Sunday, March 11, 2012

स्टोरीज के बासी संसार में आई है एक नई कहानी

फिल्मः कहानी
निर्देशकः सुजॉय घोष
कास्टः विद्या बालन, परमब्रत चैटर्जी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इंद्रनील सेनगुप्ता, नित्य गांगुली, कल्याण चैटर्जी, रिद्दी सेन, शाश्वत चैटर्जी, खराज मुखर्जी, दर्शन जरीवाला
स्टारः तीन, 3.0

हालांकि आमिर खान स्टारर तलाश आने को है, पर उससे पहले ही एक इज्जतदार थ्रिलर आई है कहानी। शुरू से आखिर तक फिल्म में पर्याप्त रहस्यमयी किरदार, घटनाक्रम और खुलासे हैं। डायरेक्टर सुजॉय घोष ने होम डिलीवरीऔर अलादीन जैसी अपूर्ण मनोरंजक फिल्मों के बाद खुद के लिए अपने करियर का पहला मोक्ष पा लिया है। फिल्म में उन्होंने तमाम प्रयोग किए हैं और उनपर कंट्रोल रखते हुए किए हैं। विद्या की मदद करने वाले कुशल बंगाली एक्टर परमब्रत चैटर्जी के किरदार का नाम सात्योकि रखा, जिसका मतलब होता है सात्यकि यानी महाभारत में अर्जुन का सारथी। यहां वह विद्या की महाभारत में उनका सारथी है। जिस जीरो स्टार होटल में विद्या ठहरी हैं, उसका इंट्रेस्टिंग रिसेप्शनिस्ट, वहां काम करने वाला छोटा लड़का, इंश्योरेंस एजेंट के भेस में स्लीपर सेल की तरह शूटर का काम करने वाला एक और शानदार बंगाली एक्टर या फिर इंटेलिजेंस का ऑफिसर ए. खान (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) ये सब फिल्म के नगीने हैं। इनकी अदाकारी को आप इनके रोल के आकार के हिसाब से नहीं देख सकते, ये उम्दा हैं। सबको ढेरों तारीफें। इनके किरदारों को सुजॉय ने अच्छे से गढ़ा है। जैसे, खान के इतना गुस्सा क्यों आता है, वह छोटा लड़का इतना प्यारा क्यों है, विद्या बच्चों के साथ इतने प्यार से बर्ताव कैसे कर लेती हैं, इंस्पेक्टर सात्योकि के मन में विद्या के लिए एक पवित्र प्रेम कैसे उमड़-घुमड़ रहा है और कभी पुलिस का मुखबिर हुआ करता वह बूढ़ा बंगाली एक्टर कितना अपारंपरिक मुखबिर लगता है। इन्हीं सब सवालों और जवाबों के बीच फिल्म की कहानी अनोखी है, क्लाइमैक्स तो वाकई अप्रत्याशित है। मैं दावा कर सकता हूं कि हमने ये क्लाइमैक्स किसी अंग्रेजी फिल्म में भी शायद ही देखा होगा।

दो घंटे मनोरंजन पाने थियेटर गए लोगों को लंबे वक्त तक शायद फिल्म में क्या हो रहा है ये समझ न आए। और, थ्रिलर जॉनर को पसंद करने वाले दर्शकों को शायद फिल्म हार्डकोर न लगे, उनके रौंगटे शायद न खड़े हों, पर ‘कहानी’ जैसी भी है, एक अच्छी फिल्म है। इसमें जो मनोरंजन है वो तरोताजा भी है, स्वस्थ भी है और देखने लायक भी है। बिल्कुल देखें।

कहानी सुनोगे...
कोलकाता मेट्रो में एक जैविक आतंकी हमला होता है, जिसमें बहुत सारे लोग मारे जाते हैं। उसके दो साल बाद का दृश्य। लंदन से एक फ्लाइट कोलकाता आती है। और, हवाई अड्डे से बाहर निकलती है प्रेग्नेंट विद्या बागची (विद्या बालन), जो टैक्सी वाले को सीधे कालीबाड़ी पुलिस स्टेशन चलने को कहती है। वहां वह रपट लिखवाती है कि उनका हस्बैंड, नाम – अर्नब बागची, उम्र – 33, रंग – सांवला, कद – 5 फुट 11 इंच... गुमशुदा है। वह बताती है कि वह दोनों फायरवॉल एक्सपर्ट हैं और अर्नब इंडिया किसी असाइनमेंट पर आया था और लौटा नहीं। रपट लिखवाने के बाद विद्या उसे खोजने की अपनी यात्रा पर आगे बढ़ती है। इस काम में उसकी मदद करता है वहीं पुलिस स्टेशन का एक इंस्पेक्टर सात्योकि सिन्हा (परमब्रत चैटर्जी)। बाद में खोज और कहानी और गहरी होती जाती है और मामला गुप्तचर एंजेसियों से जुड़ा निकलता है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, March 10, 2012

समीर कर्णिक का इक गैर-जिम्मेदार हंसी-ठट्ठा

फिल्मः चार दिन की चांदनी
निर्देशकः समीर कर्णिक
कास्टः कुलराज रंधावा, तुषार कपूर, ओम पुरी, अनुपम खेर, राहुल सिंह, सुशांत सिंह, चंद्रचूड़ सिंह, मुकुल देव, अनीता राज, जॉनी लीवर
स्टारः ढाई, .5

फिल्म की हाइलाइट हैं ओमपुरी, उनका मा की गाली बोलने का तरीका, चंद्रचूड़ सिंह-सुशांत सिंह-मुकुल देव की रॉयल-भोली गुस्ताखियां और सुंदर कुलराज रंधावा। पर दिक्कत वही हो जाती है। सबकुछ है। खूबसूरत खींवसर फोर्ट, बेहद रंगों भरी राजपूती पोशाकें, नमकीन जिंदादिल पंजाब और पंजाबी, तकरीबन दर्जन भर उम्दा अदाकार, उनके फनी तरीके से गढ़े गए किरदार, म्यूजिक और कॉमेडी भी। मगर स्क्रिप्ट जगह-जगह झूल जाती है। हम जॉनी लीवर को शुरू में अनुपम खेर के किरदार चंद्रवीर सिंह से नाराज होकर जाते हुए देखते हैं, फिर वह एक-दो सीन में भी दिखते हैं मगर उसके बाद वह आखिर तक नजर नहीं आते।

फिल्म में शुरू में एक बैग दिखाया जाता है जो वीर (तुषार) की शादी करने जा रही बहन का है, जो उसने चांदनी (कुलराज) से लंदन से मंगवाया है, जिसमें कुछ सुहागरात से जुड़ा हॉट सामान है। वह बैग यशवंत (सुशांत सिंह) के हथियारों से भरे बैग से बदल जाता है, पर फिल्म के आखिर तक फिल्म से यह संदर्भ गायब ही हो जाता है। पूरी फिल्म स्क्रिप्ट की बजाय फिट किए गए चुटकुलों के सहारे आगे बढ़ती है। इससे चीजें और किरदारों की गति बदलती लगती है। ओम पुरी अपने सबसे पहले सीन में जितने ज्यादा प्रभावी हैं बाकी फिल्म में उतनी ही ढीले कर दिए गए हैं। अनुपम खेर का किरदार भी ऐसा गढ़ा गया है कि वह कब चार्ली चैपलिन जैसे हो जाते हैं और कब एक गुस्सैल पूर्व राजा समझ नहीं आता। मामोसा बने राहुल सिंह का किरदार फिल्म में सबसे अनफिट है। अनीता राज के सर्जरी करवाए हुए होठ और गाल आंखों में किसी चीनी मिट्टी के बर्तन के नुकीले टुकड़े की तरह चुभते हैं।

खैर, फिल्म एक बार देख सकते हैं, बोर नहीं होंगे।

बचकाना, बुरा और बद्तमीज
# एक गे इंटीरियर डिजाइनर का कैरेक्टर गढ़कर पूरी फिल्म में उसका भद्दा मजाक उड़ाना।
# अनुपम खेर जोधपुर की एक रियासत खींवगढ़ (असल में वह खींवसर नाम का रॉयल ठिकाणा है और वहीं के खींवसर फोर्ट में फिल्म की शूटिंग हुई है) के पूर्व महाराज हैं, पर शराब के एक ब्रैंड के संदर्भ में वह बांसवाड़ा जिले का नाम सुनकर उसे भोंसवाड़ा कहते हैं, एक मुख्यधारा की फिल्म में इससे घटिया और बचकाना कुछ हो नहीं सकता। राजस्थान में किसी के लिए बांसवाड़ा फनी नाम नहीं है।
# यहां आते-आते निर्देशक समीर कर्णिक का थोथापन दिखने लगता है। सरदारों या पंजाबियों का जैसा चित्रण यहां है, वह फिल्मों में अब तक इस्तेमाल होती रही उनकी बारह बजने वाली, संता-बंता या कॉमेडी सर्कस के सुरिंदर जैसी बुरे सांचे में बंधी इमेज जैसी ही है। ये खराब बात है। पंजाब में तो सब हंस लेते हैं, पर बाहर के राज्यों में दर्शक सरदारों के प्रति एक असम्माननीय धारणा बना लेते हैं।

चांदनी और वीर की कहानी कुछ यूं है
जोधपुर में एक रियासत है खींवगढ़। यहां के पूर्व राजा हैं चंद्रवीर सिंह राठौड़ (अनुपम खेर)। इनकी वाइफ महारानी देविका (अनीता राज) और चार बेटे हैं। सबसे बड़े पृथ्वी सिंह (चंद्रचूड़ सिंह) के हाथ में हर पल जाम रहता है, उनसे छोटे उदयभान (मुकुल देव) रसिया किस्म के हैं, तीसरे नंबर पर काउबॉय अंदाज वाले गुस्सैल यशवंत (सुशांत सिंह) और चौथे सबसे छोटे हैं वीर विक्रम सिंह (तुषार कपूर) जो ऑक्सफोर्ड, लंदन से अपनी लुधियाना से ताल्लुक रखने वाली माशूका चांदनी (कुलराज रंधावा) को साथ लेकर लौटे हैं। चूंकि गढ़ में वीर की बहन की शादी का माहौल है और पिता हिज हाइनेस चंद्रवीर सिंह को अपनी किसी भी औलाद की शादी किसी गैर-राजपूती गैर-रॉयल खून के साथ कतई बर्दाश्त नहीं है, इसलिए वीर और चांदनी अपने रिश्ते को शुरू से ही छिपाकर सबकुछ ठीक करने की कोशिश करते हैं। पर हालात बिगड़ते जाते हैं और हास्य उत्पन्न होता जाता है। कहानी में वीर के शक्की मामा (राहुल सिंह), चांदनी के मां-पिता (फरीदा जलाल – ओम पुरी) और कान सिंह (जॉनी लीवर) आते जाते हैं। अब पेंच ये है कि वीर-चांदनी क्या चंद्रवीर सिंह को मनाकर शादी कर पाते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, March 4, 2012

हनुमान जी सी शक्तियां अगर किसी अमेरिकी लड़के में आज होती, तो वह जॉश ट्रैंक की इस फिल्म का किरदार होता

फिल्मः क्रॉनिकल (अंग्रेजी)
निर्देशकः जॉश ट्रैंक
लेखकः मैक्स लैंडिस और जॉश ट्रैंक
कास्टः डेन डहान, माइकल कैली, एलेक्स रसेल, माइकल बी. जॉर्डन
स्टारः साढ़े तीन, 3.5/5

अद्भुत। असरदार। असाधारण होते हुए भी साधारण रहने की कोशिश करती हुई। ये है सिर्फ 27 साल के डेब्युटेंट डायरेक्टर जॉश ट्रैंक की कुशलता से बनी फिल्म 'क्रॉनिकल’। फाउंड फुटेज जॉनर की शायद ये अब तक की पहली नॉन-हॉरर फिल्म है। कहानी है कॉलेज में पढ़ने वाले एंड्रयू (डेन डहान) की, जो एक कैमरा खरीदकर अपनी जिंदगी की हर चीज रिकॉर्ड करनी शुरू करता है। कॉलेज में उसे ताकतवर लड़के दबाते-पीटते हैं, गली में लोकल लड़के और घर में गुस्सैल-हिंसक पिता (माइकल कैली) जो अग्निशमन कर्मी हुआ करता था। एक एक्सीडेंट के बाद उसे जबरन रिटायर होना पड़ा और उसी से वह कुंठित रहता है। एंड्रयू अपनी केंसर से मर रही मां से बहुत प्यार कर रहा है, पर जिंदगी के हर पहलू में वह खुद को कमजोर और शोषित पाता है।

एक दिन पार्टी में पिटे जाने के बाद जब वह बाहर बैठकर रो रहा होता है तो उसके कजिन भाई मैट (एलेक्स रसेल) का दोस्त स्टीव (माइकल बी. जॉर्डन) उसे बुलाता है और कुछ दूर मैदान में हुए रहस्यमयी छेद को वीडियो रिकॉर्ड करने को कहता है। इसमें से बेहद भयंकर कंपन की आवाज आ रही होती है। फिर तीनों छेद में जाते हैं। कुछ दिन बाद तीनों महसूस करते हैं कि उनमें कुछ सुपरह्यूमन शक्तियां आ गई हैं। इन टेलीकनेटिक शक्तियों में ये अपनी दिमागी ताकत से कुछ भी कर सकते हैं। मगर बॉयज विल बी बॉयज। ये अपने दिमाग से संचालित बास्केटबॉल एक-दूसरे पर फैंकते हैं, करीब से गुजर रही लड़कियों के स्कर्ट उड़ाते हैं, डिनर फॉर्क को हाथ पर घोंपने का खेल खेलते हैं, बादलों से ऊपर उड़ते हैं और मॉल में लोगों को डराते हैं। लेकिन ताकत हमेशा जिम्मेदारी के साथ आती है, अगर ध्यान नहीं देंगे तो उसका बुरा असर सामने आता है। फिल्म में भी यही होता है।

'क्रॉनिकल का स्टोरी आइडिया और फिल्ममेकिंग कमाल की है। शुरू में आपको लगता है कि पता नहीं किस बेकार फिल्म को देखने आ गए हैं, मगर खत्म होते-होते ये अपना रुतबा बहुत बढ़ा चुकी होती है। इसके किरदार 'लव सेक्स और धोखाऔर अमेरिकी फिल्म 'टैरी के किरदारों जितने तुच्छ और असली हैं। तो उतने ही 'कैप्टन अमेरिका, 'आयरनमैन और 'सुपरमैन जितने काल्पनिक और महाशक्तिशाली। इस स्मार्ट संकल्पना वाली कहानी का श्रेय जाता है कॉमिक्स और वीडियो गेम्स के दीवाने डायरेक्टर जॉश और ब्रिलियंट यंग स्क्रीनप्ले राइटर मैक्स लैंडिस को। जॉश का निर्देशन कहीं भी कांपता नहीं है। एंड्रयू के रोल में डेन डहान इतने प्रभावी हैं कि ' बास्केटबॉल डायरीज और 'वट्स ईटिंग गिल्बर्ट ग्रैपमें लियोनार्डो डी कैप्रियो के चेहरे-मोहरे और अभिनय की याद दिलाते हैं। डेन काफी आगे जाएंगे। फिल्म का सीक्वल भी बन सकता है और उसमें एलेक्स रसेल मुख्य भूमिका में होंगे। सिनेमैटोग्रफर मैथ्यू जेनसन 'क्रॉनिकल’ को फाउंड फुटेज मूवी बनाए रखने में खरे उतरते हैं। पूरी फिल्म में कहीं नहीं लगता कि ये कोई फिल्म है और इसे कोई कैमरामैन शूट कर रहा है। एक फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यही होती है।

मैक्स लैंडिस बहुत कम उम्र में दर्जनों स्क्रीनप्ले लिख चुके हैं और 'क्रॉनिकल’ उनका पहला धमाका है। इसमें एक नयापन है। आधार तो सुपरहीरो फिल्में ही हैं, पर असर कॉपी किया हुआ नहीं लगता।

बरसात में पीछे से हॉर्न मार रहे गाड़ीवाले को एंड्रयू नदी में फैंक देता है, पर ऐसा नहीं है कि यहां ये तीनों दोस्त कुछ सुपरहीरो जैसा करते हैं, ये आम इंसानों की ही तरह डर जाते हैं, एक नदी में कूदता है और ड्राइवर को बचाकर लाता है, फिर 911 कॉल करते हैं, एम्ब्युलेंस बुलाते हैं।

शक्तियां अगर बिन मेहनत के आ जाएं तो कोई लड़का क्या करेगा। पहले तो मसखरी, शरारतें और दूसरों को थोड़ा सताने वाला काम करेगा। फिर अपनी पर्सनल इमोशनल प्रॉब्लम्स से जन्मे गुस्से को खुद पर हावी होकर खुद को बुरा बनने लगेगा। कॉलेज के टेलेंट शो में हिस्सा लेकर शॉर्ट सक्सेस पाने की कोशिश। मां की दवाई के लिए पैसा चाहिए तो एंड्रयू क्या करता है। कोई बैंक नहीं लूटता। वह अपने पिता की पुरानी फायरफाइटर वाली (जो उसपर बहुत ढीली रहती है) ड्रेस पहनकर पहले गली के बदमाश लड़कों को लूटता है। उनके बटुओं में तो बहुत कम पैसे मिलते हैं, फिर पास के पेट्रोल पंप कम ग्रोसरी स्टोर में जाता है, जहां लूट तो लेता है पर जाते-जाते पेट्रोल पंप पर हुए विस्फोट में घायल हो जाता है। अब अगर ये दूसरी सुपर हीरो फिल्म होती तो भला एक मामूली से पेट्रोल पंप पर वह खुद ब खुद घायल क्यों होता। स्पाइडरमैन या कैप्टन अमेरिका या आयरन मैन की तरह ये परफैक्ट उड़ाके नहीं हैं। एक बार तो ये एक हवाई जहाज से टकराते-टकराते बचते हैं।

ये सारी सुपरह्यूमन होते हुए भी अत्यधिक ह्यूमन बने रहने की जो बारीकियां पटकथा में डाली गई हैं, इसी वजह से मैक्स लैंडिस को ब्रिलियंट कहा जाना चाहिए।
*** *** *** *** *** गजेंद्र सिंह भाटी

अच्छा है अब भारत के भीतर से पान सिंह तोमरों की कहानी सुनाने कुछ इरफान, कुछ धूलिया आए हैं

फिल्मः पान सिंह तोमर
निर्देशकः तिग्मांशु धूलिया
कास्टः इरफान खान, माही गिल, विपिन शर्मा, राजेंद्र गुप्ता, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इमरान हस्नी
स्टारः चार, 4.0/5कई सुनहरे दृश्यों में ये एक अटककर साथ चला आया है। पान सिंह नेशनल बाधा दौड़ के ट्रैक पर दौड़ रहा है। कोच रंधावा (राजेंद्र गुप्ता) को जब लगता है कि वह धीरे दौड़ रहा है तो चिल्लाकर कहते हैं, "ओए पान सिंह, मा**** याद रखना, अगर हार गया तो तुझे मार-मारकर यहीं के यहीं गाड़ दूंगा।" जब पान सिंह जीत जाता है तो रंधावा बड़े राजी होते हैं, शाबासी देते हैं, पर वह कुछ नाराज है। रंधावा जब उससे पूछते हैं, तो वह रुआंसा होकर कहता है, "कोच साब आप गुरू हैं, लेकिन दोबारा मां की गाली नहीं देना। हमारे गांव में मां की गाली देने वाले को हम गोली मार देते हैं।" इतना कहकर वह रंधावा के पैर छू लेता है। और वो उसे गले लगा लेते हैं।
अब देखिए कि कितना सहज लेकिन धमाकेदार सीन है। ये फिल्म कुछ ऐसी ही है। हालांकि मैं पान सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं हूं, हालांकि ट्रैक पर दौड़ने वाले सीन में इरफान की कमजोर शारीरिक क्षमता साफ दिखती है पर तिग्मांशु का कुशल निर्देशन और आरती बजाज की चतुर एडिटिंग उस हिस्से को छिपाते रहते हैं, पर फिल्म बहुत पंसद आई। रॉ, सुंदर, कथ्यात्मक, रुलाने वाली, बांधे रखने वाली और अनुभवों से भरी हुई।

निर्देशक तिग्मांशु धूलिया पान सिंह नाम के इंसान को कितना गहराई से समझते और हमें समझाते हैं, फिल्म यहीं पर सबसे पहले जीतती है। उनके सभी किरदार कैमरे के अस्तित्व को जैसे नकारकर अभिनय करते हैं। पत्रकार बने बृजेंद्र काला, इरफान खान और माही हमारी सिनेमा देखने वाली इंद्रियों को भीतर तक तृप्त करते हैं। बृजेंद्र का अभिनय, अभिनय कम और किसी महीन डिजाइन वाले स्वेटर की बुनावट ज्यादा लगता है। पान सिंह का इंटरव्यू लेने का उनका पूरा सीक्वेंस यादगार है। इरफान के आर्मी वाले दिनों के जितने भी सीन हैं, बेहतरीन हैं। उनमें वह अपने ही अभिनय में नई परतें जोड़ते हैं। ये उनकी जिंदगी की सबसे कठिन फिल्म है। माही को मैं अब 'देव डी' के लिए नहीं 'पान सिंह तोमर' के लिए याद रखूंगा। ये फिल्म इंडस्ट्री में उनकी इज्जत बहुत बढ़ा जाएगी। इरफान-माही का सबसे कच्चा और पिघला देने वाला सीन है, जब इरफान घर के एक कोने में उनकी पीठ पर बच्चे की तरह अपना सिर टिका देते हैं। मैंने इससे ज्यादा रॉ सीन बरसों से किसी हिंदी फिल्म में नहीं देखा है। फिल्म के आखिर में मुल्क के उन खिलाडिय़ों को ट्रिब्यूट दी गई है, जिन्होंने ताउम्र देश को खेलों में मेडल दिलाए, पर जरूरत के वक्त मुल्क और सरकारों ने उनका साथ छोड़ दिया। फिल्म से 'आओ घर आओ चंदा' और 'जाओ ढल जाओ' जैसे गाने याद आते हैं। कर्णप्रिय और कहानी को रोचक बनाते हुए। फिल्म में पान सिंह तोमर जरूर देखें। प्रभावित होंगे।

कहानी एक तकड़े तोमर की
बहुत स्पष्ट, मेहनती और आम आदमी है पान सिंह तोमर (इरफान खान)। कब का गया 1950 में गांव लौटता है तो फौजी वर्दी में। घर में मां और बीवी इंदिरा (माही गिल) हैं। दौडऩे को वह एंजॉय करता है, इसलिए अपने साथी सैनिकों में सबसे अलग लगता है। वहां मेजर मसंद (विपिन शर्मा) उसकी मदद स्पोट्र्स में जाने में करते हैं। स्टीपलचेज में उसे कोच करते हैं रंधावा (राजेंद्र गुप्ता)। वह जीतता भी है। मगर फिर उसकी जिंदगी उसे खेलों से दूर कर, हाथ में राइफल और नसीब में चंबल के बीहड़ थमा देती है। ये कहानी जितनी औसत लग रही है, परदे पर उतनी ही इंट्रेस्टिंग लगती है। हर पल।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

क्योंकि डर के आगे डैविल है (और भीतर-भीतर भूत, प्रेत, पिशाच, जिन्न न जाने क्या क्या है)

फिल्मः डैविल इनसाइड (अंग्रेजी)
निर्देशकः विलियम ब्रेंट बेल
कास्टः सूजन क्राउडी, फर्नेंडो ऑन्ड्रेड, सिमोन क्वार्टरमैन, इवान हेल्मथ, आयनट ग्रेमा
स्टारः तीन, 3.0

इस जगत में जो ये कहते हैं कि उन्हें डर नहीं लगता, उन्हें 'द डैविल इनसाइड' जरूर देखनी चाहिए। फाउंड फुटेज वाले अंदाज में बनी डायरेक्टर विलियम ब्रेंट बेल की ये फिल्म शुरू में असली टीवी फुटेज का बड़े यकीनी तरीके से इस्तेमाल करती है। विशेषज्ञों से बातचीत, फ्रेम में पूरा नहीं आते किरदार, ऊपर-नीचे होता हिलता कैमरा और डॉक्युमेंट्री वाले सारे तत्वों से फिल्म पिछली फाउंड फुटेज फिल्मों (पैरानॉर्मल एक्टिविटी) से जरा अलग लगती है। रात के वक्त फिल्म के रॉ दृश्य बड़ा डराते हैं। कभी-कभी तो यूं लगता है कि थियेटर में किसी कच्चे दिल वाले को जरूर दिल का दौरा पड़ेगा। फिल्म से शिकायत ये भी हो सकती है कि अमेरिका में ऐसी कई फिल्में बन चुकी हैं और उनकी तुलना में 'द डेविल इनसाइड' बहुत ज्यादा नई नहीं है। कई प्रेत आने के दृश्य सभ्य नहीं हैं, पर रियल हैं। फिल्म एकदम व्यवस्थित नहीं है। फाउंड फुटेज में हाल ही में आई 'क्रॉनिकल' शानदार फिल्म थी। खैर, बच्चों को कतई साथ न ले जाएं। व्यस्क जाएं पर तैयार होकर।

अंदरुनी प्रेत की हकीकत और फसाना
30 अक्टूबर 1989 के दिन मारिया रॉसी (सूजन क्राउडी) पर एक्सॉर्सिज्म (चर्च की भूत भगाने की प्रक्रिया) करते हुए तीन प्रीस्ट बेदर्दी से मारे जाते हैं। टीवी पर खबरें आती हैं। फिर उन्हें रोम के कैथॉलिक साइकैट्रिक हॉस्पिटल में शिफ्ट कर दिया जाता है। बीस साल बाद मारिया की बेटी इजाबेला (फर्नेंडो ऑन्ड्रेड) मां की बीमारी की वजह जानना चाहती है और इसलिए एक्सॉर्सिज्म पर माइक के साथ मिलकर डॉक्युमेंट्री बना रही है। वह रोम में एक एक्सॉर्सिज्म पर तार्किक बहस करने वाली स्कूल में जाती है। वहां उसे दो प्रीस्ट बेन (सिमोन क्वार्टरमैन) और डेविड (इवान हेल्मथ) मिलते हैं। अब ये चारों मिलकर मारिया की बीमारी या भूतबाधा के बारे में पता लगाने निकलते हैं। पर नतीजे अच्छे नहीं होते।
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गजेंद्र सिंह भाटी

प्यार करने वालों की 'एक रुका हुआ फैसला'

फिल्म: लंदन, पैरिस, न्यू यॉर्क
निर्देशकः अनु मेनन
कास्टः अदिति राव हैदरी, अली जफर
स्टारः तीन, 3.0फिल्म में निखिल ललिता से एक सीन में अपने फिल्म स्कूल के साथियों के बारे में कहता है, "उन लोगों को फिल्ममेकिंग के बारे में कुछ नहीं पता। फिर भी उन्हें लगता है कि फिल्म स्कूल से निकलेंगे और डेविड लिंच बन जाएंगे।" अमेरिका के जाने-माने फिल्मकार डेविड लिंच का जिक्र 'लंदन पैरिस न्यू यॉर्क' की राइटर-डायरेक्टर अनु मेनन अपने कैरेक्टर्स के मुंह से करवाती हैं। थैंक गॉड, अनु फिल्म स्कूल के उन लड़के-लड़कियों की तरह नहीं हैं। उन्होंने खुद को डेविड लिंच नहीं समझा है। बस अपना रास्ता चुना है और ये फिल्म बनाई है। जो मास्टरपीस होने का दावा नहीं करती, पर अपने अंदाज में बहुत अच्छी फिल्म है। लव को देखने का ये अलग तरीका है। हालांकि होता वही है, मिलना, गलतफहमी होना, बिछडऩा और फिर मिल ही जाना। लेकिन मैंने इतनी हल्की-फुल्की, स्मार्ट और ऑर्गेनिक तरीके से आगे बढ़ती ईमानदार लव स्टोरी पिछली बार कब देखी थी याद नहीं। फिल्म एक-दो मौकों पर घिसी-पिटी है, बाकी बिल्कुल फ्रैश। संवाद क्विक हैं, फिल्म को बिनी किसी आहट के आगे बढ़ाते हैं। अनु मेनन का निर्देशन भी अलहदा है। वह उम्मीदें जगाती हैं। प्यार शब्द से जिनका नाता रहा है या रहेगा, उन्हें ये मूवी जरूर देखनी चाहिए।

दो किरदार दोनों कई बराबर
# पूरी फिल्म अली और अदिति के दो किरदारों पर ही बनी है, फिर भी संपूर्ण लगती है। कमर्शियल फिल्मों में ये प्रयोग नहीं होते कि एक-दो लोगों को लेकर पूरी फिल्म बने। यहां है। ये प्यार करने वालों की 'एक रुका हुआ फैसला' है।
# अली जफर को जो सीरियसली नहीं लेते, वो इस फिल्म के बाद ले सकेंगे। क्लाइमैक्स में उनका इमोशनल सीन सन्न करता है, चार-पांच पलों के लिए ही सही। अली ने फिल्म में म्यूजिक दिया और बोल लिखे हैं, जो खुशनुमा है। फिर से, म्यूजिक बड़ा सिंपल और ऑरिजिनल लगता है।
# अदिति ने 'ये साली जिंदगी' में ज्यादा यादगार रोल किया था। ये रोल उतना यादगार नहीं, पर किरदार के हाव-भाव अलग बनाने की उनकी कोशिशें दिखती हैं।

प्यार है, प्यार नहीं है: कहानी
निखिल चोपड़ा (अली जफर) की फिल्म 'लिविंग विद माई ब्रदर्स घोस्ट' रिलीज हुई है। मीडिया को इंटरव्यू देकर वह किसी से मिलने निकलता है। फ्लैशबैक में कहानी चलती है। जब 2005 में लंदन में वह ललिता (अदिति राव हैदरी) से एयरपोर्ट में मिलता था। ललिता फैमिनिस्ट है और महिलाओं और यूथ के लिए ग्रेटर पॉलिटिकल पार्टिशिपेशन की बातें करती है। वह दोनों साथ वक्त बिताते हैं, एक लगाव पनपता है। दोनों के बीच रोचक बातें होती हैं। बाद में पैरिस और न्यू यॉर्क में इनका बिछडऩा और मिलना होता है।
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गजेंद्र
सिंह भाटी