शुक्रवार, 28 जून 2013

ये ग़लत ख़्याल है कि फ़िल्मों में हमारी हीरोइन्स ही हमारा समाज हैं, हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं : सुभाष घई

 Q & A  .Subhash Ghai, Ace filmmaker, India.
Posters of Subhash Ghai Films.
तब एक चैनल आया करता था, एटीएन। दोपहर में ‘मेरी जंग’ उस पर बहुत दिखाई जाती थी। हर बार अच्छी लगती थी। अरुण (अनिल कपूर), उसकी मां (नूतन) और छोटी बहन कोमल (खुशबू) की कहानी। पिता (गिरीष कर्नाड) पर ख़ून का झूठा इल्ज़ाम लगता है और एक नामी वकील ठकराल (अमरीश पुरी) फांसी दिलवा देता है, उसकी बेगुनाही जानते हुए भी। “जिंदगी, हर कदम, इक नई, जंग है... जीत जाएंगे हम, जीत जाएंगे हम, तू अगर संग है... जिंदगी...” इस गीत को गाते हुए नन्हा सा अरुण छहरहा-गंभीर नौजवान अरुण वर्मा बन जाता है। एक वकील। डिफेंस लॉयर। ठकराल की केस स्टडी करता हुआ। छोटी बहन को मां-बाप दोनों का प्यार देता है। मां तो पति की फांसी और घर नीलाम होने के बाद पाग़ल हो जाती है। अरुण को नहीं पता कि वह पाग़लखाने में है। खैर, उनके दुख, संघर्ष, संघर्षों का सामना करने की हिम्मत, जिजिविषा और बदला चुकाने की बारी... एक ऐसी कहानी का हिस्सा बनते हैं जिसे देखने का मन बार-बार करता था।

ये हिम्मत देती थी। कि, जैसे इन्हें दुख आ रहे हैं, हमें भी आ रहे हैं और हमें भी हिम्मत रखनी चाहिए। कि जैसे ये पढ़-लिखकर लायकी ला रहे हैं और जीकर दिखा रहे हैं, हमें भी जीना चाहिए। अरुण वर्मा की लड़ाई हमारी लड़ाई बन गई थी। मां बनी नूतन की बतौर अभिनेत्री वही छवि ज्यादा करीब हो गई थी, ‘बंदिनी’ वाली नहीं। दुखियारी मां, जो पागल है, क्या उसे न्याय मिलेगा? पर मौका मिलता है। अरुण के पास डॉ. आशा माथुर (बीना) का केस आता है। उस पर मरीज को दवाई के नाम पर ज़हर देकर मारने का इल्ज़ाम है। वह केस लड़ने से मना कर देता है क्योंकि झूठे केस नहीं लेता। लेकिन जब डॉ. की बहन गीता (मीनाक्षी शेषाद्रि) अरुण को कहती है, “जिसके पास कोई सबूत कोई गवाह नहीं होते, क्या वे बेगुनाह नहीं होते”, तो वह द्रवित हो जाता है। ये वही पंक्ति है जो उसकी मां ने ठकराल को कभी अदालत में अपनी पति की जान की भीख मांगते हुए कही थी और किसी ने अरज नहीं सुनी थी, लेकिन 8 साल का अरुण सुन रहा था। तो अब अरुण केस लड़ता है। अदालत में उसका अभूतपूर्व हीरोइज़्म दिखाते हुए और असामान्य रास्ता अपनाते हुए सबूत के तौर पर पड़ी ज़हर भरी दवा की शीशी पी जाना, आज भी जेहन में ताज़ा-ताज़ा जिंदा है। पूरे अधिकार से वह दृश्य दिमाग में बिस्तर लगाए लेटा है। इतने बरसों से। कभी वकील बनना होता तो पक्का ही ऐसे प्रयोग जरूर करता। तो यूं वह डॉक्टर आशा को छुड़वा लेता है।

फिर वह पियानो वाला क़िस्सा आता है। हिंदी सिनेमा में पियानो जैसे उपकरण वो चीज़ें हैं जो हमारे घरों के लिए सिर्फ फ़िल्मी ही बात थीं। भला असली दुनिया में कौन तो पियानो बजाता था और कौन तो बजाते हुए गाता था! बहरहाल ब्रिटिश राज की एक बड़ी निशानी यूं पीछे छूट गई थी, शायद। जब अरुण को अप्रतिम मदद के लिए फीस बताने का अनुरोध डॉक्टर कपल (आशा के पति के रोल में परीक्षित साहनी) करते हैं तो अरुण उनके घर पड़ा पियानो मांग लेता है। ये वही पियानो होता है जो उसके पिता बजाते हुए गाते थे। उस पर लगा कृष्ण का स्टिकर डायरेक्टर सुभाष घई की तमाम फ़िल्मों की एपिक भारतीय फिलॉसफी का प्रतिनिधित्व करता है। सारी ‘कर्मा’, ‘खलनायक’, ‘विधाता’, ‘विश्वनाथ’, ‘राम लखन’, ‘मेरी जंग’ और ‘परदेस’ ऐसी ही जिंदगी के संघर्ष की भारतीय फिलॉसफी से बनी थीं। ये फिलॉसफी उस दौर में गांवों से शहरों और शहरों से महानगरों में आकर जिंदगी का संघर्ष करने वाले हमारे पिताओं का ईंधन भी थी और उस पीढ़ी का आईना भी। वो बूढ़ी हो रही पीढ़ी आज भी ‘शराबी’, ‘कर्मा’ और ‘मशाल’ में खुद को ढूंढती है, हालांकि दौर अब दूसरे किस्म की पीढ़ी का आ चुका है। अब जो संघर्ष कर रहे हैं वो ‘इंडियन आइडल जूनियर’ और ‘डांस इंडिया डांस लिटिल चैंप्स’ में अपने बच्चों की प्रतिभा की आस पर कर रहे हैं। बाकी जिनके पिता लोगों की जिंदगी घई, चोपड़ा, देसाई और मेहरा की फ़िल्मों के नायकीय संघर्ष का अक़्स थी, उनके बच्चे आज या तो फेसबुक की लाइफ में राज़ी हैं या फिर कॉरपोरेट सेक्टर का हिस्सा हो गए हैं और एसी वाले ऑफिस में बैठने को “आई हैव अराइव्ड” मानते हैं। उनके पिता भी खुश हैं कि ऐसा जिंदगी की जंग लड़ने का पुण्य-प्रताप है।

तो अब क़िस्से में विक्रम ठकराल (जावेद जाफरी) आता है। “बोल बेबी बोल, रॉक एंड रॉल” पर जावेद का नाचना फ़िल्मी डांस में तब ‘द बिग थिंग’ था। भारत के कस्बों और छोटे शहरों में उन्हें इंडिया का माइकल जैक्सन कहा जा रहा था, बड़े शहरों का पता नहीं। फ़िल्मी डांस को लेकर कुछ ऐसा ही आश्चर्य एन. चंद्रा की 1991 में आई फ़िल्म ‘नरसिम्हा’ में रवि बहल का नृत्य था। पतले जूते, जरा ऊंची चढ़ी फिटेड पैंट और तितली की तरह माइकल जैक्सन वाले अंदाज में उर्मिला को छेड़ते हुए “हम से तुम दोस्ती कर लो, ये हसीं ग़लती कर लो...” गाने पर उनका नाचना, आज भी बचकाना नहीं लगता। तो जावेद के क़िरदार का नाच कॉलेज में कोमल को मन मोह लेता है। वह अरुण की बहन को प्यार के चंगुल में फंसा लेता है। दोनों भागने की योजना भी बना लेते हैं। आधी रात को वह उसे भगा ले जाने के लिए आता है कि विकी की गर्लफ्रेंड आ जाती है और उसकी योजना चौपट कर देती है। गुस्से में आया विकी उसका क़त्ल कर देता है। अदालत में केस दर्ज़ होता है। बेटे का केस ठकराल साहब लड़ते हैं और सामने होता है अरुण। अब एक कोर्ट सागा शुरू होता है। अंत सुखद होता है। जिंदगी की जंग में अरुण और उसकी मां की जीत होती है। अंत में वही ठकराल बेटे के गम में पागल होकर उसी पागलखाने पहुंच जाता है जहां अरुण की मां इतने साल गुजारती है। फ़िल्म पागलखाने की गली में जाते ठकराल पर खत्म होती है।

‘मेरी जंग’ तब हर बार पूरी मासूमियत और न के बराबर फ़िल्म निर्माण ज्ञान के साथ देखी थी। जैसे कि देश के प्राथमिक दर्शकों ने सुभाष घई की बाकी संघर्ष-कथाओं को भी देखा था। उनकी तब की किस फ़िल्म ने द्रवित नहीं किया है। आज भी टेलीविज़न पर ‘राम लखन’, ‘विधाता’, ‘कर्मा’ और ‘परदेस’ समेत सभी फ़िल्मों की रिपीट वैल्यू उतनी ही है। इन्हें अगले पचास साल भी प्रसारित किया जाता रहे तो दर्शक मोहित होकर वैसे ही देखेंगे। जाहिर है इन फ़िल्मों के नायकों और उनकी लड़ाइयों से सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन इसमें तो कोई संदेह नहीं कि ये देश की सत्य कथाओं का ही फ़िल्मी रूप रही हैं। सुभाष घई से मेरी इस मुलाकात में उन्होंने कहा भी कि उनकी कहानियां अख़बार, मैग़जीन, दूसरी पठन सामग्री और फर्श से अर्श तक पहुंचे लोगों से मिलने और जानने से आई हैं। और फिर ज्यादातर दर्शकों ने जिंदगी के इन बहावों का अपने थपेड़ों से मिलान किया है। जब-जब ये मिलान हो जाता है, फ़िल्में मास्टरपीस हो जाती हैं।

सुभाष घई की बाकी कुछ फ़िल्मों की भी ऐसी ही अमिट यादें हैं। उनकी भी कहानियां यूं ही याद हैं। किसी भी पल आप झुक जाएं, रो रहे हों, निराश हों और पस्त हों तो उनकी शुरू की दस-बारह फ़िल्मों में किसी की भी डीवीडी लगा लें, आप हौंसले के साथ उठ खड़े होंगे। हां, उन फ़िल्मों के अंत कोई सृजनात्मक सुझाव नहीं देंगे, लेकिन काम की चीज़ उन फ़िल्मों की कहानियों के बीच ही मिलेगी। ‘यादें’, ‘किसना’ और ‘युवराज’ में उनका निर्देशन वो जादू नहीं जगा पाया। हालांकि ‘यादें’ अब टेलीविज़न पर देखें तो बुरी नहीं लगती। उसमें धड़कता दिल नजर में आता है। हां, कोका कोला और दूसरे उत्पादों का अंदरूनी विज्ञापन दिल दुखाता है लेकिन ध्यान कहानी पर रखें तो ठीक लगता है। ‘किसना’ और ‘युवराज’ भी ऐसी ही कोशिश थे, बस कुछ सही नहीं हो पाया। सुभाष ने बीच में ‘इक़बाल’ जैसी फिल्मों का निर्माण भी किया जिसका निर्देशन नागेश कुकुनूर ने किया और जो काफी सराही गई।

Subhash Ghai. Photo Courtesy: Mukta Arts
तो शोमैन अब कोई चार बरस बाद फिर बतौर निर्देशक लौट रहे हैं। उनकी इस फ़िल्म का नाम ‘कांची’ है। रिलीज के वक्त नाम बदला जा सकता है। इसमें उन्होंने नई अभिनेत्री का चुनाव किया है। मिष्ठी कोलकाता से। देश के कई हिस्सों में ऑडिशन के बाद उन्होंने अपनी नई तारिका का चुनाव किया है। ये तरीका भी उनकी पिछली कुछ फ़िल्मों की तर्ज पर है। जैसे ‘परदेस’ में गंगा के रोल के लिए महिमा चौधरी जैसे नए चेहरे का चुनाव किया गया था और जो सफल रहा था। दो मैं से एक हीरो के रोल में कार्तिक को चुना गया है जो इससे पहले ‘प्यार का पंचनामा’ और ‘आकाशवाणी’ में काम कर चुके हैं। खल चरित्रों में ऋषि कपूर और मिथुन चक्रवर्ती हैं।

सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू करने से पहले सुभाष के बारे में कुछ जान लेते हैं। वह नागपुर में जन्मे। पंजाबी पृष्ठभूमि से हैं। पिता डेंटिस्ट थे, दिल्ली में प्रैक्टिस करते थे इसलिए हाई स्कूलिंग दिल्ली से की। फिर रोहतक, हरियाणा से कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया। उसके बाद फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे से फ़िल्ममेकिंग की पढ़ाई की। शुरू में कुछ फ़िल्मों में अभिनय किया। 1970 में आई ‘उमंग’ में वह मुख्य भूमिका में भी थे। नहीं चले तो 1976 में ‘कालीचरण’ से बतौर निर्देशक शुरुआत की। ये फ़िल्म उन्हें शत्रुघ्न सिन्हा के सौजन्य से मिली जो उसी साल सुभाष घई की लिखी ‘ख़ान दोस्त’ में नजर आ चुके थे। ‘कालीचरण’ बहुत सफल रही। यहां से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने दिलीप कुमार को विधाता (1982), कर्मा (1986) और सौदागर (1991) में डायरेक्ट किया। जैकी श्रॉफ और अनिल कपूर को हीरो (1983) और मेरी जंग (1985) के जरिए मजबूत करियर दिया। अनिल, जैकी और सुभाष ने ‘कर्मा’, ‘राम लखन’ और ‘त्रिमूर्ति’ में भी साथ काम किया। 1997 में उन्होंने ‘परदेस’ और 1999 में ‘ताल’ का निर्देशन किया। दोनों बेहद पसंद की गईं। बतौर प्रोड्यूसर भी सुभाष घई ने ‘जॉगर्स पार्क’, ‘एतराज’, ‘इक़बाल’, ‘36 चाइना टाउन’, ‘शादी से पहले’, ‘अपना सपना मनी मनी’ और ‘गुड बॉय बैड बॉय’ जैसी फ़िल्में बनाईं। अब ‘कांची’ बन रही है। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीतः

प्रश्न. आपको क्या लगता है अभिनेता फ़िल्मों को बनाते हैं, या फ़िल्में अभिनेताओं को बनाती हैं?
सुभाष घईः जब हम फ़िल्में बनाते हैं, तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल ही यही होता है, फ़िल्में चलती हैं या स्टार चलते हैं? जवाब में यही माना गया है कि फ़िल्में चलती हैं, तब स्टार चलते हैं। तो फ़िल्मों में क्या चलता है? फ़िल्मों में चलती है कहानी, स्क्रिप्ट, क़िरदार। स्क्रिप्ट का रोल सबसे अहम होता है। जब एक्टर उस क़िरदार को निभाता है तो उसकी वजह से वह स्टार बनता है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में जब शाहरुख खान ऐसे क़िरदार में होते हैं जो लड़की को कहता है कि “जब तक तुम्हारे पिता जी मुझे मंजूरी नहीं देंगे, मैं शादी नहीं करूंगा”, है न! उससे वो स्टार बन गए। ‘परदेस’ से वो स्टार बन गए। वही एक्टर पहले इतनी फ़िल्मों में संघर्ष कर रहा था। यानी हर एक्टर का पूरा दारोमदार कैरेक्टर पर होता है। जैसे डायरेक्टर का पूरा दारोमदार स्क्रिप्ट पर होता है तो एक्टर का क़िरदार पर होता है।

अब जब हम एक विषय लिखते हैं या स्क्रिप्ट लिखते हैं तो पहले ये सोचते हैं कि ये जो रोल है, ये स्टार को करना चाहिए या न्यूकमर को करना चाहिए। स्टार करेगा तो कौन से स्टार को करना चाहिए। जैसे, एक शर्मीली लड़की का क़िरदार है तो क्या उसे काजोल को करना चाहिए या करीना को करना चाहिए। हरेक की अपनी-अपनी पर्सनैलिटी है। कौन सी पर्सनैलिटी सूट करेगी, उसके हिसाब से हम चेहरा ढूंढ़ते या कास्ट करते हैं। क्योंकि गलत कास्टिंग से फ़िल्में फ्लॉप हो जाती हैं। आप कितना भी बड़ा स्टार लीजिए... जैसे अभी देखिए, मैंने एक गलत स्क्रिप्ट अपने स्टार के लिए ली, उसका नाम है ‘युवराज’। उसी पर बात करते हैं। कभी-कभी जिंदगी में हो जाता है। मैंने सलमान के साथ वो फ़िल्म बनाई जिसके पीछे स्क्रिप्ट नहीं है, क्लासिकल म्यूजिक है, जिसमें इंटरनेशनल नोट्स हैं, ए आर रहमान का म्यूजिक है। जब मेरे दोस्त बोनी कपूर ने ‘वॉन्टेड’ बनाई, एक्शन बनाई तो वहां से ये आदमी स्टार से सुपरस्टार बन गया। इसका मतलब मेरी कास्टिंग कहीं न कहीं गलत हो गई। उसके लिए सबजेक्ट एक्शन ही बनाना चाहिए था या उसी तरह का सबजेक्ट बनाना चाहिए था। मिसमैच हो गया। मैंने अपनी जिंदगी में हमेशा कोशिश की है कि स्क्रिप्ट स्टार रहे, चाहे वो ‘कालीचरण’ फ़िल्म थी, ‘खलनायक’ थी या कोई भी दूसरी फ़िल्म थी।

छोटी सी मिसाल दूंगा मैं आपको ‘परदेस’ की। जब मैं ‘परदेस’ बना रहा था तो पिछली रही थी ‘खलनायक’, और सब चीज़ें आसान थीं। जब मैंने कहानी लिखी तो उसके बाद अपनी प्रोडक्शन टीम को बुलाया। सबसे पहले मैंने शाहरुख को बुलाया। ‘दिलवाले दुल्हनिया...’ चल गई थी। मेरी एक फ़िल्म ‘त्रिमूर्ति’ में वह काम कर चुका था जो फ्लॉप रही थी। मैंने उसे बुलाया और कहा कि, देखो शाहरुख ये मेरे पास एक कहानी है। इसमें एक लड़की है और तुम उसका मैच कराने जाते हो और ऐसा कराते-कराते ही तुम दोनों को प्यार हो जाता है। वह कहने लगा कि “मैं करना चाहता हूं सर आपके साथ”। अब वो तो तय हो गया लेकिन जो लड़की है, गंगा, वो कहां से लें? फ़िल्म का नाम तब दरअसल ‘गंगा’ था, ‘परदेस’ नहीं था। जैसे अभी ‘कांची’ है। तो मैंने कहा कि ये लड़की नई होनी चाहिए। मेरे बंदे ने कहा कि सर आपको पता है न, माधुरी को ये सब्जेक्ट सुनाया हुआ है, और माधुरी को पता लग गया है कि आप ‘गंगा’ बना रहे हैं। खैर, उसके बाद माधुरी ने मुझे फोन किया कि “सुभाष जी, मैंने सुना है आप ‘गंगा’ बना रहे हैं”। मैं उसका मतलब समझ गया कि उसने क्यों फोन किया है। मैंने कहा, माधुरी तुम बहुत बड़ी स्टार हो। पहले ‘राम-लखन’ की, तब लोकप्रिय हुई और फिर ‘खलनायक’ के बाद तो उसमें बहुत इजाफा हुआ। तो माधुरी, ऐसा है, मैंने सोचा है कि इस रोल को नई लड़की करे तो बेहतर है। तुम्हे ये नहीं करना चाहिए। वो बोली, “क्यों, मैं एक्ट्रेस नहीं हूं?” मैंने कहा, एक्टर तो बहुत अच्छी हो तुम, लेकिन इस फ़िल्म में स्टार पावर नहीं चाहिए क्योंकि जब भी कोई स्टार गंगा का रोल करेगी तो वो बन के करेगी। आर्टिफिशियल लगेगी। बच्चों से खेल रही है, बड़ी हो रही है, अमरीश पुरी आ गया है, सबसे बातें कर रही है ... जो नया इंसान इन दृश्यों को करेगा वो कैरेक्टर लगने लगेगा। तो वो उदास भी हो गई बेचारी। मैंने कहा कि तुम्हें जब पिक्चर दिखाऊंगा तब तुम समझोगी। फिर मैंने नई लड़की ली।

उसके बाद जो दूसरे लड़के (अपूर्व अग्निहोत्री) का रोल था, उसमें भी यही हुआ। दूसरे एक्टर कहने लगे कि “सलमान को ले लीजिए क्योंकि शाहरुख और सलमान की जोड़ी अच्छी होगी। माधुरी, सलमान, शाहरुख तीनों को ले लोगे तो पैसा भी मिल जाएगा और लोग भी आ जाएंगे। फ्राइडे भी बुक हो जाएगा। मंडे ड्रॉप हो जाएगा तो कोई नहीं, चलेगा”। मैं बोला, मैं फ़िल्में मंडे ड्रॉप के लिए नहीं बनाता हूं। मेरी फ़िल्म जो है वो मंडे के लिए भी होनी चाहिए। मेरी फ़िल्म को लोग बार-बार देखने चाहिए। आई कैन नॉट मेक फ़िल्म फॉर वन वॉच। मैं हमेशा ऐसी फ़िल्म बनाता हूं जिसे दोबारा, दोबारा, दोबारा देखा जा सके और हर बार आप उसमें कुछ नया खोज लें। मैं प्रपोजल नहीं बनाता हूं, फ़िल्म बनाता हूं। लेकिन मेरे डिस्ट्रीब्यूटर और कलाकार लोगों ने भी जिद कर ली, कि “साहब प्राइस में बहुत फर्क है। वो इतने में बिकने जा रही है और ये इतने में बिकेगी। वो सौ में बिकने जा रही है और ये चालीस में बिकेगी”। मैंने कहा चालीस में ही बना दो और मैंने ‘परदेस’ बना डाली। मैंने ‘हीरो’ बना डाली। मैंने बहुत सी फ़िल्में ऐसे ही बनाईं। ‘कालीचरण’ में रीना से लेकर, फिर टीना से लेकर माधुरी, मनीषा, महिमा चलते रहे। आज जो फ़िल्में बन रही हैं वो बहुत कॉस्मैटिक्स से बन रही हैं, लेकिन सोलफुल नहीं हैं, उनमें दिल नहीं है। लड़कियों के कैरेक्टर में एक आत्मा होनी चाहिए। ये गलत ख्याल है कि फ़िल्मों में जो हमारी हीरोइन्स हैं वो ही हमारा समाज हैं। हमारे समाज की औरतें तो ऐसी नहीं हैं। मेरी अगली फ़िल्म ‘कांची’ में कांची का क़िरदार असल के करीब है। ये सोलफुल फ़िल्म है और ऐसी बनेगी कि लोग बार-बार देखेंगे, सौ बार भी देखेंगे तो बोर नहीं होंगे।

प्रश्न. ‘कांची’ के लिए ऑडिशन करने आप देश के कुछ हिस्सों में गए थे...
घईः देखिए कितनी बड़ी विडंबना है ईश्वर की। मेरे ऑफिस में बेचारे हजारों लड़के-लड़कियां आते हैं, जो कहते हैं कि एक छोटा रोल दे दो जी, एक साइड रोल दे दो। और मैं उन सबको छोड़कर खुद कांची ढूंढने निकला।

प्रश्न. कहानी क्या है? कांची कैसा क़िरदार है?
घईः कांची एक जम्मू और कश्मीर, पंजाब, हिमाचल या उत्तर भारत की रहने वाली कोई पहाड़ी लड़की है जिसने जवान होने के बाद पहली बार संसार देखा है। जैसे 15 से 19 साल का होने के बाद पहली बार किसी को होश आता है। जन्म के बाद से ही वो समझती है कि यही सबसे खूबसूरत दुनिया है। उस लड़की के लिए सब कुछ उसका परिवार है, दोस्त हैं, समुदाय है और गांव है। उसको कुछ पता ही नहीं कि दुनिया में क्या हो रहा है। एक दुनिया शहरों की भी है, वहां के लोगों की भी है। वह अपनी दुनिया में बहुत खुश है। वह बहुत ही खुश लड़की है। बस खुशी है और कुछ नहीं है। उसकी जिंदगी में ट्रैजिडी होती है। अब वो ट्रैजिडी ऐसे बड़े तूफान से आती है कि विश्वास करना मुश्किल हो जाता है। उन हालातों से वह लड़ती है, इस दौरान उसे वो सब बातें याद आती हैं जो उसने गलत समझकर इग्नोर की थी। तब वो आक्रामक थी, कुछ भी बोलती थी, कुछ भी करती थी। उसका अपना राज था। लेकिन जब उसने देखा कि मेरे इस खूबसूरत गांव को, खूबसूरत लोगों को, खूबसूरत साथियों को खत्म कर दिया गया है... तो अब उसके अंदर एक नई औरत जाग जाती है और वो औरत मशाल लेकर आगे चलती है और बड़ी से बड़ी देश की जो ताकत है उसके मुकाबले में खड़ी होती है। इनके सामने वह अदनी सी बनकर खड़ी होती है।

प्रश्न. फ़िल्म में और कौन से क़िरदार हैं?
घईः कांची है, उसकी जिंदगी में आने वाले दो लड़के हैं। एक पहले और दूसरा बाद में आता है। दो विलेन हैं। भयंकर वाले हैं। एक हैं ऋषि कपूर जो बहुत रईस आदमी का रोल कर रहे हैं और एक हैं मिथुन चक्रवर्ती जो बहुत ही ताकतवर आदमी बने हैं, डॉन बने हैं। अब इनके सामने एक छोटी सी लड़की खड़ी है। जब फ़िल्म आएगी, कांची का क़िरदार निभाने वाली लड़की बहुत बड़ी सुपरस्टार होगी। क्योंकि जैसे मैंने कहा, कैरेक्टर स्टार बनाता है। जैसे, ‘इक़बाल’ फ़िल्म हमने बनाई तो उसमें कोई अकल नहीं कोई शकल नहीं कुछ भी नहीं, बेचारा मराठी थिएटर का एक लड़का था श्रेयस। हमने उसको कास्ट किया। वो कितना बड़ा एक्टर बन गया ‘इक़बाल’ के बाद। कैरेक्टर से बना है न, यूं ही थोड़े बना है। मुझे मेरी इस स्क्रिप्ट पर गर्व है। स्क्रिप्ट मैंने और आकाश खुराना ने मिलकर लिखी है।

प्रश्न. जितनी नई तरह की स्क्रिप्ट और फ़िल्में इन दिनों आ रही हैं, उन्हें आप किसी तरह देखते हैं?
घईः अब खाने की ही बात करें तो बीस साल पहले तक बस राजमा-चावल की ही बात होती थी, अब देखिए थाई आ गया, वाई आ गया, ये भी आ गया, वो भी... वैरायटी का धीरे-धीरे विभाजन होता चला गया। इसी तरह सिनेमा का भी है। एक रियलिस्टिक सिनेमा है, एक अलग सिनेमा है, एक कमर्शियल सिनेमा है, एक लार्जर दैन लाइफ सिनेमा है, लेकिन पहले हमारे पास 300 थियेटर होते थे आज हमारे पास 5000-6000 स्क्रीन्स हैं। ये सिर्फ दस साल में बढ़ी हैं। अब इतनी स्क्रीन्स में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ हो, ‘थ्री इडियट्स’ हो, ‘जब तक है जान’ हो या ‘सन ऑफ सरदार’ हो, सबका स्थान है। आप हर तरीके की, आकृति की फ़िल्में बना सकते हैं। जो जैसा है वैसा है। अगर पंडित रविशंकर हैं तो बिस्मिल्लाह खान भी हैं, जाकिर हुसैन भी हैं। ये सब संगीतज्ञ हैं और सबके अपने-अपने राग हैं, तो इनके तरीके इनके ही माने जाएंगे। अब सुभाष घई की फ़िल्म है तो सुभाष घई की ही मानी जाएगी। यश जी की फ़िल्म उनके अंदाज की होती हैं। तो स्थान है सबके लिए। आप अच्छी फ़िल्म बनाओ। स्टार को लेकर दो दिन धोखाधड़ी होती है, लोग आ जाते हैं फिर उनको लगता है कि पिक्चर नहीं अच्छी है, लेकिन तब तक तो 100-200 करोड़ रुपये कमा लिए डिस्ट्रीब्यूटर ने और मंडे को कहते हैं कि सॉरी सॉरी सॉरी अच्छी नहीं लगी।

प्रश्न. आपने जब कांची के लिए नई लड़की की तलाश को लेकर ट्वीट किया था तो उसमें पोस्टर डाला था रेड ऐंट रिडंप्शन का, जो वीडियोगेम सीरीज है। उसकी काऊबॉय अंदाज वाली नायिका रेगिस्तान में खड़ी होती है वेस्टर्न ड्रेस में तो क्या उससे कोई लेना-देना है कांची का?
घईः देखिए क्या है, एक होता है ट्रेलर और एक होता है टीजर। तो हम लोग टीज करते रहते हैं, कि वो ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं? ऐसी तो नहीं?... उसके पहले भी मैंने चार-पांच आकृतियां और दी थीं। अलग-अलग तरीके का मतलब है कि वो कुछ हटके है, नॉर्मल नहीं है। हम लोग टीजर भेजते रहते हैं। टीज करने का मतलब होता है, आधा आप बताइए, आधा हम बताएंगे।

प्रश्न. अभी जो आपने कहानी बताई, उसमें कांची की जो बदले वाली भावना है, वैसी ही वीडियोगेम की नायिका वाली लगती है। तो क्या ये टीजर होकर हकीकत में समानता तो नहीं है?
घईः दम है आपकी बात में। एक लड़का-लड़की जो मिलते हैं, बिछड़ते हैं और फिर मिल जाते हैं। एक लॉस्ट एंड फाउंड का बेस होता है, एक बदला होता है, अच्छा आदमी बुरा बन जाता है और बुरा आदमी अच्छा बन जाता है (A good man becomes a bad man, a bad man becomes a good man) ये होता है... ये दस तो कहानियां हैं हमारे पास और दस हजार फ़िल्में बन चुकी हैं। लेकिन किस तरह से बनती है फ़िल्म, उसके कैरेक्टर्स कितने अद्भुत तरीके से आते हैं, कितने इंट्रेस्टिंग लगते हैं, ये अंत में मायने रखता है। शेक्सपियर के हिसाब से भी 36 प्लॉट से ऊपर नहीं हैं हमारे पास ड्रामा में।

प्रश्न. मेरी बहुत जिज्ञासा है जानने की कि एक क्रिएटिव आदमी को कोई चीज़ जब खनकती है किसी क्षण में कि ये वो स्टोरी है, तो आपके लिए वो कौन सा वक्त था, वो कनविक्शन कैसे आया कि यही मुझे बनानी है? वो जो स्पेशल मूमेंट होता है, क्योंकि आपने बहुत कम फ़िल्में बनाई हैं लेकिन ज्यादातर शाहकार हैं। तो वो जो पल आता है वो बहुत पावरफुल होता है, वो आपको कब महसूस हुआ?
घईः वो मूमेंट आपकी खबरों से आता है, मैगजीन्स की कहानी से आता है, एक फोटोग्राफ देख ली, एक चीज़ सुन ली, कहीं ख्याल आया, किसी ने कुछ सुना दिया..। जैसे ‘परदेस’ की कहानी थी, उसमें मैं जब अमेरिका गया तो कोई अमरीश पुरी जैसा कैरेक्टर था जो बिलियनेयर था। उसने मेरे से कहा पीने के बाद कि “सर, सुभाष जी, मैं यहां दस डॉलर लेकर आया था और लाखों डॉलर कमा लिए मैंने। पैसे तो कमा लिए, बच्चे गवां दिए। अमेरिकन हो गए हमारे बच्चे”। मैं जब लौटा तो ये बात दिमाग में घूम रही थी। ‘विधाता’ पिक्चर में किसी ने कहा कि “मैं बहुत गरीब आदमी था, अपने बच्चे को दूध पिलाने के पैसे नहीं मिले तो मैंने शराब बेचनी शुरू की, मैं लिकर किंग बन गया, करोड़पति बन गया मैं। बेटा बड़ा हो गया तो बोला कि मैं क्या लोगों से ये कहूं कि मैं आपका बेटा हूं, लिकर किंग का। आप तो क्रिमिनल हैं, चोर हैं”। तो उन्होंने बताया। मैंने ये ‘विधाता’ पिक्चर में दिखाया कि आप जिसके लिए करते हैं, वही बच्चा बड़ा होकर आपको सुनाता है। ये जो वेदनाएं हैं, अहसास हैं, अनुभूतियां हैं... जब ये अनुभूतियां आपको क्लिक करती हैं तब कहानी तय हो जाती है। तो इसी तरह ‘कांची’ में भी एक वेदना है। जो आम लोग हैं, गरीब लोग हैं, बहुत गरीब हैं, उनके अंदर बहुत गुस्सा है लेकिन वो रियलाइज करते हैं कि गुस्सा है तभी हमें दिखता है। अब गणपति उत्सव वाले खुश रहते हैं, फेस्टिवल वगैरह में, अच्छे से रहते हैं। उनको गरीबी से कोई शिकायत नहीं है। है उनका, जीवन है। लेकिन जिस वक़त चीज़ सामने आती है, तो बहुत बड़ी होकर। तो मुझे किसी की वेदना बहुत चुभ गई। ये आम लोगों की वेदना है। ऐसे क़िरदार बहुत हैं। आप कह लीजिए की आम आदमी की बात है। पार्टी भी बन गई अब तो।

प्रश्न. जैसे ‘परदेस’ में गंगा थी, जो गांव से आई थी, ‘ताल’ में ऐश्वर्या राय का क़िरदार था... तो वैसा ही है कांची का भी?
घईः बिल्कुल, ये भी गांव से शहर आती है।

प्रश्न. आपकी कोई नायिका शहर से गांव क्यों नहीं जाती?
घईः नहीं, गई होगी, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। कौन सी फ़िल्म में गई थी... ‘खलनायक’ में शहर से गांव में ही जाती है न। ट्रैवलिंग होती है न, जर्नी होती है। स्टोरी खुद ट्रैवल करती है, वो अपना फ्लो लेती है।

प्रश्न. सुभाष घई ने अपने नाम को बनाए रखने के लिए क्या किया है?
घईः हर नाम या ब्रैंड का उद्देश्य यही होना चाहिए की वो अपनी गुणवत्ता बरकरार रखे। कि मेरी क्वालिटी पहले से बेहतर होनी चाहिए या कम से कम उतनी तो रहनी चाहिए। चाहे तो चाय के बारे में हो, कोका कोला के बारे में हो, न्यूजपेपर के बारे में हो। ब्रैंड का सबसे बड़ा डर यही होता है कि मुझे क्वालिटी में नीचे नहीं आना। मुझे कोई अफसोस नहीं है कि किसना या युवराज नहीं चली है, लेकिन क्वालिटी में तो कहीं फर्क नहीं आया है न। हमने ऐसी कसर नहीं छोड़ी कि कोई कह सके, यार ऐसा क्या कर दिया। कभी सब्जेक्ट वक्त से आगे का होता है, कभी सब्जेक्ट नहीं मैच करता है, ऐसा होता है लेकिन क्वालिटी की जिम्मेदारी रहती है और वो कांची में भी होगी।

प्रश्न. म्यूजिक कौन दे रहे हैं?
घईः इस्माइल दरबार हैं, सलीम-सुलेमान भी होंगे। इरशाद गाने लिख रहे हैं। मैं समझता हूं कि इस्माइल दरबार बहुत ही गुणी म्यूजिक कंपोजर हैं। अगर संगीत में क्वालिटी देनी है तो ये लोग लाएंगे।

प्रश्न. फ़िल्मों में पंजाब के रंग ज्यादा क्यों दिखते हैं?
घईः हमारी बॉलीवुड इंडस्ट्री में 75 फीसदी से ज्यादा लोग पंजाबी हैं। पंजाबी अपने कल्चर को लेकर आए। जितने कलर पंजाब में हैं वो सेलिब्रेशन के हैं। वो लोग हर चीज़ को सेलिब्रेट करते हैं और सिनेमा तो सेलिब्रेशन ही है। इसलिए।

प्रश्न. आपके प्रोडक्शन हाउस ने हीरोइन के रोल के लिए जो क्राइटेरिया दिया था उसमें लिखा था कि रंग गोरा होना चाहिए। तो धूसर क्यों नहीं हो सकती वो, जैसे आपने कहां गांव से आई है?
घईः वो फेयर है…

प्रश्न. नहीं, लेकिन धूसर या गेहुंए से तो फेयर बहुत आगे आ जाता है न?
घईः फेयर वो भी होता है, फेयर का मतलब होता है एक साफ स्किन। आमतौर पर जब पहाड़ी लड़की दिखाते हैं तो सिनेमैटिकली ऐसा ही गोरा रंग होना चाहिए। उसी संदर्भ में है और कोई कारण नहीं है।

प्रश्न. पालतू हैं घर पर?
घईः हां, एक डॉगी है, हैपी सिंह नाम है उसका।

प्रश्न. कपड़े कैसे पहनना पसंद करते हैं आप?
घईः दिन में वाइट पहनता हूं, रात को काला पहनता हूं।

प्रश्न. खाने में क्या पसंद है आपको?
घईः सबसे ज्यादा राजमा पसंद है, आलू के परांठे पसंद हैं और भिंडी है। बाकी स्टाइल मारने के लिए कुछ भी खा लेता हूं। थाई भी, चाइनीज भी। उसे बोलते हैं, चलो स्टाइल मारा जाए।

प्रश्न. सिर्फ खाने का ही शौक है कि बनाते भी हैं?
घईः नहीं, नहीं, बनाता नहीं हूं, बस बिल पे कर देता हूं।

प्रश्न. सोते कितने बजे हैं?
घईः 12-12.30 बजे सोता हूं और 5.30 पर उठता हूं।

प्रश्न. किताबें कौन सी पढ़ना पसंद हैं?
घईः मैं ओशो की किताबें ज्यादा पढ़ता हूं। जितनी भी व्यक्तित्व निखारने की किताबें हैं, फिलॉसफी की हैं, जो समाज के कन्वेंशन पर हैं, वो ज्यादा पढ़ता हूं। जेम्स हार्ले की किताबें पढ़ता हूं।

प्रश्न. सेलफोन कौन सा बरतते हैं?
घईः मेरा और मेरी बेटी का मुकाबला चलता रहता है कि लेटेस्ट टेक्नोलॉजी किसके पास आई है। मैं आईफोन-5 यूज करता हूं।

प्रश्न. आपकी सर्वकालिक पसंद फ़िल्में कौन सी हैं?
घईः ऑलटाइम फेवरेट मूवी मेरी ‘मदर इंडिया’ है सर। वो मैं भूल ही नहीं सकता कभी।

प्रश्न. आपको अपनी ही कोई फ़िल्म फिर से इस जमाने में, इस जमाने के युवाओं के लिए बनाने का मौका मिले तो कौन सी बनाएंगे?
घईः ‘हीरो’।

प्रश्न. दोस्त और परिवार कितने महत्वपूर्ण हैं आपके लिए?
घईः बहुत ज्यादा। दोस्त मेरे लिए ज्यादा जरूरी हैं, रिश्तेदारों से भी ज्यादा। मैं होस्टल बॉय रहा हूं, होस्टलों में पढ़ा-बढ़ा हूं तो दोस्त मेरे लिए बहुत प्यारे हैं। मेरी दुनिया ही मेरे दोस्तों में है।

प्रश्न. खाली वक्त में क्या करते हैं?
घईः संगीत सुनता हूं। सिम्फनी से लेकर फोक सॉन्ग तक सब सुनता हूं।

प्रश्न. विस्लिंग वुड्स के लिए जमीन को लेकर जो पूरा मसला चला है इससे आपने क्या सबक लिया है?
घईः मैं दो लाइन में बताऊंगा। मैं जिंदगी में बहुत बार फेल हुआ हूं। हर हार को अवसर मानकर मैंने खुद को मजबूत बनाया है। उसे फायदा बनाकर मैं आगे बढ़ा हूं। उसी को स्टेपिंग स्टोन बनाया है। जो जमीन हमारी हरियाणा से गई है, वो तो हुड्डा साहब हमारे इंस्टिट्यूट में आए थे, अच्छा लगा कि विकास के लिए ये करना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि “भई आप तो यहां के हैं और यहां के लिए फ़िल्म बनाओ, इंस्टिट्यूट बनाओ”। मैंने कहा कि हां, मैं नॉर्थ इंडिया में करना चाहता हूं। पंजाब सरकार ने हमें कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया और हरियाणा सरकार दे रही है तो जरूर करेंगे। झझ्झर में हमको 20 एकड़ जमीन दी तो हमने जमीन खरीदी। लेकिन उन्होंने क्या किया कि बोला, पंचायत से दिला देंगे। जब वक्त लगने लगा तो उन्होंने कहा कि फेवर किया है। क्या होता है कि जब भी सेलेब्रिटीज का नाम आता है, सीएम का नाम आता है तो उसको पीआईएल में तुरंत लिस्टेड किया जाता है कि ये फेवर की गई है। अब मुझे फेवर चाहिए होता तो मैं बिल्डिंगें बनाता, कमर्शियल कॉम्पलैक्स बनाता, मुझे फ़िल्म स्कूल बनाने की, एक बेफायदे की चीज़ बनाने की क्या जरूरत थी। इसमें नुकसान मेरा नहीं हुआ, हरियाणा का हुआ, पंजाब का हुआ, वहां के बच्चों का हुआ है। ये नहीं होना चाहिए। मैं फिर भी प्रयास करूंगा, दोबारा से अप्रोच करने के लिए पंजाब और हरियाणा दोनों की सरकारों से, कि ये होना चाहिए। मजे की बात ये है कि वो भी चाहते हैं। जब ये जमीन चली गई तो उसका दुख हरियाणा के सीएम को और ऑफिसर्स को भी हुआ, क्योंकि वो चाहते थे। फायदा तो इससे सभी को होता न, ये पब्लिक इंट्रेस्ट में है, बच्चों के लिए है।

प्रश्न. काफी वक्त पहले अंजुम रजबअली से बात हुई थी, जो एफटीआईआई और आपके इंस्टिट्यूट दोनों में स्क्रिप्ट राइटिंग पढ़ाते हैं। उन्होंने बताया था कि आपके इंस्टिट्यूट से निकल रहे बहुत से बच्चे फ़िल्मों में अच्छा कर रहे हैं।
घईः हमारे विस्लिंग वुड्स के 90 परसेंट बच्चे मीडिया इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं और वेल प्लेस्ड हैं। 500 ग्रेजुएट्स निकले हैं हमारे यहां से। हमारे यहां 40 फीसदी विदेशी स्टूडेंट्स हैं। विश्व के शीर्ष-10 संस्थानों में ये आता है जबकि पूरी दुनिया में 1240 स्कूल हैं। ट्रैजेडी ये है कि लोग पीआईएल कर देते हैं और अब कुछ माहौल ऐसे चला है कि जहां लैंड है वहां करप्शन है, ऐसा तो नहीं होना चाहिए न। हर जमीन का सौदा तो भ्रष्टाचार नहीं है न, विकास के लिए भी तो हो सकता है न। ये सोच और दृष्टिकोण चाहे मीडिया में हो, समाज में हो, राजनीति में हो, हमें बदलना पड़ेगा। नहीं तो हम किसी को भी तरक्की नहीं करने देंगे। जो असली लोग हैं, ईमानदार लोग हैं, समाजवादी हैं, शिक्षाविद् हैं वो आगे ही नहीं आएंगे। सरकार इस तरह से तो हमको कभी मदद कर ही नहीं पाएगी। तो ये पूरा दृश्य चेंज होना बहुत जरूरी है।

Subhash Ghai came into films in 1970 as an actor. Later on he started writing and directing films. Now he is a very well known Indian film director, producer and screenwriter. His most notable films are Kalicharan (1976), Vishwanath (1978), Karz (1980), Vidhaata (1982), Hero (1983), Meri Jung (1985), Karma (1986), Ram Lakhan (1989), Saudagar (1991), Khalnayak (1993), Pardes (1997) and Taal (1999). Ghai is shooting his latest ‘Kaanchi’ these days. With this movie he’s once again launching a new girl (Mishthi from Kolkata) as the leading lady.
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