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Saturday, March 10, 2012

समीर कर्णिक का इक गैर-जिम्मेदार हंसी-ठट्ठा

फिल्मः चार दिन की चांदनी
निर्देशकः समीर कर्णिक
कास्टः कुलराज रंधावा, तुषार कपूर, ओम पुरी, अनुपम खेर, राहुल सिंह, सुशांत सिंह, चंद्रचूड़ सिंह, मुकुल देव, अनीता राज, जॉनी लीवर
स्टारः ढाई, .5

फिल्म की हाइलाइट हैं ओमपुरी, उनका मा की गाली बोलने का तरीका, चंद्रचूड़ सिंह-सुशांत सिंह-मुकुल देव की रॉयल-भोली गुस्ताखियां और सुंदर कुलराज रंधावा। पर दिक्कत वही हो जाती है। सबकुछ है। खूबसूरत खींवसर फोर्ट, बेहद रंगों भरी राजपूती पोशाकें, नमकीन जिंदादिल पंजाब और पंजाबी, तकरीबन दर्जन भर उम्दा अदाकार, उनके फनी तरीके से गढ़े गए किरदार, म्यूजिक और कॉमेडी भी। मगर स्क्रिप्ट जगह-जगह झूल जाती है। हम जॉनी लीवर को शुरू में अनुपम खेर के किरदार चंद्रवीर सिंह से नाराज होकर जाते हुए देखते हैं, फिर वह एक-दो सीन में भी दिखते हैं मगर उसके बाद वह आखिर तक नजर नहीं आते।

फिल्म में शुरू में एक बैग दिखाया जाता है जो वीर (तुषार) की शादी करने जा रही बहन का है, जो उसने चांदनी (कुलराज) से लंदन से मंगवाया है, जिसमें कुछ सुहागरात से जुड़ा हॉट सामान है। वह बैग यशवंत (सुशांत सिंह) के हथियारों से भरे बैग से बदल जाता है, पर फिल्म के आखिर तक फिल्म से यह संदर्भ गायब ही हो जाता है। पूरी फिल्म स्क्रिप्ट की बजाय फिट किए गए चुटकुलों के सहारे आगे बढ़ती है। इससे चीजें और किरदारों की गति बदलती लगती है। ओम पुरी अपने सबसे पहले सीन में जितने ज्यादा प्रभावी हैं बाकी फिल्म में उतनी ही ढीले कर दिए गए हैं। अनुपम खेर का किरदार भी ऐसा गढ़ा गया है कि वह कब चार्ली चैपलिन जैसे हो जाते हैं और कब एक गुस्सैल पूर्व राजा समझ नहीं आता। मामोसा बने राहुल सिंह का किरदार फिल्म में सबसे अनफिट है। अनीता राज के सर्जरी करवाए हुए होठ और गाल आंखों में किसी चीनी मिट्टी के बर्तन के नुकीले टुकड़े की तरह चुभते हैं।

खैर, फिल्म एक बार देख सकते हैं, बोर नहीं होंगे।

बचकाना, बुरा और बद्तमीज
# एक गे इंटीरियर डिजाइनर का कैरेक्टर गढ़कर पूरी फिल्म में उसका भद्दा मजाक उड़ाना।
# अनुपम खेर जोधपुर की एक रियासत खींवगढ़ (असल में वह खींवसर नाम का रॉयल ठिकाणा है और वहीं के खींवसर फोर्ट में फिल्म की शूटिंग हुई है) के पूर्व महाराज हैं, पर शराब के एक ब्रैंड के संदर्भ में वह बांसवाड़ा जिले का नाम सुनकर उसे भोंसवाड़ा कहते हैं, एक मुख्यधारा की फिल्म में इससे घटिया और बचकाना कुछ हो नहीं सकता। राजस्थान में किसी के लिए बांसवाड़ा फनी नाम नहीं है।
# यहां आते-आते निर्देशक समीर कर्णिक का थोथापन दिखने लगता है। सरदारों या पंजाबियों का जैसा चित्रण यहां है, वह फिल्मों में अब तक इस्तेमाल होती रही उनकी बारह बजने वाली, संता-बंता या कॉमेडी सर्कस के सुरिंदर जैसी बुरे सांचे में बंधी इमेज जैसी ही है। ये खराब बात है। पंजाब में तो सब हंस लेते हैं, पर बाहर के राज्यों में दर्शक सरदारों के प्रति एक असम्माननीय धारणा बना लेते हैं।

चांदनी और वीर की कहानी कुछ यूं है
जोधपुर में एक रियासत है खींवगढ़। यहां के पूर्व राजा हैं चंद्रवीर सिंह राठौड़ (अनुपम खेर)। इनकी वाइफ महारानी देविका (अनीता राज) और चार बेटे हैं। सबसे बड़े पृथ्वी सिंह (चंद्रचूड़ सिंह) के हाथ में हर पल जाम रहता है, उनसे छोटे उदयभान (मुकुल देव) रसिया किस्म के हैं, तीसरे नंबर पर काउबॉय अंदाज वाले गुस्सैल यशवंत (सुशांत सिंह) और चौथे सबसे छोटे हैं वीर विक्रम सिंह (तुषार कपूर) जो ऑक्सफोर्ड, लंदन से अपनी लुधियाना से ताल्लुक रखने वाली माशूका चांदनी (कुलराज रंधावा) को साथ लेकर लौटे हैं। चूंकि गढ़ में वीर की बहन की शादी का माहौल है और पिता हिज हाइनेस चंद्रवीर सिंह को अपनी किसी भी औलाद की शादी किसी गैर-राजपूती गैर-रॉयल खून के साथ कतई बर्दाश्त नहीं है, इसलिए वीर और चांदनी अपने रिश्ते को शुरू से ही छिपाकर सबकुछ ठीक करने की कोशिश करते हैं। पर हालात बिगड़ते जाते हैं और हास्य उत्पन्न होता जाता है। कहानी में वीर के शक्की मामा (राहुल सिंह), चांदनी के मां-पिता (फरीदा जलाल – ओम पुरी) और कान सिंह (जॉनी लीवर) आते जाते हैं। अब पेंच ये है कि वीर-चांदनी क्या चंद्रवीर सिंह को मनाकर शादी कर पाते हैं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, February 26, 2012

वीरेन को मिली, जीवन से भरी, मिनी

फिल्मः तेरे नाल लव हो गया
निर्देशकः मनदीप कुमार
कास्टः रितेश देशमुख, जेनेलिया डिसूजा, ओम पुरी, स्मिता जयकर, टीनू आनंद, चित्राशी रावत, नवीन प्रभाकर
सिनेमैटोग्रफीः चिरंतन दास
एडिटिंगः मनीष मोरे
म्यूजिकः सचिन-जिगर
स्टारः तीन, 3.0निर्देशक मनदीप कुमार ने अपनी इस पहली हिंदी फिल्म से निराश नहीं किया है। स्क्रिप्ट, आइडिया और संगीत के स्तर पर हम सबकुछ बहुतों बार देख चुके हैं। फिर भी 'तेरे नाल लव हो गया’ ऐसी है कि आप बेझिझक जा सकते हैं। फैमिली या फ्रेंड्स के साथ। जिनेलिया में जितनी तरह की मासूमियत और चंचलता इस फिल्म में समेटी गई है उतनी पहले कभी नहीं। 'पहले डांस करके दिखाओ और 'या लगाऊं कान के नीचे एक जैसे संवाद वही इतने चुलबुलेपन से निभा सकती थीं। ओमपुरी फिल्म में जान ले आते हैं। उनका हरियाणवी एक्सेंट बेदाग लगता है। बहुत अच्छा। जैसे एक सीन में मिनी के पिता बने टीनू आनंद फिरौती के पैसे लेकर आए हैं और वो जाना नहीं चाहती, सबसे कह रही है कि मुझे रोक लो, यहां ओम पुरी के किरदार की आंखें लाल और गीली हो जाती हैं। आमतौर पर टाइमपास फिल्मों में ऐसी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है। पर यहां दिया गया, जो खूबसूरत बात है। स्मिता जयकर को हरियाणवी औरत की वेशभूषा में देख अच्छी हैरत होती है। उनका किरदार जब जिनेलिया को रसोई में कहता है कि 'ले, खड़े प्याज काट दे’ तो यकीन हो जाता है कि मनदीप हल्के फिल्मकार नहीं हैं। उनको जमीनी चीजों का ज्ञान है। ऐसा कई जगहों पर है। वीरेन का मुंह अंधेरे ऑटो चलाने जाना, चौधरी के लिए खाने की थाली लेकर गई मिनी का बातें करते वक्त आंगन में नीचे बैठ जाना और कसौली की सड़कों पर एक बूढ़ी औरत का वीरेन को अखबार से पीटते हुए कहना कि 'क्यों, लड़की लेकर भागता है, लड़की लेकर भागता है। कुछ ढर्रे वाली चीजें भी हैं। मसलन, जिनेलिया का लाल लंगोट पहने पहलवानों को ऐरोबिक्स करवाना। फिल्म कुल मिलाकर लव करने वालों को खासतौर पर हंसाती-लुभाती है।

प्यार की हैपी-हैपी कहानी
भट्टी (टीनू आनंद) के यहां किराए का ऑटो चलाता है वीरेन (रितेश देशमुख)। साठ हजार जुटा चुका है, चार पहियों वाली टैक्सी लेना चाहता है। उधर भट्टी अपनी बेटी मिनी (जिनेलिया डिसूजा) की शादी एक रईस मगर नाकारा पंजाबी लड़के से करना चाहता है। उस लड़के को मिनी के कैनेडा वाले ग्रीन कार्ड में इंट्रेस्ट है। फिर वीरेन की परेशानियां शुरू होती हैं। उसके पैसे चले जाते हैं और चुलबुली मिनी उससे खुद को किडनैप करवा लेती है। दोनों भाग रहे हैं, प्यार हो रहा है और सरप्राइज हमारा इंतजार कर रहे हैं। कहानी में दमदार से चौधरी (ओम पुरी), चौधराइन (स्मिता जयकर), धानी (चित्राशी रावत) और नायडू (नवीन प्रभाकर) भी हैं।

तौले-मोले कुछ और बोल
# पंजाबी सिंगर और एक्टर दिलजीत दोसांझ का 'पी पा पी पा’ गाने में एंट्री लेना पंजाबी दर्शकों के लिए जोरदार फन बन जाता है।
# वीना मलिक का आइटम सॉन्ग 'मैं तेरी फैन बन गई’ फिल्म की सबसे बुरी-बेकार चीज है।
# पेट्रोल पंप पर अंगूठी वाले सीन में पंजाबी एक्टर राणा रणबीर मुझे जॉनी लीवर की याद दिलाते लगे, पर चलो हिंदी फिल्मों में उनकी एंट्री ठीक रही।
# चौधरी किडनैपिंग का कारोबार करते हैं। उनका अगुवा हाउस मुझे सीधे 'फंस गए रे ओबामा’ की याद दिला देता है। हूबहू वैसा। संयोग है कि प्रेरणा, फिल्मकार जाने।
# अभिजीत संधू की स्टोरी उतनी अभिनव या ताजी नहीं है जितना कि डायरेक्टर मनदीप कुमार का फिल्म के प्रति नजरिया। ताजेपन की ऐसी ही कमी सचिन-जिगर के संगीत में है। बस काम चलाऊ है।*** *** *** *** ***
गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, June 11, 2011

ब्लूडी गुड! खान फैमिली

फिल्मः वेस्ट इज वेस्ट
डायरेक्टरः एंडी डिमोनी
राइटरः अयूब खान-दीन
कास्टः ओम पुरी, अकिब खान, लिंडा बैसेट, विजय राज, इला अरुण, राज भंसाली, एमिल मारवाह, नदीम सावल्हा,लेस्ली निकोल
स्टारः तीन 3.0
कहानी कहने के तरीके में 'ईस्ट इज ईस्ट’ में एक नॉवेल जैसा रोमांच, एक टेंशन हर मोड़ पर रहती है कि अब क्या होगा। इस टेंस-फैमिली ड्रामा के उलट 'वेस्ट इज वेस्ट’ किसी पुरानी खुद को एक्सप्लोर करने वाली अच्छी कहानी जैसी लगती है। सैलफर्ड के हरदम गीले रहने वाले आसमान और मुहल्ले को छोड़कर इस फिल्म में हम पहुंचते हैं धूल भरे पाकिस्तान में। जो पेस पसंद करने वाले दर्शक हैं उन्हें कहीं-कहीं फिल्म धीमी लगेगी। मगर मुझे अच्छी लगी। साफ-सुथरी, समझ आने वाली, चेहरे पर चुटीली हंसी ले आने वाली और टेंशन फ्री। पर्याप्त फिल्मी एंटरटेनमेंट, पर्याप्त स्टोरी सेंस। हर तरह का सिनेमा पसंद करने वाले इसे देखें और फैमिली ऑडियंस भी ट्राई करें। ब्लैंक होकर दोस्तों के साथ जाएंगे तो मजा आएगा।

खान कहानी: 'ईस्ट इज ईस्ट’ के चार साल बाद 1975 का सैलफर्ड, इंग्लैंड। पिछली मूवी में जहां जॉर्ज खान (ओम पुरी, दूसरा नाम जहांगीर खान) और वाइफ एला (लिंडा बैसेट) का घर सात बच्चों से भरा था, वहीं अब घर में सिर्फ सबसे छोटा बेटा साजिद (अकिब खान) ही दिखता हैं। 15 साल का साजिद पूरी तरह ब्रिटिश है पर स्कूल में लड़के 'पाकी’ कहकर चिढ़ाते हैं। घर पर पिता उसे सच्चा मुसलमान और पाकिस्तानी होते देखना चाहता है। उसके मन में यही पहचान का गुस्सा और कन्फ्यूजन है। स्कूल से आती शिकायतों और उसके बुरे बर्ताव का इलाज जॉर्ज को यही लगता है कि अब अपने असली घर यानी पाकिस्तान लौट चला जाए। बड़े बेटे मुनीर (एमिल मारवा) को तो जॉर्ज पहले ही अपनी पहली बीवी बशीरा (इला अरुण) के पास पाकिस्तान भेज चुका है। फिल्म की कहानी तो इतनी ही जानिए। आगे तो साजिद की जर्नी है। वह पाकिस्तान आने के बाद अपने पिता, अपनी पहचान और अपने अंदर के इंसान को बेहतर तरीके से जान पाता है। इसमें उसकी मदद करते हैं पीर नसीम (नदीम सावलहा) और हमउम्र दोस्त जायद (राज भंसाली)। इन दोनों की एक्टिंग बड़ी मिस्टीरियस और अच्छी लगी। इस फिल्म का अंत ठीक उसी सीन पर होता है, जिस पर 'ईस्ट इज ईस्ट’ खत्म हुई थी।

किरदार क्या करते हैं!: खान साहब का एक्सेंट फिल्म को 'ईस्ट इज ईस्ट’ के बिल्कुल बाद से जारी रखता है। जब ओम पुरी बास्टर्ड को 'बास्टर’ कहते हैं, हर लाइन में 'ब्लूडी’ (ब्लडी) शब्द का इस्तेमाल करते हैं और 30 साल लंकाशायर, इंग्लैंड में रहने के बाद भी हर वाक्य में से वर्ब खा जाते हैं तो ब्रिटेन में रह रहे उस जमाने के सच्चे एशियन लगते हैं। ...और पाकिस्तान में हल चलाने के बाद अपने हाथों पर उगे छालों की दवाई ढंढते हुए हमारी ट्रेडमार्क मां की गाली बोलते हैं तो पूरे पाकी-हिंदुस्तानी लगते हैं। अकिब ने साजिद के रोल को अपनी तरफ से एक आइडेंटिटी दी है, जो कम उम्र में समझ भरी एक्टिंग की निशानी है। सैलफर्ड में गुस्सा करते हुए और पिता से पिटते हुए अकिब अलग मुंह बनाते हैं और पाकिस्तान पहुंचने के बाद बिल्कुल अलग। उनका चौंकने का अंदाज फिल्म में स्पेशल है, देखते ही हंसी फूट पड़ती है। इला अरुण नीव का पत्थर हैं। 30 साल बाद विदेश से लौटे अपने पति को देखने के बाद एक औरत कैसे रिएक्ट करती है, वो इला से सीखना चाहिए। इस सीक्वेंस के दौरान 'पूरब और पश्चिम’ में निरुपा रॉय और प्राण के कई साल बाद मिलने के सीक्वेंस को याद कर सकते हैं।

ईस्ट और वेस्ट फिल्मों में: इस रंग-रूप वाली कई फिल्में हमारे सामने है। 'मॉनसून वेडिंग’, 'नेमसेक’, 'ब्रिकलेन’, 'ईस्ट इज ईस्ट’, 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ और कुछ हद तक 'आउटसोस्र्ड’। सब की सब रुचिकर। 'वेस्ट इज वेस्ट’ में साजिद की जो जर्नी है वही जर्नी 'द दार्जिलिंग लिमिटेड’ के पीटर, फ्रांसिस और जैक की है। बस पाकिस्तान हिंदुस्तान का फर्क है। इस फिल्म में ओमपुरी का कैरेक्टर 'ब्रिकलेन’ के सतीश कौशिक और 'नेमसेक’ में इरफान खान के किरदारों के करीब खड़ा है। हर मायने में नहीं, पर एशियाई पहचान और परदेस आने के बाद बदलते रिश्तों के लिहाज से। इन सब फिल्मों में एक समानता रेफरेंस की भी है। चूंकि 'वेस्ट इज वेस्ट’ एक फनी टेक ज्यादा है इसलिए इसके रविशंकर, गांधी, मोगली और रुडयार्ड किपलिंग के नॉवेल 'किम’ के रेफरेंस अलग लगते हैं, पर ये ऐसी मूवीज का अहम हिस्सा ही हैं।
आखिर में: फिल्म में आप जिस 15 साल के साजिद को देखते हैं, वो फिल्म के लेखक अयूब खान-दीन का असल किरदार है। 1970 में 13 साल के एक लड़के के तौर पर सैलफर्ड में अयूब ने जो जिंदगी बिताई, उसकी ही यादें 'ईस्ट इज ईस्ट’ और 'वेस्ट इज वेस्ट’ जैसी फिल्म बनी। अब तीसरी फिल्म पर काम चालू है।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Saturday, April 16, 2011

अपनी खूबी-खामी वाले तीन चार्ली चैपलिन

फिल्मः तीन थे भाई
डायरेक्टरः मृगदीप सिंह लांबा
कास्टः ओमपुरी, दीपक डोबरियाल, श्रेयस तलपड़े, रागिनी खन्ना, योगराज सिंह
स्टारः तीन


'लिसन सुनो भई, चूज चुनो भई... तीन थे भाई।' गुलजार के ये बोल और दलेर मेंहदी की आवाज इन भाइयों की फिल्म को नई पहचान देते हैं। बाकी काम करते हैं टॉम एंड जैरी की तरह गिरते-पड़ते, झगड़ते ओमपुरी, श्रेयस तलपड़े और दीपक डोबरियाल। शुरू के बीस मिनट बहुत नंद देते हैं पर उसके बाद से फिल्म के आखिर तक सीन दर सीन छोटे-छोटे गैप आने लगते हैं। कुछ कमी महसूस होने लगती है। ये कमी रही स्क्रिप्ट में। कुछ ऑडियंस को इससे झल्लाहट होगी, तो कुछ फिल्म के बारे में अपना व्यू यहीं से तय कर लेंगे। फिल्म में डायलॉग्स को फनी रखने की कोशिश की गई है, पर ये सब मिलकर भी फिल्म को एक संपूर्ण कहानी नहीं बना पाते हैं। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं वल्गर नहीं होती, बस ...ओ? टॉपलेस हाउस और सिलिकॉन्स जैसे जुमलों को छोड़ दें तो। काम तीनों एक्टर्स का अच्छा है पर अपने कैरेक्टर में सबसे ज्यादा इनोवेशन डाल पाए दीपक डोबरियाल। उनका खास जिक्र। एंजॉय करने के लिए फ्रेंड्स और फैमिली का साथ बेस्ट रहेगा।

कौन हैं ये तीन
ये तीन सगे भाई हैं। सबसे बड़े चिकरजीत यानी चिक्सी गिल (ओमपुरी), दूसरे हैप्पी गिल (दीपक डोबरियाल) और सबसे छोटे फैंसी गिल (श्रेयस तलपड़े). प्योर पंजाबी हैं। एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, पर छोटों को बड़े का लिहाज है। चिक्सी की तीन बेटियां हैं पर कोई लड़का उन्हें पसंद नहीं करता। हैपी की डॉक्टरी नहीं चल रही। ...और फैंसी को अंग्रेजी बोलने की फैंसी है, इसलिए रीजनल फिल्मों में भी साइड रोल नहीं मिलता। एक दिन तीनों को वकील का फोन आता है। दादाजी (योगराज सिंह) गुजर गए हैं और पीछे एक वसीयत और अजीब सी शर्त छोड़ गए हैं। इसके मुताबिक अगले तीन साल दादा की हर बरसी पर पूरा एक दिन इन्हें एक-दूसरे के साथ बिताना होगा। यहीं से सारी उठा-पटक शुरू होती है। सवाल खड़ा होता है, कि क्या बड़ा अपनी बेटियों की शादी कर पाएगा, छोटा अमेरिका जाकर अपनी हॉलीवुड मूवी बना पाएगा रिटर्न ऑफ ए ब्लू लगून, और मंझला बड़ा डॉक्टर हो जाएगा, खुद का हॉस्पिटल खोल पाएगा।

प्रेजेंटेशन का अंदाज
चार्ली चैपलिन की साइलेंट कॉमेडी फिल्मों में अगर आप हिंदी संवाद डाल दें, तो कुछ-कुछ तीन थे भाई वाला असर पैदा होता है। ओमपुरी का बड़े भाई का लाउड कैरेक्टर, बीच वाले भाई के रूप में शर्मीले-कुछ डरपोक से दीपक और तीसरे मूर्ख लेकिन साहसी और खुराफाती भाई के तौर पर श्रेयस। तीनों के कैरेक्टर में ये गुण सोच-समझकर और पूरे बैलेंस के साथ डाले गए हैं। बर्फीला मौसम, वाइन, कुत्ता, घर की चिमनी, पुराना दरवाजा, अफीम और पंजाबी लेंगवेज इन तीनों के साथी कैरेक्टर बन जाते हैं। म्यूजिक अरेंजमेंट में काफी वेरिएशन है। अमेरिकन बीहड़ों वाली फिल्मों में बजने वाला गिटार भी, क्लासिकल वीणा भी, बुल्ले शाह भी, ढोलक भी और प्योर देसी पेटी भी।

जो अच्छा नहीं है
खासतौर पर ये सीन। ओमपुरी के कैरेक्टर का परिचय दिया जा रहा है। चिकरजीत यानी चिक्सी, भटिंडा का मशहूर सड़ियल, नाड़ों की दुकान है, तीन मोटी बेटियां, न तो इनकी बेटियां सुशील है, न ही इनकी इन गायों को कोई अपने खूंटे से बांधेगा। कॉमेडी क्रिएट करने के लिए मुझे ये जोक पसंद नहीं आया। भारी शरीर वाली लड़कियों के लिए अपमानजनक है, चाहे इरादा सिर्फ हंसाने का ही क्यूं न रहा हो।

हंसी मलाई मार के
श्रेयस के कैरेक्टर फैंसी का ओपनिंग सीन बहुत मजेदार है। पंजाबी फिल्म की शूटिंग चल रही है। डाकू बने श्रेयस का डायलॉग सीक्वेंस है... लंबरदारा, जो बड़ा इंप्रैसिव हैं। श्रेयस के करियर के बेस्ट सीन्स में से एक हैं। एक्टिंग, टाइमिंग, पंजाबी मूवीज के डाकू की इमेज का मजाकिया अंदाज और शब्दों के उच्चारण को देखते हुए ये सीन तकरीबन परफैक्ट बन पड़ता है। चूंकि पहले की फिल्मों में श्रेयस हिंदी के शब्दों को देसी लहजे में बोलने के कोशिश में सफल नहीं हो पाते थे, यहां भी यही डर था। पर इस फिल्म में वो ये गलती नहीं करते। हंसाने का एक अंदाज डायरेक्टर मृगदीप ने ये भी सोचा कि घर गिराने आई जेसीबी मशीन किसी हाथी की तरह पीछे के हिस्से पर खड़ी हो जाती है और फिर अगले हिस्से को सूंड की तरह उठाकर चिंघाड़ती हैं।

प्योर डायलॉग
सबसे अच्छे पंजाबी शब्दों के इस्तेमाल वाली लाइन ओमपुरी और योगराज सिंह के हिस्से आती हैं। ओमपुरी का वकील दोस्त कहता है कि दादा की वसीयत के मुताबिक तीनों भाइयों को एक पूरा दिन और रात साथ बितानी होगी। इस पर ओमपुरी कहते हैं, दो दिन इन्हें झेलने की खुर्क नहीं है मुझे (खुर्क शब्द का इस्तेमाल), या फिर ये कहावत, मां जिन्ने झल्ले, मेरे पल्ले। गांव की रामलीला में रावण का रोल कर रहे दादा की भूमिका में योगराज सिंह का संवाद है, खेंच के पकड़ इस बांदर दी रस्सी, नहीं पिलाणी एनू लंका दी लस्सी। ये पूरा सीन ही अच्छा है। फिल्म में एक जगह वह कहते हैं, दूसरों का चेहरा लाल देख के अपने मुंह पे चपेड़े नहीं मारते ओए।

रियल का गांव
हैपी बने दीपक अपने बचपन के लव गुरलीन (रागिनी खन्ना) को याद कर रहे है। इन यादों में उनके बचपन का स्कूल सेंट पर्सेंट किसी पंजाबी पिंड का प्राइमरी स्कूल लगता हैं, जहां बच्चियां दो चोटियों में लाल रिबन बांधकर आती हैं और लड़के नीले शर्ट-पेंट में। स्कूल की लोकेशन भी असली है। रिव्यू में डायरेक्टर के ऑब्जर्व करने के तरीके और बारीकी पर मैं अक्सर बात करता हूं, यहां इस सीन में गांव के कच्चेपन को डायरेक्टर मृगदीप ने अच्छे से उभारा है। दीपक सड़क किनारे दीवार सहारे अपनी साइकिल टिकाकर उसपर खड़ा है। ऊंची दीवार से गर्दन निकालकर अंदर खेत पार कोयले वाली इस्त्री कर रही गुरलीन (रागिनी खन्ना) को देख रहा है। उसपर किसी गांव की कुड़ी की तरह गुरलीन का नजरें नीची कर लेना... ये पूरा सीन बिना किसी मिलावट के हाजिर होता है। बस एक कसर रह जाती है। इस्त्री के कपड़ों में जो काला ब्लाउज छोटा छोटा फैंसी टोपी समझकर निकाल लेता है वो किसी गांव का नही बल्कि इंटरनेशनल फैशन ब्रैंड का लगता है। इसका कारण क्या रहा, प्रॉडक्शन की कमी रही.. ये तो फिल्म बनाने वाले ही बता सकते हैं। इसके अलावा छितर, कुटापा, लेडीज बनियान, धोबियों वालियों की कुड़ियां.. फिल्म में कई जगह पर ऐसी क्षेत्रीय भाषा और शब्दों का इस्तेमाल है।

आखिर में...
चंडीगढ़ वालों के लिएः इस शहर का जिक्र दो बार आता है, पहला तो जब हीरोइन रागिनी का एडमिशन 'लॉ कॉलेज चंडीगढ़' में हो जाता है और दूसरा जब तीनों भाई फिल्म के पहले हाफ के बाद सड़क पर 'चंडीगढ़ 20 किलोमीटर' के बोर्ड के सामने खड़े होते हैं। (प्रकाशित)
गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, April 14, 2011

पथैटिक हैं एक्टिंग सिखाने वाली ये दुकानें: ओमपुरी

ओमपुरी के साथ संक्षिप्त बातचीत...

अपनी एक नई फिल्म के प्रचार से सिलसिले में चंडीगढ़ आए हुए थे एक्टर ओमपुरी। उनसे पहली बार आमना-सामना हो रहा था। सफेद बाल, सफेद टी-शर्ट, खराश भरी भारी आवाज और भारी होते शरीर के साथ उनका एक रौबीला स्वरूप भी दिखाई दे रहा था। हालांकि ये कहीं-कहीं नेगेटिव भी हो रहा था, तो कहीं मित्रवत भी, उन्हें मीडियावालों पर गुस्सा आ रहा था, तो सभी लोग सही एंगल से तस्वीरें खींच पाए इसकी चिंता भी। वो किसी नशे में लग रहे थे तो पूरी तरह होश-ओ-हवास में भी। उनके साथ बैठे तनु वेड्स मनु के पप्पी जी यानी एक्टर दीपक डोबरियाल डर से सहम रहे थे तो बाहर से सौम्य होने की कोशिश भी कर रहे थे। मतलब सब कुछ नियंत्रण में होते हुए भी तुरंत बेकाबू हो जाएगा ऐसा लग रहा था। मैंने अपनी बारी का यही कोई चार घंटे इंतजार किया। फिर बात की तो कुछ परेशान होते हुए भी सहज होकर उन्होंने किनारे बैठकर बात की। मगर तब तक मेरी इच्छा नहीं रही। बात करने का इतना उत्साह अब नहीं बचा था। पर ये भी था कि बहुत कुछ पूछना है। तो चार सवाल पूछे। उनके जवाब की कुछ जरूरी बात छूट भी गईं। भीड़-भड़ाके और हड़बड़ाहट के बीच बात टूटी। फिर करीब एक घंटे बाद एक होटल की दूसरी मंजिल पर नाश्ता करते वक्त उनसे आखिरी सवाल पूछा, इसमें कुछ ऑफ द रेकॉर्ड बिंदू भी रहे। फिर उन्हें उठना पड़ा। मिजाज ठीक नहीं थे तो उठकर चल पड़ा। दूसरी मंजिल की लिफ्ट की तरफ जा रहा था कि वो कुछ और मीडियावालों से बातकर सामने आते दिखे। मैंने हाथ मिलाकर कह दिया चलता हूं सर। थैंक यू। इस बार उनकी पकड़ में और चेहरे की मुस्कान में अलग ही अपनत्व लगा। पर उन्हें पांच मिनट में ही आसमान की उड़ान भरनी थी और मुझे सड़क पर उड़ना था। सो, उड़ चले। सोचता हूं किसी दुरूस्त माहौल में पारस्परिक रूचि के साथ उनसे फिर मुलाकात होगी, लंबी बातचीत के लिए। फिलहाल ओमपुरी के साथ ये संक्षिप्त बातचीतः

‘आक्रोश’ और ‘मंडी’ जैसी फिल्मों में आपने काम किया। वहां से आज इतने सालों का सफर तय कर लिया। मैंने देखा है कि अपनी फिल्मों में आप आज भी हर एक सीन में अपना सौ फीसदी देते हैं। आखिर वो क्या चीज है जो आपको इतने साल बाद आज भी ऐसा करने की प्रेरणा देती है या आप कर पाते हैं?
कुछ नहीं, बस इस क्षेत्र और अभिनय की विधा से प्यार है इसलिए ऐसा कर पाता हूं। बाकी बहुत से ऐसे एक्टर हैं जो आज भी दशकों बाद अपने काम को उसी तरह से लिए हुए हैं। इसमें मैं अमिताभ बच्चन की बहुत इज्जत करता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और उनके जैसे अपने काम को गंभीरता से लेने वाले इंसान बहुत कम हैं। इस उम्र में भी उसी अनुशासन के साथ काम कर रहे हं। तो मैं भी ऐसे ही कर लेता हूं।

कॉमेडी में फूहड़पन या वल्गैरिटी को आप कैसे लेते हैं। टीवी पर कॉमेडी सर्कस जैसे प्रोग्रैम हैं जिसमें सिर्फ हंसी पैदा करने के लिए एक्टर एक दूसरे को लातें मारते हैं और डबल मीनिंग बातें करते हैं?
मैं इसके बिल्कुल खिलाफ हूं। बल्कि मैं तो ऐसे प्रोग्रैम देखता ही नहीं हूं। ये बहुत ही घटिया और सस्ती कॉमेडी होती है जिसे एक्टिगं तो जोड़कर ही नहीं देखा जाना चाहिए।

कॉमेडी मूवीज तो आपने लगातार बहुत की हैं, अब आने वाले वक्त में क्या आपको सीरियस काम करते हुए भी देखा जा सकेगा?
नहीं यार मैं नहीं समझता हूं कि अब मैं करुंगा। सीरियस सिनेमा में मेरा टाइम बीत चुका है। आई एम ओवर। पर हां, कुछ दूसरी फिल्में कर रहा हूं। इसमें ‘डॉन-2’ है और ‘अग्निपथ-2’ है। बाकी तो कर लिया यार जो करना था।

फिर से सवाल कॉमेडी पर है। आपने तकरीबन हर प्रतिभाशाली निर्देशक के साथ काम किया है। ऐसे में हमारे यहां का बेस्ट डायरेक्टर इसमें आप किसे मानते हैं?
मैं प्रियदर्शन को बहुत काबिल निर्देशक मानता हूं इसमें। फिल्मों और कॉमेडी को लेकर इसमें जो उनकी समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जब हम ‘मालामाल वीकली’ की शूटिंग कर रहे थे तो एक सीन के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप इस तरीके से भागने और गिरने को कह रहे हैं ये तो बिल्कुल अजीब सा है। रियलिस्टक भी नहीं है और इसका सेंस भी कुछ समझ में नहीं आता। तो उन्होंने अपना मतलब समझाया। उन्होंने कहा कि आप टॉम एंड जैरी की कार्टून मूवी देखिए। इसमें वो बिल्ला चूहे के पीछे भागता है, उसके लगती है, पीटा जाता है खून भी आ जाता है पर लोग हंसते हैं, ठीक वैसे ही हमारी कॉमेडी है। लोग रिलैक्स होने और एंजॉय करने आते हैं। ऐसे में थोड़ा सा खून निकलने और गिरने-पड़ने भागने का मतलब सिर्फ टॉम एंड जैरी के संदर्भ में ही है। तो इस तरह उनकी समझ और उनकी क्षमता काफी ज्यादा है।

प्रियदर्शन की फिल्मों में जो गांव दिखाया जाता है, जो लोग दिखाए जाते हैं उसका असली गांव से कोई वास्ता नहीं होता। इसपर आपका क्या कहना है?
बिल्कुल सही है। उनके गांव से असली गांव बहुत जुदा होते हैं। स्टोरी नॉर्थ ईस्ट के धूप भरे गांवों की होती है और मूवी में साउथ के गांव शूट होते हैं। ये अंतर तो होता है।

जो युवा फिल्मों में आना चाहते हैं, एक्टर बनना चाहते हैं उन्हें आप क्या सलाह देंगे?
बस यही की पूरे पैशन के साथ आएं। लेकिन पहले सबसे जरूरी है कि अपनी पढ़ाई को पूरा करें। याद रखें पहले सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई को पूरा करें। उसके बाद किसी अच्छे इंस्टिट्यूट से इसकी ट्रेनिंग लें। एक्टिंग सिखाने के नाम पर जो ये दुकानें खुल गईं है न, जो लाखों रुपए लेकर तीन महीने में एक्टिंग सिखाने का दावा करती हैं, उनमें बिल्कुल नहीं जाएं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी), या एफटीआईआई, पुणे (फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूड ऑफ इंडिया) या सत्यजीत रे इंस्टिट्यूड से एक्टिंग सीखें।

मगर जिन एनएसडी, एफटीआईआई और सत्यजीर रे संस्थान का आपने जिक्र किया वो तो बहुत ही थोड़े हैं, इस फील्ड में आने वाले बहुत ज्यादा तो वो कैसे आ पाएंगे। इसके लिए क्या उन्हें एकलव्य बनना पड़ेगा?
नहीं, पर इसका मतलब ये नहीं कि वो इन दुकानों में जाएंगे। मेहनत करो और इन इंस्टिट्यूड में आकर दिखाओ। अगर नहीं आ सकते तो इसका मतलब तुममें एक्टर बनने की क्षमता ही नहीं है।

पर सीटें भी तो बहुत कम हैं?
तो क्या हुआ। उन्हें हासिल करो। मैं चंडीगढ़ में एक बड़े प्राइवेट एक्टिंग इंस्टिट्यूड में गया था। वहां शूटिगं कर रहा था तो मुझसे कहा गया कि आप जाएंगे तो बच्चों का हौसला बढ़ेगा। जब मैं गया तो वहां के बच्चों की एक्टिंग की हालत देखकर मुझसे सहा नहीं गया। आई मीन वो लोग पथैटिक थे। पर वहां आए हुए थे और क्यों तो साब एक्टिगं सीख रहे हैं, लाखों रुपए दिए हैं। तो ये हालत है, मुंबई की भी बाकी दुकानों की, पुणे की भी प्राइवेट दुकानों की। सब बेकार हैं।
गजेंद्र सिंह भाटी