फिल्मः विकी डोनर
निर्देशकः शुजित सरकार
कास्टः आयुष्मान खुराना, यामी गौतम, कमलेश गिल, डॉली अहलुवालिया, जतिन दास, अन्नू कपूर
स्टारः साढ़े तीन, 3.5
आमतौर पर बड़ी दिक्कत होती है। ऐसी फिल्मों के पहले और बाद में। पहले इनके प्रोमो कुछ-कुछ क्लीशे से लगते हैं। कि, कहीं वही पंजाबी एक्सेंट तो नहीं होगा? पटकथा लचर तो नहीं होगी? इतना एडल्ट मुद्दा कहीं हिट करवाने के शॉर्टकट के तौर पर तो नहीं चुन लिया गया है? ऐसे एडल्ट मुद्दे को गरिमामय ढंग से फिल्म में तब्दील किया जाएगा? क्योंकि यकीन मानिए बड़ी ‘गोलमाल’, ‘रास्कल्स’ और ‘क्या कूल हैं हम’ (अब क्या सुपरकूल हैं हम) झेली हैं। और, जब ये फिल्म आ जाती है, दिलों में बस जाती है तो दिक्कत ये होती है कि इसे शब्दों में बांधकर क्यों कम करें? क्योंकि ‘विकी डोनर’ जैसी फिल्म बस देखने और उस देखने की खुशी महसूस करने के लिए ही होती हैं। पर बात करनी तो पड़ेगी ही।
सबसे पहले फिल्म को टीवी, डीवीडी या थियेटर में देखने जा रहे लोगों के लिए।
‘विकी डोनर’ जोरदार फिल्म है। किसी भी वक्त मन को हल्का करने के लिए देखी जा सकने वाली फिल्म। दुनियावी तनावों से आपका ध्यान बंटाएगी। आप घरेलू परेशानियों को भूल जाएंगे। फिल्म खत्म होने पर ये भावना भी नहीं आती कि हम किस दुनिया में लौट आए। कि ये फिल्मी दुनिया महज तीन घंटे की ही क्यों होती है (इस जमाने में तो बस दो घंटे की ही होती है)। मैं आश्वस्त हूं ऐसे बहुत से बच्चे या युवा रहे होंगे जिन्होंने ‘कोई मिल गया’ देखी होगी। उन्होंने खुद को इस दुनिया में रोहित मेहरा (ऋतिक) सा कमजोर और सताया गया महसूस किया होगा। फिर कहानी में नीला जादू आता है (‘ई.टी.’ और ‘क्लोज्ड एनकाउंटर्स ऑफ द थर्ड काइंड’ की बदौलत निर्देशक राकेश रोशन लाने की सोचते हैं), वह आता है और अपनी परलौकिक शक्तियों से रोहित को एक छोटे से बच्चे वाले दिमाग से अतिचतुर और ह्रष्ट-पुष्ट बना देता है। फिर नीली कमीज और लाल पेंट पहने रोहित को सुबह अपने घर से निकलते देख बाल मन मोहित हो जाता है। क्लब में नाचने की चुनौती का जवाब देते हुए रोहित गाता है...
कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
परदे के गिरते ही
परदे के उठते ही
बदला नहीं जो
बदल सकता है
ये कि, कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
इट्स मैजिक...
इब्राहीम अश्क के लिखे इन बोलों में तमाम सिनेमाविधि, विधान और सम्मोहन का सार है। बात हर किसी के कच्चे, और कच्चे से पक्के हो जाने की भी है, जो रोहित होता है, हमारी फिल्मों के तमाम हीरो लोग होते हैं, कच्चे से पक्के। और, जो कुछ भी होता है सब खेल ही है। बात परदे पर आती है। जो कभी हमारी जिंदगियों (‘टैरी’ की तरह) में नहीं बदला वो सिनेमा का परदा उठते ही बदल जाता है। इट्स मैजिक। मैजिक की बदौलत खूबसूरत निशा (प्रीति जिंटा) को प्रभावित करने का सुख पाते हुए रोहित जो नाचता है कि सम्मोहित मन वाले दर्शकों का जीवन नरक हो जाता है, थियेटर से बाहर निकलते ही। कि यार जिदंगी बेकार है, कहीं जाकर मर जाएं तो ठीक रहे। काश, हम भी रोहित की तरह नाच पाते। काश मैं भी रोहित की तरह छह फुटा होता, मेरे भी डोले ऐसे होते, मेरी भी बॉडी ऐसी होती, मुझमें भी शक्तियां होती और मैं रोहित (सब-कॉन्शियस माइंड में ऋतिक रोशन जैसा डांस) की तरह नाच पाता।
यकीन जानिए आप हर ‘कोई मिल गया’, ‘कृष’, ‘वॉन्टेड’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मिशन इम्पॉसिबल’ और ‘द अवेंजर्स’ से बाहर निकलते हुए यही सोचते हैं। काश, मैं भी ऐसा हो पाता। थियेटर की पार्किंग में पहुंचते हुए जब ये यकीन हो जाता है कि वो सपनीली दुनिया तो तीन घंटे ही चली और अब हम पथरीले रोजमर्रा के धरातल पर हैं, जहां सिर्फ महंगाई-चुनौतियां-दुश्वारियां-हतोत्साहन-पिटाई-गुंडागर्दी और निराशा है, तो मस्तिष्क की अखरोट सरीखी गलियों में तेजाब सा ज्वारभाटा उबलता है। एक आम इंसान और आम बच्चा और एक आम युवा होते हुए फिल्मी जीवन की तरह खुद को बदल न पाना, खास न हो पाना, ये कष्ट देता है।
उसी दौर में पिछले साल ‘दो दूनी चार’ आई थी, इस साल ‘विकी डोनर’ आई है। आप इन फिल्मों को देखकर निकलते हैं तो मनोरंजन वाली जरूरतें भी पूरी हो चुकी होती हैं और मस्तिष्क को तेजाबी ज्वारभाटा भी नहीं जलाता। सिनेमा में इससे राहत की बात कोई दूजी नहीं हो सकती। सिनेमा की इतनी खुशी की बात दूजी नहीं हो सकती। ये राहत और खुशी देती है ‘विकी डोनर’।
हम बात कर रहे थे फिल्म देखने जा रहे आप लोगों के लिए।
परिवार और बच्चों के साथ बैठकर देखने में आयुवर्ग के लिहाज से क्या आपत्ति हो सकती है स्पष्ट कर दूं। फिल्म में एक दो किसिंग सीन है। लिपलॉक, जो लिपलॉक जैसे हैं नहीं। हमारी फिल्मों और फिल्मकारों को स्टार मूवीज और ‘बोल्ड एंड द ब्यूटिफुल’ ने भारत रहते ही होठ से होठ मिलाने की जो आधुनिकता दी है, उसे सनसनी के इतर साधारण ढंग से ‘विकी डोनर’ में पिरोया देख व्यस्क खुश हो सकते हैं। परिवार के साथ बैठे सदस्यगण असहज होने लगेंगे, पर जब तक शर्म से मुंह लाल होने को होगा फिल्म आगे बढ़ चुकी होगी।
आगे स्पर्म यानी शुक्राणुओं और बच्चा पैदा करने वाली कुछ व्यस्क बातें हैं, जो युवाओं को सबसे ज्यादा समझ आएंगी। यानी युवाओं को सबसे ज्यादा हंसी आएगी, भई शुक्राणुओं की उम्र में उन्होंने अभी-अभी प्रवेश ही किया है। अब कमाई करते हैं, मल्टीप्लेक्स में जाना भी उनके हाथ है, और महानगरों में तो वीकेंड में मल्टीप्लेक्स जाकर नौ सौ-हजार रुपये टिकिट-पॉपकॉर्न-नाचौज-पेप्सी-बर्गर के कॉम्बो पर खर्च करना तो प्रथा बन गई है (ऐसी प्रथाएं जिन्हें तोड़ने के लिए अगली से अगली पीढ़ी के युवाओं को न जाने कितने पिंक-रेड-यैलो रेवोल्यूशन करने पड़ेंगे), इसलिए स्पर्म वाले जुमलों पर अपने पार्टनर के साथ फिल्म देखते हुए जोड़ों को खूब हंसी आएगी। हां, बच्चे जरूर शून्य महसूस करेंगे। पर बच्चों को भी मौजूदा मनोरंजन और मीडिया ने कम उम्र में ही एडल्ट कर दिया है, वे सब समझने लगे हैं। बाकी जो मध्यमवर्गीय दर्शकगण हैं, जिनमें साड़ी पहने भाभियां हैं, प्लेट वाली पेंट और चैक की शर्ट पहने भाईसाहब हैं, उनके छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां हैं.. या मध्यमवर्गीय युवा हैं... ‘विकी डोनर’ के जुमलों पर उनके मुंह से हॉ... की आवाज भी निकलेगी ही।
फिल्म में 'फु**’, 'चेंप’, ‘भेन दा पकोड़ा’ और 'मेरी तो ले के रख ली आपने’ जैसे जुमले हैं, जो हंसाते हैं। हालांकि कई शब्द मर्यादित नहीं हैं, पर फिल्म में संदर्भ और हाव-भाव इतने प्राकृतिक है कि आलोचना करनी नहीं बनती। ‘विकी डोनर’ देखने वालों में शायद ही कोई होगा जो अपने दोस्त या साथी से इंटेलिजेंट स्पर्म, नॉटी स्पर्म, ग्रीडी स्पर्म और सैड स्पर्म जैसी बातें बोल हंस नहीं रहा होगा।
हालांकि मुझे 'तू आर्यन रेस है’ वाला डायलॉग अच्छा नहीं लगा। क्योंकि, ये हिंदोस्तान में नस्लों की श्रेष्ठता वाली बहस में कुछ लोगों को चुभता है और कुछ को झूठा गर्वीला अहसास देता है। पर हम आगे बढ़ते हैं।
संक्षेप में फिल्म की कहानी जानते हैं। दिल्ली में लाजपत नगर की रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले बेफिक्र लड़के विकी अरोड़ा (आयुष्मान) की कहानी है। घर में डॉली ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कम उम्र में ही विधवा हो गई मां डॉली अरोड़ा (डॉली अहलुवालिया) हैं और दुनिया की सबसे प्यारी बीजी (कमलेश गिल)। विकी पर डॉ. बलदेव चड्ढा (अन्नू कपूर) नाम के फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट की नजर पड़ती है। जिन्हें अपने पेशंट्स के लिए सक्सेसफुल काउंट वाले स्पर्म चाहिए। विकी में उन्हें उम्मीदें नजर आती हैं। विकी, तमाम ना-नुकुर के बाद डोनर बन भी जाता है, पर दुनिया से छिपाकर। उसकी जिंदगी में बैंक में काम करने वाली बंगाली लड़की आशिमा रॉय (यामी) आती है। मगर उससे ये राज छिपाना ही शायद आगे उन दोनों के रिश्ते को बिगाड़ जाता है।
‘विकी डोनर’ की एक छोटी सी महानता ये भी है कि यह स्पर्म डोनेशन के प्रति लोगों को जागरुक करती है। बड़ी ही आसानी से फिल्म राह भटक सकती थी, पर नहीं भटकती, सस्ती और ओछी नहीं होती, अपनी ही नजरों में नहीं गिरती। ये जागरुक करती है। एक महानता से पेट नहीं भरता तो दूसरी महानता के रूप में फिल्म का संदेश बच्चा गोद लेने का होता है। जिन निस्संतान और बंजर दंपतियों को विकल्प नहीं मिलता उन्हें फिल्म ऐसा आदर्श और व्यावहारिक समाज दिखाती है जहां स्पर्म डोनेशन की राह में जाने की बजाय बिन मां-बाप के बच्चों को गोद लिया जा सकता है। तो बच्चा अडॉप्ट करने का संदेश भी है।
चंडीगढ़ के आयुष्मान खुराना ‘रोडीज-2’ के ऑडिशन में 2004 में नजर आए। वह सीजन उन्होंने जीता भी। अपने डिंपल पड़ते गालों के साथ एमटीवी पर वीजेइंग करने लगे। बाद में टीवी के बड़े-बड़े कार्यक्रमों में इन्होंने अपनी एंकरिंग क्षमताओं और बेदाग उच्चारण से चौंकाया। हर बार वह माइक लेकर ‘म्यूजिक का महामुकाबला’ (साथ में ‘जस्ट डांस’, ‘इंडियाज गॉट टैलेंट’ और ‘एक्स्ट्रा इनिंग्स’ जैसे शो भी) जैसे शो में उतरे तो गायकों की बराबरी का तेज उनकी प्रस्तुति में था। उनमें कुछ था। पर जानते हैं, फिल्मों में सफल होने, न होने का फैसला आंखों की चमक से हर बार नहीं होता।
‘विकी डोनर’ में पहले ही सीन में जब विकी को उसकी मां डॉली छत पर बने उसके कमरे में जगाने आती हैं (बाहर धूप में बैठी विकी की बीजी को मत भूलिएगा) तो देखती हैं कि टीवी चोरी हो चुका है और विकी सो रहा है। अपने किरदार को सुगाढ्य करते हुए डॉली लाजपत नगर की डॉली ब्यूटी पार्लर वाली डॉली और विकी की मां (कम उम्र में विधवा हो चुकीं) मिसेज अरोड़ा बन जाती हैं। उनकी आवाज, अदा, अंदाज और किरदार के अध्ययन में गजब की ऊष्मा है। ऐसा ही कमलेश गिल ने अपने किरदार के साथ भी किया है। खैर, इस सीन में विकी को वह जगाती हैं, कुछ शोर मचाती हैं, विकी बने आयुष्मान उठते हैं, छत के ऊपर और दीवार से नीचे झांककर देखते हैं, “देख लो आपकी बेकार साड़ियों के सहारे कूदकर भाग गया, फिर भी मुझे बोल रहे हो” (अक्षरश नहीं)। वह अपनी लगातार बड़बड़ा-चिल्ला रही मां को जवाब देते हुए इधर-ऊधर देख रहे हैं और ऊधर दादी बनी कमलेश गिल (दिल्ली की शानदार थियेटर एक्टर, भगवान उन्हें लंबी उम्र बख्शे) अपने पोते का पक्ष ले रही हैं। अब इस सीन में देखिए। पहला तो आयुष्मान, डॉली और कमलेश का तालमेल कमाल का है। सीन की गति बनी रहती है, वह भी विशुद्ध यथार्थ के साथ। बाद में मां का बड़बड़ाना सुनने से ऊबा विकी उनका कुत्ता लेकर सीढ़ियां उतर जाने लगता है। मां डॉली की टोन तुरंत बदल जाती है, “अरे, इसे कहां ले जा रहा है, तू वापिस आजा, सुन तो सही”। फिर जब वह चला जाता है तो शायद ये कहना कि “मुझे मेरा टीवी चाहिए बस मैं कुछ नहीं जानती”। तब तक दादी अपनी बहू को साथ के साथ कोस चुकी होती हैं (सहनीय कोसना) जब डॉली सीढ़ियां उतरने लगती हैं तो दादी कहती है “सुन तो मुझे एक चाय तो बना दे”।
.... अब आप क्या कहेंगे, इस सीन के बारे में। हिमाचल मूल की और विज्ञापन जगत की पृष्ठभूमि वाली जूही चतुर्वेदी फिल्म की जुबान हैं। उन्होंने ही कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। फिल्म की कहानी जिस दिल्ली के लाजपत नगर में बसी है, जूही काफी वक्त वहीं रही है। ऐसी ही डॉलियों, दादियों और विकियों के बीच। किसी भी लहजे और हाल में ‘विकी डोनर’ की आत्मा बनी पटकथा का श्रेय जूही के अलावा किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता। स्पर्म डोनेशन को और बच्चा गोद लेने को संदेश बना देना, रात में डॉली और उनकी सास के दारू पीते हुए अत्यधिक रोचक सीन गढ़ देना, विकी और आशिमा के परिवारवालों के बीच पंजू (पंजाबी) और बॉन्ग (बंगाली) को लेकर इतने कलाकारी भरे हिलाने वाले लेकिन मजाकिया हालात पैदा कर देना, बंगालियों से भंगड़ा करवा देना... ये सब जूही चतुर्वेदी की समझ से आया। वो ही लाईं। यहां तक कि एक छोटी सी चीज है। विकी और आशिमा चैट कर रहे हैं। विकी उसे ‘फिश’ लिखता है तो आशिमा का जवाब आता है ‘बटर चिकन’। एक-दूसरे को दिए इन नामों से दोनों के बंगाली-पंजाबी बैकग्राउंड तो पता चलते ही हैं, बल्कि संबोधनों के पुराने ढर्रे में भी ताजगी आती है।
एक और सीन में जूही की लेखनी की कल्पना करते हुए गौर कीजिए। आशिमा अपने घर आ चुकी है, विकी की शक्ल भी नहीं देखना चाहती। उसके पिता के रोल में (मरहूम महान उत्पल दत्त की याद दिलाते अनेकों-अनेक तारीफों के हकदार) एक्टर जयंत दास पहले तो कहते हैं कि “तुम इतनी आधुनिक होकर इन बातों को इश्यू बना रही हो कि विकी कभी स्पर्म डोनेशन किया करता था”। कुछ सीन बाद वह एक बार फिर अपनी बेटी से कहते हैं, “तुम विकी से इसलिए नाराज हो कि उसने तुम्हें बताया नहीं कि वह स्पर्म डोनेशन करता था, या इसलिए कि तुम कभी मां नहीं बन सकती लेकिन वह पिता बन सकता है”।
देखिए, कितने रंग साथ घुल रहे हैं। इसी से फिल्म कमाल हो रही है। जूही के संवाद और स्थितियां हैं, जयंत दास - डॉली अहलुवालिया – आयुष्मान – कमलेश गिल – अन्नू कपूर – यामी का सहज अभिनय है और शुजित सरकार की दृष्टिकोण है। किरदारों की रंगत और रुख क्या रहना है, उनका निर्देशन बखूबी तय कर रहा है। 2004 में आई अपनी फिल्म ‘यहां’ के निर्देशन में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह एक अच्छी फिल्म थी, बस लोगों के दिलों तक पहुंच नहीं पाई। मगर ‘विकी डोनर’ के साथ शुजित को इंसाफ मिल गया है।
लंबे अरसे से फिल्मों में डॉली, जयंत और कमलेश गिल जैसे अदाकार और उन से किरदार नहीं आए थे। ‘विकी डोनर’ के साथ आए और तृप्ति दे गए। इसमें डॉ. चड्ढा की भूमिका में अन्नू कपूर को नहीं भूला जा सकता। उनके किरदार जैसे किरदार तो बहुत आए हैं, पर उनकी तरह निभाए किसी ने नहीं है। मैं शर्त लगाता हूं उनकी तरह कोई ‘भेन दा पकोड़ा’ या ‘भेन दा परौंठा’ कहकर दिखा दे। कोई स्पर्म के आगे अलग-अलग मूड के साथ इंटेलिजेंट, नॉटी, कन्फ्यूज्ड और अलग-अलग अलंकार लगाकर दिखा दे, कोई उनकी तरह “ये तो ऋषि मुनियों के टाइम से चला आ रहा है, पहले के जमाने में औरतों के बच्चे नहीं होते थे तो वो बाबाओं के पास जाती थी, बाबा बच्चे नहीं, बाबा ने कुछ नी करना, .... (हाथ से इशारे बनाते हुए).. लो हो गया..”। अन्नू कपूर को परदे पर देखना हमेशा आनंद होता है। भले ही ‘जमाई राजा’ में पल्टू के रोल में या ‘मिस्टर इंडिया’ में एडिटर गायतोंडे बने हुए... दर्जनों शानदार रोल ऐसे हैं जिनमें वह मुख्य किरदारों के बराबर खड़े दिखते हैं। ‘गर्दिश’ में भीख मांगने को बिजनेस बनाने वाले मनीषभाई हरीशभाई को क्यों भूलते हैं।
‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस साल की दूसरी सबसे उत्कृष्ट प्यारी सी फिल्म है ‘विकी डोनर’। जरूर देखें।
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गजेंद्र सिंह भाटी
निर्देशकः शुजित सरकार
कास्टः आयुष्मान खुराना, यामी गौतम, कमलेश गिल, डॉली अहलुवालिया, जतिन दास, अन्नू कपूर
स्टारः साढ़े तीन, 3.5
आमतौर पर बड़ी दिक्कत होती है। ऐसी फिल्मों के पहले और बाद में। पहले इनके प्रोमो कुछ-कुछ क्लीशे से लगते हैं। कि, कहीं वही पंजाबी एक्सेंट तो नहीं होगा? पटकथा लचर तो नहीं होगी? इतना एडल्ट मुद्दा कहीं हिट करवाने के शॉर्टकट के तौर पर तो नहीं चुन लिया गया है? ऐसे एडल्ट मुद्दे को गरिमामय ढंग से फिल्म में तब्दील किया जाएगा? क्योंकि यकीन मानिए बड़ी ‘गोलमाल’, ‘रास्कल्स’ और ‘क्या कूल हैं हम’ (अब क्या सुपरकूल हैं हम) झेली हैं। और, जब ये फिल्म आ जाती है, दिलों में बस जाती है तो दिक्कत ये होती है कि इसे शब्दों में बांधकर क्यों कम करें? क्योंकि ‘विकी डोनर’ जैसी फिल्म बस देखने और उस देखने की खुशी महसूस करने के लिए ही होती हैं। पर बात करनी तो पड़ेगी ही।
सबसे पहले फिल्म को टीवी, डीवीडी या थियेटर में देखने जा रहे लोगों के लिए।
‘विकी डोनर’ जोरदार फिल्म है। किसी भी वक्त मन को हल्का करने के लिए देखी जा सकने वाली फिल्म। दुनियावी तनावों से आपका ध्यान बंटाएगी। आप घरेलू परेशानियों को भूल जाएंगे। फिल्म खत्म होने पर ये भावना भी नहीं आती कि हम किस दुनिया में लौट आए। कि ये फिल्मी दुनिया महज तीन घंटे की ही क्यों होती है (इस जमाने में तो बस दो घंटे की ही होती है)। मैं आश्वस्त हूं ऐसे बहुत से बच्चे या युवा रहे होंगे जिन्होंने ‘कोई मिल गया’ देखी होगी। उन्होंने खुद को इस दुनिया में रोहित मेहरा (ऋतिक) सा कमजोर और सताया गया महसूस किया होगा। फिर कहानी में नीला जादू आता है (‘ई.टी.’ और ‘क्लोज्ड एनकाउंटर्स ऑफ द थर्ड काइंड’ की बदौलत निर्देशक राकेश रोशन लाने की सोचते हैं), वह आता है और अपनी परलौकिक शक्तियों से रोहित को एक छोटे से बच्चे वाले दिमाग से अतिचतुर और ह्रष्ट-पुष्ट बना देता है। फिर नीली कमीज और लाल पेंट पहने रोहित को सुबह अपने घर से निकलते देख बाल मन मोहित हो जाता है। क्लब में नाचने की चुनौती का जवाब देते हुए रोहित गाता है...
कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
परदे के गिरते ही
परदे के उठते ही
बदला नहीं जो
बदल सकता है
ये कि, कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
इट्स मैजिक...
इब्राहीम अश्क के लिखे इन बोलों में तमाम सिनेमाविधि, विधान और सम्मोहन का सार है। बात हर किसी के कच्चे, और कच्चे से पक्के हो जाने की भी है, जो रोहित होता है, हमारी फिल्मों के तमाम हीरो लोग होते हैं, कच्चे से पक्के। और, जो कुछ भी होता है सब खेल ही है। बात परदे पर आती है। जो कभी हमारी जिंदगियों (‘टैरी’ की तरह) में नहीं बदला वो सिनेमा का परदा उठते ही बदल जाता है। इट्स मैजिक। मैजिक की बदौलत खूबसूरत निशा (प्रीति जिंटा) को प्रभावित करने का सुख पाते हुए रोहित जो नाचता है कि सम्मोहित मन वाले दर्शकों का जीवन नरक हो जाता है, थियेटर से बाहर निकलते ही। कि यार जिदंगी बेकार है, कहीं जाकर मर जाएं तो ठीक रहे। काश, हम भी रोहित की तरह नाच पाते। काश मैं भी रोहित की तरह छह फुटा होता, मेरे भी डोले ऐसे होते, मेरी भी बॉडी ऐसी होती, मुझमें भी शक्तियां होती और मैं रोहित (सब-कॉन्शियस माइंड में ऋतिक रोशन जैसा डांस) की तरह नाच पाता।
यकीन जानिए आप हर ‘कोई मिल गया’, ‘कृष’, ‘वॉन्टेड’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मिशन इम्पॉसिबल’ और ‘द अवेंजर्स’ से बाहर निकलते हुए यही सोचते हैं। काश, मैं भी ऐसा हो पाता। थियेटर की पार्किंग में पहुंचते हुए जब ये यकीन हो जाता है कि वो सपनीली दुनिया तो तीन घंटे ही चली और अब हम पथरीले रोजमर्रा के धरातल पर हैं, जहां सिर्फ महंगाई-चुनौतियां-दुश्वारियां-हतोत्साहन-पिटाई-गुंडागर्दी और निराशा है, तो मस्तिष्क की अखरोट सरीखी गलियों में तेजाब सा ज्वारभाटा उबलता है। एक आम इंसान और आम बच्चा और एक आम युवा होते हुए फिल्मी जीवन की तरह खुद को बदल न पाना, खास न हो पाना, ये कष्ट देता है।
उसी दौर में पिछले साल ‘दो दूनी चार’ आई थी, इस साल ‘विकी डोनर’ आई है। आप इन फिल्मों को देखकर निकलते हैं तो मनोरंजन वाली जरूरतें भी पूरी हो चुकी होती हैं और मस्तिष्क को तेजाबी ज्वारभाटा भी नहीं जलाता। सिनेमा में इससे राहत की बात कोई दूजी नहीं हो सकती। सिनेमा की इतनी खुशी की बात दूजी नहीं हो सकती। ये राहत और खुशी देती है ‘विकी डोनर’।
हम बात कर रहे थे फिल्म देखने जा रहे आप लोगों के लिए।
परिवार और बच्चों के साथ बैठकर देखने में आयुवर्ग के लिहाज से क्या आपत्ति हो सकती है स्पष्ट कर दूं। फिल्म में एक दो किसिंग सीन है। लिपलॉक, जो लिपलॉक जैसे हैं नहीं। हमारी फिल्मों और फिल्मकारों को स्टार मूवीज और ‘बोल्ड एंड द ब्यूटिफुल’ ने भारत रहते ही होठ से होठ मिलाने की जो आधुनिकता दी है, उसे सनसनी के इतर साधारण ढंग से ‘विकी डोनर’ में पिरोया देख व्यस्क खुश हो सकते हैं। परिवार के साथ बैठे सदस्यगण असहज होने लगेंगे, पर जब तक शर्म से मुंह लाल होने को होगा फिल्म आगे बढ़ चुकी होगी।
आगे स्पर्म यानी शुक्राणुओं और बच्चा पैदा करने वाली कुछ व्यस्क बातें हैं, जो युवाओं को सबसे ज्यादा समझ आएंगी। यानी युवाओं को सबसे ज्यादा हंसी आएगी, भई शुक्राणुओं की उम्र में उन्होंने अभी-अभी प्रवेश ही किया है। अब कमाई करते हैं, मल्टीप्लेक्स में जाना भी उनके हाथ है, और महानगरों में तो वीकेंड में मल्टीप्लेक्स जाकर नौ सौ-हजार रुपये टिकिट-पॉपकॉर्न-नाचौज-पेप्सी-बर्गर के कॉम्बो पर खर्च करना तो प्रथा बन गई है (ऐसी प्रथाएं जिन्हें तोड़ने के लिए अगली से अगली पीढ़ी के युवाओं को न जाने कितने पिंक-रेड-यैलो रेवोल्यूशन करने पड़ेंगे), इसलिए स्पर्म वाले जुमलों पर अपने पार्टनर के साथ फिल्म देखते हुए जोड़ों को खूब हंसी आएगी। हां, बच्चे जरूर शून्य महसूस करेंगे। पर बच्चों को भी मौजूदा मनोरंजन और मीडिया ने कम उम्र में ही एडल्ट कर दिया है, वे सब समझने लगे हैं। बाकी जो मध्यमवर्गीय दर्शकगण हैं, जिनमें साड़ी पहने भाभियां हैं, प्लेट वाली पेंट और चैक की शर्ट पहने भाईसाहब हैं, उनके छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां हैं.. या मध्यमवर्गीय युवा हैं... ‘विकी डोनर’ के जुमलों पर उनके मुंह से हॉ... की आवाज भी निकलेगी ही।
फिल्म में 'फु**’, 'चेंप’, ‘भेन दा पकोड़ा’ और 'मेरी तो ले के रख ली आपने’ जैसे जुमले हैं, जो हंसाते हैं। हालांकि कई शब्द मर्यादित नहीं हैं, पर फिल्म में संदर्भ और हाव-भाव इतने प्राकृतिक है कि आलोचना करनी नहीं बनती। ‘विकी डोनर’ देखने वालों में शायद ही कोई होगा जो अपने दोस्त या साथी से इंटेलिजेंट स्पर्म, नॉटी स्पर्म, ग्रीडी स्पर्म और सैड स्पर्म जैसी बातें बोल हंस नहीं रहा होगा।
हालांकि मुझे 'तू आर्यन रेस है’ वाला डायलॉग अच्छा नहीं लगा। क्योंकि, ये हिंदोस्तान में नस्लों की श्रेष्ठता वाली बहस में कुछ लोगों को चुभता है और कुछ को झूठा गर्वीला अहसास देता है। पर हम आगे बढ़ते हैं।
संक्षेप में फिल्म की कहानी जानते हैं। दिल्ली में लाजपत नगर की रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले बेफिक्र लड़के विकी अरोड़ा (आयुष्मान) की कहानी है। घर में डॉली ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कम उम्र में ही विधवा हो गई मां डॉली अरोड़ा (डॉली अहलुवालिया) हैं और दुनिया की सबसे प्यारी बीजी (कमलेश गिल)। विकी पर डॉ. बलदेव चड्ढा (अन्नू कपूर) नाम के फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट की नजर पड़ती है। जिन्हें अपने पेशंट्स के लिए सक्सेसफुल काउंट वाले स्पर्म चाहिए। विकी में उन्हें उम्मीदें नजर आती हैं। विकी, तमाम ना-नुकुर के बाद डोनर बन भी जाता है, पर दुनिया से छिपाकर। उसकी जिंदगी में बैंक में काम करने वाली बंगाली लड़की आशिमा रॉय (यामी) आती है। मगर उससे ये राज छिपाना ही शायद आगे उन दोनों के रिश्ते को बिगाड़ जाता है।
‘विकी डोनर’ की एक छोटी सी महानता ये भी है कि यह स्पर्म डोनेशन के प्रति लोगों को जागरुक करती है। बड़ी ही आसानी से फिल्म राह भटक सकती थी, पर नहीं भटकती, सस्ती और ओछी नहीं होती, अपनी ही नजरों में नहीं गिरती। ये जागरुक करती है। एक महानता से पेट नहीं भरता तो दूसरी महानता के रूप में फिल्म का संदेश बच्चा गोद लेने का होता है। जिन निस्संतान और बंजर दंपतियों को विकल्प नहीं मिलता उन्हें फिल्म ऐसा आदर्श और व्यावहारिक समाज दिखाती है जहां स्पर्म डोनेशन की राह में जाने की बजाय बिन मां-बाप के बच्चों को गोद लिया जा सकता है। तो बच्चा अडॉप्ट करने का संदेश भी है।
चंडीगढ़ के आयुष्मान खुराना ‘रोडीज-2’ के ऑडिशन में 2004 में नजर आए। वह सीजन उन्होंने जीता भी। अपने डिंपल पड़ते गालों के साथ एमटीवी पर वीजेइंग करने लगे। बाद में टीवी के बड़े-बड़े कार्यक्रमों में इन्होंने अपनी एंकरिंग क्षमताओं और बेदाग उच्चारण से चौंकाया। हर बार वह माइक लेकर ‘म्यूजिक का महामुकाबला’ (साथ में ‘जस्ट डांस’, ‘इंडियाज गॉट टैलेंट’ और ‘एक्स्ट्रा इनिंग्स’ जैसे शो भी) जैसे शो में उतरे तो गायकों की बराबरी का तेज उनकी प्रस्तुति में था। उनमें कुछ था। पर जानते हैं, फिल्मों में सफल होने, न होने का फैसला आंखों की चमक से हर बार नहीं होता।
‘विकी डोनर’ में पहले ही सीन में जब विकी को उसकी मां डॉली छत पर बने उसके कमरे में जगाने आती हैं (बाहर धूप में बैठी विकी की बीजी को मत भूलिएगा) तो देखती हैं कि टीवी चोरी हो चुका है और विकी सो रहा है। अपने किरदार को सुगाढ्य करते हुए डॉली लाजपत नगर की डॉली ब्यूटी पार्लर वाली डॉली और विकी की मां (कम उम्र में विधवा हो चुकीं) मिसेज अरोड़ा बन जाती हैं। उनकी आवाज, अदा, अंदाज और किरदार के अध्ययन में गजब की ऊष्मा है। ऐसा ही कमलेश गिल ने अपने किरदार के साथ भी किया है। खैर, इस सीन में विकी को वह जगाती हैं, कुछ शोर मचाती हैं, विकी बने आयुष्मान उठते हैं, छत के ऊपर और दीवार से नीचे झांककर देखते हैं, “देख लो आपकी बेकार साड़ियों के सहारे कूदकर भाग गया, फिर भी मुझे बोल रहे हो” (अक्षरश नहीं)। वह अपनी लगातार बड़बड़ा-चिल्ला रही मां को जवाब देते हुए इधर-ऊधर देख रहे हैं और ऊधर दादी बनी कमलेश गिल (दिल्ली की शानदार थियेटर एक्टर, भगवान उन्हें लंबी उम्र बख्शे) अपने पोते का पक्ष ले रही हैं। अब इस सीन में देखिए। पहला तो आयुष्मान, डॉली और कमलेश का तालमेल कमाल का है। सीन की गति बनी रहती है, वह भी विशुद्ध यथार्थ के साथ। बाद में मां का बड़बड़ाना सुनने से ऊबा विकी उनका कुत्ता लेकर सीढ़ियां उतर जाने लगता है। मां डॉली की टोन तुरंत बदल जाती है, “अरे, इसे कहां ले जा रहा है, तू वापिस आजा, सुन तो सही”। फिर जब वह चला जाता है तो शायद ये कहना कि “मुझे मेरा टीवी चाहिए बस मैं कुछ नहीं जानती”। तब तक दादी अपनी बहू को साथ के साथ कोस चुकी होती हैं (सहनीय कोसना) जब डॉली सीढ़ियां उतरने लगती हैं तो दादी कहती है “सुन तो मुझे एक चाय तो बना दे”।
.... अब आप क्या कहेंगे, इस सीन के बारे में। हिमाचल मूल की और विज्ञापन जगत की पृष्ठभूमि वाली जूही चतुर्वेदी फिल्म की जुबान हैं। उन्होंने ही कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। फिल्म की कहानी जिस दिल्ली के लाजपत नगर में बसी है, जूही काफी वक्त वहीं रही है। ऐसी ही डॉलियों, दादियों और विकियों के बीच। किसी भी लहजे और हाल में ‘विकी डोनर’ की आत्मा बनी पटकथा का श्रेय जूही के अलावा किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता। स्पर्म डोनेशन को और बच्चा गोद लेने को संदेश बना देना, रात में डॉली और उनकी सास के दारू पीते हुए अत्यधिक रोचक सीन गढ़ देना, विकी और आशिमा के परिवारवालों के बीच पंजू (पंजाबी) और बॉन्ग (बंगाली) को लेकर इतने कलाकारी भरे हिलाने वाले लेकिन मजाकिया हालात पैदा कर देना, बंगालियों से भंगड़ा करवा देना... ये सब जूही चतुर्वेदी की समझ से आया। वो ही लाईं। यहां तक कि एक छोटी सी चीज है। विकी और आशिमा चैट कर रहे हैं। विकी उसे ‘फिश’ लिखता है तो आशिमा का जवाब आता है ‘बटर चिकन’। एक-दूसरे को दिए इन नामों से दोनों के बंगाली-पंजाबी बैकग्राउंड तो पता चलते ही हैं, बल्कि संबोधनों के पुराने ढर्रे में भी ताजगी आती है।
एक और सीन में जूही की लेखनी की कल्पना करते हुए गौर कीजिए। आशिमा अपने घर आ चुकी है, विकी की शक्ल भी नहीं देखना चाहती। उसके पिता के रोल में (मरहूम महान उत्पल दत्त की याद दिलाते अनेकों-अनेक तारीफों के हकदार) एक्टर जयंत दास पहले तो कहते हैं कि “तुम इतनी आधुनिक होकर इन बातों को इश्यू बना रही हो कि विकी कभी स्पर्म डोनेशन किया करता था”। कुछ सीन बाद वह एक बार फिर अपनी बेटी से कहते हैं, “तुम विकी से इसलिए नाराज हो कि उसने तुम्हें बताया नहीं कि वह स्पर्म डोनेशन करता था, या इसलिए कि तुम कभी मां नहीं बन सकती लेकिन वह पिता बन सकता है”।
देखिए, कितने रंग साथ घुल रहे हैं। इसी से फिल्म कमाल हो रही है। जूही के संवाद और स्थितियां हैं, जयंत दास - डॉली अहलुवालिया – आयुष्मान – कमलेश गिल – अन्नू कपूर – यामी का सहज अभिनय है और शुजित सरकार की दृष्टिकोण है। किरदारों की रंगत और रुख क्या रहना है, उनका निर्देशन बखूबी तय कर रहा है। 2004 में आई अपनी फिल्म ‘यहां’ के निर्देशन में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह एक अच्छी फिल्म थी, बस लोगों के दिलों तक पहुंच नहीं पाई। मगर ‘विकी डोनर’ के साथ शुजित को इंसाफ मिल गया है।
लंबे अरसे से फिल्मों में डॉली, जयंत और कमलेश गिल जैसे अदाकार और उन से किरदार नहीं आए थे। ‘विकी डोनर’ के साथ आए और तृप्ति दे गए। इसमें डॉ. चड्ढा की भूमिका में अन्नू कपूर को नहीं भूला जा सकता। उनके किरदार जैसे किरदार तो बहुत आए हैं, पर उनकी तरह निभाए किसी ने नहीं है। मैं शर्त लगाता हूं उनकी तरह कोई ‘भेन दा पकोड़ा’ या ‘भेन दा परौंठा’ कहकर दिखा दे। कोई स्पर्म के आगे अलग-अलग मूड के साथ इंटेलिजेंट, नॉटी, कन्फ्यूज्ड और अलग-अलग अलंकार लगाकर दिखा दे, कोई उनकी तरह “ये तो ऋषि मुनियों के टाइम से चला आ रहा है, पहले के जमाने में औरतों के बच्चे नहीं होते थे तो वो बाबाओं के पास जाती थी, बाबा बच्चे नहीं, बाबा ने कुछ नी करना, .... (हाथ से इशारे बनाते हुए).. लो हो गया..”। अन्नू कपूर को परदे पर देखना हमेशा आनंद होता है। भले ही ‘जमाई राजा’ में पल्टू के रोल में या ‘मिस्टर इंडिया’ में एडिटर गायतोंडे बने हुए... दर्जनों शानदार रोल ऐसे हैं जिनमें वह मुख्य किरदारों के बराबर खड़े दिखते हैं। ‘गर्दिश’ में भीख मांगने को बिजनेस बनाने वाले मनीषभाई हरीशभाई को क्यों भूलते हैं।
‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस साल की दूसरी सबसे उत्कृष्ट प्यारी सी फिल्म है ‘विकी डोनर’। जरूर देखें।
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गजेंद्र सिंह भाटी