Friday, October 12, 2012

मृत्यु की लोरी गाता वहः किलिंग देम सॉफ्टली, विलक्षणता की विवेचना

Killing Them Softly, Director: Andrew Dominik, Cast: Brad Pitt, Ray Liotta, Richard Jenkins, Scoot McNairy, Ben Mendelsohn, James Gandolfini, Vincent Curatola
 किलिंग देम सॉफ्टली (Killing Them Softly) एक विलक्षण फिल्म है। रोड टु परडिशन, पल्प फिक्शन, किल बिल, नो कंट्री फॉर ओल्ड मैन और गॉडफादर सीरिज जैसी बहुत सारी फिल्में हैं जो विषय-वस्तु में अलग हो सकती हैं, पर लूट-अपराध-हिटमैन वाले संदर्भों में निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक की इस फिल्म के समानांतर हैं। विलक्षण शब्द का इस्तेमाल और इन फिल्मों का जिक्र इसलिए क्योंकि 'किलिंग देम सॉफ्टली' उनके समानांतर होते हुए भी बिल्कुल अलग है। इसमें ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड मूल के एंड्रयू की अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निराली टिप्पणी है, फिल्म में पिरोए गए इतने असामान्य तंतु हैं। हिगिन्स के हथाइयों (बातें और बातें) भरे उपन्यास ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) पर फिल्म बनी है। इसे उपन्यास अनुरूप 1974 का नहीं अपितु 2008 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से पहले का समय संदर्भ दिया गया है। एक ढहती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ चलते अपराधों को देखने का तरीका है। मृत्यु के हत्यामय और मोक्षमय स्वरूप को समझाने के जिए जॉनी कैश का गाया अपरिमेय गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड” डाला गया है। गुजरे जमाने के ऐसे सभी गीत आह्लादित करने वाले हैं। एंड्रयू और फिल्म के तत्वों पर बात करने से पहले कहानी की रूपरेखा जान लेते हैं।

अमेरिका की अर्थव्यवस्था भरभराकर गिर रही है। ये राष्ट्रपति बनने का ख्वाब देख रहे सेनेटर बराक ओबामा भी जानते हैं, अमेरिकन ड्रीम की मृगमरीचिका तले जी रहे देश के आम नागरिक भी जानते हैं, कानूनन मंजूर मगर बगैर नियमन चल रहे जुआघर और उसमें खेलने वाले जानते हैं, रईसों के महंगे डॉग-बिच को चुराने वाले नशेड़ी जानते हैं, छोटे-मोटे कारोबार तले अपराध में लीन बॉस लोग जानते हैं। नहीं जानते हैं तो बस पूंजीवादी राह पर निकले तीसरी दुनिया से दूसरी और पहली का हो जाने को अतिआतुर लोग, खैर, जैकी कोगन (ब्रेड पिट) एक हिटमैन है, एनफोर्सर है। सभ्रांतों की आपराधिक गंदगी जब एक हद से फैल जाए तो उसे समेटने-साफ करने आने वाला। बदमाशों के एक ताश के खेल को दो टुच्चे हथियार तान लूट लेते हैं। शक जुआघर चलाने वाले मार्की (रे लियोटा) पर भी है, जिसने पिछली बार ऐसी ही लूट खुद करवाई थी। सीधे तौर पर न कोई सबूत है, न कोई तरीका। अब विस्तृत परिपेक्ष्य में जिनका पैसा और गर्दन दाव पर है उन्हें बिखरे वाकये को समेटना और निपटाना है। ये काम करना है जैकी को। यही कहानी है।

मगर जैकी का व्यक्तित्व ही फिल्म को ‘कोगन्स ट्रेड’ की उपन्यास वाली छवि से बाहर निकालकर ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ नाम की मौलिक फिल्म बनाता है। ये फिल्म के कई दृश्यों में होने वाली मैराथन हथाइयों से समझ में आता है। कार में जैकी और उससे इस कार्रवाही के लिए लगातार मिल रहे ड्राइवर (रिचर्ड जेनकिंस) के बीच तमाम पहलू डिस्कस होते हैं। डाका डालने वाला कौन हो सकता है? क्या मार्की? क्या उससे पूछा जाए? कैसे? उसने नहीं किया होगा तो? जब ड्राइवर कहता है कि मार्की से उगलवाओ। इस उगलवाने में जो उसे पीटने-पीड़ा देने की प्रताड़ना है, उसे भांप जैकी अनमना होकर कुछ ऐसे बोलता है, “छोड़ो भी उस बेचारे को। उसे ठोकने से तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला। वह ऐसा कर नहीं सकता। उसने दूसरी बार नहीं किया होगा। और वैसे भी उसे ठोककर तुम्हारे सेठों को क्या मिलेगा”। यहां तक आते-आते हमें एक हिटमैन या हत्यारे का मानवीय (विडंबना) पहलू नजर आता है कि वह लोगों को पीड़ा देने से बचना चाहता है। अंत में जब ड्राइवर कहता है कि चलो उसे कुछ पीट दो, ज्यादा सीरियसली मत मारना। देखो, क्या पता वह कुछ कहे। तब जैकी मानता है।

ऐसी ही एक और वार्ता में जब जैकी को पता चल जाता है कि फ्रैंकी (स्कॉट मैकनायरी) और रसेल (बेन मेंडलसन) ने लूट की है तो वह जेनकिंस के किरदार को यह बताता है। दोनों में फिर मैराथन बातें होती हैं। यहां गप्पें इस बात पर होती हैं कि इन दोनों का नाम कैसे पता चला? रसेल ने दारू पीकर उगल दिया? कोई इतना मूर्ख कैसे हो सकता है! गधा, अपना मुंह भी बंद नहीं रख सकता! इनका क्या किया जाए? कैसे मारा जाए? इस दौरान जैकी की सोच में से फिल्म का शीर्षक निकलता है, ‘किलिंग देम सॉफ्टली’
 

 वह जो कहता है उसके भाव कुछ यूं निकलते हैं,
“मैं अपने सब्जेक्ट्स के ज्यादा करीब नहीं जाना चाहता हूं। कमऑन यार, वो पसीने से लथपथ हो जाते हैं, पैरों में पड़कर गिड़गिड़ाने लगते हैं। मैं ये नहीं कर सकता। मैं उन्हें सॉफ्टली मारता हूं। मैं पता नहीं लगने देना चाहता कि उनका मरना तय है”।

फिल्म में उनका संवाद ये होता है,
You ever kill anyone?
They get touchy-feely,
emotional,
a lot of fuss.
They either plead or beg.
They call for their mothers.
I like Killing them softly.

जैकी कोगन यहां एक विलक्षण किरदार बनता है। वह एक अपराधी है, हत्यारा है इसमें कोई संदेह नहीं। पर जब भी आप एक अमेरिकी गैंगस्टा, हिटमैन या अंडरवर्ल्ड की पृष्ठभूमि वाली फिल्म देखते हैं तो अजीब-अजीब सनकी हत्यारों और हत्याओं से मिलते हैं। तो खून, खूनी और वीभत्सता को आपको न्यूनतम पैमाना मानकर आगे बढ़ना होता है और फिल्म देखनी होती है। हम जैकी कोगन के बारे में बात करते हुए उस पैमाने पर ही खड़े हैं पर सहज हो सकते हैं। वह सच में ऐसा ही है। उसकी मार्की को पीटने या मारने की स्थिति को टालने की कोशिश कोई मजबूरी नहीं है, पर ये एक विडंबना भरा सरोकार, एक विडंबना भरी भलमनसाहत है। जैकी का ऐसा होना फिल्म के निर्देशक एंड्रयू से आता है, क्योंकि बाद में जब दो गुर्गे मार्की को घेरते हैं, उससे पूछताछ करते हैं, तो ऐसा करते हुए उन्हें ही बहुत कष्ट हो रहा होता है। दोनों एक तरह से गिड़गिड़ाकर, अनुनय करते हुए उससे कहते हैं कि मार्की ऐसा मत करो, हमें मजबूर मत करो, हमें बता दो। दोनों बैचेन और विह्अल हो रहे होते हैं। हालांकि बाद में उन्हें मार्की को धोना ही पड़ता है। पूरी फिल्म में परिदृश्य कुछ ऐसा है कि जो पेशेवर हत्यारे हैं वो हत्याओं को आखिर तक टालते हैं और जो हत्याएं करवाना चाहते हैं वो इस पर अड़े हुए हैं। जैसे इन दो गुर्गों का मार्की को पीटने से पहले-पहल बचना। जैकी का एक हत्या के लिए माइकी (जेम्स गैंडॉलफिनी) को बाहर से बुलवाना, ये जानते हुए कि ऐसा करने से पैसा बंटेगा जो वह खुद कर सकता है। माइकी भी शराब पीने और होटल के डबलबेड पर लड़कियों के साथ सलवटें डालने के बाद आखिरकार काम करने से मना कर देता है।

अभी की हिंदी फिल्मों के बड़े सितारों के साथ दिक्कत ये है कि उन्हें कद्दावर फिल्में नहीं मिल रही, न ही वे अपने बूते ऐसी छोटी मगर बहादुर परियोजनाओं से जुड़ पा रहे हैं। यश चोपड़ा की ‘जब तक है जान’ का प्रोमो देखते हुए ये शाहरुख खान की फिल्मों की निराशाजनक श्रंखला में लिया एक और गलत फैसला नजर आता है। ब्रेड पिट के साथ सही बात ये रही कि उन्होंने ‘चॉपर’ के बाद से ही एंड्रयू डॉमिनिक की प्रतिभा में भरोसा किया और उनकी दूसरी फिल्म ‘द असेसिनेशन ऑफ जेसी जेम्स बाय द कावर्ड रॉबर्ट फोर्ड’ से जुड़े। उस फिल्म के बाद व्यावसायिक लालसाओं वाले किसी सितारे ने एंड्रयू के साथ काम नहीं किया, पर ब्रेड से संभवतः ‘जेसी जेम्स...’ की महत्ता को समझा। इस फिल्म से जुड़ने के उनके फैसले ने उन्हें ‘किलिंग देम...’ जैसा सार्थक नतीजा दिया। अपनी सीमित अदाकारी के साथ भी वह इस साल की महत्वपूर्ण फिल्मों में से एक दे पाए, सिर्फ अपने सही चयन की वजह से।

ठीक ऐसा ही इस फिल्म और एंड्रयू से साथ है। अगर इस फिल्म के साथ ब्रेड पिट का नाम न जुड़ा होता तो लोगों तक इसे पहुचाना या फिर जैकी कोगन के किरदार और उसकी कहानी में लोगों को एंगेज कर पाना तकरीबन नामुमकिन होता। शुरू से ही हमें पता होता है कि ब्रेड फिल्म में जल्द ही दिखेंगे, तभी हम इंतजार करते हुए फ्रैंकी के रोल में स्कॉट मैकनायरी के नए चेहरे को भी पर्याप्त सम्मान और अपना वक्त देते हैं। ऑस्ट्रेलियन एक्सेंट वाले बेन मेंडलसन बेहतर नक्काश अभिनेता है, अतिउत्तम, पर वो भाव कि फिल्म में ब्रेड भी नजर आएंगे, हमें उनकी इज्जत करने की वजह देता है। ये स्टार्स की शख्सियत तो होती ही है पर उससे भी ज्यादा होता है उनके चेहरे और फिल्मों से हमारा परिचित होना। हमें पता है कि महज स्टार ही नहीं ब्रेड ‘ट्रॉय’, ‘लैजेंड्स ऑफ द फॉल’, ‘मनीबॉल’ और ‘फाइट क्लब’ जैसा भरोसे वाला काम दे चुके हैं।

‘किलिंग देम सॉफ्टली’ में किरदार बहुत कम हैं, बंदूक की गोलियां बहुत कम है पर बातें बहुत ज्यादा हैं। किरदार बस बातें ही करते रहते हैं। ऐसी-ऐसी बातें जो हम करते तो हैं पर फिल्मों की पटकथाओं के बाहर ही छोड़ दी जाती हैं या फिर वीडियो संपादक उन्हें बेकार समझकर काट देता है, जबकि वो ही लंबी बातें फिल्म को अनूठा एहसास देती हैं। जैसे जैकी होटल में माइकी के पास गया है उसे कहने कि हत्या कहां और कब करनी है। और माइकी नवयुवतियों के साथ देहसुख भोगने में वक्त काट रहा होता है। बातें चलती हैं, चलती हैं, चलती हैं।

विषय क्या है, ये माइकी के डायलॉग में टटोलिए जिसमें वह युवतियों के जिस्म की बात कर रहा है,
you know,
I’ve seen all the a**** in the world
and let me tell you this,
there is no a** in the whole world
like a Jewish girl
who’s hooking.

आखिर में जब जैकी और ड्राइवर खड़े होते हैं तब बाहर अमेरिका में पटाखे फूट रहे होते हैं और टीवी पर ओबामा का भाषण चल रहा होता है। वह अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति और स्वतंत्रता का घोषणापत्र लिखने वाले थॉमस जेफरसन के मशहूर कथन, ‘सभी इंसान भगवान ने एक बराबर बनाए हैं’, को दोहराते हुए अमेरिका के लोकतंत्र की बात कर रहे होते हैं।

सुनकर जैकी ड्राइवर से कहता है,
When this guy says we’re equals,
he makes me laugh.
We are not a community,
In here we are on our own.
America is not a country,
it is a business.

एक हत्यारे के मुंह से अपने देश की ये की गई कुछ ऐसी विचारधारापरक आलोचना है जो दूसरे मुल्क के लोग भी नहीं कर पाते। फिल्म में किरदारों के अपरंपार संवादों और एंड्रयू के इसे सही संदर्भ प्रदान करने के बीज हमें ‘कोगन्स ट्रेड’ (Cogan’s Trade) तक ले जाते हैं। जॉर्ज वी. हिगिन्स (George V. Higgins) ने इसे 1974 में लिखा था। बोस्टन में 20 साल सरकारी वकील रहे हिगिन्स ने जिदंगी में जो 25 उपन्यास लिखे उनकी यही कहकर आलोचना की जाती रही कि उनमें तो बस बातें करते लोग होते हैं। जबकि उनकी कहानियों की जान ही जिंदगी की हर बारीक बात की जुगाली करते किरदार होते हैं। असल जिदंगी में भी तो हम यह करते हैं न। जिन्हें ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ पसंद आए वह हिगिन्स के ही उपन्यास पर 1973 में बनी फिल्म ‘द फ्रेंड्स ऑफ ऐडी कॉयल’ देख सकते हैं। शायद इसी फिल्म की मौलिक फीलिंग एंड्रयू को पसंद आई होगी कि उन्होंने कोगन्स ट्रेड को फिल्म के लिए चुना।

एंड्रयू की फिल्म सिनेमैटिकली खूब अच्छी है। जिन्हें सिनेमाई भाषा की रंग-तरंग वाली खूबसूरती लुभाती है उनके लिए फिल्म का ओपनिंग शॉट सुखद होगा। इसे देखने का एहसास कुछ ऐसा है जैसे जमीन कटे, सूने, रेगिस्तान में तेज हवा चल रही है, सब कुछ लुटा-लुटा सा है और वहां कोई धूसर रंग का छोटा अजगर अपनी पूंछ हिला रहा हो। काली स्क्रीन पर 2008 में बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक कन्वेंशन में दी गई स्पीच सुनाई देती है। वायदों भरी। फिर आवाज टूटती है और फ्रैंकी (मैकनायरी) चलता हुआ नजर आता है। ये न्यू ओरलींस है, हरीकेन से तबाह सा। एक-आध घर नजर आते हैं बाकी मैदान बचे हैं, घर उड़ गए हैं। सड़कें खाली हैं, हवाएं चल रही हैं, कचरा उड़ रहा है। न जाने क्यों यहां मन उचाट सा हो जाता है। अमेरिका! ये अमेरिका है? पहले तो कभी अमेरिका यूं न देखा! कम से कम वेस्टर्न मीडिया ने तो नहीं दिखाया। जब भी देखा फिल्म का पहला शॉट न्यू यॉर्क की लंबी गगनचुंबी चमकदार ईमारतों का एरियल शॉट ही देखा है, जो बाद में करण जौहर एंड कंपनी और साउथ की फिल्मों के वेस्ट प्रेमी नए फिल्मकारों की फिल्मों में गर्व से दिखने लगा। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ का ये शुरुआती सीन अलग ही अमेरिका दिखाता है। जैसा वृहद तौर पर बेन जेथलिन की ‘बीस्ट ऑफ द सदर्न वाइल्ड’ में दिखता है। इस पहले सीन का विस्तार ही है वो पूरी की पूरी शानदार फिल्म। जरूर देखें। खैर, लौटते हैं। फ्रैंकी सड़क पर कदम बढ़ाता हुआ आगे टनल के सामने बने फुटपाथ की ओर बढ़ता है। इस दौरान सीन कट-कटकर ओबामा की स्पीच पर लौटता है, फिर, फिर से फ्रैंकी के कदमों की ओर। अंग्रेजी में जिसे कहते हैं, विसरल फीलिंग.. वो होती है इसे देखते हुए।


यहां तक अनुभूति बन जाती है कि हिटमैन फिल्मों की कोई क्लीशे अनुभूति यहां नहीं होगी। ये कैमरा एंगल, धीमी गति और लंबे शॉट विश्व सिनेमा की सिनेमाई व्याकरण को भीतर समाए होते हैं। मुख्यधारा की फिल्म के लिए ऐसा करना उत्साहित करने वाला होता है। उन दो गुर्गों को मार्की को पीटने वाला दृश्य देखिए। प्रभावशाली। मैं सीन में हिंसा की नहीं उसे फिल्माने के तरीके की बात कर रहा हूं। मार्की के मुंह पर मुक्के मारे जाते हैं और खून कब आता है, कितना आता है, रे लियोटा कैसे हमेशा की तरह बहुत अच्छे से निर्वाह कर जाते हैं, ये सब नयापन और यथार्थता हुए होता है। बाद में कार में जा रहे मार्की को गोलियां मारने वाला बेहद ही धीमी गति का दृश्य। एक तरह से फिल्म की सुर्खियों में से एक। अनूठा। जैकी कोगन जब जॉनी (विंसेंट क्यूरेटोला) को दूर से शूट करता है तो वह एक गोली भी करीने से मारी गई होती है।

ऐसा एक संदर्भ हैः कैथरीन बिगलो की ‘द हर्ट लॉकर’ में विलियम (जैरेमी रेनर) और उसके साथी फौजी का अरब रेगिस्तान में कुछ किलोमीटर दूर से बंकर में छिपे दुश्मन स्नाइपर को शूट करना।

फिल्म की जो समग्र फिलॉसफी है उसमें चुने गए गाने बहुत विविधता और सार्थकता लेकर आते हैं। सभी बीते दौर के बैंड्स और प्राइवेट एल्बम के क्लासिक हैं। ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ ही एक ऐसी मूवी है जिसमें इन सबको साथ इस्तेमाल किया जा सके। ‘द वेलवेट अंडरग्राउंड’ का विवादों में रहा पर बहुत बरता गया गाना ‘हेरोइन’, बहुत कुछ कहता है पर देखते हुए हम इसे न चाहें तो भी हाथ की नसों में नशे का इंजेक्शन घोंप रहे रसेल के किरदार से पहले जोड़ सकते हैं। उसी तरह लालच की वजह से मारे गए मार्की (फ्रैंकी और जॉनी भी) पर ‘क्लिफ एडवड्र्स’ का ट्रैक ‘इट्स ओनली अ पेपर मून’ (ये तो बस कागज का चांद है) जंचता है। गिरती अर्थव्यवस्था और पैसे के लिए तड़प रहे इस पूरे मुल्क के लिए ‘बैरेट स्ट्रॉन्ग’ का ‘मनी दैट आई वॉन्ट’ है। ‘कैटी लेस्टर’ का ‘लव लैटर्स’ और ‘पेटूला क्लार्क’ के ‘विंडमिल्स ऑफ योर माइंड’ फिल्म के जोड़ हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं।

इन सभी में मेरी पसंद है सिंगर जॉनी कैश का दिग्गी गाना “वैन द मैन कम्स अराउंड”। उल्लेखनीय। अद्भुत। कमाल कंपोजिशन। जॉनी कैश की आवाज की खराश और स्ट्रोक भरी खनक इसे एक फिल्मी सुपरसॉन्ग बनाती है, वहीं किंग जेम्स की बाइबल के रेवेलेशन का इस्तेमाल कुछ ऐसा है जो फिल्म की थीम ‘जीवन, माया, लालच और मृत्यु’ के रूपक का काम करता है।

देयर इज अ मैन गोइंग अराउंड टेकिंग नेम्स,
एंड ही डिसाइड्स हू टु फ्री एंड हु टु ब्लैम,
एव्रीबडी वोन्ट बी ट्रीटेड ऑल द सेम,
देयर विल बी अ गोल्डन लैडर रीचिंग डाउन,
वैन द मैन कम्स अराउंड...

क्या पंक्तियां है। बेमिसाल भय और दर्शन पैदा करने वाली।  आगे जॉनी कैश की जबान से इस पंक्ति का निकलना.. “द हेयर्स ऑन योर आर्म विल स्टैंड अप...” गाने को अंग्रेजी नहीं हिंदी में लिखा बना देता है। आखिर में मृत्यु की धार्मिक और काल्पनिक विवेचना...

एंड आई हर्ड अ वॉयस इन द मिस्ट ऑफ द फोर बीस्ट्स,
एंड आई लुक्ड एंड बिहोल्ड, अ पेल हॉर्सः
एंड हिज नेम दैट सैट ऑन हिम वॉज डेथ,
एंड हेल फॉलोव्ड विद हिम”

गाने के बोल अंग्रेजी में यूं है,  पढ़ें
And I heard, as it were, the noise of thunder,
One of the four beasts saying, Come and see
And I saw, and behold a white horse.

There's a man going around taking names
And he decides who to free and who to blame
Everybody won't be treated all the same
There will be a golden ladder reaching down
When the man comes around

The hairs on your arm will stand up
At the terror in each sip and in each sup
Will you partake of that last offered cup?
Or disappear into the potter's ground
When the man comes around?

Hear the trumpets, hear the pipers
One hundred million angels singing
Multitudes are marching to the big kettledrum
Voices calling and voices crying
Some are born and some are dying
It's Alpha and Omega's kingdom come

And the whirlwind is in the thorn tree
The virgins are all trimming their wicks
The whirlwind is in the thorn tree
It's hard for thee to kick against the pricks

'Til Armageddon, no shalam, no shalom
Then the father hen will call his chickens home
The wise man will bow down before the throne
And at his feet, they'll cast the golden crowns
When the man comes around

Whoever is unjust, let him be unjust still
Whoever is righteous, let him be righteous still
Whoever is filthy, let him be filthy still
Listen to the words long written down
When the man comes around

Hear the trumpet.... (Repeat)

In measured hundredweight and penny pound
When the man comes around

And I heard a voice in the midst of the four beasts,
And I looked and behold, a pale horse:
And his name that sat on him was Death, and Hell followed with him.

निर्देशक एंड्रयू डॉमिनिक और ब्रेड पिट की फिल्म ‘किलिंग देम सॉफ्टली’ अपराध और हत्या वाली फिल्मों में अपवाद है। इसमें शुरू, मध्य और अंत का औपचारिक हिसाब-किताब नहीं धारण किया जाता। सीधी-सपट है पर तमाम कंपोनेंट मिलकर असाधारण अनुभव सृजित करते हैं। इसमें एक बेन मेंडलसन, एक जेम्स गैंडॉलफिनी न करते हुए भी ऐसा अभिनय कर जाते हैं कि दूसरा होता तो न कर पाता। इसमें एक अभिनेता के तौर पर ब्रेड का साहस नजर आता है, कि वो लगातार ऐसे प्रोजेक्ट छू रहे हैं। इसमें एंड्रयू डॉमिनिक का बतौर फिल्मकार और बतौर ऑस्ट्रेलियाई, अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना का गहरा विचार है, जो फिल्म के पुर्जे-पुर्जे में चिपका होता है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था का गिराव जो कुछ नियमन न होने की वजह से है तो कुछ साजिशन। इन सबके बाद जरूरी तौर पर आती है एक फिल्मकार द्वारा अपने प्रतिभा से बनाई गई एक कृति, हिगिन्स के बाकी उपन्यासों और ‘कोगन्स ट्रेड’ की तरह वक्त के साथ जो कभी पुरानी नहीं पड़ेगी, सदा सिनेमाई और विचाराधारापरक संदर्भ प्रदान करती रहेगी।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Monday, October 1, 2012

हमारे यहां रंग शंकरा में कोका कोला या पेप्सी का एक बोर्ड भी नहीं दिखेगा आपको: अरुंधति नाग

मुलाकात अरुंधति नाग से, अनुभवी थियेटर एक्ट्रेस जिन्हें 'दिल से' और 'पा' में देखा होगा
'40 साल बाद आज भी किसी प्ले के पहले पेट में तितलियां उड़ती हैं' Photo Courtsey: Jaswinder Singh



अरुंधति नाग की जिंदगी का पहला उत्कृष्ट बिंदु रहा रहा निर्देशक आर. बाल्की की फिल्म 'पा' के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पाना। दूसरा, बेंगलुरु में अपने मरहूम पति शंकर नाग के सपने को पूरा करना। 'रंग शंकरा थियेटर' की स्थापना जिसका आज बेंगलुरु के सांस्कृतिक नक्शे में बड़ा महत्व है। कन्नड़ फिल्मों के अभिनेता, डायरेक्टर और थियेटर हस्ती शंकर ने 1987 में अमर टीवी सीरीज 'मालगुड़ी डेज' का निर्देशन किया था। 1990 में उनकी रोड़ एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, जिसमें अरुंधति और उनकी बेटी भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नौ महीने व्हीलचेयर पर रहने के बाद सच्चे दोस्तों की फौज और थियेटर के मोह ने अरुंधति को फिर पैरों पर ला खड़ा किया। तब से उन्होंने खुद की जिंदगी को रंगमंच के नाम कर दिया। नतीजा है रंगमंच में उनकी कद्दावर शख्सियत। नतीजा है जिंदगी के हर सवाल के प्रति उनका सकारात्मक रवैया। जितने सवाल पूछे जाएं, वह बेहद शांति, सहजता, विनम्रता और खुशी से जवाब देती हैं।

आमतौर पर ऐसा नहीं होता कि कोई साक्षात्कार के दौरान इतना समझदार बना रहे। कोई साक्षात्कार ले रहा है तो व्यक्ति को लगता कि वह बेहद विशेष है, उसकी राय ली जा रही है, उससे कुछ पूछा जा रहा है। ऐसे में वह तान-तानकर शब्दों के गुच्छे छोडऩे शुरू करता। अरुंधति ऐसा नहीं करतीं। क्यों? वह इतनी सकारात्मक और सामान्य क्यों हैं? प्रत्युत्तर में वह बोलती हैं, "जिंदा हूं। ...थियेटर कर रही हूं, ...यहां बैठी हूं ...इसलिए। ...खुश हूं"। इसके बाद कुछ पल तक उनका ये जवाब गूंजता रहता है और विश्लेषित होता रहता है। उनकी बातों में बार-बार थियेटर का जिक्र आता है। शांत वार्ता के बीच वह कहीं-कहीं थोड़े से हास्य को भी छोड़ देती हैं। मसलन, उनके कई भाषाएं बोल पाने का गुण। वह कहती हैं, "हर इंडियन दो से तीन भाषा तो बोल ही लेता है, मेरा ये है कि मैं बस छह बोलती हूं"।

बतौर अदाकारा 1979 में आई अरुंधति की पहली फिल्म मराठी में थी। नाम था '22 जून 1897'। इस वक्त अरुंधति नाग का नाम अरुंधत्ति राव था। फिल्म जून 1897 में पुणे में घटी उन घटनाओं और परिस्थितियों के बारे में थी जिनकी वजह से ब्रिटिश सरकार के दो अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है। फिर अरुंधति ने कन्नड़, तमिल और हिंदी में फिल्में की। इस साल उनकी मलयालम फिल्म 'दा थडिया' आने वाली है। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) के साथ उन्होंने मराठी और गुजराती में प्ले तो किए ही थे। ज्योति व्यास की टीवी सीरिज 'हाजी आवती काल चे' में भी उन्होंने गुजराती में अभिनय किया। इतने वृहद काम और इतनी सारी भाषाओं में उसे करने का श्रेय वह क्रॉस मैरिजेस को देती हैं। उनकी मां की पृष्ठभूमि, पिता का परिवार, दिल्ली में रहने के दिन, फिर मुंबई में फैमिली का आ बसना, बाद में कन्नड़ मूल के शंकर से शादी होना और ससुराल में अलग भाषाई माहौल का होना। सांस्कृतिक और भाषाई अनुभव में इन हालात से भी ज्यादा योगदान वह थियेटर का मानती हैं। अरुंधति कहती हैं, "थियेटर सबसे बड़ा कार्यवाहक रहा इस दौरान। जैसे, मेरी कन्नड़ शब्दावली उन 20 प्ले तक ही सीमित है जो मैंने किए हैं। मैं जिस-जिस भाषा में प्ले करती गई, उसमें थोड़ा-थोड़ा सीखती गई। इस साल मलयालम फिल्म की है। आगे अगर चाइनीज रोल करूंगी तो उस भाषा को भी सीमित तौर पर ही सही लेकिन सीखूंगी जरूर"।

हालांकि उनका अभिनय अनुभव 40 साल का है, पर हिंदी दर्शक अरुंधति को सिर्फ दो फिल्मों से पहचानते हैं। पहली मणिरत्नम की 1998 में आई फिल्म 'दिल से' और दूसरी आर. बाल्की की 'पा'। 'दिल से' में वह ऑल इंडिया रेडियो की हैड और एआईआर में ही काम करने वाले अमर वर्मा (शाहरुख) की बॉस बनी थीं, 'पा' में ऑरो (अमिताभ) की 'बम' नानी। चूंकि अमिताभ-शाहरुख भी शुरुआती पृष्ठभूमि में थियेटर से जुड़े रहे तो अनुमान लगता है कि उन फिल्मों के सेट्स पर थियेटर जरूर डिस्कस होता रहा होगा। मगर अरुंधति कहती हैं कि ऐसा नहीं था। वह बताती हैं, "वह दोनों बहुत बिजी इंसान थे। ज्यादातर वक्त तो शॉट्स के बीच अपनी एड फिल्म्स और आने वाली फिल्मों पर बात करते थे या फिर अपनी वैनिटी वैन में चले जाते थे। इसलिए थियेटर पर ऐसी कोई बातचीत तो उनके साथ नहीं हो पाती थी। किसी भी विषय पर नहीं हो पाती थी। पर हां, चूंकि मैं रंगमंच की पृष्ठभूमि से थी इसलिए दोनों मेरी बहुत इज्जत करते थे"।

बातों के आखिर से पहले वह कुछ जीवन ज्ञान भी दे चुकी होती हैं। कहती हैं कि अगर कोई सीखना चाहता है या अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होना चाहता है तो उसे हर छोटे से छोटा काम ईमानदारी से करना चाहिए। अगर मैं झाड़ू भी निकाल रही हूं तो बहुत अच्छे से निकालूं, अगर टॉयलेट भी साफ कर रही हूं तो बहुत मन लगाकर करूं। जब उनसे पूछा जाता है कि थियेटर में संतुष्टि भले ही हो पर पैसा नहीं है तो वज्र-स्पष्टता से कहती हैं, "सफलता का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं है"। आज के वक्त की भौचक भूल-भुलैया में जिन नैतिक शिक्षाओं को थामे रहना असंभव सा हो चुका है वहां उनका ये कहना कि पैमाना पैसा नहीं है, समाज के लिए बेहद फायदेमंद सूत्रवाक्य बनता है। अफसोस है कि सिनेमा या थियेटर के माध्यम से जो ज्यादातर लोग आज जनता के बीच विशाल छवि बन चुके हैं उनके मुंह से ऐसा कुछ नहीं निकलता। उल्टे वह गलत आर्थिक रास्ते पर लोगों को ले जाते हैं, क्योंकि उन्हें विज्ञापनों और कैसी भी फिल्मों से पैसे कमाने हैं। खैर, अरुंधति नाग तेज धारा के विपरीत खड़ी हैं, वह प्रेरणा हैं। ये भी कह जाती हैं कि एक्सीलेंस ढेर में नहीं आती। थोड़ा कीजिए पर अच्छा काम कीजिए।

Arundhati was to perform Girish Karnad Directed play 'Bikhre Bimb'

एक शब्द, एक सोच
गिरीष कर्नाड: उनमें एक अलौकिक सी बात है कि वह किरदारों के दिमाग में घुस जाते हैं। वह औरतों के दर्द और चीख को अपनी रचनाओं में अच्छे से उभारते हैं।

सिनेमा: बड़ा चुनौतीभरा माध्यम है। पर कोई फिल्म एक्टर भी थियेटर में आएगा तो उसे मुश्किलें हो सकती हैं। चाहे इतनी लंबी स्क्रिप्ट याद रखना हो या डेढ़ घंटे खड़े रहकर परफॉर्म करना।

बिखरे बिंब: बिखरे बिंब जैसे प्ले का एक शो तीन महीने में एकबार भी हो तो बहुत। मेरी जिंदगी में मर्सिडीज नहीं है या गले में हीरों का हार नहीं है तो क्या हुआ। मुझे बस ज्यादा से ज्यादा थियेटर करना है।

कोका कोला: बेंगलुरु में हमारे थियेटर रंग शंकरा में कोका कोला और पेप्सी जैसे ब्रैंड्स का एक भी बोर्ड आपको नहीं दिखेगा। हम इसे स्वीकार नहीं करते। लाइफ इनके बिना ज्यादा बेहतर है।

रुचियां: म्यूजिक सुनना मुझे बहुत पसंद है। कर्नाटकन-हिंदुस्तानी क्लासिकल दोनों सुनती हूं। सुबह उठते ही मेरे घर में रोज म्यूजिक बजना शुरू हो जाता है। इसके अलावा खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है। बुक्स भी पढ़ती हूं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

अकेली जिंदगी में अपने होते नए अणुः 'ऑफ द ब्लैक' 06

Nick and Trevor in a still shot from the movie.
रे कुक एक हाई स्कूल बेसबॉल अंपायर है। चिड़चिड़ा है, कड़वा है, शराबी है, अकेला है। बीवी और बेटा सालों पहले उसे छोड़कर चले गए। बूढ़ा पिता है, पर अल्जाइमर्स रोग है और वो उसे पहचानता नहीं। अब रे (निक नोल्ट द्वारा निभाया गया) अपने घर और जिंदगी में अकेला है। चूंकि बेटा उसे देखना भी नहीं चाहता इसलिए वह समय-समय पर वीडियो टेप में संदेश रिकॉर्ड करके उसे भेजता है। इनमें वह खुद के बारे में बात करता है और बताने की कोशिश करता है कि वह खुश है। हालांकि उसकी ये डाक उसे वैसी की वैसी लौटा दी जाती है।

स्कूल में बेसबॉल का महत्वपूर्ण सीजन है। वह एक निर्णायक मैच में अंपायरिंग कर रहा है। यहां से फिल्म शुरू होती है। यहां उसके सवालिया निर्णय से फिल्म का दूसरा प्रमुख किरदार, डेव (ट्रेवर मॉर्गन) मैच हार जाता है। डेव का पिता फोटो खींचने और धोने का काम करता है। मां 2-3 साल पहले उसके पिता की असक्रियता और गैर-जिम्मेदारी भरे रवैये से उकताकर घर छोड़ जाती है। डेव और उसकी छोटी बहन (सोनिया फीगलसन) अपने पिता के साथ रहते हैं। मैच हारने के बाद डेव और उसके दोस्त रात में अंपायर के घर जाते हैं और उसकी कार के शीशे तोड़ते हैं, उसका घर गंदा करते हैं। अंपायर उसे पकड़ लेता है। यहां से इन दोनों के बीच अनोखे संबंध की कहानी आगे बढ़ती है। छिटकी हुई पृष्ठभूमि वाले ये दोनों बैठते हैं। तय होता है कि लड़का, रे के साथ उसका बेटा बनकर उसकी 40वीं हाई स्कूल रीयूनियन पार्टी में जाएगा और उसके बाद डेव को कार का नुकसान नहीं भरना होगा।

फिल्म चलती है। इस रीयूनियन पार्टी में और अंपायर के पिता से अस्पताल में मिलकर, डेव अलग अनुभवों से गुजरता है। इसके बाद दोनों रात में अपना जीवन बांटते हैं। लड़के को पिता का प्यार चाहिए तो अंपायर को बेटे का। बातों का अंत होता है। अंपायर लड़के को मुक्त कर देता है। मगर लड़का उससे मिलते रहना चाहता है। मगर अंपायर उसे जाने को कहता है। बाद में अंपायर को अपनी गलती का एहसास होता है। खैर, अगली सुबह लड़के को अंपायर के घर में उसकी लाश मिलती है। उसका अकेलापन उसे लील जाता है। डेव घर लौटता है। अपनी जिंदगी में भावों के गतिरोध के दूर करने का फैसला करता है। अपने पिता को स्थिति देता है कि या तो वह खुद को बदल ले या वह बहन के साथ घर छोड़कर चला जाएगा। पर पिता बेकार जवाब देता है। अप्रभावित सा...। और दोनों चले जाते हैं।

फिल्म में कोई ठोस कहानी, संवाद और नाटकीयता नहीं है, यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। फिल्ममेकिंग, जो एक चलते चित्रों का माध्यम भर है, यहां अनूठी हो जाती है। डेव की बहन के किरदार में सोनिया फीगलसन बेहद चार्मिंग हैं, लुभाने वाली हैं। उनके मृतप्राय भावों वाले पिता के रोल में टिमोथी हटन हैं। उम्दा। अंपायर रे बने निक नोल्टे एक खास किस्म के अभिनय के लिए जाने जाते हैं, यहां भी वो उस अदाकारी को ही निभाते दिखते हैं। शांत, गहन और सीधी। मुख्यधारा की फिल्में जहां ऊपर-ऊपर से नौटंकी बघेरने वाले किरदारों और भावों को फैलाकर निकल जाती हैं, वहीं पर ‘ऑफ द ब्लैक’ जैसी फिल्में बाद में फर्ज निभाने आती हैं। जो नकली नहीं हैं, जो इंसानी भावों और रिश्तों के भीतर घुसती हैं। बहुसंख्यक भावों में नहीं व्यक्तिगत भावों में घुसती हैं। बतौर निर्देशक जेम्स पॉन्सोल्ड की ये पहली फिल्म रही। उसके बाद भी उन्होंने धड़ाधड़ फिल्में बनाने पर ध्यान नहीं दिया। इसी साल उनकी दूसरी फिल्म ‘स्मेश्ड’ आई।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Friday, September 21, 2012

आर्थिक नस्लभेद पर आज चाहिए कई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’

अ ड्राई वाइट सीजन (1989) निर्देशकः यूजैन पाल्सी कास्टः डोनल्ड सदरलैंड, मर्लन ब्रैंडो, जेक्स मोकाइ, जैनेट सूजमैन, जुरजेन प्रॉचनाओ, सुजैना हार्कर, सूजन सैरेनडन दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार आंद्रे फिलिपस ब्रिंक के 1979 में लिखे नॉवेल ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ पर आधारित
Characters of Gordon Ngubene and his son, Ben (Right) and his son Johan.

दक्षिण अफ्रीका में अपार्थाइड या नस्लभेद के दौरान की अच्छी गाथा। स्कूल में सम्मानित टीचर, साउथ अफ्रीका में रहने वाले और अफ्रीका को रहने लायक बनाने वाला होने का दावा करते समाज के ही गोरे सदस्य हैं बेन दु त्वा (डोनल्ड सदरलैंड)। समाज में नस्लभेद का खूनी दौर है। काले लोग उठाकर मारे जा रहे हैं, सीधा विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं तो कुचले जा रहे हैं।

बेन की बीवी और बेटी सब खिलाफ हैं कालों के। उसके अश्वेत माली के बेटे को पहले पीटा जाता है, फिर मार दिया जाता है, फिर माली को गिरफ्तार किया जाता है, उसे भी पैशाचिक पीड़ाएं देने के बाद मार दिया जाता है, बाद में कहा जाता है कि उसने आत्महत्या कर ली... तो इन सब से बेन का दिल बदल जाता है। उसे इस वक्त लगने लगता है कि ये वो अफ्रीका तो है ही नहीं जिसमें वह इतने साल से रहता है या उसे रहने लायक मानता है। अपने माली की मौत के जिम्मेदार पुलिसवालों के खिलाफ वह केस दायर करता। वह बड़े मानवाधिकारवादी वकील इयान मैकिंजी (मर्लन ब्रैंडो) के पास जाता है जो जानता है कि नस्लभेद की हकीकत क्या है और कचहरियों की हकीकत क्या है। खैर, वह बेन की तसल्ली के लिए केस लड़ता है। अपने रोल के प्रति मर्लन का रवैया अद्भुत है। एक औसत वकील के सारे पैमानों और सांचों के बिल्कुल उलट। ऐसा यूनीक वकील फिल्मों में बहुत कम हुआ है जो इतने खूनी और हत्यारे माहौल वाले तथ्यों की बात करते हुए बर्फ जितना शांत है। कुर्सी पर विपरीत दिशा में मुंह करके बैठे होने पर भी गवाह से वह कैसे बात करता है, कैसे जज को संबोधित करता है बिना उनकी ओर देखे, कैसे अपना शांतचित्त बनाकर रखता है। ये सब विशेष है। फिल्मों से सन्यास ले चुके ब्रैंडो फिल्म की सार्थकता देखकर ही ये रोल निभाने को लौटे थे।

Brando with director Palsy.
डोनल्ड सदरलैंड फिल्म को पूरा संभालते हैं। डायरेक्टर यूजैन पाल्सी खुद अश्वेत हैं और वह अपनी जिंदगी में सिर्फ ये एक ही फिल्म बनाने के लिए जानी जाती हैं, अगर मैं गलत नहीं हूं तो। उनका जन्म ही ये कहानी कहने के लिए हुआ था। डोनल्ड के किरदार बेन दु त्वा में हिंसा की भावना नहीं है, बस एक बार वह पिस्टल तान देता है डर के मारे अपनी सुरक्षा के लिए, अन्यथा पूरी फिल्म में शांत रहता है। बीवी सूजन (जैनेट सुजमैन) के तानों के आगे भी, बेटी सुजेत (सुजैना हार्कर) के अपशब्दों के आगे भी, अपने गोरे समाज के रवैये के प्रति भी। हां, एक मौके पर वह अपने स्कूल के प्रिंसिपल को थप्पड़ जड़ देता है जब वह उसे और उसके बेटे को देशद्रोही कहता है। नस्लभेद पर बनी चंद खूबसूरत फिल्मों में से एक ये भी है। कहानी में इतनी संतुलित कि मिसाल। नस्लभेद जैसे मुद्दों पर किस विषय को फिल्म में कैसे ढालना है, दो घंटे की स्क्रिप्ट मं कहां से क्या उठाना है, क्या साबित करना है, वगैरह सब कवर होता है। ज्यादा ध्यान कहानी कहने पर रहता है और उसी साधारणता की वजह से फिल्म पचने लायक बनती है।

बेन का बेटा जोहान (रोवेन एल्म्स) भी आकर्षक लगता है। छोटा है पर अपने पिता पर उसे गर्व है। साम्यवाद, श्वेत, अश्वेत की डिबेट में वह समझता है कि सही क्या है। जैसे उसका पिता बार-बार उन लोगों को ये कहता है कि मैं सच के साथ हूं, जो भी उसे पूछते हैं कि तुम हमारे साथ हो कि उनके। वैसे ही बेटा समझता है कि उसके पिता कुछ बहुत अच्छा कर रहे हैं, जिसमें उसकी मां और बहन तक पिता का साथ नहीं दे रहीं। उसे सही का पता इतने में ही चल जाता है कि फिल्म के शुरुआती चार मिनट के क्रेडिट्स वाले सीन में वह जिस अश्वेत लड़के के साथ खेल रहा होता है वो मारा जाता है और अंत तक केस का आधार वही रहता है। फिल्म का सूत्रवाक्य ही जैसे ये है। कि अगर बेन फिल्म के आखिर में मारा भी जाए तो अपने बेटे में उसने पर्याप्त संस्कार डालें हैं कि वह उनकी विरासत को कायम रखेगा और अश्वेत भाइयों की ओर से लड़ना जारी रखेगा। ये जाहिर भी इस बात से हो जाता है जब बेन अपनी बेटी की चालाकी को समझकर उसे नकली कागज देकर भेजता है सहेजने के लिए और जब वह उन्हें लेकर सीधे पुलिसवाले के पास पहुंच जाती है, तब डोनल्ड का बेटा अपनी साइकिल पर असली डॉक्युमेंट अखबार के दफ्तर में पहुंचा रहा होता है। वह नस्लभेद के खिलाफ इस बड़ी लड़ाई और शानदार योगदान में बड़ा भागीदार होता है, इतनी कम उम्र में।

A French Poster of the movie.
ये फिल्म जरूर देखें। आज भी समाज कुछ वैसा ही है, जहां अगर कोई कुछ कड़वी सच्ची बड़ी बात बोलना चाहता है तो उसे बोलने नहीं दिया जाता। सब साथ मिल चुके हैं। कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि हकीकत सामने आ भी पाएगी। आप नहीं ला सकते। अरविंद रो-रोकर मर जाएंगे, हजारे आंदोलन में जान दे देंगे तो भी राजनेताओं और कॉरपोरेट्स की भ्रष्ट नीतियां कभी लोगों के सामने नहीं आ पाएंगी। संभवत, अगले 100 साल हमारा खून जब चूस लिया जाएगा तब कहीं कोई जूलियन पैदा होगा और वो कहीं से कागज निकाल-निकालकर सबकी करनी उघाड़ेगा और दुनिया सच जानेगी। ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ कुछ ऐसा सोशल रियलिस्ट ड्रामा है जैसी 1969 में आई कोस्टा गेवरास की राजनीतिक रहस्य रोमांच कथा ‘जेड’ थी, जिस पर दिबाकर ने हाल ही में ‘शंघाई’ बनाई। हो सकता है कोई ‘अ ड्राई वाइट सीजन’ से प्रेरणा लेकर हिंदुस्तानी समाज के भीतर विद्यमान भेदभाव कथा कहे तो लोग संदर्भ के लिए यूजैन पाल्सी की फिल्म पर लौटकर जाएं।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Sunday, September 16, 2012

जोकर बनाने की विडंबना और पागलपन की परिभाषा

शिरीष कुंदर की  फिल्म ‘जोकर’ पर कुछ लंबित शब्द

एक नई चीज, उदित नारायण ने बहुत दिन बाद गाना गाया है... “जुगनू बनके तू जगमगा जहां...” हालांकि ये उनके ‘बॉर्डर’, ‘लगान’ और ‘1942 अ लव स्टोरी’ के मधुर स्वरों से बहुत बिखरा और बहुत पीछे है। ऐसा गाना है जिसे सुनने का दिल न करे। बोल ऐसे हैं कि कोई मतलब प्रकट नहीं होता। लिखे हैं शिरीष कुंदर ने। निर्देशन, सह-निर्माण, संपादन, लेखन और बैकग्राउंड म्यूजिक (और भी न जाने क्या-क्या) सब उन्हीं ने किया है। या तो उन्हें दूसरे लोगों की काबिलियत पर यकीन नहीं है या फिर ऑटर बनने की रेस में वह फ्रांसुआ त्रफो और ज्यां लूक गोदार से काफी आगे निकल चुके हैं। खैर, नो हार्ड फीलिंग्स। उनके ट्वीट बड़े रोचक होते हैं। सामाजिक, सार्थक, हंसीले, तंजभरे, टेढ़े, स्पष्ट, बेबाक, ईमानदार और लापरवाह। लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं ‘जोकर’ की...

महीनों पहले आई न्यू यॉर्क टाइम्स की 2012 में प्रदर्शित होने वाली बहुप्रतीक्षित फिल्मों की सूची में एक हिंदी फिल्म भी थी। ‘जोकर’। बहुप्रतीक्षा थी कि जबरदस्त पटकथा वाली ये एक आश्चर्य में डाल देने वाली साई-फाई (साइंस फिक्शन) होगी। जब तक फिल्म का पहला पोस्टर बाहर न आया था, सभी को यही लग रहा था। मगर एक फिल्मी किसान वाले अच्छे से धोए-इस्त्री किए परिवेश में जब अक्षय कुमार पहली बार पोस्टर में नजर आए तो व्यक्तिगत तौर पर अंदाजा हो गया था कि ‘सॉरी वो इसे नहीं बचा सके’। हुआ वही, ‘मृत्यु’। इसे नहीं बचाया जा सका। क्यों नहीं बचाया जा सका? इस पर आगे बढ़ने से पहले शिरीष कुंदर की ‘जोकर’ की सबसे अच्छी तीन बातें:-

  • पागलों के गांव से अगस्त्य के अमेरिका तक पहुंचने का विचार कुछ वैसा ही है जैसे गांवों में अभावों या देश के किसी भी अविकसित इलाके से निकले हर पीढ़ी के युवा का पढ़ाई-लिखाई करके लायकी तक पहुंचने का होता है। ये सांकेतिक है। ऐसा सोचा जा सकता है। हो सकता है पटकथा लिखते हुए फिल्मकार ने ये बड़ी शिद्दत से सोचा है, हो सकता है उसने बिल्कुल भी नहीं सोचा है। पर फिल्म में ये (अपरिवक्वता से फिल्माई) अच्छी बात है।
  • अमेरिका से आए हैं तो कोई प्रोजेक्ट लगाने के लिए ही आए होंगे? पानी... अच्छा मिनरल वॉटर प्लांट? कोई भी एनआरआई भारत आता है और किसी सरकारी नुमाइंदे या राजनेता से मिलता है तो उनकी यही धारणा उसके बारे में होती है। मसलन, सुभाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फंस गए रे ओबामा’ में दिवालिया हो चुके रजत कपूर के किरदार का भारत आना और वहां उन्हें डॉलरपति समझकर अगुवा कर लिया जाना। ये धारणा और हकीकत (अपरिवक्वता से फिल्माई) दिखाई जानी अच्छी है।
  • जब पगलापुर में बिजली आने की घोषणा कर दी जाती है और वहां दूर-दूर से आए लोगों का मेला जुटना शुरू होता है तो एक गाना आता है। उसमें फ्रिज बेचने वाली दुकानों और बाजारवाद की आंशिक आलोचना की गई लगती है, जो सार्थक है।

...पर अंततः ये सब बिखरा है।

फिल्म शुरू होती है कैलिफोर्निया से। अगस्त्य (अक्षय कुमार) यहां एक वैज्ञानिक है। परधरती पर जीवन की खोज कर रहा है। एलियंस से संपर्क करने की मशीन बना रहा है। यहां राकेश रोशन और ‘कोई मिल गया’ की याद आती है, जब अगस्त्य कहता है, “या तो बाहर कोई दुनिया नहीं है, या मेरे पास वो मशीन नहीं है जिससे एलियंस से संपर्क हो सके”। खैर, हम नए संदर्भ तो पाल ही नहीं सकते। ले दे के दो-तीन तो हैं। बहरहाल, जो रिसर्च के लिए अगस्त्य को पैसा दे रहे हैं उन्हें नतीजे चाहिए। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए उसके पास एक महीना है। थका-हारा ये एनआरआई घर पहुंचता है। घर पर उसकी गर्लफ्रेंड-कम-वाइफ दीवा (सोनाक्षी सिन्हा) इंतजार कर रही होती है। इस खबर के साथ कि इंडिया से अगस्त्य के भाई का फोन आया था कि उसके पिता की तबीयत बहुत खराब है, फौरन चले आओ। दोनों भारत निकलते हैं। अलग-अलग परिवहन से पगलापुर पहुंचते हैं। जगह जो भारत के नक्शे पर नहीं है। कहा जाता है कि इसी वजह से यहां कोई भी आधारभूत ढांचा नहीं है। इसे पागलों का गांव बताया जाता है। यहां आते-आते मुझे आशंका होने लगती है कि पगलापुर नाम से शुरू की गई ये कॉमेडी उनके साले साहब साजिद खान की फिल्मों (हे बेबी, हाउसफुल, हाउसफुल-2) की कॉमेडी की दिशा में ही जा रही है। एनिमेटेड चैपलिन सी, गिरते-पड़ते किरदारों वाली, अजीब शाब्दिक मसखरी वाली और ऊल-जुलूल।

अगस्त्य और दीवा पैदल गांव में प्रवेश कर रहे हैं कि उन्हें छोटा भाई बब्बन (श्रेयस तलपडे) दिखता है। वह कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठा होता है, उसे ही काट रहा होता है। बाद में दिखता है कि वही नहीं बहुत से दूसरे गांव वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं और बाद में सभी डाल कटने पर नीचे गिर जाते हैं। ठीक है, ऐसा हो सकता है, हम हंस भी सकते हैं, पर फिर पूरे संवाद, घटनाक्रम, कहानी में उसी किस्म का सेंस बनना चाहिए। जो नहीं बनता। श्रेयस के किरदार की भाषा जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अवतार’ के नावी की तरह बनाने की कोशिश की गई है। पर श्रेयस बार-बार कुल तीन-चार शब्दों को ही बोल-बोलकर हंसाना चाहते हैं और ऐसा हो नहीं पता।

आगे बढ़ने पर खुले में बच्चों को पढ़ा रहे मास्टरजी (असरानी) दिखते हैं। वह बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे होते हैं। बच्चों को कहते हैं, “जोर से बोलो”, तो बच्चे बोलते हैं, “जय माता दी”, इस पर मास्टरजी कहते हैं “अरे पहाड़ा जोर से बोलो”। इतनी बार सार्वजनिक दायरे में इस चुटकुले को सुना-सुनाया जा चुका होगा पर फिल्म में इस्तेमाल कर लिया जाता है। असरानी का ये किरदार अंग्रेजी की टांग मरोड़कर बोलता है। जब वह कहते हैं “हेयर हेयर रिमेन्स”... तो उसका मतलब होता है ‘बाल-बाल बचे’। इसी पाठशाला से पढ़कर साइंटिस्ट बना है सत्तू (अगस्त्य का गांव का नाम)।

मास्टरजी के दो अंग्रेजी के जुमले भी पढ़ते चलें...
“हाइडिंग रोड़” (ये छुपा हुआ रास्ता है)
“डोन्ड फ्लाइ आवर जोक्स” (तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो)

हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी न बोल पाकर किरदारों ने बहुत से अंग्रेजों को हंसाया है। इनमें सबसे कामयाब मानें तो हाल में संजय मिश्रा के किरदार रहे हैं। वह ‘गोलमाल-3’ जैसी फिल्मों में जिस अंग्रेजी शब्द का इस्तेमाल करते हैं उसकी स्पेलिंग गलत बोलते हैं और लोग हंसते हैं। ऐसा उनका किरदार अनवरत एक समान करता है, कहीं भी बिना किसी भटकाव के। पर मास्टरजी तो एक टूटती कलम से लिखे गए किरदार हैं, ये शुरू के दो मौकों पर हंसा देते हैं तो पटकथाकार आगे फर्जीवाड़ा करके निकल जाता है।

पगलापुर के किरदारों के परिचय के मौके पर लोग हंसते हैं। मुझे लगता है, लोग पागल शब्द से जोड़कर देखते हैं हर घटना, किस्से और आदमी को। फिल्म के किरदारों की हरकतों पर लोग ज्यादा हंसते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनके दिमाग की परतों में सिनेमा के पागल किरदारों और उनपर हंसने की प्रवृत्ति हावी है। यहां जब कह दिया जाता है कि ये पगलापुर के लोग हैं और इनका खौफ इतना है कि एक बार एक अंग्रेज अधिकारी जो भारत के नक्शे पर गावों और कस्बों को दर्ज कर रहा होता है, उन्हें आता देख गांव के बाहर से ही अपनी गाड़ी मुड़वा लेता है। पर असल मायनों में ‘पागल’, ‘ग्रामीण’, ‘हंसोड़’ और ‘भोले’... इन चार शब्दों में शिरीष ने कोई फर्क नहीं किया है। कहीं पर जो ग्रामीण भर है वो पागल लगता है, कहीं पर जो पागल है वो महज ग्रामीण लगता है। कहीं वो बस भोले लगते हैं पागल नहीं, कहीं वो बस हंसा देना चाहते हैं कमतर नहीं होना चाहते। पर यहीं किरदारों-शब्दों का निरूपण न करने की बेपरवाह प्रवृत्ति नाखुश करती है और फिल्म को मृत्यु की ओर ले जाती है।

कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिता के पास पहुंचने पर अगस्त्य को पता चलता है कि वह तो बिल्कुल ठीक हैं (हालांकि यहां तक उन्हें पागल बताया जाता है)। जब नाराज होकर वह निकलने लगता है तो पिता (दर्शन जरीवाला) रोकते हैं और समझाते हैं कि इतने साल से उनका गांव नक्शे पर नहीं है, कोई सरकारी मदद और विकास उन तक नहीं पहुंचता, चूंकि तुम पढ़-लिखकर आगे बढ़े हो तो गांव के अपने भाइयों को भी इस दलदल से निकालो (दलदल, जिसे सभी काफी एंजॉय करते प्रतीत होते हैं)। ये सुनकर अगस्त्य रुक जाता है। यहां तक ‘सबकुछ ठीक है’, ‘अच्छा है’, ‘बहुत बुरा है’, ‘ऐसा क्यों’, ‘अरे यार’, ‘अरे शिरीष’, ‘धत्त’, ‘स्टूपिड’... ये विचार मन में चल रहे होते हैं। फिल्म खत्म होने तक सभी नैराश्य में तब्दील हो जाते हैं।

जानते हैं कुछ जिज्ञासाएं और बिंदुपरक बातें जो शिरीष की इस कोशिश को सम्मान नहीं दिला पातीं:-

  • यहां सब पागल हैं फिर भी इनकी बातों को सीरियसली लेकर अगस्त्य गांव क्यों चला आता है? और फिर बब्बन तो बोल भी नहीं सकता, फिर अगस्त्य का कौनसा भाई कैलिफोर्निया दीवा से फोन पर बात करता है? चलो बात किसी ने भी की हो, पर अगस्त्य को तो पता है न कि उसका भाई आम भाषा में बोल नहीं सकता। इतना सब न सोचने और गांव चले आने पर अक्षय के किरदार का नाराज होना।
  • एक तरफ हमें यकीन दिलाया जा रहा है कि ये पागलों का गांव है। इसका नाम तक किसी ने नहीं सुना और यहां कोई आता नहीं है। फिर अक्षय-सोनाक्षी के किरदार जिस दिन पहुंचते हैं, उस रात पगलापुर में शानदार आलीशान ग्लैमरस आइटम सॉन्ग का आयोजन किया जाता है। यहां बिजली नहीं है, पानी नहीं है, आधारभूत ढांचा नहीं है पर आइटम सॉन्ग के लिए दुरुस्त लड़कियां-सेट और रोशनी आ जाती है। यहां पढ़ने के लिए रोशनी नहीं है पर इस गाने के सेट को देखिए जो चित्रांगदा सिंह से ज्यादा दमक रहा होता है। कहते हैं यहां पढ़ाई ही नहीं है, पर गाने के लिरिक्स देखिए। पीछे खड़े सैंकड़ों डांसर देखिए। अगर ये गांव के ही हैं तो पागल क्यों नहीं? दिखने में तो बस ज्यादातर खूबसूरत लड़कियां हैं या फिर गे या वृहन्नला।
  • यहां सब घर टूटे हैं, खंडहर से हैं। पर अक्षय-सोनाक्षी एकदम साफ-सुथरे हैं। उन्होंने गांव पहुंचने के बाद मुंह कहां धोया, नाश्ता क्या किया? रात तक पता नहीं चलता। (ये सब वो चीजें हैं जो फिल्म के सेट पर चीजों के मैनेज करते डायरेक्टर की टेंशन में नहीं आती कि छूट जाएं। ये वो चीजें हैं जो पटकथा लिखने की टेबल पर ही लिखी जाती हैं। अगर आप सैंकड़ों घंटे एक एनिमेटेड एलियन बनाने में लगा सकते हैं तो इन मूल चीजों को दुरुस्त करने में क्यों नहीं?)
  • श्रेयस और विंदू के कपड़े और अभिनय। इनका क्लीन शेव्ड चेहरा, सामान्य रूप से कटे बाल, न जाने किस काल के किसानी कपड़े और जिंदगी के पहले स्कूल प्ले सी एक्टिंग क्या नाव में बड़े-बड़े छेद नहीं हैं?
  • प्रिंस के कुएं में गिरने की बात को इतने साल बाद फिल्म में संदर्भ के तौर पर लिया जाना। क्या उसके बाद कोई बच्चा कुएं में नहीं गिरा? उसे क्यों नहीं लिया जा सकता था?
  • जहां बिजली नहीं है वहां टीवी या मल्टीप्लेक्स के होने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऐसे में एक दृश्य में बब्बन बने श्रेयस 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लगान’ के गीत “घनन घनन घन घिर आए बदरा” को अपनी एलियन सी भाषा में गुनगुना रहे होते हैं। ये कैसे?
  • ये अभावों से ग्रस्त इलाका है। बिजली नहीं है तो ट्यूबवेल होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। नहरी खेती के लिहाज से भी सरकारी फाइलों में पानी की बारी का यहां के खेतों में आ पाना संभव नहीं है। जब कोई विकल्प ही नहीं है तो क्या मान लें कि महज बरसाती खेती करके पगलापुर के लोगों ने आलीशान फसलें खड़ी कर रखी हैं? ऐसे लोगों ने जो कथित तौर पर पागल हैं। जिन्हें अपने घर पर सफेदी करने तक का शऊर नहीं है।
  • बिन बिजली अगस्त्य का एप्पल का लेपटॉप यहां कैसे चार्ज होता है?
  • लोकल नेता गांव के लिए बिजली की घोषणा भर करता है कि बस मेक्डी, लैपटॉप और कोका कोला जैसे ब्रैंड के जगमगाते होर्डिंग तुरंत लग जाते हैं (तुरंत कायापलट हो जाता है) कैसे? इतने बड़े ब्रैंड इतनी अंदरुनी जगह पर कैसे पहुंच जाते हैं? क्या इंतजार कर रहे होते हैं? (अगर इस तथ्य को सांकेतिक तौर पर लिया गया है तो भी फिल्म में यूं फिट नहीं होता) और फिर पगलापुर के सब लोग अजीब सी घड़ियां, गॉगल्स, जूते और कलरफुल जैकेट तो गांव में ब्रैंड्स के आने से पहले ही पहनने लग जाते हैं।
  • अमेरिकी साइंटिस्ट और अगस्त्य के प्रतिस्पर्धी साइमन को ढूंढने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी एफबीआई के हैलीकॉप्टर्स पगलापुर के आसमान में उड़ते नजर आते हैं। क्या पगलापुर भारतीय टैरेटरी में नहीं आता है? क्या ये अफगानिस्तान या क्यूबा की खाड़ी है कि अमेरिकी लोगो लगे हैलीकॉप्टर इस तरह खुले तौर पर कभी भी घुस आएं? भारतीय वायुसेना क्या ऐसे वक्त में सांप-सीढ़ी खेल रही होती है?
  • जमीन से तेल निकलता है तो क्या उससे कोई नहाता है? फिर यहां सब गांववाले क्यों नहाते हैं?

फिल्म में ऐसे कई और सवाल भी बनते हैं, पर इतनों से चित्र स्पष्ट होता है। ये कैसी विडंबना है कि शिरीष बड़े सपने देखते हैं और उनका पालन करते वक्त न जाने क्या गलतियां कर बैठते हैं कि ख्वाबों का एक-एक पंख टूटकर बिखर जाता है। वह कहीं बाजारवाद की सफल आलोचना कर पाते हैं तो कहीं पर विकास की अवधारणा को रत्तीभर भी नहीं समझ पाते। ‘जोकर’ के आखिर में वह दिखाते हैं कि पगलापुर की जमीन के नीचे बह रहा तेल फूट पड़ा है और अब विकास होगा। क्या तेल निकलना किसी जगह के लिए विकास का प्रतीक होता है? एक इंसान, विचारक और फिल्मकार के तौर पर वह क्या समाज और विकास के मॉडल की इतनी ही समझ रखते हैं? जितनी निराशाजनक ये डेढ़ घंटे की फिल्म है उतना ही ये असमझियां। इससे अच्छा तो तेल और खून से सनी डेनियल डे लुइस के अभिनय वाली ‘देयर विल बी ब्लड’ देखना है जो तेल के कुओं वाली जगहों और तेल से नहाए लोगों पर धारदार टिप्पणी करती है। और ‘जोकर’ हंसते-हंसते भी सामाजिक-आर्थिक विद्रूपताओं का कान नहीं मरोड़ पाती।
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गजेंद्र सिंह भाटी

Thursday, September 6, 2012

टाइगर हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर नहीं है, बस एक फिल्म है, जिसे देखनी थी देख ली, जिसे देखनी है देख लेगा

“In the dark world of intelligence and espionage, there are shadows without faces, and faces without names. Governments fight shadow battles through these soldiers of the unknown. Battles have no rules, No limits. Nobody on the outside knows what goes on in these secret organizations. All information is guarded in the name of National security. But, some stories escape the fiercely guarded classified files. Stories that become legends. This is a film about one such story, a story that is spoken about only in hushed whispers. A story that shook the very foundation of this dark world. But like all reports that come out of this uncertain world, nobody will ever confirm those events. It may or may not have happened. This story is about an agent named TIGER. It may now be told...”

गंभीर प्राक्कथन। पढ़ने के बाद हमारी भौंहे किसी रहस्य-रोमांच और बुद्धिमत्ता भरी कहानी को देखने के लिए खुद को तैयार करती हैं। उम्मीद करती हैं कि कोई ‘बोर्न आइडेंटिटी’ माफिक चतुर पटकथा रास्ते में जरूर आएगी। चूंकि ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी सहज फिल्म बनाने वाले (मिसाल में ‘न्यू यॉर्क’ को न जोड़ें) कबीर खान का निर्देशन है और कहानी को इंडिया के असली जासूस गंगानगर मूल के रविंद्र कौशिक (उनका छद्म नाम ‘ब्लैक टाइगर’ था) की जिंदगी पर आधारित बताया जाता रहा, तो यहां तक दर्शक को भी सहज रहने और फिल्म देखकर कुछ नया पाने की उम्मीद करने का पूरा अधिकार रहता है। मगर जब फिल्म के जासूसी किरदार टाइगर के साथ सलमान खान का नाम जुड़ता है तभी से ये प्राक्कथन और गंभीरता की उम्मीदें खत्म करनी पड़ती हैं। यहां से स्क्रिप्ट, निर्देशक और टाइगर का किरदार गौण हो जाता है और सलमान खान व उनके तथाकथित प्रशंसक मुख्य हो जाते हैं। तो फिल्म देखने के तमाम मानदंड यहां बदलते हैं।

‘वॉन्टेड’, ‘दबंग’, ‘रेडी’ और ‘बॉडीगार्ड’ के बाद ‘एक था टाइगर’ भी बंधे-बंधाए सूत्रों और अपेक्षाओं के साथ आती है। (बंधे-बंधाए सूत्र और अपेक्षाएः- कहानी शुरू होगी। हीरो, हीरोइन, विलेन, हीरो का मिशन और बाकी कुछ चीजें स्थापित होंगी। थोड़ी देर में केंद्र में हो जाएंगी हीरो-हीरोइन की नोक-झोंक, बार-बार मिलना, गाने गाना, डायलॉगबाजी और चुहलबाजी। फिर वफादार दर्शक सलमान भाई और उनकी प्रचलित अठखेलियों के आगोश में कहकहे लगाएगा। काफी देर बाद हीरो से विलेन मिलेगा। या फिर कहानी का मुख्य बिंदु, गाड़ी चल पड़ेगी और फिल्म आगे बढ़कर खत्म हो जाएगी।) और उन पैमानों पर ‘एक था टाइगर’ अव्वल आती है। कोई शिकायत नहीं रहती। पर काली कलम लेकर काले अक्षर उकेरे जाने हमेशा जरूरी रहे हैं। तो...

‘एक था टाइगर’ की सबसे चतुर चीज वो लगती है जब क्यूबा की धरती पर गाना गाते सलमान और कटरीना से ध्यान हटाकर कैमरा एक दीवार की तरफ केंद्रित होता है। इस दीवार पर वहां की भाषा में साम्यवादी क्रांतिकारी हीरो चे गुवेरा का एक कथन लिखा होता है, जिसका अर्थ होता है, “जिस मुहब्बत में दीवानगी नहीं, वो मुहब्बत ही नहीं”। सही कहूं तो इस उक्ति के चतुर इस्तेमाल के अलावा न तो मुहब्बत कहीं नजर आती है, न दीवानगी। नजर आता है तो बेहद चतुराई से फिल्माया गया (चतुर यूं कि इसे देखते हुए ज्यादातर वक्त ये लगता है कि इन स्टंट्स में सलमान खान ने बॉडी डबल का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि सारी विस्मयकारी उछल-कूद मोरक्को जैसी लगने वाली (उत्तरी इराक) किसी विदेशी धरती पर उन्होंने खुद की है) फिल्म का ओपनिंग एक्शन सीक्वेंस। सब्जी बाजार, छतों, खिड़कियों, सड़कों और भीड़ के बीच कारीगरी भरी एडिटिंग और छायांकन के अलावा अगर कोई इन एक्शन को ध्यान से देखेगा तो पाएगा कि सलमान की ही काठी का कोई नौजवान ये सीन कर रहा है। जहां कहीं सामने की ओर से भागते सलमान दिखते हैं, वहां कंप्यूटर ग्राफिक्स से किसी बॉडी डबल के चेहरे पर सलमान का मुखौटा लगाया होता है। जैसा बहुत बरस पहले एक कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन में सचिन और उनका मुखौटा लगाए बच्चे नजर आए थे। बहुत बारीकी से देखें तो आसानी से फर्क जान पाएंगे। जब बात स्टंट की हो रही है तो फिल्म में ट्रैन में लड़ने वाला सीक्वेंस पूरी तरह हवा-हवाई है, यानी ऐसा असंभव स्टंट जो काल्पनिक कहानी में भी संभव तरीके से नहीं फिल्माया लगता। वहीं सबसे आखिर में एक चार्टर्ड हवाई यान के समानांतर मोटरसाइकिल दौड़ाकर उछलना और यान को पकड़ना, बेहद प्रभावी दृश्य है। असंभव है, पर फिल्माने के तार्किक तरीके से संभव हो जाता है।
विदेशी मिशन पर जाने और हीरोइक करतब करने के अलावा टाइगर (सामाजिक जीवन में उसका नाम ये नहीं है) की दिल्ली की औसत कॉलोनी में रहने वाली लाइफ भी है। सुबह किसी आम आदमी की तरह ही, वह अपने दरवाजे पर पतीला पकड़े खड़ा होता है, पतीले में दूधवाला दूध गिरा रहा होता है। वहां बनियान पहने टाइगर के पहलवानी रूप और दर्शकों के सब-कॉन्शियस माइंड में पसरे सलमान खान के ऑरा का मिलन सा हो रहा होता हैं। यहां पर कुछ ग्लैमर टूटता है तो दर्शक इसे बदलाव के तौर पर लेते हैं कि देखो दिल्ली के रियलिस्टिक मोहल्ले में खड़ा है सलमान। जब फिल्म में बतौर डायरेक्टर कबीर खान और लेखक नीलेश मिश्रा जुड़े हों तो दिल्ली का वास्तविक रूप कुछ तौर पर शामिल करने की कोशिश तो दिखनी ही थी। ये और बात है कि वो वास्तविकता सही से नहीं आ पाई।

कहानी यहां से ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचती है। रॉ प्रमुख शेनॉय (गिरीष कर्नाड) टाइगर को एक नए मिशन पर यहां भेजता है। उसे यहां ट्रिनिटी में पढ़ा रहे एक छद्म प्रफेसर (रोशन सेठ) पर नजर रखनी है। पैंट, शर्ट, कोट और टाई पहने ये जेंटलमैन कैंपस में पहुंचते हैं। इस दौरान टाइगर को पेशाब की हाजत होती है, पर वक्त नहीं मिलता, प्रफेसर निकल जाते हैं। तो झाड़ियों में मुक्त होने गया टाइगर साइकिल ले फिर प्रफेसर के पीछे भागता है। यहां हल्के में निकलने से पहले ये तथ्य भी सही से सामने आता है कि एक असल जासूस की जिंदगी कितनी मुश्किल होती है। प्रफेसर के पीछे जाने पर उनके घर की शिनाख्त बाहर से टाइगर कर लेता है। यहां उसे मिलती है जोया (कटरीना कैफ) जो प्रफेसर के घर में आ-जा सकने वाले अकेली शख्स है। रात में टाइगर जोया के हॉस्टल पहुंच जाता है।

वह खिड़की से देखती है कि टाइगर सामने बेंच पर लेटा है तो उसके कमरे में आने को बोलती है जो एक मंजिल ऊपर होता है। जोया टाइगर को पाइप पर चढ़कर आने को बोलती है तो वह उसके देखते सामने नहीं चढ़ता। लगता है, अपनी रॉ एजेंट होने की पहचान गुप्त रखना चाहता है और एकदम से पाइप पकड़कर चढ़ गया तो जोया को शक होगा कि ये राइटर तो हो नहीं सकता। पर आगे ऐसा नहीं होता। वह चढ़ जाता है। धीरे-धीरे वह जोया के मोह में यूं पड़ता है कि अपनी लेखक होने की छवि गढ़ने पर ध्यान नहीं देता और प्यार में पड़ता जाता है। दोनों के बीच एक रिश्ता बनता जाता है। एक सीन में जब टाइगर जोया को किताब उपहार में देता है तो वह रोने लगती है। वह पूछता है, कि रो क्यों रही हो तो जोया कहती है कि किसी की याद आ गई। फिल्म में यही एक खास जगह होती है, जहां सलमान के भाव बेहद प्राकृतिक लगते हैं।

ऐसे कुछेक मौकों पर वह अपनी पारंपरिक छवि से जरा अलग होते हैं, पर बीच-बीच में पुराने टोटके आते जाते हैं। मसलन, कोई टाइगर को कुछ पूछता है तो वह सोचने लगता है। उसके सोचने के भीतर एक जासूस के काम की मुश्किलों को दर्शकों के सामने मजाकिया तरीके से परोसा जाता है। कभी सोचने में उसके पीछे कुत्ते दौड़ रहे होते हैं तो कभी चाइनीज, अंग्रेज, बुर्केवाली और दूसरे किस्म की अंगरक्षक खूबसूरत लड़कियां। फिल्म में कटरीना के आमसूत्र के विज्ञापन मुताबिक रस से भरे होठ सबसे प्रॉमिनेंट रहते हैं। बंजारा... गाने में उनके होठ पर कैमरा इतनी मादकता से केंद्रित होता है कि लगता है उनमें कोई बड़ा सा इंजेक्शन घौंपा गया है। फिल्म का ये सबसे बुरा वक्त होता है।

तकनीकी तौर पर कुछ गड़बड़ियां भी रहती हैं। भारत-पाक के नुमाइंदे जब इस्तांबुल में मिलते हैं तो वहां इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लोग दौड़कर भीतर आते हैं और तुरंत सवाल पूछने लगते हैं। असल में ऐसा कहीं नहीं होता। सुरक्षा कारणों से डेलेगेट्स और प्रेस के बीच एक कोड ऑफ कंडक्ट होता है। प्रेस को एक नियत जगह पर खड़ा होना या बैठना होता है। वो वहीं से खड़े होकर अनुशासन से सवाल पूछ सकते हैं। कॉन्फ्रेंस में लाल बॉर्डर वाली काली सलवार-कमीज पहने सिर पर चुन्नी डाले कटरीना पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी सी ज्यादा लगती हैं और किसी आईएसआई एजेंट सी कम। वैसे हो भी सकता है क्योंकि सीक्रेट एजेंट तो कोई भी हो सकता है।
बाद में फिल्म क्यूबा पहुंचती है। जहां अपनी-अपनी गुप्तचर एजेंसियों को धता बता, अपने प्यार के पर फैलाए जोया-टाइगर चले आते हैं। पहले हिंदी फिल्मों में यूं क्यूबा नहीं आया गया है। संदर्भ के लिहाज से (दोनों किरदारों का दुनिया के खूबसूरत टूरिस्ट स्पॉट पर यूं भटकना) फिल्म यहां एंजलीना जॉली की ‘सॉल्ट’ और उनकी-जॉनी डेप की ‘द टूरिस्ट’ जैसी भी लगती है। पर खूबसूरत लोकेशन पर जाने से काम नहीं चलता। हवाना, क्यूबा जाने को एयरपोर्ट पर भेस बदलकर खड़ी कटरीना की नाक और सलमान की दाढ़ी खूब नकली लगती है, समझ नहीं आता कि उन्होंने इस रफ मेकअप को फाइनल प्रिंट में स्वीकार कैसे कर लिया। वह मेकअप लरत-लरज गिरता लगता है।

इस साल मार्च में ‘एजेंट विनोद’ आई थी। हॉलीवुड की बॉन्ड और जेसन बॉर्न फिल्मों के जवाब में। अब आई है ‘एक था टाइगर’। हालांकि इस लीग से तो ये फिल्म तुरंत बाहर हो जाती है, पर भारत के कस्बाई दर्शकों के लिए ठीक-ठाक मनोरंजन लेकर आती है। हिंदी सिनेमा में सीधे तौर पर फिल्म का कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहेगा। न ही प्रस्तुति और कहानी कहने के ढंग में कोई अनूठापन है। बस ये एक फिल्म है, सलमान खान की फिल्म, कटरीना कैफ की फिल्म, जिन्हें देखनी थी थियेटर में देखी, जिन्हें फिर देखनी है जल्दी ही टीवी प्रीमियर में देख पाएंगे। इससे ज्यादा बात करने को कबीर खान की ‘एक था टाइगर’ में कुछ है नहीं।
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गजेंद्र सिंह भाटी