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Sunday, May 20, 2012

रियल-फिल्मी के बीच स्मृतियों में नहीं आ पाती इशकजादे

फिल्मः इशकजादे
निर्देशकः हबीब फैजल
कास्टः परिणीति चोपड़ा, अर्जुन कपूर, अनिल रस्तोगी, रतन राठौड़
स्टारः ढाई, 2.5
चेतावनीः अगर आपने फिल्म नहीं देखी है, तो कृपया देखने के बाद ही आगे पढ़ें, क्योंकि कहानी आगे खोल दी गई है।

पूरी फिल्म में श्रेष्ठ है पहला दृश्य। जहां स्कूल से लौट रहे पांच-छह साल के बच्चे जोया और परमा एक दूसरे को बड़ी-बड़ी मासूम गालियां दे रहे हैं। “तेरा बाप सूअर, नहीं तेरा बाप सूअर। तू सूअर का पिल्ला, तू सूअर की बच्ची। तेरा बाप कुत्ता, तेरा बाप डॉग कुत्ता, तू डॉग कुत्ते का पिल्ला। यू ब्लडी फूल। नहीं, तू ब्लडीफूल”। साथ में रेल की पटरियां दौड़ रही हैं। पटरियों के साथ-साथ सड़क पर साइकिल रिक्शा, जिसमें लड़कियां बैठी हैं और लड़के पीछे पैदल चल रहे हैं। इनकी आपसी गालियां और कुत्ते-बिल्ली वाला झगड़ा रेल के गुजरने के सुर में धीमा होता जाता है।... इतना स्मृतिसहेजक दृश्य है कि रोम-रोम खुश और हैरान हो जाता है। छोटी जोया के रोल में इस बच्ची का अभिनय बरसों याद रहने वाला लगता है। इसके बाद पूरी फिल्म में स्मृतियों का सामान बस एकआध जगह ही है।

शुरू करते हैं कहानी के साथ। उत्तर भारत में कहीं बड़ा बंदूक-तमंचों वाला जिला है अल्मौड़। यहां के दो एमएलए कैंडिडेट हैं चौहान (अनिल रस्तोगी) और कुरैशी (रतन राठौड़)। इनके पॉलिटिकल बैर का असर शुरू से ही बच्चों परमा चौहान (अर्जुन) और जोया कुरैशी (परिणीति) पर भी रहा है। फिलहाल चुनाव की तैयारियां चल रही हैं और दोनों बच्चे भी इसमें जोरदार तरीके से शामिल हैं। जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार। पर इस बीच नोक-झोंक प्यार में बदल जाती है, जिसमें बीच में एक बड़ा पेंच आता है। इस पेंच के बाद में इनका प्यार हकीकत हो जाता है, पर भारतदेश में समाज, परिवार और परिवार की इज्जत नाम की चीजें भी होती हैं। फिर ऑनर किलिंग नाम की चीज भी है। यहां भी इनके परिवार वाले इनके परिवार को स्वीकार कर लें, यह असंभव ही हैं।

यशराज बैनर की हालिया फिल्मों में ‘बैंड बाजा बारात’ माफिक बुनावट दिखने लगी है। इनमें फ्रेम्स की डीटेलिंग और बुनियादी चीजों में रिएलिटी भरी होती है और कहानी में काल्पनिक वेल्डिंग वाले स्पर्श होते हैं। इससे किरदार, जगहें और इमोशन हमें हमारे बीच के ही असली लगने लगते हैं, पर कहानी में कहीं न कहीं कुछ नकली पैकेजिंग होती है। ‘इशकजादे’ भी हमें ऐसे ही असमंजस में डालती है। फिल्म में अल्मौड़, कुरैशी-चौहान फैमिली, एमएलए का चुनाव, कस्बाई सभ्यता और परमा-जोया-द्ददा जैसे नाम हमें बिल्कुल नए और असली लगते हैं, पर किरदारों का व्यवहार और उनकी कहानी ड्रामैटाइज्ड।

जैसे...
  • परमा को शादी के बाद अपना शरीर और आत्मा सौंप देने वाली जोया को जब लगता है कि उसे धोखा दिया गया है, तो उसके चेहरे पर ठगा जाने वाला भाव अद्भुत है। काया फट जाने को होती है। मगर जब वह परमा की मां के कमरे में होती है और उसे धोखे के बाद पहली बार मिलती है तो बदले की तीव्रता-तीक्ष्णता कुछ बिखरी और दिशाहीन लगती है।
  • वैसे परमा बिल्कुल सिरफिरा और गुस्सैल है। छोटी सी बात पर कैरोसीन डिपो वाले के झोपड़-गोदाम में आग लगा देता है। जरूरत न होते हुए भी कुरैशियों के हथियारबंद घर से चांद बेबी (गौहर खान) को उठा लाता है। ... अब जब दद्दा ने ही उसे इस किस्म का असभ्याचारी जानवर बनाया है तो इस बात पर परमा को थप्पड़ को जड़ देता है। और नाराज होने की बजाय परमा हंस क्यों पड़ता है?
  • मां की बातें उसके पल्ले क्यों नहीं पड़ती? वह मां का बेटा बनकर नहीं द्ददा का पोता बनकर क्यों रहता है?
  •  सबसे कचोटने वाली बात यह रहती है कि जब उसकी आंखों के सामने दादा उसकी मां को गोली मार देता है तो (हबीब फैजल उसे और जोया को जानवर कहकर परिभाषित करते हैं) वह गुस्से में वापस उसी क्षण दादा को गोलियों से क्यों नहीं भून देता? छोड़ क्यों देता है? क्यों फिल्म में यहां तक हमें यह नहीं समझाया गया है कि वह इतना सहनशील भी हो सकता है?
  • मरती मां कहती है, परमा अपनी गलती सुधार। और, शॉक की मनःस्थिति होते हुए भी न जाने कैसे वह अगले तीन-चार मिनट में कपड़े पहन, बैग और बाइक ले जोया को बचाने अल्मौड़ा की गलियों में आ जाता है। मां के मरने का गम इतना जल्दी मिट गया?
  • रुतबे वाले कुरैशी साहब की बेटी जोया को देखने और सगाई करने जावेद आए हैं। पार्टी रखी गई है। कोठे वाली चांद बेबी (गौहर खान) मर्दों के बीच नाच रही है। तभी सहेलियों का हाथ थामे जोया का प्रवेश होता है। अब सगाई समारोह के उपलक्ष्य में एक बड़े इज्जतदार-रसूखदार घर में नचनिया नाच ही रही है कि रिएलिटी फिल्म फिल्मी हो जाती है। चांद बेबी के साथ जोया भी नाचने लगती। चारों और मर्द हैं। जो मर्द चांद बेबी को हवस की नजर से देखकर नाच का लुत्फ उठा रहे, क्या वो जोया को भी ऐसे ही नहीं देखेंगे। ये सब उस स्थिति में हो रहा है कि अल्मौड़ एक दकियानूसी सामाजिक मनःस्थिति वाले लोगों का जिला है और कुरैशी साहब के घर का माहौल भी उतना ओपन नहीं है। तो जोया का नाचना अजीब लगता है। अगर यहां निर्देशक साहब उसे नचा सकते हैं तो फिल्म के क्लाइमैक्स में भी दोनों इशकजादों के इशक को भी कुछ फिल्मी बना देते। अगर कुरैशियों के घर में जोया नचनिया के साथ नाच सकती है तो उसके प्यार को भी तो कुरैशी साहब कुबूल कर रही सकते थे।
  • फिल्म के आखिरी सीन में गजब का विरोधाभास है। हमें बताया जा रहा है कि भारत में जोया और परमा जैसे प्यार करने वालों का यही हश्र होता है। यानी कि उन्हें जान ही देनी पड़ती है। मान लिया। मगर इतने रियलिस्टिक अंत के तरीके पर नजर डालिए। जोया और परमा ने एक दूसरे के पेट में पिस्टल लगा रखी है और एक के बाद एक गोलियां मार रहे हैं। त्वचा से गोली भीतर जा रही है और जोया का चेहरा शिकनहीन है। कोई अजीबपना नहीं, कोई दर्द नहीं, कोई ठेस सी नहीं, कोई असहजपना नहीं। वह मुस्कुरा रही है, मुस्कुरा रही है और मुस्कुरा रही है। अब बताइए थियेटर से बाहर क्या मुंह और क्या हासिल लेकर निकलें।

विस्तृत तौर पर फिल्म पर आऊं तो 'इशकजादे की कहानी में कब, कहां, क्या होगा, अनुमान नहीं लगा सकते। यहीं इसकी खासियत भी है। फिल्म अरिष्कृत, कच्ची और जिलों वाली जिंदगी सी धूल-मिट्टी भरी है। मसलन, पहले ही सीन में जीप में तीन लड़कों का मिट्टी का तेल लेने आना। मिट्टी का तेल कुरैशियों के यहां न जाए और चौहानों के यहां आए, इस बात पर डिपो वाले की झोंपड़ी फूंक देना। कमसकम मैदान के समानांतर बनी दीवार के पास की कच्ची सड़क पर बराबर दौड़ती जीप और उड़ती धूल से तो अपना-अपना जिला सभी को याद आ ही जाता है। परमा का चप्पल पहनकर जीप चलाना भी और दबंग लिखा लोअर पहनना भी। हां, भाषा के लिहाज से अर्जुन जरा भी अल्मौड़ के नहीं हो पाए हैं। शुरू में परमा और उसके दोनों दोस्तों को ‘तेरा आशिक झल्ला वल्ला...’ गाते देख भी अजीब लगता है क्योंकि तब तक उस गाने का कोई संदर्भ नहीं होता है।

निर्देशक हबीब फैजल और परिणीति चोपड़ा ने हिंदी सिनेमा को जोया के रूप में एक ऐसी लड़की दी है जिसके इमोशन गेहुंए रंग के हैं। परिणीति जैसे फ्रैश इमोशन मौजूदा वक्त की कोई भी हीरोइन शायद ही दे पाए। मसलन, स्मूच करते हुए, दो से एक होते हुए, तमंचा चलाते हुए और प्यार में ठगा महसूस करते हुए। अर्जुन कपूर का किरदार परमा कुछ जटिल है। उसके मन में क्या चल रहा है, आप जो चाहें अनुमान लगाएं, छूट है। पर कहीं स्क्रिप्ट के स्तर पर यह कैरेक्टर स्पष्ट नहीं हो पाया है, या हमें स्पष्टता से समझाया नहीं गया है। जिसके कुछ अंश ऊपर आ चुके हैं। पर कुल मिलाकर दोनों नए अभिनेताओं का काम आगे के लिहाज से ठीक-ठाक रहा है।

हबीब ने 'दो दूनी चार’ में राह सुझाई थी, मैसेज दिया था। पर 'इशकजादे’ में बस कमेंट किया है। एक्टिंग सबकी अच्छी है। मुश्किल इतनी ही है कि फिल्म सच्चाई और एंटरटेनिंग होने के बीच कन्फ्यूज होती झूलती है। आप चौंकते है, तारीफ करते हैं, पर टेंशन फ्री नहीं हो पाते। फन महसूस नहीं कर पाते। जैसी भी है इस कोशिश के लिए हबीब फैजल और पूरी कास्ट की हौसला अफजाई कर सकते हैं, तमाम सवालों के बीच।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Wednesday, May 9, 2012

“मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहा करता था मैम! शॉट रेडी”: अर्जुन कपूर

मुलाकात इशकजादे के मुख्य किरदारों परिणीति चोपड़ा और अर्जुन कपूर से


'इशकजादे’ के परमा और जोया के बीच कुत्ते-बिल्ली का बैर है, बचपन से, अल्मोड़ की गलियां इसकी गवाह हैं। अल्मोड़, जहां ये कहानी करवट बदलती है। क्रमशः अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा के निभाए इन दोनों किरदारों में जो कच्चापन है, जो शुरू में नफरत वाला भाव है, हर बात में एक-दूसरे का विरोध करने की इच्छा है और यह सब करने के बाद दोनों में जो अटूट प्रेम हो जाता है, वह उतना ही दुनियावी सत्य है जितना ‘रॉकस्टार’ फिल्म में दिखाई गई फिलॉसफी कि सच्चा संगीत तब निकलता है जब दिल टूटा हो, दर्द से भरा हो।

अपनी फिल्म के बारे में बातचीत करने जब अर्जुन और परिणीति मिलने पहुंचे तो उनकी नोक-झोंक और एक-दूसरे की बात को काटकर मजाक में उड़ाने में वही भाव छिपा था। उनकी फिल्म 11 मई को रिलीज हो रही है। हबीब फैजल की बतौर निर्देशक यह दूसरी फिल्म होगी। पहली थी 2010 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘दो दूनी चार’। हबीब ने ‘बैंड बाजा बारात’ की स्क्रिप्ट भी कुछ ऐसे ही किरदारों वाली लिखी थी। इन दोनों फिल्मों के ‘इशकजादे’ से किसी भी किस्म के जुड़ाव से जाहिर इनकार करते हुए अर्जुन और परिणीति कहते हैं कि “तीनों फिल्मों का कोई मेल नहीं है, हां, अगर समानता ढूंढें भी तो यही है कि हबीब अपनी फिल्मों के महिला किरदार बेहद मजबूत रखते हैं। ‘बैंड बाजा बारात’ में भी श्रुति कक्कड़ स्मार्ट है और नेतृत्व करती है। ‘इशकजादे’ में भी जोया बिल्कुल बागी सी बहादुर है”।

हबीब फैजल पहले जर्नलिस्ट थे। उनकी इस पृष्ठभूमि का फायदा उनकी हर फिल्म को होता है। किरदारों, उनके हाव-भाव, जगहों, उनके व्यष्टि विश्लेषण और चीजों की सहज आसान पैकेजिंग करने में वह सिद्धस्त हैं। यही वजह रही होगी कि इश्कजादे जैसी टर्म उन्होंने गढ़ी, उस पर उसे ठेठ स्पर्श देते हुए इशकजादे में बदल दिया। अर्जुन कहते हैं, “हबीब सर पहले एनडीटीवी में कैमरामेन थे, इस वजह से अपनी रिपोर्टिंग के दौरान वह भारत भर में घूमे, उन्हें देश की बहुत सारी जगहें अच्छे से पता है। फिल्म में अल्मोड़ जैसी छोटी जगह में इन दोनों किरदारों की कहानी तभी उन्होंने रखी। जब हमारी बात होती थी तो वह बताते थे कि अब छोटे शहर छोटे नहीं रह गए हैं। वो हर मामले में बड़े शहरों जैसे हो रहे हैं। दूसरा वहां फिल्में पहुंच रही हैं, ऐसे में वहीं किरदार और कहानी स्थापित कर पाना अब संभव हो गया है”।

फिल्म में अर्जुन और परिणीति के किरदारों में जो ठेठपना था, वह उनमें पहले से होगा यह तो मुश्किल लगता है, ऐसे में क्या हबीब ने उन्हें समझाया ही उसी तरीके से? इसके सीमित उत्तर में अर्जुन स्क्रिप्ट का रुख करते हैं। वह बताते हैं, “पहले ये फिल्म किसी और नाम से बनने वाली थी। कभी भी अगर आप स्क्रिप्ट पढ़ पाएं तो देखेंगे कि उसमें किरदारों का एक-एक ब्यौरा लिखा था, उसे पढ़ने के बाद कोई बात समझने को रह ही नहीं गई”।

प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणीति के लिए फिल्मों में आना अकल्पनीय था। पैदाइश हरियाणवी रही, वह अंबाला में जन्मी। ब्रिटेन से बिजनेस की पढ़ाई की। बाद में यशराज फिल्म्स की मार्केटिंग और पीआर कंसल्टेंट हो गईं। लगता है कि ऊर्जा से भरे रहने और किसी को भी अपने हीरोइनों वाले जलवे नहीं दिखाने का गुण उनमें पीआर और मार्केटिंग की उसी दुनिया से आया है। एक्ट्रेसेज की समझ के उलट उनमें पब्लिक रिलेशन के कई गुर रच-बस गए लगते हैं। फिर कोई तीन साल पहले उन्होंने फिल्मों में आने के बारे मे सोचा। उन्होंने ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ में डिंपल चड्ढा की अपनी पहली ही भूमिका में सबको प्रभावित किया और बेस्ट फीमेल डेब्यू का फिल्मफेयर अवॉर्ड पाया। अब जिन दो फिल्मों में वह नजर आ सकती हैं उनमें एक है प्रदीप सरकार की फिल्म और दूसरी का नाम है ‘एक वनीला दो परांठे’।

वहीं अर्जुन एक बड़ी फिल्म फैमिली से आते हैं। दादा सुरिंदर कपूर गीता बाली के सचिव थे फिर उन्होंने बहुत सी फिल्मों का निर्माण किया। खासतौर पर अनिल कपूर के अभिनय वाली। अर्जुन की कहानी उन स्टार पुत्र-पुत्रियों जैसी रही है जो एक वक्त में एक क्विंटल से भी ज्यादा वजनी होते हैं, बाहर से फिल्ममेकिंग की पढ़ाई करके आते हैं या अपने फैमिली फ्रेंड को उसकी फिल्म असिस्ट कर रहे होते हैं, बाद में किसी की प्रेरणा से उनका कायापलट होता है और एक दिन फिल्म लॉन्च होती है। जैसे सोनम कपूर, करण जौहर या फिर रणबीर कपूर। लेकिन इसके अलावा भी अर्जुन की निजी जिंदगी कुछ कष्टों से भरी रही है। उनके पिता बोनी कपूर हैं। श्रीदेवी के बोनी की जिंदगी में आने के बाद से अर्जुन ने मां मोना शौरी कपूर को टूटते-बिखरते और उबरते हुए देखा। हालांकि उनकी और उनकी बहन अंशुला की पिता के दूरियां नहीं रहीं। मोना की कैंसर से लड़ते हुए इस मार्च में मृत्यु हो गई। वह अपने बेटे की पहली फिल्म भी नहीं देख पाईं, जो उनका बहुत बड़ा सपना रहा होगा। फिल्म इंडस्ट्री में मोना की बहुत इज्जत थी। उनकी मृत्यु के बाद ट्विटर पर करण जौहर जैसे ज्यादातर सेलेब्रिटी लोगों ने खेद जताया, सार था, “यू विल बी मिस्ड मोना मैम”। मोना, मुंबई के फ्यूचर स्टूडियोज की सीईओ थीं, इनडोर शूटिंग का ये बहुत आलीशान स्टूडियो है। उन्होंने टीवी के लिए ‘युग’ और ‘विलायती बाबू’ से शो भी बनाए।

अपने पिता के प्रोडक्शन में बनी कई फिल्मों में अर्जुन असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। जैसे ‘वॉन्टेड’, ‘नो एंट्री’ और ‘मिलेंगे-मिलेंगे’ में वह असिस्टेंट प्रोड्यूसर थे। इसके अलावा महज 17 साल की उम्र में वह मशहूर तेलुगू फिल्मकार कृष्णा वाम्सी के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। फिल्म थी करिश्मा कपूर और नाना पाटेकर अभिनीत ‘शक्तिःद पावर’। इसमें उनके चाचा संजय कपूर भी थे। अगले साल उन्होंने करण जौहर की फिल्म ‘कल हो न हो’ में निखिल आडवाणी को असिस्ट किया। फिर वह ‘सलाम-ए-इश्क’ में भी सहायक निर्देशक रहे। उनकी आने वाली फिल्म होगी ‘वायरस दीवान’।

वह दरअसल शुरू से ही निर्देशक बनना चाहते थे। इसलिए उन्होंने सेट्स पर रहना शुरू किया। फिल्ममेकिंग की प्रक्रिया से जुड़ी एक-एक चीज को समझना शुरू किया। मगर सलमान खान ने उन्हें देखा और कहा कि “तुम हीरो बनो, तुममें कुछ है”। अर्जुन कहते हैं, “सलमान सर ने एहसास दिलवाया। मैं उस वक्त 140 किलो का था, और मैंने खुद को बदलना शुरू किया”। वह कहते हैं कि “सलमान सर ने एक बार मुझे अर्जुन राणावत कहा था”। अपने असिस्टेंट से हीरो बन जाने की बात पर वह सहज भाव से स्पष्ट करते हैं, “मुझे याद है, मैं प्रियंका चोपड़ा के रूम का दरवाजा खटखटाकर कहता था “मैम! शॉट रेडी, और अब मेरी पहली फिल्म आ रही है। हीरो बनना नाइस फीलिंग है पर मैं इन सब लोगों के बीच ही बड़ा हुआ हूं, सब मुझे प्यार करते हैं”।

फिल्म के प्रोमो और अब तक की झलकियों से युवाओं में बीच उन्हें लेकर जिज्ञासा है, कुछ के लिए वह सुपरस्टार अभी से हो गए हैं। जैसे ट्विटर पर काफी युवा उनके साथ सुपरस्टार जोड़ते हैं। मगर इस बात पर वह एकदम अनजान आदमी की तरह आगे-पीछे मुड़कर देखते हैं, “सुपरस्टार? कौन मैं? नहीं नहीं। पता नहीं। आप ट्विटर का कह रहे हैं, मेरा तो वहां अकाउंट ही नहीं है। तो कैसे पता होगा?”।

परिणीति और अर्जुन से बात करते हुए एक नयापन सा लगता है। इनकी सोच में एक किस्म का सहजपना है। अपने साथी एक्टर्स को लेकर, रिलीज डेट को लेकर, एक्टर या स्टार बनने को लेकर और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा को लेकर। मसलन, 11 मई को ‘इशकजादे’ के साथ ही करिश्मा कपूर की वापसी वाली फिल्म ‘डेंजरस इश्क’ भी रिलीज हो रही है। दोनों फिल्मों की भिड़ंत की बात पर दोनों का संयुक्त जवाब आता है, “क्या हो गया साथ रिलीज हो रही है तो। हमारे हिसाब से दर्शक दोनों फिल्में देख सकते हैं। देख सकते हैं न। वैसे भी इस अगले एक-दो वीक कोई बड़ी रिलीज नहीं है तो इस लिहाज से भी ये दो फिल्में ही हैं, तो दर्शक देख ही लेंगे। और, आखिर में बस पिक्चर अच्छी होनी चाहिए, यही जरूरी होता है”। उन्हें और परखने के लिए मैं सवाल करता हूं कि स्टार बनना है या अच्छा एक्टर कहलवाना है? जवाब तुरंत आ जाता है, “सर मुझे लगता है आप स्टार के तौर पर तभी स्वीकार किए जाते हैं, जब एक्टर अच्छे हों, कोई ऐसा स्टार नहीं होता जो बुरी एक्टिंग करता हो। तो दोनों चीजें विरोधाभासी हो ही नहीं पाती”, अर्जुन जवाब देते हैं और बाद में इसी बिंदु को परिणीति भी और समझाकर बताती हैं।

इन्हें परखने और जानने को अगली बात मन में ये भी थी कि इंडिपेंडेंट और एक्सपेरिमेंटल सिनेमा इनके फिल्म चुनने के ढांचे में क्या कभी कहीं फिट होगा? क्या उनकी पीढ़ी रोल चुनने को लेकर ज्यादा एक्सपेरिमेंटल और बेधड़क है? अर्जुन कहते हैं, “हां”। वह जवाब आगे बढ़ाते हैं, “इन दिनों रोल भी ऐसे ही हैं। उनमें कमर्शियल और नॉन-कमर्शियल वाला गैप भी कम हो रहा है। जैसे, सलमान भाई ने चुलबुल पांडे का रोल किया तो अनोखे अंदाज में। ऋतिक रोशन ने 'अग्निपथ’ में अपना रोल बड़े अच्छे से निभाया था, वो अमिताभ बच्चन वाली 'अग्निपथ’ के रोल से अलग था। अब लोग भी एक्टर नहीं कैरेक्टर देखते हैं तो जितना अलग किरदार हो हमारे लिए उतना ही अच्छा। हमारी जेनरेशन में रणबीर कपूर इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने हर बार अलग रोल चुने हैं और लोगों ने पसंद भी किया है”।

हालांकि ये परिणीति की पहली फिल्म नहीं है, पर वह उत्साहित इतनी हैं कि पहली फिल्म हो। वह कहती हैं, “मुझे ‘लेडीज वर्सेज रिकी बहल’ के लिए अवॉर्ड मिला जिसकी बड़ी खुशी हुई। पर सही मायनों में ‘इशकजादे’ मेरी पहली फिल्म है। क्योंकि इसमें मेरा लीड रोल है। दूसरा ये रोल भी फुल फ्लेजेड है”।

बातचीत के बीच दोनों की चुहलबाजी चलती रहती है। उनके हर जवाब को अर्जुन मजाक में बिगाड़ने की कोशिश करते हैं। वह रुकती हैं, मना करती हैं, फिर बोलती हैं। कहीं-कहीं हंसी फूट पड़ती है। जब वह सैफ अली खान को अपना फेवरेट एक्टर बताती हैं तो अर्जुन नाराज (मजाक में) होते हुए कहते हैं कि “ये क्या मैं तुम्हारे पास बैठा हूं और..” तो वह कहती हैं, “नहीं मेरे सबसे फेवरेट एक्टर हैं सैफ अली खान। और फिर अर्जुन कपूर भी फेवरेट है, चलो यार इसका भी नाम ले लेती हूं, इसे भी खुश कर देती हूं”। पूरी बातचीत में कहीं भी दोनों की मीठी मजाकों वाली रस्साकशी थमती नहीं।

लेख के शुरू में मैंने इस फिल्म में हीरो-हीरोइन के बीच घोर नफरत के बाद घोर प्यार वाली बात कही थी, उसके बारे में ये दोनों भी अपनी समझ बताते हैं, “हेट इज वैरी इम्पॉर्टेंट फॉर सिनेमा। जितनी नफरत दो यंग कैरेक्टर एक-दूसरे से करते हैं, जब उनमें प्यार होता है तो उतना ही ज्यादा होता है। उसी डिग्री का होता है। दो किरदारों के बीच जब ऐसा होता है तो वो निभाने और देखने में बड़ा शानदार लगता है”।

इतनी बातचीत के दौरान ये कहीं भी नजर नहीं आता कि अर्जुन अपनी पहली फिल्म की रिलीज से पहले बात कर रहे हैं और उन्हें नर्वस होना चाहिए, जवाब देते वक्त अटकना चाहिए, थोड़ा डरना चाहिए। पर ऐसा कहीं हो नहीं रहा होता है। मैं पूछता हूं कि क्या अपनी फिल्म को लेकर आपने डर या नर्वसनेस या धुकधुकी नहीं है? क्योंकि चेहरे से तो बिल्कुल नहीं लग रहा। इतना पूछते ही वह नरम हो जाते हैं। उनका तना एटिट्यूड वाला चेहरा जरा झुक जाता है, चेहरे पर मुस्कान आ जाती है कि कहीं उनकी नब्ज पकड़ ली गई है। वह बोलने लगते हैं, “नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं बिल्कुल नर्वस हूं। पर प्रेस के सामने तो ऐसी शक्ल बनाकर रखनी पड़ती है। (एनिमेटेड होकर) अब मैं उछलकर और गला फाड़कर तो कह नहीं सकता कि मैं एक्साइटेड हूं और नर्वस भी। पर...” उनके जवाब पर साथ ठहाके लगने लगते हैं।

बातों का अंत मैं उस सवाल से करना चाहता हूं, जो बड़ा संवेदनशील और दर्द जगाने वाला सा है। पर पूछ ही लेता हूं, कह देता हूं कि उचित समझें तो ही जवाब दें, कि क्या आपकी मां ने फिल्म के रशेज देखे थे, क्या वह खुश थीं? सवाल आधे रास्ते पहुंचा होता है कि वह कुछ गंभीर हो कह उठते हैं, “नहीं”। ... फिर वह कहते हैं, “मम्मी के बारे में सही वक्त होगा तो बोलूंगा। अभी नहीं। हां, लेकिन उन्होंने ट्रेलर देखा था ‘इशकजादे’ का और वह बड़ी खुश थीं”। अब मौका तस्वीरें खिंचवाने का होता है और हंसी-ठिठोली भरे पोज देने में दोनों खुद को डुबो लेते हैं। मन में एक बात आती है कि ये इनकी पहली फिल्म के रिलीज से पहले का वक्त है। कितने विनम्र लेकिन आत्मविश्वासी हैं दोनों। गुरुर का एक कण भी इन्हें छू नहीं गया है, क्या चार-पांच फिल्मों के आ जाने के बाद भी उनकी आंखों पर काला चश्मा नहीं चढ़ जाएगा, जो आज नहीं है। अभी तो लगता है नहीं...।

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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, October 13, 2011

कहानी सुना पाने के लिए 'हीरो विद अ थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़ने की ही जरूरत नहीं है

अंजुम रजबअली से बातचीत...

अंजुम रजबअली सुलझे हुए फिल्म राइटर हैं। गोविंद निहलानी की फिल्म 'द्रोहकाल' में सह-लेखन से उन्होंने शुरुआत की। उनकी लिखी 'आरक्षण' कुछ हफ्ते पहले रिलीज हुई। प्रकाश झा की पिछली चारों फिल्मों की स्क्रिप्ट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा रहे अंजुम ने 'चाइना गेट', 'गुलाम', कच्चे धागे' और 'राजनीति' जैसी फिल्में भी लिखी हैं। साथ ही साथ वह एफटीआईआई, पुणे और मुंबई के विस्लिंग वुड़्स फिल्म स्कूल में एचओडी हैं।

इन दिनों किस काम में व्यस्त हैं?
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट, पुणे में ऑनररी हैड ऑफ द डिपार्टमेंट हूं। विस्लिंग वुड्स में भी यही जिम्मा संभाल रहा हूं। दोनों जगह पढ़ाता हूं। वर्कशॉप भी होते रहते हैं। 'इप्सा' सोसायटी की फैलोशिप में चीफ एडवाइजर हूं। फिल्म राइटर एसोसिएशन में कमिटी मैंबर हूं। जहां तक लिखने का काम है तो प्रकाश की अगली फिल्म लिख रहा हूं। 'इश्किया' फेम अभिषेक चौबे के साथ स्क्रिप्ट लिख रहा हूं। केरल के फिल्ममेकर साजी करूण के लिए भी अंग्रेजी में एक स्क्रिप्ट लिखी है।

इन दोनों फिल्म स्कूलों में बैकग्राउंड और टैलंट के लिहाज से कैसे स्टूडेंट आते हैं?
दोनों के फाइनेंशियल बैकग्राउंड अलग होते हैं। उनमें अपने-अपने समाज और उनकी सोशल-इकोनॉमिक रिएलिटी का भी फर्क होता है। मगर उनमें यूनिवर्सल ह्यूमन क्वेस्ट एक बराबर होती है। चाहे रतन टाटा का बेटा हो या ऑफिस पीयून का, दोनों में खोज की भावना समान होती है। इंटेंसिटी समान होती है। मैं अध्यापक के तौर पर उन्हें बस इतना बता सकता हूं कि तुम्हारी रिएलिटी ये है। दोनों ही संस्थानों के बच्चों को जिंदगी और आसपास के सवाल परेशान करते हैं और यहीं से आइडिया और क्रिएटिविटी आते हैं।

क्या 'हीरो विद थाउजेंड फेसेज' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट पढ़े बगैर भी कभी कोई किस्सागो किसी गांव से आकर अपनी कहानी से हमें हिलाकर रख सकता है?
सौ प्रतिशत। कैंपबेल की किताब 'हीरो विद...' या 'कासाब्लांका' की स्क्रिप्ट कोई आविष्कार नहीं हैं। इन्हें किसी ने अपने मन में नहीं गढ़ा है। अगर कोई नेचरल तरीके से चीजों के टच में हो, तो ही काफी है। आदमी के अपने बेसिक स्ट्रगल से ड्रामा निकलता है। हां, इन्हें पढऩे से क्लैरिटी आ जाती है। जो अपने टैलंट को नेचरली आगे बढ़ाते हैं उन्हें फिल्म स्कूलों की जरूरत नहीं है। हां, जिन्हें लगता है कि गाइडेंस चाहिए, वो आएं तो उनकी हैल्प होती है।

दोनों संस्थानों के स्टूडेंट्स ने अब तक किन अच्छी फिल्मों पर काम किया है?
पुणे में सात साल के कोर्स में और विस्लिंग वुड्स में पांच साल के कोर्स में तकरीबन हमारे स्टूडेंट्स ने पंद्रह बेहद अच्छे क्रेडिट लिए हैं। उन्होंने 'शैतान', 'रॉक ऑन', 'आगे से राइट' और 'कच्चा लिंबू' जैसी हिंदी फिल्में लिखी हैं तो 'मी शिवाजी राजे भोसले बोलतोय' जैसी मराठी और अपर्णा सेन की 'इती मृणालिनी' जैसी बंगाली फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी हैं।

'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों की लेखन शैली को आप कैसे देखते हैं?
इन फिल्मों के कैरेक्टर अपने समाज से बहुत गहरे से जुड़े हैं। असल लाइफ से जुड़े इश्यू निकलकर आते हैं। दर्शकों को पहले ही पता था, हमें अब पता लग रहा है कि इस किस्म की ऑथेंटिसिटी रखी जाए तो लोग रिलेट कर सकते हैं। 'दो दूनी चार' जैसी फिल्मों में आपको बड़े मुद्दों की जरूरत नहीं है, एक स्कूटर भी इश्यू बन सकता है। पहले हमें बड़े ड्रामा चाहिए थे। अमिताभ अपनी मां को लेने आ रहा है, और मंदर इंडिया अपने बेटे को मार रही है। अब इनकी जरूरत नहीं है। माहौल खुला है, लोगों का नजरिया विस्तृत हुआ है। हबीब फैजल ने ये फिल्म लिखी तो कहा कि ये वही लोग हैं जिनसे वह वास्ता रखते हैं। जैसे जयदीप की 'खोसला का घोंसला' थी। 'चक दे इंडिया' थी। 'तारे जमीं पर' थी। अब बड़ी फिल्मों में भी इन मुद्दों को लेकर विश्वास है।

'डेल्ही बैली' और 'कॉमेडी सर्कस' के बीच क्या राइटर्स की कोई आचार संहिता होती है?
नहीं, होती तो नहीं है। सब व्यक्तिगत एस्थैटिक सेंस और व्यक्तिगत मूल्यों पर निर्भर करता है। मुझे ये चीजें गवारा नहीं इसलिए मैं नहीं लिखता हूं। कुछ लिखते हैं। कुछ हद तक ये सोशल सच्चाई का प्रतिबिंब है।

प्रॉड्यूसर्स-राइटर्स मसले में कौन सही है?
फिल्ममेकिंग के एक हिस्से के तौर पर राइटिंग की हमेशा अवहेलना की गई है। राइटर के रोल को प्रॉड्यूसर सही से समझ नहीं पाते। उन्हें सही वैल्यू नहीं देते। राइटर भी वही लिख रहे हैं जो डायरेक्टर कहता है। वो उसमें इंडिपेंडेंट वैल्यू कुछ नहीं लाते। समाधान इसी में है कि प्रॉड्यूसर-राइटर एक दूसरे के बीच के इक्वेशन को समझें।

अपने अनुभव से, रिसर्च करके या टीम में, क्या स्क्रिप्ट लिखने का कोई तय तरीका है?
वैसे तो बहुत होते हैं, पर मूल बात ये है कि क्या एक व्यक्ति के तौर पर आप इमोशनली कनेक्ट कर पा रहे हैं। जयदीप ने कहीं पढ़ा कि वीमन हॉकी की टीम कुछ टूर्नामेंट जीतकर आई है और मीडिया में उसको बहुत छोटी सी जगह मिली। हालांकि क्रिकेट को बहुत ज्यादा स्पेस मिलती है। तो उसे अचंभा हुआ कि यार ये भी तो एक अचीवमेंट है। जब वो गया और कैंप देखा तो वह इमोशनली प्रभावित हुआ। वो बोल रहा था और उसकी आंखों में आंसू आ रहे थे। ऐसा इमोशनल कनेक्शन होना सबसे जरूरी है।

कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग में क्या फर्क है?
कहानी मुख्यत: छह-आठ पेज या पंद्रह पेज तक की फ्री फ्लोइंग कहानी है। बाद में मैं स्टेपआउट लाइन बनाता हूं जिसे स्क्रीनप्ले कहते हैं। फिल्म के जो 100 मूमेंट होते हैं उन्हें कैप्चर करके एक-एक सीन में तोड़ा जाता है। इनका ब्यौरा स्क्रीनप्ले के तौर पर लिखा होता है। अब इन एक-एक सीन को बयां करते हुए डायलॉग लिखे जाते हैं, जो कैरेक्टर बोलता है।

अपने बारे में कुछ बताएं।
एक छोटे से गांव कलागा से हूं जो काठियावाड़, गुजरात में है। वहां जमीन है, खेतीबाड़ी है। पिता किसान थे। शुरुआती बचपन गांव में गुजरा। फिर मुंबई में पढ़ाई हुई। फिल्मराइटर बनने का नहीं सोचा था। साइकॉलजी में मास्टर्स किया। संयोग से बाबा आजमी (शबाना आजमी के भाई) से दोस्ती हो गई। उसने कहा तो लिखा फिर अच्छा लगने लगा। महबूब खान, विमल रॉय, गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल की फिल्में पसंद थी। जब कहानियां लिखने की बात आई तो मुझे अपने गांव आने वाले सिंगिंग स्टोरीटेलर 'बारोठ' याद आए। तो बारीकी से याद करने लगा कि कैसे थे, कैसे गाते थे, क्या रिदम होती थी। फिर जिन गोविंद निहलानी का काम मैं बहुत पसंद करता था उन्हीं के साथ 'द्रोहकाल' लिखी। फिर महेश भट्ट के लिए 'गुलाम' लिखी। उसके बाद राजकुमार संतोषी के और प्रकाश झा के साथ काम किया।

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गजेंद्र
सिंह भाटी