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Wednesday, January 16, 2013

मुझे कॉम्प्लेक्स या फ्रस्ट्रेशन नहीं होता, जिदंगी बड़ी सादी है, मैंने रक्खी ही ऐसे हैः सैमुअल जॉन

मिलिए ‘अन्ने घोड़े दा दान’ में मेलू के किरदार को निभाने वाले सैमुअल जॉन से, पंजाब में उनका थियेटर दलितों, मजदूरों, बच्चों और समाज के हाशिये पर पड़े तबकों को समर्पित है

Samuel John seen behind in a still from 'Anhey Ghorhey Da Daan.'

ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ का कोई ग्यारह साल पहले चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी के इंग्लिश ऑडिटोरियम में मंचन हुआ था। बेहद जीवंत तरीके से ये एकल प्रस्तुति दी थी सैमुअल जॉन ने। पिछले साल जब इसी ऑडिटोरियम में गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘अन्ने घोड़े दा दान’ को दिखाया गया तो उसमें भी सैमुअल अहम भूमिका में थे। पंजाब के साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्होंने रिक्शा चलाने वाले पात्र मेलू को पूरे समर्पण से निभाया था। फिल्म को बीते साल तीन राष्ट्रीय पुरस्कार दिए गए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसने भारतीय कला फिल्मों के अस्तित्व को बहुत वजन प्रदान किया। इस बारे में और निर्देशक गुरविंदर सिंह से हुई मेरी बातचीत को आप काफी पहले यहां पढ़ चुके हैं, अब मौका है सैमुअल के बारे में जानने का। इस मुलाकात में वह ‘जूठन’ के पंजाबी में किए अपने सोलो परफॉर्मेंस को कुछ पल पहले की सी ताज़ग़ी से याद करते हैं। उनका थियेटर दलितों, मजदूरों और छोटे किसानों के विमर्श पर केंद्रित जो है। फिलहाल उनके पीपल्स थियेटर ग्रुप का केंद्र लहरागागा, संगरूर (पंजाब) है। सैमुअल बताते हैं कि वह बीते 20 साल से रंगमंच से जुड़े हैं। व्यावसायिक पंजाबी सिनेमा और मनोरंजन में पंजाब के समाज और विषयों को लेकर जो दुखभरा शून्य आया है उसमें ये उन नींव के पत्थरों जैसे हैं जो बुनियादी स्तर पर काम कर रहे हैं, नाम ज्यादा नहीं है। सैमुअल के काम को उनके नाटक ‘बागां दा राखा’ में (यहां और यहां भी) देख सकते हैं। एक शॉर्ट फिल्म ‘आतू खोजी’ में भी उन्होंने काम किया। उनका मुख्य ध्येय रंगमंच है और समाज के हाशिये पर पड़े तबकों वाला रंगमंच है, बीच में ‘अन्ने घोड़े दा दान’ जैसी फिल्में भी आ जाती हैं कभी-कभार। प्रस्तुत है अतीत हो चुके किन्हीं क्षणों में उनसे हुई ये बातचीतः

अपने बारे में कुछ बताएं?
मेरा नाम सैमुअल जॉन है। मैं पंजाब में थियेटर करता हूं। मेरा थियेटर दलित श्रेणी, मजदूर लोग और छोटे किसानों की समस्याओं पर बेस्ड होता है। पटियाला यूनिवर्सिटी के थियेटर डिपार्टमेंट से मैं पासआउट हूं। मेरा गांव कोटकपूरा के पास है, अठेलवां कलां, वहां पर मैंने अपनी शुरू की पढ़ाई की। अब 20 साल से थियेटर से जुड़ा हूं।

Samuel John
पंजाबी फिल्में?
ज्यादा मैं हिस्सा नहीं बनता हूं फिल्मों का, पर पहले एक फिल्म की थी ‘मिट्टी’ जितेंदर मोहर के डायरेक्शन में बनी थी। उसकी मैंने एक्टिंग वर्कशॉप ली थी। मेरा मानना है कि पंजाब की फिल्मों के सब्जेक्ट लोगों के जीवन से जुड़े हुए नहीं हैं। वो एक खास... पंजाब के कुछ अमीर शहजादों या फॉरेन में रहने वालों जिनके पास पैसा है, बस उन्हीं के लिए बनती हैं। उनको लगता है यही पंजाब है। उन्हें ये पता ही नहीं है कि असली पंजाब में किस किस्म का जीवन है, वो कैसे जी रहे हैं, उनकी क्या समस्याएं हैं। पंजाब की फिल्में बहुत दूर हैं मुद्दे से। मैंने कभी कोशिश नहीं की कि मैं इंडस्ट्री की ओर आऊं।

फिर ‘अन्ने घोड़े दा दान’ क्यों की?
इसका डायरेक्टर इधर बार-बार एक्टर्स चुनने के लिए आ रहा था। वह पूछ रहा था कि उसकी कहानी के ऐसे पात्र हैं... जो उसे चाहिए। जिस-जिस जगह वो गया वहां मेरा जिक्र हुआ, कि जिस किस्म का ये सब्जेक्ट है नॉवेल का तो आप सैमुअल जॉन से मिलो। क्योंकि इस किस्म के सब्जेक्ट और मुद्दे उसके नाटकों में रहते हैं। तो मेरी फोन पर बात हुई, बात आई-गई हो गई, मैंने ध्यान नहीं दिया, लेकिन अंत में यही हो गया। मैंने सोचा, नॉवेल (गुरदयाल सिंह का उपन्यास अन्ने घोड़े दा दान) तो मैंने पढ़ ही रखा है, विषय अच्छा है, लोगों से मिल लेते हैं। मैं मिला, इन लोगों ने मुझे फाइनल कर लिया। फिर मेलू का मैंने पात्र किया।

कैसी लगी फिल्म, बनने के बाद?
फिल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि ये ग्लैमराइज नहीं करती। आंखों को अच्छा-अच्छा-अच्छा लगे वो नहीं है। इसमें पंजाब के उन लोगों की बात है जिन्हें दो किस्म का दर्द है। एक तो ये गरीब हैं और दूसरा नीची कास्ट के हैं। वो शहर की ओर कैसे सोच रहे हैं कि गालियां सुननी पड़ती है। सोचते हैं कि चलो शहर की ओर चलें। अपना काम करने के लिए कि जीवन में तब्दीली आए। लेकिन वहां भी जो बंदे पहुंच चुके हैं उनकी जिंदगी में कोई चेंज नहीं आया है। तो जो शहर में हैं वो सोचते हैं कि यार इससे अच्छा तो गांव में ही थे, कहीं न कहीं वो सुरक्षा महसूस करते थे कि हां, है, हमारा गांव है, हमारे घर हैं। और जो गांव में है वो सोच रहा है कि यार जैसे पहले लोग गए हैं हम भी शहर चलें। ये इस किस्म का दमन अपने साथ लेकर जी रहे हैं इस फिल्म के पात्र। मुझे फिल्म का सब्जेक्ट बहुत बढ़िया लगा और दूसरा ये एक्सपेरिमेंट करना कि गुरविंदर ने असली लोग पकड़े गांव के, वैसे-वैसे चेहरे वाले, पेंटिंग्स की तरह। जो उसको चेहरा चाहिए वो उसने ले लिया वहां से। वो भी मुझे अच्छी बात लगी कि कम से कम लेबर करने वाला बंदा फिल्म जो इंटरनेशनल लेवल पे चली गई उसमें काम कर रहा है। मुझे लगता है कि पंजाब के लोग इस फिल्म को देखेंगे या समझने की कोशिश करेंगे। तो ये थोड़ा ट्रेंड बदलेगा कि आम बंदा है उसके जीवन के बारे में फिल्म बनाई जाएंगी। इस किस्म के सीरियस मुद्दे आगे आएंगे।

पारंपरिक पंजाबी नामों से आपका नाम अलग है, इसकी वजह क्या है?
वैसे तो मेरा जन्म सिख फैमिली में हुआ। ये नाम मैंने खुद रखा। क्योंकि हमारे थोड़ा सा प्रभाव क्रिश्चिएनिटी का था। वैसे अमृतसर साइड में भी आपको ऐसे बहुत से क्रिश्चियन नाम वाले दलितों की बस्तियां मिलेंगी। वहां क्रिश्चियन लोग हैं। लेकिन मैं सिख हू्ं। हालांकि मैं रिवोल्यूशनरी हूं, इंकलाब की धारा को मानता हूं। मेरे लिए धर्म व्यक्तिगत मुद्दा है। हर बंदे को हक हो कि वो अपने धर्म में विश्वास रखे। लेकिन टोटैलिटी में जिंदगी के हमें केंद्रित इस बात पर होना चाहिए कि उसकी कद्र कैसे हो? इंसानियत की, मानवता की। जैसे ये सोचा जाए कि सिखों का पंजाब है और हिंदू बंदे को निकालने की बात हो तो मुझे दुख होगा। मुझे दुख होगा और इसके लिए मैं लड़ता हूं, इसके लिए हम लड़ते रहे हैं कि पंजाब या हिंदुस्तान सब लोगों के लिए है। कोई कहीं भी रहे, बंदा कहीं भी जाकर अपना काम करे। तो ऐसा समाज चाहिए। हम तो पूरे समाज को ऐसा बनाना चाहते हैं कि जहां इमोशंस की और ह्यूमन लाइफ की कद्र हो। मेरे थियेटर में ऐसी बातें रहती हैं।

कितने प्ले आप कर चुके हैं? क्या किताबों से प्रेरित होते हैं, या आसपास की लाइफ को देखकर खुद लिखते हैं?
कुछ तो मैं कहानियों को ड्रामेटाइज करता हूं। पंजाब में जो दलित स्टोरी राइटर हैं, उनकी कहानियों को लेता हूं, कुछ इम्प्रोवाइज करता हूं। जब मैं बच्चों का थियेटर करता हूं तो उसको भी ड्रामेटाइज करता हूं लोक कथाओं को लेकर।

आप संगरूर के आसपास ही करते हैं या पूरे पंजाब में?
पूरे पंजाब में घूमता हूं। पहले 1991 में मैं पटियाला की यूनिवर्सिटी आ गया था, वहां रहा चार-पांच साल। काम किया। फिर बॉम्बे चला गया। बॉम्बे में तीन साल था। वहां फिल्म के लिए नहीं गया, बस देखने के लिए गया था कि पूरे हिंदुस्तान को देखो। वहां भी मैंने काम किया बच्चों के थियेटर के लिए। स्ट्रीट थियेटर मैं ज्यादा करता था। जैसे बॉम्बे में जो दंगे हुए उनका बच्चों पर क्या असर पड़ा। इसको हमने इम्प्रोवाइज किया। ‘हम तो खेलेंगे’, ये नाटक था। मेरे सामने मुद्दा यही आया कि जो बच्चे होते हैं वो किसी भी धर्म, किसी भी जात, किसी भी देश के हों, उनको खेल और खेलना बहुत अच्छा लगता है। वो छिन जाता है लड़ाई-झगड़े से। किसी कास्ट के आधार पर हों, किसी धर्म के आधार पर हों, तो उनको दुख होता है। मेरा काम ज्यादा तो संवेदनशीलता पर है। कि इंसान को संवेदनशील कैसे किया जाए, उसके भीतर की संवेदना जागे। उसके बाद में चमकौर साहिब आया, चार साल वहां रहा। फिर पटियाला आया। आजकल मेरा सेंटर लहरागागा, संगरूर जिले में है। वहां पीपल्स थियेटर है हमारा।

कितने लोग हैं?
किया तो हमने ‘मैकबेथ’ भी है, तीस-चालीस लोग थे हम। लेकिन क्या हुआ कि हमारा पैसे-वैसे का खर्च नहीं निकलता और करवाने वाले 20-25 हजार कैसे देंगे। तो अब मैंने जो उसकी फॉर्म निकाली है, अब हम चार-पांच लोग हैं। दलितों की बस्तियों में जाते हैं या डफली बजाते हैं, लोग इकट्ठे होते हैं और किसी न किसी घर में नाटक कर देते हैं। तो लोग आटा-दाल या कुछ दे देते हैं तो गुजारा हो जाता है। या पैसा मिल जाता है। कुछ किसान यूनियन या मजदूर यूनियन वाले बुला लेते हैं, वहां करने चले जाते हैं। इस किस्म का है।

ऑफिस बना रखा है क्या?
नहीं, मेरा पूरा घर है, वहीं रिहर्सल चलती हैं। मेरा सात-आठ मरले का घर है। उसमें दो-तीन कमरे हैं और वहां थड़ा बनाया हुआ है, एक मैंने ओपन थियेटर भी बनाया हुआ है। चार सौ बंदों की क्षमता का है, स्टेज बनी हुई है, ग्रीन रूम है, वहां लोग आते हैं, वहां शो वगैरह चलते रहते हैं।

परिवार में कौन-कौन हैं?
मेरी वाइफ है जो चंडीगढ़ में म्यूजिक की टीचर है, इसलिए मेरा यहां आना लगा रहता है।

आपके थियेटर का व्याकरण क्या है?
मैं तीन बातों पर काम करता हूं। संसार की किसी भी रचना, चाहे इतनी मोटी-मोटी किताबें हों, किसी भी रचना के लिए ऑर्टिस्ट अपनी पूरी बॉडी को यूज करे। माइंड को यूज करे तो ज्ञान होगा कि क्या बात है। बॉडी के थ्रू वो बताएगा कि मैं क्या कर रहा हूं, जैसे हम कबड्डी खेलते हैं। कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी... करते हैं हम... हमारा दिमाग चल रहा है कि किसको हाथ लगाकर भागना है। बॉडी पीछे है, बॉडी को संभाल रहे हैं कि कैसे यूज कर रहे हैं, साथ में कबड्डी, कबड्डी बोल रहे हैं। आए, हाथ लगाया, बंदा गया, चेंज हो गया पूरा। तो बॉडी, वॉयस और माइंड इन तीनों के साथ की थ्योरी पर मैं काम करता हूं। एक भी पैसा नहीं चाहिए, मैं खर्चा ही नहीं करता। मैं एक्टर पे छोड़ता हूं। उसी का सेट बनेगा, उसी की आवाज के जरिए, उसकी भाव-भंगिमाओं के जरिए सब बात निकलेगी।

परिवार का क्या रिएक्शन रहता है, क्योंकि आज जैसे ढर्रा बन गया है न कि आप जवान हो गए, आपने पढ़ाई पूरी कर ली, आपको इतनी तनख्याह मिलेगी...
पहले-पहले परिवार में होता है कि पैसे कमाओ, ये करो, वो करो। लेकिन धीरे-धीरे पता चल जाता है और जैसे भी उनको इज्जत मिलती है तो वो उस हिसाब से करते रहते हैं। पहले पहले था बाद में उनको पता चल गया कि ऐसे ही करेगा ये बंदा।

आइडियोलॉजी के लेवल पर देखते हैं कि जितने भी फिल्मवाले हैं चाहे वो हिंदी के हों या पंजाबी के हों, वो इस बात को सिरे से खारिज कर देते हैं... वो कहते हैं कि कोई समाज बदलता नहीं है, बस एंटरटेनमेंट दो।
 वो सही हैं। पता है क्यों? हम जब तब्दीली को देखते हैं तो उसका फॉर्मेट अपने दिमाग में यही बनाते हैं कि जब तक हम जिएं तब तक तब्दीली हो जाए समाज में। हा हा हा। ऐसे नहीं होगा, ऐसे नहीं होगा भाई। पीढ़ियों से चल रहा है जो, आप ये चाहते हैं कि आपकी उम्र 60 साल की है, 70 साल की है, उतने में बदलाव हो जाए। असंभव, साथी। ये तो पता नहीं कितनी पीढ़ियां जाएंगी। मैं ये मानता हूं... कि जंगल को आग लगी है, तो हम क्यां करें? पंछी इधर-उधर भाग रहे हैं और इस बीच एक चिड़िया क्या कर रही है, उड़कर जाती है और समंदर में से एक चोंच भरकर लाती है पानी की, और जंगल पर डाल रही है। सब देखकर हंसते हैं और कहते हैं, “ये क्या हो रहा है, तू भाग ले, तेरे इतने पानी से क्या होगा”। वो कहती, “जंगल को आग लगी है और मैं अपना फर्ज अदा कर रही हूं। आग बुझे या न बुझे इससे मुझे कोई मतलब नहीं है”। तो मेरा मानना है कि हमारी जो कला (थियेटर) है, वो वे ऑफ लाइफ है। हम अपना फर्ज अदा कर रहे हैं और ये जीने का ढंग है। मुझे नींद ही नहीं आती, मैं पैसे के पीछे भागूं तो। मैं एकदम मजदूर जैसे दिहाड़ीदार बंदा जाता है ऐसे काम पर जाता हूं। और कोई कॉमप्लेक्स नहीं है। आज तक मेरी जिंदगी में एक भी ऐसी रात नहीं है कि मैं फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो गया या मुझे नींद नहीं आई। नो। मेरा जीवन ही बहुत सादा, मैंने रक्खा ही ऐसे ए। काहे की प्रॉब्लम।

आप अंदरूनी हिस्सों में जाते हैं। पंजाब मूलत: एक सामंती समाज है, आप जो समझाना चाह रहे हैं वो नहीं समझेंगे। आपको गाली देंगे, आपको परेशान करेंगे, आपकी राह में रोड़े अटकाएंगे, आपके पास ऐसे दसियों किस्से होंगे। आपको परेशानी देने वाले लोग जो नहीं समझना चाहते कि आप क्या कहना चाह रहे हैं। वो अपनी ही बातों को फॉलो करना चाहते हैं। ऐसे में उनका सामना करते वक्त आप कैसे व्यवहार करते हैं? क्या सोचते हैं? क्या करें? क्या न करें? प्ले कर रहे हैं, समाज के लिए कर रहे हैं, अच्छे के लिए कर रहे हैं लेकिन जिन लोगों के लिए कर रहे हैं, वो कहते हैं, हमें अपने बच्चे को आईएएस बनाना है, हमें उसको एमबीए कराना है, कैट का एग्जाम दिलवाना है...
हां, सही है बात आपकी, लेकिन जो मेरा फॉर्मेट है न, मेरे नाटक इस किस्म के नहीं होते। वो लोगों को बांध लेते हैं, कभी आज तक नहीं हुआ कि मेरे नाटक में प्रॉब्लम आई हो। किसी बंदे को पता ही नहीं चलता, चाहे मेरा विरोधी ही क्यों न हो बंदा, कि मैंने क्या मैसेज दे दिया। दूसरी बात, पंजाब में पहले से ही क्रांतिकारी लोग रहे हैं उनका आधार अभी भी लोगों के बीच में है। प्रोग्रैम ही वहां होते हैं ज्यादा। तो उसमें कोई आकर दंगा-फसाद या झगड़ा करे ये नहीं होता। बाकी खुद मैं भी मार्शल किस्म का बंदा हूं। गरीब बंदा है उसको मैं समझाऊंगा, कोई अमीर मुझे डराना चाहेगा तो मैं उसे कहता हूं कि भई आज तो नाटक कर रहे हैं कल कोई दूसरा काम भी कर लेंगे, सीधी बात है। प्रैक्टिकल बात है, मैं थ्योरी में जाके... ये नहीं। मैं तो ये कहता हूं कि जिस बंदे के साथ धक्का होता है, वो बोले, बाद में जो हो सकता है करे। क्यों घुट-घुट के जिए? घुट-घुटके जीने में मेरा यकीन नहीं है। मेरा फलसफा है कि आप अपनी फ्रीडम के साथ जिओ। पर उसमें ध्यान रहे कि आपकी वजह से किसी ह्यूमन लाइफ को नुकसान न हो। वो बाधा न आए।

पंजाबी फिल्में आप देखते हैं, उनके अंदर पता नहीं दर्जन-दर्जन गलतियां होती हैं, समाज को कुराह ले जाने वाली। जैसे आप ‘मेल करादे रब्बा’ देखेंगे तो उसमें हीरो हॉकी लेकर पीटता रहता है सबको। इसी से वो हीरो बन जाता है। फिल्म जब खत्म होती है तो आखिरी सीन में भी हॉकी का ही प्रभाव हमको नजर आता है। तो जैसे फिल्म देखकर बाहर आ रहे हैं, जैसे स्टूडेंट हैं उनकी गाडिय़ों में हॉकी नहीं भी रहती तो रहनी शुरू हो जाएगी। पंजाब में जैसे समाज है, जैसे लंगर का चलन है, सबकी सेवा करना है, प्रेम करना है, इंसानियत और मानवता को आगे ले जाना है। ऐसे में पंजाबी फिल्में आ रही हैं वो युवाओं को टशन में रहना सिखा रही हैं।
बिल्कुल, पंजाब के इस कल्चर की बात नहीं होती। फिल्म और कला में जैसे आप कह रहे हैं न, कि पंजाब के लोगों का प्यार, कल्चर था कि कास्ट को तोड़ना, सभी के लिए बराबर की लंगर की परंपरा, एक-दूसरे के धर्म की इज्जत... ये सब चीजें सामने ही नहीं आने दे रहे। क्योंकि पंजाबी इंडस्ट्री जो है, जैसे कुछ मसंद लोग थे गुरु साहिब के टाइम में वो दसवंद लेकर जाते थे गुरु साहेब के पास, तो वो खुद ही अपने पास ही रख लेते थे, लेके ही नहीं पहुंचते थे। तो जो पंजाब है उसका कल्चर कुछेक अमीर लोगों के हाथ में चल रहा है। आम बंदे की भागीदारी कम हो गई है। जैसी आपने बात की तो वो तो बहुत रिच कल्चर है पंजाब का, बहुत ज्यादा। वो सब सामने आना चाहिए न यार, वो लिट्रेचर में आना चाहिए, वो पेंटिंग में आना चाहिए, वो म्यूजिक में आना चाहिए। मैं आपको घटना बताता हूं। मैं नास्तिक बंदा हूं। तो मेरे ग्रुप में एक बंदा ब्राह्मण परिवार से है। वो जाता था मंदिर वगैरह। मैं उसे बोलता था कि तू पहले आराम से मंदिर जाके आजा, उसके बाद रिहर्सल करेंगे, चाहे तू दस मिनट लेट हो जाना। ये इज्जत है। मैं तो नास्तिक हूं फिर इसका मतलब क्या है। कि नहीं भई, वो उसके जीवन में महत्वपूर्ण है। क्या हुआ, क्या हुआ, वो धोती-तिलक लगाए फिर क्या हुआ। वो दाढ़ी रखकर आ रहा है, पगड़ी बांधकर फिर क्या हुआ। मान लो कोई नास्तिक है फिर क्या हुआ। ह्यूमन लाइफ महत्वपूर्ण है।

पर ये फ्यूजन कहां से आया। क्योंकि पटियाला में पढ़ते हुए वहां विश्वविद्यालय में आपने अति-वामपंथी विचारधारा देखी होगी, फिर आपने अपने काम में मानवता की थीम को जोड़ लिया है, ये नहीं नजर आता है। आप जाएंगे दिल्ली तो वो अतिवादी ही होगा। वो कहेंगे कि मैं पंडत का किरदार भी नहीं करूंगा। मैं गोधरा के दंगों पे प्ले करूंगा तो मैं उसमें नरेंद्र मोदी ही नहीं बनूंगा। आप उलट हैं, पंजाब पर सटीक बैठते हिसाब के हैं। ये कैसे तय किया कि ऐसे होना है?
ये मैंने जीवन को करीब से देखा है। मैं खुद को पांच फुट आठ इंच का नहीं मानता, न मैं अपने आपको सिर्फ पंजाबी मानता हूं, न मैं हिंदुस्तानी मानता हूं। मेरा विश्व दृष्टिकोण है। दुनिया में... कहीं भी कोई जीवन है, मनुख है, वो ऑक्सीजन से सांस लेता है... मैं ये मानता हूं। जब ये हकीकत है ब्रह्मांड की तो आप इतना संकीर्ण क्यों हो रहे भाई? सीधी सी बात है। कला में ये बातें होनी चाहिए। जब आदमी भगवान को मानता है न, तभी ये मान पाता है, क्योंकि वह न तो हिंदु रह जाता है, उसके भीतर ऐसी संवेदनशीलता आती है कि वो कभी किसी को मार नहीं सकता है। चाहे वो सिख हो या बजरंग दल का हो, मेरा ये मानना है। जिसका गॉड में विश्वास है वो कभी किसी को मार नहीं सकता। मेरा मानना है ये बातें आर्ट में आनी चाहिए, थियेटर में आनी चाहिए।

आपको प्यारा क्या लगता है, थियेटर?
मैं थियेटर में ज्यादा हूं, वही मुझे प्यारा है। इंडस्ट्री का क्या है, ये फिल्म इंडस्ट्री है यहां कौन मुझे आने देगा, मैं क्यों ज्यादा एनर्जी वेस्ट करूं, मैं अपना काम करता रहता हूं। खुद को आइडेंटिफाई मजदूर और गरीब बंदे से करता हूं। और अनपढ़ बंदे से। कभी किसी को बताता भी नहीं कि पढ़ा-लिखा हूं। मैंने तीन बार पीएचडी की है। नहीं, क्यों, काहे के लिए। अरे भई, दो-चार क्लास पढ़ गए हो, कौन से सींग उग आए हैं अपने। तो क्या पेट पाड़ोगे लोगों का, हां मैंने पीएचडी की है। मेरे को प्रकृति की दी हुई जो ये लाइफ है न ये बड़ी खूबसूरत लगती है। और थियेटर इस जीवन के बहुत करीब है। लाइव है न। तो मैं लाइव चीजों को ज्यादा करता हूं। चाहे राजनीतिक तौर पर समझो या कैसे भी कि ‘अन्ने घोड़े दा दान’ इंटरनेशनली गई है, और मुद्दे सामने लाई है अच्छी बात है।

(Samuel John is a theater artist and film actor. Staging in different parts of Punjab, his plays are mainly woven around Dalits, lower castes, laborers and children. At present his group is based at Lehragaga, Sangrur in Punjab. He played the role of Dalit rickshaw puller Melu in three National award winning Punjabi feature film Anhey Ghorhey Da Daan (Alms of the Blind Horse), directed by Gurvinder Singh.)
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Tuesday, May 8, 2012

तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात

 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में युवा निर्देशक गुरविंदर सिंह की फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' को तीन पुरस्कार मिले। उऩ्हें बेस्ट डायरेक्टर और बेस्ट पंजाबी फिल्म का अवॉर्ड मिला, वहीं बेस्ट सिनेमैटोग्राफी के लिए सत्य राय नागपाल को पुरस्कार मिला। गुरविंदर विश्व सिनेमा में भारतीय और खासकर पंजाबी भाषा के योगदान को कटिबद्ध हैं, संभवतः वह गजब की फिल्में लेकर आएंगे। मिलिए गुरविंदर से और मौका मिले उनकी ये फिल्म जरूर देखें।


ये पंजाबी भाषा की पहली ऐसी फिल्म है जो विश्व सिनेमा कही जा सकती है। भारत का मान बढ़ाने वाली फिल्म। घोर आर्ट है। इतना कि जहां रोना चाहिए, वहां दर्शक हंसते हैं। दिल्ली के गुरविंदर सिंह 'फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे' से फिल्ममेकिंग में ग्रेजुएशन कर चुके हैं। वहीं पढ़ते हुए उन्होंने पंजाबी साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास 'अन्ने घोड़े दा दान' पर फिल्म बनाने का आइडिया खुद में आरोपित कर लिया। एफटीआईआई से उन्हें जो दो छात्रवृत्तियां मिली उससे वह पंजाब घूमे। खासतौर पर पूर्वी पंजाब। वहां के लोक गायकों की जिदंगी को देखते हुए, उन्हें सुनते हैं। उन्हीं के मुख से गीतों के रूप में पंजाब की लोक गाथाओं को सुनते हुए। इन गायकों में कई नीची जाति के भी थे, पर गुरविंदर खासकर उनके साथ रहे।

दिल्ली के एक सिख परिवार में पलते-बढ़ते हुए उन्हें अपनी शहरी पहचान और पंजाबियत की जड़ों से जुड़ी घर के बुजुर्गों की सुनाई ऐतिहासिक कहानियों के बीच एक अकुलाहट नजर आती रही। शायद यही वजह रही कि पंजाबी भाषा में फिल्में बनाने का बेहद गुणवान फैसला उन्होंने लिया।

मौजूदा युवा आर्ट फिल्मकारों में वह सबसे जुदा इस लिहाज से भी हैं, कि वह दिग्गज दिवंगत फिल्मकार मणि कौल के शिष्य रहे हैं। वह उनकी विरासत एक तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। दरअसल 2006 में मणि कौल अपने हॉलैंड प्रवास के बाद भारत लौटे थे। गुरविंदर को पता चला तो वह दिल्ली से रवाना होकर मुंबई चले गए, ताकि उन्हें साथ रहकर उनसे सीख सकें। फिर एफटीआईआई में आयोजित हुई एक सिनेमा वर्कशॉप में गुरविंदर मणि के सहयोगी बने। वहां से संपर्क बढ़ा। वह मणि के साथ उनके घर भी रहे। इस फिल्म के विचार में मणि कौल भी इस लिहाज से शामिल थे कि वह फिल्म के क्रिएटिव प्रोड्यूसर रहे, ये और बात थी कि फिल्म के पूरा होने से पहले ही मणि चल बसे। पर उनके साथ रहकर अपने बारे में और अपनी तरह की फिल्मों के बारे में गुरविंदर को जीवन भर साथ आने वाले बातें पता चली। जाहिर है इतने बड़े कद के फिल्मकार के साथ आप रहते हैं तो आपमें भी कुछ शानदार गुण शुमार होते ही हैं। गुरविंदर की ये फिल्म दुनिया के कुछ बेहतरीन फिल्म समारोहों में जाकर आई है। 68वें वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट में फिल्म काफी सराही गई। इसके निर्माण में पैसा लगाया नेशनल फिल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन ने। फिल्म की शूटिंग भठिंडा और उसके करीब एक गांव में हुई। कास्ट में ज्यादातर लोग गांव के ही लोग थे।

गुरविंदर की इस फिल्म का मुझे बेसब्री से इंतजार था और संयोग से चंडीगढ़ में एक विशेष अकादमिक प्रीमियर के दौरान मुझे देखने का मौका मिला। विश्व सिनेमा वाली भाषा के लिहाज से बड़ी आधारभूत लेकिन विस्मयकारी फिल्म है। कम से कम संसाधन, लोकल लोगों से करवाया गया अभिनय, यथार्थ को दिखाने की जिद और फिल्मकारी में कुछ सूक्ष्म बातों पर खास ध्यान फिल्म की कुछ खासियतें हैं। ये एक आदर्श और सिनेमाई पंजाब नहीं दिखाती, बल्कि इसके उलट उन पंजाब के नागरिकों को अपनी कहानी का केंद्रीय किरदार बनाती है, जिनपर कभी फिल्म नहीं बनती। सामाजिक रूप से दबे कुचलों और हाशिये पर रखे गए शोषितों की जिंदगी यहां किसी सड़ते हुए घाव की तरह खुलती है। दर्शकों की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वह कितने संवेदनशील हैं कि कितने असंवेदनशील। अपने समाज में पल रहे भेदभावों से कितने जान हैं और कितने अजान। कोई अचरज मुझे नहीं हुआ कि बेहद बुद्धिजीवी माने जाने वाले वह दर्शक रो पड़ने वाले दृश्यों में हंस पड़े। फिल्म के संप्रेषण की ये खामी भी है और खूबी भी।

निर्देशक के तौर पर गुरविंदर का बर्ताव फिल्म के किरदारों और कहानी के प्रति गंभीर शांति भरा है। उनका केंद्रीय किरदार जो प्रताड़ित है, मौन है। उसका धरा हुआ मौन बाकी किरदारों में भी पलता है। कहानी में प्रभुत्व भरे लोग भी आते हैं, पैसे वाले भी, कद्दावर भी, दबंग भी। उन्हें देख सिहरन होती है कि असली पंजाब में यही होता है। जो हकीकत है। असली पंजाबों में भी ऐसा ही भेदभाव और शोषण है और असली राजस्थानों में भी। किरदारों की जिदंगी की हर परत में घाव लगे हैं, और उन्होंने मौन रहकर वो घाव झेल लिए हैं।प्रीमियर के दौरान ही फिल्म के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के कुछ अंशः

आपका सिनेमा क्या है?
मैं वैसी फिल्में बनाता हूं जिनसे खुद को जुड़ा महसूस कर पाता हूं। फिल्ममेकिंग सीखते हुए मैंने जिस किस्म के सिनेमा को देखा और चाहा, वैसा ही बनाना भी चाहता हूं।

बड़े स्टार्स वाली फिल्में?
दोनों ही अलग हैं और दोनों होने चाहिए। उसमें कोई बुराई नहीं है। न ही स्टार्स के साथ काम करने में कोई दिक्कत है। मेरे लिए रूटेड रहना, अपनी जड़ों से जुड़े रहना सबसे जरूरी है। लेंग्वेज और रोजमर्रा की आम जिंदगी में बारीक से बारीक चीजें मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं। जो ऑब्जर्वेशन और ट्रेनिंग से आती है और लोगों को देखकर आती है।

पर पैसे कैसे कमा पाएंगे?
मेरे लिए पैसा जरूरी नहीं हैं। बस वही करता हूं जो मुझे पसंद होता है। इस फिल्म को एनएफडीसी ने प्रोड्यूस किया है और अपनी तरह की फिल्म बनाने में उन्होंने मुझे पूरी आजादी दी। और, पैसे कमाना उनके लक्ष्यों में नहीं आता। पर हां, हम इसे पंजाब में रिलीज करने की कोशिश कर रहे हैं। जो काफी सीमित जगहों पर होगी, और इससे कोई ज्यादा कमर्शियल फायदे की भी उम्मीद नहीं है।

लोकप्रिय धारा की नहीं होने के अलावा क्या आपकी फिल्म चरम आर्ट नहीं हो जाती? लोग समझेंगे कैसे?
भले ही इस फिल्म की कमर्शियल वैल्यू कम हो और इसे लोगों को आगे बढ़कर समझना पड़े, पर एनआरआई ऑडियंस को टारगेट करने के नाम पर बहुत सारा कचरा भी बन रहा है, तो उसका क्या करेंगे? फिर इस फिल्म में क्या बुराई है।

जो गांव के आम लोग थे, एक्टर नहीं थे, उनसे एक्टिंग करवाना कैसा रहा? 
नहीं, कोई दिक्कत नहीं हुई क्योंकि वो अभिनय नहीं कर रहे थे खुद को ही प्ले कर रहे थे। ये फायदा था। क्योंकि नॉन-एक्टर एक्ट नहीं कर सकते है। बाकी काम कैमरे को करना होता है। ये इमेज कैप्चर करने की बात है। टाइम की बात है। आप दो घंटे में एक दिन की कहानी भी कह सकते हैं, दस दिन की भी और दस साल की भी। सब कुछ दो घंटे में हो सकता है। तो एक्टिंग से ज्यादा आप कैसे नरेट कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं ये ज्यादा जरूरी है। और एक्टिंग कोई इश्यू नहीं है क्योंकि कोई भी एक्ट कर सकता है। ये उस किरदार के होने या बनने में है, कि आप वो हैं। फिल्म में मैंने अपने किरदारों से भी यही कहा कि आप जैसे हो वैसे ही रहो। जैसे चलते हैं, जैसे अपना लकड़ी पकडऩे का ढंग है, जैसे झुककर खड़े होते हैं, जैसी इंटेंसिटी लेकर आते हैं।
सिनेमा बड़ी इनट्यूटिव आर्ट है, बाकी सभी आर्ट से ज्यादा। जब आप ऑन सेट होते हैं तो उसी की प्रतिक्रिया देते हैं। लोगों के चेहरों, लोकेशन, कॉस्ट्यूम, टाइम को देख प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे फिल्म में एक नॉन-एक्टर थे, वह जिस तरह लाठी पकड़कर चलते थे और झुककर खड़े हो जाते थे तो मैंने कहा कि ये तो बड़ा अच्छा पोज है यही करिए। आपको ऑब्जर्व करके देखना होता है, कैरेक्टर में खासियत ढूंढनी पड़ती है जो पहले यूज नहीं हुई है। ताकि कुछ भी स्टीरियटाइप न लगे।

वर्ल्ड सिनेमा में कौन प्रेरित करता है?
बहुत से लोग। जापान के याशुजीरो ओजू हैं, रॉबर्ट ब्रेसों हैं फ्रांस के, फैलिनी है वो बहुत अच्छे लगते हैं, हालांकि उनके जैसी फिल्में तो मैं नहीं बना सकता हूं। मैं खुद को ओजू के ज्यादा करीब समझता हूं। जिस तरह से वह फैमिली लाइफ दिखाते हैं, उससे मैं खुद के सिनेमा को काफी जोड़ पाता हूं। जैसे 'अन्ने घोड़े दा दान’ में रात के आधे घंटे या उससे ज्यादा का जो वक्त है, उसमें फैमिली है और रूम में ही सब चल रहा है, आकर मिलते हैं, बैठते हैं, जाते हैं। ऐसी कई चीजें है जिनमें मैं खुद को ओजू से जुड़ा पाता हूं।

क्या आपकी कोशिश है कि जब कमर्शियल हो चुके पंजाबी सिनेमा में आर्टिस्टिक स्टैंडर्ड ले आएंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोग पंजाबी लेंग्वेज को इज्जत देने लगेंगे? सिनेमा स्टैंडर्ड जो यहां नहीं हैं वह आएंगे?
बिल्कुल। देखिए, स्टैंडर्ड बहुत बड़ी चीज है। मैंने फिल्में देखी हैं चीन से, ईरान से, जापान से। मैंने यहां का कोई लिट्रेचर नहीं पढ़ा हुआ। इन जगहों में कोई समानता नहीं हैं, पर एक रिस्पेक्ट है। मसलन, ईरान में मीडिया सिर्फ इस्लामिक फंडामैंटलिज्म की बात करता है, यू.एस. कॉन्फिल्क्ट की बात करता है, लोगों की तो वहां का मीडिया बात ही नहीं करता। पर उन लोगों की नॉर्मल जिंदगी कैसी है, चिंताएं कैसी हैं, वह सब तो हमारे जैसी ही हैं। ये सब चीजें तो सिनेमा दिखा सकता है, उस खूबसूरती को। तो मुझे ऐसे लगता है कि मैंने ईरान की गलियां तो देखी हुई हैं, चीन के गांव देखे हुए हैं, पर पंजाब के गांव आज तक नहीं देखे। वो तो सिर्फ एक अंदाजा है कि सरसों के खेत हैं और लोग नाच रहे हैं। तो ये कोई पंजाब थोड़े ही है। पंजाब में आपको कितने सरसों के खेत मिलते हैं? कितने लोग नाचते हुए दिखते हैं?

आपकी फिल्म में ऐसे बहुत से बारीक बिंदु हैं जहां लोग ह्यूमर ढूंढ लेते हैं और हंसते भी हैं। आपने जब बनाया था तो क्या चाह रहे थे कि लोग फिल्म के किरदारों के दुख-दर्द को समझें या उनपर हंसे तो भी चलेगा?
मैं काफी सरप्राइज हुआ कि लोग हंस रहे थे। पर ठीक है, इतना बुरा नहीं लगा। क्योंकि जो बारीकियां हैं वो लोग समझते हैं। बाहर (विदेशों में) लोग नहीं हंसते, पर यहां हंसे। इसमें इतना कुछ था भी नहीं कॉमिक।

फिल्म में एक कुत्ता होता है, एक उल्लू होता है और एक बकरी का पैर दूध के जग में चला जाता है। तीनों आपने करवाए या यूं ही हो गए?
उल्लू तो यूं ही मिल गया। जहां हम शूट कर रहे थे तो वहां पर किसी बच्चे ने आकर कहा कि वहां पर एक उल्लू है, आप उसका फोटो ले लीजिए। तो मैंने जाकर देखा वहां एक उल्लू बैठा हुआ था। मैंने ले लिया, कि देखते हैं कहां यूज होता है। कुत्ता तो हां, हमने रखा था। बाकी इन चीजों की आप योजना नहीं बना सकते हैं, ये तो शूटिंग के दौरान के वाकये होते हैं। यूं ही हो जाते हैं। कुछ अच्छे होते हैं जो काम आते हैं, कुछ आप यूज नहीं कर सकते। पर ये जो एक्सीडेंट होते हैं ये चूंकि प्लैन्ड नहीं होते इसलिए फ्रैश और खूबसूरत होते हैं। इसलिए मैं बहुत ज्यादा प्लैनिंग नहीं करता।

कितने एमएम पर शूट की?
35एमएम पर।

कितने दिन में?
45 दिन में शूटिंग पूरी कर ली थी।

कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्ट में आपकी फिल्म जाकर आई है, रिस्पॉन्स कैसा रहा?
फिल्म दिखने में कैसी है लोग इसपर प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे कुछ लोगों को हॉन्गकॉन्ग में अच्छी नहीं लगी। एक ज्यूरी मेंबर ने कहा कि उन्हें फिल्म बिल्कुल भी समझ नहीं आई और उन्होंने उसे आउटस्टैंडिंग रिमार्क नहीं दिए। वो समझ नहीं पाए कि क्या हो रहा है, क्योंकि बहुत से कल्चरल रेफरेंस होते हैं। तो ठीक है अगर आपके सिर के ऊपर से फिल्म जाती है तो। पर ये आगे बढ़कर समझने की बात है। फिल्ममेकर कैप्स्यूल की तरह कहानी स्पष्ट करके लोगों के लिए आसान कर देते हैं कि उन्हें समझ आए। पर मैंने ऐसा नहीं किया। चाहे इंडियन ऑडियंस के लिए या बाहर की ऑडियंस के लिए।

आपको ये नहीं लगता कि ज्यादा आर्टिस्टिक होने की एक खामी ये हो जाती है कि दर्शक बहुत कम और सीमित हो जाते हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है। अब ऐसा तो नहीं है कि फिल्म को हमने सिर्फ आज के लिए ही बनाया है। ऐसा तो है नहीं कि फिल्म एक हफ्ता या दस दिन के लिए बनी है। कोई प्रॉडक्ट या टीवी प्रोग्रैम तो है नहीं कि इतने दिन चला और बंद हो गया। मैं तो चाहता हूं कि आने वाले पचास साल तक लोग इस फिल्म को देखें। और किस तरह देखेंगे ये एक अलग नजरिया होगा। एक ही आर्ट होता है और उसे पचास तरह से देखा जाता है। जैसे हम आज कुरोसावा की फिल्में देखते हैं। मुझे आज वो इतनी प्रभावी नहीं लगती जितनी पहले लगती थी। क्योंकि उसके बाद भी बहुत कुछ हो चुका है। तो सोचिए कि पचास साल में कितने लोग जुड़ जाते हैं। मैं इस तरह से सोचता हूं।

आगे भी फिल्में पंजाबी में ही बनाएंगे या हिंदी-इंग्लिश में भी?
पंजाबी में ही।

हमेशा?
वो तो नहीं पता पर अगली दो-तीन स्क्रिप्ट तो पंजाबी में ही हैं। जैसे, एक फिल्म पंजाबी और जर्मन में बना रहा हूं। कहानी माइग्रेशन पर है, ऐसे इंसान की जो पंजाब से जर्मनी में माइग्रेट कर रहा है। फिल्म के लिए प्रोड्यूसर अब ढूंढना शुरू करूंगा। एक 1984 की कहानी है, उसके लिए भी उम्मीद है कि फंड मिल जाएंगे और इस साल के आखिर तक शूट कर लूंगा। अभी फिल्म फेस्ट में जा रहा हूं, उसके बाद बर्लिन जाऊंगा ताकि अपनी फिल्म पर रिसर्च कर सकूं।

                             अन्ने घोड़े दा दान का ट्रेलर
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गजेंद्र सिंह भाटी