Wednesday, May 9, 2012

“मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहा करता था मैम! शॉट रेडी”: अर्जुन कपूर

मुलाकात इशकजादे के मुख्य किरदारों परिणीति चोपड़ा और अर्जुन कपूर से


'इशकजादे’ के परमा और जोया के बीच कुत्ते-बिल्ली का बैर है, बचपन से, अल्मोड़ की गलियां इसकी गवाह हैं। अल्मोड़, जहां ये कहानी करवट बदलती है। क्रमशः अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा के निभाए इन दोनों किरदारों में जो कच्चापन है, जो शुरू में नफरत वाला भाव है, हर बात में एक-दूसरे का विरोध करने की इच्छा है और यह सब करने के बाद दोनों में जो अटूट प्रेम हो जाता है, वह उतना ही दुनियावी सत्य है जितना ‘रॉकस्टार’ फिल्म में दिखाई गई फिलॉसफी कि सच्चा संगीत तब निकलता है जब दिल टूटा हो, दर्द से भरा हो।

अपनी फिल्म के बारे में बातचीत करने जब अर्जुन और परिणीति मिलने पहुंचे तो उनकी नोक-झोंक और एक-दूसरे की बात को काटकर मजाक में उड़ाने में वही भाव छिपा था। उनकी फिल्म 11 मई को रिलीज हो रही है। हबीब फैजल की बतौर निर्देशक यह दूसरी फिल्म होगी। पहली थी 2010 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘दो दूनी चार’। हबीब ने ‘बैंड बाजा बारात’ की स्क्रिप्ट भी कुछ ऐसे ही किरदारों वाली लिखी थी। इन दोनों फिल्मों के ‘इशकजादे’ से किसी भी किस्म के जुड़ाव से जाहिर इनकार करते हुए अर्जुन और परिणीति कहते हैं कि “तीनों फिल्मों का कोई मेल नहीं है, हां, अगर समानता ढूंढें भी तो यही है कि हबीब अपनी फिल्मों के महिला किरदार बेहद मजबूत रखते हैं। ‘बैंड बाजा बारात’ में भी श्रुति कक्कड़ स्मार्ट है और नेतृत्व करती है। ‘इशकजादे’ में भी जोया बिल्कुल बागी सी बहादुर है”।

हबीब फैजल पहले जर्नलिस्ट थे। उनकी इस पृष्ठभूमि का फायदा उनकी हर फिल्म को होता है। किरदारों, उनके हाव-भाव, जगहों, उनके व्यष्टि विश्लेषण और चीजों की सहज आसान पैकेजिंग करने में वह सिद्धस्त हैं। यही वजह रही होगी कि इश्कजादे जैसी टर्म उन्होंने गढ़ी, उस पर उसे ठेठ स्पर्श देते हुए इशकजादे में बदल दिया। अर्जुन कहते हैं, “हबीब सर पहले एनडीटीवी में कैमरामेन थे, इस वजह से अपनी रिपोर्टिंग के दौरान वह भारत भर में घूमे, उन्हें देश की बहुत सारी जगहें अच्छे से पता है। फिल्म में अल्मोड़ जैसी छोटी जगह में इन दोनों किरदारों की कहानी तभी उन्होंने रखी। जब हमारी बात होती थी तो वह बताते थे कि अब छोटे शहर छोटे नहीं रह गए हैं। वो हर मामले में बड़े शहरों जैसे हो रहे हैं। दूसरा वहां फिल्में पहुंच रही हैं, ऐसे में वहीं किरदार और कहानी स्थापित कर पाना अब संभव हो गया है”।

फिल्म में अर्जुन और परिणीति के किरदारों में जो ठेठपना था, वह उनमें पहले से होगा यह तो मुश्किल लगता है, ऐसे में क्या हबीब ने उन्हें समझाया ही उसी तरीके से? इसके सीमित उत्तर में अर्जुन स्क्रिप्ट का रुख करते हैं। वह बताते हैं, “पहले ये फिल्म किसी और नाम से बनने वाली थी। कभी भी अगर आप स्क्रिप्ट पढ़ पाएं तो देखेंगे कि उसमें किरदारों का एक-एक ब्यौरा लिखा था, उसे पढ़ने के बाद कोई बात समझने को रह ही नहीं गई”।

प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणीति के लिए फिल्मों में आना अकल्पनीय था। पैदाइश हरियाणवी रही, वह अंबाला में जन्मी। ब्रिटेन से बिजनेस की पढ़ाई की। बाद में यशराज फिल्म्स की मार्केटिंग और पीआर कंसल्टेंट हो गईं। लगता है कि ऊर्जा से भरे रहने और किसी को भी अपने हीरोइनों वाले जलवे नहीं दिखाने का गुण उनमें पीआर और मार्केटिंग की उसी दुनिया से आया है। एक्ट्रेसेज की समझ के उलट उनमें पब्लिक रिलेशन के कई गुर रच-बस गए लगते हैं। फिर कोई तीन साल पहले उन्होंने फिल्मों में आने के बारे मे सोचा। उन्होंने ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ में डिंपल चड्ढा की अपनी पहली ही भूमिका में सबको प्रभावित किया और बेस्ट फीमेल डेब्यू का फिल्मफेयर अवॉर्ड पाया। अब जिन दो फिल्मों में वह नजर आ सकती हैं उनमें एक है प्रदीप सरकार की फिल्म और दूसरी का नाम है ‘एक वनीला दो परांठे’।

वहीं अर्जुन एक बड़ी फिल्म फैमिली से आते हैं। दादा सुरिंदर कपूर गीता बाली के सचिव थे फिर उन्होंने बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया। खासतौर पर अनिल कपूर के अभिनय वाली। अर्जुन की कहानी उन स्टार पुत्र-पुत्रियों जैसी रही है जो एक वक्त में एक क्विंटल से भी ज्यादा वजनी होते हैं, बाहर से फिल्ममेकिंग की पढ़ाई करके आते हैं या अपने फैमिली फ्रेंड को उसकी फिल्म असिस्ट कर रहे होते हैं, बाद में किसी की प्रेरणा से उनका कायापलट होता है और एक दिन फिल्म लॉन्च होती है। जैसे सोनम कपूर, करण जौहर या फिर रणबीर कपूर। लेकिन इसके अलावा भी अर्जुन की निजी जिंदगी कुछ कष्टों से भरी रही है। उनके पिता बोनी कपूर हैं। श्रीदेवी के बोनी की जिंदगी में आने के बाद से अर्जुन ने मां मोना शौरी कपूर को टूटते-बिखरते और उबरते हुए देखा। हालांकि उनकी और उनकी बहन अंशुला की पिता के दूरियां नहीं रहीं। मोना की कैंसर से लड़ते हुए इस मार्च में मृत्यु हो गई। वह अपने बेटे की पहली फिल्म भी नहीं देख पाईं, जो उनका बहुत बड़ा सपना रहा होगा। फिल्म इंडस्ट्री में मोना की बहुत इज्जत थी। उनकी मृत्यु के बाद ट्विटर पर करण जौहर जैसे ज्यादातर सेलेब्रिटी लोगों ने खेद जताया, सार था, “यू विल बी मिस्ड मोना मैम”। मोना, मुंबई के फ्यूचर स्टूडियोज की सीईओ थीं, इनडोर शूटिंग का ये बहुत आलीशान स्टूडियो है। उन्होंने टीवी के लिए ‘युग’ और ‘विलायती बाबू’ से शो भी बनाए।

अपने पिता के प्रोडक्शन में बनी कई फिल्मों में अर्जुन असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। जैसे ‘वॉन्टेड’, ‘नो एंट्री’ और ‘मिलेंगे-मिलेंगे’ में वह असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे। इसके अलावा महज 17 साल की उम्र में वह मशहूर तेलुगू फिल्मकार कृष्णा वाम्सी के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। फिल्म थी करिश्मा कपूर और नाना पाटेकर अभिनीत ‘शक्तिःद पावर’। इसमें उनके चाचा संजय कपूर भी थे। अगले साल उन्होंने करण जौहर की फिल्म ‘कल हो न हो’ में निखिल आडवाणी को असिस्ट किया। फिर वह ‘सलाम-ए-इश्क’ में भी सहायक निर्देशक रहे। उनकी आने वाली फिल्म होगी ‘वायरस दीवान’।

वह दरअसल शुरू से ही निर्देशक बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सेट्स पर रहना शुरू किया। फिल्ममेकिंग की प्रक्रिया से जुड़ी एक-एक चीज को समझना शुरू किया। मगर सलमान खान ने उन्हें देखा और कहा कि “तुम हीरो बनो, तुममें कुछ है”। अर्जुन कहते हैं, “सलमान सर ने एहसास दिलवाया। मैं उस वक्त 140 किलो का था, और मैंने खुद को बदलना शुरू किया”। वह कहते हैं कि “सलमान सर ने एक बार मुझे अर्जुन राणावत कहा था”। अपने असिस्टेंट से हीरो बन जाने की बात पर वह सहज भाव से स्पष्ट करते हैं, “मुझे याद है, मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहता था “मैम! शॉट रेडी, और अब मेरी पहली फिल्म आ रही है। हीरो बनना नाइस फीलिंग है पर मैं इन सब लोगों के बीच ही बड़ा हुआ हूं, सब मुझे प्यार करते हैं”।

फिल्म के प्रोमो और अब तक की झलकियों से युवाओं में बीच उन्हें लेकर जिज्ञासा है, कुछ के लिए वह सुपरस्टार अभी से हो गए हैं। जैसे ट्विटर पर काफी युवा उनके साथ सुपरस्टार जोड़ते हैं। मगर इस बात पर वह एकदम अनजान आदमी की तरह आगे-पीछे मुड़कर देखते हैं, “सुपरस्टार? कौन मैं? नहीं नहीं। पता नहीं। आप ट्विटर का कह रहे हैं, मेरा तो वहां अकाउंट ही नहीं है। तो कैसे पता होगा?”।

परिणीति और अर्जुन से बात करते हुए एक नयापन सा लगता है। इनकी सोच में एक किस्म का सहजपना है। अपने साथी एक्टर्स को लेकर, रिलीज डेट को लेकर, एक्टर या स्टार बनने को लेकर और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा को लेकर। मसलन, 11 मई को ‘इशकजादे’ के साथ ही करिश्मा कपूर की वापसी वाली फिल्म ‘डेंजरस इश्क’ भी रिलीज हो रही है। दोनों फिल्मों की भिड़ंत की बात पर दोनों का संयुक्त जवाब आता है, “क्या हो गया साथ रिलीज हो रही है तो। हमारे हिसाब से दर्शक दोनों फिल्में देख सकते हैं। देख सकते हैं न। वैसे भी इस अगले एक-दो वीक कोई बड़ी रिलीज नहीं है तो इस लिहाज से भी ये दो फिल्में ही हैं, तो दर्शक देख ही लेंगे। और, आखिर में बस पिक्चर अच्छी होनी चाहिए, यही जरूरी होता है”। उन्हें और परखने के लिए मैं सवाल करता हूं कि स्टार बनना है या अच्छा एक्टर कहलवाना है? जवाब तुरंत आ जाता है, “सर मुझे लगता है आप स्टार के तौर पर तभी स्वीकार किए जाते हैं, जब एक्टर अच्छे हों, कोई ऐसा स्टार नहीं होता जो बुरी एक्टिंग करता हो। तो दोनों चीजें विरोधाभासी हो ही नहीं पाती”, अर्जुन जवाब देते हैं और बाद में इसी बिंदु को परिणीति भी और समझाकर बताती हैं।

इन्हें परखने और जानने को अगली बात मन में ये भी थी कि इंडिपेंडेंट और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा इनके फिल्म चुनने के ढांचे में क्या कभी कहीं फिट होगा? क्या उनकी पीढ़ी रोल चुनने को लेकर ज्यादा एक्सपेरिमेंटल और बेधड़क है? अर्जुन कहते हैं, “हां”। वह जवाब आगे बढ़ाते हैं, “इन दिनों रोल भी ऐसे ही हैं। उनमें कमर्शियल और नॉन-कमर्शियल वाला गैप भी कम हो रहा है। जैसे, सलमान भाई ने चुलबुल पांडे का रोल किया तो अनोखे अंदाज में। ऋतिक रोशन ने 'अग्निपथ’ में अपना रोल बड़े अच्छे से निभाया था, वो अमिताभ बच्चन वाली 'अग्निपथ’ के रोल से अलग था। अब लोग भी एक्टर नहीं कैरेक्टर देखते हैं तो जितना अलग किरदार हो हमारे लिए उतना ही अच्छा। हमारी जेनरेशन में रणबीर कपूर इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने हर बार अलग रोल चुने हैं और लोगों ने पसंद भी किया है”।

हालांकि ये परिणीति की पहली फिल्म नहीं है, पर वह उत्साहित इतनी हैं कि पहली फिल्म हो। वह कहती हैं, “मुझे ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ के लिए अवॉर्ड मिला जिसकी बड़ी खुशी हुई। पर सही मायनों में ‘इशकजादे’ मेरी पहली फिल्म है। क्योंकि इसमें मेरा लीड रोल है। दूसरा ये रोल भी फुल फ्लेजेड है”।

बातचीत के बीच दोनों की चुहलबाजी चलती रहती है। उनके हर जवाब को अर्जुन मजाक में बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। वह रुकती हैं, मना करती हैं, फिर बोलती हैं। कहीं-कहीं हंसी फूट पड़ती है। जब वह सैफ अली खान को अपना फेवरेट एक्टर बताती हैं तो अर्जुन नाराज (मजाक में) होते हुए कहते हैं कि “ये क्या मैं तुम्हारे पास बैठा हूं और..” तो वह कहती हैं, “नहीं मेरे सबसे फेवरेट एक्टर हैं सैफ अली खान। और फिर अर्जुन कपूर भी फेवरेट है, चलो यार इसका भी नाम ले लेती हूं, इसे भी खुश कर देती हूं”। पूरी बातचीत में कहीं भी दोनों की मीठी मजाकों वाली रस्साकशी थमती नहीं।

लेख के शुरू में मैंने इस फिल्म में हीरो-हीरोइन के बीच घोर नफरत के बाद घोर प्यार वाली बात कही थी, उसके बारे में ये दोनों भी अपनी समझ बताते हैं, “हेट इज वैरी इम्पॉर्टेंट फॉर सिनेमा। जितनी नफरत दो यंग कैरेक्टर एक-दूसरे से करते हैं, जब उनमें प्यार होता है तो उतना ही ज्यादा होता है। उसी डिग्री का होता है। दो किरदारों के बीच जब ऐसा होता है तो वो निभाने और देखने में बड़ा शानदार लगता है”।

इतनी बातचीत के दौरान ये कहीं भी नजर नहीं आता कि अर्जुन अपनी पहली फिल्म की रिलीज से पहले बात कर रहे हैं और उन्हें नर्वस होना चाहिए, जवाब देते वक्त अटकना चाहिए, थोड़ा डरना चाहिए। पर ऐसा कहीं हो नहीं रहा होता है। मैं पूछता हूं कि क्या अपनी फिल्म को लेकर आपने डर या नर्वसनेस या धुकधुकी नहीं है? क्योंकि चेहरे से तो बिल्कुल नहीं लग रहा। इतना पूछते ही वह नरम हो जाते हैं। उनका तना एटिट्यूड वाला चेहरा जरा झुक जाता है, चेहरे पर मुस्कान आ जाती है कि कहीं उनकी नब्ज पकड़ ली गई है। वह बोलने लगते हैं, “नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं बिल्कुल नर्वस हूं। पर प्रेस के सामने तो ऐसी शक्ल बनाकर रखनी पड़ती है। (एनिमेटेड होकर) अब मैं उछलकर और गला फाड़कर तो कह नहीं सकता कि मैं एक्साइटेड हूं और नर्वस भी। पर...” उनके जवाब पर साथ ठहाके लगने लगते हैं।

बातों का अंत मैं उस सवाल से करना चाहता हूं, जो बड़ा संवेदनशील और दर्द जगाने वाला सा है। पर पूछ ही लेता हूं, कह देता हूं कि उचित समझें तो ही जवाब दें, कि क्या आपकी मां ने फिल्म के रशेज देखे थे, क्या वह खुश थीं? सवाल आधे रास्ते पहुंचा होता है कि वह कुछ गंभीर हो कह उठते हैं, “नहीं”। ... फिर वह कहते हैं, “मम्मी के बारे में सही वक्त होगा तो बोलूंगा। अभी नहीं। हां, लेकिन उन्होंने ट्रेलर देखा था ‘इशकजादे’ का और वह बड़ी खुश थीं”। अब मौका तस्वीरें खिंचवाने का होता है और हंसी-ठिठोली भरे पोज देने में दोनों खुद को डुबो लेते हैं। मन में एक बात आती है कि ये इनकी पहली फिल्म के रिलीज से पहले का वक्त है। कितने विनम्र लेकिन आत्मविश्वासी हैं दोनों। गुरुर का एक कण भी इन्हें छू नहीं गया है, क्या चार-पांच फिल्मों के आ जाने के बाद भी उनकी आंखों पर काला चश्मा नहीं चढ़ जाएगा, जो आज नहीं है। अभी तो लगता है नहीं...।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Tuesday, May 8, 2012

तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात

 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में युवा निर्देशक गुरविंदर सिंह की फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' को तीन पुरस्कार मिले। उऩ्हें बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट पंजाबी फिल्म का अवॉर्ड मिला, वहीं बेस्ट सिनेमैटोग्राफी के लिए सत्य राय नागपाल को पुरस्कार मिला। गुरविंदर विश्व सिनेमा में भारतीय और खासकर पंजाबी भाषा के योगदान को कटिबद्ध हैं, संभवतः वह गजब की फिल्में लेकर आएंगे। मिलिए गुरविंदर से और मौका मिले उनकी ये फिल्म जरूर देखें।


ये पंजाबी भाषा की पहली ऐसी फिल्म है जो विश्व सिनेमा कही जा सकती है। भारत का मान बढ़ाने वाली फिल्म। घोर आर्ट है। इतना कि जहां रोना चाहिए, वहां दर्शक हंसते हैं। दिल्ली के गुरविंदर सिंह 'फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे' से फिल्ममेकिंग में ग्रेजुएशन कर चुके हैं। वहीं पढ़ते हुए उन्होंने पंजाबी साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास 'अन्ने घोड़े दा दान' पर फिल्म बनाने का आइडिया खुद में आरोपित कर लिया। एफटीआईआई से उन्हें जो दो छात्रवृत्तियां मिली उससे वह पंजाब घूमे। खासतौर पर पूर्वी पंजाब। वहां के लोक गायकों की जिदंगी को देखते हुए, उन्हें सुनते हैं। उन्हीं के मुख से गीतों के रूप में पंजाब की लोक गाथाओं को सुनते हुए। इन गायकों में कई नीची जाति के भी थे, पर गुरविंदर खासकर उनके साथ रहे।

दिल्ली के एक सिख परिवार में पलते-बढ़ते हुए उन्हें अपनी शहरी पहचान और पंजाबियत की जड़ों से जुड़ी घर के बुजुर्गों की सुनाई ऐतिहासिक कहानियों के बीच एक अकुलाहट नजर आती रही। शायद यही वजह रही कि पंजाबी भाषा में फिल्में बनाने का बेहद गुणवान फैसला उन्होंने लिया।

मौजूदा युवा आर्ट फिल्मकारों में वह सबसे जुदा इस लिहाज से भी हैं, कि वह दिग्गज दिवंगत फिल्मकार मणि कौल के शिष्य रहे हैं। वह उनकी विरासत एक तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। दरअसल 2006 में मणि कौल अपने हॉलैंड प्रवास के बाद भारत लौटे थे। गुरविंदर को पता चला तो वह दिल्ली से रवाना होकर मुंबई चले गए, ताकि उन्हें साथ रहकर उनसे सीख सकें। फिर एफटीआईआई में आयोजित हुई एक सिनेमा वर्कशॉप में गुरविंदर मणि के सहयोगी बने। वहां से संपर्क बढ़ा। वह मणि के साथ उनके घर भी रहे। इस फिल्म के विचार में मणि कौल भी इस लिहाज से शामिल थे कि वह फिल्म के क्रिएटिव प्रोड्यूसर रहे, ये और बात थी कि फिल्म के पूरा होने से पहले ही मणि चल बसे। पर उनके साथ रहकर अपने बारे में और अपनी तरह की फिल्मों के बारे में गुरविंदर को जीवन भर साथ आने वाले बातें पता चली। जाहिर है इतने बड़े कद के फिल्मकार के साथ आप रहते हैं तो आपमें भी कुछ शानदार गुण शुमार होते ही हैं। गुरविंदर की ये फिल्म दुनिया के कुछ बेहतरीन फिल्म समारोहों में जाकर आई है। 68वें वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट में फिल्म काफी सराही गई। इसके निर्माण में पैसा लगाया नेशनल फिल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन ने। फिल्म की शूटिंग भठिंडा और उसके करीब एक गांव में हुई। कास्ट में ज्यादातर लोग गांव के ही लोग थे।

गुरविंदर की इस फिल्म का मुझे बेसब्री से इंतजार था और संयोग से चंडीगढ़ में एक विशेष अकादमिक प्रीमियर के दौरान मुझे देखने का मौका मिला। विश्व सिनेमा वाली भाषा के लिहाज से बड़ी आधारभूत लेकिन विस्मयकारी फिल्म है। कम से कम संसाधन, लोकल लोगों से करवाया गया अभिनय, यथार्थ को दिखाने की जिद और फिल्मकारी में कुछ सूक्ष्म बातों पर खास ध्यान फिल्म की कुछ खासियतें हैं। ये एक आदर्श और सिनेमाई पंजाब नहीं दिखाती, बल्कि इसके उलट उन पंजाब के नागरिकों को अपनी कहानी का केंद्रीय किरदार बनाती है, जिनपर कभी फिल्म नहीं बनती। सामाजिक रूप से दबे कुचलों और हाशिये पर रखे गए शोषितों की जिंदगी यहां किसी सड़ते हुए घाव की तरह खुलती है। दर्शकों की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वह कितने संवेदनशील हैं कि कितने असंवेदनशील। अपने समाज में पल रहे भेदभावों से कितने जान हैं और कितने अजान। कोई अचरज मुझे नहीं हुआ कि बेहद बुद्धिजीवी माने जाने वाले वह दर्शक रो पड़ने वाले दृश्यों में हंस पड़े। फिल्म के संप्रेषण की ये खामी भी है और खूबी भी।

निर्देशक के तौर पर गुरविंदर का बर्ताव फिल्म के किरदारों और कहानी के प्रति गंभीर शांति भरा है। उनका केंद्रीय किरदार जो प्रताड़ित है, मौन है। उसका धरा हुआ मौन बाकी किरदारों में भी पलता है। कहानी में प्रभुत्व भरे लोग भी आते हैं, पैसे वाले भी, कद्दावर भी, दबंग भी। उन्हें देख सिहरन होती है कि असली पंजाब में यही होता है। जो हकीकत है। असली पंजाबों में भी ऐसा ही भेदभाव और शोषण है और असली राजस्थानों में भी। किरदारों की जिदंगी की हर परत में घाव लगे हैं, और उन्होंने मौन रहकर वो घाव झेल लिए हैं।प्रीमियर के दौरान ही फिल्म के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंशः

आपका सिनेमा क्या है?
मैं वैसी फिल्में बनाता हूं जिनसे खुद को जुड़ा महसूस कर पाता हूं। फिल्ममेकिंग सीखते हुए मैंने जिस किस्म के सिनेमा को देखा और चाहा, वैसा ही बनाना भी चाहता हूं।

बड़े स्टार्स वाली फिल्में?
दोनों ही अलग हैं और दोनों होने चाहिए। उसमें कोई बुराई नहीं है। न ही स्टार्स के साथ काम करने में कोई दिक्कत है। मेरे लिए रूटेड रहना, अपनी जड़ों से जुड़े रहना सबसे जरूरी है। लेंग्वेज और रोजमर्रा की आम जिंदगी में बारीक से बारीक चीजें मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं। जो ऑब्जर्वेशन और ट्रेनिंग से आती है और लोगों को देखकर आती है।

पर पैसे कैसे कमा पाएंगे?
मेरे लिए पैसा जरूरी नहीं हैं। बस वही करता हूं जो मुझे पसंद होता है। इस फिल्म को एनएफडीसी ने प्रोड्यूस किया है और अपनी तरह की फिल्म बनाने में उन्होंने मुझे पूरी आजादी दी। और, पैसे कमाना उनके लक्ष्यों में नहीं आता। पर हां, हम इसे पंजाब में रिलीज करने की कोशिश कर रहे हैं। जो काफी सीमित जगहों पर होगी, और इससे कोई ज्यादा कमर्शियल फायदे की भी उम्मीद नहीं है।

लोकप्रिय धारा की नहीं होने के अलावा क्या आपकी फिल्म चरम आर्ट नहीं हो जाती? लोग समझेंगे कैसे?
भले ही इस फिल्म की कमर्शियल वैल्यू कम हो और इसे लोगों को आगे बढ़कर समझना पड़े, पर एनआरआई ऑडियंस को टारगेट करने के नाम पर बहुत सारा कचरा भी बन रहा है, तो उसका क्या करेंगे? फिर इस फिल्म में क्या बुराई है।

जो गांव के आम लोग थे, एक्टर नहीं थे, उनसे एक्टिंग करवाना कैसा रहा? 
नहीं, कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि वो अभिनय नहीं कर रहे थे खुद को ही प्ले कर रहे थे। ये फायदा था। क्योंकि नॉन-एक्टर एक्ट नहीं कर सकते है। बाकी काम कैमरे को करना होता है। ये इमेज कैप्चर करने की बात है। टाइम की बात है। आप दो घंटे में एक दिन की कहानी भी कह सकते हैं, दस दिन की भी और दस साल की भी। सब कुछ दो घंटे में हो सकता है। तो एक्टिंग से ज्यादा आप कैसे नरेट कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं ये ज्यादा जरूरी है। और एक्टिंग कोई इश्यू नहीं है क्योंकि कोई भी एक्ट कर सकता है। ये उस किरदार के होने या बनने में है, कि आप वो हैं। फिल्म में मैंने अपने किरदारों से भी यही कहा कि आप जैसे हो वैसे ही रहो। जैसे चलते हैं, जैसे अपना लकड़ी पकडऩे का ढंग है, जैसे झुककर खड़े होते हैं, जैसी इंटेंसिटी लेकर आते हैं।
सिनेमा बड़ी इनट्यूटिव आर्ट है, बाकी सभी आर्ट से ज्यादा। जब आप ऑन सेट होते हैं तो उसी की प्रतिक्रिया देते हैं। लोगों के चेहरों, लोकेशन, कॉस्ट्यूम, टाइम को देख प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे फिल्म में एक नॉन-एक्टर थे, वह जिस तरह लाठी पकड़कर चलते थे और झुककर खड़े हो जाते थे तो मैंने कहा कि ये तो बड़ा अच्छा पोज है यही करिए। आपको ऑब्जर्व करके देखना होता है, कैरेक्टर में खासियत ढूंढनी पड़ती है जो पहले यूज नहीं हुई है। ताकि कुछ भी स्टीरियटाइप न लगे।

वर्ल्ड सिनेमा में कौन प्रेरित करता है?
बहुत से लोग। जापान के याशुजीरो ओजू हैं, रॉबर्ट ब्रेसों हैं फ्रांस के, फैलिनी है वो बहुत अच्छे लगते हैं, हालांकि उनके जैसी फिल्में तो मैं नहीं बना सकता हूं। मैं खुद को ओजू के ज्यादा करीब समझता हूं। जिस तरह से वह फैमिली लाइफ दिखाते हैं, उससे मैं खुद के सिनेमा को काफी जोड़ पाता हूं। जैसे 'अन्ने घोड़े दा दान’ में रात के आधे घंटे या उससे ज्यादा का जो वक्त है, उसमें फैमिली है और रूम में ही सब चल रहा है, आकर मिलते हैं, बैठते हैं, जाते हैं। ऐसी कई चीजें है जिनमें मैं खुद को ओजू से जुड़ा पाता हूं।

क्या आपकी कोशिश है कि जब कमर्शियल हो चुके पंजाबी सिनेमा में आर्टिस्टिक स्टैंडर्ड ले आएंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोग पंजाबी लेंग्वेज को इज्जत देने लगेंगे? सिनेमा स्टैंडर्ड जो यहां नहीं हैं वह आएंगे?
बिल्कुल। देखिए, स्टैंडर्ड बहुत बड़ी चीज है। मैंने फिल्में देखी हैं चीन से, ईरान से, जापान से। मैंने यहां का कोई लिट्रेचर नहीं पढ़ा हुआ। इन जगहों में कोई समानता नहीं हैं, पर एक रिस्पेक्ट है। मसलन, ईरान में मीडिया सिर्फ इस्लामिक फंडामैंटलिज्म की बात करता है, यू.एस. कॉन्फिल्क्ट की बात करता है, लोगों की तो वहां का मीडिया बात ही नहीं करता। पर उन लोगों की नॉर्मल जिंदगी कैसी है, चिंताएं कैसी हैं, वह सब तो हमारे जैसी ही हैं। ये सब चीजें तो सिनेमा दिखा सकता है, उस खूबसूरती को। तो मुझे ऐसे लगता है कि मैंने ईरान की गलियां तो देखी हुई हैं, चीन के गांव देखे हुए हैं, पर पंजाब के गांव आज तक नहीं देखे। वो तो सिर्फ एक अंदाजा है कि सरसों के खेत हैं और लोग नाच रहे हैं। तो ये कोई पंजाब थोड़े ही है। पंजाब में आपको कितने सरसों के खेत मिलते हैं? कितने लोग नाचते हुए दिखते हैं?

आपकी फिल्म में ऐसे बहुत से बारीक बिंदु हैं जहां लोग ह्यूमर ढूंढ लेते हैं और हंसते भी हैं। आपने जब बनाया था तो क्या चाह रहे थे कि लोग फिल्म के किरदारों के दुख-दर्द को समझें या उनपर हंसे तो भी चलेगा?
मैं काफी सरप्राइज हुआ कि लोग हंस रहे थे। पर ठीक है, इतना बुरा नहीं लगा। क्योंकि जो बारीकियां हैं वो लोग समझते हैं। बाहर (विदेशों में) लोग नहीं हंसते, पर यहां हंसे। इसमें इतना कुछ था भी नहीं कॉमिक।

फिल्म में एक कुत्ता होता है, एक उल्लू होता है और एक बकरी का पैर दूध के जग में चला जाता है। तीनों आपने करवाए या यूं ही हो गए?
उल्लू तो यूं ही मिल गया। जहां हम शूट कर रहे थे तो वहां पर किसी बच्चे ने आकर कहा कि वहां पर एक उल्लू है, आप उसका फोटो ले लीजिए। तो मैंने जाकर देखा वहां एक उल्लू बैठा हुआ था। मैंने ले लिया, कि देखते हैं कहां यूज होता है। कुत्ता तो हां, हमने रखा था। बाकी इन चीजों की आप योजना नहीं बना सकते हैं, ये तो शूटिंग के दौरान के वाकये होते हैं। यूं ही हो जाते हैं। कुछ अच्छे होते हैं जो काम आते हैं, कुछ आप यूज नहीं कर सकते। पर ये जो एक्सीडेंट होते हैं ये चूंकि प्लैन्ड नहीं होते इसलिए फ्रैश और खूबसूरत होते हैं। इसलिए मैं बहुत ज्यादा प्लैनिंग नहीं करता।

कितने एमएम पर शूट की?
35एमएम पर।

कितने दिन में?
45 दिन में शूटिंग पूरी कर ली थी।

कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट में आपकी फिल्म जाकर आई है, रिस्पॉन्स कैसा रहा?
फिल्म दिखने में कैसी है लोग इसपर प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे कुछ लोगों को हॉन्गकॉन्ग में अच्छी नहीं लगी। एक ज्यूरी मेंबर ने कहा कि उन्हें फिल्म बिल्कुल भी समझ नहीं आई और उन्होंने उसे आउटस्टैंडिंग रिमार्क नहीं दिए। वो समझ नहीं पाए कि क्या हो रहा है, क्योंकि बहुत से कल्चरल रेफरेंस होते हैं। तो ठीक है अगर आपके सिर के ऊपर से फिल्म जाती है तो। पर ये आगे बढ़कर समझने की बात है। फिल्ममेकर कैप्स्यूल की तरह कहानी स्पष्ट करके लोगों के लिए आसान कर देते हैं कि उन्हें समझ आए। पर मैंने ऐसा नहीं किया। चाहे इंडियन ऑडियंस के लिए या बाहर की ऑडियंस के लिए।

आपको ये नहीं लगता कि ज्यादा आर्टिस्टिक होने की एक खामी ये हो जाती है कि दर्शक बहुत कम और सीमित हो जाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। अब ऐसा तो नहीं है कि फिल्म को हमने सिर्फ आज के लिए ही बनाया है। ऐसा तो है नहीं कि फिल्म एक हफ्ता या दस दिन के लिए बनी है। कोई प्रॉडक्ट या टीवी प्रोग्रैम तो है नहीं कि इतने दिन चला और बंद हो गया। मैं तो चाहता हूं कि आने वाले पचास साल तक लोग इस फिल्म को देखें। और किस तरह देखेंगे ये एक अलग नजरिया होगा। एक ही आर्ट होता है और उसे पचास तरह से देखा जाता है। जैसे हम आज कुरोसावा की फिल्में देखते हैं। मुझे आज वो इतनी प्रभावी नहीं लगती जितनी पहले लगती थी। क्योंकि उसके बाद भी बहुत कुछ हो चुका है। तो सोचिए कि पचास साल में कितने लोग जुड़ जाते हैं। मैं इस तरह से सोचता हूं।

आगे भी फिल्में पंजाबी में ही बनाएंगे या हिंदी-इंग्लिश में भी?
पंजाबी में ही।

हमेशा?
वो तो नहीं पता पर अगली दो-तीन स्क्रिप्ट तो पंजाबी में ही हैं। जैसे, एक फिल्म पंजाबी और जर्मन में बना रहा हूं। कहानी माइग्रेशन पर है, ऐसे इंसान की जो पंजाब से जर्मनी में माइग्रेट कर रहा है। फिल्म के लिए प्रोड्यूसर अब ढूंढना शुरू करूंगा। एक 1984 की कहानी है, उसके लिए भी उम्मीद है कि फंड मिल जाएंगे और इस साल के आखिर तक शूट कर लूंगा। अभी फिल्म फेस्ट में जा रहा हूं, उसके बाद बर्लिन जाऊंगा ताकि अपनी फिल्म पर रिसर्च कर सकूं।

                             अन्ने घोड़े दा दान का ट्रेलर
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, May 6, 2012

पेट में जो कहानियां उछल रही हैं वो आपको अच्छा डायरेक्टर बनाती हैः आमिर खान

सत्यमेव जयते के शुरुआती तीन प्रोमो और आमिर के साथ हुए साक्षात्कार पर पिछले दिनों यहां लिखा था। चूंकि आज सुबह 11 बजे अपने कार्यक्रम के साथ वह हर घर पहुंचने वाले हैं, उनका साक्षात्कार लगा रहा हूं।

 कोई पांच महीने पहले अक्टूबर में, मुंबई में, आमिर से बात-मुलाकात हुई थी। उस वक्त उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ (तब नाम तय न हुआ था) और अपने टेलीविजन में आखिरकार आने की पहली घोषणा की थी। कम्युनिकेशन या सम्प्रेषण की कला में तो वह माहिरों के माहिर हैं ही। इसलिए बात करने में मिलनसार, मृदुभाषी, मुस्काते हुए और चतुर लगने ही थे। लगे भी। हालांकि इस आभा में कितना अभिनय था और कितनी असलियत ये जानता था। इस दौरान उन्होंने सवालों के चतुराई से जवाब दिए और बाद में मार्केटिंग को लेकर अपनी समझ शायद पहली बार इतने विस्तार से बताई। जो लोग फिल्में बनाना चाह रहे हैं, या बना रहे हैं या फिल्म लेखन कर रहे हैं उन्हें जरूर ही पढ़ना और समझने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि आमिर ने अपनी हर फिल्म के साथ दर्शक खींचकर दिखाए हैं। प्रचार करने के तरीकों को लेकर उनकी बड़ी रोचक फिलॉसफी है। अपनी फिल्मों को आर्ट और कमर्शियल कहे जाने का जवाब भी वह देते हैं। गौर से पढ़ें:

आपकी मार्केटिंग शैलियों की बड़ी बातें होती हैं। विस्तार से बताएंगे कि प्रचार पर आपकी समझ क्या है, हर बार नया आइडिया कैसे ले आते हैं, जो चल भी पड़ता है?
....जब आप मुझे कहें कि अपनी जिंदगी का सबसे अच्छा वाकया सुनाओ, और यहां समझो पार्टी चल रही है, और हम लोग म्यूजिक सुन रहे हैं, खाना-वाना खा रहे हैं और आपको मैं बोलता हूं कि “यार कोई अपनी जिंदगी की कोई अच्छी कहानी बताएं”। तो आप सोचेंगे कि क्या बताऊं और फाइनली आप कहेंगे कि “यार हां, एक दफा मैं कैलकटा में था और वहां ये ये ये ये हुआ”। और आप अपनी कहानी ऐसे सुना देंगे। अब जरा कुछ अलग सिचुएशन की कल्पना कीजिए। कल्पना करिए कि वही पार्टी चल रही है, म्यूजिक चल रहा है, लोग खाना खा रहे हैं, वही जगह है। घंटी बजती है, एंड यू एंटर! मैं गेट खोलता हूं और आप आते हैं, कहते हैं “आमिर यू वोन्ट बिलीव वॉट हैपन्ड (तुम यकीन नहीं करोगे मेरे साथ क्या हुआ)! ऐसी अविश्वसनीय चीज मेरे साथ हुई। अरे, म्यूजिक बंद करो यार, मेरी बात सुनो तुम लोग”। .. वॉट योर डूंइग ऐट दैट टाइम इज मार्केटिंग (इस वक्त आप जो कर रहे होते है वही मार्केटिंग है)।

लोग मुझे हमेशा पूछते हैं कि आप नए डरेक्टरों के साथ काम करते हैं। या उन डरेक्टरों के साथ काम करते हैं जिनकी फिल्में अब तक कामयाब नहीं हुई हैं। और, आपके साथ वो इतनी कामयाब हो जाती हैं। तो क्या आप घोस्ट डायरेक्ट करते हैं? बिल्कुल, मैं घोस्ट डायरेक्ट नहीं करता हूं। मैं अपने काम का क्रेडिट किसी को नहीं दूंगा, बड़ा क्लियर हूं इस बारे में। तो कैसे वो फिल्में अच्छी बनती हैं, उसकी ये वजह है।

यहां मैंने दो चीजें कही हैं आपको।

एक ये कि डायरेक्टर वो होता है.. काम तो बहुत लोग जानते हैं, कैमरा कहां रखना है? एडिटिंग कैसे करनी है?.. टेक्नीकल चीजें बहुत सारे लोग जानते हैं और मैं आपको दस दिन में सिखा दूंगा। लेकिन क्या आपके पेट के अंदर कहानी है जो बाहर निकलने के लिए उछल रही है। वो आपको अच्छा डायरेक्टर बनाती है। तो जब आप दरवाजे से अंदर आते हैं और बोलते हैं “यार (ताली पीटते हुए), क्या मेरे साथ हुआ है, आप लोग बिलीव नहीं करोगे!” तो आपके अंदर एक कहानी है जो आप बोलना चाह रहे हो और वो आप अच्छी तरह बोलोगे। आप तरीका निकालोगे कि किस तरह अच्छी बोलूं। और जब लोग आपकी कहानी नहीं सुनेंगे और अपना खाना खाएंगे और म्यूजिक सुनेंगे तो आप सबसे बोलोगे, अरे म्यूजिक बंद करो यार! अरे नितिन मेरी बात सुन यार! सुन मेरे को। तो आप जो लोगों का ध्यान अपनी तरफ करोगे, वो क्या है, वही तो मार्केटिंग है।

तो ये मैंने बड़ा सिम्प्लीफाई करके बोला है। तो मैं फिल्में वही करता हूं जिसमें लगता है कि यार मजा आएगा करके। और, डायरेक्टर वो होता है, जिसकी कहानी होती है, जो कहानी बोलने के लिए तड़प रहा है, उसको मैं चुनता हूं। और जब तैयार होती है तो हम सब एक्साइटेड हैं और सबको बोलते हैं कि यार म्यूजिक बंद करो हमारे पास अच्छी कहानी है। वो ही तो मार्केटिंग है, और क्या मार्केटिंग है? आप समझे। तो वो एक्साइटमेंट हममें है, क्योंकि वो चीज हमनें बनाई है जो हम बनाना चाहते थे, और अब जो प्लेटफॉर्म अवेलेबल है उसका मैं इस्तेमाल कर रहा हूं। सब लोग कर रहे हैं मैं भी कर रहा हूं।

लेकिन फर्क क्या है? फर्क ये है कि मैंने कुछ बनाया है जिसके बारे में मैं एक्साइटेड हूं। अब आप ये सवाल जब ‘थ्री इडियट्स’ से पहले मुझे पूछते हैं तो कहते हैं यार ये क्लेवर जवाब दे रहा है। लेकिन अब आप सोचिए। ‘थ्री इडियट्स’ मैं बना चुका हूं। मैंने फिल्म देख ली। मैंने क्या बनाया मुझे मालूम है। हम सब ने एज अ टीम क्या बनाया है हमको मालूम है। अब हम उसको मार्केट करते हैं। तो हमारी एक्साइटमेंट लेवल जाहिर है एक लेवल की होगी और आप तक पहुंचेगी ही पहुंचेगी। और उसका और कुछ हो नहीं सकता।
 
3 ईडियट्स की प्रमोशन के दौरान भेष धरे आमिर वाराणसी में
इसमें स्ट्रैटजी...
स्ट्रैटजी इसमें कहां है भैया। यू गो विद योर हार्ट। जब मैंने और मेरी टीम ने ‘तारे जमीं पर’ बनाई है तो हम जानते हैं कि हमने क्या बनाया है। वी आर एक्साइटेड अबाउट इट। हां, हम नर्वस भी हैं क्योंकि कोई नहीं जानता आखिर में फिल्म कैसी होगी? लेकिन हम जानते हैं कि हमने जो बनाया है वो बहुत अच्छा मटीरियल है। जिस तरीके से आप मार्केट करते हैं वो आपको फील होता है, चाहे वो प्रोमो के थ्रू हो, चाहे वो गाने के थ्रू हो, चाहे वो इंटरव्यू के थ्रू हो। हर बार इनटेंजिबल कोई चीज है जो आपको टच करेगी। ‘रंग दे बसंती’ आप ले लीजिए, ‘लगान’ आप ले लीजिए। ये सब अलग-अलग वक्त थे। ‘लगान’ तो... मैं अब 12 साल की बात कर रहा हूं। मैं तो अपनी फिल्मों को शुरू से मार्केट करता आ रहा हूं। तब कोई टेलीविजन नहीं था, हम इसे छायागीत पर दिखाते थे। छायागीत पे हमने दिखाया था ‘कयामत से कयामत तक’ का गाना। तब कोई एंटरटेनमेंट चैनल नहीं था तो हम कैसे बताएं लोगों को? अंततः हम एक्साइटेड हैं और वो हमारी एक्साइटमेंट आप तक पहुंच रही है। देखिए, हर फिल्म का प्रोमो आता है। ऐसी तो कोई फिल्म नहीं है जो हमने ताले में बंद करके रिलीज की है। या किसी भी प्रोड्यूसर ने। हर फिल्म का प्रोमो आता है, हर फिल्म का प्रेस कॉन्फ्रेंस होता है, हर फिल्म म्यूजिक रिलीज करती है। जो नॉर्मल मार्केटिंग जिसको कहते हैं वो हर आदमी करता है वो मैं भी करता हूं। क्यों लोग एक फिल्म को देखते हैं और एक फिल्म को नहीं देखते?

जिस तरीके से आप मार्केट करते हैं...
इट्स नॉट द वे यू मार्केट द फिल्म। आप गलत बोल रहे हैं। आप मुझे क्रेडिट मत दो, आप गलत आदमी को क्रेडिट दे रहे हो। मैं बोल रहा हूं, उस मटीरियल में एक चीज है जिसकी वजह से मैं इंस्पायर हो रहा हूं। अब मैं उछल रहा हूं, मैं क्या करूं। मैं इतना एक्साइट हो रहा हूं कि वो आप तक पहुंच रहा है। इसमें (फिल्म या कंटेंट) अगर पावर नहीं है न, तो वो मुझमें नहीं आएगा। तो मैं भी बुझा-बुझा सा रहूंगा और आपको भी लगेगा कि यार इस दफा कुछ एक्साइटेड नहीं लग रहा है। अभी जिस शो में काम कर रहा हूं, मैं एक्साइटेड हूं इस शो के बारे में। क्योंकि इस दफा मैं कुछ अलग कर रहा हूं, हो सकता है मैं फेल हो जाऊं। पर मैं एक्साइटेड हूं इसके बारे में इसी लिए तो कर रहा हूं। तो मैं ये कह रहा हूं कि अगर अच्छी मार्केटिंग कर रहा हूं तो इसका मतलब ये नहीं है कि मैं क्लेवर हूं। आपको गलतफहमी हो रही है अगर आप ये सोचते हैं कि मैं क्लेवर हूं। आपको गलतफहमी हो रही है। मैं वही कर रहा हूं जो मुझे लगता है कि उस खास प्रॉडक्ट के लिए जरूरी है। ‘तारे जमीं पर’ की स्टोरी ही बिल्कुल अलग थी। मैं ‘तारे जमीं पर’ को वैसे मार्केट नहीं कर सकता था जैसे मैंने ‘गजनी’ को किया। ‘गजनी’ इज अ फिजीकल फिल्म। मेरे लिए मटीरियल हमेशा डिक्टेट करता है कि मैं कैसे मार्केट करूंगा फिल्म को। और, मटीरियल मुझसे खुद कहता है। मुझे उसके बाद सोचने की जरूरत नहीं पड़ती।

मौजूदा समाज को कैसे देखते हैं और ये कार्यक्रम उसमें कितना बदलाव लाएगा?
ज्यादा तो मैं क्या कह सकता हूं, पर ये जरूर है कि लाइफ में बदलाव आ रहा है। जब मैं लोगों से मिलता हूं तो मुझे लगता है कि खास किस्म का आइडियलिज्म लौट रहा है। ज्यादा से ज्यादा लोग ऊंचे लेवल की इंटेग्रिटी की लाइफ जीना चाहते हैं। और मैं यकीन भी करना चाहूंगा कि ऐसा हो रहा है। मैं ये नहीं कह सकता कि मैं ही कोई बड़ा बदलाव ले आउंगा, पर बदलाव हो रहा है। मैं अपने स्तर पर कुछ करता हूं, हो सकता है उससे लोगों की जिदंगी में कुछ चेंज आता है, कुछ नहीं आता। पर मैं इसकी घोषणा नहीं करना चाहूंगा।

किस किस्म का काम करते हैं, परिभाषित कर सकते हैं? आर्ट, कमर्शियल, प्रायोगिक?
मेरे काम को एक शब्द में डिफाइन कर पाना बड़ा मुश्किल काम होता है। लोग पूछते हैं कि आपकी फिल्म आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल फिल्म। अब आप बताइए कि ‘तारे जमीं पर’ आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल फिल्म। अगर आर्ट फिल्म बोलूंगा तो डिस्ट्रीब्यूटर बोलेंगे कि “नहीं साहब! हमने तो बहुत बनाए हैं"। कमर्शियल फिल्म बोलूंगा तो क्रिटीक्स बोलेंगे कि “नहीं साब! बड़ी आर्टिस्टिक फिल्म है"। अब ‘रंग दे बसंती’... पोस्टर में आप देखिए कि घोड़े पे आ रहा हूं मैं, अब ये बताइए कि आर्ट फिल्म है कि कमर्शियल। जब मैंने ये फिल्म साइन की तो मेरी छोटी बहन का फोन आया। और उस वक्त भगत सिंह की कहानी चार बार आ चुकी थी, फिल्मों में। तो फरहत मेरी छोटी बहन है जो उसका फोन आया, कि क्या हो रहा है आजकल। तो मैंने बोला “यार मैंने एक फिल्म साइन की है”। तो मेरी फैमिली में काफी सेलिब्रेशन होता है जब मैं फिल्म साइन करता हूं। अरे, आमिर ने फिल्म साइन कर ली, मुबारक हो मुबारक हो! उन्हें बहुत कम दफा सुनने को मिलती है ये न्यूज। तो मेरी बहन ने बोला, “अच्छा फिल्म साइन कर ली, कौन सी फिल्म साइन की”। मैंने कहा, “द फिफ्ट रीमेक ऑफ भगत सिंह”। तो वो बोली, “नहीं नहीं हाउ कुड यू मेक फिफ्थ रीमेक ऑफ भगत सिंह”। मैंने कहा नहीं, मैं तो कर रहा हूं। तो मैं कैसे डिस्क्राइब करूं।

टेलीविजन पर आजकल वही शो चलता है जिसमें तड़का लगा हो?
पता नहीं यार, पकवान भी अलग-अलग तरह के होते हैं। और, मैं तो बनाता ही अंदाजे से हूं। मेरी कोशिश ये रहती है कि उसका एक अलग डिसटिंक्ट स्वाद बरकरार रहे। अलग महक आए। वरना ये होता है कि हम जब कभी-कभी रेस्टोरेंट में जाते हैं, तो वहां हमको मसाला सेम मिलता है, हर डिश में वही मसाला है। यानी चाहे में बैंगन का भर्ता ऑर्डर करूं या कबाब, मसाला मुझे वही मिलना है। इसलिए मैं जो भी बनाता हूं कोशिश करता हूं कि उसमें अलग स्वाद आए, अलग महक आए। इस शो में भी वही कोशिश है करने की। आशा है लोगों को पसंद भी आएगा।

सत्यमेव जयते में क्या अलग है?
आज तक जितनी भी फिल्में मैंने की हैं, उनमें अलग-अलग किरदार निभाए हैं। और कुछ हद तक हर किरदार में आपको मैं भी कहीं न कहीं नजर आया होउंगा, पर ये पहली बार होगा कि मैं जो हूं, मैं जिस किस्म का इंसान हूं वैसा दिखूंगा, किसी टीवी शो के कैरेक्टर की तरह नहीं। पहली बार आपको आमिर खान यानी मेर पर्सनैलिटी देखने को मिलेगी।

खुद होस्ट बने हैं, आपका फेवरेट होस्ट कौन है?
बहुत सी चार्मिंग पर्सनैलिटी वाले लोग हैं। अमित जी, शाहरुख, रितिक, सलमान। मैं एक टाइम में सिद्धार्थ बासु के क्विज शो देखता था। खूब एंजॉय करता था। एक स्पोट्र्स होस्ट थे एस.आर. तलियाज, ऐसा ही कुछ नाम था उनका, जिन्हें मैं रियली एंजॉय किया करता था। वो अमेजिंग टेलीविजन होस्ट थे।

सत्यमेव जयते के बारे में...
# 22 सालों में मेरा सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है।
# अगर जो सोचा है उसका दसवां हिस्सा भी पा लिया तो निहाल हो जाऊंगा।
# शो में मैं ट्रैवल करूंगा, कभी नहीं कर पाया तो लोग मुझ तक आएंगे।
# अगर शो के दौरान मेरे अंदर का असली आमिर फूट पड़े तो मुझे कोई एतराज नहीं है।
# मैंने उदय से कहा कि यार उदय, हम ये शो तो करेंगे पर आई वॉन्ट ऑल योर चैनल्स। क्योंकि इसे हर व्यक्ति देखे। और उसे देखना भी चाहिए। जिस वक्त हिंदी इंग्लिश में आएगा, उसी वक्त बाकी भाषाओं में भी साथ-साथ प्रसारित होगा।

कुछ केसर के पत्ते जो रह गए...
# अम्मी मुझे कहती है कि अभी तुम जो कमा रहे हो उसका चार गुना ज्यादा कमा सकते हो। पर मुझे प्राइस में इंट्रेस्ट नहीं है, मुझे काम इंट्रेस्ट करना चाहिए।
# अभी ‘द ड्यून सीरिज’ पढ़ रहा हूं।
# मैं चैनल बदलता रहता हूं। रुकता वहीं हूं जहां गोविंदा जी की फिल्में आ रही होती हैं। उनकी फिल्मों में ह्यूमर बहुत होता है।
# कभी अपनी ऑटोबायोग्रफी लिखना चाहूंगा। बहुत सी ऐसी चीजें भी उसमें लिखूंगा जो लोगों को नहीं पता हो।
# अभी (कुछ वक्त पहले) मेरे घर पर कंस्ट्रक्शन हो रहा है, इसलिए मैं और किरण अम्मी के साथ रह रहे हैं। टीवी पर जो अम्मी देखती हैं, वही देख लेता हूं।

भूली बिसरी पहली फिल्म ‘होली’ पर
सच मैं कहूं तो मुझे कोई आइडिया नहीं है। मैं तो ये भी भूल चुका हूं कि उसका पोस्टर कैसा दिखता था। वो फिल्म रिलीज ही नहीं हुई न। उसे नेशनल अवॉर्ड मिला तो वो टीवी पर दिखाई गई। जबरदस्ती (मजाकिया अंदाज में)। क्योंकि कोई देखना ही नहीं चाहता था। केतन ने और हमने बड़े प्यार से, चाव से बनाई थी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, May 4, 2012

नन्ही फिल्म ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ को बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कारः बातचीत सृजन करने वाले नौजवान अभय कुमार से

 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार गुरुवार को दिए गए। शॉर्ट फिल्म ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ को उसके बेस्ट नरेशन और वॉयसओवर के लिए भी बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिला है। पुरस्कार ग्रहण किया योग्य एन अब्राहम ने। मिलते हैं फिल्म की संकल्पना करने वाले और उसे बनाने वाले अभय से...


मेरा घर,उड़ान, द एंड और जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे अभय की बनाई कुछेक शॉर्ट फिल्में हैं। इन्हें यूट्यूब पर देखा जा सकता है। 26 साल के अभय फिल्में रैंडम यानी बेतरतीब तरीके से बनाते हैं। कागज पर खाका बनाकर या स्क्रिप्ट लिखकर काम नहीं करते। जब मन में आए कैमरा उठाकर निकल पड़ते हैं, शूट कर लेते हैं और उसके बाद सोचते हैं कि क्या बनाना है। मुझे उन्होंने अपने काम करने के तरीके के बारे में कुछ ऐसे ही बताया था। यह कुछ महीने पहले की ही बात है जब उनकी इस फिल्म ने न्यू यॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में दुनिया भर की फिल्मों को हराकर बेस्ट शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार जीता था। इससे पहले उनकी ये 13 मिनट की अनूठी हाइब्रिड फिल्म रॉटरडैम, रोजेनबर्ग, ट्रिबैका, गल्फ और बूसान फिल्म फेस्ट में जाकर आई थी। इसका प्रोमो देखने या जानने के इच्छुक यहां क्लिक कर सकते हैः

The imdb page: www.imdb.com/title/tt1733710
Promo 1: www.youtube.com/watch?v=wWt6TZ_BKfQ
Promo 2: www.vimeo.com/18322555

तो, उस दौरान ही अभय से बात हुई थी। तमाम असंभावनाओं के बीच वह लगे हुए थे, जायज सवाल और जायज गुस्सा भी उनमें था, पर संयमित। फिलहाल वह अपने नए प्रोजेक्ट मे व्यस्त हैं। कुछ नया कर रहे हैं और सार्थक भी, आशा है कि वह इसमें सफल होंगे और मन का कर पाएंगे। प्रस्तुत है उनसे तब हुई बातचीत के कुछ अंशः
 अपने बारे में?
मेरे पापा सिविल सर्वेंट हैं। चंडीगढ़ में ही पैदा हुआ। वहीं सेक्टर-7 में घर है। सेंट जोन्स स्कूल में पढ़ाई हुई। डीएवी कॉलेज से प्लस टू किया। फिर दिल्ली से मॉस कम्युनिकेशन की पढ़ाई की। घर में एक भाई है जो एम्स, दिल्ली में है। पापा की पोस्टिंग लुधियाना हो गई। मैं 2007 में बॉम्बे आ गया। तब से कुछेक फिल्ममेकर्स को असिस्ट कर चुका हूं। उनमें से एक थे अमोल पालेकर। उनके साथ काम किया। फिर मुंबई में रहते हुए अपने मन की फिल्में बनाने की कोशिश और जर्नी शुरू हुई। हाथ के हाथ पैसे भी बनाने थे तो ऐड फिल्में करने लगा। शॉर्ट फिल्म बनाने में उतना वक्त नहीं लगता, पर चूंकि ये नया मीडियम था तो लगा। अभी भी विज्ञापन फिल्में कर लेता हूं, कॉलेज वीडियो बना देता हूं, इधर-उधर फ्रीलांस कर लेता हूं। फैमिली भी कुछ परेशान रहती है, मां कहती है कि सिक्योरिटी नहीं है, ये काम छोड़ दो।

आइडिया कैसे आया हाइब्रिड फिल्म बनाने का?
हाइब्रिड मीडियम भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया है। एक्सीडेंटली हमने कर लिया। मैं और मेरी टीम के दिमाग में आया। उस पर भी हम लोग एनिमेटर नहीं हैं। हमने एनिमेशन को रियल लाइफ में शूट नहीं किया है। हर फ्रेम हाथ से बनाया है। फिर दस साल में मीडियम इवॉल्व होता गया। ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ जब इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में घूमने लगी तो पहली ऐसी इंडियन फिल्म हो गई जिसे एनिमेशन कैटेगरी में पुकारा जाने लगा। वह ऑफिशियली एनिमेशन फिल्म कही जाने लगी, जबकि हमें एनिमेशन आता भी नहीं है।

फिल्म को प्रोमो में गोविंद निहलाणी, शेखर कपूर, अमोल गुप्ते, शिवाजी चंद्रभूषण, राजकुमार गुप्ता, तनूजा चंद्रा और रजत कपूर जैसों ने खूब सराहा है, यह कैसे हुआ?
हमने सब बड़े फिल्ममेकर्स को डीवीडी भेजी और उनसे उनका छोटा सा रिव्यू मांगा। उन्होंने भेजा भी। ये इसलिए किया क्योंकि आम जनता को फिल्म सीधे दिखाएंगे तो उन्हें जिज्ञासा नहीं होगी। अगर इतने बड़े लोग देखें और अपनी राय के रूप में कुछ कहें तो उसका असर पड़ता है।

फिल्म फेस्ट में पहली बार गए हैं?
नहीं, मैंने पहले भी शॉर्ट फिल्में बनाई हैं। मामी फिल्म फेस्ट पिछले दो साल से जीत रहा हूं। ‘उड़ान’ नाम की मेरी जो फिल्म थी उस पर कॉन्ट्रोवर्सी भी हुई थी, दरअसल मैंने एक सम्मानित यंग डायरेक्टर को भी इसकी डीवीडी दी थी, उनकी तरफ से आगे कोई रिएक्शन नहीं आया, मगर कुछ वक्त में उनकी खुद की एक फिल्म आ गई, जो क्रिटिकली बहुत ज्यादा सराही गई, जिसकी कहानी पूरी तरह मेरी बनाई शॉर्ट फिल्म ‘उड़ान’ से प्रेरित थी। पर मैं विवादों में नहीं पड़ना चाहता इसलिए कुछ ज्यादा कहता नहीं हूं।

स्ट्रगल, और किसी को असिस्ट करने के बीच लाइफ कैसी है?
स्ट्रगल तो करना पड़ता है, करना पड़ेगा। लगता है कि बॉम्बे जाओ और किसी को असिस्ट करो, पर मैंने ऐसा नहीं किया। मुझे असिस्ट करना अच्छा नहीं लगा। अपना तरीका है। जहां तक लाइफ का सवाल है तो वह अचानक से नहीं बदली है। जैसे-जैसे लोगों ने मेरा काम देखा है, उनकी मेरे आने वाले काम को लेकर उम्मीदें बढ़ गई हैं। मगर मैं अब भी जूझता हूं। मन में आता रहता है कि क्या बॉम्बे छोड़ दूं, ऐसे अनेकों ख्यालों से जूझता रहता हूं। घर ढूंढना है, उसका किराया देना है, ये सब उफनता रहता है जेहन में।

तो निकट भविष्य में क्या करना है?
अभी तो काफी टाइम से शॉर्ट फिल्मों पर ही काम कर रहा हूं। अगला कदम ये होगा कि वेबसाइट बनाना चाहता हूं। ताकि लोगों से जुड़ पाऊं। पिछले दो साल में काफी लोगों ने मेरे काम को देखा है, पर मेरे बारे में वो नहीं जानते, लेकिन जानना चाहते हैं। तो इससे वो काम सधेगा। ‘जस्ट दैट...’ को मैंने 2000 से भी कम रुपये में बनाया है। आगे भी हम कम बजट में अच्छी विषय-वस्तु बनाना चाहते हैं। फिर सोचता हूं कि आखिरकार लंबी फीचर फिल्म बनाऊंगा। लेकिन लगता नहीं कि इंडिया में मेरे आइडिया पर कोई प्रोड्यूसर पैसा लगाएगा। मैं तो चाहता हूं कि आज ही फीचर पर काम शुरू कर दूं।

बचपन-जवानी के दोस्त क्या कहते हैं, कि ‘यार तू तो फिल्में बनाने लग गया’?
आधे से ज्यादा मेरे लुधियाना और चंडीगढ़ वाले दोस्तों को तो पता भी नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं। एमएनसी में काम कर रहे हैं। कुछ अखबार में पढ़ते हैं जैसे हाल ही में ‘द हिंदू’ में एक आर्टिकल आया था। तो जब पढ़ते हैं तो सरप्राइज होते हैं।

आपकी टीम में कौन-कौन हैं और काम कैसे करते हैं?
तीन लोग हैं हम। मैं, मेरी असोसिएट डायरेक्टर अर्चना और म्यूजिक संभालने वाला शेन मेंडोसा। हमारी टीम इसी फिल्म से बनी। एक्टिंग तो मैं कर ही लेता हूं। कभी जल्दी शूट करना होता है तो एक्टर ढूंढना बड़ी प्रॉब्लम हो जाती है, इसलिए। फिल्म हैंडीकेम में शूट की है। काम चलता रहता है। फॉन्ट इक्विपमेंट नहीं हो तो भी, ऑडियो इक्विपमेंट नहीं हो तो भी है, लाइट न हो तो भी।

‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ हो या आपकी पुरानी शॉर्ट फिल्म ‘द एंड’, सभी में एब्सट्रैक्ट बातें बहुत होती हैं, क्या फिल्मों की रुचि भी आपकी वैसी ही है?
मेरी फिल्म बहुत कॉम्पलिकेटेड हो सकती है, पर दूसरों की देखता हूं तो सिंपली देखता है। हमारी जेनरेशन की प्रॉब्लम रही है कि हॉलीवुड देखकर बड़े हुए हैं।

आपकी फिल्मों को प्रतिक्रियाएं कैसी मिली हैं?
मुझे लगता है कि मेरा काम अप्रीशिएट नहीं किया गया। न्यू यॉर्क गया, यूरोप गया। पर यहां आया तो वही दिक्कत, सिस्टम से लड़ना। ‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ रिजेक्ट हो रही है, क्यों, नहीं पता।

हाल ही में कई बड़े बजट वाली बुरी बनी फिल्में आईं, जिनपर 40 से 80 करोड़ रुपये तक खर्च हुए, पर दर्शकों के लिए उनमें देखने को कुछ नहीं था। दूसरी ओर आप जैसे नए लड़के हैं जो नगण्य संसाधनों में फिल्में बना रहे हैं और दुनिया उस काम को सराह रही है।
जैसे, ‘डबल धमाल’ आती है। अनीस बज्मी की फिल्में तो लगता है कि ...मेरे मन में कुछ हो नहीं पाता है। मतलब, मैं सोच भी नहीं पाता हूं कि ये फिल्में बन भी कैसे जाती हैं। कोरियन या जापानी या थाई इंडस्ट्री को लीजिए। छोटे देश हैं पर उनकी बहुत रिस्पेक्ट और पहचान है। हमारी पहचान क्या बनी हुई है कि साहब, बॉलीवुड मतलब सॉन्ग और डांस। हमारे रीजनल सिनेमा में कमाल की फिल्में बन रही है, मसलन मराठी में।

मुंबई में कोई ग्रुप बना है?
नेटवर्किंग तो मैं कर ही नहीं पाता हूं। मुंबई में ले दे कर दो लोगों को जानता हूं, मेरी टीम के। वैसे अनुराग कश्यप से मिला था। उन्होंने कहा कि जरूरत हो तो बताना। विक्रमादित्य (मोटवाणी) से दोस्ती हुई।

क्या हो कि नए लड़कों या इंडिपेंडेंट फिल्मकारों को मदद हो जाए?
मेरे सिर्फ कूरियर-कूरियर का खर्चा एक लाख पड़ गया, ‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ के दौरान। कूरियर और टेप्स जैसी फालतू चीजों में इतने रुपए लगा दिए। फिल्म मैंने दो हजार रुपए में बनाई। सोचिए एक लाख जोड़कर बनाता तो मैं कितनी अच्छी फिल्म बना लेता। बाहर के फिल्म फेस्ट में गया तो लोगों से मैंने पूछा, उन्होंने बताया कि उनके मुल्कों में फिल्म कॉरपोरेशन होती हैं। प्रोजेक्ट अच्छा होता है तो अच्छा खासा फंड देती हैं। अस्सी फीसदी ऊर्जा तो सिस्टम से लड़ने में चली जाती है। पूरी एनर्जी सिर्फ फिल्मों में लगा पाएं तो बहुत अच्छा परफॉर्म कर सकते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, May 3, 2012

वर्ष की दूसरी सर्वोत्कृष्ट फिल्म 'विकी डोनर', इट्स मैजिक!

फिल्मः विकी डोनर
निर्देशकः शुजित सरकार
कास्टः आयुष्मान खुराना, यामी गौतम, कमलेश गिल, डॉली अहलुवालिया, जतिन दास, अन्नू कपूर
स्टारः साढ़े तीन, 3.5


आमतौर पर बड़ी दिक्कत होती है। ऐसी फिल्मों के पहले और बाद में। पहले इनके प्रोमो कुछ-कुछ क्लीशे से लगते हैं। कि, कहीं वही पंजाबी एक्सेंट तो नहीं होगा? पटकथा लचर तो नहीं होगी? इतना एडल्ट मुद्दा कहीं हिट करवाने के शॉर्टकट के तौर पर तो नहीं चुन लिया गया है? ऐसे एडल्ट मुद्दे को गरिमामय ढंग से फिल्म में तब्दील किया जाएगा? क्योंकि यकीन मानिए बड़ी ‘गोलमाल’, ‘रास्कल्स’ और ‘क्या कूल हैं हम’ (अब क्या सुपरकूल हैं हम) झेली हैं। और, जब ये फिल्म आ जाती है, दिलों में बस जाती है तो दिक्कत ये होती है कि इसे शब्दों में बांधकर क्यों कम करें? क्योंकि ‘विकी डोनर’ जैसी फिल्म बस देखने और उस देखने की खुशी महसूस करने के लिए ही होती हैं। पर बात करनी तो पड़ेगी ही।

सबसे पहले फिल्म को टीवी, डीवीडी या थियेटर में देखने जा रहे लोगों के लिए।

‘विकी डोनर’ जोरदार फिल्म है। किसी भी वक्त मन को हल्का करने के लिए देखी जा सकने वाली फिल्म। दुनियावी तनावों से आपका ध्यान बंटाएगी। आप घरेलू परेशानियों को भूल जाएंगे। फिल्म खत्म होने पर ये भावना भी नहीं आती कि हम किस दुनिया में लौट आए। कि ये फिल्मी दुनिया महज तीन घंटे की ही क्यों होती है (इस जमाने में तो बस दो घंटे की ही होती है)। मैं आश्वस्त हूं ऐसे बहुत से बच्चे या युवा रहे होंगे जिन्होंने ‘कोई मिल गया’ देखी होगी। उन्होंने खुद को इस दुनिया में रोहित मेहरा (ऋतिक) सा कमजोर और सताया गया महसूस किया होगा। फिर कहानी में नीला जादू आता है (‘ई.टी.’ और ‘क्लोज्ड एनकाउंटर्स ऑफ द थर्ड काइंड’ की बदौलत निर्देशक राकेश रोशन लाने की सोचते हैं), वह आता है और अपनी परलौकिक शक्तियों से रोहित को एक छोटे से बच्चे वाले दिमाग से अतिचतुर और ह्रष्ट-पुष्ट बना देता है। फिर नीली कमीज और लाल पेंट पहने रोहित को सुबह अपने घर से निकलते देख बाल मन मोहित हो जाता है। क्लब में नाचने की चुनौती का जवाब देते हुए रोहित गाता है...

कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
परदे के गिरते ही
परदे के उठते ही
बदला नहीं जो
बदल सकता है
ये कि, कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
इट्स मैजिक...

इब्राहीम अश्क के लिखे इन बोलों में तमाम सिनेमाविधि, विधान और सम्मोहन का सार है। बात हर किसी के कच्चे, और कच्चे से पक्के हो जाने की भी है, जो रोहित होता है, हमारी फिल्मों के तमाम हीरो लोग होते हैं, कच्चे से पक्के। और, जो कुछ भी होता है सब खेल ही है। बात परदे पर आती है। जो कभी हमारी जिंदगियों (‘टैरी’ की तरह) में नहीं बदला वो सिनेमा का परदा उठते ही बदल जाता है। इट्स मैजिक। मैजिक की बदौलत खूबसूरत निशा (प्रीति जिंटा) को प्रभावित करने का सुख पाते हुए रोहित जो नाचता है कि सम्मोहित मन वाले दर्शकों का जीवन नरक हो जाता है, थियेटर से बाहर निकलते ही। कि यार जिदंगी बेकार है, कहीं जाकर मर जाएं तो ठीक रहे। काश, हम भी रोहित की तरह नाच पाते। काश मैं भी रोहित की तरह छह फुटा होता, मेरे भी डोले ऐसे होते, मेरी भी बॉडी ऐसी होती, मुझमें भी शक्तियां होती और मैं रोहित (सब-कॉन्शियस माइंड में ऋतिक रोशन जैसा डांस) की तरह नाच पाता।

यकीन जानिए आप हर ‘कोई मिल गया’, ‘कृष’, ‘वॉन्टेड’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मिशन इम्पॉसिबल’ और ‘द अवेंजर्स’ से बाहर निकलते हुए यही सोचते हैं। काश, मैं भी ऐसा हो पाता। थियेटर की पार्किंग में पहुंचते हुए जब ये यकीन हो जाता है कि वो सपनीली दुनिया तो तीन घंटे ही चली और अब हम पथरीले रोजमर्रा के धरातल पर हैं, जहां सिर्फ महंगाई-चुनौतियां-दुश्वारियां-हतोत्साहन-पिटाई-गुंडागर्दी और निराशा है, तो मस्तिष्क की अखरोट सरीखी गलियों में तेजाब सा ज्वारभाटा उबलता है। एक आम इंसान और आम बच्चा और एक आम युवा होते हुए फिल्मी जीवन की तरह खुद को बदल न पाना, खास न हो पाना, ये कष्ट देता है।

उसी दौर में पिछले साल ‘दो दूनी चार’ आई थी, इस साल ‘विकी डोनर’ आई है। आप इन फिल्मों को देखकर निकलते हैं तो मनोरंजन वाली जरूरतें भी पूरी हो चुकी होती हैं और मस्तिष्क को तेजाबी ज्वारभाटा भी नहीं जलाता। सिनेमा में इससे राहत की बात कोई दूजी नहीं हो सकती। सिनेमा की इतनी खुशी की बात दूजी नहीं हो सकती। ये राहत और खुशी देती है ‘विकी डोनर’।

हम बात कर रहे थे फिल्म देखने जा रहे आप लोगों के लिए।

परिवार और बच्चों के साथ बैठकर देखने में आयुवर्ग के लिहाज से क्या आपत्ति हो सकती है स्पष्ट कर दूं। फिल्म में एक दो किसिंग सीन है। लिपलॉक, जो लिपलॉक जैसे हैं नहीं। हमारी फिल्मों और फिल्मकारों को स्टार मूवीज और ‘बोल्ड एंड द ब्यूटिफुल’ ने भारत रहते ही होठ से होठ मिलाने की जो आधुनिकता दी है, उसे सनसनी के इतर साधारण ढंग से ‘विकी डोनर’ में पिरोया देख व्यस्क खुश हो सकते हैं। परिवार के साथ बैठे सदस्यगण असहज होने लगेंगे, पर जब तक शर्म से मुंह लाल होने को होगा फिल्म आगे बढ़ चुकी होगी।

आगे स्पर्म यानी शुक्राणुओं और बच्चा पैदा करने वाली कुछ व्यस्क बातें हैं, जो युवाओं को सबसे ज्यादा समझ आएंगी। यानी युवाओं को सबसे ज्यादा हंसी आएगी, भई शुक्राणुओं की उम्र में उन्होंने अभी-अभी प्रवेश ही किया है। अब कमाई करते हैं, मल्टीप्लेक्स में जाना भी उनके हाथ है, और महानगरों में तो वीकेंड में मल्टीप्लेक्स जाकर नौ सौ-हजार रुपये टिकिट-पॉपकॉर्न-नाचौज-पेप्सी-बर्गर के कॉम्बो पर खर्च करना तो प्रथा बन गई है (ऐसी प्रथाएं जिन्हें तोड़ने के लिए अगली से अगली पीढ़ी के युवाओं को न जाने कितने पिंक-रेड-यैलो रेवोल्यूशन करने पड़ेंगे), इसलिए स्पर्म वाले जुमलों पर अपने पार्टनर के साथ फिल्म देखते हुए जोड़ों को खूब हंसी आएगी। हां, बच्चे जरूर शून्य महसूस करेंगे। पर बच्चों को भी मौजूदा मनोरंजन और मीडिया ने कम उम्र में ही एडल्ट कर दिया है, वे सब समझने लगे हैं। बाकी जो मध्यमवर्गीय दर्शकगण हैं, जिनमें साड़ी पहने भाभियां हैं, प्लेट वाली पेंट और चैक की शर्ट पहने भाईसाहब हैं, उनके छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां हैं.. या मध्यमवर्गीय युवा हैं... ‘विकी डोनर’ के जुमलों पर उनके मुंह से हॉ... की आवाज भी निकलेगी ही।

फिल्म में 'फु**’, 'चेंप’, ‘भेन दा पकोड़ा’ और 'मेरी तो ले के रख ली आपने’ जैसे जुमले हैं, जो हंसाते हैं। हालांकि कई शब्द मर्यादित नहीं हैं, पर फिल्म में संदर्भ और हाव-भाव इतने प्राकृतिक है कि आलोचना करनी नहीं बनती। ‘विकी डोनर’ देखने वालों में शायद ही कोई होगा जो अपने दोस्त या साथी से इंटेलिजेंट स्पर्म, नॉटी स्पर्म, ग्रीडी स्पर्म और सैड स्पर्म जैसी बातें बोल हंस नहीं रहा होगा।

हालांकि मुझे 'तू आर्यन रेस है’ वाला डायलॉग अच्छा नहीं लगा। क्योंकि, ये हिंदोस्तान में नस्लों की श्रेष्ठता वाली बहस में कुछ लोगों को चुभता है और कुछ को झूठा गर्वीला अहसास देता है। पर हम आगे बढ़ते हैं।


संक्षेप में फिल्म की कहानी जानते हैं। दिल्ली में लाजपत नगर की रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले बेफिक्र लड़के विकी अरोड़ा (आयुष्मान) की कहानी है। घर में डॉली ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कम उम्र में ही विधवा हो गई मां डॉली अरोड़ा (डॉली अहलुवालिया) हैं और दुनिया की सबसे प्यारी बीजी (कमलेश गिल)। विकी पर डॉ. बलदेव चड्ढा (अन्नू कपूर) नाम के फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट की नजर पड़ती है। जिन्हें अपने पेशंट्स के लिए सक्सेसफुल काउंट वाले स्पर्म चाहिए। विकी में उन्हें उम्मीदें नजर आती हैं। विकी, तमाम ना-नुकुर के बाद डोनर बन भी जाता है, पर दुनिया से छिपाकर। उसकी जिंदगी में बैंक में काम करने वाली बंगाली लड़की आशिमा रॉय (यामी) आती है। मगर उससे ये राज छिपाना ही शायद आगे उन दोनों के रिश्ते को बिगाड़ जाता है।

‘विकी डोनर’ की एक छोटी सी महानता ये भी है कि यह स्पर्म डोनेशन के प्रति लोगों को जागरुक करती है। बड़ी ही आसानी से फिल्म राह भटक सकती थी, पर नहीं भटकती, सस्ती और ओछी नहीं होती, अपनी ही नजरों में नहीं गिरती। ये जागरुक करती है। एक महानता से पेट नहीं भरता तो दूसरी महानता के रूप में फिल्म का संदेश बच्चा गोद लेने का होता है। जिन निस्संतान और बंजर दंपतियों को विकल्प नहीं मिलता उन्हें फिल्म ऐसा आदर्श और व्यावहारिक समाज दिखाती है जहां स्पर्म डोनेशन की राह में जाने की बजाय बिन मां-बाप के बच्चों को गोद लिया जा सकता है। तो बच्चा अडॉप्ट करने का संदेश भी है।

चंडीगढ़ के आयुष्मान खुराना ‘रोडीज-2’ के ऑडिशन में 2004 में नजर आए। वह सीजन उन्होंने जीता भी। अपने डिंपल पड़ते गालों के साथ एमटीवी पर वीजेइंग करने लगे। बाद में टीवी के बड़े-बड़े कार्यक्रमों में इन्होंने अपनी एंकरिंग क्षमताओं और बेदाग उच्चारण से चौंकाया। हर बार वह माइक लेकर ‘म्यूजिक का महामुकाबला’ (साथ में ‘जस्ट डांस’, ‘इंडियाज गॉट टैलेंट’ और ‘एक्स्ट्रा इनिंग्स’ जैसे शो भी) जैसे शो में उतरे तो गायकों की बराबरी का तेज उनकी प्रस्तुति में था। उनमें कुछ था। पर जानते हैं, फिल्मों में सफल होने, न होने का फैसला आंखों की चमक से हर बार नहीं होता।

‘विकी डोनर’ में पहले ही सीन में जब विकी को उसकी मां डॉली छत पर बने उसके कमरे में जगाने आती हैं (बाहर धूप में बैठी विकी की बीजी को मत भूलिएगा) तो देखती हैं कि टीवी चोरी हो चुका है और विकी सो रहा है। अपने किरदार को सुगाढ्य करते हुए डॉली लाजपत नगर की डॉली ब्यूटी पार्लर वाली डॉली और विकी की मां (कम उम्र में विधवा हो चुकीं) मिसेज अरोड़ा बन जाती हैं। उनकी आवाज, अदा, अंदाज और किरदार के अध्ययन में गजब की ऊष्मा है। ऐसा ही कमलेश गिल ने अपने किरदार के साथ भी किया है। खैर, इस सीन में विकी को वह जगाती हैं, कुछ शोर मचाती हैं, विकी बने आयुष्मान उठते हैं, छत के ऊपर और दीवार से नीचे झांककर देखते हैं, “देख लो आपकी बेकार साड़ियों के सहारे कूदकर भाग गया, फिर भी मुझे बोल रहे हो” (अक्षरश नहीं)। वह अपनी लगातार बड़बड़ा-चिल्ला रही मां को जवाब देते हुए इधर-ऊधर देख रहे हैं और ऊधर दादी बनी कमलेश गिल (दिल्ली की शानदार थियेटर एक्टर, भगवान उन्हें लंबी उम्र बख्शे) अपने पोते का पक्ष ले रही हैं। अब इस सीन में देखिए। पहला तो आयुष्मान, डॉली और कमलेश का तालमेल कमाल का है। सीन की गति बनी रहती है, वह भी विशुद्ध यथार्थ के साथ। बाद में मां का बड़बड़ाना सुनने से ऊबा विकी उनका कुत्ता लेकर सीढ़ियां उतर जाने लगता है। मां डॉली की टोन तुरंत बदल जाती है, “अरे, इसे कहां ले जा रहा है, तू वापिस आजा, सुन तो सही”। फिर जब वह चला जाता है तो शायद ये कहना कि “मुझे मेरा टीवी चाहिए बस मैं कुछ नहीं जानती”। तब तक दादी अपनी बहू को साथ के साथ कोस चुकी होती हैं (सहनीय कोसना) जब डॉली सीढ़ियां उतरने लगती हैं तो दादी कहती है “सुन तो मुझे एक चाय तो बना दे”।

 .... अब आप क्या कहेंगे, इस सीन के बारे में। हिमाचल मूल की और विज्ञापन जगत की पृष्ठभूमि वाली जूही चतुर्वेदी फिल्म की जुबान हैं। उन्होंने ही कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। फिल्म की कहानी जिस दिल्ली के लाजपत नगर में बसी है, जूही काफी वक्त वहीं रही है। ऐसी ही डॉलियों, दादियों और विकियों के बीच। किसी भी लहजे और हाल में ‘विकी डोनर’ की आत्मा बनी पटकथा का श्रेय जूही के अलावा किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता। स्पर्म डोनेशन को और बच्चा गोद लेने को संदेश बना देना, रात में डॉली और उनकी सास के दारू पीते हुए अत्यधिक रोचक सीन गढ़ देना, विकी और आशिमा के परिवारवालों के बीच पंजू (पंजाबी) और बॉन्ग (बंगाली) को लेकर इतने कलाकारी भरे हिलाने वाले लेकिन मजाकिया हालात पैदा कर देना, बंगालियों से भंगड़ा करवा देना... ये सब जूही चतुर्वेदी की समझ से आया। वो ही लाईं। यहां तक कि एक छोटी सी चीज है। विकी और आशिमा चैट कर रहे हैं। विकी उसे ‘फिश’ लिखता है तो आशिमा का जवाब आता है ‘बटर चिकन’। एक-दूसरे को दिए इन नामों से दोनों के बंगाली-पंजाबी बैकग्राउंड तो पता चलते ही हैं, बल्कि संबोधनों के पुराने ढर्रे में भी ताजगी आती है।

एक और सीन में जूही की लेखनी की कल्पना करते हुए गौर कीजिए। आशिमा अपने घर आ चुकी है, विकी की शक्ल भी नहीं देखना चाहती। उसके पिता के रोल में (मरहूम महान उत्पल दत्त की याद दिलाते अनेकों-अनेक तारीफों के हकदार) एक्टर जयंत दास पहले तो कहते हैं कि “तुम इतनी आधुनिक होकर इन बातों को इश्यू बना रही हो कि विकी कभी स्पर्म डोनेशन किया करता था”। कुछ सीन बाद वह एक बार फिर अपनी बेटी से कहते हैं, “तुम विकी से इसलिए नाराज हो कि उसने तुम्हें बताया नहीं कि वह स्पर्म डोनेशन करता था, या इसलिए कि तुम कभी मां नहीं बन सकती लेकिन वह पिता बन सकता है”

देखिए, कितने रंग साथ घुल रहे हैं। इसी से फिल्म कमाल हो रही है। जूही के संवाद और स्थितियां हैं, जयंत दास - डॉली अहलुवालिया – आयुष्मान – कमलेश गिल – अन्नू कपूर – यामी का सहज अभिनय है और शुजित सरकार की दृष्टिकोण है। किरदारों की रंगत और रुख क्या रहना है, उनका निर्देशन बखूबी तय कर रहा है। 2004 में आई अपनी फिल्म ‘यहां’ के निर्देशन में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह एक अच्छी फिल्म थी, बस लोगों के दिलों तक पहुंच नहीं पाई। मगर ‘विकी डोनर’ के साथ शुजित को इंसाफ मिल गया है।

लंबे अरसे से फिल्मों में डॉली, जयंत और कमलेश गिल जैसे अदाकार और उन से किरदार नहीं आए थे। ‘विकी डोनर’ के साथ आए और तृप्ति दे गए। इसमें डॉ. चड्ढा की भूमिका में अन्नू कपूर को नहीं भूला जा सकता। उनके किरदार जैसे किरदार तो बहुत आए हैं, पर उनकी तरह निभाए किसी ने नहीं है। मैं शर्त लगाता हूं उनकी तरह कोई ‘भेन दा पकोड़ा’ या ‘भेन दा परौंठा’ कहकर दिखा दे। कोई स्पर्म के आगे अलग-अलग मूड के साथ इंटेलिजेंट, नॉटी, कन्फ्यूज्ड और अलग-अलग अलंकार लगाकर दिखा दे, कोई उनकी तरह “ये तो ऋषि मुनियों के टाइम से चला आ रहा है, पहले के जमाने में औरतों के बच्चे नहीं होते थे तो वो बाबाओं के पास जाती थी, बाबा बच्चे नहीं, बाबा ने कुछ नी करना, .... (हाथ से इशारे बनाते हुए).. लो हो गया..”। अन्नू कपूर को परदे पर देखना हमेशा आनंद होता है। भले ही ‘जमाई राजा’ में पल्टू के रोल में या ‘मिस्टर इंडिया’ में एडिटर गायतोंडे बने हुए... दर्जनों शानदार रोल ऐसे हैं जिनमें वह मुख्य किरदारों के बराबर खड़े दिखते हैं। ‘गर्दिश’ में भीख मांगने को बिजनेस बनाने वाले मनीषभाई हरीशभाई को क्यों भूलते हैं।

‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस साल की दूसरी सबसे उत्कृष्ट प्यारी सी फिल्म है ‘विकी डोनर’। जरूर देखें।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, May 2, 2012

हम इनकी भेड़ें, ये हांकने वालेः 'रोडीज' के रघु-राजीव से बातें

 रघु राम और राजीव लक्ष्मण से मिलकर लगता है कि उनमें अब कुछ भी ईमानदार नहीं रहा। जो रोडीज के शुरू के एक-दो सीजन तक हल्का सा लगा करता था। लगता है कि वो खुद को भगवान तुल्य समझने लगे हैं। इसकी एक वजह एमटीवी में उनका बहुत अधिक बढ़ा कद हो सकती है। ऱघु के वीकीपीडिया पेज पर भी तो लिखा है कि रोडीज के जरिये एमटीवी के पुनरुत्थान का श्रेय उन्हें ही जाता है। ये सभी सेलेब्रिटी बड़े चाव से अपना वीकीपीडिया पेज पढ़ते हैं, बार-बार, लगातार और उसी से मद सिर में चढ़ने लगा है। अब किसी चैनल के पुनरुत्थान जैसी बात अगर यहां लिखी हो तो हवा में उड़ना स्वाभाविक है। दूसरी वजह ये हो सकती है कि रोडीज का ये नवां सीजन चल रहा है, हर सीजन में हरेक प्रतिभागी को ऑडिशन में जलील करके और घुटनों पर लाकर के उनमें युवाओं के सबसे लोकप्रिय सेलेब्रिटी होने की बात आ गई है। यूट्यूब पर रोडीज के पेज और एपिसोड भी लाखों से करोड़ होते दर्शकों ने लाइक किए हैं। ये सब चीजें टीवी प्रोग्रैम प्रॉड्यूसर्स में भगवान होने की भावना भर देती हैं। तो ये भगवान अब जब किसी राज्य में ऑडिशन के लिए पहुंचते हैं तो मंच पर उनके एटिट्यूट ऐसे हैं कि तीस साल पुरानी ओवर रिएक्ट करने वाली फिल्में शरमा जाएं। आंखों पर महंगा चश्मा, ब्रैंडेड जैकेट और निहायती भद्दी विदेशी स्टाइल मारते हुए दोनों भाई हर मंच पर आते हैं। संबोधन पश्चिमी होता है।

रोडीज और रघु-राजीव की एक दो अच्छी बातें (महिला सशक्तिकरण और चंद युवाओं को जलालत देकर आइना दिखाना), हालांकि ये बातें भी रुग्ण तरीकों में ही गिनूंगा, छोड़ दें तो उन्होंने समाज को कितना भीतर तक चोटिल किया है न तो वे जानते हैं और न ही बताने वाले को सुनना चाहते हैं। क्या आप यकीन करेंगे कि एक अखबार को दफ्तर में आने और दर्जनों पत्रकारों से घिरे होने के बावजूद वह गालियों का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ते, ऐसे संदर्भों में जहां जरूरत ही नहीं है। पाठकों के सवालों पर वह कहते हैं, “उसको बोलो वो समझता क्या है खुद को, ऐसे सवाल पूछेगा, नहीं देते जवाब, जा क्या कर लेगा”। ये उस पाठक के लिए वह बोल रहे थे जिसने सैंकड़ों किलोमीटर दूर से बस सवाल भर भेजा था। बाद में दोनों कहते हैं, कोई नहीं हम तो मजाक कर रहे थे।

उनके मुंह से बार-बार साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार की बातें निकलती हैं। वह कहते हैं कि गालियों पर बात मत करो, बाकी मुद्दों पर बात करो। जबकि किसी मुद्दे की बहस में उनका ढेला भर भी जमीनी योगदान नहीं रहा है। योगदान तो सोशल बुनावट का भट्टा बिठाने में रहा है। वह कहते हैं कि गालियां देनी चाहिए, बच्चों को भी देनी चाहिए, राजीव तो यहां तक कहते हैं कि उनके बेटे को स्कूल में अपने सहपाठी को एक की जगह चार झापड़ लगानी चाहिए। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में नीति निर्धारक फैसले लेने वालों (जिनके हालिया फैसले को मैं पूरी तरह खारिज नहीं करता) को रघु बिना एक बार भी सोचे विचारे 'बेवकूफ', सा*' और 'इडियट' कह देते हैं। लापरवाही की इंतहा जहां होकर रुकती है, वहां से इनकी बातों के तर्क शुरू होते हैं। इस बात से बेखबर कि एमटीवी की पूंजी, उत्पाद और ब्रैंड प्रधान संस्कृति ने भारत देश में एक भी जरूरतमंद का भला नहीं किया है उल्टे जड़ों का नाश ही किया है, पर वह महान होने का दंभ भरते हैं।

अभी की उदासीनता आने वाले तीस-चालीस बरस बाद के कुप्रभावों की वजहें बनेंगी, तब कोई आएगा, वजहों को तलाशता हुआ, जो आज हमारे बीच घट रही हैं। चेत जाना जरूरी है... कोई दिन दहाड़े किसी दूसरे को ढब्बू बनाकर चला जाए, छवियों का खेल खेलता हुआ तो मानवीय गरिमा के लिए इससे बुरी बात नहीं।

खैर, रघु और राजीव से हुई इस सामूहिक बातचीत में पूछने के बहुत कुछ था, पर सवालों की सीमाएं भी थी, जगह की मर्यादा भी, नहीं तो उन्हें भी ज्ञात होना शुरू होता कि समाज में बस भेड़ें ही नहीं रहतीं हैं.. 

आप ‘इंडियन आइडल’ के ऑडिशन में गए और जजों से बड़े अग्रेसिव तरीके से पेश आए, क्या वो रियल था?
रघु: मैं सलेक्ट हो भी जाता तो प्रोग्रैम में गाने का वक्त नहीं था। ये एक मजाक था। दरअसल इंडियन आइडल के प्रोड्यूसर हमारे दोस्त थे। उनको प्रमोशन करना था तो मैंने हिस्सा ले लिया।

कोई प्रतियोगी ऑडिशन में गलत भाषा यूज करे तो आप उसे बख्शते नहीं, लेकिन जब चाहे वहां आए लड़कों की मां और बहनों को संबोधित करके गंदी-गंदी गालियां देते हैं?
राजीवः लेकिन गालियां तो हम ब्लर और बीप कर देते हैं..

दर्शक स्मार्ट हैं, उन्हें पता है कि आप कौन सी गाली दे रहे हैं...

राजीवः अगर दर्शक स्मार्ट है तो फिर क्या प्रॉब्लम है।
रघुः आपके पास रिमोट तो होगा ही न, वो पुराना वाला टीवी तो नहीं है जिसमें पास जाकर चेंज करना पड़ता है। तो रिमोट है न, अपना चैनल चेंज कर लो। रिमोट इसी लिए तो होता है।

लेकिन जिन लड़कों की मांएं-बहनें टीवी देखती हैं वो जलील नहीं फील करती होगी कि एक प्रोग्रैम के जज उन्हें सीधी गालियां दे रहे हैं?
राजीवः लेकिन आप बस गालियों पर ही क्यों बात कर रहे हैं, देश में और भी तो मुद्दें हैं बात करने के लिए। जातिवाद, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार उनपर बात क्यों नहीं करते। क्या कभी इनपर बात की है पहले ये बताओ...

अगर अपना मेल अड्रेस दें तो मैं भेज देता हूं कि किस चीज पर क्या बात की और लिखा है...
राजीवः वो तो ठीक है पर बाकी चीजों पर लोग बात क्यों नहीं करते...

फिलहाल तो आप जिन क्षमताओं के साथ बैठे हैं, आपने जो काम किया है उसके बारे में ही बात करूंगा न?

राजीवः देखिए, गालियां फील करके नहीं दी जाती हैं, न ही सुनी जाती हैं। उनका लिट्रल मीनिंग नहीं होता है।

रोडीज पर जो फिल्म बनाने वाले हैं, वो कैसी होगी?
रघुः फिल्म शो के किसी सीजन या एपिसोड्स के बारे में नहीं होगी, बल्कि रोडीज की अवधारणा के बारे में होगी। जैसे अभी हाल ही में रोडीज ने बड़े-बड़े सेलेब्रिटी वाले प्रोग्रैम को हराते हुए 2011 के मैशेबल अवॉर्ड्स में मोस्ट सोशल टीवी शो का खिताब जीता है। इसे इंटरनेट का ऑस्कर माना जाता है। वो एपिसोड नहीं देखते, असर देखते हैं।

लेखक खुशवंत सिंह को एक सोशलाइट महिला राइटर ने “पीनस ओब्सेस्ड ओल्ड मैन” कहा था, जबकि खुशवंत के एक दोस्त ने कहा कि दरअसल समाज की छदम मानसिकता पर चोट करने के लिए वह ऐसा आवरण ओढ़े रखते हैं, असल में वह बड़े सिंपल हैं। क्या आप दोनों भाई भी गुस्से और गालियों का आवरण जानबूझकर बनाकर रखते हैं, ताकि उसके जरिए ऑडिशन जैसी जगहों और दूसरे मंचों पर कुछ धारणाओं पर चोट कर सकें?
राजीवः हमारी पैदाइश, परवरिश और स्कूलिंग सभी हमें प्रभावित करते हैं। उसी से हम बने हैं। मुझे नहीं लगता कि हम समाज के खिलाफ चोट कर रहे हैं। यह इंडिया का पहला रिएलिटी शो है। इसने नौ साल पूरे किए हैं। शो में कई चीजें होती हैं, पैकेजिंग होती है। उसी के तहत सब होता है।
रघु: पहले तो मैं ये मानता हूं कि खुशवंत सिंह की कोई समझ नहीं है उस औरत को। ऐसा बोलकर अगर उसे लगता है कि हाथी का कद छोटा हो जाएगा तो ऐसा नहीं होगा। जिसने भी बोला वो बेकार है। मुक्केबाज बिजेंदर सिंह से कोई नहीं पूछता कि घर में मुक्का मारते हो क्या? या रिंग में ऑपोनेंट का वाइफ की तरह किस लेते हो क्या? ऐसा नहीं होता है न। घर और बाहर अलग अलग होता है।

एक लड़का है जो रोडीज के शोज का रिव्यू करता है यूट्यूब पर, क्या उसे देखते हैं?
राजीवः लोग उसके बारे में नहीं जानते, मैं भी नहीं देखता।
रघुः वो ऑडिशन पर आया था। क्या नाम था उसका... विशाल चोपड़ा नाम था उसका। हमने खूब झाड़ा। तो जाते ही उसने गुस्से में यूट्यूब पर भड़ास निकाली। पर बाद में एमटीवी ने उससे करार कर लिया। अब तो बाकायदा रोडीज पेज पर उसके रिव्यूज हैं और उसके बड़े-बड़े ऐड भी लगते हैं। हम रिव्यूज को बिल्कुल भी महत्व नहीं देते। राजीवः हम चैनल के हैड की नहीं सुनते तो रिव्यूअर की क्या सुनेंगे।

रोडीज के बारे में...
रघु और राजीवः यह अकेला ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां कोई मॉडरेशन नहीं है। जहां कोई टीवी चैनल वाला या कोई मॉरल बुड्ढा बीच में बैठ आपकी बातों को नियमित नहीं करता। ये आजादी से बोलने का अकेला प्लेटफॉर्म है। तमाम बुराइयों के बीच हमें लगता है कि दो तरह के लोग रोडीज देखते हैं। पहली तरह के लोग हार्डकोर फॉलोवर है। दूसरी तरह के लोग कहते हैं, “वो कौन से दो लड़के हैं जो गालियां निकालते रहते हैं”। इन दूसरी तरह वालों को शो के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। पर ये वहीं लोग हैं जो यूट्यूब पर छिपकर अनसेंसर्ड एपिसोड डाउनलोड करते हैं और फिर उन्हें डिसकस करते हैं। शो पर बाकी चीजों के अलावा हम इश्यू भी डिस्कस करते हैं। जैसे मौजूदा रोडीज सीजन के ऑडिशन में एक लड़का आया था जिसे थैलेसीमिया हो रखा था।

इस शो के उलट आप दोनों भाइयों का व्यक्तिगत जीवन कैसा है?
राजीवः ये टीवी शो आपके लिए होगा पर हमारे लिए सिर्फ लाइफ है। हम ऐसे ही हैं। शो पर भी और असल में भी।

फिल्मों के ऑफर नहीं आए?
रघु: 'रोडीज-6’ के बाद आया। उससे पहले भी इंडस्ट्री के लोग छोटे-छोटे रोल के लिए बुलाते थे। ज्यादातर एंग्री यंग मैन वाले। पर मैंने किए नहीं। फिर अब्बास टायरवाला की 'झूठा ही सही’ की। फरहा 'तीसमार खां’ बना रही थी। कॉल किया और कहा कि ये फिल्म है, ये रोल है और तुम लोग कर रहे हो। बस। बात खत्म। मैंने कहा ठीक है।

ये शो नहीं कर रहे होते तो?
 राजीवः रोडीज न कर रहा होता तो? फर्क नहीं पड़ता। या बहुत मस्ती करता। अभी तो शो ऑन एयर है।
रघुः किताब लिखनी है, गाने लिखने हैं, ट्रैवल करना है और फैमिली के साथ रहना है।

सबसे बड़ा डर किससे लगता है?
राजीव: हार से।
रघु: वैसे हर चीज से। डर सबको लगता है। उस डर का आप क्या करोगे वही मुद्दा है। मुझे स्पीड, जानवरों और आंटियों से डर लगता है। आंटियों से इसलिए क्योंकि उनसे कोई जीत नहीं सकता है। अगर कोई आंटी मुझसे कुछ पूछे तो कहता हूं आप सही हो आंटी। आप क्या बोलोगे? चंडीगढ़ में एक अखबार के ऑफिस के बाहर एक आंटी मिली। गुस्से में बोली, आप पूरी जेनरेशन को खराब कर रहे हो, राष्ट्र को नष्ट कर रहे हो। मैं क्या कहता। एक बार कॉलेज में हमारी गाड़ी खड़ी थी। सैकंड हैंड डब्बा मारुति। पीछे से दूसरी गाड़ी ने ठोक दिया। पीछे से एक आंटी निकली औंर भड़क गईं। मैंने कहा कि मैं आपसे तो बात ही नहीं कर रहा हूं। पर वो नहीं मानी। बोली कि जाओ बैठो अपनी गाड़ी में और निकलो, मैं क्या करता।

क्या पहले लगता था सफल हो जाएंगे?
राजीवः हमने 1500 रुपये से शुरुआत की, वो पहली तनख्वाह थी। स्कूल टीचर और सब कहते थे कि ये भाई लोग कुछ नहीं कर सकते, बिल्कुल नहीं कमा सकते।

बेस्ट रोडीज?
रघुः बेस्ट रोडीज रहा है रणविजय। उसमें सबकुछ है। वो स्वीटहार्ट भी है, पर लोग ये जानकर क्या करना चाहते हैं।

क्या उन्हें आपके प्रोग्रैम का फायदा मिला?
रघुः अगर रोडीज के प्लेटफॉर्म से किसी को कुछ मिलता है तो वो उनकी मेहनत है, हमारा उससे कोई लेना-देना नहीं है।

आयुष्मान और रणविजय एक्टर बन गए हैं। उन्हें आगे जाते देख कैसा लगता है?
रघुः ये दोनों सबसे अच्छे लगे रोडीज में। हमने आयुष्मान की ‘विकी डोनर’ देखी है, सुपर फिल्म है। तोड़ू फिल्म। दे आर ऑसम। वो और उनकी फैमिली तो हमारी फैमिली जैसे हैं।

कभी धमकी मिली है?
राजीव: मैं तो उतना इंटरनेट पर हूं नहीं, पर वहां धमकियां मिलती हैं।
रघु: इंटरनेट पर तो सब शाहरुख खान और सलमान खान ही बैठे हैं। वहां सब शेर हैं। सामने कोई नहीं आता। हमें किसी की नहीं पड़ी। कुछ भी करे कोई।

डांट किससे पड़ती है?
राजीव: ऑफिस में तो सब हमारे अंडर काम करते हैं तो कोई डांट सकता नहीं। चूंकि अब बड़े हो चुके हैं तो घर में भी कोई नहीं डांटता।
रघु: वाइफ से। अगर आदमी छह महीने बाहर रहेगा तो घर जाकर सुनेगा ही।


ऑडिशन में राजीव आपका छह साल का बेटा कई बार साथ बैठता है, तो वो भी गालियां सुनता होगा?
राजीव: भले ही सुनो और बोलो न। मैं तो कहता हूं, स्कूल में कोई थप्पड़ मारे तो उसे चार मार।
रघु: ये गालियों से लोगों की इतनी सुलगती क्यों है। यार दो न गाली क्या होता है। भाषा के मायने क्या हैं, कम्युनिकेट करना। समझ आता है न। 
राजीव: गालियों से इंटरैक्शन रियल लगता है। ऐसा नहीं लगता कि कैमरे के सामने प्रोग्रैम रिकॉर्ड हो रहा है। असली का लगता है।

सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने 'डर्टी पिक्चर का प्रसारण रोक दिया...
रघु: बेवकूफ हैं सा*। इडियट हैं। कौन होते हैं यार, कौन होते हैं, क्या गलत किया है उस फिल्म ने। थियेटर में लोगों ने पैसे लगाकर हिट करवाया है। तुम होते कौन हो रोकने वाले।
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गजेंद्र सिंह भाटी