Bafp is a series about important film projects in-progress
and possibilities for independent producers...
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कान फ़िल्म फेस्टिवल-2013 में सह-निर्माण को प्रोत्साहित करने वाले सिनेफाउंडेशन के कार्यक्रम ‘द लाटलिए’ में पूरी दुनिया से सिर्फ 15 फ़िल्म प्रोजेक्ट चुने ग़ए। उन्हीं में एक थी “छेनू”। इसे नांत, फ्रांस में ‘3 कॉन्टिनेंट्स फ़िल्म फेस्टिवल’ के ‘पोदुए ऑ स्यूद’ कार्यक्रम में भी चुना गया। ऐसे सिर्फ पांच और प्रोजेक्ट चुने गए। “छेनू” की स्क्रिप्ट मंजीत सिंह ने लिख़ी है। निर्देशन वे ही करेंगे। दो साल पहले “मुंबई चा राजा” जैसी बहुत अच्छी और विश्व में सराही फ़िल्म उन्होंने बनाई थी। “छेनू” की कहानी इसी नाम वाले एक दलित लड़के की है। वह उत्तर भारत में रहता है। ऊंची जाति का जमींदार अपने खेत से सरसों के पत्ते तोड़ने पर उसकी बहन की अंगुलियां काट देता है। ऐसी अमानवीय घटनाओं के बाद़ छेनू नक्सली बन जाता है। ये कहानी शेखर कपूर की क्लासिक “बैंडिट क्वीन” और यादगार ब्राज़ीली फ़िल्म “सिटी ऑफ गॉ़ड” की याद दिलाती है। स्क्रिप्ट कई ड्राफ्ट से ग़ुज़र चुकी है और संभवत: दो आख़िरी ड्राफ्ट लिखे जाने हैं। मंजीत ‘द लाटलिए’ से कुछ निर्माताओं के संपर्क में हैं।
एक कैनेडियन को-प्रोड्यूसर फ़िल्म से जुड़ चुके हैं। कुछ फ्रेंच को-प्रोड्यूसर रुचि ले रहे हैं। यानी मेज़ पर कुछ प्रभावी निर्माता आ चुके हैं। मुंबई और भारत के अन्य इलाकों के कुछ निर्माताओं से भी वे बातचीत के अगले दौर में हैं। भारतीय निर्माताओं से वे तकरीबन 3 करोड़ रुपए जुटाएंगे। क्राउड फंडिंग फिलहाल टाल रहे हैं और कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा 3-4 सह-निर्माता हों भारत से। शायद बाद में क्राउड फंडिंग करनी पड़े। एक विकल्प राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम यानी एनएफडीसी है। पर फिलहाल उनकी ओर से फंडिंग बंद है। नई अर्ज़़ियां लेनी इस साल में कभी भी शुरू की जा सकती हैं। बहुत कुछ केंद्र में बनने जा रही नई सरकार की नीतियों पर भी निर्भर करेगा। पिछली सरकार बेहद प्रोत्साहित करने वाली थी। उस दौरान एनएफडीसी ने कई फ़िल्मों की मदद की। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे नामी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में भारतीय फ़िल्मों और फ़िल्मकारों का उन्होंने प्रचार किया। फ़िल्म का बाकी 60-70 फीसदी बजट विदेशी निर्माताओं से आएगा। पर शुरुआत भारतीय निर्माताओं से होगी। चीज़ें तेजी से हो रही हैं। अगर कोई स्वतंत्र निर्माता फ़िल्म से जुड़ना चाहते हैं तो अभी वक्त है। ऐसे लोग जो इस प्रोजेक्ट में रुचि रखते हों, जिनकी सोच और मूल्य इस प्रोजेक्ट से मेल खाते हों। मंजीत से cinemanjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
एक कैनेडियन को-प्रोड्यूसर फ़िल्म से जुड़ चुके हैं। कुछ फ्रेंच को-प्रोड्यूसर रुचि ले रहे हैं। यानी मेज़ पर कुछ प्रभावी निर्माता आ चुके हैं। मुंबई और भारत के अन्य इलाकों के कुछ निर्माताओं से भी वे बातचीत के अगले दौर में हैं। भारतीय निर्माताओं से वे तकरीबन 3 करोड़ रुपए जुटाएंगे। क्राउड फंडिंग फिलहाल टाल रहे हैं और कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा 3-4 सह-निर्माता हों भारत से। शायद बाद में क्राउड फंडिंग करनी पड़े। एक विकल्प राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम यानी एनएफडीसी है। पर फिलहाल उनकी ओर से फंडिंग बंद है। नई अर्ज़़ियां लेनी इस साल में कभी भी शुरू की जा सकती हैं। बहुत कुछ केंद्र में बनने जा रही नई सरकार की नीतियों पर भी निर्भर करेगा। पिछली सरकार बेहद प्रोत्साहित करने वाली थी। उस दौरान एनएफडीसी ने कई फ़िल्मों की मदद की। कान, बर्लिन, टोरंटो जैसे नामी इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में भारतीय फ़िल्मों और फ़िल्मकारों का उन्होंने प्रचार किया। फ़िल्म का बाकी 60-70 फीसदी बजट विदेशी निर्माताओं से आएगा। पर शुरुआत भारतीय निर्माताओं से होगी। चीज़ें तेजी से हो रही हैं। अगर कोई स्वतंत्र निर्माता फ़िल्म से जुड़ना चाहते हैं तो अभी वक्त है। ऐसे लोग जो इस प्रोजेक्ट में रुचि रखते हों, जिनकी सोच और मूल्य इस प्रोजेक्ट से मेल खाते हों। मंजीत से cinemanjeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
“छेनू” का संगीत फ्रेंच कंपोजर मथायस डूपलेसी तैयार करेंगे। वे “मुंबई चा राजा”, “पीपली लाइव”, “फ़क़ीर ऑफ वेनिस”, “डेल्ही इन अ डे” और “अर्जुन” जैसी कई फीचर फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। मुख़्य कलाकार बच्चे होंगे। जो बिहार-झारखंड मूल के होंगे। योजना है कि मगही बोलने वाले बच्चों को उन्हीं इलाक़ों से कास्ट किया जाए। अगर मुंबई में उपयुक्त कलाकार मिल गए तो मुंबई से लिए जाएंगे। 100 मिनट की सोशल-पॉलिटिकल गैंगस्टर जॉनर वाली इस फ़िल्म में एक मुख़्य भूमिका है नक्सल लीडर की। इस किरदार के लिए एक मजबूत स्क्रीन प्रेजेंस चाहिए, इसलिए अच्छे और जाने हुए अभिनेता तलाशे जा रहे हैं। फिर एक विलेन का किरदार है। उसके सीन कम हैं पर मौजूदगी बहुत प्रभावी होगी। इन दो भूमिकाओं में जाने-माने, स्थापित कलाकार लिए जा सकते हैं।
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मैंने आख़िरी बार किस दलित पात्र को किसी हिंदी फ़िल्म के केंद्र में देखा था, याद नहीं आता। शायद रहे भी होंगे, मगर अपवादस्वरूप। “छेनू” इसी लिहाज़ से उत्साहजनक परियोजना है। मुख़्यधारा के हमारे ए-लिस्ट फ़िल्म स्टार्स, डायरेक्टर्स और स्क्रीनराइटर्स से बहुत बार पूछने की इच्छा हुई कि उनके क़िस्सों में निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग कहा हैं? मगर एक-आध को छोड़ नहीं पूछा। मुझे याद है कोई तीन साल पहले “जिंदगी न मिलेगी दोबारा” के कलाकार फरहान अख़्तर, अभय देओल, कटरीना कैफ और कल्कि कोचलिन चंडीगढ़ के पीवीआर सेंट्रा मॉल में फ़िल्म का प्रचार करने पहुंचे थे। लोगों को तब तक ट्रेलर्स से फ़िल्म जितनी अच्छी लग रही थी, तत्कालीन छद्म-पॉजिटिविटी के बीच मैं उतना ही व्यग्र था। बातचीत से बड़ा पहलू छूट रहा था। ये कि एक और बड़ी फ़िल्म जिसमें निम्नवर्ग या निम्न-मध्यमवर्ग का कोई ज़िक्र नहीं है। जब ये भारत के सबसे बड़े तबके की प्रतिनिधि कहानी नहीं तो मैं क्यों पॉजिटिव महसूस करूं? ज़्यादा से ज़्यादा ये फ़िल्म क्या करना चाह रही थी? स्पेन टूरिज़्म को बढ़ावा देना चाह रही थी। इसके बीज “वाइल्ड हॉग्स”, “हैंगओवर”, “रोड ट्रिप” जैसे अनेकों अमेरिकी फ़िल्मों में छिपे थे। इसमें भारत कहीं न था। महानगरीय ऊब समस्या थी और वर्ल्ड टूअर समाधान। पैसे की कोई कमी नहीं थी। फ़िल्म के किरदारों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी? फैशन डिजाइनिंग की स्टूडेंट, रईस परिवार की इंटीरियर डिजाइनर बेटी, लंदन स्थित फाइनेंशियल ट्रेडर, मुंबई के धनी ठेकेदार का धनी बेटा, स्पेन स्थित सफल-नामी पेंटर, दिल्ली की विज्ञापन कंपनी में कॉपी राइटर। क्या देश में ज़्यादा तादाद ऐसी पृष्ठभूमि वालों की है? क्या ये समाज के आख़िरी पंक्ति के लोगों में आते हैं? फ़िल्म बनी कितने में? 55 करोड़ रुपये से ज़्यादा में। कमाए कितने? कोई 155 करोड़। 2011 के सबसे अच्छे सिनेमा में इसे गिना गया। शीर्ष पांच निर्देशनकर्ताओं में ज़ोया अख़्तर शुमार हुईं। ये सारे मेरे सवाल थे, पर प्रेस वार्ता का माहौल बेहद खुशमिजाज और चूने पुते गालों वाला था, मैं व्यग्रता में धधकता चुप ही रहा। फिर इस दौरान बीच में कई फ़िल्में आईं जिन्होंने और ज़्यादा संताप दिया। कुछ आईं जिन्होंने संतोष दिया। कुछ आईं जिन्होंने उत्साहित किया। “छेनू” ऐसी ही थी, जब वो ‘द लाटलिए’ में चुनी गई तो मालूम चला कि मंजीत सिंह उसे बनाने वाले हैं। ऐसी कहानी दशकों के अंतराल में आती हैं। आक्रोश, बैंडिट क्वीन, पान सिंह तोमर और अब छेनू।
कहानी कुछ यूं है...
"उत्तर भारत में कहीं छेनू और उसकी बहन छेनो परिवार के साथ
रहते हैं। एक बार दोनों जमींदार तीर सिंह के खेत से सरसों की पत्तियां तोड़ते हुए पकड़े जाते हैं। सज़ा मिलती है। तीर सिंह छेनो की अंगुलियां काट लेता है। छेनो के परिवार को इसका न्याय नहीं मिलता। ऐसे में नक्सली नेता कोरबा के आदमी उनकी मदद को आते हैं। वे तीर सिंह का पीछा करते हैं और वह जाकर दूसरे जमींदार भगवान सिंह के गैंग के पास शरण लेता है जिसने अभी-अभी एक ट्रॉली भर अपने जाति के लोगों व रिश्तेदारों के शवों का दाह-संस्कार किया है। उन्हें नक्सलियों ने मार डाला। कोरबा छेनू को अपनी गतिविधियों में शामिल कर लेता है। धीरे-धीरे छेनू नक्सलियों के काम करने की प्रणाली सीख लेता है, उनके हथियार छुपाने के स्थान जान लेता है। इस दौरान उसके लिए कोरबा आदर्श बन जाता है। ऐसा नायक जो कमज़ोरों की रक्षा करता है। एक बार गांव के रईस और ऊंची जाति के लड़के छेनू को पीटते हैं क्योंकि वो उनके मैदान में खेल रहा होता है। गुस्से में वह पिस्तौल चलाना सीखता है। उधर भगवान सिंह बाकी जमींदारों के गैंग्स को मज़बूत करता है और एक निजी सेना बनाता है। रण सेना। उद्देश्य है नक्सलियों और उनके समर्थक दलितों से बदला लेना। ख़ूनी बदला। यहां से इस इलाके में रक्तरंजित हिंसा का कुचक्र शुरू होता है। इसी में छेनू की मासूमियत घिर जाती है और उसका रास्ता और कठिन हो जाता है।"
Manjeet Singh in a Q&A after the screening of Mumbai Cha Raja in Fribourg, Switzerland last year. |
इस प्रोजेक्ट को लिख़ने वाले मंजीत सिंह की पृष्ठभूमि फ़िल्मी नहीं है। मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद़ अमेरिका में आरामदायक नौकरी कर रहे मंजीत सब छोड़ 2006 में मुंबई लौट आए। फ़िल्में बनाने। अच्छी फ़िल्में बनाने। 2011 में उनकी पहली फीचर फ़िल्म “मुंबई चा राजा” को फ़िल्म बाजार गोवा के वर्क-इन-प्रोग्रेस सेक्शन में ‘प्रसाद अवॉर्ड’ मिला। अगले साल बेहद प्रतिष्ठित रॉटरडैम इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के सिनेमार्ट कार्यक्रम की प्रोड्यूसर्स लैब में इसे चुना गया। राष्ट्रीय फ़िल्म वित्त निगम ने 2012 में ही मंजीत को फ्रांस में हुए कान फ़िल्म फेस्टिवल में होनहार भारतीय फ़िल्मकार के तौर पर पेश किया। फ़िल्म जब तैयार हुई तो विश्व के ज़्यादातर शीर्ष फ़िल्म महोत्सवों में ससम्मान आमंत्रित की गई, दिखाई गई। इसी दौरान मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी जिसे यहां पढ़ सकते हैं। 2012-13 की शीर्ष पांच भारतीय स्वतंत्र फ़िल्मों में “मुंबई चा राजा” थी। फ़िल्म पर दिग्गज भारतीय फ़िल्मकार सत्यजीत रे का असर साफ था, ऐसा असर जिसे लंबे समय से उडीका जा रहा था। एक विदेशी फ़िल्म ब्लॉगर ने तो इसे फ्रांसुआ त्रूफो की “द 400 ब्लोज़” का भारतीय जवाब तक बताया। इससे बड़ी तारीफ क्या हो सकती है? एक समीक्षक ने लिखा कि इसे देखकर “सिटी ऑफ गॉड” की याद आ गई। उसने फ़िल्म को भारत से निकली शीर्ष इंडिपेंडेंट फ़िल्मों में शुमार किया। “मुंबई चा राजा” मुंबई के आख़िरी पंक्ति के बच्चों की कहानी थी। फ़िल्म-मीडिया के चंद समृद्ध लेखकों द्वारा आमतौर पर ऐसी कहानियों को पूवर्टी-पोर्न शब्द की आड़ में किनारे कर दिया जाता है। पर यहां ऐसा नहीं हो पाया। इस महानगर के दो बच्चों की आपबीती को फ़िल्म जिस मुहब्बत, खुशी, समझदारी, सिनेमाई व्याकरण, सच्चाई और सार्थकता से दिखाती है वो इसे “स्लमडॉग मिलियनेयर” जैसी फ़िल्मों के बहुत कदम आगे खड़ा करती है। यानी ये ऐसे विषय पर थी जिसे आमतौर पर फ़िल्मकार हाथ नहीं लगाते। गर लगाते हैं तो दो नतीजे निकलते हैं। पहला, एक गंभीर, निराशा भरी, प्रयोगधर्मी, कलात्मक फ़िल्म बनती है। दूसरा, गरीबी और निम्न-वर्ग का होने पर तरस खाती कमर्शियल फ़िल्म बनती है। “मुंबई चा राजा” तीसरा नतीजा लाई। ये किरदारों की कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि की जिम्मेदारी हमारे कांधों पर डालती है और उन्हें पानी में छपकने देती है, खेलने देती है, खिलने देती है। सिनेमा के ऐसे कथ्य की आलोचना नहीं की जा सकती। यही सही है। हम “मुबंई चा राजा” पर इतनी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस फ़िल्म के ट्रीटमेंट में ही “छेनू” का ट्रीटमेंट छुपा है।
नक्सलवाद जैसे गंभीर विषय पर एक और फ़िल्म की संभावना के साथ ही कुछ चिंताएं सीधी उभर आती हैं। उसका ट्रीटमेंट क्या होने वाला है? वो ही उसे क्लीशे से बचा सकता है। “मुंबई चा राजा” देखने के बाद़ ये तो स्पष्ट हो जाता है कि उपरोक्त कहानी में जो लिखा है वो परदे पर बहुत ही समझ-बूझ के साथ आने वाला है। लेकिन फिर भी मैंने ये सवाल मंजीत के समक्ष रखा। ये कि समाज में कमज़ोर पर अत्याचार हुआ और कोई विकल्प न देख उसने हथियार उठा लिया, ख़ून कर दिया और अपराधी बन गया। ये तो बहुत क्लीशे है। सही विकल्प भी है क्या? इस पर वे कहते हैं, “फ़िल्म से कोई सॉल्युशन नहीं निकलता, न ही कोई प्रॉब्लम सॉल्व होती है। ये एक काल को डॉक्युमेंट कर रही है, जो कुछ हो रहा है उसे दर्शकों के सामने रखेगी। हिंसा से कुछ हासिल होता नहीं है। जो भी समूह हिंसा को अपनाते हैं, उन्हें मिलता कुछ नहीं है। जो कमजोर, ग़रीब है वो ही कुचला जाता है। जो लोग दुरुपयोग कर रहे हैं, उनका नुकसान नहीं होता। जैसे, दंगे होते हैं या कांड होते हैं तो उसमें कोई राजनेता तो मरता नहीं है, वही मरते हैं जो रस्ते पर रह रहे हैं या झुग्गी में रह रहे हैं या जिनके घर में घुसना आसान है। छेनू का जो जीवन-चक्र है, जो सफर है, उसमें क्रमिक ढंग से परिस्थितयां दिखाई गई हैं। ऐसा नहीं है कि उसकी बहन की अंगुलियां काट दी, वो चला गया, बंदूक उठा ली कि मैं बदला लूंगा। इसमें दिखेगा कि फिर उसकी सोच कैसे बदलती है। वह तो मासूम, अज्ञानी लड़का है। उसमें धीरे-धीरे हिम्मत आती है। सब चीज़ों का असर उसकी निजी जिंदगी पर भी होता है। इस कहानी में हम हिंसा को सेलिब्रेट नहीं कर रहे हैं। जो दहशत है, किस क़दर असर डालती है लोगों पर, मुख़्य उद्देश्य यही है दिखाने का। और ये दिखाने का है कि हमारी सोच पिछड़ी है। उसी पर अटके हैं और फिज़ूल में ख़ूनख़राबा हो रहा है। इस फ़िल्म में उपदेश नहीं होंगे, बस घटनाक्रम होगा। लोग समझते हैं और वे अपने निष्कर्ष ख़ुद निकालेंगे। हम ज़बरदस्ती संदेश देते हैं तो सब एक ही संदेश लेते हैं। मैंने देखा है कि आप दिखाओ क्या-क्या परिस्थितियां हैं तो उसमें से काफी सब-टैक्स्ट निकलते हैं। मुंबई चा राजा के वक़्त भी मैंने यही ऑब्जर्व किया, कि लोग काफी चीज़ें ऐसी पकड़ रहे हैं जो मैंने सोची भी नहीं थी। पर चूंकि मैं ऐसी कहानी सुना रहा हूं जो वाक़ये बता रही, उस पर मेरी टिप्पणी नहीं है, और लोगों को खुद का निष्कर्ष निकालने पड़ रहे हैं। इससे एक के बजाय कई निष्कर्ष निकल रहे हैं। छेनू में भी ऐसे ही होगा। लोग अपने तर्क खुद निकालेंगे कि ये बात ग़लत लग रही है मुझे। हो सकता है बनाने के दौरान मैं भी बहुत सीखूंगा”।
इस विषय पर बतौर लेखक-निर्देशक उनकी व्यापक सोच क्या है? क्या नक्सलवाद को हथियारबंद लोगों और सरकार के परिपेक्ष्य से ही देखा जा सकता है? क्या हमें या हमारे शासकों को यही सोचना चाहिए कि वे एक महामारी हैं जिन्हें हवाई हमले से ख़त्म कर देना चाहिए? क्या वे देश के विकास को रोक कर बैठे हैं? क्या प्राकृतिक संसाधन दूसरे राज्यों में बैठे हम लोगों के हैं कि उन्हीं स्थानीय लोगों के? ये समस्या कितने पक्षीय है? इन सब सवालों के प्रत्युत्तर में मंजीत कहते हैं, “स्टेट पहले निगलेक्ट करता है। लोग रोते हैं तो सुनता नहीं है। लोग सत्याग्रह भी करते हैं पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। जब चीज़ें हाथ से बाहर हो जाती हैं तो लोग हथियार उठाते हैं। जब प्रॉब्लम आती है, फ़रियादी आते हैं, उन्हें तभी सुनकर सॉल्व कर लें तो चीज़ें आगे ही न बढ़ें। लोग भी तो उन संबंधित नेताओं को तभी फॉलो करते हैं जब तक प्रॉब्लम है। नेता भी इसीलिए हालात सुलझाते नहीं, ताकि लोग लाइनों में खड़े रहें और वोट देते रहें। फिर विचारधारा वाला पक्ष है। अगर हजार लोगों का ग्रुप है और कुछ साथ छोड़ेंगे तो ये चार ग्रुपों में बंट जाएगा, उनमें भी लीडर उग आएंगे। उनका भी विभाजन होगा तो उनमें भी लीडर निकल आएगा कि हमारी ये विचारधारा है। पर प्रॉब्लम उससे सॉल्व नहीं होती। अब कॉरपोरेट्स की बात आती है। कुछ उद्योगपति हैं। उनका तो किसी भी चीज़ को लेकर कोई नज़रिया ही नहीं है। उनको आसान पैसा चाहिए। नेता से साठ-गांठ की है, क़ब्ज़ा किया, खुदाई की और फ़ायदा लिया। कोई कॉरपोरेट सार्थक में नहीं लगाता। कोई ऐसा धांसू ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनाता जिससे सबका भला हो। हमारे पास सबसे इंटेलिजेंट लोग हैं। पर उस ह्यूमन रिसोर्स को गाइड करने वाला कोई नहीं है। वही कॉरपोरेट उनका शोषण कर रहे हैं। वो अमेरिकी सैलरी भी लेंगे और इंडिया से भी। जबकि हमारा देश ह्यूमन रिसोर्स में भी मजबूत है और नेचुरल रिसोर्स में भी। ये लोग विश्व के टॉप बिलियनेयर्स की सूची में शामिल होने के सपनों के अलावा लोगों के भले के लिए या देश के लिए सोचें तो सब ठीक हो सकता है। एजुकेशन सिस्टम भी ख़राबी वाला है। किसी की इनोवेटिव सोच है तो उसके लिए कोई जगह ही नहीं है। उसे भी रट्टा मारना पड़ेगा। आपकी आईआईटी प्रवेश परीक्षा है। उसमें पढ़-पढ़ कर छात्र पागल हो जाता है। वो भी दो-दो साल हर दिन 20-20 घंटे। इसमें इनोवेटिव सोच क्या है? हिंदुस्तान में ये समस्याएं हैं और राज्य अज्ञानी बना बैठा है”।
मंजीत के अब तक के दो प्रोजेक्ट सार्थक विषय वाले रहे हैं। जैसे महात्मा गांधी कहते थे, समाज के आख़िरी आदमी के हिसाब से सोचो, चुनो, नीति बनाओ... उनकी सोच भी वैसी ही है। तीसरी कहानी जो उनके ज़ेहन में है वो पंजाब के सिख दलित गायक बंत सिंह की है। उनका तीसरा चयन भी दिल को ख़ुश करता है। हालांकि इस पर काम “छेनू” के बाद ही शुरू हो पाएगा पर वे अपना रिसर्च काफी वक्त पहले ही शुरू कर चुके हैं। फिलहाल अपनी सारी ऊर्जा वे “छेनू” पर लगा रहे हैं। 2015 के आख़िर तक हम उनसे इस फ़िल्म की उम्मीद कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इस प्रोजेक्ट के जो भी निर्मातागण और टेक्नीशियन होंगे, उनके लिए ये फ़क्र का मौका होगा। कोई संदेह नहीं कि ये 2015-16 की शीर्ष पांच फिल्मों में एक होगी।
“फ़िल्म निर्माता बनें...” नई एवं महत्वपूर्ण फ़िल्म परियोजनाओं की जानकारी देती श्रंखला है, स्वतंत्र निर्माताओं के लिए सार्थक कहानियों से जुड़ने का अच्छा मौका है।
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Mumbai Cha Raja director Manjeet Singh is busy with his new and exciting project Chenu. This 100 min. social-political gangster drama was picked by L’Atelier of the Cinefoundation at Cannes film fest in March 2013. It was one of the fifteen projects selected across the globe for this prestigious co-production market event. It was one out of six projects selected for 3 Continents film festival’s ‘Produire au Sud’, Nantes (France) 2012 program. Now in May, 2014 the script of Chenu is in advanced stage. Canadian and French co-producers have joined in. Manjeet is in talks with some Indian co-producers. He’s also opened the gates for new independent or professional co-producers. Whoever interested can contact him at cinemanjeet@gmail.com.
Poster of project CHENU |
This story is about the ongoing caste war between the extreme violent leftist forces the 'Naxals' and a private army of Landlords which engulfs a low caste 'dalit' teenager Chenu, when his younger sister Chano's fingers are chopped for plucking mustard leaves from a landlord's farm. Chenu loses his innocence, taking up the arms for the honor of his family and his community. All the child actors will most probably be taken from Bihar-Jharkhand or in some specific case from Mumbai. There are two very important characters, Naxal leader Korba and another strong negative character. For both characters, two powerful actors will be needed. We can expect to see two strong or established actors at the center. Music for the film will be composed by Mathias Duplessy who has done films like Peepli Live, Mumbai Cha Raja, Fakir of Venice and Arjun.
Talking about Manjeet, he’s a qualified engineer (MS, Mechanical Engineering, USA). He left his career in the USA and moved back to his hometown Mumbai to make films in 2006. NFDC selected him as a promising Indian film-maker to be promoted at Cannes, 2012. His debut film Mumbai Cha Raja, premiered at Toronto International Film festival (TIFF) 2012 and he was part of TIFF's talent lab as well. The film officially selected in Abu Dhabi, Mumbai, Palm Springs, Santa Barbara, Cinequest, Fribourg, Shanghai and many other film festivals. The film had earlier won the 'Prasad award' in 'Work in Progress' section of 'Film Bazaar' 2011,Goa, India and was selected for the 'Producer's Lab', Cinemart, International Film Festival Rotterdam, 2012.
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