शुक्रवार, 4 मई 2012

नन्ही फिल्म ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ को बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कारः बातचीत सृजन करने वाले नौजवान अभय कुमार से

 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार गुरुवार को दिए गए। शॉर्ट फिल्म ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ को उसके बेस्ट नरेशन और वॉयसओवर के लिए भी बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिला है। पुरस्कार ग्रहण किया योग्य एन अब्राहम ने। मिलते हैं फिल्म की संकल्पना करने वाले और उसे बनाने वाले अभय से...


मेरा घर,उड़ान, द एंड और जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे अभय की बनाई कुछेक शॉर्ट फिल्में हैं। इन्हें यूट्यूब पर देखा जा सकता है। 26 साल के अभय फिल्में रैंडम यानी बेतरतीब तरीके से बनाते हैं। कागज पर खाका बनाकर या स्क्रिप्ट लिखकर काम नहीं करते। जब मन में आए कैमरा उठाकर निकल पड़ते हैं, शूट कर लेते हैं और उसके बाद सोचते हैं कि क्या बनाना है। मुझे उन्होंने अपने काम करने के तरीके के बारे में कुछ ऐसे ही बताया था। यह कुछ महीने पहले की ही बात है जब उनकी इस फिल्म ने न्यू यॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में दुनिया भर की फिल्मों को हराकर बेस्ट शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार जीता था। इससे पहले उनकी ये 13 मिनट की अनूठी हाइब्रिड फिल्म रॉटरडैम, रोजेनबर्ग, ट्रिबैका, गल्फ और बूसान फिल्म फेस्ट में जाकर आई थी। इसका प्रोमो देखने या जानने के इच्छुक यहां क्लिक कर सकते हैः

The imdb page: www.imdb.com/title/tt1733710
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तो, उस दौरान ही अभय से बात हुई थी। तमाम असंभावनाओं के बीच वह लगे हुए थे, जायज सवाल और जायज गुस्सा भी उनमें था, पर संयमित। फिलहाल वह अपने नए प्रोजेक्ट मे व्यस्त हैं। कुछ नया कर रहे हैं और सार्थक भी, आशा है कि वह इसमें सफल होंगे और मन का कर पाएंगे। प्रस्तुत है उनसे तब हुई बातचीत के कुछ अंशः
 अपने बारे में?
मेरे पापा सिविल सर्वेंट हैं। चंडीगढ़ में ही पैदा हुआ। वहीं सेक्टर-7 में घर है। सेंट जोन्स स्कूल में पढ़ाई हुई। डीएवी कॉलेज से प्लस टू किया। फिर दिल्ली से मॉस कम्युनिकेशन की पढ़ाई की। घर में एक भाई है जो एम्स, दिल्ली में है। पापा की पोस्टिंग लुधियाना हो गई। मैं 2007 में बॉम्बे आ गया। तब से कुछेक फिल्ममेकर्स को असिस्ट कर चुका हूं। उनमें से एक थे अमोल पालेकर। उनके साथ काम किया। फिर मुंबई में रहते हुए अपने मन की फिल्में बनाने की कोशिश और जर्नी शुरू हुई। हाथ के हाथ पैसे भी बनाने थे तो ऐड फिल्में करने लगा। शॉर्ट फिल्म बनाने में उतना वक्त नहीं लगता, पर चूंकि ये नया मीडियम था तो लगा। अभी भी विज्ञापन फिल्में कर लेता हूं, कॉलेज वीडियो बना देता हूं, इधर-उधर फ्रीलांस कर लेता हूं। फैमिली भी कुछ परेशान रहती है, मां कहती है कि सिक्योरिटी नहीं है, ये काम छोड़ दो।

आइडिया कैसे आया हाइब्रिड फिल्म बनाने का?
हाइब्रिड मीडियम भारत में अभी तक किसी ने नहीं किया है। एक्सीडेंटली हमने कर लिया। मैं और मेरी टीम के दिमाग में आया। उस पर भी हम लोग एनिमेटर नहीं हैं। हमने एनिमेशन को रियल लाइफ में शूट नहीं किया है। हर फ्रेम हाथ से बनाया है। फिर दस साल में मीडियम इवॉल्व होता गया। ‘जस्ट दैट सॉर्ट ऑफ अ डे’ जब इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में घूमने लगी तो पहली ऐसी इंडियन फिल्म हो गई जिसे एनिमेशन कैटेगरी में पुकारा जाने लगा। वह ऑफिशियली एनिमेशन फिल्म कही जाने लगी, जबकि हमें एनिमेशन आता भी नहीं है।

फिल्म को प्रोमो में गोविंद निहलाणी, शेखर कपूर, अमोल गुप्ते, शिवाजी चंद्रभूषण, राजकुमार गुप्ता, तनूजा चंद्रा और रजत कपूर जैसों ने खूब सराहा है, यह कैसे हुआ?
हमने सब बड़े फिल्ममेकर्स को डीवीडी भेजी और उनसे उनका छोटा सा रिव्यू मांगा। उन्होंने भेजा भी। ये इसलिए किया क्योंकि आम जनता को फिल्म सीधे दिखाएंगे तो उन्हें जिज्ञासा नहीं होगी। अगर इतने बड़े लोग देखें और अपनी राय के रूप में कुछ कहें तो उसका असर पड़ता है।

फिल्म फेस्ट में पहली बार गए हैं?
नहीं, मैंने पहले भी शॉर्ट फिल्में बनाई हैं। मामी फिल्म फेस्ट पिछले दो साल से जीत रहा हूं। ‘उड़ान’ नाम की मेरी जो फिल्म थी उस पर कॉन्ट्रोवर्सी भी हुई थी, दरअसल मैंने एक सम्मानित यंग डायरेक्टर को भी इसकी डीवीडी दी थी, उनकी तरफ से आगे कोई रिएक्शन नहीं आया, मगर कुछ वक्त में उनकी खुद की एक फिल्म आ गई, जो क्रिटिकली बहुत ज्यादा सराही गई, जिसकी कहानी पूरी तरह मेरी बनाई शॉर्ट फिल्म ‘उड़ान’ से प्रेरित थी। पर मैं विवादों में नहीं पड़ना चाहता इसलिए कुछ ज्यादा कहता नहीं हूं।

स्ट्रगल, और किसी को असिस्ट करने के बीच लाइफ कैसी है?
स्ट्रगल तो करना पड़ता है, करना पड़ेगा। लगता है कि बॉम्बे जाओ और किसी को असिस्ट करो, पर मैंने ऐसा नहीं किया। मुझे असिस्ट करना अच्छा नहीं लगा। अपना तरीका है। जहां तक लाइफ का सवाल है तो वह अचानक से नहीं बदली है। जैसे-जैसे लोगों ने मेरा काम देखा है, उनकी मेरे आने वाले काम को लेकर उम्मीदें बढ़ गई हैं। मगर मैं अब भी जूझता हूं। मन में आता रहता है कि क्या बॉम्बे छोड़ दूं, ऐसे अनेकों ख्यालों से जूझता रहता हूं। घर ढूंढना है, उसका किराया देना है, ये सब उफनता रहता है जेहन में।

तो निकट भविष्य में क्या करना है?
अभी तो काफी टाइम से शॉर्ट फिल्मों पर ही काम कर रहा हूं। अगला कदम ये होगा कि वेबसाइट बनाना चाहता हूं। ताकि लोगों से जुड़ पाऊं। पिछले दो साल में काफी लोगों ने मेरे काम को देखा है, पर मेरे बारे में वो नहीं जानते, लेकिन जानना चाहते हैं। तो इससे वो काम सधेगा। ‘जस्ट दैट...’ को मैंने 2000 से भी कम रुपये में बनाया है। आगे भी हम कम बजट में अच्छी विषय-वस्तु बनाना चाहते हैं। फिर सोचता हूं कि आखिरकार लंबी फीचर फिल्म बनाऊंगा। लेकिन लगता नहीं कि इंडिया में मेरे आइडिया पर कोई प्रोड्यूसर पैसा लगाएगा। मैं तो चाहता हूं कि आज ही फीचर पर काम शुरू कर दूं।

बचपन-जवानी के दोस्त क्या कहते हैं, कि ‘यार तू तो फिल्में बनाने लग गया’?
आधे से ज्यादा मेरे लुधियाना और चंडीगढ़ वाले दोस्तों को तो पता भी नहीं कि मैं क्या कर रहा हूं। एमएनसी में काम कर रहे हैं। कुछ अखबार में पढ़ते हैं जैसे हाल ही में ‘द हिंदू’ में एक आर्टिकल आया था। तो जब पढ़ते हैं तो सरप्राइज होते हैं।

आपकी टीम में कौन-कौन हैं और काम कैसे करते हैं?
तीन लोग हैं हम। मैं, मेरी असोसिएट डायरेक्टर अर्चना और म्यूजिक संभालने वाला शेन मेंडोसा। हमारी टीम इसी फिल्म से बनी। एक्टिंग तो मैं कर ही लेता हूं। कभी जल्दी शूट करना होता है तो एक्टर ढूंढना बड़ी प्रॉब्लम हो जाती है, इसलिए। फिल्म हैंडीकेम में शूट की है। काम चलता रहता है। फॉन्ट इक्विपमेंट नहीं हो तो भी, ऑडियो इक्विपमेंट नहीं हो तो भी है, लाइट न हो तो भी।

‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ हो या आपकी पुरानी शॉर्ट फिल्म ‘द एंड’, सभी में एब्सट्रैक्ट बातें बहुत होती हैं, क्या फिल्मों की रुचि भी आपकी वैसी ही है?
मेरी फिल्म बहुत कॉम्पलिकेटेड हो सकती है, पर दूसरों की देखता हूं तो सिंपली देखता है। हमारी जेनरेशन की प्रॉब्लम रही है कि हॉलीवुड देखकर बड़े हुए हैं।

आपकी फिल्मों को प्रतिक्रियाएं कैसी मिली हैं?
मुझे लगता है कि मेरा काम अप्रीशिएट नहीं किया गया। न्यू यॉर्क गया, यूरोप गया। पर यहां आया तो वही दिक्कत, सिस्टम से लड़ना। ‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ रिजेक्ट हो रही है, क्यों, नहीं पता।

हाल ही में कई बड़े बजट वाली बुरी बनी फिल्में आईं, जिनपर 40 से 80 करोड़ रुपये तक खर्च हुए, पर दर्शकों के लिए उनमें देखने को कुछ नहीं था। दूसरी ओर आप जैसे नए लड़के हैं जो नगण्य संसाधनों में फिल्में बना रहे हैं और दुनिया उस काम को सराह रही है।
जैसे, ‘डबल धमाल’ आती है। अनीस बज्मी की फिल्में तो लगता है कि ...मेरे मन में कुछ हो नहीं पाता है। मतलब, मैं सोच भी नहीं पाता हूं कि ये फिल्में बन भी कैसे जाती हैं। कोरियन या जापानी या थाई इंडस्ट्री को लीजिए। छोटे देश हैं पर उनकी बहुत रिस्पेक्ट और पहचान है। हमारी पहचान क्या बनी हुई है कि साहब, बॉलीवुड मतलब सॉन्ग और डांस। हमारे रीजनल सिनेमा में कमाल की फिल्में बन रही है, मसलन मराठी में।

मुंबई में कोई ग्रुप बना है?
नेटवर्किंग तो मैं कर ही नहीं पाता हूं। मुंबई में ले दे कर दो लोगों को जानता हूं, मेरी टीम के। वैसे अनुराग कश्यप से मिला था। उन्होंने कहा कि जरूरत हो तो बताना। विक्रमादित्य (मोटवाणी) से दोस्ती हुई।

क्या हो कि नए लड़कों या इंडिपेंडेंट फिल्मकारों को मदद हो जाए?
मेरे सिर्फ कूरियर-कूरियर का खर्चा एक लाख पड़ गया, ‘जस्ट दैट सॉर्ट...’ के दौरान। कूरियर और टेप्स जैसी फालतू चीजों में इतने रुपए लगा दिए। फिल्म मैंने दो हजार रुपए में बनाई। सोचिए एक लाख जोड़कर बनाता तो मैं कितनी अच्छी फिल्म बना लेता। बाहर के फिल्म फेस्ट में गया तो लोगों से मैंने पूछा, उन्होंने बताया कि उनके मुल्कों में फिल्म कॉरपोरेशन होती हैं। प्रोजेक्ट अच्छा होता है तो अच्छा खासा फंड देती हैं। अस्सी फीसदी ऊर्जा तो सिस्टम से लड़ने में चली जाती है। पूरी एनर्जी सिर्फ फिल्मों में लगा पाएं तो बहुत अच्छा परफॉर्म कर सकते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी