरुआत कर रही थीं। ‘जिला गाज़ियाबाद’ नाम में भी वही धूसरपन और गांवों में रात की हवाओं में सुनाई जाने वाली आधी गप्पों और आधी हकीकतों की छुअन थी। ...तो पालथी मार कर वो कहानी सुनने बैठना लाजिमी था। फिल्म 22 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। इसमें सतबीर गुर्जर और महेंदर फौजी के बीच गैंगवॉर और पुलिसवाले प्रीतम सिंह की कहानी है। संजय दत्त, अरशद वारसी, विवेक ओबेरॉय, परेश रावल मुख्य भूमिकाओं में लगते हैं। फिल्म के सिलसिले में आनंद कुमार से बातचीत हुई। उन्होंने जवाब दिए, अपनी समझ से दिए। हालांकि बहुत सी बातें हैं जिनसे मैं सहमत नहीं हूं। खैर, वह कमर्शियल सिनेमा के एक और नए प्रतिनिधि हैं। पहले उन्होंने ‘दिल्ली हाउट्स’ बनाकर अपनी कोशिश की थी, मगर बाद में हिम्मत हार इस नए दबंग, वॉन्टेड और राउडी राठौड़नुमा सिनेमा में आ गए। ऐसा नहीं है कि इन फॉम्युर्लाबद्ध फिल्मों पर डिबेट खत्म हो गई है। वो तो जारी है, और भी तेजी से, लेकिन फिलहाल फिल्मों की आर्थिक संरचना के व्यापक प्रभाव का तोड़ नहीं निकला है। कभी निकले तो सांस आए। फिल्मकार भी अपनी कहानियां कहने में ज्यादा स्वतंत्र हों। मैंने सवाल पूछे हैं, आनंद ने जवाब दिए हैं। मायने आपको तलाशने हैं। मैं भी तलाशकर दे सकता हूं लेकिन नहीं, आप करें। पढ़ने वालों के लिए, ध्यान देकर पढ़ें तो, बहुत कुछ है। फिल्म निर्माण में आर्थिक ढांचे की तानाशाही के परिणाम, सीमित विकल्प, निर्देशकों की समझ, उनकी लाचारियां, भिड़ने की सामर्थ्य, आसपास की सामाजिक-आर्थिक बुनावटों के प्रति संवेदनशीलता, मनोरंजन शब्द में छिपे धोखे और बारंबार एकसरीखी रचनाएं।पढ़ें, ससम्मानः

अपने बारे में बताएं, कहां से हैं, फिल्मों के प्रति रुझान कब से बना?
 दिल्ली की है पैदाइश और पढ़ाई दोनों। फिल्म जैसे बच्चे देखते हैं वैसे ही देखता था। मैं जरा ज्यादा इंट्रेस्ट लेकर देखता था। दृष्टिकोण अलग था। नशा सा हो गया था, सिनेमा घूमता बहुत ज्यादा था दिमाग में। फिर ऐसा बिंदु आया जब 1991 में राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘शिवा’ लगी। उसने मुझे प्रेरित कर दिया कि मुझे इसी लाइन में जाना है। इससे पहले ये सोचना भी कि इस लाइन में जाना है, अपने आप में अजीब सी बात हो जाती थी। कैसे चले आओगे ? आप फिल्म फैमिली से हो तो ऐसा सोचना समझ आता भी है। लेकिन आप दिल्ली में हो, आपके पिता वकील हैं जिनका कोई लेना-देना नहीं है सिनेमा से, तो मूवी बफ ही हुए न आप। ऐसे लाइफ चल रही थी। मगर मुझे याद है, ‘शिवा’ वो वक्त था जब तय कर लिया कि इसमें ही कुछ करूंगा, मगर ये बात मैंने किसी को बताई नहीं। ऐसे में मैं राइटिंग करने लगा। पांच-छह साल हो गए। पिता वकील हैं तो दो साल मैं लॉ करने चला गया। समझ नहीं आ रहा था, तो उसमें मजा आया नहीं।...
Vivek Oberoi and Anand Kumar, during the shooting of Zilla Ghaziabad.

... फिर हैदराबाद में एक लोकल संस्थान था, वहां से मास कॉम का कोर्स किया। उसकी वजह से कुछ मिला नहीं, कुछ सीखा नहीं मगर उसकी वजह से मैं स्टूडियोज में बैठा रह पाता था। रामानायडू स्टूडियो, अन्नपूर्णा स्टूडियो जो नागार्जुन का है... इनमें आना-जाना संभव हो गया। 1997-98 की बात कर रहा हूं। गाने, सीन शूट हो रहे हैं और मैं वहा हूं। राइटर के तौर पर विजुअलाइजेशन तो आ रहा था, मैं मेकिंग भी समझ रहा था। ऐसे वक्त निकला और 2002 में मैंने एक डॉक्युमेंट्री शूट की। दिल्ली में। वह डीजे लोगों के ऊपर थी, जिसमें मैं ये बताना चाह रहा था कि ये एक प्रफेशन है और जरूरी प्रफेशन है और एक क्रिएटिव फील्ड है। मैं उसे कर रहा था और उसी दौरान मीडिया डॉक्युमेंट्री के बारे में लिखने लगा। उसे प्रदर्शित किया तो मीडिया ने बहुत अच्छा लिखा और तुरंत दिल्ली में मुझे एड फिल्में और वीडियो मिलने लगे। तब वीडियो और रीमिक्स का दौर था। मैं इनमें बहुत बिजी हो गया। पैसे कमाने का मेरा जरिया भी सही बैठ गया और एक निर्देशक के तौर पर भी मुझे सही जगह मिल गई। मैं बहुत संतुष्ट हुआ। उस समय जो पिक्चरें लिख रहा था, उनमें पहली थी ‘डेली हाइट्स’। 2006 में शिवाजी गणेशन प्रॉड्श्ईन के लोग मुझे मिले, साउथ में ये बहुत बड़ी फिल्म निर्माण कंपनी है। मैंने उन्हें कहानी सुनाई, उन्होंने सुनी। फिल्म मार्च, 2007 में रिलीज हुई। वहां से फिर फिल्मों में यात्रा शुरू हुई और 2007 में मैं मुंबई आ गया। तब तक मैं दिल्ली में ही था। फिर दिल्ली के एक प्रॉड्यूसर ने मुझे ‘जुगाड़’ फिल्म के लिए साइन किया। ये मेरी दूसरी फिल्म हो गई। मगर उस वक्त ‘बिल्लू’ (शाहरुख, इरफान) के बराबर में रिलीज हुई थी तो मेरी फिल्म का पता ही नहीं चला। आई और गई।
   वहां से दिमाग में आया कि जब तक मैं कमर्शियल एलिमेंट की फिल्में नहीं बनाता तब तक नहीं होगा। कहीं मेरी सोच गलत है। उस वक्त ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्में आईं थी तो हम जैसे यंग निर्देशकों को भी मौका मिलने लग गया, कि एक नया दौर आ गया सिनेमा का जहां यंग लड़के बनाएंगे फिल्में। नहीं तो पहले क्या था कि हमें पूछते भी नहीं थे। कहते थे, ‘ये क्या पिक्चर बनाएगा लड़का’। तो तब लोग एक्सपेरिमेंट करने को तैयार थे। पर पहले जो मैं सोचता था कि रियलिस्टिक सिनेमा बनाऊंगा, मेरी उस बात में दम नहीं था। जैसे ‘लाइफ इन अ मेट्रो’, ‘डेली हाइट्स’ हैं... ऐसी फिल्मों का एक सीमित ऑडियंस है। मैट्रो कल्चर में जो लोग जिए हैं वो ही लोग देखते हैं। सिंगल थियेटर में तो वो पिक्चरें जाती भी नहीं हैं। लोगों को पता भी नहीं चलता और ऑडियंस हमारी वहीं हैं। मैंने 2009 के बाद थोड़ा सा ये तय किया, बैठकर, आराम से, कि मैं लार्जर दैन लाइफ फिल्में करूंगा। और वो फिल्में करनी हैं जो लोगों को दिखे और उन्हें मजा आए।

‘जिला गाज़ियाबाद’ का जन्म कब हुआ, कैसे हुआ?
मैं एक बार गाज़ियाबाद गया हुआ था। वहां रेलवे स्टेशन का बोर्ड देखा ‘जिला गाज़ियाबाद’। वो जैसे मेरे सामने कौंधा, उसे देख मैं बड़ा उत्साहित हुआ और मैंने वो टाइटल रजिस्टर करवा लिया। तब मेरे पास कहानी नहीं थी, महज शीर्षक था। मुझे वहां गाज़ियाबाद के नेता हैं मनोज शर्मा, उन्होंने विनय शर्मा (जिला गाज़ियाबाद के राइटर) से मिलवाया। उन्होंने कहा कि ये टाइटल इतना भारी और भरकम है आनंद कि इसमें एक गैंगवॉर की अच्छी कहानी बैठती है। आपको मजा आएगा आप सुनो। ऐसे मैं विनय से मिला 2010, सितंबर में। वहां से ‘जिला गाज़ियाबाद’ की यात्रा शुरू होती है। बैठकर हम लोग काम करने लगे, विनय ने बहुत बढ़िया कहानी लिखी। जनवरी, 2011 में विनोद बच्चन ने सौंदर्या प्रॉडक्शन में मुझे इस फिल्म के लिए साइन किया। वहां से औपचारिक नींव रखी गई। एक्टर साइन हुए। अरशद से पहले ही बात हो चुकी थी। उन्होंने ही मुझे प्रॉड्यूसर से मिलवाया था। फिल्म लिखते वक्त हमें इतना पता था कि अरशद को विलेन लेना है। ये मेरी एक खास ख़्वाहिश थी। आपने अगर प्रोमो देखा होगा तो उसमें पता चला होगा कि अरशद बुरे किरदार को निभा रहे हैं। ऐसे अरशद आए और उन्होंने ही हमें सारे एक्टर्स से मिलवाया। मैं इतना बड़ा नाम नहीं था तो मेरे को अरशद भाई ने बहुत मदद की। उन्होंने संजय दत्त साहब के पास भेजा, विवेक ओबेरॉय के पास भेजा, रवि किशन को जानता था, परेश रावल से मिलवाया। धीरे-धीरे मेरी एक ड्रीम कास्ट बनती चली गई। 14 जुलाई, 2011 से हमने शूटिंग शुरू की।

अब जब बन चुकी है फिल्म तो क्या जैसे कल्पना की थी वैसे ही बनी है, कितना खुश हैं?
मैं इतना संतुष्ट हूं कि क्या कहूं। इतने सारे एक्टर्स ने बिना बाधाओं के फिल्म पूरी करवा दी। फिल्म की पहली झलकियां देख आप जान गए होंगे कि विजुअली कितनी लार्जर दैन लाइफ हो गई है। जो कि मेरी फिल्में नहीं थीं। ये संतुष्टि है और दूसरा ये कि मैं मुख्यधारा के सिनेमा में भी आ पाया हूं।

स्क्रिप्ट आपने और विनय ने साथ लिखी?
नहीं, ये पूरी तरह से विनय की ही लिखी गई है। हम दोनों साथ तो बैठते थे पर ये पूरी तरह उसका विजन है। क्योंकि वो गाज़ियाबाद से ही है और वहां की रौनक लाना चाहता था तो पूरी आजादी दी मैंने। स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग तीनों उसके हैं।

ट्रेलर में जैसे नजर आता है कि लार्जर दैन लाइफ है, स्टंट ओवरपावररिंग हैं, लेकिन क्या फिल्म में गाज़ियाबाद के सामाजिक और राजनीतिक पहलू भी हैं? क्या बतौर निर्देशक कहानी में आपने असल इमोशन और दूसरा जीवन डाला है? क्योंकि हमें ट्रेलर में तो सिर्फ स्टंट और एक्शन ही दिखता है। फिल्म में बस यही तो यही नहीं है न?
देखिए, ट्रेलर को यूं लाना तो एक तरह से... पिक्चर गर्म करने के लिए ये सब करना पड़ता है। दूसरा ट्रेलर में हमने ये झलकाने की कोशिश की है कि पिक्चर हमने इस स्केल पर शूट की है। इसमें हमने स्टोरी नरेशन नहीं दिखाया है। हां, नरेशन का थोड़ा बहुत आइडिया लग रहा है। कहानी पता चल रही है कि अरशद और विवेक ओबेरॉय के किरदार गैंगस्टर हैं। संजय दत्त पुलिस ऑफिसर हैं, अलग से पुलिसवाले लग रहे हैं। फिल्म बनाते वक्त मेरी कोशिश ये थी कि ‘ओमकारा’ और ‘दबंग’ के बीच का रास्ता निकालना है। जो कि बहुत रियलिस्टिक भी है और कमर्शियल एलिमेंट भी है। वो आपको मिलेगा बिल्कुल, ये नहीं है कि फिल्म यूं ही चल रही है, कहीं भी, कुछ भी आ गया। अगर इसमें आइटम सॉन्ग भी आता है तो उसके शब्द ऐसे हैं कि कहानी को आगे लेकर जाते हैं। मैंने बिना मुद्दे के इसमें कुछ भी नहीं डाला है।

इन दिनों गैंगस्टर्स की कहानियां या दूसरी बायोपिक काफी बन रही हैं। जैसे, ‘पान सिंह तोमर’ है जो बहुत रियलिस्टिक होकर एक छोर पर खड़ी है। कहा भी गया कि वो फिल्म सिंगल स्क्रीन तक नहीं पहुंच पाई। आपने कहा कि आप ‘दबंग’ व ‘ओमकारा’ के बीच का रास्ता निकालना चाहते थे, तो सवाल ये है कि क्या प्रस्तुतिकरण में ध्यान रखा कि आपको ‘पान सिंह...’ जितना रियलिस्टिक नहीं होना है?
मुझे ये दिखाना था कि... कि जब मुंबई-दिल्ली में दर्शक 300 रुपये एक टिकट पर खर्चता है तो वह ये देखना चाहता है कि जो मैं नहीं कर सकता न, वो मेरा हीरो करे। मैं वो करना चाहता हूं। रियलिस्टिक अप्रोच का जहां तक सवाल है तो आज मेरी जिदंगी में ब्रेकअप चल रहा है, बॉस से झगड़ा हो रखा है, अफेयर में दिक्कत चल रही है... मेरी लाइफ में जो पंगे चल रहे हैं मुझे वो ही वापस नहीं देखने हैं। मेरे को वो देखना है कि सच्चाई की जीत हो, मेरे को वो देखना है कि बीच रास्ते कोई आ रहा है, छेड़ रहा है, परेशान कर रहा है, तो भईय्या वो आदमी रुकेगा नहीं, वो तो मारेगा। और वो कहीं मेरा अपना जज़्बा है। ये सोचा जाता है कि जनता वो देखना चाहती है जो उनकी लाइफ में घट रहा है मगर मैंने पाया है कि जनता वो नहीं देखना चाहती है। सब उड़कर एक्शन कर रहे हैं, वो तो रियलिस्टिक हैं ही नहीं, मगर उससे पहले जो डायलॉगबाज़ी है, उसे मैंने असल रखने की कोशिश की है। एक्शन देखकर लोगों को मजा आता है, लोगों को लगना चाहिए कि क्या सॉलिड है, मार इसको इसने मेरे साथ गलत किया है, रौंगटे खड़े होंने चाहिए।

इसके अतिरिक्त एंटरटेनमेंट की आपकी परिभाषा क्या है?
गाने हो सकते हैं। वो भी एंटरटेनमेंट ही हैं न। वो कमर्शियल एलिमेंट इतना बढ़िया रखते हैं न कि इस फिल्म का एल्बम आप सुनिए। एक से एक गाने आपको मिलेंगे। एक भी आपको बिना मतलब का नहीं लगेगा। दो बहुत ब्यूटिफुल रोमैंटिक नंबर हैं। अच्छा आइटम सॉन्ग हैं, बिना मतलब के नहीं आकर जाता हैं। टाइटल सॉन्ग ‘ये है जिला गाज़ियाबाद’ वैसे ही हिट हो गया है।

अपराध कथाओं पर इन दिनों काफी फिल्में बन रही हैं, आखिर इनके प्रति इतना इंसानी आकर्षण क्यों होता है, कभी आपने सोचा है?
मुझे लगता है कि ये सिर्फ क्राइम दिखाने की बात नहीं है। क्राइम दिखाते इसलिए हैं क्योंकि मुझे ये बताना है कि राम की ही जीत होगी, रावण की नहीं होगी। मैं क्राइम को फिल्म में इसलिए लेकर आया हूं क्योंकि मैं एक राम की कहानी बना रहा हूं और राम जीतेगा ये बताने के लिए रावण होना चाहिए। और किसी ने भी कभी अपराध वाली फिल्मों की बात की तो उन्हें अपराध देखने में कभी मजा नहीं आया, इसमें आया है कि अपराध का अंत कैसे होता है। आदमी थियेटर से बाहर निकलता है तो वह चौड़े में निकलना चाहता है, यही एक मर्दानगी वाली बात होती है। इस फिल्म के भी आखिर में आप कहेंगे कि यार मजा आ गया, हमारा राम जीता। सच्चाई की जीत के लिए हमें पहले गड़बड़ी तो दिखानी ही होगी।

ये गाज़ियाबाद में हुए गैंगवॉर पर आधारित सच्ची कहानी है?
नहीं, उनकी कहानी नहीं है। मैं जरूरी बात बता रहा हूं इसमें एक रुपये का भी वो तत्व नहीं है। ये मीडिया ने ही कर दिया। ये दरअसल अब एक बायोपिक नहीं रह गई है। इसमें किसी का नाम नहीं यूज किया गया है, कमर्शियल-नॉर्मल फिल्म है जैसे ‘दबंग’ थी। कोई 25 साल पहले गैंगवॉर हुई, तो उस वक्त प्रीतम सिंह बुलंदशहर में था, और यहां पे किसने किसको मारा, सब अलग-अलग थे, यानी कोई कहानी ही नहीं बनती है। मैं कोई दावा नहीं करता कि ये किसी गुर्जर की कहानी है। न ये प्रेरित है, न उनकी जिदंगी का कोई भी अध्याय मैंने उठाया है। आज के जमाने की, आज की कहानी है जिसमें मोबाइल भी है, लैपटॉप भी है, गाड़ी भी है... आज से 20 साल पहले उन्होंने क्या किया, क्या नहीं किया उसे थोड़ा सा भी भुनाने की कोशिश नहीं की है।

अरशद वारसी इसमें एक गुर्जर किरदार को निभा रहे हैं, क्या वो मूलतः उस किरदार के भाव और उच्चारण को पकड़ पाए हैं?
अरशद वारसी एक्टर इतना जबरदस्त है कि आप ये पिक्चर देखने के बाद सर्किट को भूल जाओगे। वो आदमी 14 साल से इंडस्ट्री में है और किसी ने यहां ये नहीं सोचा कि वह विलेन करेगा। मैं उन्हें ऐसे लेकर आया हूं। ट्रेलर आऩे के बाद मुझे कोई चार सौ के करीब मेल आए जिसमें लोगों ने लिखा कि इसमें अरशद वारसी क्या लग रहा है। क्योंकि वो एक्टर हैं और एक्टर से आप जो भी चाहे करवा लो। उन्होंने किरदार ऐसे निभाया है कि डरा के रख देगा।

इतनी लोकप्रियता साउथ के स्टंट डायरेक्टर्स की बॉलीवुड में हो रही है, उसकी वजह क्या है? जैसे कनल कन्नन ने इस फिल्म के स्टंट किए हैं। वो ‘गजिनी’, ‘विजय आईपीएस’ और ‘पोक्किरी राजा’ जैसी बहुत सी फिल्मों के स्टंट कर चुके हैं।
साउथ के एक्शन डायरेक्टर्स हीरोइज़्म बहुत सही तरीके से निकालकर लाते हैं। उनकी फ्रेमिंग लार्जर दैन लाइफ है। वो कैमरा टेक्नीक को जैसे इस्तेमाल करते हैं, हिट करती है। मैंने समझने की कोशिश की है, जैसे वो कैमरा के एंगल यूज करते हैं, कैमरा को घुमाते हैं, उसके साथ ट्रिक्स करते हैं और उनकी टाइमिंग है... सब बड़ा मजेदार है। जैसे, पहले साउथ के एक्शन डायरेक्टर रजनीकांत के साथ जो करते थे वो आज संजय दत्त के साथ किया जाए तो बहुत ही अच्छा लगेगा। अब ताली मारी और ट्रेन रुक गई वैसे तो नहीं करवाएंगे पर सीटी तो मार ही सकते हैं न। वहां के एक्शन मास्टर्स का जो सोचने का तरीका है वो बहुत लार्जर दैन लाइफ है। बॉलीवुड दरअसल बहुत लॉजिकल एक्शन में रहा है। जैसे ‘धूम’ में रहा है। ‘धूम’ में लार्जर दैन लाइफ लगता है, पर वो अंतरंगी नहीं लगता। जैसे इस फिल्म के लिए लोग मुझे कह रहे हैं कि ‘यार सब एक्शन तुम्हारे वायर पर ही किए हैं’। मैं कहता हूं वायर पर ही किए हैं मगर अच्छा तो लग रहा है ना। तो ऐसा ही बहुत बड़ा दिखाने की कोशिश वो करते हैं। एक्टर को भी अच्छा लगता है कि भइय्या उड़-उड़ कर मारें। अब कनल कन्नन का काम देखकर संजय दत्त ने तुरंत पांच फिल्में दे दी हैं। वो ‘शेर’ और ‘पुलिसगिरी’ दोनों में स्टंट संभालेंगे।
Sanjay Dutt, in a still from the movie.

आनंद कुमार आगे कैसी कहानियां कहना चाहते हैं, कैसी फिल्में बनाना चाहते हैं?
सात-आठ महीने पहले मैंने एक पिक्चर साइन की थी, उसका शीर्षक ही बड़ा रोचक है, ‘मेरठ जंक्शन’। एक आम लड़के की कहानी है, एक चोर की कहानी है कि कैसे वो बाद में अंडरकवर कॉप बन जाता है। क्लासिक कहानी है। मेरठ की काहनी है। एक और स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूं, ‘देसी कट्टे’। फिलहाल में मिट्टी से जुड़ी और रस्टिक फिल्में करना चाहता हूं। अभी एक दौर भी चल रहा है और मैं दिल्ली से हूं तो इन जगहों पर घूमा हूं, इनसे जुड़ा हुआ हूं।

किस किस्म का साहित्य पढ़ते हैं? कौन सी मैगजीन या उपन्यास पढ़ते हैं?
दरअसल, उतना वक्त मुझे मिलता नहीं है। मैं विज्ञापन फिल्में बीच में करता रहता हूं। पढ़ने के लिए नेट (वेब) पर बहुत वक्त देता हूं। ट्विटर पर बहुत एक्टिव हूं। मेरे दिमाग में इतनी चीजें चलती रहती हैं और ट्विटर पर अपडेट करते करते करते बहुत टाइम बीत जाता है। फिर घर पर जाकर नेट पर अपडेट लेता रहता हूं। नॉवेल में मेरी कोई रुचि नहीं है। अभी दो स्क्रिप्ट पर इतना काम करना पड़ता है मुझे कि वो ही अभी जरूरी है। क्योंकि हर फिल्म के बाद एक फिल्ममेकर को तौर पर आप वहीं खड़े हैं। इतना आसान नहीं कि आपको यूं ही 40 करोड़ रुपये का बजट मिल जाएगा। 200 लोगों का दिमाग एक फिल्म में लगता है, डायरेक्टर भी उन्हीं में से एक है, हालांकि वो कैप्टन जरूर है। लोगों को मनाना, उन्हें लेकर आना, काम शुरू करना... ये अपने आप में बड़ी जद्दोजहद है। मुंबई में रहना, मुंबई की अपनी एक संघर्ष की कहानी है। अब वो टाइम जा चुका है जब मैं आराम से किताब लेकर बैठूं और पढ़ूं। इतनी भागा-दौड़ी और स्ट्रगल है। यहां पता ही नहीं चलता न बॉम्बे में कि कौन कब आता है और उड़ जाता है। कितने नए फिल्ममेकर जा चुके हैं।

व्यस्तता के दौर से पहले जरूर कुछ पढ़ा होगा?
उस दौर में मैंने छह-सात फिल्में लिखीं थी, उसमें सबसे अच्छा टाइम बीता था। नॉवेल तो तब भी नहीं पढ़ पाता था क्योंकि डैड लॉयर थे तो मेरा सारा वक्त धाराएं पढ़ने और याद करने में ही बीत जाता था। बीते साल की फिल्में जो अब भी जेहन में बची हैं? ‘कहानी’ बहुत अच्छी लगी। ‘विकी डोनर’ ने मुझे बहुत प्रेरित किया। इतने छोटे बजट में इतनी बेहतर बनी। ‘राउडी...’ वगैरह तो ‘कालीचरण’ ही थी। इतनी बड़ी फिल्म तो मुझे नहीं लगी थी। ‘तलाश’ बहुत पसंद आई।

हमेशा से पसंद रहे एक्टर?
वैसे चार-पांच एक्टर तो सबके ही फेवरेट होते हैं, मैं भी शाहरुख, आमिर की फिल्मों को मिस नहीं करता था। सलमान भी हैं। उनसे मिलता हूं। सेट पर जाता हूं। मजा आता है। कितना एफर्टलेसली काम करते हैं। संजय दत्त के साथ काम करने का बड़ा ड्रीम था। संजय की हर पिक्चर देखता था। बाबा का स्टाइल ही अलग है। काम किया है विवेक (ओबेरॉय) के साथ, तो लगता है, क्या एक्टर है बंदा। पहले फैन-वैन नहीं था, पर एक्टर के तौर पर शानदार रहे।

क्या लक्ष्य है लाइफ का?
फिल्में बनाता रहूं, आती रहें। प्रॉडक्शन हाउस डालूं। दरअसल मेरे माता-पिता साउथ इंडिया से हैं, मैं दिल्ली में पैदा हुआ व रहा तो वहां की बहुत चीजें आ गईं, मगर अंदर से रहूंगा तो मैं साउथ का ही। साउथ का बहुत प्रभाव है मुझ पर। मैंने एक कंपनी बनाई थी आनंद कुमार प्रॉडक्शंस तो उसके तहत मैं हर साल छह-सात फिल्में बनाना चाहता हूं। बॉम्बे में बैठकर साउथ के लिए फिल्मों में पैसे लगाऊंगा। सब साउथ से फिल्में लाकर रीमेक करते हैं, मैं यहीं बैठकर वहां के लिए फिल्में बनाऊंगा। फिल्में जो न्यू ऐज होगी।

(Anand Kumar is the director of upcoming Hindi movie 'Zilla Ghaziabad', which stars Sanjay Dutt, Arshad Warshi, Vivek Oberoi, Paresh Rawal and many more. He hails from South India but was born and brought up in New Delhi. He made two films earlier, 'Delhi Heights' and 'Jugaad.' His latest offering is releasing on Feb, 22 this year.) 
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Friday, January 27, 2012

वीजू और कांचा के सम्मोहन वाली अग्निपथ 2.0

फिल्म: अग्निपथ
निर्देशक: करण मल्होत्रा
कास्ट: ऋतिक रोशन, संजय दत्त, ऋषि कपूर, प्रियंका चोपड़ा, जरीना वहाब, अरिश भिवंडीवाला, कनिका तिवारी, ओम पुरी, राजेश टंडन, चेतन पंडित
डायलॉग: पीयूष मिश्रा
स्टार: साढ़े तीन, 3.5
अरसे बाद आई तीन घंटे बांधकर रखने वाली एक हिंदी फिल्म, रगों में दौड़ते लहू को गर्म करती हुई, दिमाग को सहूलियत देती हुई, हमें 'मारो-मारो' कहने वाली भीड़ का हिस्सा बनाती हुई, खुश करती हुई, डराती हुई, एक मसीहा देती हुई, स्मार्ट-सरल-संतुष्ट डायलॉग सुनाती हुई और जिंदगी की हकीकतों से दूर एक झूठी मगर जरूरी फिल्मी दुनिया में ले जाती हुई। कुछ खामियों और धीमेपन के अलावा फिल्म बड़ी दुरुस्त है। जरूर देखें और मसालेदार सपनीले से काव्यात्मक सिनेमा को एंजॉय करें। फिल्म में बहुत सा अपराध और खून-खराबा है इसलिए बच्चों को ये फिल्म दिखाना चाहते हैं कि नहीं ये तय करें।

1990 में करण जौहर के पिता यश जौहर ने प्रॉड्यूस की थी मूल 'अग्निपथ', निर्देशन था मुकुल आंनद का। कवि हरिवंश राय बच्चन की कविता 'अग्निपथ' से ऊष्मा लेती हुई इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने खराश भरी आवाज वाले एंग्री हीरो विजय दीनानाथ चौहान का रोल निभाया था। ये कल्ट फिल्म बनी। उसकी हूबहू कॉपी या रीमेक बनने की बजाय ये नई 'अग्निपथ' उसे सही मायनों में ट्रिब्यूट देती है। इस फिल्म में न तो कृष्णन अय्यर एम.ए. (मिथुन चक्रवर्ती) हैं और न ही कई यादगार पल। मां की इज्जत पर हाथ डालने वालों के पेट्रोल पंप को आग लगाने वाला कजरारी आंखों वाला छोटा विजय, थाने में ईमानदार इंस्पेक्टर गायतोंडे (विक्रम गोखले) के सामने नाम-बाप का नाम-उम्र--गांव वगैरह वगैरह बताता हुआ छोटा विजय, घायल विजय को नारियल पानी के ठेले पर डालकर ले जाता हुआ कृष्णन अय्यर, उसके लुंगी ऊपर करने का अंदाज, अस्पताल में घायल विजय की हालत जानने को लेकर बाहर आपे से बाहर होती भीड़ और न जाने ऐसे कितने ही सीन। इस फिल्म में ये सब नहीं हैं। पर कोई बात नहीं, हम उन्हें इतना मिस नहीं करते। क्योंकि ये फिल्म अलग परिभाषा के साथ आती है।

शेव किए हुए सिर और भौंहों वाले संजय दत्त खौफनाक से कांचा चीना बने हैं।
'तुम क्या लेकर आए थे, तुम क्या लेकर जाओगे। रह जाएगा तो बस एक इंसान। सर्वशक्तिशाली सर्वशक्तिमान। कांचा...' जैसे डायलॉग में वो नहीं डायलॉग राइटर पीयूष मिश्रा बोलते से लगते हैं। संजय दत्त के लिए वह लिखते हैं, 'रामजी लंका पधार चुके हैं? पता करो वानर सेना तो साथ नहीं लाए?' इस कांचा चीना की सनक में हिंदी की शुद्ध डिक्शनरी खुलती लगती है। वह 'प्रबुद्ध' और 'सत्कार' जैसे आज कठिन हिंदी माने जाने वाले शब्दों का रोचक इस्तेमाल करता है। हिंदी फिल्मों और अखबारों से ऐसे शब्दों को आउटडेटेड कहकर हटाया सा जा रहा है, उनका इस्तेमाल बंद किया जा रहा है। ऐसे में पीयूष जाहिर करते हैं कि अगर चाहत हो तो इन शब्दों को योग्य रखा जा सकता है। फिल्म में कांचा विजय को राम, खुद को रावण और मांडवा को लंका बताता है, साथ ही उसकी बातों में महाभारत के संदर्भ भी आते हैं। कांचा चीना की भाषा में ये फ्रैशनेस पीयूष की देन है। बात लुक्स की करें तो मुझे वो 'एपोकलिप्स नाऊ' के कर्नल वॉल्टर (मर्लन ब्रांडो) की याद दिलाते हैं। उनका कूल माइंडेड मिजाज और शारीरिक अंदाज 'द डार्क नाइट' के जोकर (हीथ लेजर) सा है।

मांडवा की शक्ल-सूरत की बात करूं तो यहां आते-आते निर्देशक करण मल्होत्रा पर समकालीन अमेरिकी फिल्मों का असर साफ दिखता है। डेविड फिंचर और क्रिस्टोफर नोलान की फिल्मों के फ्रेम्स में जो गहरी सलेटी और गीली सी धुंध होती है, वो यहां खासतौर पर है। ये शायद करण के ही निर्देश थे, कि कांचा की मौजूदगी वाले सीन्स में अजय-अतुल जो पृष्ठभूमि संगीत देते हैं उस पर 'बैटमैन' और 'द डार्क नाइट राइजेज' का बैकग्राउंड स्कोर कंपोज करने वाले हांस जिमर का असर है। अनजाने में तो हो ही नहीं सकता है, जानबूझकर ही है।

ऋतिक रोशन अपने अभिनय में और गहन और जरीवर्क जितने बारीक हुए हैं। बहुत बार वो रुला जाते हैं। उनका अभिनय बहुत गंभीर और शानदार है। जैसे, अपनी छोटी बहन को जन्मदिन का गिफ्ट चुपके से देने जाना और सामने उसका आ जाना। वह पूछ रही है, 'भैया किसने भेजा है ये। बताइए न,
किसने भेजा है।' उसे नहीं पता कि ये उसका बड़ा भाई विजय है। तभी पीछे से मां आ जाती है, जिससे विजय की
बातचीत बंद है, बरसों से। अब वह खुद को डिलिवरी बॉय बताकर वहां से निकलने लगता है। संकरी सी गैलरी से उथले, बोझिल, कष्टभरे सीने को ले वह जब निकल रहा है तो उसका भीतर ही भीतर फट रहा दिमाग हमें थियेटर में फटता महसूस होता है। फिर चाल में सब उसे सरप्राइज देते हैं। गाना चलता है, 'गुन गुन गुना रे, गुन गुन गुना रे, गुन गुन गुना ये गाना रे'। शराब पिए लड़खड़ाते कदमों से वह खड़ा है और काली गौड़े उसे घेरकर तमाम चालवालों के साथ गा-नाच रही है। यहां भी आप विजय बने ऋतिक को देखिए। वह रुआंसे हैं और लगातार रुआंसे बने रहते हैं, पिछले सीन के कष्ट को बरकरार रखते हुए। तो उनके अभिनय के लिए फिल्म कुछ बार देखी जा सकती है।

मास्टर दीनानाथ के अग्निपथ कविता को पढ़ने और विजय के अपना परिचय देने के संदर्भ को इस फिल्म में अलग जगहों पर रखा गया है और बिना अमिताभ की खराश भरी आवाज के भी वो प्रभावी लगते हैं। ऋषि कपूर अलिफ मीट
एक्सपोर्ट की आड़ में छोटी-छोटी बच्चियों को बेचने वाले रौफ लाला को यूं निभाते हैं कि उनके बेटे रणबीर की रीढ़ में भी सिहरन दौड़ जाए। प्रियंका चोपड़ा का रोल छोटा पर कॉम्पैक्ट है। वह ठीक-ठाक हैं। छोटे विजय (अरिश भिवंडीवाला) और बहन शिक्षा (कनिका तिवारी) के रोल में दोनों चेहरे फ्रैश हैं। अरिश के बोलने का तरीका कुछ-कुछ बड़े होने पर ऋतिक कैसे बोलेंगे, इससे मेल खाता है। जो आश्चर्य रहा।

जरीना वहाब मां के रोल में अच्छी-अच्छी फिल्मों में पहली पसंद बनती जा रही हैं। उनके आंसू असली लगते हैं, एक्टिंग नहीं। जब रौफ के बाजार से विजय शिक्षा को बचाता है और रौफ को मार रहा होता है तो शिक्षा अपनी मां से बार-बार पूछ रही होती है, 'आई बताओ ना कौन है ये, बताओ ना आई।' और इसके बाद अप्रत्याशित रूप से सन्नाटा तोड़ते हुए जरीना गहराई तक बींध देने वाली चीख के साथ जवाब देती है, 'भाई है तेरा', इतनी जोर से कि हम भावनात्मक रूप से कांप जाते हैं। गायतोंडे के रोल में ओम पुरी ठीक-ठाक हैं, उनका किरदार बस कहानी को सहारा देता चलता है। मास्टर दीनानाथ चौहान बने चेतन पंडित आराम में दिखते हैं, उनका रोल छोटा सा है, उतना प्रभावी नहीं है जितना मूल अग्निपथ के मास्टर दीनानाथ चौहान का था।

टीवी के गट्टू यानी देवेन भोजानी यहां रौफ लाला के मैंटली चैलेंज्ड बेटे अजहर लाला बने हैं, कमजोर अदाकारी के साथ। कैसे अपराध की दुनिया के बड़े गुंडों की पर्सनल लाइफ दिखाने का सीधा फॉर्म्युला है, कि एक पापी किस्म का गुंडा है, उसका बड़ा बेटा बहुत गुस्सैल (अग्निपथ में रौफ लाला का गुस्सैल बड़ा बेटा मजहर लाला, जो राजेश टंडन अच्छे से बने हैं) है, कुछ-कछ बाप से बागी है, काम के अपने तरीके व्यापना चाहता है और छोटा बेटा मैंटली चैलेंज्ड है। जैसे कि डायरेक्टर शशिलाल नायर की 'अंगार' में था। इसमें मुंबई के अच्छे लेकिन बुरे भाई जहांगीर खान बने कादर खान थे। इनके बड़े बेटे माजिद (नाना पाटेकर) गुस्सैल और बाप के कामकाज के तरीकों से कुछ बागी हैं, तो घर पर एक छोटा भाई भी है जो चल फिर नहीं सकता, खुद खाना तक नहीं खा सकता, बोल नहीं सकता। तो ऐसी कुछेक और फिल्में हैं। डायरेक्टर जीवा की फिल्म 'रन' में भी गनपत चौधरी (महेश मांजरेकर) नाम के गुंडे के घर पर एक लूला किरदार है, जो चल नहीं सकता और बोल भी नहीं सकता, पर जब अभिषेक बच्चन का किरदार सिद्धार्थ जाह्नवी को भगा ले जा रहा होता है तो वह गाड़ी के आगे आ जाता है और उनको रोकने की कोशिश करता है। महेश मांजरेकर के निर्देशन में बनी 'कुरुक्षेत्र' में भी इकबाल पसीना (मुकेश ऋषि) के घर में ऐसा ही एक घुंघराले बालों वाला किरदार है, जो बोल नहीं सकता और कुछ मैंटली एब्सेंट है। जब एसीपी पृथ्वीराज सिंह बने संजय दत्त 'जंजीर' स्टाइल में इकबाल के मोहल्ले में उससे भिड़ने जाते हैं और लड़ते हैं तो मारपीट के दौरान वह किरदार खुद को बचता-बचाता दिखता है। 'अग्निपथ' पर लौटे तो करण मल्होत्रा के फिल्म बनाने के मिजाज में किसी बड़े अपराधी को और असल बनाने के दौरान ये मनोविज्ञान हावी रहा। रौफ लाला जैसे बच्चियों को बेचने वाले दरिंदे के घर एक अपंग बेटा देने का मनोविज्ञान। याने जितना बड़ा अपराधी और दरिंदा, उसके घर तमाम समृद्धि के बावजूद ईश्वर की लाठी उतनी ही जोर से बजती है। खैर, हम बात देवेन भोजानी की कर रहे थे, उनका काम फीका रहा है।

'अग्निपथ' देखते हुए बहुत बार आंखों में बूंदों की लड़ियां बनती हैं। खून रगों को चीरकर बाहर आने की कोशिश करता है। अरसे बाद तीन घंटे की फिल्म देख रहे होते हैं तो बैचेनी भरी शंका होती है कि अब तक इंटरवल नहीं हुआ, क्या कहीं फिल्म बिना ब्रेक के ही खत्म तो नहीं हो जाएगी? फिर तसल्ली होती है। विजय दीनानाथ चौहान भी उतना ही बड़ा गुंडा है, अपराधी है जितना कि कांचा चीना, पर उसके अपराधी होने की वजहें इतनी भारी इमोशनल हैं कि लोग उसके साथ होते हैं। आखिर में भी कोई दुनियावी अदालत उसे सजा न दे पाए इसलिए फिल्ममेकर्स ने उसका फैसला ईश्वर की अदालत पर छोड़ा, हमारी अदालत के हिस्से उसका हीरोइज्म ही आया, अपराध पक्ष नहीं।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, October 6, 2011

जिन्हें नाज है डेविड पर वो कहां हैं: रास्कल्स

फिल्म: रास्कल्स
निर्देशक: डेविड धवन
कास्ट: अजय देवगन, संजय दत्त, कंगना रनाउत, अर्जुन रामपाल, लीजा हैडन, चंकी पांडे
स्टार: डेढ़, 1.5


डेविड धवन की 'आंखें, 'साजन चले ससुराल', 'हीरो/कुली नं. वन' और 'स्वर्ग' पर बड़ी हुई पीढ़ी उनकी फिल्मों पर जान छिड़कती है। उनकी 'राजाबाबू' आज टीवी पर आती है तो सौंवी बार भी फिल्म की रिपीट वैल्यू वही होती है। मगर वो ये डेविड नहीं हैं जो हमें 'रासकल्स' देते हैं। यूं ज्यादातर नहीं होता कि थियेटर में लोग हंस रहे हों और फिल्म मुझे न पसंद आए। पर यहां हुआ। फिल्म वाहियात है, अब से पहले बन चुकी फिल्मों का फालूदा है, डायलॉग्स में हद से ज्यादा बॉलीवुड का रेफरेंस है, गानों की कोरियोग्रफी अश्लील से कम नहीं है, न कोई कहानी है न एक्टिंग। सारे कैरेक्टर इतने लाऊड हैं कि सिर दुखने लगता है। कुछ जगह हंसी आती है, पर अगले ही पल छिन जाती है। चेतू और भग्गू की ये कहानी अगर दिखाई जानी भी चाहिए रात को साढ़े दस के बाद वाले शो में, वो भी 'ए' सर्टिफिकेट के साथ। ये जुमला डेविड धवन की फिल्मों के साथ शुरू हुआ था कि 'इनकी फिल्में देखनी हैं तो दिमाग घर छोड़कर जाइए।' अब नया जुमला ये है कि 'अपना कॉमन सेंस और मॉरैलिटी भी दरिया में बहाकर जाइए।'

बदमाशों की कहानी
वैसे तो युनूस सजवाल के लिखे इस स्क्रीनप्ले में कहानी ढूंढने से भी नहीं मिलती पर पढ़ लीजिए। भगत भोंसले (अजय देवगन) और चेतन चौहान (संजय दत्त) ठग यानी कॉनमैन हैं। दोनों अलग-अलग वाकयों में एंथनी (अर्जुन रामपाल) को लूटकर बैंकॉक भाग जाते हैं। यहां दोनों एक ही पैसेवाली लड़की खुशी (कंगना रनाऊत) को फंसाने और एक-दूसरे को रास्ते से हटाने की कोशिशों में लगे हैं। इर्द-गिर्द कॉलगर्ल डॉली (लीजा हैडन) और होटल मैनेजर बीबीसी (चंकी पांडे) जैसे किरदार भी हैं।

बंद करो बर्बादी
एक गाना है 'परदा गिरादे'। इसमें ढेर सारे टेक्नीशियन, पैसा, डांसर्स और रिसोर्सेज खर्च हुए हैं, मगर बदले में मिलते हैं तो बस कुछ अश्लील इशारे और घटिया कोरियोग्रफी। उसपर अजय और संजय दत्त का अकड़े शरीरों के साथ नाचने की कोशिश करना। इस गैर-जरूरी फिल्म को बनाने में भी सोमालिया के गरीब बच्चों के जिक्र को बार बार लाया गया है। एक तो ये असंवेदनशील है और दूजा ये संदर्भ दर्शकों के रत्तीभर भी काम नहीं आता। डॉली और खुशी से बात-बात पर जोंक की तरह चिपटते दोनों हीरो छिछोरे लगते हैं। ऐसा लगता है कि डायरेक्टर डेविड धवन कोमा से उठे हैं और फिल्में बनाना सीख रहे हैं। और 'रासकल्स' के रूप में उनकी अच्छी और लुभावनी फिल्मों का विकृत रूप सामने आया है।

वूडी से लेते डेविड
सन 1969 में वूडी एलन की बनाई एक कॉमेडी फिल्म आई थी 'टेक द मनी एंड रन'। इसके एक सीन में वूडी का किरदार बैंक लूटने जाता है। काऊंटर पर कैशियर को वह जो पर्ची देता है उसपर लिखा होता है, 'प्लीज पुट 50 थाउजेंड डॉलर इनटू दिस बैग। एक्ट नेचरल। आई एम पॉइंटिंग अ गन एट यू।' इस अद्भुत सीन में कैशियर एक्ट को एब्ट और गन को गब पढ़ता है। फिर पूरे बैंक का स्टॉफ इन दो शब्दों पर ही उससे बहस करने लगता है। ठीक 42 साल बाद डेविड धवन गन को गम पढ़वाते हुए ये सीन 'रासकल्स' में अजय-संजय और बैंकॉक के बैंक स्टॉफ पर फिट कर देते हैं। ऐसी बहुत सारी नकलें मारकर भी बुरी तरह फेल होने की ये फिल्म बेहतरीन मिसाल है।

संजय छैल के डायलॉग्स का खेल
# मैं हूं अजरूद्दीन जलालुद्दीन फकरूद्दीन फेसबुकवाला।
# अमेरिका को लादेन मिल गया, लेकिन आपको चेतन नहीं मिलेगा।
# ए भगु भाई, आ तमारे मस्त मस्त दो नैन अस्त कैसे हो गए।
# क्या कहानी बनाई है, इसे सुनकर तो संजय लीला भंसाली 'ब्लैक' पार्ट-2 बना दे।
# हे भगवान, आज पता चला कि कपड़ा उतारना कितना आसान है और पहनाना कितना मुश्किल। (शायद फिल्म में सबसे फनी)
# नग्नमुखासन, बैंक की लोन की तरह ध्यान अंदर लो और इंस्टॉलमेंट की तरह छोड़ो।
# प्लीज वेलकम भगत भोसले, भोसले के होंसले ने दुश्मनों के घोंसले तोड़ दिए।
# एंथनी बदनाम हुआ रास्कल्स तेरे लिए।
# जिस आंधी तूफान में लोगों के आशियाने उजड़ जाते हैं, उसमें हम लोग चड्डी और बनियान सुखाते हैं।
# ये इसकी बेटी है? इसकी कैसे हो सकती है। काले गुलाबजामुन के घर सफेद रसगुल्ला।

आखिर में
धवन की कॉमेडी को गोविंदा और करिश्मा बेस्ट एक्सप्लोर कर पाते थे। यहां सब लाऊड हैं। फिल्म में शक्ति कपूर, कादर खान, गोविंदा और जॉनी लीवर को मिस करते हैं। इस फिल्म में हैं तो बस चंकी पांडे और सतीश कौशिक। वो भी फीके से। अनीस बज्मी, रूमी जाफरी, कादर खान... डेविड से ज्यादा हम उनकी सफल फिल्मों के राइटर्स को मिस कर रहे हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, June 25, 2011

जब कोई कॉमेडी चिड़चिड़ा-दुखी बनाने लगे

फिल्मः डबल धमाल
डायरेक्टरः
इंद्र कुमार
कास्टः जावेद जाफरी, रितेश देशमुख, संजय दत्त, आशीष चौधरी, अरशद वारसी, कंगना रनाउत, मल्लिका सेहरावत
स्टारः ढाई 2.5

मुझे लगता है कि अच्छी कॉमेडी के लिए आने वाली फिल्मों का इंतजार करने से अच्छा है कि खुद ही कुछ बंदोबस्त कर लूं। 'डबल धमाल' देखने के बाद ये सोच पुख्ता हो गई है। पीवीआर के ऑडी फोर में मेरे अलावा बहुत कम ऐसे लोग थे जो हंस नहीं रहे थे। इसके बावजूद मैं 'डबल धमाल' को एक बुरी फिल्म कहूंगा चूंकि ये फिल्म जहां-तहां हंसाती रहती है, एंटरटेन करती है इसलिए थियेटर जाकर इसे देखने से आपको बिल्कुल नहीं रोकूंगा। डेविड धवन और प्रियदर्शन की फिल्में अब अच्छी लगने लगी हैं और हमारे दौर की गोलमाल-धमाल चिड़चिड़ा और दुखी बनाने लगी हैं। इस एंटरटेनमेंट में कोई कहानी और आत्मा नहीं है पर आप देखने जा सकते हैं। किसी का साथ हो तो अच्छा।

बात कहानी की नहीं
'धमाल' के पांच मुख्य किरदार 'डबल धमाल' में भी हैं। आदि (अरशद वारसी), मानव(जावेद जाफरी), रॉय (रितेश देशमुख) बोमन (आशीष चौधरी) और इंस्पेक्टर कबीर (संजय दत्त). पिछली मूवी में जिस छिपे खजाने के पीछे सब दौड़ रहे थे वो चैरिटी में चला गया था। चारों दोस्त अब रोड़ पर आ गए हैं। इसका दोष वो कबीर को देते हैं। एक दिन कबीर उन्हें एक बड़ी गाड़ी में बड़े से आफिस जाता दिखता है। चारों तय करते हैं कि कबीर से सब छीन लेंगे। जाहिर है मजाकिया अंदाज में ही ये सब हो रहा है। कबीर की वाइफ है कामिनी (मल्लिका सेहरावत) और सेक्रेटरी कीया (कंगना रनाउत). असल में ये चारों कबीर के प्लैन में फंस रहे हैं। इसमें उसकी गर्लफ्रेंड कामिनी और छोटी बहन कीया भी शामिल है। खैर, ये चार बेचारे बाटा भाई (सतीश कौशिक) को चूना लगाकर ढाई सौ करोड़ रुपए कबीर को देते हैं और कबीर मकाऊ भाग जाता है। अब भाई लोग इन चारों के पीछे है और ये भी मकाऊ चले जाते हैं। यहां ये फिर कबीर को सबक सिखाने की सोचते हैं। फिल्म के आखिर तक लगता है कि इन्होंने कबीर को मूर्ख बना दिया, पर यहां भी मामला उल्टा है। होता वही है जो तीसरी फिल्म बनने के लिए जरूरी है। मॉरल ऑफ द स्टोरी इज, कोई स्टोरी नहीं है और भूल कर भी दिमाग मत लगाइएगा।

मुझे क्या दिक्कत है
दरअसल 'दबंग', 'भेजा फ्राई' (ये भी एक फ्रेंच फिल्म से प्रेरित है), 'दो दूनी चार' और 'थ्री ईडियट्स' जैसी फिल्मों में वो सब है जो 'डबल धमाल' बनाने वालों ने बस कमर्शियली बनाना चाहा, पर बना नहीं पाए। ये फिल्में मेहनत से लिखी गई थी, कुछ चीजों को छोड़ दें तो हेल्दी और फ्रैश मनोरंजन वाली थी। 'डबल धमाल' में बासीपन बहुत ज्यादा है और मौलिकता यानी ऑरिजिनेलिटी न के बराबर। हम फिल्म में बाटा भाई बने सतीश कौशिक को देखते हैं। उनके एक्सेंट, हाव-भाव, लहजे और रोल को हू-ब-हू डेविड धवन की 1997 में आई कॉमेडी 'दीवाना मस्ताना' के किरदार पप्पू पेजर से उठाया गया है। राजू श्रीवास्तव के 'भाई आया बाबागिरी के धंधे में' गैग को इसमें बिल्कुल कॉपी कर लिया गया है, जो वह टीवी के हालिया पहले स्टेंडअप कॉमेडी शो 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज' में चार-पांच साल पहले कर चुके हैं। चलिए ये भी माफ। अब साथ-साथ चल रही है वल्गर कॉमेडी, डबल मीनिंग डायलॉग्स, रिपीटेशन, शोर, सुने-सुनाए वन लाइनर और ऐसे पंच जो पांच रुपए में फुटपाथ किनारे मिलने वाली चुटकुले की किताब में पिछले बीस साल से लिखे-पढ़े जा रहे हैं। जमीन से क्रूड ऑयल निकलने वाला जो सीन है वो हंदी फिल्मों में आधा दर्जन बार तो यूज हो ही चुका है। मसलन, 1986 में आई जीनत अमान स्टारर 'बात बन जाए' जिसमें संजीव कुमार के किरदार की जमीन से क्रूड ऑयल का फव्वारा फूट पड़ता है।

स्क्रिप्ट लिखने वालों की सीमा
फिल्म में सबसे बुरी और कमजोर कड़ी है स्क्रिप्ट राइटर तुषार हीरानंदानी और डायलॉग राइटर राशिद साजिद। 'धमाल' में कम से कम असरानी, विजय राज, टीकू तलसानिया और संजय मिश्रा थे और कहानी में मिस्टर बीननुमा ह्यूमन कॉमेडी वाला पहलू था। इस सीक्वल में तो ले-देकर सात-आठ बेरंग किरदार हैं। रीतेश, अरशद, आशीष और जावेद जाफरी अपने एक्सप्रेशन और एक्टिंग में बेइंतहा कोशिशें झोंकते नजर आते हैं, पर हर बार हंसी मुंह से निकलकर हवा में ही राख बनकर खत्म हो जाती है। आप किसी सीन को रिवाइंड करके कभी हंसना चाहें तो भूल ही जाइए। इसका मतलब ये है कि कॉमेडी फिल्म के साथ ये सबसे बड़ी ट्रेजेडी है। स्क्रिप्ट में मौजूदा वक्त की फिल्मों के रेफरेंस कूट-कूटकर डाले गए हैं।
ज्यादातर तो इनका मखौल उड़ाया गया है। इनमें दबंग, डेल्ही बेली, थ्री ईडियट्स,रंग दे बसंती, पीपली लाइव, कौन बनेगा करोड़पति, बच्चन साहब, प्रोमो, फिल्म डिवीजन, मकाऊ, वंस अपऑन अ टाइम इन मुंबई, बारबरा मोरी, तारे जमीं पर और गुजारिश के रेफरेंस देखे जा सकते हैं। इसके अलावा फिरोज खान, अमिताभ बच्चन, शाहरुख, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा और गुजरे जमाने के विलेन जीवन की मिमिक्री पूरी मूवी के दौरान चलती रहती है।

ऐसा लगता है
- चल कुडि़ए नी चल चल मेरे नाल... गाने की कोरियोग्रफी बड़ी ढीली है। इसमें कुछ और ढिलाई जोड़ देते हैं संजय दत्त, जिनका अकड़ा-फूला हुआ शरीर और धंसा हुआ गला देखने में बोझिल सा लगता है।
- बाटा भाई बने सतीश कौशिक बहुत दिन बाद ऐसी कॉमेडी में दिखे, पर उनकी तेज हरकतों और करंट मारती एक्टिंग में अब धीमापन आ गया है। शायद, उसे सही से एंजॉय करने के लिए फिर से 'दीवाना मस्ताना' की डीवीडी की ओर लौटना पड़ेगा।
- निर्देशक इंद्र कुमार 'दिल', 'बेटा', 'इश्क' और 'मन' बनाकर जितना ऊपर उठे उतना ही नीचे गिरते गए 'डैडी कूल', 'प्यारे मोहन' और 'डबल धमाल' जैसी फिल्मों से।
- वक्त आ गया है कि चश्म-ए-बद्दूर, प्रतिज्ञा (1975), जाने भी दो यारों, गोपी (1970), राम और श्याम, चुपके-चुपके, राजा बाबू, साजन चले ससुराल और चलती का नाम गाड़ी (1958) जैसी ढेर सारी दूसरी फिल्मों को जमा कर लें, क्योंकि आगामी कॉमेडीज पर से विश्वास कुछ उठता जा रहा है। ये हंसाती जरूर है, पर तीन घंटे बाद हम खुद को भूखा और टेंशन से भरा हुआ पाते हैं।

आखिर में
अगर इस कॉमेडी में कोई एक बात है जो ध्यान जुटाती है और खुश करती है तो वो है एक्टर के और कैरेक्टर के तौर पर जावेद जाफरी की ईमानदारी। फिल्म में सबसे ज्यादा हंसी आती है उन्हीं की बातों पर। अपनी कॉमिक टाइमिंग और डांस स्टेप्स में वो पूरे नंबर ले जाते हैं। बहुत बार वह एक्टिंग में अपने पिता जगदीप की याद दिलाते हैं। वेरिएशन के मामले में नंबर ले जाते हैं रितेश देशमुख।
गजेंद्र सिंह भाटी