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Thursday, May 3, 2012

वर्ष की दूसरी सर्वोत्कृष्ट फिल्म 'विकी डोनर', इट्स मैजिक!

फिल्मः विकी डोनर
निर्देशकः शुजित सरकार
कास्टः आयुष्मान खुराना, यामी गौतम, कमलेश गिल, डॉली अहलुवालिया, जतिन दास, अन्नू कपूर
स्टारः साढ़े तीन, 3.5


आमतौर पर बड़ी दिक्कत होती है। ऐसी फिल्मों के पहले और बाद में। पहले इनके प्रोमो कुछ-कुछ क्लीशे से लगते हैं। कि, कहीं वही पंजाबी एक्सेंट तो नहीं होगा? पटकथा लचर तो नहीं होगी? इतना एडल्ट मुद्दा कहीं हिट करवाने के शॉर्टकट के तौर पर तो नहीं चुन लिया गया है? ऐसे एडल्ट मुद्दे को गरिमामय ढंग से फिल्म में तब्दील किया जाएगा? क्योंकि यकीन मानिए बड़ी ‘गोलमाल’, ‘रास्कल्स’ और ‘क्या कूल हैं हम’ (अब क्या सुपरकूल हैं हम) झेली हैं। और, जब ये फिल्म आ जाती है, दिलों में बस जाती है तो दिक्कत ये होती है कि इसे शब्दों में बांधकर क्यों कम करें? क्योंकि ‘विकी डोनर’ जैसी फिल्म बस देखने और उस देखने की खुशी महसूस करने के लिए ही होती हैं। पर बात करनी तो पड़ेगी ही।

सबसे पहले फिल्म को टीवी, डीवीडी या थियेटर में देखने जा रहे लोगों के लिए।

‘विकी डोनर’ जोरदार फिल्म है। किसी भी वक्त मन को हल्का करने के लिए देखी जा सकने वाली फिल्म। दुनियावी तनावों से आपका ध्यान बंटाएगी। आप घरेलू परेशानियों को भूल जाएंगे। फिल्म खत्म होने पर ये भावना भी नहीं आती कि हम किस दुनिया में लौट आए। कि ये फिल्मी दुनिया महज तीन घंटे की ही क्यों होती है (इस जमाने में तो बस दो घंटे की ही होती है)। मैं आश्वस्त हूं ऐसे बहुत से बच्चे या युवा रहे होंगे जिन्होंने ‘कोई मिल गया’ देखी होगी। उन्होंने खुद को इस दुनिया में रोहित मेहरा (ऋतिक) सा कमजोर और सताया गया महसूस किया होगा। फिर कहानी में नीला जादू आता है (‘ई.टी.’ और ‘क्लोज्ड एनकाउंटर्स ऑफ द थर्ड काइंड’ की बदौलत निर्देशक राकेश रोशन लाने की सोचते हैं), वह आता है और अपनी परलौकिक शक्तियों से रोहित को एक छोटे से बच्चे वाले दिमाग से अतिचतुर और ह्रष्ट-पुष्ट बना देता है। फिर नीली कमीज और लाल पेंट पहने रोहित को सुबह अपने घर से निकलते देख बाल मन मोहित हो जाता है। क्लब में नाचने की चुनौती का जवाब देते हुए रोहित गाता है...

कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
परदे के गिरते ही
परदे के उठते ही
बदला नहीं जो
बदल सकता है
ये कि, कच्चा नहीं कुछ भी
पक्का नहीं कुछ भी
होता है जो कुछ भी
सब खेल है
इट्स मैजिक...

इब्राहीम अश्क के लिखे इन बोलों में तमाम सिनेमाविधि, विधान और सम्मोहन का सार है। बात हर किसी के कच्चे, और कच्चे से पक्के हो जाने की भी है, जो रोहित होता है, हमारी फिल्मों के तमाम हीरो लोग होते हैं, कच्चे से पक्के। और, जो कुछ भी होता है सब खेल ही है। बात परदे पर आती है। जो कभी हमारी जिंदगियों (‘टैरी’ की तरह) में नहीं बदला वो सिनेमा का परदा उठते ही बदल जाता है। इट्स मैजिक। मैजिक की बदौलत खूबसूरत निशा (प्रीति जिंटा) को प्रभावित करने का सुख पाते हुए रोहित जो नाचता है कि सम्मोहित मन वाले दर्शकों का जीवन नरक हो जाता है, थियेटर से बाहर निकलते ही। कि यार जिदंगी बेकार है, कहीं जाकर मर जाएं तो ठीक रहे। काश, हम भी रोहित की तरह नाच पाते। काश मैं भी रोहित की तरह छह फुटा होता, मेरे भी डोले ऐसे होते, मेरी भी बॉडी ऐसी होती, मुझमें भी शक्तियां होती और मैं रोहित (सब-कॉन्शियस माइंड में ऋतिक रोशन जैसा डांस) की तरह नाच पाता।

यकीन जानिए आप हर ‘कोई मिल गया’, ‘कृष’, ‘वॉन्टेड’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘मिशन इम्पॉसिबल’ और ‘द अवेंजर्स’ से बाहर निकलते हुए यही सोचते हैं। काश, मैं भी ऐसा हो पाता। थियेटर की पार्किंग में पहुंचते हुए जब ये यकीन हो जाता है कि वो सपनीली दुनिया तो तीन घंटे ही चली और अब हम पथरीले रोजमर्रा के धरातल पर हैं, जहां सिर्फ महंगाई-चुनौतियां-दुश्वारियां-हतोत्साहन-पिटाई-गुंडागर्दी और निराशा है, तो मस्तिष्क की अखरोट सरीखी गलियों में तेजाब सा ज्वारभाटा उबलता है। एक आम इंसान और आम बच्चा और एक आम युवा होते हुए फिल्मी जीवन की तरह खुद को बदल न पाना, खास न हो पाना, ये कष्ट देता है।

उसी दौर में पिछले साल ‘दो दूनी चार’ आई थी, इस साल ‘विकी डोनर’ आई है। आप इन फिल्मों को देखकर निकलते हैं तो मनोरंजन वाली जरूरतें भी पूरी हो चुकी होती हैं और मस्तिष्क को तेजाबी ज्वारभाटा भी नहीं जलाता। सिनेमा में इससे राहत की बात कोई दूजी नहीं हो सकती। सिनेमा की इतनी खुशी की बात दूजी नहीं हो सकती। ये राहत और खुशी देती है ‘विकी डोनर’।

हम बात कर रहे थे फिल्म देखने जा रहे आप लोगों के लिए।

परिवार और बच्चों के साथ बैठकर देखने में आयुवर्ग के लिहाज से क्या आपत्ति हो सकती है स्पष्ट कर दूं। फिल्म में एक दो किसिंग सीन है। लिपलॉक, जो लिपलॉक जैसे हैं नहीं। हमारी फिल्मों और फिल्मकारों को स्टार मूवीज और ‘बोल्ड एंड द ब्यूटिफुल’ ने भारत रहते ही होठ से होठ मिलाने की जो आधुनिकता दी है, उसे सनसनी के इतर साधारण ढंग से ‘विकी डोनर’ में पिरोया देख व्यस्क खुश हो सकते हैं। परिवार के साथ बैठे सदस्यगण असहज होने लगेंगे, पर जब तक शर्म से मुंह लाल होने को होगा फिल्म आगे बढ़ चुकी होगी।

आगे स्पर्म यानी शुक्राणुओं और बच्चा पैदा करने वाली कुछ व्यस्क बातें हैं, जो युवाओं को सबसे ज्यादा समझ आएंगी। यानी युवाओं को सबसे ज्यादा हंसी आएगी, भई शुक्राणुओं की उम्र में उन्होंने अभी-अभी प्रवेश ही किया है। अब कमाई करते हैं, मल्टीप्लेक्स में जाना भी उनके हाथ है, और महानगरों में तो वीकेंड में मल्टीप्लेक्स जाकर नौ सौ-हजार रुपये टिकिट-पॉपकॉर्न-नाचौज-पेप्सी-बर्गर के कॉम्बो पर खर्च करना तो प्रथा बन गई है (ऐसी प्रथाएं जिन्हें तोड़ने के लिए अगली से अगली पीढ़ी के युवाओं को न जाने कितने पिंक-रेड-यैलो रेवोल्यूशन करने पड़ेंगे), इसलिए स्पर्म वाले जुमलों पर अपने पार्टनर के साथ फिल्म देखते हुए जोड़ों को खूब हंसी आएगी। हां, बच्चे जरूर शून्य महसूस करेंगे। पर बच्चों को भी मौजूदा मनोरंजन और मीडिया ने कम उम्र में ही एडल्ट कर दिया है, वे सब समझने लगे हैं। बाकी जो मध्यमवर्गीय दर्शकगण हैं, जिनमें साड़ी पहने भाभियां हैं, प्लेट वाली पेंट और चैक की शर्ट पहने भाईसाहब हैं, उनके छोटे-छोटे बच्चे बच्चियां हैं.. या मध्यमवर्गीय युवा हैं... ‘विकी डोनर’ के जुमलों पर उनके मुंह से हॉ... की आवाज भी निकलेगी ही।

फिल्म में 'फु**’, 'चेंप’, ‘भेन दा पकोड़ा’ और 'मेरी तो ले के रख ली आपने’ जैसे जुमले हैं, जो हंसाते हैं। हालांकि कई शब्द मर्यादित नहीं हैं, पर फिल्म में संदर्भ और हाव-भाव इतने प्राकृतिक है कि आलोचना करनी नहीं बनती। ‘विकी डोनर’ देखने वालों में शायद ही कोई होगा जो अपने दोस्त या साथी से इंटेलिजेंट स्पर्म, नॉटी स्पर्म, ग्रीडी स्पर्म और सैड स्पर्म जैसी बातें बोल हंस नहीं रहा होगा।

हालांकि मुझे 'तू आर्यन रेस है’ वाला डायलॉग अच्छा नहीं लगा। क्योंकि, ये हिंदोस्तान में नस्लों की श्रेष्ठता वाली बहस में कुछ लोगों को चुभता है और कुछ को झूठा गर्वीला अहसास देता है। पर हम आगे बढ़ते हैं।


संक्षेप में फिल्म की कहानी जानते हैं। दिल्ली में लाजपत नगर की रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले बेफिक्र लड़के विकी अरोड़ा (आयुष्मान) की कहानी है। घर में डॉली ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कम उम्र में ही विधवा हो गई मां डॉली अरोड़ा (डॉली अहलुवालिया) हैं और दुनिया की सबसे प्यारी बीजी (कमलेश गिल)। विकी पर डॉ. बलदेव चड्ढा (अन्नू कपूर) नाम के फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट की नजर पड़ती है। जिन्हें अपने पेशंट्स के लिए सक्सेसफुल काउंट वाले स्पर्म चाहिए। विकी में उन्हें उम्मीदें नजर आती हैं। विकी, तमाम ना-नुकुर के बाद डोनर बन भी जाता है, पर दुनिया से छिपाकर। उसकी जिंदगी में बैंक में काम करने वाली बंगाली लड़की आशिमा रॉय (यामी) आती है। मगर उससे ये राज छिपाना ही शायद आगे उन दोनों के रिश्ते को बिगाड़ जाता है।

‘विकी डोनर’ की एक छोटी सी महानता ये भी है कि यह स्पर्म डोनेशन के प्रति लोगों को जागरुक करती है। बड़ी ही आसानी से फिल्म राह भटक सकती थी, पर नहीं भटकती, सस्ती और ओछी नहीं होती, अपनी ही नजरों में नहीं गिरती। ये जागरुक करती है। एक महानता से पेट नहीं भरता तो दूसरी महानता के रूप में फिल्म का संदेश बच्चा गोद लेने का होता है। जिन निस्संतान और बंजर दंपतियों को विकल्प नहीं मिलता उन्हें फिल्म ऐसा आदर्श और व्यावहारिक समाज दिखाती है जहां स्पर्म डोनेशन की राह में जाने की बजाय बिन मां-बाप के बच्चों को गोद लिया जा सकता है। तो बच्चा अडॉप्ट करने का संदेश भी है।

चंडीगढ़ के आयुष्मान खुराना ‘रोडीज-2’ के ऑडिशन में 2004 में नजर आए। वह सीजन उन्होंने जीता भी। अपने डिंपल पड़ते गालों के साथ एमटीवी पर वीजेइंग करने लगे। बाद में टीवी के बड़े-बड़े कार्यक्रमों में इन्होंने अपनी एंकरिंग क्षमताओं और बेदाग उच्चारण से चौंकाया। हर बार वह माइक लेकर ‘म्यूजिक का महामुकाबला’ (साथ में ‘जस्ट डांस’, ‘इंडियाज गॉट टैलेंट’ और ‘एक्स्ट्रा इनिंग्स’ जैसे शो भी) जैसे शो में उतरे तो गायकों की बराबरी का तेज उनकी प्रस्तुति में था। उनमें कुछ था। पर जानते हैं, फिल्मों में सफल होने, न होने का फैसला आंखों की चमक से हर बार नहीं होता।

‘विकी डोनर’ में पहले ही सीन में जब विकी को उसकी मां डॉली छत पर बने उसके कमरे में जगाने आती हैं (बाहर धूप में बैठी विकी की बीजी को मत भूलिएगा) तो देखती हैं कि टीवी चोरी हो चुका है और विकी सो रहा है। अपने किरदार को सुगाढ्य करते हुए डॉली लाजपत नगर की डॉली ब्यूटी पार्लर वाली डॉली और विकी की मां (कम उम्र में विधवा हो चुकीं) मिसेज अरोड़ा बन जाती हैं। उनकी आवाज, अदा, अंदाज और किरदार के अध्ययन में गजब की ऊष्मा है। ऐसा ही कमलेश गिल ने अपने किरदार के साथ भी किया है। खैर, इस सीन में विकी को वह जगाती हैं, कुछ शोर मचाती हैं, विकी बने आयुष्मान उठते हैं, छत के ऊपर और दीवार से नीचे झांककर देखते हैं, “देख लो आपकी बेकार साड़ियों के सहारे कूदकर भाग गया, फिर भी मुझे बोल रहे हो” (अक्षरश नहीं)। वह अपनी लगातार बड़बड़ा-चिल्ला रही मां को जवाब देते हुए इधर-ऊधर देख रहे हैं और ऊधर दादी बनी कमलेश गिल (दिल्ली की शानदार थियेटर एक्टर, भगवान उन्हें लंबी उम्र बख्शे) अपने पोते का पक्ष ले रही हैं। अब इस सीन में देखिए। पहला तो आयुष्मान, डॉली और कमलेश का तालमेल कमाल का है। सीन की गति बनी रहती है, वह भी विशुद्ध यथार्थ के साथ। बाद में मां का बड़बड़ाना सुनने से ऊबा विकी उनका कुत्ता लेकर सीढ़ियां उतर जाने लगता है। मां डॉली की टोन तुरंत बदल जाती है, “अरे, इसे कहां ले जा रहा है, तू वापिस आजा, सुन तो सही”। फिर जब वह चला जाता है तो शायद ये कहना कि “मुझे मेरा टीवी चाहिए बस मैं कुछ नहीं जानती”। तब तक दादी अपनी बहू को साथ के साथ कोस चुकी होती हैं (सहनीय कोसना) जब डॉली सीढ़ियां उतरने लगती हैं तो दादी कहती है “सुन तो मुझे एक चाय तो बना दे”।

 .... अब आप क्या कहेंगे, इस सीन के बारे में। हिमाचल मूल की और विज्ञापन जगत की पृष्ठभूमि वाली जूही चतुर्वेदी फिल्म की जुबान हैं। उन्होंने ही कहानी, पटकथा और संवाद लिखे हैं। फिल्म की कहानी जिस दिल्ली के लाजपत नगर में बसी है, जूही काफी वक्त वहीं रही है। ऐसी ही डॉलियों, दादियों और विकियों के बीच। किसी भी लहजे और हाल में ‘विकी डोनर’ की आत्मा बनी पटकथा का श्रेय जूही के अलावा किसी दूसरे को नहीं दिया जा सकता। स्पर्म डोनेशन को और बच्चा गोद लेने को संदेश बना देना, रात में डॉली और उनकी सास के दारू पीते हुए अत्यधिक रोचक सीन गढ़ देना, विकी और आशिमा के परिवारवालों के बीच पंजू (पंजाबी) और बॉन्ग (बंगाली) को लेकर इतने कलाकारी भरे हिलाने वाले लेकिन मजाकिया हालात पैदा कर देना, बंगालियों से भंगड़ा करवा देना... ये सब जूही चतुर्वेदी की समझ से आया। वो ही लाईं। यहां तक कि एक छोटी सी चीज है। विकी और आशिमा चैट कर रहे हैं। विकी उसे ‘फिश’ लिखता है तो आशिमा का जवाब आता है ‘बटर चिकन’। एक-दूसरे को दिए इन नामों से दोनों के बंगाली-पंजाबी बैकग्राउंड तो पता चलते ही हैं, बल्कि संबोधनों के पुराने ढर्रे में भी ताजगी आती है।

एक और सीन में जूही की लेखनी की कल्पना करते हुए गौर कीजिए। आशिमा अपने घर आ चुकी है, विकी की शक्ल भी नहीं देखना चाहती। उसके पिता के रोल में (मरहूम महान उत्पल दत्त की याद दिलाते अनेकों-अनेक तारीफों के हकदार) एक्टर जयंत दास पहले तो कहते हैं कि “तुम इतनी आधुनिक होकर इन बातों को इश्यू बना रही हो कि विकी कभी स्पर्म डोनेशन किया करता था”। कुछ सीन बाद वह एक बार फिर अपनी बेटी से कहते हैं, “तुम विकी से इसलिए नाराज हो कि उसने तुम्हें बताया नहीं कि वह स्पर्म डोनेशन करता था, या इसलिए कि तुम कभी मां नहीं बन सकती लेकिन वह पिता बन सकता है”

देखिए, कितने रंग साथ घुल रहे हैं। इसी से फिल्म कमाल हो रही है। जूही के संवाद और स्थितियां हैं, जयंत दास - डॉली अहलुवालिया – आयुष्मान – कमलेश गिल – अन्नू कपूर – यामी का सहज अभिनय है और शुजित सरकार की दृष्टिकोण है। किरदारों की रंगत और रुख क्या रहना है, उनका निर्देशन बखूबी तय कर रहा है। 2004 में आई अपनी फिल्म ‘यहां’ के निर्देशन में भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह एक अच्छी फिल्म थी, बस लोगों के दिलों तक पहुंच नहीं पाई। मगर ‘विकी डोनर’ के साथ शुजित को इंसाफ मिल गया है।

लंबे अरसे से फिल्मों में डॉली, जयंत और कमलेश गिल जैसे अदाकार और उन से किरदार नहीं आए थे। ‘विकी डोनर’ के साथ आए और तृप्ति दे गए। इसमें डॉ. चड्ढा की भूमिका में अन्नू कपूर को नहीं भूला जा सकता। उनके किरदार जैसे किरदार तो बहुत आए हैं, पर उनकी तरह निभाए किसी ने नहीं है। मैं शर्त लगाता हूं उनकी तरह कोई ‘भेन दा पकोड़ा’ या ‘भेन दा परौंठा’ कहकर दिखा दे। कोई स्पर्म के आगे अलग-अलग मूड के साथ इंटेलिजेंट, नॉटी, कन्फ्यूज्ड और अलग-अलग अलंकार लगाकर दिखा दे, कोई उनकी तरह “ये तो ऋषि मुनियों के टाइम से चला आ रहा है, पहले के जमाने में औरतों के बच्चे नहीं होते थे तो वो बाबाओं के पास जाती थी, बाबा बच्चे नहीं, बाबा ने कुछ नी करना, .... (हाथ से इशारे बनाते हुए).. लो हो गया..”। अन्नू कपूर को परदे पर देखना हमेशा आनंद होता है। भले ही ‘जमाई राजा’ में पल्टू के रोल में या ‘मिस्टर इंडिया’ में एडिटर गायतोंडे बने हुए... दर्जनों शानदार रोल ऐसे हैं जिनमें वह मुख्य किरदारों के बराबर खड़े दिखते हैं। ‘गर्दिश’ में भीख मांगने को बिजनेस बनाने वाले मनीषभाई हरीशभाई को क्यों भूलते हैं।

‘पान सिंह तोमर’ के बाद इस साल की दूसरी सबसे उत्कृष्ट प्यारी सी फिल्म है ‘विकी डोनर’। जरूर देखें।

*** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, February 3, 2012

गली गली चोर है कह देना ही काफी न था, कोई रास्ता दिखाते

फिल्म: गली-गली चोर है
निर्देशकः रूमी जाफरी
कास्टः अक्षय खन्ना, श्रिया सरन, मुग्धा गोडसे, सतीश कौशिक, मुरली शर्मा, अमित मिस्त्री, अन्नू कपूर, जगदीप, विजयराज
स्टारः ढाई, 2.5/5

"ये सब मन के भी हैं काले, ये सब धन के भी हैं काले, मेरे घर में ही रहते हैं मेरा घर लूटने वाले। जो चीजें जंगलों की हैं, उन्हें जंगल में रहना था, वो अब दिल्ली में रहते हैं जिन्हें चंबल में रहना था"
सिस्टम को जमकर कोसने की शुरुआत निर्देशक रूमी जाफरी अपनी फिल्म में स्वानंद किरकिरे के लिखे इस गीत से करते हैं। इशारा बार-बार दिल्ली यानी केंद्र सरकार की नीतियों की ओर होता है। फिल्म कहती है कि गली-गली में चोर है, चारों तरफ बेशर्म भ्रष्टाचारी हैं और आम आदमी डरा हुआ है। शरीफ होते हुए भी उसे पुलिस थाने में जाने से लेकर शनिवारी के बर्तन में शनि भगवान को तेल नहीं चढ़ाने तक से डर लगता है। उसका सवाल है कि किस्मत हमेशा आम आदमी की ही क्यों खराब होती है?

फिल्म बनाने वाली पूरी टीम के इस प्रयास को हम आंखें बांधकर देखते हैं। चूंकि मुद्दा हम सभी से जुड़ा है तो चिंता भी होती है, पर फिल्म औसत ही साबित होती है। न तो ये हमें 'मुन्नाभाई सीरिज' की तरह घर जाते वक्त परेशानी में सबको जादू की झप्पी देने का दिलकश तरीका देती है, न गुलाब के फूलों के साथ 'गेट वेल सून' कहने का नारा और न ही भ्रष्टाचार से त्रस्त एक रिटायर्ड पेंशनर को पेंशन ऑफिस जाकर पूरे कपड़े उतारकर बाबू को सबक सिखाने का आइडिया सुझाती है।

'गली-गली चोर है' के साथ दिक्कत इतनी ही है कि ये न 'चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस' हो पाती है और न ही 'जाने भी दो यारों' शुरू एक मजेदार फिल्म की तरह होती है और खत्म एक प्रयोगी फिल्म की तरह पथरीली जिंदगी की हकीकत सी। मैं कहूंगा कि बुरी नहीं है एक बार जरूर देखें क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है कि आपके मसलों पर कोई पूरे दो घंटे की फिल्म बनाए। ठीक-ठाक है।

भोपाल के भारत (अक्षय खन्ना) की कहानी है। बैंक में कैशियर है और अशोक नगर की रामलीला में हनुमान का रोल करता है। घर में एक आम पिता (सतीश कौशिक) और स्कूल टीचर वाइफ निशा (श्रिया सरन) है। एक कॉल सेंटर में काम करने वाली किराएदार अमिता (मुग्धा गोडसे) है जिसकी वजह से भारत और निशा में गलतफहमियां पैदा होती हैं। आगे की कहानी ये है कि कैसे लोकल एमएलए त्रिपाठी (मुरली शर्मा) और रामलीला में घटिया एक्टिंग करते हुए राम का रोल करने वाला उसका छोटा भाई (अमित मिस्त्री) भारत को भ्रष्ट सिस्टम के चक्करों में उलझाकर बर्बाद कर देते हैं।

तुरत-फुरत तकनीकी बात करें तो चोर छन्नू फरिश्ता बने विजयराज बड़े मामूली रोल में भी परदे पर जान डाल देते हैं। वेटर बने मोहित बाघेल हंसाते, पर उनका निर्देशन सही से नहीं हुआ। हवलदार परशुराम कुशवाह बने अन्नू कपूर ठीक-ठाक एक्टिंग तो करते हैं पर पूरी फिल्म में उनकी पेस्ट लगी नकली मूछें साफ नजर आती हैं। श्रिया सरन और अक्षय खन्ना अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ते, निभा जाते हैं। रूमी जाफरी ने दर्जनों 'नंबर वन' अंदाज वाली सुपरहिट फिल्में लिखी हैं, पर निर्देशक के तौर पर उनकी ये तीसरी फिल् भी यादगार नहीं हो पाती। मोमुक्षु मुद्गल की लिखी स्क्रिप्ट और डायलॉग कुछ उल्लेखनीय हो सकते थे पर फिल्म को औसत ही बनाए रखते हैं। उनके लिखे में विडंबनाएं दिखती हैं, हालांकि वो प्रभावी नहीं हैं। जैसे, संकटमोचन हनुमान का रोल करने वाले भारत के चेहरे पर उदासी, राम का रोल करने वाले त्रिपाठी के घर मुंबई से आई डांसर और एक टूटे-फूटे पंखे पर सिस्टम के करप्शन की वजह से खर्च होते 31,000 रुपये।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, February 19, 2011

इस खून की माफी नहीं मिलेगी

फिल्मः सात खून माफ
निर्देशकः
विशाल भारद्वाज
कास्टः प्रियंका चोपड़ा, विवान शाह, नील नितिन मुकेश, जॉन अब्राहम, इरफान खान, अन्नू कपूर, अलेक्जांद्र दाइशेंको, नसीरुद्दीन शाह, उषा उत्थुप, हरीश खन्ना, शशि मालवीय, कोंकणा सेन शर्मा, मास्टर अयूष टंडन, रस्किन बॉन्ड
स्टारः ढाई 2.5

लिफ्ट में उन फनलविंग यंग दोस्तों में एक मैं ही अजनबी था। 'सात खून माफ’ देखने के दौरान हर सीरियस सीन का उन्होंने मजाक उड़ाया और अब वापिस जा रहे थे। कैसी फिल्म है, इसे उन्हीं की भाषा में कहें तो ...सिर भारी हो गया, यार कुछ समझ ही नहीं आया। हां ये कुछ ऐसी ही मूवी है। विशाल भारद्वाज उन फिल्म मेकर्स में से हैं जो हिंदी फिल्मों के एक कोने में बैठे अपनी ही तरह की फिल्में बना रहे हैं। इनमें कुछ लिट्रेचर होता है, तो कुछ वर्ल्ड सिनेमा। उनकी मूवीज दर्शकों के लिए एक्सपेरिमेंटल फिल्मी भाषा वाली साबित होती हैं। कभी डार्क, डिफिकल्ट और परेशान करती तो कभी प्यारी सी 'ब्लू अंब्रैला’ जैसी। जिन लोगों को अंग्रेजी नॉवेल पढऩा और फिल्में बनाना पसंद हैं, उनके लिए 'सात खून माफ’ अच्छी फिल्म है और जो खुश होने के लिए फिल्में देखने जाते हैं उन्हें यहां खुशी के अलावा सब कुछ मिलेगा। ये फैमिली या दोस्तों के साथ जाकर देखने वाली मूवी नहीं है। ज्यादा अटेंशन रखते हैं तो अकेले जा सकते हैं। फिल्म के आखिर में सुजैना की इस शॉर्ट स्टोरी को लिखने वाले नॉवेल राइटर रस्किन बॉन्ड का भी छोटा सा रोल है.. उन्हें पहचानना न भूलें।

बात सात की
कहानी है सुजैना उर्फ सुल्ताना उर्फ एनी उर्फ सुनयना (प्रियंका चोपड़ा) की। 1964 के आस-पास की बात है। पिता की मौत के बाद सुजैना अपने पॉन्डिचेरी वाले घर में कई फैमिली मेंबर जैसे सर्वेंट्स के साथ रहती हैं। इनमें घोड़ों की देखभाल करने वाला कम कद का गूंगा (शशि मालवीय) है, एक बटलर गालिब (हरीश खन्ना) है, मैगी आंटी (ऊषा उत्थुप) है और गूंगा का गोद लिया बेटा (जिसे गूंगे ने कभी गोद में नहीं लिया) अरुण (मास्टर अयूष टंडन) है। अब आते हैं काम की बात पर और जल्दी से सब पति परमेश्वरों से मिलते हैं। सुजैना की पहली शादी होती है मेजर एडविन रॉड्रिग्स (नील नितिन मुकेश) से। मेजर साब कीर्ति चक्र विजेता हैं और ऑपरेशन ब्लू स्टार में हिस्सा ले चुके हैं। एक टांग लड़ाई में चली गई। मदाम की दूसरी शादी होती है जमशेद सिंह राठौड़ उर्फ जिमी (जॉन अब्राहम) से और तीसरी मोहम्मद वसीउल्ला खान उर्फ मुसाफिर (इरफान खान) से होती है। आगे बढ़ते हैं। पति नंबर चार हैं निकोलाइ व्रॉन्सकी (अलेक्जांद्र दाइशेंको), पांचवें हैं कीमत लाल (अन्नू कपूर) और छठवें पति हैं डॉक्टर मधुसूदन तरफदार (नसीरुद्दीन शाह), सातवां पति सरप्राइज है.. हालांकि ये सरप्राइज चौंकाता नहीं है, बस कहानी को स्पष्ट एंगल पर खत्म करता है। इस कहानी को नरेट करते हैं अरुण (विवान शाह) और सुजैना।

बेकरां हैं बेकरां
फिल्म के म्यूजिक को चतुराई से बरता गया है। इसमें हर शादी की कहानी को रियलिस्टिक बनाने के लिए कैरेक्टर के मिजाज का म्यूजिक इस्तेमाल होता रहता है। मेजर एडविन की कहानी में घुसते ही बैकग्राउंड में तानाशाह और हिंसक माहौल वाला म्यूजिक भी घुसता है। उसका गूंगे के साथ लड़ने के वक्त वो क्रूरता वाला-बेदर्दी वाला थाप, फिर मौत के वक्त चर्च का म्यूजिक और चर्च में जिमी से शादी करने से लेकर इस कहानी के अंत तक गिटार का ही खास इस्तेमाल म्यूजिक में हुई बारीक मेहनत को दिखाता है। मसलन, गिटार बजाने वाले जिमी की कहानी में ओ मामा.. जैसे गिटार आधारित गाने से फिल्म का टेस्ट बदल देना। वादियों की कहानी के दौरान कश्मीर की हवा सा पूरा फेफड़ों भरा सुकून म्यूजिक में दिखता है। बेकरां हैं बेकरां, आंखें बंद कीजे ना, डूबने लगे हैं हम, सांसें लेने दीजे नां... विशाल ने खुद गाया है। मुझे फिल्म का बेस्ट गाना लगा। जब निकोलाइ की कहानी का हिस्सा आता है तो घर की वाइन से लेकर संगीत तक पर रशियन असर आता है। डार्लिंग आंखों से आंखों को.. गाने की मैलोडी भी रूसी गाने 'कलिंका’ से ली गई है। मास्टर सलीम का गाया आवारा.... हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा, पांव जमी पर लगते ही उड़ लेते हैं दोबारा, आवारा... फिल्म का दूसरा सबसे अच्छा लिखा और पिरोया गाना है।

कैसे-कैसे एक्टर लोग
नील नितिन मुकेश मेजर के रोल में मेच्योर लगते हैं। प्रियंका से भी मेच्योर। एक 'मर्द’ होने का जो जरूरी भाव उनके रोल के लिए जरूरी था, वो ले आते हैं। इरफान अपने शायर वाले रोल में भले ही नया कुछ न डाल पाएं हों पर एक पति के तौर पर वो एक्सिलेंट लगे हैं। अपनी मौत को सामने देखकर जो उनकी आंखों से छिपे आंसू ढलक रहे होते हैं, उन्हें शायद ज्यादा लोगों ने नोटिस नहीं किया होगा। जॉन अब्राहम की स्टोरी में ड्रग्स से होने वाली कमजोरी से उनका ढीला पड़ा शरीर देख पाना आश्चर्य था। कैरेक्टर के लिए बॉडी में इतना बदलाव अच्छा लगा। विवान अपनी पहली फिल्म में किसी मंझे हुए एक्टर से लगते हैं। नसीर परिवार का एक और नगीना हैं वो। अन्नू कपूर को 'तेजाब’ और 'जमाई राजा’ जैसी फिल्मों के छोटे मगर सदाबहार रोल के बाद यहां कीमत लाल बने देखना लाजबाव रहा। वो एक अलग ही किस्म के आम इंसान लगते हैं। मिसाल के तौर पर सुजैना के साथ रात बिताने के बाद उनका थैंक्यू बोलने का तरीका और बाद में एक सीन में फफक-फफककर उससे शादी करने की गुहार लगाने को लिया जा सकता है। रूसी एक्टर अलेक्जांद्र और नसीरुद्दीन शाह की भी ठीक-ठाक मूमिका है। प्रियंका की बात करें तो आखिर की तीन कहानियों के दौरान उनके चेहरे के बदलाव में उम्र आगे-पीछे लगने लगती है। पहली तीन कहानियों में उनसे सहानुभूति होती है, बाद की तीन में वो विलेन लगती हैं।

कहानियों का कैलेंडर
ये फिल्म चूंकि सुजैना की लंबी जिंदगी के कई हिस्से दिखाती है ऐसे में कहानी किस साल में कही जा रही है, ये दिखाना जरूरी था। फिल्म में आउटडोर लोकेशन या पब्लिक प्लेसेज वाले सीन तो हैं नहीं, ऐसे में डायरेक्टर विशाल भारद्वाज ने कैलेंडर बना दिया भारत में हो रही तब की राजनीतिक, सामाजिक और दूसरी घटनाओं को। सबसे पहले दिखती है दूरदर्शन के प्रोग्रैम कृषि दर्शन की झलकी। उसके बाद आता है टी-सीरिज और वो दौर जब फिल्मी गानों की ट्यून पर माता के भजन गाए जाते थे। छोटे-बड़े रूप में बर्लिन की दीवार, वी पी सिंह की सरकार, बप्पीदा का गान, बाबरी विध्वंस और कश्मीर में प्रदर्शन करते पत्थरबाज लड़कों का जिक्र दिखाया जाता है। देख तो दिल के जान से उठता है... में मेंहदी हसन और गुलाम अली के रेफरेंस हल्के ही सही नजर आते है। रेफरेंस की छोटी-छोटी कई बातें आती रहती हैं। कुडानकुलम न्यूक्लियर प्रोजैक्ट का जिक्र है। सुजैना के चौथे पति निकोलाइ के मुंह से ही हमें पता चलता है कि उनकी कहानी के दौर में भारत न्यूक्लियर ताकत बनने में रूस की मदद ले रहा है। फिल्म में एंटोल फ्रैंस के नॉवेल 'द सेवन वाइव्ज ऑफ ब्लूबर्ड’ और नॉवेल अन्ना कुरेनिना की कॉपी दिखती हैं। सबसे लेटेस्ट टाइम में हम पहुंचते हैं छठवी कहानी में जब रेडियो पर मुंबई के होटल ताज और ट्राइडैंट पर आतंकवादी हमले की खबर आती है। संदीप उन्नीकृष्णन के शहीद होने की खबर सुनाई जाती है।

तवे से उतरे ताजा डायलॉग
नसीरुद्दीन शाह के बेटे विवान बने हैं अरुण कुमार। अरुण पूरी फिल्म में सूत्रधार हैं। सुजैना की कहानी बताते हैं। इनका कैरेक्टर्स से मिलवाने का तरीका बड़ा सहज और ह्यूमर की टोन वाला है। वॉयसओवर में ताजगी है। वसीउल्ला से मिलवाते वक्त ये कहना... वसीउल्ला अपनी शायरी में जितना नाजुक और रूहानी है... प्यार में उतना ही बीमार या फिर निकोलाइ से सुजैना की शादी के वक्त कहना... इंडिया का न्यूक्लियर टेस्ट सफल रहा और हिरोशिमा हुआ मेरा दिल। दो विस्फोट हुए। एक तो साहेब (प्रियंका) की शादी और दूसरा मैं मॉस्को रवाना हो गया।... दोनों ही डायलॉग के दौरान विवान अलग किस्म के कम्फर्टेबल एक्टर लगते हैं। इनकी आवाज से ये पुख्ता होता रहता है। मेजर रॉड्रिग्स बने नील सुजैना से कहते हैं, तितली बनना बंद करो, यू आर ए मैरिड वूमन तो फिल्म को यूं ही खारिज करना मुश्किल हो जाता है। ये डायलॉग गहरे अर्थों वाले हैं। इनमें चुटीला व्यंग्य हैं, जैसे कि ये डायलॉग.. यही होता है मियां, जल्दी-जल्दी शादी करो और फिर आराम-आराम से पछताओ। फिल्म की सीधी आलोचना करना शायद इसलिए भी मुश्किल है कि फिल्म के कई पहलुओं पर खासा अच्छा काम किया गया है।

मलीना देखी है...
डायरेक्टर गायसिपी टॉरनेटॉर की 2000 में आई इटैलियन फिल्म 'मलीना’ में मलीना (मोनिका बेलुची) भी कुछ ऐसी ही औरत होती हैं, जिसपर पास के एक लड़के का क्रश होता है। उस फिल्म में वो कारण स्पष्ट होते हैं जिनकी वजह से 12 साल का रेनेटो मलीना के प्रति फिल्म के आखिर तक आकर्षित रहता है। 'सात खून माफ’ में अरूण (विवान) सुजैना पर मोहित क्यों होता है इसका सिर्फ एक ही लॉजिक दिया जाता है। वो ये कि उसे नौकरों वाली जिंदगी से निकालकर सुजैना पढ़ने-लिखने स्कूल भेजती है। एक लड़के के एक बड़ी उम्र की औरत पर इस तरह फिदा होने की विश्वसनीय कहानी तो 'मलीना’ ही है 'सात खून माफ नहीं।‘

आखिर में...
आदमखोर शेर या पैंथर को पकडऩे की कहानियां सिर्फ 'सत्यकथा’ में ही पढ़ी थीं। हिंदी मूवीज में ऐसा काफी कम देखने को मिलता है। पैंथर पकड़ने के लिए बकरी बंधी है और मेजर रॉड्रिग्स सुजैना के साथ ऊंची मचान पर बैठे हैं। ऐसे कई अलग-अलग रंग सुखद हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी