Showing posts with label bony kapoor. Show all posts
Showing posts with label bony kapoor. Show all posts

Wednesday, May 9, 2012

“मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहा करता था मैम! शॉट रेडी”: अर्जुन कपूर

मुलाकात इशकजादे के मुख्य किरदारों परिणीति चोपड़ा और अर्जुन कपूर से


'इशकजादे’ के परमा और जोया के बीच कुत्ते-बिल्ली का बैर है, बचपन से, अल्मोड़ की गलियां इसकी गवाह हैं। अल्मोड़, जहां ये कहानी करवट बदलती है। क्रमशः अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा के निभाए इन दोनों किरदारों में जो कच्चापन है, जो शुरू में नफरत वाला भाव है, हर बात में एक-दूसरे का विरोध करने की इच्छा है और यह सब करने के बाद दोनों में जो अटूट प्रेम हो जाता है, वह उतना ही दुनियावी सत्य है जितना ‘रॉकस्टार’ फिल्म में दिखाई गई फिलॉसफी कि सच्चा संगीत तब निकलता है जब दिल टूटा हो, दर्द से भरा हो।

अपनी फिल्म के बारे में बातचीत करने जब अर्जुन और परिणीति मिलने पहुंचे तो उनकी नोक-झोंक और एक-दूसरे की बात को काटकर मजाक में उड़ाने में वही भाव छिपा था। उनकी फिल्म 11 मई को रिलीज हो रही है। हबीब फैजल की बतौर निर्देशक यह दूसरी फिल्म होगी। पहली थी 2010 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘दो दूनी चार’। हबीब ने ‘बैंड बाजा बारात’ की स्क्रिप्ट भी कुछ ऐसे ही किरदारों वाली लिखी थी। इन दोनों फिल्मों के ‘इशकजादे’ से किसी भी किस्म के जुड़ाव से जाहिर इनकार करते हुए अर्जुन और परिणीति कहते हैं कि “तीनों फिल्मों का कोई मेल नहीं है, हां, अगर समानता ढूंढें भी तो यही है कि हबीब अपनी फिल्मों के महिला किरदार बेहद मजबूत रखते हैं। ‘बैंड बाजा बारात’ में भी श्रुति कक्कड़ स्मार्ट है और नेतृत्व करती है। ‘इशकजादे’ में भी जोया बिल्कुल बागी सी बहादुर है”।

हबीब फैजल पहले जर्नलिस्ट थे। उनकी इस पृष्ठभूमि का फायदा उनकी हर फिल्म को होता है। किरदारों, उनके हाव-भाव, जगहों, उनके व्यष्टि विश्लेषण और चीजों की सहज आसान पैकेजिंग करने में वह सिद्धस्त हैं। यही वजह रही होगी कि इश्कजादे जैसी टर्म उन्होंने गढ़ी, उस पर उसे ठेठ स्पर्श देते हुए इशकजादे में बदल दिया। अर्जुन कहते हैं, “हबीब सर पहले एनडीटीवी में कैमरामेन थे, इस वजह से अपनी रिपोर्टिंग के दौरान वह भारत भर में घूमे, उन्हें देश की बहुत सारी जगहें अच्छे से पता है। फिल्म में अल्मोड़ जैसी छोटी जगह में इन दोनों किरदारों की कहानी तभी उन्होंने रखी। जब हमारी बात होती थी तो वह बताते थे कि अब छोटे शहर छोटे नहीं रह गए हैं। वो हर मामले में बड़े शहरों जैसे हो रहे हैं। दूसरा वहां फिल्में पहुंच रही हैं, ऐसे में वहीं किरदार और कहानी स्थापित कर पाना अब संभव हो गया है”।

फिल्म में अर्जुन और परिणीति के किरदारों में जो ठेठपना था, वह उनमें पहले से होगा यह तो मुश्किल लगता है, ऐसे में क्या हबीब ने उन्हें समझाया ही उसी तरीके से? इसके सीमित उत्तर में अर्जुन स्क्रिप्ट का रुख करते हैं। वह बताते हैं, “पहले ये फिल्म किसी और नाम से बनने वाली थी। कभी भी अगर आप स्क्रिप्ट पढ़ पाएं तो देखेंगे कि उसमें किरदारों का एक-एक ब्यौरा लिखा था, उसे पढ़ने के बाद कोई बात समझने को रह ही नहीं गई”।

प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणीति के लिए फिल्मों में आना अकल्पनीय था। पैदाइश हरियाणवी रही, वह अंबाला में जन्मी। ब्रिटेन से बिजनेस की पढ़ाई की। बाद में यशराज फिल्म्स की मार्केटिंग और पीआर कंसल्टेंट हो गईं। लगता है कि ऊर्जा से भरे रहने और किसी को भी अपने हीरोइनों वाले जलवे नहीं दिखाने का गुण उनमें पीआर और मार्केटिंग की उसी दुनिया से आया है। एक्ट्रेसेज की समझ के उलट उनमें पब्लिक रिलेशन के कई गुर रच-बस गए लगते हैं। फिर कोई तीन साल पहले उन्होंने फिल्मों में आने के बारे मे सोचा। उन्होंने ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ में डिंपल चड्ढा की अपनी पहली ही भूमिका में सबको प्रभावित किया और बेस्ट फीमेल डेब्यू का फिल्मफेयर अवॉर्ड पाया। अब जिन दो फिल्मों में वह नजर आ सकती हैं उनमें एक है प्रदीप सरकार की फिल्म और दूसरी का नाम है ‘एक वनीला दो परांठे’।

वहीं अर्जुन एक बड़ी फिल्म फैमिली से आते हैं। दादा सुरिंदर कपूर गीता बाली के सचिव थे फिर उन्होंने बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया। खासतौर पर अनिल कपूर के अभिनय वाली। अर्जुन की कहानी उन स्टार पुत्र-पुत्रियों जैसी रही है जो एक वक्त में एक क्विंटल से भी ज्यादा वजनी होते हैं, बाहर से फिल्ममेकिंग की पढ़ाई करके आते हैं या अपने फैमिली फ्रेंड को उसकी फिल्म असिस्ट कर रहे होते हैं, बाद में किसी की प्रेरणा से उनका कायापलट होता है और एक दिन फिल्म लॉन्च होती है। जैसे सोनम कपूर, करण जौहर या फिर रणबीर कपूर। लेकिन इसके अलावा भी अर्जुन की निजी जिंदगी कुछ कष्टों से भरी रही है। उनके पिता बोनी कपूर हैं। श्रीदेवी के बोनी की जिंदगी में आने के बाद से अर्जुन ने मां मोना शौरी कपूर को टूटते-बिखरते और उबरते हुए देखा। हालांकि उनकी और उनकी बहन अंशुला की पिता के दूरियां नहीं रहीं। मोना की कैंसर से लड़ते हुए इस मार्च में मृत्यु हो गई। वह अपने बेटे की पहली फिल्म भी नहीं देख पाईं, जो उनका बहुत बड़ा सपना रहा होगा। फिल्म इंडस्ट्री में मोना की बहुत इज्जत थी। उनकी मृत्यु के बाद ट्विटर पर करण जौहर जैसे ज्यादातर सेलेब्रिटी लोगों ने खेद जताया, सार था, “यू विल बी मिस्ड मोना मैम”। मोना, मुंबई के फ्यूचर स्टूडियोज की सीईओ थीं, इनडोर शूटिंग का ये बहुत आलीशान स्टूडियो है। उन्होंने टीवी के लिए ‘युग’ और ‘विलायती बाबू’ से शो भी बनाए।

अपने पिता के प्रोडक्शन में बनी कई फिल्मों में अर्जुन असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। जैसे ‘वॉन्टेड’, ‘नो एंट्री’ और ‘मिलेंगे-मिलेंगे’ में वह असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे। इसके अलावा महज 17 साल की उम्र में वह मशहूर तेलुगू फिल्मकार कृष्णा वाम्सी के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। फिल्म थी करिश्मा कपूर और नाना पाटेकर अभिनीत ‘शक्तिःद पावर’। इसमें उनके चाचा संजय कपूर भी थे। अगले साल उन्होंने करण जौहर की फिल्म ‘कल हो न हो’ में निखिल आडवाणी को असिस्ट किया। फिर वह ‘सलाम-ए-इश्क’ में भी सहायक निर्देशक रहे। उनकी आने वाली फिल्म होगी ‘वायरस दीवान’।

वह दरअसल शुरू से ही निर्देशक बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सेट्स पर रहना शुरू किया। फिल्ममेकिंग की प्रक्रिया से जुड़ी एक-एक चीज को समझना शुरू किया। मगर सलमान खान ने उन्हें देखा और कहा कि “तुम हीरो बनो, तुममें कुछ है”। अर्जुन कहते हैं, “सलमान सर ने एहसास दिलवाया। मैं उस वक्त 140 किलो का था, और मैंने खुद को बदलना शुरू किया”। वह कहते हैं कि “सलमान सर ने एक बार मुझे अर्जुन राणावत कहा था”। अपने असिस्टेंट से हीरो बन जाने की बात पर वह सहज भाव से स्पष्ट करते हैं, “मुझे याद है, मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहता था “मैम! शॉट रेडी, और अब मेरी पहली फिल्म आ रही है। हीरो बनना नाइस फीलिंग है पर मैं इन सब लोगों के बीच ही बड़ा हुआ हूं, सब मुझे प्यार करते हैं”।

फिल्म के प्रोमो और अब तक की झलकियों से युवाओं में बीच उन्हें लेकर जिज्ञासा है, कुछ के लिए वह सुपरस्टार अभी से हो गए हैं। जैसे ट्विटर पर काफी युवा उनके साथ सुपरस्टार जोड़ते हैं। मगर इस बात पर वह एकदम अनजान आदमी की तरह आगे-पीछे मुड़कर देखते हैं, “सुपरस्टार? कौन मैं? नहीं नहीं। पता नहीं। आप ट्विटर का कह रहे हैं, मेरा तो वहां अकाउंट ही नहीं है। तो कैसे पता होगा?”।

परिणीति और अर्जुन से बात करते हुए एक नयापन सा लगता है। इनकी सोच में एक किस्म का सहजपना है। अपने साथी एक्टर्स को लेकर, रिलीज डेट को लेकर, एक्टर या स्टार बनने को लेकर और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा को लेकर। मसलन, 11 मई को ‘इशकजादे’ के साथ ही करिश्मा कपूर की वापसी वाली फिल्म ‘डेंजरस इश्क’ भी रिलीज हो रही है। दोनों फिल्मों की भिड़ंत की बात पर दोनों का संयुक्त जवाब आता है, “क्या हो गया साथ रिलीज हो रही है तो। हमारे हिसाब से दर्शक दोनों फिल्में देख सकते हैं। देख सकते हैं न। वैसे भी इस अगले एक-दो वीक कोई बड़ी रिलीज नहीं है तो इस लिहाज से भी ये दो फिल्में ही हैं, तो दर्शक देख ही लेंगे। और, आखिर में बस पिक्चर अच्छी होनी चाहिए, यही जरूरी होता है”। उन्हें और परखने के लिए मैं सवाल करता हूं कि स्टार बनना है या अच्छा एक्टर कहलवाना है? जवाब तुरंत आ जाता है, “सर मुझे लगता है आप स्टार के तौर पर तभी स्वीकार किए जाते हैं, जब एक्टर अच्छे हों, कोई ऐसा स्टार नहीं होता जो बुरी एक्टिंग करता हो। तो दोनों चीजें विरोधाभासी हो ही नहीं पाती”, अर्जुन जवाब देते हैं और बाद में इसी बिंदु को परिणीति भी और समझाकर बताती हैं।

इन्हें परखने और जानने को अगली बात मन में ये भी थी कि इंडिपेंडेंट और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा इनके फिल्म चुनने के ढांचे में क्या कभी कहीं फिट होगा? क्या उनकी पीढ़ी रोल चुनने को लेकर ज्यादा एक्सपेरिमेंटल और बेधड़क है? अर्जुन कहते हैं, “हां”। वह जवाब आगे बढ़ाते हैं, “इन दिनों रोल भी ऐसे ही हैं। उनमें कमर्शियल और नॉन-कमर्शियल वाला गैप भी कम हो रहा है। जैसे, सलमान भाई ने चुलबुल पांडे का रोल किया तो अनोखे अंदाज में। ऋतिक रोशन ने 'अग्निपथ’ में अपना रोल बड़े अच्छे से निभाया था, वो अमिताभ बच्चन वाली 'अग्निपथ’ के रोल से अलग था। अब लोग भी एक्टर नहीं कैरेक्टर देखते हैं तो जितना अलग किरदार हो हमारे लिए उतना ही अच्छा। हमारी जेनरेशन में रणबीर कपूर इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने हर बार अलग रोल चुने हैं और लोगों ने पसंद भी किया है”।

हालांकि ये परिणीति की पहली फिल्म नहीं है, पर वह उत्साहित इतनी हैं कि पहली फिल्म हो। वह कहती हैं, “मुझे ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ के लिए अवॉर्ड मिला जिसकी बड़ी खुशी हुई। पर सही मायनों में ‘इशकजादे’ मेरी पहली फिल्म है। क्योंकि इसमें मेरा लीड रोल है। दूसरा ये रोल भी फुल फ्लेजेड है”।

बातचीत के बीच दोनों की चुहलबाजी चलती रहती है। उनके हर जवाब को अर्जुन मजाक में बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। वह रुकती हैं, मना करती हैं, फिर बोलती हैं। कहीं-कहीं हंसी फूट पड़ती है। जब वह सैफ अली खान को अपना फेवरेट एक्टर बताती हैं तो अर्जुन नाराज (मजाक में) होते हुए कहते हैं कि “ये क्या मैं तुम्हारे पास बैठा हूं और..” तो वह कहती हैं, “नहीं मेरे सबसे फेवरेट एक्टर हैं सैफ अली खान। और फिर अर्जुन कपूर भी फेवरेट है, चलो यार इसका भी नाम ले लेती हूं, इसे भी खुश कर देती हूं”। पूरी बातचीत में कहीं भी दोनों की मीठी मजाकों वाली रस्साकशी थमती नहीं।

लेख के शुरू में मैंने इस फिल्म में हीरो-हीरोइन के बीच घोर नफरत के बाद घोर प्यार वाली बात कही थी, उसके बारे में ये दोनों भी अपनी समझ बताते हैं, “हेट इज वैरी इम्पॉर्टेंट फॉर सिनेमा। जितनी नफरत दो यंग कैरेक्टर एक-दूसरे से करते हैं, जब उनमें प्यार होता है तो उतना ही ज्यादा होता है। उसी डिग्री का होता है। दो किरदारों के बीच जब ऐसा होता है तो वो निभाने और देखने में बड़ा शानदार लगता है”।

इतनी बातचीत के दौरान ये कहीं भी नजर नहीं आता कि अर्जुन अपनी पहली फिल्म की रिलीज से पहले बात कर रहे हैं और उन्हें नर्वस होना चाहिए, जवाब देते वक्त अटकना चाहिए, थोड़ा डरना चाहिए। पर ऐसा कहीं हो नहीं रहा होता है। मैं पूछता हूं कि क्या अपनी फिल्म को लेकर आपने डर या नर्वसनेस या धुकधुकी नहीं है? क्योंकि चेहरे से तो बिल्कुल नहीं लग रहा। इतना पूछते ही वह नरम हो जाते हैं। उनका तना एटिट्यूड वाला चेहरा जरा झुक जाता है, चेहरे पर मुस्कान आ जाती है कि कहीं उनकी नब्ज पकड़ ली गई है। वह बोलने लगते हैं, “नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं बिल्कुल नर्वस हूं। पर प्रेस के सामने तो ऐसी शक्ल बनाकर रखनी पड़ती है। (एनिमेटेड होकर) अब मैं उछलकर और गला फाड़कर तो कह नहीं सकता कि मैं एक्साइटेड हूं और नर्वस भी। पर...” उनके जवाब पर साथ ठहाके लगने लगते हैं।

बातों का अंत मैं उस सवाल से करना चाहता हूं, जो बड़ा संवेदनशील और दर्द जगाने वाला सा है। पर पूछ ही लेता हूं, कह देता हूं कि उचित समझें तो ही जवाब दें, कि क्या आपकी मां ने फिल्म के रशेज देखे थे, क्या वह खुश थीं? सवाल आधे रास्ते पहुंचा होता है कि वह कुछ गंभीर हो कह उठते हैं, “नहीं”। ... फिर वह कहते हैं, “मम्मी के बारे में सही वक्त होगा तो बोलूंगा। अभी नहीं। हां, लेकिन उन्होंने ट्रेलर देखा था ‘इशकजादे’ का और वह बड़ी खुश थीं”। अब मौका तस्वीरें खिंचवाने का होता है और हंसी-ठिठोली भरे पोज देने में दोनों खुद को डुबो लेते हैं। मन में एक बात आती है कि ये इनकी पहली फिल्म के रिलीज से पहले का वक्त है। कितने विनम्र लेकिन आत्मविश्वासी हैं दोनों। गुरुर का एक कण भी इन्हें छू नहीं गया है, क्या चार-पांच फिल्मों के आ जाने के बाद भी उनकी आंखों पर काला चश्मा नहीं चढ़ जाएगा, जो आज नहीं है। अभी तो लगता है नहीं...।

*** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी